शनिवार, दिसंबर 07, 2024

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

 

तिवारी जी ने कभी जीवन भर नौकरी नहीं की किन्तु नौकरी करने में क्या समस्या आती है, बॉस कैसे परेशान करते हैं, उनसे निपटने के लिए क्या हथकंडे अपनाना चाहिए आदि पर वह नियमित ही अपना ज्ञान पान के ठेले पर बैठे देते रहते थे। वैसे नौकरी तो घंसु ने भी कभी नहीं की लेकिन हाँ में हाँ मिलाने में सबसे आगे वही रहता कि तिवारी बिल्कुल सही कह रहे हैं। नौकरी न करने के मामले तिवारी जी और घंसु में मात्र इतना अंतर था कि तिवारी जी ने कभी खोजी ही नहीं और घंसु को कभी मिली नहीं। घंसु थे तो आठवीं पास लेकिन उसने इस कमी को अपनी महत्वाकांक्षाओं के आड़े नहीं आने दिया वो लगातार मैनेजर पद की नौकरी तलाशता रहा और मैनेजर पद की नौकरियां उससे मुंह चुराती रहीं।

तिवारी जी का जिंदगी के प्रति नजरिया एकदम साफ था। उनका शुरू से मानना रहा की अगर जीवन में आप अपना उद्देश्य जानते हैं तो सफलता जरूर हाथ लगेगी। तिवारी जी का उद्देश्य एकदम स्पष्ट था। जब तक पिता जी की नौकरी और फिर पेंशन आएगी तब तक तो उनके भरोसे चल लेंगे और जल्दी शादी करके पिता जी के गुजरने के पहले अपने बच्चों को इतना बड़ा कर लेंगे ताकी वो कमाने लगें तो बाकी की जिंदगी उनके भरोसे चल जाएगी।

इधर तिवारी जी अपना उद्देश्य साध रहे थे, उधर गालिब बैठे इनकी किस्मत लिख रहे थे:

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

तो हुआ यूं कि तयशुदा हिसाब से जीवन की गाड़ी चल रही थी। माता जी जल्द ही स्वर्ग सिधार गईं। तिवारी जी बारहवीं पास कर घर बैठ गए थे। पिता जी ने पड़ोस के गाँव में शादी तय कर दी। किन्तु शादी के ठीक दो माह पूर्व पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। किराये का मकान था, आय का कोई स्त्रोत था नहीं अतः विकल्पों के आभाव में तिवारी जी ने तय तारीख पर शादी कर ली और फिर ससुराल में ही रह गए। वैसे भी कहाँ जाते और क्या खाते?

ससुर साहब की एक ही बेटी है। सरकारी बाबू के पद से रिटायर हुए हैं तो पेंशन आती है और पुश्तैनी दो मंजिला मकान है। ऊपर परिवार रहता है और नीचे दो दुकानें किराये पर दे रखी हैं। बहुत नहीं तो भी ठीक ठाक तो घर चल ही जाता है। तिवारी जी पूर्व में तय योजना के अनुसार जल्द ही बच्चे कर लेना चाहते थे ताकि जब वो कमाने लगें तो थोड़ा इंडिपेंडेंट हो लें। बहुत निकले मिरे अरमान की तर्ज पर तिवारी जी प्रयासरत रहे लेकिन बच्चे हुए ही नहीं। उद्देश्यों ने आधार खो दिया और तिवारी जी पूर्णरूप से ससुराल आधारित ही हो गए।

अब उनकी एक नियमित दिनचर्या भी हो गई। सुबह चौक पर दुकाने खुलते ही तिवारी जी पान के ठेले की बैंच पर आ बैठते और वहाँ मौजूद अन्य खाली लोगों पर ज्ञान वर्षा करते रहते। इसी सत्संग का वरदान रहा कि घँसु जैसा चेला मिल गया। एक बार दोपहर में खाना खाने और फिर रात को दुकानें बंद हो जाने पर ही घर जाते। कभी नागा नहीं- अनुशासन के एकदम पक्के।

इस बीच कब ससुर जी गुजर गए, कब किराये के असल हकदार तिवारी जी हो गए। पति पत्नी दो लोग - घर खर्च के बाद भी कुछ रुपया बच ही जाता अतः जैसा की अधिक रुपयों के साथ होता है कि कुछ शौक जन्म ले बैठे। अब अक्सर रात में दुकाने बंद होने के बाद घंसु के साथ दो दो पैग लगा लेते तब घर आते। पीने की आदत ने एकाएक ज्ञान बांटने की प्रतिभा में चार चाँद लगा दिए।

कल आप पेंशन पर ज्ञान दे रहे थे और सरकार को उनके वाहियात नियमों के लताड़ रहे थे। उनके मित्र नेमा जी के साथ वो पेंशन कार्यालय गए थे, जहाँ प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भी नेमा जी अपने जीवित होने का प्रमाण पत्र जमा करा है थे। बड़े बाबू ने फाईल देखकर बताया कि आपकी फाईल पर पिछले वर्ष का जीवित होने प्रमाण पत्र नहीं है। या तो उसको जमा कराएं अन्यथा पिछले वर्ष की पेंशन मय ब्याज और पेनाल्टी के वापस ले ली जाएगी।

तिवारी जी मदद हेतु आगे बढ़े और उन्होंने बाबू को समझाया कि जब नेमा जी आज जिंदा होने का प्रमाण पत्र दे रहे हैं तो पिछले बरस भी तो जिंदा रहे ही होंगे। बाबू बस एक राग पकड़े बैठा रहा कि हम कैसे मान लें, कोई कागज तो है ही नहीं। काफी बहस के बाद यह तय पाया गया कि बैंक चलकर पुनः पिछले बरस का प्रमाण पत्र बनवा लेते हैं।

बैंक पहुंचे तो वहाँ भी वही सवाल कि हम कैसे मान लें कि आप पिछले बरस भी जिंदा थे? नेमा जी के लिए यह प्रमाणित करना असंभव सा होता जा रहा था कि वह पिछले बरस भी जिंदा थे। इस साल का तो पक्का है कि जिंदा हैं, प्रमाण पत्र लेमिनेट करा लिया है। कई परम्पराएं भले ही समाज के लिए भली न हों तो भी कभी कभी, जब आपका काम अटकता है तो जीवनदायनी सी बन कर आपको भवसागर पार करवा ही देती हैं। रिश्वतखोरी उन्हीं परंपराओं की पहली पायदान पर सदा से विराजती रही है।

किसी तरह ले देकर नेमा जी को पिछले बरस फिर से जिंदा किया गया, प्रमाण पत्र जारी हुआ। पेंशन की फाईल में नत्थी हुआ और तब जाकर जिंदगी में कॉन्टिन्यूटी आई वरना नेमा जी जीवन बीच में एक साल बिना जिंदा रहे ही गुजरता जाता।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसंबर ,२०२4 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/14837

 

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6 टिप्‍पणियां:

Sweta sinha ने कहा…

सच तो ये है कि जब तक रिश्वतखोरी ,भ्रष्टाचार है जीवित तो जीवित मृत व्यक्ति के भी जीवन प्रमाण बनना मुश्किल नहीं है।
सादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार १० दिसम्बर २०२४ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।

Digvijay Agrawal ने कहा…

व्वाहहहहहह
ग़ज़ब
सादर

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

लंबे अंतराल के बाद आप की पोस्ट ब्लॉग पर देख अच्छा लगा |

Anita ने कहा…

रोचक अंदाज

Bharti Das ने कहा…

वाह बहुत सुंदर सृजन

E-Guru _Rajeev_Nandan_Dwivedi ने कहा…

गालिब आपै के लिए तो कहे रहे कि अंदाज़े-बयां निराला है।