सोमवार, अप्रैल 08, 2019

वाह!! आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!!


यह उस आलेख का विस्तार है जो सन २००७ में लिखा था. माँ के गुजर जाने के पश्चात पहली बार पिता जी अकेले कनाडा आये हुए थे मेरे पास.
समय भी अजब शै है. जब हम चाहते हैं कि जल्दी से कट जाये तो ऐसा रुकता है कि पूछो मत और जब चाहें कि थमा रहे, तो ऐसा भगता है कि पकड़ ही नहीं आ पाता. बिल्कुल विद्रोही व्यक्तित्व है समय का.
कुछ दिन पहले दफ्तर से घर आने को निकला. उस रोज घर जरा जल्दी पहुँचना था. स्टेशन से ट्रेन छूटी और तुरन्त ही कुछ दूर चल कर रुक गई. सुना कि आगे तीन स्टेशन छोड़कर एग्लिंगटन स्टेशन पर किसी ने पहले की किसी ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली थी. पुलिस की जाँच पड़ताल जारी थी. वाकिया हुए पहले ही एक घंटे हो चुके थे, उम्मीद थी कि जल्द ही हरी झंडी मिलेगी और घंटी बजेगी ट्रेन चल देने की.
यात्रियों का समय काटे नहीं कट रहा था. मैने कुछ देर अखबार पलटाया. कुछ देर इधर उधर लोगों के चेहरे के हाव भाव पढ़ता रहा. कोई परेशान दिख रहा था, तो कोई मोबाईल पर बातचीत में मगन और कोई कसमसाया सा जागा हुआ सोया था. कुछ बातों में मशगुल थे और कुछ रेल्वे को गरिया रहे थे. अब कोई पटरी पर कूद गया तो रेल्वे क्या करे? मगर मानव तो मानव है, गल्ती थोपी और खुश हो लिये. हर चीज के लिए सरकार को कोसने का यही तो आनन्द है.
एक सज्जन अपने मित्र से बड़े मजाकिया अंदाज में बोले कि इनको भी रश ऑवर में ही कूदना होता है. १२ या १ बजे दिन में कूद लेते तो अब तक ट्रेक क्लियर हो जाता. कितना असंवेदनशीन बना दिया है वक्त की रफ्तार ने मानव को. एक महिला का बेटा डे-केयर में था, उसे उसके लिये चिंता थी. ऐसा लगा कि जैसे मैं ही बस फुरसत में हूँ.
घर फोन कर दिया था और इत्मिनान से बैठा बाकियों की परेशानियों का अवलोकन करने में सच्चे भारतीय की तरह ऐसा खो गया कि खुद की परेशानी हावी ही नहीं हो पाई. सबको परेशान देखकर प्रसन्नाचित्त मैं यह भी भूल गया कि खुद को घर जल्दी पहुँचना है. अच्छा ही हुआ, याद भी रहता तो तकलीफ ही देता. पहुँचता तो तभी जब ट्रेन पहुँचाती.
लगा कि समय आगे बढ़ ही नहीं रहा. तीन घंटे का इन्तजार लोगों के लिये मानो तीन साल की तरह कटा, तब कहीं ट्रेन चली. वाकई, इन्तजार की घड़ियां अक्सर बहुत मुश्किल से कटती हैं. शायद इसीलिए विकास और अच्छे दिन का इन्तजार में लोग बौखला गये हैं.
वहीं दूसरी तरफ, पिता जी भारत से मई में आ गये थे चार माह के लिये. हम भी निश्चिंत थे कि अब लम्बे समय तक हमारे साथ रहेंगे. रोज शाम को साथ बैठ कर चाय पीना, टीवी देखना, जमाने की बातें, अपने आलेखों और कविताओं को सुना सुना कर उनसे स्नेह भरी वाहवाही लूटना.
यही रुटीन हो गया था. हर लेख और कविता पर उनकी तारीफ सुनना मेरी आदत सी बन गये इतने कम दिनों में ही. पत्नी का रुटीन भी उन्हीं के इर्द गिर्द घूमने लगा. अब पापा का चाय का समय हो गया, अब दवा देना है, अब नाश्ता तो अब खाना. सब कुछ उसी रंग में रंग गया. सब बड़े मजे से चलता रहा और इस बार तो समय को जैसे पंख लग गये. चार महीने बीत भी गये. अभी कल ही तो आये थे ऐसा लगा. कितना तेज समय बीता, समझ ही नहीं पाये.
उन्हें हवाई जहाज पर बैठा कर लौटे थे. घर तो जैसे पूरा खाली खाली लग रहा था. दादा जी के जाने से हमरी पालतू तीनों चिड़िया भी उदास थीं, जो शाम को उनको अपनी चीं चीं से हैरान कर डालती थीं.  आज वो भी चीं चीं नहीं कर रहीं. पत्नी चुपचाप अनमनी सी बैठी टीवी देख रही थी, जैसे अब उसके पास कोई काम करने को ही नहीं बचा.
मन भी बहुत भारी था, बस तसल्ली इतनी सी थी कि कुछ दिनों में मैं खुद भारत जाऊँगा तो फिर से साथ हो जायेगा कुछ माह को ही सही.
इधर साल बीतते गये और कल समचार आया कि वे अब इस दुनिया में नहीं रहे. मन विचलित हो गया. दो दिन से चुपचाप बैठा अपनी खिड़की से झांकता बचपन से लेकर आजतक की कितनी ही यादों के संसार में खोया रहा. कभी मुस्कराता तो कभी आसूँ बहाता. कभी बस साक्षी भाव से उन्हें अहसासता. बार बार लगता कि काश! फिर से वो पल जी पाता तो ऐसा नहीं ऐसा करता!!
अभी कुछ देर पहले सीढ़ी पर छड़ी की ठक ठक सुनाई दी, लगा कि पापा उतर कर फेमली रुम में आ रहे हैं और आकर मुझसे कहने वाले हैं कि सुनाओ, आज क्या लिखा है?
मैं आपकी स्नेह भरी वाहवाही लूटने की चाहत में इसी २००७ के आलेख को जल्दी जल्दी बदलने लगता हूँ ताकि लगे कि आज ही लिखा है.
मगर आप नहीं आये. ये बस एक वहम था. आप अब कभी नहीं आओगे.
किन्तु मैं लिखता रहूँगा आपके इन्तजार में. शायद कहीं दूर से कभी आपकी आवाज सुनाई दे कि वाह!! आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे में रविवार अप्रेल ८, २०१९ को:



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5 टिप्‍पणियां:

Gyan Vigyan Sarita ने कहा…

💐💐💐
I am one of those many who had the benefit of receiving love, affection and care of your Late Parents and the whole family.

We remain with you in such heavy monmome and shall renain ever to wait for your articles and poems

Joshi Famiky

Vaanbhatt ने कहा…

उनका जीवंत व्यक्तित्व मेरे मानस पटल पर अंकित रहेगा। पहली बार मिलना हुआ तो संस्कारन पैर छूने का प्रयास किया, तो हाथ पकड़ लिया "मुझे बुजुर्ग समझते हो क्या।" उसके बाद जब भी उनका कानपुर आना हुआ मेरी मुलाकात होती रही। उनके विट्स का मैं कायल बन गया। उनकी वचनवक्रता आपकी लेखनी में स्पष्ट दिखती है। वो आपकी लेखनी के माध्यम से हमें मिलती रहेगी। विनम्र श्रद्धांजलि। 💐💐💐

HARSHVARDHAN ने कहा…

आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति 125वां जन्म दिवस - घनश्याम दास बिड़ला और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान जरूर बढ़ाएँ। सादर ... अभिनन्दन।।

Anita ने कहा…

मार्मिक संस्मरण !

Meena sharma ने कहा…

विनम्र श्रद्धांजलि।