तिवारी जी जब से कुम्भ से लौटे हैं तब से बस अध्यात्म की ही बातें करते हैं। कई ज्ञानी जो उनकी बातें सुनते हैं वो पीठ पीछे यह भी कहते सुने जाते हैं कि तिवारी जी को अध्यात्म और धर्म का मूल अंतर ही नहीं पता है। सब घाल मेल करके ऐसी बातें सुनाते हैं कि न तो दाल दाल रह जाये और न ही चावल चावल और उसे खिचड़ी मान भी लो तो बिल्कुल बेस्वाद। मगर उनकी उम्र का लिहाज करके कोइ सामने कुछ न बोलता अतः उनके आध्यात्मिक प्रवचनों की शृंखला चलती चली जाती।
वैसे भी तिवारी जी का इस बात में अटूट विश्वास है कि ज्ञान बांटने के लिए होता है और जितना बांटोगे उतना ही बढ़ेगा। इस हेतु बस दो चीजों की आवश्यकता होती है - एक तो मुंह जो कि उनके पास है और दूसरा दो सुनने वाले के कान जो घंसू हर क्षण भक्ति भाव से तिवारी जी की हर बात सुनने के लिए खुला रखता है। उसके ज्ञान का एक मात्र स्त्रोत तिवारी जी ही थे, बाकी तो कोई पास भी न फटकने देता था तो ज्ञान क्या देता।
कुम्भ से लौटने के बाद ऐसा नहीं कि तिवारी जी का मूल आचरण बदल गया हो। बस आजकल जबसे अध्यात्ममय हुए हैं तबसे दोपहर का भोजन करने जाते वक्त सबसे कह कर निकलते हैं कि बस, प्रसाद ग्रहण करके आता हूँ। रात की शराब भी बदस्तूर जारी है मगर अब शराब नहीं पीते बल्कि सुरापान करते हैं। सुरापान के बाद तो अध्यात्म संबधित प्रवचन एक नई ऊंचाई प्राप्त कर लेते हैं।
तिवारी जी देर रात गए घंसू और उसके द्वारा सुरा के इंतजाम हेतु घेर कर लाए गए दो अन्य भक्तों को ज्ञान दे रहे थे। उन्होंने कहा कि जिस तरह बहती नदी में जब आप डुबकी लगाते हैं तो जिस पानी में आप डुबकी लगाते हैं वो अलग पानी होता है और जिस में से आप डुबकी लगाकर निकलते हो वो अलग पानी होता है। नदी निरंतर प्रवाहमान रहती है। हम चाहे उसे गंगा कहें या नर्मदा – नाम भले जो रख लें मगर पानी निरंतर बह रहा है और स्वरूप निरंतर बदल रहा है।
ठीक वैसे ही हम इंसान हैं। जो हम कल थे वो आज नहीं हैं। नाम भले ही मेरा तिवारी है और इसका घंसू – लेकिन जो मैं कल था वो आज नहीं हूँ – मेरा दिमाग, मेरा अंग प्रत्यंग निरंतर प्रति-क्षण बदल रहा है। कल मैं कोई और था और आज कोई और। परिवर्तन भले आज और कल में न दिखे मगर परिवर्तन हो रहा है। अगर आज से दस साल पहले की मेरी तस्वीर देखो तो वो तो कोई और ही आदमी था। उसका ज्ञान, व्यवहार और रहन सहन सब कुछ अलग था। और वैसे ही आज से दस साल बाद होगा। तुम लंबे अंतराल में आप भेद कर पाते हो किन्तु यह प्रतिक्षण हो रहा है। पुराना स्वरूप खत्म - नया स्वरूप उत्पन्न।
आज के तकनीकी युग में जिस तरह फाईलों में छोटे छोटे बदलाव को एक नए वर्जन का नाम देते हैं जैसे प्रोजेक्ट अ वर्जन 1, फिर कुछ बदला प्रोजेक्ट अ वर्जन 2, फिर कुछ बदला प्रोजेक्ट अ वर्जन 3. याने कि सब फाइल अलग अलग हैं। वैसे ही मैं खुद परसों तिवारी वर्जन 1 था आज तिवारी वर्जन 3 हूँ।
कल जो तुम थे वो कल थे- वो कोई और था और आज जो तुम हो और वो कोई और है। तुम अपनी सुविधा के लिए उसे उसी नाम से पुकारे जा रहे हो।
जो कभी डाकू अंगुलीमाल था वो बाद में संत हो लिया। डाकू खत्म हो गया और संत का जन्म हो गया।
घंसू को तो मानो अथाह ज्ञान प्राप्त हो गया हो। वो तिवारी जी के चरणों में गिर पड़ा। कल शहर का एक साहूकार जिससे घंसू ने काफी उधार ले रखा है वो वसूली के लिए आने वाला है। घंसू उसको यही ज्ञान देगा कि जिसे तुमने उधार दिया था वो घंसू वर्जन 1 था वो अब खत्म हो चुका है और आज जिससे तुम मिल रहे हो वो घंसू वर्जन 2 है- उसे उस घंसू से कुछ लेना देना नहीं है।
सब नेता भी तो वादा करके यही सोचते होंगे कि जिसने वादा किया था वो कोई और था और आज जो वोट मांग रहा है वो कोई और।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के सोमवार मार्च 23, 2025
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