दामादों की ससुराल में बड़ी आवाभगत
हुआ करती थी उस जमाने में। पहली बार पत्नी को लेने रात भर की बस यात्रा करके जब ससुराल पहुंचे तो भूख लग आई थी। ससुराल
पहुंचते ही नाश्ता परोसा गया। भूख लगी थी और साथ ही सास और सालियों का मनुहार तो
कुछ ज्यादा ही खा लिया।
थोड़ी देर आराम करके जैसे ही
नहा कर तैयार हुए ही थे तो लंच परोस दिया गया। न जाने कितने पकवान बनाए थे, मानो
दामाद नहीं, कोई सूमो पहलवान पधारे हों भोजन करने। क्या बताते कि थोड़ा मोटे जरूर
हैं मगर हर मोटा आदमी भोजन दबा कर ही करता हो यह भी तो जरूरी नहीं। भोजन की थाली सजा दी गई और हम खाना खाने लगे। एक
खाने वाला और उसे चारों और से घेरे आठ लोग परोसने वाले। पेट भर गया लेकिन कभी सासू माँ जिद कर एक पूड़ी और खिलाए दे रही
हैं और वो अभी खत्म भी नहीं हुई कि साली एक और थाली में डाल गई। दोनों हाथ से थाली
छेक कर मना कर भी रहे हैं मगर साईड से पूड़ी सरका दे रहे हैं थाली में। हालत ये हो
गई कि खाना पेट में ही नहीं बल्कि गले तक भर गया। तब तक देखा कि बड़ी साली दो गुलाब
जामुन कटोरे में सजा कर ले आई कि बिना मीठे के भी खाना होता है। तब तक दूसरी साली
रबड़ी ले आई कि गुलाब जामुन बिना रबड़ी के भी भला कौन खाता है। पहली बार ससुराल
पधारे थे तो क्या करते- वो भी खाना ही पड़ा।
देश के हालात ऐसे हैं कि न
जाने कितने लोगों को दो जून का खाना नसीब नहीं और दामाद जी को 6 बार का खाना एक ही
बार में खिलवा दिया। किसी तरह उठ कर कमरे में आए तो बिस्तर पर लेटते ही भगवान से
एक ही प्रार्थना करते रहे कि आज अगर जिंदा बच गए तो आगे से कभी ससुराल नहीं आएंगे।
शाम की बस से वापस निकलना था तो शाम का नाश्ता करने और साथ ले जाने के लिए खाना
बांधने की तैयारियां सुनाई पड़ने लगी। बेहोशी की हालत में किसी तरह निकल पाए वापसी
के लिए। बस स्टैंड पर एक भिखारी दिखा। मन तो किया कि सारा बांध के दिया खाना उसको
पकड़ा दें मगर पत्नी साथ थी इसलिए नहीं दिए।
अभी बस चली ही थी कि पत्नी
कहने लगी कि खाना निकालूँ? किसी तरह उसको समझाया कि बस यात्रा में जी मितलाता है।
कुछ भी खा लूँगा तो उलटी होने लगती है। आते वक्त तो बस एक केला ही खाया था और उलटी
हो गई थी।
वो दिन है और आज का दिन। फिर
न तो यात्रा में इन्होंने खाने को पूछा और न ही कभी कुछ खाने को दिया। हर बार तो
ससुराल से यात्रा शुरू नहीं होती है। अतः भूख तो लगेगी ही भले ही आप यात्रा में
हों। अब हालत ये हैं कि जब कभी कहीं बस रुकी तो धीरे से उतर कर समोसा पकोड़ी खा आते
हैं और जब बस में लौट कर आते हैं तो इनको अकेले पूड़ी सब्जी खाते देख कर उस रात को
याद करते हैं जब पहली बार इनको ससुराल से ले कर निकले थे।
आज बड़े दिनों बाद ये घटना ऐसे याद आई
क्यूंकि आज नया साल है। बधाइयों और शुभकामनाओं की सुनामी आई हुई है। फेसबुक भरा हुआ है बधाई और शुभकामनाओं से। जो फेसबुक पर
नहीं दे पाए वो ट्विटर पर बधाई परोसा दे रहा है। थोड़ा और करीबी व्हाट्सएप पर परोस जा
रहा है तो कोई टेक्स्ट मैसेज से। एक अकेले हम और शुभकामना देने वाले इत्ते सारे – जबाब
दे पाना भी संभव नहीं। शाम हो गई है अभी भी कहीं न कहीं से चला ही आ रहा है शुभकामना
संदेश और मुझे सुनाई दे रहा है- बस एक पूड़ी और लीजिए हमारे कहने से।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे के रविवार 5 जनवरी,2025
के अंक में:
https://epaper.subahsavere.news/clip/15317
ब्लॉग पर पढ़ें:
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
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ps: आजकल दामाद लड़की भी हो सकती है- तस्वीर के हवाले से :)
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