शनिवार, दिसंबर 21, 2024

जब बात दिल से लगा ली तब ही बन पाए गुरु

 

तिवारी जी आज त्रिपाठी जी का किस्सा सुना रहे थे।

ये त्रिपाठी  हमारे साथ अपनी जवानी के दिनों में यहीं पान के ठेले पर दिन दिन भर बैठा रहता था। न कोई काम न कोई काज बस सुबह से चला आता और रात को जब तक हम न लौट जाएं वो टस से मस न होता। कई बार उसे समझाया कि कोई काम धंधा खोल ले। हमारा तो चलो फिर भी किराया आता है उससे काम चल जाता है मगर तुम कब तक आश्रित बने रहोगे दूसरों पर?

त्रिपाठी  ने बात दिल से लगा ली और उसने तालाब के पास सरकारी जमीन पर एक चाय का ठेला लगा लिया। लोग तालाब की तरफ स्नान करने जाते या जानवर नहलाने, वो ही त्रिपाठी  से कभी कभार चाय खरीद लेते और कुछ पैसा आ जाता। एक बार दो पुलिस वाले भी तालाब में स्नान करने आए तो वो भी चाय पीने बैठ गए। चलते समय जब त्रिपाठी  ने पैसे मांगे तो पैसे के बदले दो डंडे और उसपर से धमकी अलग कि आगे से कभी पैसे मांगे तो ठेला फिंकवा देंगे। खैर, समय के साथ साथ वो चाय के साथ एक डिब्बे में लड्डू भी रखने लगा। वो भी कुछ कुछ बिकने लगे।

पैसे का स्वभाव है कि जब आने लगता है तो और आने की लालच भी साथ ले आता है। त्रिपाठी  भी रास्ता खोज रहे थे कि कैसे और पैसा आए? एक दिन उसी डिब्बे में से दो लड्डू लेकर शहर के जागृत बजरंग बली के मंदिर पर जाकर उसे चढ़ा आए कि हे हनुमत, आशीर्वाद दो ताकि और पैसा आए। दर्शन लेकर बाहर निकल ही रहे थे कि प्रसाद वाले की दुकान पर नजर पड़ी। लोग लाइन लगाकर प्रसाद में चढ़ाने के लिए लड्डू खरीद रहे थे। बस!!! त्रिपाठी  को लगा कि बजरंग बली ने उसकी सुन ली।

तिवारी जी बताने लगे कि त्रिपाठी  बचपन से ही पहेली बाज था और हमेशा पूछता कि बताओ पहले अण्डा आया या मुर्गी। जबाब तो खैर क्या ही मिलता मगर आज वो पहेली उनको रास्ता दिखा गई।

पहले मंदिर आया या प्रसाद की दुकान? बस!! फिर क्या था आते वक्त कुछ जरूरी खरीददारी करते हुए अपने ठेले पर लौट आए। ठेला भी अब ठेला नहीं गुमटीनुमा दुकान हो गई थी, ऊपर मोमिया की छत भी चार बांस के सहारे तनी थी। वो उस रात तालाब के किनारे ही रुक गए। आधी रात गए वहीं जमीन से ऊगी एक छोटी सी चट्टान को नहलाया धुलाया और खूब सिंदूर पोत कर फूल माला पहनाई और सुबह सुबह अगरबत्ती जला कर भागते हुए चौराहे पर आया और सब को बताया कि हनुमान जी प्रकट हुए हैं।

तिवारी जी बताने लगे कि आज भले ही त्रिपाठी  न हमको याद करे मगर तब हमने जानते समझते हुए भी उसकी बहुत मदद की थी हनुमान जी के प्रकट होने की बात को फैलाने में। लोग भाग भाग कर दर्शन को जाने लगे। त्रिपाठी  जी ने पहले से ही अपनी दुकान से दो लड्डू हनुमान जी पर चढ़ा रखे थे। उसका देखा देखी बाकी के दर्शनार्थी भी उनकी गुमटी से लड्डू खरीद कर चढ़ाने लगे।

देखते देखते चाय की गुमटी प्रसाद और पूजन सामग्री की दुकान हो गई। पैसा और आने लगा तो पैसे की चाह और बढ़ी और त्रिपाठी  जी ने ‘मंदिर यहीं बनाएंगे’ का बोर्ड लगा कर -मंदिर निर्माण हेतु दान पेटिका भी लगा दी।

दान आता रहा, एक कच्चे मंदिर का निर्माण भी हो गया। कुछ ही समय में दुकान पर एक रिश्तेदार को बैठा कर खुद मंदिर में पूजा पाठ कराने लगे। सरपंच का चुनाव था जिसमें यादव जी चुनाव लड़ रहे थे। उन के लिए जीत का हवन भी करा दिया त्रिपाठी  जी ने और जिसकी किसी को उम्मीद नहीं थी वो यादव जी इस हवन के प्रताप से चुनाव जीत गये।  हालांकि अंदर की बात यह थी कि गाँव वालों को यह कह कर भी डराया गया था कि किसी और को वोट डालोगे तो हनुमान जी का कहर तुम पर बरपेगा।

सरपंच के चुनाव जीतने की चर्चा जंगल में आग की तरह फैली। फिर तो विधायक क्या और मंत्री क्या- सभी हवन पूजन कराने आने लगे। आस पास की कई एकड़ की सरकारी जमीन को घेर कर आश्रम भी बना लिया गया। तालाब भी आश्रम का हिस्सा बना जिसे अब सिर्फ भक्त ही इस्तेमाल कर सकते थे पूजा अर्चना के लिए। त्रिपाठी  जी अब मुख्य महंत थे आश्रम के।   

गाड़ी घोड़ा और सारे तामझाम के साथ सरकार की तरफ से सिक्युरिटी भी तैनात करा दी गई थी, उसमे उन दोनों सिपाहियों की भी ड्यूटी लगी थी जिन्होंने कभी त्रिपाठी  जी को दो डंडे लगाए थे और आज वो ही त्रिपाठी  जी को सुबह शाम सलाम ठोक रहे हैं।

हालांकि नई भव्य मूर्ति के साथ मंदिर तो क्या पूरा आलीशान आश्रम तैयार हो गया है मगर उसी से थोड़ा हट कर प्रांगण में ही वो बोर्ड आज भी लगा है कि ‘मंदिर यहीं बनाएंगे’ और मंदिर निर्माण हेतु दान पेटिका पर तीर का निशान बना दिया गया है जिस पर लिखा है कि ‘कृपया मंदिर निर्माण हेतु दान मंदिर के भीतर दान पेटिका में करें।’ बजरंगबली की कृपा से दान का प्रवाह अनवरत जारी है.  

आज त्रिपाठी जी को विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त है।

चाय बेचने से सफर शुरू करके विश्व गुरु का दर्जा प्राप्त कर लेना भी सबके बस की बात नहीं होती है। बिरले ही ऐसे होते हैं।

-समीर लाल ‘समीर’   

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार 22 दिसंबर ,2024 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/15073

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शनिवार, दिसंबर 14, 2024

अभी तो पहुना दिल्ली दूर खड़ी है

 

दिसंबर का पहला सप्ताह था। रात दो बजे दिल्ली हवाई अड्डे से कनाडा वापस आने की फ्लाइट लेनी थी। नोएडा में जहां हम रुके थे वहाँ से एयरपोर्ट पहुँचने में आमूमन एक से सवा घंटे लगने थे। चूंकि एयरपोर्ट तीन घंटे पहले पहुंचना होता है अतः थोड़ा मार्जिन रखकर नोएडा से 9 बजे ही टैक्सी से निकल पड़े। अभी निकले ही थे कि सामने से एक बारात निकल रही थी। आज मेरे यार की शादी है बैण्ड पर बज रहा था और बाराती झूम झूम कर नाच रहे थे। 10 मिनट नाच देखते रहे मजबूरी में, तब उन्हीं बारातियों में एक सज्जन रास्ता साफ कराते नजर आए मानो ट्रेफिक पुलिस का सारा जिम्मा उन्होंने ले लिया हो।  हर बारात में एक फूफा यह जिम्मेदारी अपने काँधों पर थामे रहता है मगर हर बार 10 मिनट नाच लेने के बाद ही उसे अपनी जिम्मेदारियों का होश आता है।

खैर एक बारात से छूटे और अभी 4 मिनट भी न गुजरे होंगे, दूसरी बारात। ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का बज रहा है और सब बाराती नाच रहे हैं। फिर 10 मिनट में फूफा अवतरित हुए और गाड़ी आगे बढ़ी। हर दो तीन मिनट में एक नई बारात- एक नया गाना और फिर एक नया फूफा। जैसे जैसे नई बारात मिल रही थी, रात भी अपने शुमार पर चढ़ रही थी और बारातियों पर नशे का खुमार भी। शेर नाच देखा। नागिन नाच तो जमीन पर लोट लोट कर बाराती नाच रहे और सांप हमारी छाती पर लोट रहा था कि एयरपोर्ट कब पहुंचेंगे?

टैक्सी वाले ने रेडियो लगा दिया तो सुनाई पड़ा कि आज दिल्ली में 37000 शादियाँ हैं। हमने तो अभी पिछले एक घंटे में 15 मिनट का सफर करके मात्र 11 शादियाँ क्रॉस की हैं। 37000 -रूह कांप गई। एक बार को लगा कि शायद पैदल इससे जल्दी पहुँच जाएंगे मगर सामान का ख्याल आते ही इस लगा को भगा दिया। वैसे खाली हाथ भी होते तो कौन इतना चल पाते। सोच का घोडा है कहीं भी दौड़ लेता है फिर हकीकत की लगाम उसे थामती है।

जब हमारे हाथ मे कुछ नहीं रह जाता तब हम प्रभु की तरफ ताकते है कि हे प्रभु, अब तुम्हीं नैया पार लगाओ।

अजब बात तो ये है बारात बढ़े न बढ़े, गाड़ी आगे बढ़े न बढ़े, समय तो बढ़ता ही रहता है।

आज मेरे यार की शादी से शुरू हुई एयरपोर्ट तक की यात्रा, अभी तो बबुआ पहली भंवर पड़ी है, अभी तो पहुना दिल्ली दूर खड़ी है से होते हुए बाबुल की दुआएं लेती जा तक जा पहुंची मगर जहां पहुंचना था वहाँ तक अभी भी न पहुंची। उधर आसमान नारंगी होने को था, चिड़ियाँ चहचहाने को लगभग तैयार थीं और हम एयरपोर्ट में घुसने को। घड़ी देखी 5:30 बजने को था मगर फिर भी हम टैक्सी से उतर कर एयरपोर्ट के मुख्य द्वार की तरफ भागे। हवाई जहाज तो दो बजे उड़ ही गया होगा मगर हम न जाने क्या पकड़ने भागे जा रहे थे।

काऊँटर पर जाकर हमने कहा कि थोड़ा लेट हो गए। वो मुस्कराया और बोला कि इसे लेट होना नहीं कहते – इसे लेटकर सो जाना कहते हैं। आपकी नींद तब खुली है जब हवाई जहाज दुबई में उतरने को है।

अब क्या करते। दोनों टिकट बेकार चली गई। हाई सीजन था अतः अगली फ्लाइट महंगी और दो दिन बाद की मिली। दो दिन होटल में रुके रहे सो अलग। एयरपोर्ट से सटा हुआ होटल लिया तो थोड़ा महंगा तो था मगर फिर से बारात में फँसने की न तो की इच्छा थी और न ही हिम्मत।

आज इतने बरस बाद फेसबुक पर बैठा हूँ तो सैकड़ों जानकार लोगों को 20 वीं शादी की सालगिरह की पोस्ट चढ़ाते देख रहा हूँ। उसमें से अधिकतर दिल्ली के हैं और याद आता है वो 20 बरस पहले आज ही का दिन था जब हम फंसे थे।

सोच रहा हूँ इनको बधाई दूँ या इनके बीच में 4000 डॉलर के नुकसान का मय ब्याज बंटवारा करके बिल भेज दूँ। चलो इस घटना से प्रेरणा लेकर इतना भी हो जाए कि जिस तरह यहाँ बाईक लाइन अलग से होती है ताकि तेज रफ्तार गाड़ी, एम्बुलेंस और अन्य एमेरजेन्सी वाहनों को कोई तकलीफ न हो और सब कार्य सुचारु रूप से होते रहें, उसी की तर्ज पर एक बारात लाईन बनवा दो हर सड़क के किनारे किनारे। कौन जाने कौन सी जान किसी एम्बुलेंस में, किसी का सर्वस्व आग में तबाह होने से या किसी की एमेरजेन्सी फ्लाइट या रेल छूटने से बच जाए। हर इंसान तो मंत्री होता नहीं है कि उनके चलने के लिए सड़कें पहले से खाली करवा ली जाए और न ही हर एम्बुलेंस की किस्मत ऐसी होती है कि चुनाव का समय हो और मंत्री जी फोटो ऑप के चक्कर में एम्बुलेंस को रास्ता दे रहे हों।  

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार 15 दिसंबर ,2024 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/14953


 

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शनिवार, दिसंबर 07, 2024

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले

 

तिवारी जी ने कभी जीवन भर नौकरी नहीं की किन्तु नौकरी करने में क्या समस्या आती है, बॉस कैसे परेशान करते हैं, उनसे निपटने के लिए क्या हथकंडे अपनाना चाहिए आदि पर वह नियमित ही अपना ज्ञान पान के ठेले पर बैठे देते रहते थे। वैसे नौकरी तो घंसु ने भी कभी नहीं की लेकिन हाँ में हाँ मिलाने में सबसे आगे वही रहता कि तिवारी बिल्कुल सही कह रहे हैं। नौकरी न करने के मामले तिवारी जी और घंसु में मात्र इतना अंतर था कि तिवारी जी ने कभी खोजी ही नहीं और घंसु को कभी मिली नहीं। घंसु थे तो आठवीं पास लेकिन उसने इस कमी को अपनी महत्वाकांक्षाओं के आड़े नहीं आने दिया वो लगातार मैनेजर पद की नौकरी तलाशता रहा और मैनेजर पद की नौकरियां उससे मुंह चुराती रहीं।

तिवारी जी का जिंदगी के प्रति नजरिया एकदम साफ था। उनका शुरू से मानना रहा की अगर जीवन में आप अपना उद्देश्य जानते हैं तो सफलता जरूर हाथ लगेगी। तिवारी जी का उद्देश्य एकदम स्पष्ट था। जब तक पिता जी की नौकरी और फिर पेंशन आएगी तब तक तो उनके भरोसे चल लेंगे और जल्दी शादी करके पिता जी के गुजरने के पहले अपने बच्चों को इतना बड़ा कर लेंगे ताकी वो कमाने लगें तो बाकी की जिंदगी उनके भरोसे चल जाएगी।

इधर तिवारी जी अपना उद्देश्य साध रहे थे, उधर गालिब बैठे इनकी किस्मत लिख रहे थे:

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले

बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले।

तो हुआ यूं कि तयशुदा हिसाब से जीवन की गाड़ी चल रही थी। माता जी जल्द ही स्वर्ग सिधार गईं। तिवारी जी बारहवीं पास कर घर बैठ गए थे। पिता जी ने पड़ोस के गाँव में शादी तय कर दी। किन्तु शादी के ठीक दो माह पूर्व पिता जी भी स्वर्ग सिधार गए। किराये का मकान था, आय का कोई स्त्रोत था नहीं अतः विकल्पों के आभाव में तिवारी जी ने तय तारीख पर शादी कर ली और फिर ससुराल में ही रह गए। वैसे भी कहाँ जाते और क्या खाते?

ससुर साहब की एक ही बेटी है। सरकारी बाबू के पद से रिटायर हुए हैं तो पेंशन आती है और पुश्तैनी दो मंजिला मकान है। ऊपर परिवार रहता है और नीचे दो दुकानें किराये पर दे रखी हैं। बहुत नहीं तो भी ठीक ठाक तो घर चल ही जाता है। तिवारी जी पूर्व में तय योजना के अनुसार जल्द ही बच्चे कर लेना चाहते थे ताकि जब वो कमाने लगें तो थोड़ा इंडिपेंडेंट हो लें। बहुत निकले मिरे अरमान की तर्ज पर तिवारी जी प्रयासरत रहे लेकिन बच्चे हुए ही नहीं। उद्देश्यों ने आधार खो दिया और तिवारी जी पूर्णरूप से ससुराल आधारित ही हो गए।

अब उनकी एक नियमित दिनचर्या भी हो गई। सुबह चौक पर दुकाने खुलते ही तिवारी जी पान के ठेले की बैंच पर आ बैठते और वहाँ मौजूद अन्य खाली लोगों पर ज्ञान वर्षा करते रहते। इसी सत्संग का वरदान रहा कि घँसु जैसा चेला मिल गया। एक बार दोपहर में खाना खाने और फिर रात को दुकानें बंद हो जाने पर ही घर जाते। कभी नागा नहीं- अनुशासन के एकदम पक्के।

इस बीच कब ससुर जी गुजर गए, कब किराये के असल हकदार तिवारी जी हो गए। पति पत्नी दो लोग - घर खर्च के बाद भी कुछ रुपया बच ही जाता अतः जैसा की अधिक रुपयों के साथ होता है कि कुछ शौक जन्म ले बैठे। अब अक्सर रात में दुकाने बंद होने के बाद घंसु के साथ दो दो पैग लगा लेते तब घर आते। पीने की आदत ने एकाएक ज्ञान बांटने की प्रतिभा में चार चाँद लगा दिए।

कल आप पेंशन पर ज्ञान दे रहे थे और सरकार को उनके वाहियात नियमों के लताड़ रहे थे। उनके मित्र नेमा जी के साथ वो पेंशन कार्यालय गए थे, जहाँ प्रतिवर्ष के अनुसार इस वर्ष भी नेमा जी अपने जीवित होने का प्रमाण पत्र जमा करा है थे। बड़े बाबू ने फाईल देखकर बताया कि आपकी फाईल पर पिछले वर्ष का जीवित होने प्रमाण पत्र नहीं है। या तो उसको जमा कराएं अन्यथा पिछले वर्ष की पेंशन मय ब्याज और पेनाल्टी के वापस ले ली जाएगी।

तिवारी जी मदद हेतु आगे बढ़े और उन्होंने बाबू को समझाया कि जब नेमा जी आज जिंदा होने का प्रमाण पत्र दे रहे हैं तो पिछले बरस भी तो जिंदा रहे ही होंगे। बाबू बस एक राग पकड़े बैठा रहा कि हम कैसे मान लें, कोई कागज तो है ही नहीं। काफी बहस के बाद यह तय पाया गया कि बैंक चलकर पुनः पिछले बरस का प्रमाण पत्र बनवा लेते हैं।

बैंक पहुंचे तो वहाँ भी वही सवाल कि हम कैसे मान लें कि आप पिछले बरस भी जिंदा थे? नेमा जी के लिए यह प्रमाणित करना असंभव सा होता जा रहा था कि वह पिछले बरस भी जिंदा थे। इस साल का तो पक्का है कि जिंदा हैं, प्रमाण पत्र लेमिनेट करा लिया है। कई परम्पराएं भले ही समाज के लिए भली न हों तो भी कभी कभी, जब आपका काम अटकता है तो जीवनदायनी सी बन कर आपको भवसागर पार करवा ही देती हैं। रिश्वतखोरी उन्हीं परंपराओं की पहली पायदान पर सदा से विराजती रही है।

किसी तरह ले देकर नेमा जी को पिछले बरस फिर से जिंदा किया गया, प्रमाण पत्र जारी हुआ। पेंशन की फाईल में नत्थी हुआ और तब जाकर जिंदगी में कॉन्टिन्यूटी आई वरना नेमा जी जीवन बीच में एक साल बिना जिंदा रहे ही गुजरता जाता।

-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार दिसंबर ,२०२4 के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/14837

 

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शनिवार, नवंबर 11, 2023

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है

 



कहते हैं, मुसीबत कैसी भी हो, जब आनी होती है-आती है और टल जाती है-लेकिन जाते जाते अपने निशान छोड़ जाती है.

इन निशानियों को बचपन से देखता आ रहा हूँ और खास तौर पर तब से-जब से गेस्ट हाऊसेस (विश्राम गॄहों)  और होटलों में ठहरने लगा. बाथरुम का शीशा हो या ड्रेसिंग टेबल का, उस पर बिन्दी चिपकी जरुर दिख जाती है. क्या वजह हो सकती है? कचरे का डब्बा बाजू में पड़ा है. नाली सामने है. लेकिन नहीं, हर चीज डब्बे मे डाल दी जायेगी या नाली में बहा देंगे पर बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी. जाने आईने पर चिपका कर उसमें अपना चेहरा देखती हैं कि क्या करती हैं, मेरी समझ से परे रहा. यूँ भी मुझे तो बिन्दी लगानी नहीं है तो मुझे क्या? मगर एकाध बार बीच आईने पर चिपकी बिन्दी पर अपना माथा सेट करके देखा तो है, जस्ट उत्सुकतावश. देखकर बढ़िया लगा था. फोटो नहीं खींच पाया वरना दिखलाता.

यही तो मानव स्वभाव है कि जिस गली जाना नहीं, उसका भी अता पता जानने की बेताबी.

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है, तो वैसे ही यह निशान भी. श्रृंगार, शिल्पा ब्राण्ड की छोटी छोटी बिन्दी से लेकर सुरेखा और सिंदुर ब्राण्ड की बड़ी बिन्दियाँ. सब का अंतिम मुकाम- माथे से उतर कर आईने पर.

कुछ बड़ी साईज़ की मुसीबतें,  बतौर निशानी, अक्सर बालों में फंसाने वाली चिमटी भी बिस्तर के साईड टेबल पर या बाथरुम के आईने के सामने वाली प्लेट पर छोड़ दी जाती हैं. इस निशानी की मुझे बड़ी तलाश रहती है. नये जमाने की लड़कियाँ तो अब वो चिमटी लगाती नहीं, अब तो प्लास्टिक और प्लेट वाली चुटपुट फैशनेबल हेयरक्लिपस का जमाना आ गया मगर कान खोदने एवं कुरेदने के लिए उससे मुफ़ीद औजार मुझे आज तक दुनिया में कोई नजर नहीं आया. चाहें लाख ईयर बड से सफाई कर लो, मगर एक आँख बंद कर कान कुरेदने का जो नैसर्गिक आनन्द उस चिमटी से है वो इन ईयर बडस में कहाँ?

औजार के नाम पर एक और औजार जिसे मैं बहुत मिस करता हूँ वो है पुराने स्वरूप वाला टूथब्रश ... नये जमाने के कारण बदला टूथब्रश का स्वरुप. आजकल के कोलगेटिया फेशनेबल टूथब्रशों में वो बात कहाँ? आजकल के टूथब्रश तो मानो बस टूथ ब्रश ही करने आये हों, और किसी काम के नहीं. स्पेशलाईजेशन और विशेष योग्यताओं के इस जमाने में जो हाल नये कर्मचारियों का है, वो ही इस ब्रश का. हरफनमौलाओं का जमाना तो लगता है बीते समय की बात हो, फिर चाहे फील्ड कोई सा भी क्यूँ न हो.

बचपन में जो टूथब्रश लाते थे, उसके पीछे एक छेद हुआ करता था जिसमें जीभी (टंग क्लीनर) बांध कर रखी जाती थी. ब्रश के संपूर्ण इस्तेमाल के बाद, यानि जब वह दांत साफ करने लायक न रह जाये तो उसके ब्रश वाले हिस्से से पीतल या ब्रासो की मूर्तियों की घिसाई ..फिर इन सारे इस्तेमालों आदि के हो जाने के उपरान्त जहाँ ब्रश के स्थान पर मात्र ठूंठ बचे रह जाते थे, ब्रश वाला हिस्सा तोड़कर उसे पायजामें में नाड़ा डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. नाड़ा डालने के लिए उससे सटीक और सुविधाजनक औजार भी मैने और कोई नहीं देखा.

जिस भी होटल या गेस्ट हाऊस के बाथरुम के या ड्रेसिंग टेबल के आईने पर मुझे बिन्दी चिपकी नजर आती है, मेरी नजर तुरंत बाथरुम के आईने के सामने की पट्टी पर और बिस्तर के बाजू की टेबल पर या उसके पहले ड्राअर के भीतर जा कर उस चिमटी को तलाशती है जो कभी किसी महिला के केशों का सहारा थी, उसे हवा के थपेड़ों में भी सजाया संवारा रखती थी. खैर, सहारा देने वालों की, जिन्दगी के थपेड़ों से बचाने वालों की सदा से ही यही दुर्गति होती आई है चाहे वो फिर बूढ़े़ मां बाप ही क्यूँ न हो. ऐसे में इस चिमटी की क्या बिसात मगर उसके दिखते ही मेरे कानों में एक गुलाबी खुजली सी होने लगती है.

बदलते वक्त के साथ और भी कितने बदलाव यह पीढ़ी अपने दृष्टाभाव से सहेजे साथ लिये चली जायेगी, जिसका आने वाली पीढ़ियों को भान भी न होगा.

अब न तो दाढ़ी बनाने की वो टोपाज़ की ब्लेड आती है जिसे चार दिशाओं से बदल बदल कर इस्तेमाल किया जाता था और फिर दाढ़ी बनाने की सक्षमता खो देने के बाद उसी से नाखून और पैन्सिल बनाई जाती थी. आज जिलेट और एक्सेल की ब्लेडस ने जहाँ उन पुरानी ब्लेडों को प्रचलन के बाहर किया , वहीं स्टाईलिश नेलकटर और पेन्सिल शार्पनर का बाजार उनकी याद भी नहीं आने देता है. तब ऐसे में आने वाली पीढ़ी क्यों इन्हें इनके मुख्य उपयोगों और अन्य उपयोगों के लिए याद करे, उसकी जरुरत भी नहीं शेष रह जाती है.

फिर मुझे याद आता है वह समय, जब नारियल की जटाओं और राख से घिस घिस कर बरतन मांजे जाते थे. आज गैस के चूल्हे में न तो खाना पकने के बाद राख बचती है और न ही स्पन्ज, ब्रश के साथ विम और डिश क्लीनिंग लिक्विड के जमाने में उनकी जरुरत. स्वभाविक है उन वस्तुओं को भूला दिया जाना.

सब भूला दिया जाता है. हम खुद ही भूल बैठे हैं कि हमारे पूर्वज बंदर थे जबकि आज भी कितने ही लोगों की हरकतों में उन जीन्स का प्राचुर्य है. तो यह सारे औजार भी भूला ही दिये जायेंगे, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं.

अंतर बस इतना ही है कि आज अल्प बचत का सिद्धांत पढ़ाना होता है जो कि पहले आदत का हिस्सा होता था.

अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.

भोपाल से प्रकाशित दैनिक सुबह सवेरे के रविवार नवम्बर 12, 2023  के अंक में:

https://epaper.subahsavere.news/clip/8174

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