शनिवार, फ़रवरी 27, 2021

चाहे जो हो जाए – गांधीवाद पर आंच न आए।

 


तिवारी जी एक अत्यन्त जागरूक नागरिक हुआ करते थे। जागरूकता का चरम ऐसा कि सरकार अगर पटरी से जरा भी दायें बायें हुई और तिवारी जी आंदोलन पर। हर आंदोलन का अपना अपना अंदाज होता है जो कि उस आंदोलन के सूत्रधार पर निर्भर करता है। तिवारी जी के आंदोलनों का अंदाज ईंट से ईंट बजा देने वाला होता था। मजाल है कि तिवारीजी आंदोलन पर हों और सरकार का कोई भी मंत्री चैन से सो पाये। सोना तो दूर की बात है, बैठना भी मुश्किल हो जाता था।

सरकार की पुरजोर कोशिश होती कि अव्वल तो तिवारी जी आंदोलन पर बैठे ही न और अगर बैठ गए हैं तो जितना जल्दी हो सके, उनकी मांगें मान कर आंदोलन खत्म करवाया जा सके।

तब तक वह चूंकि सिर्फ अत्यन्त जागरूक नागरिक थे अतः उन्हें अपने गांधीवादी होने का गौरव भी था और गांधीवाद बचाए रखने का जज्बा भी। कई बार सरकारों ने आंदोलन न करने के लिए उन्हें रुपये, पद आदि के प्रलोभन भी देने की पेशकश भी की किन्तु हर बार उससे मामला बिगड़ा ही। सादा जीवन और उच्च विचार वो अपनाते भी थे और सिखलाते भी थे।

उनके कई चेले उन्हीं से सादा जीवन और उच्च विचार की शिक्षा लेकर आंदोलनों के राजमार्ग पर सरपट भागते हुए विधायक और सांसद हो गए।  सभी ने अपनी जमीन जायदाद, कोठियाँ, गाड़ियों और बैक बैलेंस आदि के किले को इतना मजबूत बना लिया है कि कोई बड़े से बड़ा सेंधिया भी उसमें सेंध लगा कर उनके गांधीवाद को हानि नहीं पहुंचा सकता। जैसे जैसे उन्हें गांधीवाद पर खतरे के बादल मंडराते दिखते वैसे वैसे वो अपने किले की सभी दीवारों को मजबूत करते चले जाते।

किन्तु तिवारी जी जागरूक नागरिक बने रहे। आंदोलनों की रफ्तार और अंदाज वैसे ही कायम रहा और ईंटों से ईंट बजती रहीं। तिवारी जी गांधीवाद ओढ़ते बिछाते रहे और चेले विधायक सांसद बनते रहे। तिवारी जी का मानना था कि जब तक देश में एक भी नागरिक भूखा सोएगा तब तक मैं सरकार को सोने नहीं दूंगा। तिवारी जी के लिए कहा जाता था कि गेंदबाजी तो कोई भी कर सकता है मगर तिवारी जी की तरह फिरकी फेकना सबके बस की बात नहीं। मंहगाई, बेरोजगारी, भूखमरी, स्वच्छता, बिजली पानी जैसे आम मुद्दों को भी ऐसे खास बनाकर आंदोलन किया करते जैसे ये आज आई एकदम नई समस्या है और इसके लिए मौजूदा सरकार जिम्मेदार है। न जाने कितनी सरकारें वो इन्हीं मुद्दों पर गिरवा चुके हैं।

कहते हैं हिमालय फतह करने के लिए भी एक बार में एक कदम ही बढ़ाना होता है। एक एक कर कदम बढ़ते रहे और वो दिन भी आया जब आंदोलनप्रेमी तिवारी जी की जागरूकता चरम सीमा पर पहुँच गई। बड़ी तादाद में विधायक और सांसद चेलों के संग सरकार में विराजमान हुए। गांधीवाद का सबसे बड़ा उपासक जब सत्ता में काबिज़  हुआ तो उसने गांधीवाद को सेंधियों से बचाने के इत्ता मजबूत किला बनाया कि उसकी कुछ दिवारें तो विदेशों तक जा पहुंची। स्वीटजरलैण्ड में सबसे ऊंची और गुप्त दीवार तानी गई।

अब तिवारी जी कहते पाये जाते है कि अच्छे लोग अच्छे इसीलिए कहलाते हैं क्यूँ कि बुरे लोग भी हैं समाज में। अमीर अमीर कहलाता ही इसलिए है क्यूँ कि कोई गरीब भी है। सुख का मजा ही क्या पता लगेगा अगर दुख न हों। इसलिए मंहगाई, बेरोजगारी, भूखमरी का रोना छोड़ इसे साक्षी भाव से देखो एवं स्वीकारो। हर सिक्के के दो पहलू होते हैं – उनको समझने की कोशिश करो।

पेट्रोल मंहगा हुआ है तो पैदल चलो, साईकल चलाओ और अपना स्वास्थ्य  बनाओ। स्वास्थ्य  अनमोल है। गैस मंहगी हुई है तो सब्जियां कच्ची खाओ – सलाद खाओ। पकाने से सब्जियों का नूट्रिशन खत्म होता है। अतः उत्तम भोजन करो और स्वस्थ जीवन जिओ। क्या हुआ अगर पेट्रोल और गैस महंगा हो गया? डॉक्टर और दवाई का जो खर्चा बचा आज और भविष्य में – उस को निहारो और खुश रहो। खुश रहने से भी स्वास्थ्य  मे इजाफा ही होता है।

तिवारी जी को लगता है कि देश भर में रसोई का कचरा उठाने वाली नगर निगम की सारी ट्रक बेच देना चाहिए और लोगों को कम्पोस्ट खाद आंगन में गड्ढा खोद कर इस कचरे से बनाना चाहिए। फिर इसी खाद का इस्तेमाल कर घर की बगिया में ऑर्गैनिक सब्जियां उगाओ और बिना पकाये कच्ची ही खाओ। सब्जी मंहगी होने का टंटा भी खत्म और स्वास्थ्य भी उत्तम।

सब उपाय बता कर तिवारी जी नगर निगम के सारे ट्रक बेचने में व्यस्त हो गए हैं। किला और बुलंद करना है। आखिर गांधीवाद को हर हाल में सेंधियों की सेंधबाजी से बचाना जो है।

चाहे जो हो जाए – गांधीवाद पर आंच न आए।

-समीर लाल ‘समीर’  

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार फरवरी 28, 2021 के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/58739659

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शनिवार, फ़रवरी 20, 2021

शायद फिर किसी आंदोलन की जरूरत नहीं पड़ेगी

 


आम जन हैं तो आम जन की तरह ही सुबह सुबह उठते ही फेसबुक खोल कर बैठ जाते हैँ। वो जमाने अब गुजरे जब मियां फाकता उड़ाया करते थे या लोग कहा करते थे कि 

समय बिताने के लिए, करना है कुछ काम,

शुरू करो अंताक्षरी, ले कर हरि का नाम!!

फेसबुक पर रोज का पहला काम कि अपनी आखिरी पोस्ट पर कितने लाइक आए और दूसरा वो जो फेसबुक मुस्तैदी से बताता है कि आज किस किस का जन्म दिन है। १०० -२०० मित्र थे तो हर एक दो दिन में एकाध का जन्म दिन होता था बस १ जनवरी और १ जुलाई को कुछ ज्यादा लोगों का। ५० पार लोगों में अधिकतर उस जमाने को याद कर सकते हैं जब मोहल्ले के चाचा बच्चों को स्कूल ले जाकर भर्ती करा देते थे। अब सब बच्चों के जन्म दिन कहां तक याद रखें तो स्कूल खुलने के दिन से ५ साल घटा कर उम्र लिखा देते थे।  १ जुलाई को हिन्दी स्कूल खुलते थे तो ऐसे सब बच्चों के जन्म दिन १ जुलाई। अंग्रेजी स्कूल का सत्र १ जनवरी से शुरू होता था अतः वहां १ जनवरी वालों की बहुतायत होती है। आज यह बात आश्चर्यजनक लग सकती है मगर आज आश्चर्य तो इस बात पर भी होता है कि उस जमाने में कुछ नेता सच में ईमानदार भी होते थे। अब तो सोच कर भी विश्वास नहीं होता।

खैर, फेस बुक पर १०० -२०० मित्र वाली बात भी १० साल से ज्यादा पहले की बात है। अब जब आंकड़ा अधिकतम पर पहुँच कर रुक गया है तो इन ५००० मित्रों में से ९०% प्रतिशत का तो पता ही तब चलता है, जब फेसबुक उनका जन्म दिन बताता है। सुबह सुबह उठ कर लाइक गिनने की आदत तो अब खैर नहीं रही। जैसे बचपन में रात में कंचे गिन कर सोते थे कि दिन भर में कितना जीते और फिर सुबह उठकर गिनते थे कि रात में किसी ने चुरा तो नहीं लिये। कभी चोरी नहीं हुए। बड़े हो गए तो अब कंचों की जगह रुपयों ने ले ली है। सुबह उठकर फिर गिनना पड़ता है। हालांकि चौकीदार रखा हुआ है, मगर हर सुबह कुछ रुपये कम ही निकलते हैं। चौकीदार से पूछो तो वो फूट फूट कर रोने लगता है, आंसू बहाने लगता है। कहता है कि अगर मैं चोर साबित हो जाऊं तो बीच चौराहे पर फांसी दे देना। आंसू सहानभूति बटोर लेते हैं और हम अपनी किस्मत को ही चोर मान कर रजाई ओढ़े कुड़कुड़ाते रहते हैं। रात भर चौकीदार आवाज लगाता रहता है -जागते रहो!! जागते रहो!! और हम सोचते रहते हैँ कि अगर हमें ही जागते रहना होता तो फिर भला तुमको रखने का अभिप्राय क्या है?   

खैर, जन्म दिन की बधाई देने के लिए जब वो सूची सुबह सुबह देखते हैं, तब पता चलता है कि अरे!! यह भी हमारे मित्र हैं? अगर जन्म दिन न आता तो हम जान ही न पाते कि यह हमारे मित्र हैं। फिर उनके मैसेज बॉक्स में बधाई टाइप करते हुए पता चलता है कि पिछले पाँच साल से बंदे को बिना नागा बधाई दे रहे हैं और वो हैं कि कभी धन्यवाद कहना भी जरूरी न समझा। एकदम से गुस्सा आ जाता है।  अपने आपको सांसद समझता है क्या? सिर्फ चुनाव आने पर दिखना है बाकी तो पता भी न चले कि ये हमारे सांसद हैं।

अच्छा है जन्म दिन हर साल आता है। अब हम जागरूक हो गए हैं। हर दिन जिन निष्क्रिय मित्रों का  जन्म दिन दिखाता है, उन्हें जन्म दिन के तोहफे में अनफ्रेंड कर उन्हें मित्रता के बोझ से मुक्त कर देते हैं और जो नए सक्रिय मित्र कतार में हैं, उन्हें अपनी मित्र मंडली में शामिल कर लेते हैं। इस जागरूकता के चलते धीरे धीरे ही सही, सक्रिय मन माफिक मित्र शामिल होते जा रहे हैं,वरना तो ये निष्क्रिय जाने कब से जगह घेरे बैठे थे।

सोचता हूँ कि अगर यही जागरूकता आमजन में भी आ गई तो वो दिन दूर नहीं, जब सिर्फ चुनाव के वक्त दिखने वाले निष्क्रिय नेताओं को जनता अनफ्रेंड करने में कतई न हिचकिचाएगी और मनमाफिक नेता ही चुनाव जीत कर जाएगा। सक्रियता ही नेता बने रहने का पैमाना होगी।

इन्तजार है इस जागरूकता आंदोलन का- फिर शायद किसी अन्य आंदोलन की जरूरत ही न पड़े।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार फरवरी २१, २०२१ के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/58582317

 

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रविवार, फ़रवरी 14, 2021

इस दुनिया में सोने के हिरन नहीं होते

 


जैसे बचपन में रेल गाड़ी के साथ साथ चाँद भागा करता था और रेल रुकी और चाँद भी थम जाता था। चाँद को भागता देखने के लिए रेल का भागना जरूरी है। जो इस बात को समझता है वो जानता है कि देश के विकास को देखना है तो खुद का विकसित होते रहना आवश्यक है। खुद का विकास रुका तो देश का विकास रुका ही नजर आयेगा। हम आप सब मिलकर ही तो देश होते हैँ। खुद का विकास रोक कर रोज पान की दुकान पर वैसे किस विकास का इन्तजार कर रहे हो और खुद को कोसने की बजाय सरकार को कोस रहे हो।

नेताओं को देखो कितने विकसित होते जा रहे हैं दिन प्रति दिन, इसलिए उन्हें विकास भी दिखता है। जब चुन कर गए थे तो एक बंगला था, आज न जाने कितने प्लाट, मॉल, रुपयों के वाटर फॉल हैं। उनसे शिकायत करोगे कि विकास नहीं हो रहा तो वो नाराज ही होंगे न! देश का विकास देखने के लिए आत्म निर्भर बनो। खुद का विकास करो।

अपने घर में और घर के आस पास कूड़ा फैला कर रखोगे तो देश कैसे स्वच्छ होगा चाहे लाख स्वच्छता अभियान चलता रहे। स्मार्ट सिटी भी हमारी तुम्हारी स्मार्टनेस से ही बनती है। खुद ढपोरशंख बने स्मार्ट सिटी को तलाशने वालों के वही हाथ लगता है जो तुम्हें हाथ लग रहा है।

कंप्यूटर की दुनिया में एक जुमला है ‘गीगो’ – GIGO – ‘गारबेज इन गारबेज आउट’  याने कि कचरा डालोगे तो कचरा ही निकलेगा। ये बात न सिर्फ आपकी सोच पर लागू होती बल्कि इसका जीता जागता उदाहरण देखना हो तो अपने चुनी हुई सरकारें ही देख लो – कचरा चुन कर भेजोगे और आशा करोगे कि वो सोना उगलेंगे तो बौड़म कौन कहलाया- तुम कि जिनको तुमने चुन कर भेजा है?

वैसे जिसे भी चुनो उसको रोल मॉडल बना लो तो अजब सा सुकून मिलता है वरना ठगे से होने का अहसास होता है। ९० फसीदी जनता इसी चक्कर में मुंह बाये बैठी है। यहाँ रोल मॉडल का भक्त हो जाना भी जरूरी है। भक्ति भाव हार्ड वर्क जैसा ही है, जिसका कोई आल्टर्नेट नहीं है। जैसे कि एक थे जो गरीबी को मानसिक अवस्था मानते थे और एक हैँ कि पकोड़े तलने को रोजगार मानते हैँ। दोनों का निचोड़ गीगो ही है मगर काँटों को दरकिनार कर गुलाब तोड़ लाना या कीचड़ से दामन बचा कर न सिर्फ कमल तोड़ लाना बल्कि उसकी डंठल से कमलगट्टे की सब्जी बना कर सुस्वादु भोजन उदरस्थ कर संतुष्ट हो लेना भी इसी मान्यता को प्रमाणित करना है।

सूरज को शीशे में कैद कर उसकी जगमग से किसी की आखों को जगमग कर उसे किसी तिलस्म में गुमा देना ही राजनीति का आधार है। यही राजनीति का मूल मंत्र है। हमारे सभी नेता ऐसा ही आईना थामे हमें दिगभ्रमित करने की महारत हासिल किये हुए हैँ और हम हैं कि उन्हें अपना रहनुमा मानकर भक्तिभाव में लीन सोचते हैं कि वो हमें राह दिखा रहे हैं। चौंधियाई आंखों से दिखते मंजर में सरकार में छिपे मक्कार भी परोपकार करते नजर आते हैँ। इससे बेहतर और मुफ़ीद बात क्या हो सकती है सत्ता में काबिज लोगों के लिए।

काश!! कोई ऐसी क्रिस्टल बॉल बने जो आमजन को उस आईने का सच बताए जो हर नेता अपने हाथ में थामें उनकी आँखों को चौंधिया रहा है। यूवी रे वाले चश्मे तो बाजार का वैसा ही भ्रम है जैसे कि गोरा बनाने वाली बाजार में बिकती क्रीम। हम से बेहतर इसे कौन जान पाएगा? अब तो कन्हैया लाल बाजपेई की निम्न पंक्तियां जीवन का सूत्र बन गई है:

आधा जीवन जब बीत गया, बनवासी सा गाते रोते
तब पता चला इस दुनियां में, सोने के हिरन नहीं होते।

काश!! आमजन भी इस सत्य को जितना जल्दी पहचान ले – उतना बेहतर!!    

मगर आमजन का क्या है- इतना उदार है कि सीटी बजाने को ओंठ गोलियाता है मगर निकलती बस हवा है वो दोष ठंड को मढ़ देता है। ठंड भी सोचती होगी कि तेरी सीटी न बजने में मेरा क्या दोष! नाच न आवे आँगन टेढ़ा!!

हम वही तो हैँ जो सड़क की टूट फूट का जिम्मेदार बरसात को मानने के आदी हैँ।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के सोमवार फरवरी १५, २०२१  के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/58444040

 

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शनिवार, फ़रवरी 06, 2021

काश! हर मौन साधक बुद्ध बन जाता!!

 


तिवारी जी सुबह से पान की दुकान पर बैठे बार बार थूक रहे थे। पूछने पर पता चला कि बहुत गुस्से में हैं और गुस्सा थूक रहे हैं। वह इस मामले में एकदम आत्म निर्भर हैं। खुद ही मसला खोजते हैं, खुद ही गुस्सा हो जाते हैं और फिर खुद ही गुस्सा थूक कर शांत भी हो जाते हैं। उनका मानना है कि पान खाकर यूं भी थूकना तो है ही, फिर क्यूँ न साथ गुस्सा भी थूक दिया जाए।

गुस्से का कारण पूछने पर वो चुप्पी साध गए। ऐसा नहीं कि तिवारी जी को चुप रहना पसंद हो। वह तो बहुत बोलते हैं और कई बार तो क्या अक्सर ही इतना बोलते हैं कि बोलते बोलते पता ही नहीं चलता कि तिवारी जी बोल रहे हैं या मुंगेरीलाल के हसीन सपने का एपिसोड चल रहा है। बोलने की प्रेक्टिस ऐसी कि श्रोता सामने न भी हो तो भी रेडियो पर ही बोल डालते हैं उसी त्वरा के साथ।

रेडियो पर बोलने वालों को मैंने सदा ही अचरज भरी निगाहों से देखा है। गाना सुनवाना या समाचार पढ़ना तो फिर भी एक बार को समझ में आ जाता है मगर टीवी के रहते रेडियो से बात कहना? यह समझ के परे है। आज जब घर घर टीवी है और हर टीवी दिखाने वाला अपने घर का है तो भी रेडियो पर अपनी बात कहना कभी कभी संशय की स्थिति पैदा करता है? घंसु का सोचना है कि कई बार तिवारी जी दुख जताते हुए आँख से मुस्करा रहे होते हैं तो रेडियो ही सुरक्षा कवच बनता है।

बोलने के इतने शौकीन होने के बावजूद भी, तिवारी जी हर उस मौके पर चुप्पी साध लेते जब उन्हें वाकई बोलना चाहिए। पान की दुकान पर जब जब भी लोगों को उम्मीद बंधी कि आज तिवारी जी बोलें तो शायद समस्या का समाधान मिले, तब तब तिवारी जी पान दबाए चुप बैठे रहे। अहम मुद्दों पर उनकी मौन साधना देख कर लगता है कि इतनी लंबी साधना के बाद जब कभी वह बोलेंगे तो शायद बुद्ध वचन झरेंगे लेकिन हर मौन साधना तोड़ने के साथ साथ उन्होंने बुद्ध वाणी का सपना भी तोड़ा है। ढाक के तीन पात कहावत को हमेशा चरितार्थ किया है।

आज जब गुस्सा थूकने के बाद उन्होंने मुंह खोला तो मुझे लगा कि करोना राहत पर कुछ बोलेंगे। मगर वो कहने लगे, अब जमाना पहले वाला नहीं रहा। आजकल के तरीके बदल गए हैं। हम जब नगर निगम के सामने आंदोलन किया करते थे तो सरकारें थर्राती थीं। आंदोलन पर जाने के पहले घर से कंकड़ उछाल कर चलते थे कि अब लौटेंगे तभी जब या तो हमारी मांग मान ली जाए या सरकार खुद चली जाए। आमरण अनशन पर बैठा करते थे। आज यहां जिंदा बैठे हैं यही इस बात का गवाह है कि आजतक के सभी आमरण अनशन सफल रहे और कभी मरण तक जाने की नौबत ही नहीं आई।

बताते बताते भूख हड़तालों की दौरान होने वाली रजाई दावतों की गौरवशाली परंपरा के पर भी प्रकाश डाला। किस तरह रात में पंडाल के पीछे से खाने और पीने की सप्लाई सीधे रजाई के भीतर हो जाया करती थी। भरी गरमी में भी हड़ताली दोपहर में रजाई ओढ़े समोसे दबा लेता था। मान्यता यह थी कि चोरी करने में कोई बुराई नहीं है, चोरी करते पकड़े जाना बुरा है। खैर, यह मान्यता तो आज भी उतनी ही हरी है और यह हरियाली सदाबहार है जो कभी न जाने वाली है।

आगे कहने लगे कि एक बात का मलाल हमेशा रहेगा कि हमारे समय ट्विटर नहीं था वरना विदेशों में अपनी पहचान भी कम न थी। हमारे पड़ोसी शर्मा जी लड़की अमरीका में ब्याही है, और कुछ नहीं तो वो ही समर्थन में ट्वीट कर देती। जिस बात को मनवाने या सरकार को गिरवाने में जो 6 -6 महीने लगा करते थे, वो काम चार ट्वीट में दो महीने में ही हो लेता।

खैर, नया जमाना है, नया तरीका है तो मांगे मनवाना और मांगे न मानना भी नया ही होगा। बाड़ देख ली, कील की पैदावार देख ली। अब देखना है कि फसल कौन सी और कब कटती है?

-समीर लाल ‘समीर’

 

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार फरवरी ०७, २०२१ के अंक में:

http://epaper.subahsavere.news/c/58262690

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