आज किसी से बात चल रही थी और वो अपने बचपन कोई किस्सा बता रहा था. मुझे बचपन की बात से एक किस्सा याद आया.
एक दिन दफ्तर से लौटते वक्त स्टेशन से निकलने के लिये सीढ़ी उतर रहा था थोड़ा सा तेजी से चलते हुए. आगे एक बच्चा अपनी मम्मी का हाथ पकड़े हँसते हुए उतर रहा था. मैने माँ और बेटे को ओवर टेक करते हुए दो तीन सीढ़ी पार कर ली. तभी पीछे से बच्चे की आवाज सुनाई दी. "मॉम, आई लॉस्ट" (माँ, मैं हार गया). उसकी माँ ने उसे समझाया कि बेटा, वो आपसे बहुत बड़े हैं, इसलिये आगे चले गये. आप भी जब उतने बड़े हो जाओगे तो ऐसे ही चल पाओगे.
मैं रुक गया. मैने हाँफने का अभिनय किया. बच्चे की माँ की तरफ देखा. एक खूबसूरत महिला थी. बालक कुछ ३ साल के आसपास का. फिर मैने बच्चे की ओर मुखातिब होकर कहा, "अरे, मैं तो थक गया और आप जीत गये. स्लो एंड स्टडी विन्स द रेस." बच्चा खूब खुश हो गया. मुझे भी बहुत खुशी हुई बच्चे में आत्म विश्वास लौटता देख. उसकी मम्मी भी मुस्कराई. मैं भी मुस्कराया.
मैं नहीं चाहता था कि उसे इस छोटी सी बात से कुछ दुख पहुँचे जिससे मुझे कोई अन्तर नहीं पड़ता मगर उसका यही दुख आगे चल कर एक कुंठा बन सकता था जो और गहरा होकर एक कभी न निकलने वाली ग्रंथी का रुप ले लेता. इसी तरह की बातें कि वो हमसे ज्यादा सामर्थवान है चाहे पैसे से, उम्र से, ताकत से, बुद्धि से, पावर से, इसलिये हम कुछ नहीं कर सकते, एक कुंठा और फिर ग्रंथी का रुप लेकर कितने ही लोगों में विद्यमान है.
वैसे लगता है उसकी माँ मेरे पूरे भाव नहीं समझ पाई या कई लोग शर्म के मारे कम बोलते हैं. अपनी फिलिंग्स नहीं कह पाते या समझी होगी कि कोई बीमार आदमी है, पता नहीं वरना तो इतने ऊँची विचारधारा के व्यक्ति से मिलने का गर्व उसके चेहरे पर छलक आता. शायद आभारवश कॉफी पर चलने को भी कहती अहसान उतारने को. सामने ही तो थी कॉफी शॉप. साथ बैठते थोड़ी देर तो बच्चे को खरगोश, कछुये की कहानी भी सुना देता और उसकी मम्मी को भी बच्चों के मनोबल बढ़ाने के कुछ गुर बताता.
शायद पैसे न रहे हों. अरे, एक बार कह देती तो क्या मैं न पेमेन्ट कर देता कॉफी का. आखिर लगता ही कितना मगर वही शर्मीलापन आड़े आ गया होगा.
मैने धीरे से देख लिया था कि वो अँगूठी भी नहीं पहने थी यानि उसके पति से या तो संबंध विच्छेद हो गया होगा या ये भी हो सकता है, उसने इससे शादी से ही मना कर दिया हो. कुछ भी तो संभव है. मैं सोचने लगा कि बेचारी की अभी उम्र ही क्या है. कैसे काटेगी सामने पड़ी पहाड़ जैसी जिंदगी. आँख भर आई मेरी.
माना कि साथ बच्चा है तो जब तक बच्चा है तभी तक. बड़ा हुआ नहीं कि समझो अपनी दुनिया में मस्त और यह बेचारी अकेली बच रहेगी. शायद इसी से मानसिक स्थितियाँ सामान्य न हों और भूल गई हो कॉफी के लिये कहना. जबकि यदि कॉफी के लिये कहती तो दो पल बैठ लेते. वैसे भी मुझे घर ही तो जाना था, कुछ देर बाद चला जाता. घर कोई भागे थोड़ी न जा रहा है. एक दुखिया का अगर कुछ दर्द कम होता है तो यह तो इन्सानियत का तकाजा है. मैं क्यूँ पीछे हटने लगा.वो अपना दर्द सुना लेती, दो बूँद आंसू बहा लेती मेरे कंधे पर सर रख कर. कहते हैं दर्द बांटने से हल्का हो जाता है. मुझे क्या फर्क पड़ना था. मेरा कंधा कोई शक्कर की डली तो है नहीं कि उसके दो बूँद आंसू से गल जाता. यूँ भी मेरा कंधा कर क्या रहा था सिवाय कमीज संभालने के, किसी के काम ही आ लेता. मैं भी साहनभूति के दो शब्द कह लेता, मुझे भी हल्का लगता. इस तरह विचारों की उधेड़ बून में तो न रहता.
खैर, बाद में समझ आया होगा तो बहुत दुख हुआ होगा उसे या अपने शर्मीले स्वभाव को कोस रही होगी, मगर मुझे इन सब से क्या? मैं तो सीधे घर लौट आया. अरे, एक पत्नी है, दो जवान लड़के हैं. मैं क्यूँ पड़ने लगा उसकी झंझटों के विचार में. वो जाने और उसका बच्चा. मैने तो अपना कर्तव्य निभा दिया, बस्स!!
मैं भी कहाँ बचपन की बात बताते बताते कहाँ पहुँच गया, यही होता है जब विचारों की उधेड़ बून में रहो!!
--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
बुधवार, नवंबर 07, 2007
सोमवार, नवंबर 05, 2007
झूठे सिद्धांत-एक दोस्त को याद करते हुए
सुबह सुबह संदीप का फोन आया. कल रात उसके पिता जी को दिल का दौरा पड़ा है. अभी हालात नियंत्रण में है और दोपहर १२.३० बजे उन्हें बम्बई ले जा रहे हैं. वैसे तो सब इन्तजाम हो गया है मगर यदि २० हजार अलग से खाली हों तो ले आना. क्या पता कितने की जरुरत पड़ जाये? निश्चिंतता हो जायेगी. मैने हामी भर दी और कह दिया कि बस पहुँचता हूँ.
स्टेशन घर से आधे घंटे की दूरी पर है, फिर भी आदात के अनुसार मार्जिन रख कर सवा ग्यारह बजे ही स्कूटर लेकर निकल पड़ा.
चौक पार करने के बाद रेल्वे फाटक आता है. वहाँ गेट बंद मिला. छोटी लाइन की कोई ट्रेन गुजरने वाली है. शायद चार पाँच मिनट बाकी हो आने में. मगर लोग निर्बाध गेट के नीचे से अपने स्कूटर, साईकिल तिरछा करके झुककर निकले जा रहे थे. मानो कोई चार पाँच मिनट भी नहीं रुकना चाहता. फिर गेट बंद करने का तात्पर्य क्या है. अजब लोग हैं. जब घर से निकलते हैं तो कुछ समय तो अलग से क्यूँ नहीं रखते इस तरह की बातों के लिये. क्या पा जायेंगे कहीं पाँच मिनट पहले पहुँच कर?
कुछ तो सिद्धांत होने चाहिये.कुछ तो नियमों का पालन करना चाहिये.
इसी तरह के सिद्धांतवादी विचारों में खोया, मैं स्कूटर के हैंडल पर एक हाथ में अपनी ठुड्डी टिकाये मन ही मन अपने को जल्द निकल पड़ने की शाबाशी दे रहा था. अक्सर होता है ऐसा कि अपना सामान्य कार्य भी दूसरों की बेवकूफियों की वजह से प्रशंसनीय हो जाता है.
बाजू में आकर एक कार खड़ी हो गई. मैने कनखियों से देखा तो किसी संभ्रांत परिवार की कोई कन्या गाड़ी का स्टेरिंग थामे बैठी थी. उसके सन गॉगेल उसके तरतीब से झड़े रेशमी बालों पर आराम से बैठे थे मेरी ही तरह, निश्चिंत. मगर कन्या के चेहरे पर गेट बंद होने की खीझ स्पष्ट दिखाई दे रही थी. बार बार घड़ी की तरफ नजर डालती और फिर खीझाते हुए गेट की तरफ, पटरी पर जहाँ तक नजर जा सके, नजर दौड़ा लेती.
उसके चेहरे को देखकर मैं दावे से कह सकता हूँ कि अगर वो स्कूटर पर होती तो पक्का स्कूटर झुका कर निकल जाती. वो मात्र कार की मजबूरीवश रुकी थी और बाकी स्कूटर, साईकिल वालों को निकलता देख खीज रही थी. उसका सिद्धांतवादी होना मात्र मजबूरीवश है वरना तो कब का निकल गई होती. यह ठीक वैसे ही जैसे कितने ईमानदार सिर्फ इसलिये ईमानदार हैं कि कभी बेईमानी का सही मौका नहीं मिला.
इस बीच ट्रेन की सीटी दूर से सुनाई पड़ी. उसका चेहरा कुछ तनाव मुक्त सा होता दिखाई पड़ा. ट्रेन नजदीक ही होगी.
गेट के दोनों ओर भरपूर भीड़ इकट्ठा हो गई.
कुछ ही पलों में ट्रेन आ गई. एक एक कर डब्बे पार होने लगे. लाल हरे नीले पीले कपड़े पहने यात्रियों से भरी रेल. धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी.
उसकी कार ऑन हो गई. मैने भी बैठे बैठे ही स्कूटर में किक मारा और चलने को तैयार हो गया.
एकाएक आधी पार होने के बाद ट्रेन रुक गई. पाँच सात मिनट तक तो कुछ पता चला नहीं, फिर पता चला कि इंजन में कुछ खराबी हुई है. जल्द ही चल देगी.
स्कूटर बंद. कार बंद.खीज के भाव कन्या के चेहरे पर वापस पूर्ववत.
समय तो जैसे उड़ने लगा. देखते देखते ३० मिनट निकल गये. अब तो झुक कर भी नहीं जाया जा सकता था. एक तो ठसाठस भीड़ और उस पर से बीच में खड़ी ट्रेन. इन्तजार के सिवाय और कोई रास्ता नहीं. पीछॆ मुड़ना भी वाहनों की भीड़ से पटी सड़क पर संभव नहीं.
जिस खीज के भाव का अब तक मैं कन्या के चेहरे पर अध्ययन करके प्रसन्न हो रहा था, वही अब मेरे चेहरे पर आसन्न थे.
क्या सोच रहा होगा संदीप? खैर, अभी भी थोड़ा समय है, पहुँच कर समझा दूँगा.
४०-४५ मिनट बाद ट्रेन बढ़ी. गेट खुला. दोनों तरफ से टूट पड़ी भीड़ से ट्रेफिक जाम. किसी तरह उल्टी तरफ से निकलते हुए जैसे ही मैं स्टेशन पहुँचा, ट्रेन सामने से जा रही थी. आखिरी डिब्बा दिखा बस!!
मैं सोचने लगा कि इससे बेहतर तो मैं गेट के नीचे से ही निकल पड़ता. आखिर, जब मजबूरी में फँसा तब उल्टी ट्रेफिक में घुस कर निकला ही. कौन सा ऐसा तीर मार लिया सिद्धांतों को लाद कर. विषम परिस्थितियों में भी सिद्धांतों का पालन करता तो कोई बात होती. सामान्य समय में तो कोई भी कर सकता है. सिद्धांतवादी होना सरल नहीं है.
बाद में पता चला कि संदीप के पिता जी नहीं रहे. बम्बई में ही उन्होंने दम तोड़ दिया. उनके बड़े भाई का परिवार वहीं रहता था तो अंतिम संस्कार भी वहीं कर दिया गया. संदीप ने मुझसे फिर कभी बात नहीं की. मुझे बतलाने का मौका भी नहीं दिया कि क्या हुआ था.
काश, मैं उस वक्त अपने सिद्धांतों को दर किनार कर गेट से नीचे से भीड़ का हिस्सा बन निकल गया होता, तो संदीप आज भी मेरा दोस्त होता.
स्टेशन घर से आधे घंटे की दूरी पर है, फिर भी आदात के अनुसार मार्जिन रख कर सवा ग्यारह बजे ही स्कूटर लेकर निकल पड़ा.
चौक पार करने के बाद रेल्वे फाटक आता है. वहाँ गेट बंद मिला. छोटी लाइन की कोई ट्रेन गुजरने वाली है. शायद चार पाँच मिनट बाकी हो आने में. मगर लोग निर्बाध गेट के नीचे से अपने स्कूटर, साईकिल तिरछा करके झुककर निकले जा रहे थे. मानो कोई चार पाँच मिनट भी नहीं रुकना चाहता. फिर गेट बंद करने का तात्पर्य क्या है. अजब लोग हैं. जब घर से निकलते हैं तो कुछ समय तो अलग से क्यूँ नहीं रखते इस तरह की बातों के लिये. क्या पा जायेंगे कहीं पाँच मिनट पहले पहुँच कर?
कुछ तो सिद्धांत होने चाहिये.कुछ तो नियमों का पालन करना चाहिये.
इसी तरह के सिद्धांतवादी विचारों में खोया, मैं स्कूटर के हैंडल पर एक हाथ में अपनी ठुड्डी टिकाये मन ही मन अपने को जल्द निकल पड़ने की शाबाशी दे रहा था. अक्सर होता है ऐसा कि अपना सामान्य कार्य भी दूसरों की बेवकूफियों की वजह से प्रशंसनीय हो जाता है.
बाजू में आकर एक कार खड़ी हो गई. मैने कनखियों से देखा तो किसी संभ्रांत परिवार की कोई कन्या गाड़ी का स्टेरिंग थामे बैठी थी. उसके सन गॉगेल उसके तरतीब से झड़े रेशमी बालों पर आराम से बैठे थे मेरी ही तरह, निश्चिंत. मगर कन्या के चेहरे पर गेट बंद होने की खीझ स्पष्ट दिखाई दे रही थी. बार बार घड़ी की तरफ नजर डालती और फिर खीझाते हुए गेट की तरफ, पटरी पर जहाँ तक नजर जा सके, नजर दौड़ा लेती.
उसके चेहरे को देखकर मैं दावे से कह सकता हूँ कि अगर वो स्कूटर पर होती तो पक्का स्कूटर झुका कर निकल जाती. वो मात्र कार की मजबूरीवश रुकी थी और बाकी स्कूटर, साईकिल वालों को निकलता देख खीज रही थी. उसका सिद्धांतवादी होना मात्र मजबूरीवश है वरना तो कब का निकल गई होती. यह ठीक वैसे ही जैसे कितने ईमानदार सिर्फ इसलिये ईमानदार हैं कि कभी बेईमानी का सही मौका नहीं मिला.
इस बीच ट्रेन की सीटी दूर से सुनाई पड़ी. उसका चेहरा कुछ तनाव मुक्त सा होता दिखाई पड़ा. ट्रेन नजदीक ही होगी.
गेट के दोनों ओर भरपूर भीड़ इकट्ठा हो गई.
कुछ ही पलों में ट्रेन आ गई. एक एक कर डब्बे पार होने लगे. लाल हरे नीले पीले कपड़े पहने यात्रियों से भरी रेल. धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी.
उसकी कार ऑन हो गई. मैने भी बैठे बैठे ही स्कूटर में किक मारा और चलने को तैयार हो गया.
एकाएक आधी पार होने के बाद ट्रेन रुक गई. पाँच सात मिनट तक तो कुछ पता चला नहीं, फिर पता चला कि इंजन में कुछ खराबी हुई है. जल्द ही चल देगी.
स्कूटर बंद. कार बंद.खीज के भाव कन्या के चेहरे पर वापस पूर्ववत.
समय तो जैसे उड़ने लगा. देखते देखते ३० मिनट निकल गये. अब तो झुक कर भी नहीं जाया जा सकता था. एक तो ठसाठस भीड़ और उस पर से बीच में खड़ी ट्रेन. इन्तजार के सिवाय और कोई रास्ता नहीं. पीछॆ मुड़ना भी वाहनों की भीड़ से पटी सड़क पर संभव नहीं.
जिस खीज के भाव का अब तक मैं कन्या के चेहरे पर अध्ययन करके प्रसन्न हो रहा था, वही अब मेरे चेहरे पर आसन्न थे.
क्या सोच रहा होगा संदीप? खैर, अभी भी थोड़ा समय है, पहुँच कर समझा दूँगा.
४०-४५ मिनट बाद ट्रेन बढ़ी. गेट खुला. दोनों तरफ से टूट पड़ी भीड़ से ट्रेफिक जाम. किसी तरह उल्टी तरफ से निकलते हुए जैसे ही मैं स्टेशन पहुँचा, ट्रेन सामने से जा रही थी. आखिरी डिब्बा दिखा बस!!
मैं सोचने लगा कि इससे बेहतर तो मैं गेट के नीचे से ही निकल पड़ता. आखिर, जब मजबूरी में फँसा तब उल्टी ट्रेफिक में घुस कर निकला ही. कौन सा ऐसा तीर मार लिया सिद्धांतों को लाद कर. विषम परिस्थितियों में भी सिद्धांतों का पालन करता तो कोई बात होती. सामान्य समय में तो कोई भी कर सकता है. सिद्धांतवादी होना सरल नहीं है.
बाद में पता चला कि संदीप के पिता जी नहीं रहे. बम्बई में ही उन्होंने दम तोड़ दिया. उनके बड़े भाई का परिवार वहीं रहता था तो अंतिम संस्कार भी वहीं कर दिया गया. संदीप ने मुझसे फिर कभी बात नहीं की. मुझे बतलाने का मौका भी नहीं दिया कि क्या हुआ था.
काश, मैं उस वक्त अपने सिद्धांतों को दर किनार कर गेट से नीचे से भीड़ का हिस्सा बन निकल गया होता, तो संदीप आज भी मेरा दोस्त होता.
गुरुवार, नवंबर 01, 2007
आखिर बेटा हूँ तेरा
सरौता बाई नाम था उसका. सुबह सुबह ६ बजे आकर कुंडी खटखटाती थी. तब से उसका जो दिन शुरु होता कि ६ घर निपटाते शाम के ६ बजते. कपड़ा, भाडू, पौंछा, बरतन और कभी कभी मलकिनों की मालिश. बात कम ही करती थी.
पता चला कि उसका पति शराब पी पी कर मर गया कुछ साल पहले. पास ही के एक टोला में छोटी सी कोठरिया लेकर रहती थी १० रुपया किराये पर.
एक बेटा था बसुआ. उसे पढ़ा रही थी. उसका पूरा जीवन बसुआ के इर्द गिर्द ही घूमता. वो उसे बड़ा आदमी बनाना चाहती थी.
हमें ७.३० बजे दफ्तर के निकलना होता था. कई बार उससे कहा कि ५.३० बजे आ जाया कर तो हमारे निकलते तक सब काम निपट जायेंगे मगर वो ६ बजे के पहले कभी न आ पाती. उसे ५ बजे बसुआ को उठाकर चाय नाश्ता देना होता था. फिर उसके लिये दोपहर का भोजन बनाकर घर से निकलती ताकि जब वो १२ बजे स्कूल से लौटे तो खाना खा ले.
फिर रात में तो गरम गरम सामने बैठालकर ही खाना खिलाती थी. बरसात को छोड़ हर मौसम में कोशिश करके कोठरी के बाहर ही परछी में सोती थी ताकि बसुआ को देर तक पढ़ने और सोने में परेशानी न हो.
समय बीतता गया. बसुआ पढ़ता गया. सरौता बाई घूम घूम कर काम करती रही. एक दिन गुजिया लेकर आई कि बसुआ का कालिज में दाखिला हो गया है. बसुआ को स्कॉलरशिप भी मिल गई है. कालिज तो दूर था ही, तो स्कॉलरशिप के पैसे से फीस , किताब के इन्तजाम के बाद जो बच रहा, उसमें कुछ घरों से एडवान्स बटोरकर उसके लिये साईकिल लेकर दे दी. पहले दिन बसुआ अपनी माँ को छोड़ने आया था साईकिल पर बैठा कर. सरौता बाई कैरियर पर ऐसे बैठकर आई मानों कोई राजरानी मर्सडीज कार से आ रही हो. उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे. बहुत खूश थी उस दिन वो.
बसुआ की प्रतिभा से वो फूली न समाती. बसुआ ने कालिज पूरा किया. एक प्राईवेट स्कूल से एम बी ए किया. फिर वो एक प्राईवेट कम्पनी में अच्छी पोजीशन पर लग गया. हर मौकों पर सरौता बाई खुश होती रही. उसकी तपस्या का फल उसे मिल रहा था. उसने अभी अपने काम नहीं छोड़े थे. एम बी ए की पढ़ाई के दौरान लिया कर्जा अभी बसुआ चुका रहा था शायद. सो सरौता बाई काम करती रही. उम्र के साथ साथ उसे खाँसी की बीमारी भी लग गई. रात रात भर खाँसती रहती.
बसुआ का साथ ही काम कर रही एक लड़की पर दिल आ गया और दोनों ने जल्द ही शादी करने का फैसला भी कर लिया, सरौता बाई भी बहुरिया आने की तैयारी में लग गई.
एक दिन सरौता बाई ५.३० बजे ही आ गई. आज वो उदास दिख रही थी. आज पहली बार उसकी आँखों में आसूं थे. बहुत पूछने पर बताने लगी कि कल जब घर पर चूना गेरु करने का इन्तजाम कर रही थी बहुरिया के स्वागत के लिये, तब बसुआ ने बताया कि बहुरिया यहाँ नहीं रह पायेगी. वो बहुत पढ़ी लिखी और अच्छे घर से ताल्लुक रखती है और वो शादी के लिये इसी शर्त पर राजी हुई है कि मैं उसके साथ उनके पिता जी के घर पर ही रहूँ. वैसे, तू चिन्ता मत कर, मैं बीच बीच में आता रहूँगा मिलने.
कोई भी काम हो तो फोन नम्बर भी दिया है कि इस पर फोन लगवा लेना. उसे चिन्ता लगी रहेगी. बहुत ख्याल रखता है बेचारा बसुआ. जाते जाते कह रहा था कि अब तो मेरा खर्च भी तुझको नहीं उठाना है. बसुआ पढ़ लिख गया है तो तू एकाध घर कम कर ले और हफ्ते में एक टाईम की छुट्टी भी लिया कर. अकेले के लिये कितना दौड़ेगी भागेगी आखिर तू. और अब इस उम्र भी तू पहले की तरह काम करेगी तो सोच, मुझे कितनी तकलीफ होगी. आखिर बेटा हूँ तेरा.
तब से सरौता बाई रोज ५.३० बजे आने लगी.
पता चला कि उसका पति शराब पी पी कर मर गया कुछ साल पहले. पास ही के एक टोला में छोटी सी कोठरिया लेकर रहती थी १० रुपया किराये पर.
एक बेटा था बसुआ. उसे पढ़ा रही थी. उसका पूरा जीवन बसुआ के इर्द गिर्द ही घूमता. वो उसे बड़ा आदमी बनाना चाहती थी.
हमें ७.३० बजे दफ्तर के निकलना होता था. कई बार उससे कहा कि ५.३० बजे आ जाया कर तो हमारे निकलते तक सब काम निपट जायेंगे मगर वो ६ बजे के पहले कभी न आ पाती. उसे ५ बजे बसुआ को उठाकर चाय नाश्ता देना होता था. फिर उसके लिये दोपहर का भोजन बनाकर घर से निकलती ताकि जब वो १२ बजे स्कूल से लौटे तो खाना खा ले.
फिर रात में तो गरम गरम सामने बैठालकर ही खाना खिलाती थी. बरसात को छोड़ हर मौसम में कोशिश करके कोठरी के बाहर ही परछी में सोती थी ताकि बसुआ को देर तक पढ़ने और सोने में परेशानी न हो.
समय बीतता गया. बसुआ पढ़ता गया. सरौता बाई घूम घूम कर काम करती रही. एक दिन गुजिया लेकर आई कि बसुआ का कालिज में दाखिला हो गया है. बसुआ को स्कॉलरशिप भी मिल गई है. कालिज तो दूर था ही, तो स्कॉलरशिप के पैसे से फीस , किताब के इन्तजाम के बाद जो बच रहा, उसमें कुछ घरों से एडवान्स बटोरकर उसके लिये साईकिल लेकर दे दी. पहले दिन बसुआ अपनी माँ को छोड़ने आया था साईकिल पर बैठा कर. सरौता बाई कैरियर पर ऐसे बैठकर आई मानों कोई राजरानी मर्सडीज कार से आ रही हो. उसके चेहरे के भाव देखते ही बनते थे. बहुत खूश थी उस दिन वो.
बसुआ की प्रतिभा से वो फूली न समाती. बसुआ ने कालिज पूरा किया. एक प्राईवेट स्कूल से एम बी ए किया. फिर वो एक प्राईवेट कम्पनी में अच्छी पोजीशन पर लग गया. हर मौकों पर सरौता बाई खुश होती रही. उसकी तपस्या का फल उसे मिल रहा था. उसने अभी अपने काम नहीं छोड़े थे. एम बी ए की पढ़ाई के दौरान लिया कर्जा अभी बसुआ चुका रहा था शायद. सो सरौता बाई काम करती रही. उम्र के साथ साथ उसे खाँसी की बीमारी भी लग गई. रात रात भर खाँसती रहती.
बसुआ का साथ ही काम कर रही एक लड़की पर दिल आ गया और दोनों ने जल्द ही शादी करने का फैसला भी कर लिया, सरौता बाई भी बहुरिया आने की तैयारी में लग गई.
एक दिन सरौता बाई ५.३० बजे ही आ गई. आज वो उदास दिख रही थी. आज पहली बार उसकी आँखों में आसूं थे. बहुत पूछने पर बताने लगी कि कल जब घर पर चूना गेरु करने का इन्तजाम कर रही थी बहुरिया के स्वागत के लिये, तब बसुआ ने बताया कि बहुरिया यहाँ नहीं रह पायेगी. वो बहुत पढ़ी लिखी और अच्छे घर से ताल्लुक रखती है और वो शादी के लिये इसी शर्त पर राजी हुई है कि मैं उसके साथ उनके पिता जी के घर पर ही रहूँ. वैसे, तू चिन्ता मत कर, मैं बीच बीच में आता रहूँगा मिलने.
कोई भी काम हो तो फोन नम्बर भी दिया है कि इस पर फोन लगवा लेना. उसे चिन्ता लगी रहेगी. बहुत ख्याल रखता है बेचारा बसुआ. जाते जाते कह रहा था कि अब तो मेरा खर्च भी तुझको नहीं उठाना है. बसुआ पढ़ लिख गया है तो तू एकाध घर कम कर ले और हफ्ते में एक टाईम की छुट्टी भी लिया कर. अकेले के लिये कितना दौड़ेगी भागेगी आखिर तू. और अब इस उम्र भी तू पहले की तरह काम करेगी तो सोच, मुझे कितनी तकलीफ होगी. आखिर बेटा हूँ तेरा.
तब से सरौता बाई रोज ५.३० बजे आने लगी.
सोमवार, अक्तूबर 29, 2007
१.३० घंटे मे ५० चिट्ठे मय टिप्पणी निपटायें
बचपन में परीक्षा की तैयारी करते थे. मास्साब सफलता का पाठ पढ़ाते थे ट्यूशन में. गुर दिया गया कि जैसे ही परचा हाथ में आये, सबसे पहले एक नजर पूरा परचा देख लो. फिर एक एक दो दो नम्बर वाले प्रश्न, जिसमें सिर्फ हाँ नहीं, छोटे छोटे जबाब देने हैं, उन्हे फटाफट कर डालो. फिर वो प्रश्न उठाओ, जिसका उत्तर तुम बखूबी से जानते हो. उन्हें फटाफट हल कर दो. अब बाकि के धीरे धीरे सोच समझ के जबाब देते जाओ. अगर किसी में फंस रहे हो, हल नहीं निकल रहा, तो जहाँ तक किया है वहीं छोड़ कर आगे अगले प्रश्न पर चले जाओ. बाद में समय बचे तो आकर फिर कोशिश करना. ध्यान रहे, जितने ज्यादा हल करोगे, उतना अच्छा परिणाम आयेगा. छूटे प्रश्न पर अंक भी शून्य मिला करते हैं. कुछ भी कोशिश की होगी तो शायद कुछ हिस्सा सही निकल जाये और परीक्षक उतने हिस्से के अंक दे दे.
उनका कहना था कि परीक्षा भी मेनेज्मेंट की बात है. टाईम मेनेज्मेंट, एक्साईटमेन्ट मेनेज्मेंट, कन्टेन्ट मेनेज्मेंट सभी लागू होते हैं. कहीं भी चूके और गये. उनके गुर हर परीक्षा में काम आये.
ऊँचे दर्जे के साथ जब कोर्स की किताबें मोटी होने लग गई तो समय तो वही २४ घंटे रहा उल्टे कॉलेज में ज्यादा समय लगने लगा. दोस्त बढ़ गये. घूमने फिरने का दायरा बढ़ गया. दीगर शौकों में समय जाने लगा. तब एक दिन उन्होंने हमें समस्या से जूझते देख एक नया गुर सिखाया-स्पीड रिडिंग-शीघ्र पठन जो रियाज के साथ साथ अतिशीघ्र पठन यानि रेपिड रिडिंग को प्राप्त हुआ. वही ध्यान तेज लेखन याने फास्ट राईटिंग की तरफ भी दिलवाया गया.
उनके शीघ्र पठन वाले गुर का भरपूर फायदा हमने उस समय नावेल पढ़ने में उठाया. वो सिखाते थे कि अगर मटेरियल सिर्फ जानकारी और मनोरंजन के लिये पढ़ा जा रहा और याद रखने की महती आवश्यक्ता नहीं है तो उसे पढ़ते वक्त शब्द शब्द नहीं, लाईन लाईन पढ़ो. पैराग्राफ नजर से स्कैन करो और आगे बढ़ो. किस विषय में है वो प्रस्तावना थोड़ा अधिक ध्यान से, व्याख्या स्कैनिंग मोड में और फिर निष्कर्ष पुनः थोड़ा ध्यान से. बस. इस तरह आप पूरा जान भी लेंगे और शब्द शब्द पढ़ने की अपेक्षाकृत १० प्रतिशत समय में आपका काम हो जायेगा. कभी कोई चीज विशेष पसंद आ जाये तो जितना चाहे लुत्फ लेकर पढ़ो. समय तुम्हारा है कौन रोक सकता है.ऐसे ही कुछ पठन, उसकी प्रस्तावना, शीर्षक और विषय देखकर भी छोड़ सकते हो कि वो आपके पसंद का नहीं हो सकता. समय बचता है. कितनी नावेल बस प्रस्तावना पढ़कर आगे नहीं पढ़ीं. कई उपन्यासकारों की शैली देखकर आपको रुचिकर नहीं लगता तो आप फिर उसका नाम देखकर दूसरी किताब पर चले जायें. ९५% आपका निर्णय सही ही होगा.
इस परीक्षा देने के, अतिशीघ्र पठन और तेज लेखन के गुरों की गठरी बना कर मैने इसका ब्लॉगजगत में पिछले एक वर्ष से खूब इस्तेमाल किया.
आज की स्थितियों में मान लिजिये, दिन की ५० पोस्ट आ रही हैं. मुझे इन ५० पोस्टों को पढ़ने और टिप्पणी करने में मात्र १ से १.३० घंटे का समय देना होता है बस!! क्या आप विश्वास करेंगे? इतना समय तो सभी चिट्ठाकार बिताते होंगे नेट पर बल्कि ज्यादा ही.
मेरा नियम होता है कि पहले मैं छोटी छोटी पोस्ट, कविता आदि निपटाऊँ. फिर समाचार, फोटो आदि और फिर बड़े गद्य. उन बड़े गद्यों में अधिकतर स्कैन मोड़ में. कुछ जो पसंद आये, उन्हें अपना समय है के अंदाज में. मगर जो भी पढ़ूँ, देखूँ या सरियायूँ (स्कैन रिडिंग का हिन्दीकरण), उस पर शीघ्र लेखन (टाईपिंग और अब तो कट पेस्ट की सुविधा हमेशा हाजिर रहती है, कुछ वाक्य वर्ड पैड में लिखकर रख लें न, क्या बार टाईप करना जब दो की स्ट्रोक में १० की स्ट्रोक निपट सकते हैं) का फायदा उठाते हुए टिप्पणी अवश्य दर्ज करुँ ताकि अगला जान सके कि उसकी मेहनत पर हमारी नजर गई है. वो आगे भी मेहनत करने का उत्साह प्राप्त करेगा और आप जब मेहनत करेंगे, तब वह भी आपको उत्साहित करने आयेगा.
२० मिनट में फ्रस्ट फेज (छोटी छोटी पोस्ट, कविता) १५ मिनट में सेकेन्ड फेज (समाचार, फोटो आदि ), १५ मिनट में बाकी स्कैनिंग (बड़े गद्यों में अधिकतर स्कैन मोड़) बाकि का समय अपना पसंदीदा इस स्कैनिंग मोड से उपलब्ध लेखन. अब यदि आप १.३० घंटा दे रहे हैं तो पसंदीदा देखने के लिये आपके पास ४० मिनट बच रहे याने कम से कम १२० लाईन...अधिकतर गद्य २० से ४० लाईन के भीतर ही होते हैं ब्लॉग पर.(अपवाद माननीय फुरसतिया जी, उस दिन अलग से समय देना होता है खुशी खुशी) तो कम से कम ४ से ५ आराम से. चलो, कम भी करो तो ३. बहुत है गहराई से एक दिन में पढने के लिये. (कुछ इस श्रेणी में भी निकल जाते हैं - कुछ पठन की प्रस्तावना, शीर्षक और विषय देखकर भी आप उसे छोड़ सकते हैं कि वो आपके पसंद का नहीं हो सकता.)
अब यदि आपके मन में प्रश्न है कि १ मिनट में दो लाईन कैसे पढ़ पायेंगे (इस स्पीड में तो लाईन याद हो जायेगी, मेरे भाई)- तो भाई मेरे, आप इस लाईन में ही गलत आ गये हो. यहाँ से तो नमस्ते कर लो और राजनीति में किस्मत आजमाओ, सफलता आपके कदम चूमेगी, यह मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ और मेरी शुभकामनायें तो हैं ही.
अंत में निष्कर्ष कि जितना अपने लेखन को समय दो उससे चार गुना समय पठन को दो. कोई आवश्यक नहीं कि रोज लिखें. नये लोगों को नाम देख देख कर अहसास होने लगता है कि मैं खूब लिखता हूँ मगर विश्वास जानिये मेरी एक माह में मात्र १० से ११ पोस्ट होती हैं अर्थात हफ्ते में दो से तीन का औसत. अक्सर दो ही. मगर समय वही रोज १.३० से २ घंटे औसत. किया जा सकता है इतना शौक के लिये, हिन्दी की सेवा के लिये, खुद के मन की शांति के लिये और नाम कमाने के लिये. क्या पता कल को यह भी जुड़ जाये कि कुछ कमाई के लिये.
(आशा है शास्त्री जी, ज्ञान जी और अनूप शुक्ल जी को मेरे इतना समय चिट्ठाकारी को देने का रहस्य उजागर कर मैं संतुष्ट कर पाया और यह नये लोगों के लिये भी उपयोगी सिद्ध होगा)
तो शुरु करें अपनी टिप्पणी यात्रा इसी पोस्ट से.
उनका कहना था कि परीक्षा भी मेनेज्मेंट की बात है. टाईम मेनेज्मेंट, एक्साईटमेन्ट मेनेज्मेंट, कन्टेन्ट मेनेज्मेंट सभी लागू होते हैं. कहीं भी चूके और गये. उनके गुर हर परीक्षा में काम आये.
ऊँचे दर्जे के साथ जब कोर्स की किताबें मोटी होने लग गई तो समय तो वही २४ घंटे रहा उल्टे कॉलेज में ज्यादा समय लगने लगा. दोस्त बढ़ गये. घूमने फिरने का दायरा बढ़ गया. दीगर शौकों में समय जाने लगा. तब एक दिन उन्होंने हमें समस्या से जूझते देख एक नया गुर सिखाया-स्पीड रिडिंग-शीघ्र पठन जो रियाज के साथ साथ अतिशीघ्र पठन यानि रेपिड रिडिंग को प्राप्त हुआ. वही ध्यान तेज लेखन याने फास्ट राईटिंग की तरफ भी दिलवाया गया.
उनके शीघ्र पठन वाले गुर का भरपूर फायदा हमने उस समय नावेल पढ़ने में उठाया. वो सिखाते थे कि अगर मटेरियल सिर्फ जानकारी और मनोरंजन के लिये पढ़ा जा रहा और याद रखने की महती आवश्यक्ता नहीं है तो उसे पढ़ते वक्त शब्द शब्द नहीं, लाईन लाईन पढ़ो. पैराग्राफ नजर से स्कैन करो और आगे बढ़ो. किस विषय में है वो प्रस्तावना थोड़ा अधिक ध्यान से, व्याख्या स्कैनिंग मोड में और फिर निष्कर्ष पुनः थोड़ा ध्यान से. बस. इस तरह आप पूरा जान भी लेंगे और शब्द शब्द पढ़ने की अपेक्षाकृत १० प्रतिशत समय में आपका काम हो जायेगा. कभी कोई चीज विशेष पसंद आ जाये तो जितना चाहे लुत्फ लेकर पढ़ो. समय तुम्हारा है कौन रोक सकता है.ऐसे ही कुछ पठन, उसकी प्रस्तावना, शीर्षक और विषय देखकर भी छोड़ सकते हो कि वो आपके पसंद का नहीं हो सकता. समय बचता है. कितनी नावेल बस प्रस्तावना पढ़कर आगे नहीं पढ़ीं. कई उपन्यासकारों की शैली देखकर आपको रुचिकर नहीं लगता तो आप फिर उसका नाम देखकर दूसरी किताब पर चले जायें. ९५% आपका निर्णय सही ही होगा.
इस परीक्षा देने के, अतिशीघ्र पठन और तेज लेखन के गुरों की गठरी बना कर मैने इसका ब्लॉगजगत में पिछले एक वर्ष से खूब इस्तेमाल किया.
आज की स्थितियों में मान लिजिये, दिन की ५० पोस्ट आ रही हैं. मुझे इन ५० पोस्टों को पढ़ने और टिप्पणी करने में मात्र १ से १.३० घंटे का समय देना होता है बस!! क्या आप विश्वास करेंगे? इतना समय तो सभी चिट्ठाकार बिताते होंगे नेट पर बल्कि ज्यादा ही.
मेरा नियम होता है कि पहले मैं छोटी छोटी पोस्ट, कविता आदि निपटाऊँ. फिर समाचार, फोटो आदि और फिर बड़े गद्य. उन बड़े गद्यों में अधिकतर स्कैन मोड़ में. कुछ जो पसंद आये, उन्हें अपना समय है के अंदाज में. मगर जो भी पढ़ूँ, देखूँ या सरियायूँ (स्कैन रिडिंग का हिन्दीकरण), उस पर शीघ्र लेखन (टाईपिंग और अब तो कट पेस्ट की सुविधा हमेशा हाजिर रहती है, कुछ वाक्य वर्ड पैड में लिखकर रख लें न, क्या बार टाईप करना जब दो की स्ट्रोक में १० की स्ट्रोक निपट सकते हैं) का फायदा उठाते हुए टिप्पणी अवश्य दर्ज करुँ ताकि अगला जान सके कि उसकी मेहनत पर हमारी नजर गई है. वो आगे भी मेहनत करने का उत्साह प्राप्त करेगा और आप जब मेहनत करेंगे, तब वह भी आपको उत्साहित करने आयेगा.
२० मिनट में फ्रस्ट फेज (छोटी छोटी पोस्ट, कविता) १५ मिनट में सेकेन्ड फेज (समाचार, फोटो आदि ), १५ मिनट में बाकी स्कैनिंग (बड़े गद्यों में अधिकतर स्कैन मोड़) बाकि का समय अपना पसंदीदा इस स्कैनिंग मोड से उपलब्ध लेखन. अब यदि आप १.३० घंटा दे रहे हैं तो पसंदीदा देखने के लिये आपके पास ४० मिनट बच रहे याने कम से कम १२० लाईन...अधिकतर गद्य २० से ४० लाईन के भीतर ही होते हैं ब्लॉग पर.(अपवाद माननीय फुरसतिया जी, उस दिन अलग से समय देना होता है खुशी खुशी) तो कम से कम ४ से ५ आराम से. चलो, कम भी करो तो ३. बहुत है गहराई से एक दिन में पढने के लिये. (कुछ इस श्रेणी में भी निकल जाते हैं - कुछ पठन की प्रस्तावना, शीर्षक और विषय देखकर भी आप उसे छोड़ सकते हैं कि वो आपके पसंद का नहीं हो सकता.)
अब यदि आपके मन में प्रश्न है कि १ मिनट में दो लाईन कैसे पढ़ पायेंगे (इस स्पीड में तो लाईन याद हो जायेगी, मेरे भाई)- तो भाई मेरे, आप इस लाईन में ही गलत आ गये हो. यहाँ से तो नमस्ते कर लो और राजनीति में किस्मत आजमाओ, सफलता आपके कदम चूमेगी, यह मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ और मेरी शुभकामनायें तो हैं ही.
अंत में निष्कर्ष कि जितना अपने लेखन को समय दो उससे चार गुना समय पठन को दो. कोई आवश्यक नहीं कि रोज लिखें. नये लोगों को नाम देख देख कर अहसास होने लगता है कि मैं खूब लिखता हूँ मगर विश्वास जानिये मेरी एक माह में मात्र १० से ११ पोस्ट होती हैं अर्थात हफ्ते में दो से तीन का औसत. अक्सर दो ही. मगर समय वही रोज १.३० से २ घंटे औसत. किया जा सकता है इतना शौक के लिये, हिन्दी की सेवा के लिये, खुद के मन की शांति के लिये और नाम कमाने के लिये. क्या पता कल को यह भी जुड़ जाये कि कुछ कमाई के लिये.
(आशा है शास्त्री जी, ज्ञान जी और अनूप शुक्ल जी को मेरे इतना समय चिट्ठाकारी को देने का रहस्य उजागर कर मैं संतुष्ट कर पाया और यह नये लोगों के लिये भी उपयोगी सिद्ध होगा)
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रविवार, अक्तूबर 28, 2007
राम की चिट्ठी सीता जी के नाम
अभी २ दिन बाद वाशिंग्टन कवि सम्मेलन से लौटा १५ मिनट पहले. चिट्ठों में तो दमादम मची है. चलो, अच्छा है अच्छी परंपरा है सब खुल कर बात करते हैं. यही तो अपनापन है. आज इतनी जल्दी में कुछ लिखने को नहीं है-न ही कवि सम्मेलन की रिपोर्ट. इतने बड़े कवि सम्मेलन जिसमें मेरे अलावा (वो तो लिख जाता) अनूप भार्गव, उनकी पत्नी रजनी भार्गव (सुना है वो ही अनूप जी के लिये भी लिखती है-बकौल मानोशी-वाया फुरसतिया), राकेश खंडेलवाल, घनश्य़ाम गुप्त जी जैसे २५ लोग शिरकत कर रहे हों, वो कैसे संभव हैं...
तो आज के लिये मात्र एक आर्कुट खुदाई की रिपोर्ट पेश कर देता हूँ देवनागरी में. कल पेश कर दूँगा जो मुझसे जमाने से पूछा जा रहा है कि मैं कैसे मैनेज करता हूँ इतनी टिप्पणियां और सारे ब्लॉग पढ़ना....भई, बहुत सरल है, बस एक से ढेढ घंटा चाहिये....अजब लगा न!!! कल पढ़ना मुझे...बताता हूँ कैसे संभव है...५० ब्लॉग १.३० घंटे में निपटाना मय टिप्पणी.....तब तक यह महज मनोरंजन को पढ़ें.:
राम की चिट्ठी सीता जी के नाम पंजाबी में और कलयुग में:
प्यारी सित्ता,
मैं इत्थे राजी खुशी से हां एंड होप के तु वी ठिक ठाक होवेंगी.
लक्ष्मण तेन्नु भोत याद करदा सी.
मैं इस बंदर दे हात्थ तन्नु चिट्ठी भेज रेहा हां.
तु बिल्कुल टेन्शन न लेई मैं भोत जल्दी तेनु रावण कोलो छुड़ा लावांगा.
मैं एअरटेल दा पोस्टपेड ले लिया सी, रावण नु मैं मोबाईल ते भोत गालियाँ काड़िया ते साले ने कट दित्ता.
चल कोई नी मैने आना ता है ही. तान कुटुँगा साले कंजर नु.
मैं तेरे नाल भी एक एअरटेल का प्रीपेड भेज रिया व उस विच १५०० एस एम एस फ्री वाली स्किम हा, तु रोज मेनु एस एम एस करी.
चिन्ता न करी, जद वी गल करने नु जी करे, एक मिस काल मार दियो, मैं वापस फोन्न कर लेवागा.
तु मेरे बिल दी चिन्ता न करी, सुग्रिवा नु पेमेन्ट दा जिम्मा दे दित्ता वै.
अच्छा ओके
सी य्य्यू
विथ लव
दशरथ दा वड्डा पुत्तर ’राम
तो आज के लिये मात्र एक आर्कुट खुदाई की रिपोर्ट पेश कर देता हूँ देवनागरी में. कल पेश कर दूँगा जो मुझसे जमाने से पूछा जा रहा है कि मैं कैसे मैनेज करता हूँ इतनी टिप्पणियां और सारे ब्लॉग पढ़ना....भई, बहुत सरल है, बस एक से ढेढ घंटा चाहिये....अजब लगा न!!! कल पढ़ना मुझे...बताता हूँ कैसे संभव है...५० ब्लॉग १.३० घंटे में निपटाना मय टिप्पणी.....तब तक यह महज मनोरंजन को पढ़ें.:
राम की चिट्ठी सीता जी के नाम पंजाबी में और कलयुग में:
प्यारी सित्ता,
मैं इत्थे राजी खुशी से हां एंड होप के तु वी ठिक ठाक होवेंगी.
लक्ष्मण तेन्नु भोत याद करदा सी.
मैं इस बंदर दे हात्थ तन्नु चिट्ठी भेज रेहा हां.
तु बिल्कुल टेन्शन न लेई मैं भोत जल्दी तेनु रावण कोलो छुड़ा लावांगा.
मैं एअरटेल दा पोस्टपेड ले लिया सी, रावण नु मैं मोबाईल ते भोत गालियाँ काड़िया ते साले ने कट दित्ता.
चल कोई नी मैने आना ता है ही. तान कुटुँगा साले कंजर नु.
मैं तेरे नाल भी एक एअरटेल का प्रीपेड भेज रिया व उस विच १५०० एस एम एस फ्री वाली स्किम हा, तु रोज मेनु एस एम एस करी.
चिन्ता न करी, जद वी गल करने नु जी करे, एक मिस काल मार दियो, मैं वापस फोन्न कर लेवागा.
तु मेरे बिल दी चिन्ता न करी, सुग्रिवा नु पेमेन्ट दा जिम्मा दे दित्ता वै.
अच्छा ओके
सी य्य्यू
विथ लव
दशरथ दा वड्डा पुत्तर ’राम
बुधवार, अक्तूबर 24, 2007
हद करती हैं ये लड़कियाँ भी...
(यह संस्मरणात्मक आलेख मेरे पिछले आलेख ’दो जूतों की सुरक्षित दूरी’ वाले आलेख पर आये कई जिज्ञासु पाठकों की उस जिज्ञासा निवारण के लिये लिखा जा रहा है जिसमें पूछा गया है कि हे गुरुवर, सुकन्या के पीछे चलते वक्त दो जूते की सुरक्षित दूरी का ज्ञान तो आपने दे दिया किन्तु उनके बाजू में चलने/बैठने के विषय में भी हमारा कुछ ज्ञानवर्धन करें. )
आज दफ्तर जाते समय थोड़ा सजने (यहाँ की भाषा में-ड्रेस अप) का मन हो लिया. होता है कभी कभी. युवा मन है, मचल उठता है. मैं भी बुरा नहीं मानता, मेरा ही तो है.
टॉमी की सफेद कमीज, कालर से झांकती लाल पट्टी वाली, जिसे मैं खास मौकों पर पहनता हूँ. लोगों ने बताया है कि इसमें मैं बहुत स्मार्ट नजर आता हूँ.
साथ में काली फुल पेन्ट, काले मोजे, सॉलिड पॉलिश किये लगभग नये से पिछले साल कानपुर से खरीदे जूते. थोड़ा पाउडर भी लगा लिया चेहरे पर और फिर फाईनल टच-अज़ारो का परफ्यूम-वाह. कभी उसका विज्ञापन देखना. उसमे बताया है कि महक ऐसी कि रुप खिंचा खिंचा चला आये. जब भी लगाता हूँ लोग पूछते हैं कि आज कौन सा परफ्यूम लगाया है. बड़े इम्प्रेस होते हैं. मुझे तो मालूम नहीं था, विज्ञापन में देखा था और लोगों ने बताया है.
निकलते निकलते वो काला चश्मा, वाह!! कितने ही लोग कह चुके हैं कि बहुत फबता है मेरे उपर. तभी तो अपना फोटो उसी चश्में को पहन कर खिंचाई है.
आकर ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गया हूँ. बाजू की सीट खाली है. बैग से परसाई जी की किताब ‘माटी कहे कुम्हार से’ निकाल कर पढ़ने लगता हूँ.
अगले ही स्टेशन मेरे बाजू वाली सीट एक सुपात्र को प्राप्त हुई. एक सुन्दर युवती, उम्र तो जरुर रही होगी गुजरते योवन वाली ३७-३८ वर्ष, मगर वह उसे ३० पार न होने देने के लिये सफलतापूर्वक संघर्षरत थी. उसके जज्बे और सफलता को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ. यह सजगता और यह संघर्ष का जज्बा हर स्त्री पुरुष में रहना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है.
उसने अपने आप को व्यवस्थित किया. मैने कनखियों से देखा था. मैं किताब पढ़ता रहा.
तब तक एकाएक बोली-’हैलो, कैसे हैं आप?"
आह्हा!! परफ्यूम का कमाल- रुप खिंचा खिंचा चला आये. मगर वह पूछते समय भी अपनी नजर सामने अखबार में गड़ाई रही. मैं समझ गया, संस्कारी कन्या है, नहीं चाहती कि किसी और को पता चले कि मुझसे बात कर रही है.
मैने भी किताब में ही झूठमूठ मन लगाये सकुचाते हुये कहा, "जी, मैं ठीक हूँ और आप?"
वो कहने लगी, "कब से सोच रही थी मगर आज बात हो पाई."
ह्म्म!! जरुर सफेद शर्ट लाल पट्टी के साथ कमाल दिखा रही है. लोग सही ही कह रहे थे. मैने धीरे से फुसफुसाते लहजे में ही कहा, "जी, चलिये कम से कम आज सिलसिला तो शुरु हुआ." मैं भी संस्कारी हूँ इसलिये फुसफुसा कर कहा.
वो हंसी. मैं मुस्कराया.
उसने कहा, "लंच पर मिलोगे?"
मैने कहा, ’जरुर, कहाँ मिलना है?" मुझे लगा कि जरुर चश्मे ने भी गजब ढ़हाया होगा. बाकी तो लंच पर मिलने पर उसका क्या हाल होगा जब मैं बताऊँगा कि मैं चिट्ठाकार हूँ और सन २००६-०७ का तरकश स्वर्ण कमल और इंडी ब्लॉगीज पुरुस्कार से नवाजा गया हूँ. यू ट्यूब के कवि सम्मेलन के विडियो लिंक जो दूँगा तो फूली न समायेगी कि किस सेलेब्रेटी से मुलाकात हो ली है.
वो बोली, "ठीक है, वहीं मिलते हैं जहाँ पिछली बार मिले थे. ठीक दो बजे."
अब मुझे लगा कि कुछ क्न्फ्यूजन है. मैं कब मिला इन मोहतरमा से. मैने उनकी तरफ पहली बार मूँह फिराया तो देखा वो कान में फंसाने वाले मोबाईल (अरे, ब्लू टूथ) पर किसी से बात करती हुई हंस रही थी. हद हो गई और मैं समझता रहा कि मुझसे बात चल रही है. एकाएक उसने मेरी तरफ मुखातिब होकर पूछा-"आपने कुछ कहा?"
मैने कहा,"नहीं तो."
अरे, मैं क्यूँ कुछ कहूँगा किसी अजनबी औरत से-अच्छा खासा शादीशुदा दो जवान बेटों का बाप-ऐसा सालिड एक्सक्यूज होते हुए भी. बस, समझो. किसी तरह बच निकले.वो तो लफड़ा मचा नहीं वरना तो सुरक्षाकवच ऐसे ऐसे थे कि जबाब न देते बनता उनसे. मैं तो तैयार ही था कहने को कि हम भारतीय है. हमारी संस्कृति में विवाहित महिलाये ऐसी नहीं होती कि पूछती फिरें –आपने कुछ कहा? अरे, हमारे यहाँ तो सही में भी अपरिचित महिला से कुछ पूछ लो तो कट के सर झुका के लज्जावश निकल लेती है. लज्जा को नारी के गहने का दर्जा दिया गया है. उस संस्कृति से आते हैं हम. तुम क्या जानो.
हद है भाई!! अफसोस होता है.
मैं तो खुश नहीं हूँ इन छोटे छोटे मोबाईल फोनों के आने से. ससूरे, साफ साफ दिखते भी नहीं हैं और कन्फ्यूजन क्रियेट करते हैं. आग लगे ऐसे छोटे मोबाईल के फैशन में.
सीख (ध्यान से पढ़ें): यदि कोई अजनबी सुन्दर कन्या, जो जन्म से अंधी नहीं है, आपकी काया, रंगरुप और उम्र की गवाही देते खिचड़ी बालों की प्रदर्शनी को देखते हुये भी, खुद से बढ़कर, आपसे अनायास अकारण आकर्षित होते हुये बात प्रारंभ करे (इस बात के होने की संभावना से कहीं ज्यादा प्रबल संभावना इस बात की है कि आप पर आकाश से बिजली गिर गई और आप सदगति को प्राप्त हुए (इस तरह की सदगति की संभावना करोंड़ों में एक आंकी गई है ज्ञानियों के द्वारा)), तब आप कम से कम दो बार उसे देखें और न हो तो बिना शरमाये पूछ लें कि क्या वो आप से मुखातिब हैं? कोई बुराई नहीं है पहले पूछ लेने में बनिस्पत कि बात में बेवकूफ बन इधर उधर बगलें ताकने के)
(प्रिय जिज्ञासु पाठक, यही ज्ञान आगे आगे चलने में भी काम आयेगा. जब आपको लगे कि पीछे से उसने आपको आवाज लगाई है. :))
पुनश्चः: मेरी व्यक्तिगत सुरक्षा की दृष्टी से इस कथा को काल्पनिक ही माना जाये.
आज दफ्तर जाते समय थोड़ा सजने (यहाँ की भाषा में-ड्रेस अप) का मन हो लिया. होता है कभी कभी. युवा मन है, मचल उठता है. मैं भी बुरा नहीं मानता, मेरा ही तो है.
टॉमी की सफेद कमीज, कालर से झांकती लाल पट्टी वाली, जिसे मैं खास मौकों पर पहनता हूँ. लोगों ने बताया है कि इसमें मैं बहुत स्मार्ट नजर आता हूँ.
साथ में काली फुल पेन्ट, काले मोजे, सॉलिड पॉलिश किये लगभग नये से पिछले साल कानपुर से खरीदे जूते. थोड़ा पाउडर भी लगा लिया चेहरे पर और फिर फाईनल टच-अज़ारो का परफ्यूम-वाह. कभी उसका विज्ञापन देखना. उसमे बताया है कि महक ऐसी कि रुप खिंचा खिंचा चला आये. जब भी लगाता हूँ लोग पूछते हैं कि आज कौन सा परफ्यूम लगाया है. बड़े इम्प्रेस होते हैं. मुझे तो मालूम नहीं था, विज्ञापन में देखा था और लोगों ने बताया है.
निकलते निकलते वो काला चश्मा, वाह!! कितने ही लोग कह चुके हैं कि बहुत फबता है मेरे उपर. तभी तो अपना फोटो उसी चश्में को पहन कर खिंचाई है.
आकर ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गया हूँ. बाजू की सीट खाली है. बैग से परसाई जी की किताब ‘माटी कहे कुम्हार से’ निकाल कर पढ़ने लगता हूँ.
अगले ही स्टेशन मेरे बाजू वाली सीट एक सुपात्र को प्राप्त हुई. एक सुन्दर युवती, उम्र तो जरुर रही होगी गुजरते योवन वाली ३७-३८ वर्ष, मगर वह उसे ३० पार न होने देने के लिये सफलतापूर्वक संघर्षरत थी. उसके जज्बे और सफलता को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ. यह सजगता और यह संघर्ष का जज्बा हर स्त्री पुरुष में रहना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है.
उसने अपने आप को व्यवस्थित किया. मैने कनखियों से देखा था. मैं किताब पढ़ता रहा.
तब तक एकाएक बोली-’हैलो, कैसे हैं आप?"
आह्हा!! परफ्यूम का कमाल- रुप खिंचा खिंचा चला आये. मगर वह पूछते समय भी अपनी नजर सामने अखबार में गड़ाई रही. मैं समझ गया, संस्कारी कन्या है, नहीं चाहती कि किसी और को पता चले कि मुझसे बात कर रही है.
मैने भी किताब में ही झूठमूठ मन लगाये सकुचाते हुये कहा, "जी, मैं ठीक हूँ और आप?"
वो कहने लगी, "कब से सोच रही थी मगर आज बात हो पाई."
ह्म्म!! जरुर सफेद शर्ट लाल पट्टी के साथ कमाल दिखा रही है. लोग सही ही कह रहे थे. मैने धीरे से फुसफुसाते लहजे में ही कहा, "जी, चलिये कम से कम आज सिलसिला तो शुरु हुआ." मैं भी संस्कारी हूँ इसलिये फुसफुसा कर कहा.
वो हंसी. मैं मुस्कराया.
उसने कहा, "लंच पर मिलोगे?"
मैने कहा, ’जरुर, कहाँ मिलना है?" मुझे लगा कि जरुर चश्मे ने भी गजब ढ़हाया होगा. बाकी तो लंच पर मिलने पर उसका क्या हाल होगा जब मैं बताऊँगा कि मैं चिट्ठाकार हूँ और सन २००६-०७ का तरकश स्वर्ण कमल और इंडी ब्लॉगीज पुरुस्कार से नवाजा गया हूँ. यू ट्यूब के कवि सम्मेलन के विडियो लिंक जो दूँगा तो फूली न समायेगी कि किस सेलेब्रेटी से मुलाकात हो ली है.
वो बोली, "ठीक है, वहीं मिलते हैं जहाँ पिछली बार मिले थे. ठीक दो बजे."
अब मुझे लगा कि कुछ क्न्फ्यूजन है. मैं कब मिला इन मोहतरमा से. मैने उनकी तरफ पहली बार मूँह फिराया तो देखा वो कान में फंसाने वाले मोबाईल (अरे, ब्लू टूथ) पर किसी से बात करती हुई हंस रही थी. हद हो गई और मैं समझता रहा कि मुझसे बात चल रही है. एकाएक उसने मेरी तरफ मुखातिब होकर पूछा-"आपने कुछ कहा?"
मैने कहा,"नहीं तो."
अरे, मैं क्यूँ कुछ कहूँगा किसी अजनबी औरत से-अच्छा खासा शादीशुदा दो जवान बेटों का बाप-ऐसा सालिड एक्सक्यूज होते हुए भी. बस, समझो. किसी तरह बच निकले.वो तो लफड़ा मचा नहीं वरना तो सुरक्षाकवच ऐसे ऐसे थे कि जबाब न देते बनता उनसे. मैं तो तैयार ही था कहने को कि हम भारतीय है. हमारी संस्कृति में विवाहित महिलाये ऐसी नहीं होती कि पूछती फिरें –आपने कुछ कहा? अरे, हमारे यहाँ तो सही में भी अपरिचित महिला से कुछ पूछ लो तो कट के सर झुका के लज्जावश निकल लेती है. लज्जा को नारी के गहने का दर्जा दिया गया है. उस संस्कृति से आते हैं हम. तुम क्या जानो.
हद है भाई!! अफसोस होता है.
मैं तो खुश नहीं हूँ इन छोटे छोटे मोबाईल फोनों के आने से. ससूरे, साफ साफ दिखते भी नहीं हैं और कन्फ्यूजन क्रियेट करते हैं. आग लगे ऐसे छोटे मोबाईल के फैशन में.
सीख (ध्यान से पढ़ें): यदि कोई अजनबी सुन्दर कन्या, जो जन्म से अंधी नहीं है, आपकी काया, रंगरुप और उम्र की गवाही देते खिचड़ी बालों की प्रदर्शनी को देखते हुये भी, खुद से बढ़कर, आपसे अनायास अकारण आकर्षित होते हुये बात प्रारंभ करे (इस बात के होने की संभावना से कहीं ज्यादा प्रबल संभावना इस बात की है कि आप पर आकाश से बिजली गिर गई और आप सदगति को प्राप्त हुए (इस तरह की सदगति की संभावना करोंड़ों में एक आंकी गई है ज्ञानियों के द्वारा)), तब आप कम से कम दो बार उसे देखें और न हो तो बिना शरमाये पूछ लें कि क्या वो आप से मुखातिब हैं? कोई बुराई नहीं है पहले पूछ लेने में बनिस्पत कि बात में बेवकूफ बन इधर उधर बगलें ताकने के)
(प्रिय जिज्ञासु पाठक, यही ज्ञान आगे आगे चलने में भी काम आयेगा. जब आपको लगे कि पीछे से उसने आपको आवाज लगाई है. :))
पुनश्चः: मेरी व्यक्तिगत सुरक्षा की दृष्टी से इस कथा को काल्पनिक ही माना जाये.
रविवार, अक्तूबर 21, 2007
कृप्या दो जूते की सुरक्षित दूरी बनाये रखें...
बुजुर्ग कहते हैं जीवन एक पाठशाला है जहाँ व्यक्ति रोज कुछ नया सीखता है.
सच कहते हैं. बुजुर्ग वैसे भी जो कुछ कह गये वो सच ही कह गये हैं. उनको तो कुछ झेलना था नहीं. कहा और निकल लिये और अब आप उनका कहा पालन करिये और झेलिये.
बड़ी मुश्किल यह है कि जो भी कह गये आधा कह गये हमेशा. सेफ प्ले किया.
देखिये, एक दिन आलोक पुराणिक ज्ञान बीड़ी जलाये बैठे थे कि बुजुर्ग कह गये-’झूठ बोले कौव्वा काटे’ . आगे कुछ नहीं कह गये और चले गये. सच बोले तो?? कहते हैं कि झूठ बोलने पर सिर्फ कौव्वा काटता है और सच बोलने पर सांप, जैसे कि सत्यवादी हरीश चन्द्र जी के लड़के को काट गया.
कह गये ’नेकी कर दरिया में डाल’-कहा और चले गये. बताया ही नही कि चालबाजी कर और तिजोरी भर. वो तो भला हो बिगडैल औलादों का, जिन्हें हम नेता के नाम से जानते हैं, जिन्हें सिद्धान्तः बड़े बुजुर्गों की बात के विपरीत ही जाना है. उन्होंने बाकी आधे को ईजाद कर दिखाया. चालबाजी कर और तिजोरी भर. नेताओं का समाज पर यह उपकार कभी नहीं भुलाया जा सकेगा.
भुलाया तो गुण्डों का भी नहीं जा सकेगा जिन्होंने इस अधूरी दास्तान को पूरा किया. कहा गया कि ’इज्जत दो इज्जत मिलेगी’.आगे भाई लोगों ने पूरा किया कि दम दो, धमकाओ, बंदा पैर पर गिर पड़ेगा और पैसा मिलेगा सो बोनस.
खैर वापस आते हैं ’जीवन एक पाठशाला है जहाँ व्यक्ति रोज कुछ नया सीखता है.’
हम तो उपर की दोनों श्रेणी, नेता और गुण्डा में नहीं आ पाये हैं अभी तक. हालांकि कोशिश जारी है और मन भी बहुत करता है. इसलिये जैसा बताया गया, मान लिया. आज नया सीख कर लौटे हैं जीवन की पाठशाला से, तो बाँटे दे रहे हैं.
हुआ यह कि स्टेशन की सीढ़ियां चढ़ रहा था. सामने एक सुकन्या-तीन इंच की पैन्सिल हील पहने बड़ी ही अदा से चढ़ रही थी. वो एक सीढ़ी पर और हम अगली पर-एकदम पीछे. अदाकारी न चाहते हुये भी दिख ही जा रही थी. एकाएक न जाने क्या हुआ कि मोहतरमा का एक पैर हल्का सा गलत पड़ा और जूता पैर का साथ छोड़ हवा में होता हुआ हमारे मुँह पर. हद हो गई. बिना छेड़े पिट लिये. एक सुन्दर पत्नी के पति और दो जवान लड़कों के बाप के मुँह पर एक विदेशी सुकन्या का तीन इंच हील का जूता सीधे तड़ाक से. हम सन्न. कन्या सन्न. फिर न जाने क्या हुआ-उसने बिना अपनी गल्ती के भी माफी मांगी, हमने पिटने के बाद भी, उन्हें रिवाज के मुताबिक सुकन्या होने का फायदा देते हुये मुस्कराते हुए माफ कर दिया. बस, जीवन की इस पाठशाला में एक नया अध्याय पढ़ लिया, सीख लिया, कंठस्थ कर लिया.
’जब भी किसी सुकन्या के पीछे चलिये, कृप्या दो जूते की सुरक्षित दूरी बनाये रखें’ अर्थात कम से कम दो सीढ़ी पीछे चढ़ो.
बरफ से नाँक सेकते हुए सोचा कि आपको भी बताता चलूँ ताकि सनद रहे और वक्त पर आपके काम आये. यह सीख मेरे उन नौजवान साथियों को ज्यादा काम आयेगी जो कुछ ज्यादा ही नजदीक चलते हैं सुकन्याओं के पीछे. :)
सच कहते हैं. बुजुर्ग वैसे भी जो कुछ कह गये वो सच ही कह गये हैं. उनको तो कुछ झेलना था नहीं. कहा और निकल लिये और अब आप उनका कहा पालन करिये और झेलिये.
बड़ी मुश्किल यह है कि जो भी कह गये आधा कह गये हमेशा. सेफ प्ले किया.
देखिये, एक दिन आलोक पुराणिक ज्ञान बीड़ी जलाये बैठे थे कि बुजुर्ग कह गये-’झूठ बोले कौव्वा काटे’ . आगे कुछ नहीं कह गये और चले गये. सच बोले तो?? कहते हैं कि झूठ बोलने पर सिर्फ कौव्वा काटता है और सच बोलने पर सांप, जैसे कि सत्यवादी हरीश चन्द्र जी के लड़के को काट गया.
कह गये ’नेकी कर दरिया में डाल’-कहा और चले गये. बताया ही नही कि चालबाजी कर और तिजोरी भर. वो तो भला हो बिगडैल औलादों का, जिन्हें हम नेता के नाम से जानते हैं, जिन्हें सिद्धान्तः बड़े बुजुर्गों की बात के विपरीत ही जाना है. उन्होंने बाकी आधे को ईजाद कर दिखाया. चालबाजी कर और तिजोरी भर. नेताओं का समाज पर यह उपकार कभी नहीं भुलाया जा सकेगा.
भुलाया तो गुण्डों का भी नहीं जा सकेगा जिन्होंने इस अधूरी दास्तान को पूरा किया. कहा गया कि ’इज्जत दो इज्जत मिलेगी’.आगे भाई लोगों ने पूरा किया कि दम दो, धमकाओ, बंदा पैर पर गिर पड़ेगा और पैसा मिलेगा सो बोनस.
खैर वापस आते हैं ’जीवन एक पाठशाला है जहाँ व्यक्ति रोज कुछ नया सीखता है.’
हम तो उपर की दोनों श्रेणी, नेता और गुण्डा में नहीं आ पाये हैं अभी तक. हालांकि कोशिश जारी है और मन भी बहुत करता है. इसलिये जैसा बताया गया, मान लिया. आज नया सीख कर लौटे हैं जीवन की पाठशाला से, तो बाँटे दे रहे हैं.
हुआ यह कि स्टेशन की सीढ़ियां चढ़ रहा था. सामने एक सुकन्या-तीन इंच की पैन्सिल हील पहने बड़ी ही अदा से चढ़ रही थी. वो एक सीढ़ी पर और हम अगली पर-एकदम पीछे. अदाकारी न चाहते हुये भी दिख ही जा रही थी. एकाएक न जाने क्या हुआ कि मोहतरमा का एक पैर हल्का सा गलत पड़ा और जूता पैर का साथ छोड़ हवा में होता हुआ हमारे मुँह पर. हद हो गई. बिना छेड़े पिट लिये. एक सुन्दर पत्नी के पति और दो जवान लड़कों के बाप के मुँह पर एक विदेशी सुकन्या का तीन इंच हील का जूता सीधे तड़ाक से. हम सन्न. कन्या सन्न. फिर न जाने क्या हुआ-उसने बिना अपनी गल्ती के भी माफी मांगी, हमने पिटने के बाद भी, उन्हें रिवाज के मुताबिक सुकन्या होने का फायदा देते हुये मुस्कराते हुए माफ कर दिया. बस, जीवन की इस पाठशाला में एक नया अध्याय पढ़ लिया, सीख लिया, कंठस्थ कर लिया.
’जब भी किसी सुकन्या के पीछे चलिये, कृप्या दो जूते की सुरक्षित दूरी बनाये रखें’ अर्थात कम से कम दो सीढ़ी पीछे चढ़ो.
बरफ से नाँक सेकते हुए सोचा कि आपको भी बताता चलूँ ताकि सनद रहे और वक्त पर आपके काम आये. यह सीख मेरे उन नौजवान साथियों को ज्यादा काम आयेगी जो कुछ ज्यादा ही नजदीक चलते हैं सुकन्याओं के पीछे. :)
गुरुवार, अक्तूबर 18, 2007
मीर की गज़ल सा.......
आज कुछ ऐसे ही लिख देने का मन हुआ. देखिये, आपको कैसा लगा!!!
मीर की गज़ल सा.......
गांव की
गली के उस नुक्कड पर
बरगद की छांव तले
माई बेरी की ढ़ेरी लगाती थी
हम सब उसे नानी कहते थे.
सड़क पार कोठरी मे रहती थी
कम पैसे रहने पर भी
बेर न कम करती....
हमेशा मुस्कराती.
पिछली बार जब भारत गया
तब कहानियां हवा में थी..
सुना है वो पेड़ कट गया
उसी शाम
माई नही रही.....
अब वहाँ पेड़ की जगह मॉल बनेगा
और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शोचालय कहलाती है.
-मेरा बचपन खत्म हुआ!!!!!!
कुछ बुढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!
मीर की गज़ल सा................
--समीर लाल ’समीर’
मीर की गज़ल सा.......
गांव की
गली के उस नुक्कड पर
बरगद की छांव तले
माई बेरी की ढ़ेरी लगाती थी
हम सब उसे नानी कहते थे.
सड़क पार कोठरी मे रहती थी
कम पैसे रहने पर भी
बेर न कम करती....
हमेशा मुस्कराती.
पिछली बार जब भारत गया
तब कहानियां हवा में थी..
सुना है वो पेड़ कट गया
उसी शाम
माई नही रही.....
अब वहाँ पेड़ की जगह मॉल बनेगा
और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शोचालय कहलाती है.
-मेरा बचपन खत्म हुआ!!!!!!
कुछ बुढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!
मीर की गज़ल सा................
--समीर लाल ’समीर’
मंगलवार, अक्तूबर 16, 2007
हे कुत्ता जी महाराज, विधायक को आ जाने दो!!!
हे कुता जी महाराज, आज न काटना. विधायक जी शहर के बाहर हैं. यह आम पुकार आपको शीघ्र गली मुहल्ले नुक्कड़ पर जल्द ही सुनाई देने लगेगी.
सुना था कुता काट खाये तो चौदह मोटे मोटे इंजेक्शन पेट में लगवाना पड़ते हैं और उस कुत्ते को, जिसने काटा है, खोज करके उस पर नजर रखनी होती है. अगर चौदह दिन में वो मर गया तब मामला मोटा हो गया समझो. तब लोग जिस कुत्ते ने काटा उस पर और उसके चारों ओर नजर दौड़ाते थे उसके हाव भाव देखने के लिये.
आज मामला बदल गया है. कुत्ता काट ले तो कुत्ते पर तो बाद में नजर रखी जायेगी और क्षेत्र के विधायक पर पहले. अगर विधायक नहीं मिला तो मरना तय ही समझो. कुत्ता न मिले चल जायेगा. आज कुत्ते के काटने पर उससे ज्यादा इम्पोर्टेन्ट विधायक जी हो गये हैं. और कुत्ते से उपर उन्हें सम्मान नवाजने का कार्य किया है झारखण्ड सरकार ने. अभी अभी समचार सुनता था जिसमें झारखण्ड सरकार ने नया निर्णय लिया है:
अगर किसी को कुत्ता काट ले तो उसे इन्जेक्शन लगाने के पहले क्षेत्रिय विधायक की मंजूरी की आवश्यक्ता होगी.
हद है. कुत्ता काट ले और विधायक महोदय विधान सभा का सत्र अटेन्ड करने राजधानी में हों, तब तो फिर भी पकड़ सकते हैं मगर यदि वो अपनी उन के साथ सिंगापुर घूम रहे हों या किसी अज्ञात स्थली के भ्रमण पर हों, तब??
बस एक ही रास्ता बचेगा कि कुत्ते की पूजा की जाये कि हे प्रभु, विधायक महोदय के आने तक न काटना या मरना. एक बार जब वो तुम्हारा स्थान ले लें फिर चाहे तुम मरो या जिओ, कोई अंतर नहीं पड़ता.
किसी ने पूछ ही लिया कि जैसे ही कुत्ते ने आपको काटा, आपके मन में क्या आया? आपको किसकी याद आई?
अनायास ही मेरे मुँह से निकल पड़ा-मुझे विधायक महोदय की याद आई!!
क्या बात है कि काटे कुत्ता और गाली निकले विधायक के लिये कि इस समय कहाँ निकल गये.
यूँ तो सही है कि दोनों ही ढ़ूँढ़े नहीं मिलते वक्त पर.
वैसे तो यह भी शास्वत सत्य है कि नेता मौके पर नहीं मिलते. सिद्ध करना चाहते हैं तो कुत्ते से कटवा कर देख लिजिये. विधायक जी शहर में नहीं मिलेंगे.
फिर भी महा-मृत्युंजय जाप की तरह, इस दोहे को गुनगुनाते हुए गलियों में घूमने में कोई बुराई नहीं है:
कुता जब भी काट ले, बस इतना रखना ध्यान
एमएलए हो शहर में और फोन रखा हो ऑन.
या ऐसा कुछ शेर पढ़ना:
विधायक जी जबसे गये हैं,
मैं कुत्ते से डरने लगा हूँ.......
--अभी सोचता हूँ कि सरकार को किस बात ने प्रेरित किया होगा ऐसा विधेयक लाने के लिये. और कोई भी तो काम का काम होगा करने को. आप कुछ सोच सकते हैं क्या??
सुना था कुता काट खाये तो चौदह मोटे मोटे इंजेक्शन पेट में लगवाना पड़ते हैं और उस कुत्ते को, जिसने काटा है, खोज करके उस पर नजर रखनी होती है. अगर चौदह दिन में वो मर गया तब मामला मोटा हो गया समझो. तब लोग जिस कुत्ते ने काटा उस पर और उसके चारों ओर नजर दौड़ाते थे उसके हाव भाव देखने के लिये.
आज मामला बदल गया है. कुत्ता काट ले तो कुत्ते पर तो बाद में नजर रखी जायेगी और क्षेत्र के विधायक पर पहले. अगर विधायक नहीं मिला तो मरना तय ही समझो. कुत्ता न मिले चल जायेगा. आज कुत्ते के काटने पर उससे ज्यादा इम्पोर्टेन्ट विधायक जी हो गये हैं. और कुत्ते से उपर उन्हें सम्मान नवाजने का कार्य किया है झारखण्ड सरकार ने. अभी अभी समचार सुनता था जिसमें झारखण्ड सरकार ने नया निर्णय लिया है:
अगर किसी को कुत्ता काट ले तो उसे इन्जेक्शन लगाने के पहले क्षेत्रिय विधायक की मंजूरी की आवश्यक्ता होगी.
हद है. कुत्ता काट ले और विधायक महोदय विधान सभा का सत्र अटेन्ड करने राजधानी में हों, तब तो फिर भी पकड़ सकते हैं मगर यदि वो अपनी उन के साथ सिंगापुर घूम रहे हों या किसी अज्ञात स्थली के भ्रमण पर हों, तब??
बस एक ही रास्ता बचेगा कि कुत्ते की पूजा की जाये कि हे प्रभु, विधायक महोदय के आने तक न काटना या मरना. एक बार जब वो तुम्हारा स्थान ले लें फिर चाहे तुम मरो या जिओ, कोई अंतर नहीं पड़ता.
किसी ने पूछ ही लिया कि जैसे ही कुत्ते ने आपको काटा, आपके मन में क्या आया? आपको किसकी याद आई?
अनायास ही मेरे मुँह से निकल पड़ा-मुझे विधायक महोदय की याद आई!!
क्या बात है कि काटे कुत्ता और गाली निकले विधायक के लिये कि इस समय कहाँ निकल गये.
यूँ तो सही है कि दोनों ही ढ़ूँढ़े नहीं मिलते वक्त पर.
वैसे तो यह भी शास्वत सत्य है कि नेता मौके पर नहीं मिलते. सिद्ध करना चाहते हैं तो कुत्ते से कटवा कर देख लिजिये. विधायक जी शहर में नहीं मिलेंगे.
फिर भी महा-मृत्युंजय जाप की तरह, इस दोहे को गुनगुनाते हुए गलियों में घूमने में कोई बुराई नहीं है:
कुता जब भी काट ले, बस इतना रखना ध्यान
एमएलए हो शहर में और फोन रखा हो ऑन.
या ऐसा कुछ शेर पढ़ना:
विधायक जी जबसे गये हैं,
मैं कुत्ते से डरने लगा हूँ.......
--अभी सोचता हूँ कि सरकार को किस बात ने प्रेरित किया होगा ऐसा विधेयक लाने के लिये. और कोई भी तो काम का काम होगा करने को. आप कुछ सोच सकते हैं क्या??
रविवार, अक्तूबर 14, 2007
वो जो लिखता है न!! वो मैं नहीं हूँ.
वो जो है न!! वो ख्वाबों की रहस्यमयी दुनिया में भटकने वाला, यथार्थ से दूर चाँद तारों में अपनी माशूका को तलाशता, हवाओं मे संगीत लहरी खोजता. उसे बासंती झूलों में प्रेयसी के संग प्रेम गीत गुनगुनाते हुए पैंग मारना पसंद है. उसे सागर की लहरें भाती हैं, फूलों की खुशबू लुभाती है.वो हरियाली को निहारता है- वो कवि है, शायद गीतकार या सिर्फ एक लेखक.वो अपने लेखन सृजन से मुदित मुस्कराता है. खुश होता है.
वो जो है न!! वो लिखता है-संभल संभल कर, शब्द चुन चुन कर ताकि लोग उसे पढ़े, पसंद करें. वो अपनी बातों को न जाने कितनी कसौटियों में कसता है, तब कहता है, बिल्कुल बनावटी. हर वक्त एक ही चाह, उसकी वाह वाही हो. वो और लिखे. उसे वो लिखना होता है जो औरों के मन को भाये.
वो जो है न!! वो समाज पर पैनी नजर रखता है. दिन में सोता और रातों को जागता है. उसे रह रह कर अपने गुजरे वक्त की सुनहरी यादें सालती हैं और वो उन्हें सहेज सहेज कर सजाता है कभी कविता के माध्यम से तो कभी लेखों में परोसने के लिये.
मैं एक जिंदा आदमी हूँ और जिन्दा रहने की मशक्कत वो क्या जानेगा.
मेरा परिवार मेरी धूरी है, जिसके इर्द गिर्द मैं कोल्हू के बैल की तरह सारा दिन घूमता हूँ. गोल गोल. कोल्हू से उठती आवाज ही मेरा संगीत है और चक्करों की संख्या मेरा लक्ष्य. जितने चक्कर काटूँगा, जितनी देर इन आवाजों को सुनता रहूँगा, उतनी देर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहूँगा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना ही तो मेरा कर्तव्य है:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
कोल्हू से उठती यही ध्वनि मेरा संगीत है. मुझे जिन्दगी की आपा धापी में इतना समय ही कहाँ कि मैं उन पलों को सोच भी सकूँ जिनको मैं इतना पीछे छोड़ आया हूँ. उनकी सुहानी यादों में खो जाऊँ. हवाओं के गीत सुनूँ. हरियाली को निहारुँ. लिखने-परोसने का तो प्रश्न ही नहीं. कभी यादें आ भी जाती हैं तो इतनी क्षणिक कि झटक देता हूँ उन्हें. मेरा हर कदम इसी उद्देश्य से उठता है जो मेरे परिवार से जुड़ा है मैं तो बस:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
का संगीत सुन चल चल के दिन भर में थक जाता हूँ. मैं सावन के झूले से गिरने का भय पाले अपने इस कमरे में दुबका बैठा, दिन भर की थकन से टूटा कुछ पल विश्राम के तलाशता.हार कर रात को बिस्तर पर जो गिरा कि सुबह उसी करवट उठता हूँ अगले दिन फिर से उसी कोल्हू में पिर जाने को. मुझे रातों को यादें नहीं घेरतीं, न कोई स्वपन जगाता है.
यह सब उसके साथ ही होता है जो वो है-वो कवि है, शायद गीतकार या सिर्फ एक लेखक.वो मैं नहीं हूँ.
मगर मुझे वो अच्छा लगता है. लगता है कि वो मैं हूँ. वो जिन्दा रहे, यही मेरी चाहत है.
उसे जिन्दा रखने के लिये कुछ देर को और सही, मैं सुन लूँगा:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
वो मेरा प्रिय है. वो बना रहेगा तो मैं बना रहूँगा.
मगर वो जो लिखता है न!! वो मैं नहीं हूँ.
वो जो है न!! वो लिखता है-संभल संभल कर, शब्द चुन चुन कर ताकि लोग उसे पढ़े, पसंद करें. वो अपनी बातों को न जाने कितनी कसौटियों में कसता है, तब कहता है, बिल्कुल बनावटी. हर वक्त एक ही चाह, उसकी वाह वाही हो. वो और लिखे. उसे वो लिखना होता है जो औरों के मन को भाये.
वो जो है न!! वो समाज पर पैनी नजर रखता है. दिन में सोता और रातों को जागता है. उसे रह रह कर अपने गुजरे वक्त की सुनहरी यादें सालती हैं और वो उन्हें सहेज सहेज कर सजाता है कभी कविता के माध्यम से तो कभी लेखों में परोसने के लिये.
मैं एक जिंदा आदमी हूँ और जिन्दा रहने की मशक्कत वो क्या जानेगा.
मेरा परिवार मेरी धूरी है, जिसके इर्द गिर्द मैं कोल्हू के बैल की तरह सारा दिन घूमता हूँ. गोल गोल. कोल्हू से उठती आवाज ही मेरा संगीत है और चक्करों की संख्या मेरा लक्ष्य. जितने चक्कर काटूँगा, जितनी देर इन आवाजों को सुनता रहूँगा, उतनी देर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहूँगा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना ही तो मेरा कर्तव्य है:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
कोल्हू से उठती यही ध्वनि मेरा संगीत है. मुझे जिन्दगी की आपा धापी में इतना समय ही कहाँ कि मैं उन पलों को सोच भी सकूँ जिनको मैं इतना पीछे छोड़ आया हूँ. उनकी सुहानी यादों में खो जाऊँ. हवाओं के गीत सुनूँ. हरियाली को निहारुँ. लिखने-परोसने का तो प्रश्न ही नहीं. कभी यादें आ भी जाती हैं तो इतनी क्षणिक कि झटक देता हूँ उन्हें. मेरा हर कदम इसी उद्देश्य से उठता है जो मेरे परिवार से जुड़ा है मैं तो बस:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
का संगीत सुन चल चल के दिन भर में थक जाता हूँ. मैं सावन के झूले से गिरने का भय पाले अपने इस कमरे में दुबका बैठा, दिन भर की थकन से टूटा कुछ पल विश्राम के तलाशता.हार कर रात को बिस्तर पर जो गिरा कि सुबह उसी करवट उठता हूँ अगले दिन फिर से उसी कोल्हू में पिर जाने को. मुझे रातों को यादें नहीं घेरतीं, न कोई स्वपन जगाता है.
यह सब उसके साथ ही होता है जो वो है-वो कवि है, शायद गीतकार या सिर्फ एक लेखक.वो मैं नहीं हूँ.
मगर मुझे वो अच्छा लगता है. लगता है कि वो मैं हूँ. वो जिन्दा रहे, यही मेरी चाहत है.
उसे जिन्दा रखने के लिये कुछ देर को और सही, मैं सुन लूँगा:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
वो मेरा प्रिय है. वो बना रहेगा तो मैं बना रहूँगा.
मगर वो जो लिखता है न!! वो मैं नहीं हूँ.
मंगलवार, अक्तूबर 09, 2007
ताज्जुब न करो!!
गाँधी जयन्ती पर पढ़ता था गाँधी जी का खत, जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अपने अभिन्न मित्र कालेनबाख को लिखा. उस खत में उन्होंने हवा में आ रही सनसनाहट और पेड़ों का जिक्र किया. कम ही बात की है गाँधी जी ने पर्यावरण पर अपने जीवन काल में. शायद समय न मिल पाया हो या प्रासंगिक न रहा हो, उस वक्त.
हमारे एक मित्र अनायास ही कह उठे उनका खत पढ़ कर:
पौधे लगाने होंगे ताकि पेडों की सनसनाहट सुन सकें। नहीं तो कंकरीट के जंगल ही देखने को मिलेंगे। ऐसा जारी रहा तो जीवन जीवन नहीं रहेगा।
मैं हतप्रभ सा विचार में डूब गया. उड़ चला मन पखेरु मुम्बई प्रवास के दौर में. गिरगाम रोड, मुम्बई के उस कमरे में, जहाँ मैं रहा करता था. कहाँ लगाऊँ पेड़ इस महानगर में? काश, मैं भी हवा में तैरती पेड़ों की सनसनाहट भरी संगीत लहरी सुन पाता.
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
बिल्डिंग से सटी बिल्डिंगें. ७ वीं मंजिल से जिधर नजर दौड़ाओ, बिल्डिंगें ही बिल्डिंगें. एक सघन कांक्रीट का विशालकाय जंगल. आवाजें तो उठती हैं. कहीं से किसी के बच्चे के चिल्लाने की, रसोई मे आपस में टकराते-गिरते बर्तनों की, टीवी पर चीख चीख कर पढ़े जाते समाचारों की, कहीं पर बेढ़ब तरीके से बजते री-मिक्स की तेज कर्कश धुन और भी न जाने कितने प्रकार की अजीब अजीब आवाजें. सुप्त संवेदनाओं की तलहटी से उठती ऊँची ऊँची आवाजें, शायद चित्कार ज्यादा बेहतर शब्दावली हो इसे जाहिर करने के लिये. शहरी रिवाज़ को उजागर करती आवाजें. एक दूसरे से सटे छोटे छोटे फ्लैटों में सिवाय आवाजों के और है ही क्या?
नीचे झांकता हूँ तो लोगों की भीड़ से पटी पड़ी पतली पतली सड़कें. सड़को के दोनों ओर अतिक्रमण किये सब्जी वालों के ठेले, टेक्सी वालों की भीड़. हैरत होती है जब सड़क नजर नहीं आती. किस स्तर पर यह सब तैर रहे हैं.
न कोई पेड़, न हरियाली. कहाँ से आये हवा में पेड़ों की सनसनाहट. वो संगीत लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
फ्लेट के बरामदे के गमले में बोनसाई लगा लिया है. कोई सनसनाहट नहीं बस, एक पेड़ होने का अहसास मात्र. पेड़ होकर भी पेड़ नहीं. ठीक वैसे ही, जैसे संवेदनाहीन मानव..जो आज हर जगह मिल जाते हैं..मानव होकर भी मानव नहीं. संवेदना शुन्य..आत्मलिप्त..लिजलिजे मानव आकृत.
और बड़ी बड़ी हाईवे के किनारे हरे पेड़ लगा दिये गये हैं. शायद उनसे उठती होगी सनसनाहट...कोई संगीत लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
मगर तेज रफ्तार भागती कारें, ट्रकों की धों धों में उसकी क्या बिसात. कब उठी, कब लुप्त हो गई, कोई जान ही नहीं सका. कौन जान सका है सुप्त संवेदनाओं की करवट बदलने की प्रक्रिया को...क्षणिक..अनजान..अनकही..अहसास विहीन.
अब तो हवा में बसती पेड़ों की सनसनाहट की स्वर लहरियों को सुनने पहाड़ों पर छुट्टियों में जाना पड़ेगा, एक कोशिश करके. तभी सुनाई देगा जीवन का असली संगीत...पेड़ों से उठती..हवा में समाहित स्वर लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
ठीक वैसे ही जैसे हर तरफ छाये रीमिक्स संगीत के कान फोडू संगीत से हट कर कभी किसी पाँच सितारा हॉल में जाकर शास्त्रीय संगीत का आनन्द लेना. वो भी तो अब यूँ ही सहज सुनाई नहीं पड़ता.
क्यूँ ऐसा सोचते हो कि फिर जीवन जीवन नहीं रहेगा, मित्र!! जरुर रहेगा-अंतर बस स्वर्ग और नरक के जीवन का होगा और फिर दोनों ही तो जीवन हैं.
जीना तो पड़ेगा-चाहे वो कितना भी अभिशप्त क्यूँ न हो. सब जी ही रहे हैं न!!
बस भूल जाओ, हवा में बसती पेड़ों की सनसनाहट की स्वर लहरियाँ...
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
लगा लो मन रीमिक्स में!! उसके अपने सुर हैं. जैसे ट्रक और कारों की धों धों!
ताज्जुब न करो!!
(नोट: अभी भी वक्त है कि जितना बच सके उतना पर्यावरण और पहाड़ बचा लिये जायें. पाँच सितारा ही सही, कभी जा तो पायेंगे. :) वरना तो गुलाम अली को सुनते ही रह जायेंगे:
-दिल में इक लहर सी उठी है अभी,
कोई ताजा हवा चली है अभी.)
सोमवार, अक्तूबर 08, 2007
पुनः वापसी : एक विचार
५ तारीख की शाम एक कवि सम्मेलन में शिरकत करने मांट्रियल जाना पड़ा. उम्मीद थी कि ६ को लौट आयेंगे. मगर वाह रे मित्र!! ऐसे कैसे लौट आते जबकि सोमवार को भी दफ्तर बंद है थैक्स गिविंग के लॉग वीक एंड के लिये. बस रुकना पड़ गया. न लेपटॉप साथ में और इतने मित्र. बस एक कमरे में, ढ़ेरों बातें, दिन भर चाय के दौर, पुरानी पुरानी यादें. शाम बीतते तक ताश की गड्डियां और कुछ हल्के फुल्के शौकिन जाम के दौर.वाह. खूब सोये, खूब गपियाये..और चार दिन लगा मानो सारा जीवन जी लिया हो स्वर्ग में. एक नैसर्गीक आनन्द.
लगा कि एक दुनिया इन्टरनेट के बाहर अभी भी बसती है और वो भी कितनी सुन्दर है. वाह!! बस देर है, उसे जीने की.
बार बार मन ब्लॉग की तरफ भागे मगर इन्तेजामात ऐसे किये गये कि उस तक हम न पहुँच पायें. न ईमेल और न इन्टरनेट.
मुझे आज लगा कि ऐसा कभी कभी हो जाना चाहिये. सब कुछ दूसरा.एकदम रोज से अलग.
माफी चाहूँगा उन सभी मित्रों से, जिन के ब्लॉग पर मैं इस दौरान पहुँच नहीं पाया और अपने कमेंट नहीं दे पाया.
पढ़ जरुर लूँगा और अगर बहुत आवश्यक हुआ तो कमेंट भी कर दूँगा. मगर नया एकाऊन्ट आज से शुरु समझा जाये. :)
कल से मेरी पोस्ट भी पूर्ववत आने लगेंगी. और आपकी पोस्टें भी पूर्ववत पढ़ी जाने लगेंगी.
मेरी गल्ती कि मुझे बता कर जाना था, मगर मैने इसे उतना गंभीरता से नहीं लिया,
लगता है विश्वकर्मा जी की गल्ती है. :)
लगा कि एक दुनिया इन्टरनेट के बाहर अभी भी बसती है और वो भी कितनी सुन्दर है. वाह!! बस देर है, उसे जीने की.
बार बार मन ब्लॉग की तरफ भागे मगर इन्तेजामात ऐसे किये गये कि उस तक हम न पहुँच पायें. न ईमेल और न इन्टरनेट.
मुझे आज लगा कि ऐसा कभी कभी हो जाना चाहिये. सब कुछ दूसरा.एकदम रोज से अलग.
माफी चाहूँगा उन सभी मित्रों से, जिन के ब्लॉग पर मैं इस दौरान पहुँच नहीं पाया और अपने कमेंट नहीं दे पाया.
पढ़ जरुर लूँगा और अगर बहुत आवश्यक हुआ तो कमेंट भी कर दूँगा. मगर नया एकाऊन्ट आज से शुरु समझा जाये. :)
कल से मेरी पोस्ट भी पूर्ववत आने लगेंगी. और आपकी पोस्टें भी पूर्ववत पढ़ी जाने लगेंगी.
मेरी गल्ती कि मुझे बता कर जाना था, मगर मैने इसे उतना गंभीरता से नहीं लिया,
लगता है विश्वकर्मा जी की गल्ती है. :)
बुधवार, अक्तूबर 03, 2007
अपराध बोध से मुक्ति
घर के सामने ही एक छोटा सा किन्तु लम्बाई के हिसाब से अपेक्षाकृत घना पेड़ है. सुबह शाम को जब चाय पीने बरामदे में बैठो तो उसे निहारना बड़ा अच्छा लगता है. मगर जिस तरह बिन बच्चों के घर में सब कुछ होते हुए भी एक सूनेपन का साम्राज्य हो जाता है वैसे ही बिन पंछियों के पेड़.
बस इसी उम्मीद से एक बर्ड फीडर (जिसमें चिड़ियों के लिये खाना भरा जाता है) खरीद कर ले आये और उसमें पंछियों के लिये दाने भर कर पेड़ पर टांग दिया. पता नहीं कैसे सबको खबर लगी. मगर दिन भर में पूरा डब्बा खाली. पचासों चिड़ियों से जैसे लहलहा उठा पूरा माहौल. एक दम बच्चों से भरे चहकते घर सा. मैं, पापा, मेरी पत्नी सब खूब खुश होते रोज सुबह शाम उसमें दाने भर कर. दिन भर चिड़ियाँ चहकती मानों आशीर्वाद दे रही हों भोजन कराने का. जबकि आभारी तो हम उनके थे जो इतनी रौनक लगा दी थी उन्होंने सूने बरामदे में. रोज का नियम हो गया. बहुत अच्छा लगता था उनको खाते देखना. उनको गाते देखना. खाना खत्म हो जाये तो भी थोड़ी थोड़ी देर में आकर देख जाती थीं कि वापस भरा कि नहीं.
उनका आपसी भाईचारा ऐसा कि देखते ही बनता था. हम इन्सानों से बिल्कुल भिन्न. काश, हम उनसे कुछ सीख पाते. दरअसल, उस बर्ड फीडर पर एक बार में चार चिड़ियों के बैठने की ही जगह थी. तो चार की ड्यूटी लगती, वो खाती जातीं और नीचे गिराती जाती. बाकी सारी चिड़ियाँ जमीन पर पेड़ के नीचे भीड़ लगा कर उस नीचे गिराये गये दानों में से खातीं. उपर की चारों पारी पारी बदलती जातीं. खाना खत्म. सब उड़ जाती. खाना भरा, उनमें से जो आकर देख जाये, वो सबको खबर कर देती और मिनट भर में सब पचासों की तादाद में फिर इक्कठा.
मगर खुशियाँ कब अकेले आईं हैं.एक दिन देखा तो मुहल्ले की एक बिल्ली ने उनमें से एक चिड़िया को पकड़ कर अपना ग्रास बना लिया. आह्ह!! यह मैने क्या किया. आत्मग्लानी से भर उठा मैं. मेरी ही गल्ती है. लगने लगा मानो मैं ही उन बेचारी चिड़ियों को घेर कर ले आया इस बिल्ली के लिये. मैं ही जिम्मेदार हूँ. मुझे एक अपराध बोध ने आ घेरा. न मैं खाना रखता, न वो निश्चिंत होकर जमीन पर से भोजन कर रही होतीं और न ही ये बिल्ली उसे अपना शिकार बना पाती. अभी आराम से उन्मुक्त गगन में उड़ रही होती.
मन खराब हो गया. विषाद के उन्हीं लम्हों में मैनें तुरन्त बर्ड फीडर हटा लिया. अरे, खाना तो बेचारी कहीं भी पा लेंगी. पहले भी पा ही रहीं थीं. मगर कम से कम मेरे कारण इस तरह से काल का ग्रास बनने से तो बच जायेंगी. मैं सह लूँगा उस पेड़ का सूनापन, ठीक उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर. उन बुजुर्गों को बस यही तसल्ली है कि जहाँ भी हैं, बच्चे खुश हैं और इसी बच्चों की खुशी के लिये तो वे घर के सूनेपन को अपनी जीवनशैली बना बैठे हैं.
हो सकता है कि जंगल में या दीगर जगहों पर भी बिल्लियाँ और अन्य शिकारी पक्षी इन चिड़ियों को अपना शिकार बना रहे हों किन्तु जब यह सब मेरे सामने नहीं होगा तो कम से कम मैं अपराध बोध से मुक्त रहूँगा.
इसी तरह से तो आस पास घटित हो रहे अत्याचारों और कारनामों से नजर फिरा कर हम सभी एक अपराध बोध मुक्त जीवन जी रहे हैं, वरना तो जीना दूभर हो जाये.
बस इसी उम्मीद से एक बर्ड फीडर (जिसमें चिड़ियों के लिये खाना भरा जाता है) खरीद कर ले आये और उसमें पंछियों के लिये दाने भर कर पेड़ पर टांग दिया. पता नहीं कैसे सबको खबर लगी. मगर दिन भर में पूरा डब्बा खाली. पचासों चिड़ियों से जैसे लहलहा उठा पूरा माहौल. एक दम बच्चों से भरे चहकते घर सा. मैं, पापा, मेरी पत्नी सब खूब खुश होते रोज सुबह शाम उसमें दाने भर कर. दिन भर चिड़ियाँ चहकती मानों आशीर्वाद दे रही हों भोजन कराने का. जबकि आभारी तो हम उनके थे जो इतनी रौनक लगा दी थी उन्होंने सूने बरामदे में. रोज का नियम हो गया. बहुत अच्छा लगता था उनको खाते देखना. उनको गाते देखना. खाना खत्म हो जाये तो भी थोड़ी थोड़ी देर में आकर देख जाती थीं कि वापस भरा कि नहीं.
उनका आपसी भाईचारा ऐसा कि देखते ही बनता था. हम इन्सानों से बिल्कुल भिन्न. काश, हम उनसे कुछ सीख पाते. दरअसल, उस बर्ड फीडर पर एक बार में चार चिड़ियों के बैठने की ही जगह थी. तो चार की ड्यूटी लगती, वो खाती जातीं और नीचे गिराती जाती. बाकी सारी चिड़ियाँ जमीन पर पेड़ के नीचे भीड़ लगा कर उस नीचे गिराये गये दानों में से खातीं. उपर की चारों पारी पारी बदलती जातीं. खाना खत्म. सब उड़ जाती. खाना भरा, उनमें से जो आकर देख जाये, वो सबको खबर कर देती और मिनट भर में सब पचासों की तादाद में फिर इक्कठा.
मगर खुशियाँ कब अकेले आईं हैं.एक दिन देखा तो मुहल्ले की एक बिल्ली ने उनमें से एक चिड़िया को पकड़ कर अपना ग्रास बना लिया. आह्ह!! यह मैने क्या किया. आत्मग्लानी से भर उठा मैं. मेरी ही गल्ती है. लगने लगा मानो मैं ही उन बेचारी चिड़ियों को घेर कर ले आया इस बिल्ली के लिये. मैं ही जिम्मेदार हूँ. मुझे एक अपराध बोध ने आ घेरा. न मैं खाना रखता, न वो निश्चिंत होकर जमीन पर से भोजन कर रही होतीं और न ही ये बिल्ली उसे अपना शिकार बना पाती. अभी आराम से उन्मुक्त गगन में उड़ रही होती.
मन खराब हो गया. विषाद के उन्हीं लम्हों में मैनें तुरन्त बर्ड फीडर हटा लिया. अरे, खाना तो बेचारी कहीं भी पा लेंगी. पहले भी पा ही रहीं थीं. मगर कम से कम मेरे कारण इस तरह से काल का ग्रास बनने से तो बच जायेंगी. मैं सह लूँगा उस पेड़ का सूनापन, ठीक उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर. उन बुजुर्गों को बस यही तसल्ली है कि जहाँ भी हैं, बच्चे खुश हैं और इसी बच्चों की खुशी के लिये तो वे घर के सूनेपन को अपनी जीवनशैली बना बैठे हैं.
हो सकता है कि जंगल में या दीगर जगहों पर भी बिल्लियाँ और अन्य शिकारी पक्षी इन चिड़ियों को अपना शिकार बना रहे हों किन्तु जब यह सब मेरे सामने नहीं होगा तो कम से कम मैं अपराध बोध से मुक्त रहूँगा.
इसी तरह से तो आस पास घटित हो रहे अत्याचारों और कारनामों से नजर फिरा कर हम सभी एक अपराध बोध मुक्त जीवन जी रहे हैं, वरना तो जीना दूभर हो जाये.
रविवार, सितंबर 30, 2007
भूतपूर्व स्वर्गवासी श्री......
जबलपुर में हमारे एक भूतपूर्व स्वर्गवासी मित्र श्री नारायण तिवारी जी रहते हैं. भूतपूर्व स्वर्गवासी सुनने में थोड़ा अटपटा लगता है मगर वो उपर हो रहे समस्त क्रिया कलापों को इतने आत्म विश्वास और दृढ़ता से बताते हैं कि उनके पूर्व में स्वर्ग मे रहवास पर स्वतः ही विश्वास सा हो जाता है.
हमारे एक और मित्र हैं मुकेश पटेल. ईश्वर की ऐसी नजर कि अच्छे खासे खाते पीते घर का यह बालक अगर किसी भिखारी के बाजू से भी निकल रहा हो तो भिखारी उसे बुलाकर कुछ पैसे दे दे. चेहरे पर पूर्ण दीनता के परमानेन्ट भाव. मानो भुखमरी की चलती फिरती नुमाईश. भर पेट खाना खा कर भी निकले तो लगे कि न जाने कितने दिन से भूखा है. हँसता भी तो लगता कि जैसे रो रहा है.
सड़क पर क्रिकेट खेलते समय जब किसी के घर में गेंद चली जाये तो हम लोग मुकेश को ही भेजा करते थे गेंद लेने. उसे डांटना तो दूर, अगला गेंद के साथ मिठाई नाश्ता कराये बिना कभी विदा नहीं करता था. अपने चेहरे के चलते वह सतत एवं सर्वत्र दया का पात्र बना रहा. होली, दशहरे की चंदा टीम का भी वो हमेशा ही सरगना रहा और हर घर से चंदा मिलता रहा. अब तो उसका बड़ा व्यापार है. बैंक से लेकर इन्कमटैक्स वाले तक सब उस पर दया रखते हैं. आज तक किसी को घूस नहीं दी. बैंक वाले लोन देने के साथ साथ चाय पिला कर भेजते हैं. लोन की किश्त भरने जाते हैं तो बैंक निवेदन करने लगता है कि जल्दी नहीं है चाहें तो अगले महीने दे दीजियेगा. इन्कम टैक्स का क्लर्क भी बिना नाश्ता कराये उन्हें नहीं जाने देता.
जहाँ मुकेश को अपने उपर ईश्वर की इस विशेष अनुकम्पा पर अभिमान था वहीं हमारे भूतपूर्व स्वर्गवासी मित्र नारायण के पास इस स्थिति के लिये भी कथा कि मुकेश का चेहरा ऐसा क्यूँ है.
भू.पू.स्व. श्री नारायण बताते हैं कि वहाँ उपर कई फेक्टरियाँ हैं. भारत की अलग, अमरीका की अलग, चीन, अफ्रीका, जापान सब की अलग अलग. वहीं स्त्री पुरुषों का निर्माण होता है. सबके क्वालिटी कन्ट्रोल पूर्व निर्धारित हैं. अमरीकी गोरे, अफ्रिकी काले, भारत के भूरे आदि. सबकी भाव भंगीमा भी बाई डिफॉल्ट कैसी रहेगी, यह भी तय है. जैसे दोनों हाथ नीचे, पांव सीधे, मुँह बंद आदि. यह बाई डिफॉल्ट सेटिंग है, अब यदि किसी को हाथ उठाना है, तो उसे हरकत एवं प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद होगा, हाथ पुनः डिफॉल्ट अवस्था में आ जायेगा यानि फिर नीचे लटकने लगेगा.
ऐसा ही चेहरे की भाव भंगिमा के साथ होता है. बाई डिफॉल्ट आपके चेहरे पर कोई भाव नहीं होते. न खुश, न दुखी. विचार शून्य सा चेहरा. अब यदि आपको खुश होना है तो ओंठ फेलाईये, दांत दिखाईये और हा हा की आवाज करिये. इसे खुश हो कर हंसना कहते हैं. जैसे ही आप इसका प्रयास बंद कर देंगे पुनः डिफॉल्ट अवस्था को प्राप्त करेंगे अर्थात विचार शून्य सा चेहरा-बिना किसी भाव का.
कई बार जल्दीबाजी में, जब कन्टेनर रवाना होने को तैयार होता है और कुछ मेटेरियल की जगह बाकी है, तब कुछ लोग जल्दी जल्दी लाद दिये जाते हैं. वही डिफेक्टिव पीस कहलाते हैं. उन्हीं में से एक उदाहरण मुकेश हैं जिनकी हड़बड़ी में चेहरे की डिफॉल्ट सेटिंग दीनता वाली हो गई. उन्हें सामान्य दिखने के लिये प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद, पुनः डिफॉल्ट अवस्था यानि दीनता के भाव.
यह सारी बातें नारायण इतने आत्म विश्वास से बताते थे कि लगता था वो ही उस फेक्टरी के मैनेजर रहे होंगे जो इतनी विस्तार से पूरी कार्य प्रणाली और निर्माण प्रक्रिया की जानकारी है. तभी तो सब उन्हें भूतपूर्व स्वर्गवासी की उपाधि से नवाजते थे.
उनके ज्ञान का विस्तार देखते हुए एक बार हमने भी जिज्ञासावश प्रश्न किया कि नारायण भाई, आप तो कह रहे थे कि भारत के लिये त्वचा का रंग भूरा फिक्स है. फिर यहाँ गोरे और हमारे रंग के लोग कहाँ से आ गये?
भू.पू.स्व. नारायण जी ने तुरंत अपने संस्मराणत्मक अंदाज में कहना शुरु किया कि दरअसल भारत की फैक्टरी के सुपरवाईजर विश्वकर्मा जी बहुत जुगाड़ू टाइप के हैं. जब पेन्ट खत्म होने लगता है तो कभी तारपीन ज्यादा करवा देते है.
कभी अमरीकी फेक्टरी का और कभी अफ्रिकी फेक्टरी का बचा पेन्ट मार देते हैं मगर मिला जुला कर, जोड़तोड़ कर काम निकाल ही देते हैं. इसीलिये भारत में भी कुछ लोग गोरे पैदा हो जाते हैं और अगर अफ्रिका वाला ज्यादा पेन्ट मार लाये तो तुम्हारे जैसे. किन्तु बाकी ऐसा नहीं करते वो काम रोक देते हैं. इसीलिये अफ्रिका में कभी कोई गोरा नहीं पैदा होता और न अमरीका में काला. इसी से उनकी फैक्टरी भी मटेरियल के इन्तजार में कई कई दिन बंद रहती है तो प्रोडक्शन भी कम होता है. आज तक मटेरियल की कमी के कारण भारत वाली फेक्टरी में काम नहीं रुका. हर साल सबसे अनवरत संचालन का अवार्ड भी विश्वकर्मा जी को ही मिलता है. इसीलिये तो हमारे यहाँ सभी फेक्टरियों में उनकी पूजा होती है.
हम तो सन्न रह गये कि वाह रे विश्वकर्मा जी, आप तो अवार्ड पर अवार्ड लूट रहे हो, जगह जगह पूजे जा रहे हो और खमिजियाना भुगतें हम!! बहुत खूब!
नोट: इस आलेख का उद्देश्य मात्र हास्य-व्यंग्य है. यदि किसी वर्ग या समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँची हो, तो मैं क्षमायाचना करता हूँ.
हमारे एक और मित्र हैं मुकेश पटेल. ईश्वर की ऐसी नजर कि अच्छे खासे खाते पीते घर का यह बालक अगर किसी भिखारी के बाजू से भी निकल रहा हो तो भिखारी उसे बुलाकर कुछ पैसे दे दे. चेहरे पर पूर्ण दीनता के परमानेन्ट भाव. मानो भुखमरी की चलती फिरती नुमाईश. भर पेट खाना खा कर भी निकले तो लगे कि न जाने कितने दिन से भूखा है. हँसता भी तो लगता कि जैसे रो रहा है.
सड़क पर क्रिकेट खेलते समय जब किसी के घर में गेंद चली जाये तो हम लोग मुकेश को ही भेजा करते थे गेंद लेने. उसे डांटना तो दूर, अगला गेंद के साथ मिठाई नाश्ता कराये बिना कभी विदा नहीं करता था. अपने चेहरे के चलते वह सतत एवं सर्वत्र दया का पात्र बना रहा. होली, दशहरे की चंदा टीम का भी वो हमेशा ही सरगना रहा और हर घर से चंदा मिलता रहा. अब तो उसका बड़ा व्यापार है. बैंक से लेकर इन्कमटैक्स वाले तक सब उस पर दया रखते हैं. आज तक किसी को घूस नहीं दी. बैंक वाले लोन देने के साथ साथ चाय पिला कर भेजते हैं. लोन की किश्त भरने जाते हैं तो बैंक निवेदन करने लगता है कि जल्दी नहीं है चाहें तो अगले महीने दे दीजियेगा. इन्कम टैक्स का क्लर्क भी बिना नाश्ता कराये उन्हें नहीं जाने देता.
जहाँ मुकेश को अपने उपर ईश्वर की इस विशेष अनुकम्पा पर अभिमान था वहीं हमारे भूतपूर्व स्वर्गवासी मित्र नारायण के पास इस स्थिति के लिये भी कथा कि मुकेश का चेहरा ऐसा क्यूँ है.
भू.पू.स्व. श्री नारायण बताते हैं कि वहाँ उपर कई फेक्टरियाँ हैं. भारत की अलग, अमरीका की अलग, चीन, अफ्रीका, जापान सब की अलग अलग. वहीं स्त्री पुरुषों का निर्माण होता है. सबके क्वालिटी कन्ट्रोल पूर्व निर्धारित हैं. अमरीकी गोरे, अफ्रिकी काले, भारत के भूरे आदि. सबकी भाव भंगीमा भी बाई डिफॉल्ट कैसी रहेगी, यह भी तय है. जैसे दोनों हाथ नीचे, पांव सीधे, मुँह बंद आदि. यह बाई डिफॉल्ट सेटिंग है, अब यदि किसी को हाथ उठाना है, तो उसे हरकत एवं प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद होगा, हाथ पुनः डिफॉल्ट अवस्था में आ जायेगा यानि फिर नीचे लटकने लगेगा.
ऐसा ही चेहरे की भाव भंगिमा के साथ होता है. बाई डिफॉल्ट आपके चेहरे पर कोई भाव नहीं होते. न खुश, न दुखी. विचार शून्य सा चेहरा. अब यदि आपको खुश होना है तो ओंठ फेलाईये, दांत दिखाईये और हा हा की आवाज करिये. इसे खुश हो कर हंसना कहते हैं. जैसे ही आप इसका प्रयास बंद कर देंगे पुनः डिफॉल्ट अवस्था को प्राप्त करेंगे अर्थात विचार शून्य सा चेहरा-बिना किसी भाव का.
कई बार जल्दीबाजी में, जब कन्टेनर रवाना होने को तैयार होता है और कुछ मेटेरियल की जगह बाकी है, तब कुछ लोग जल्दी जल्दी लाद दिये जाते हैं. वही डिफेक्टिव पीस कहलाते हैं. उन्हीं में से एक उदाहरण मुकेश हैं जिनकी हड़बड़ी में चेहरे की डिफॉल्ट सेटिंग दीनता वाली हो गई. उन्हें सामान्य दिखने के लिये प्रयास करना होगा और जैसे ही प्रयास बंद, पुनः डिफॉल्ट अवस्था यानि दीनता के भाव.
यह सारी बातें नारायण इतने आत्म विश्वास से बताते थे कि लगता था वो ही उस फेक्टरी के मैनेजर रहे होंगे जो इतनी विस्तार से पूरी कार्य प्रणाली और निर्माण प्रक्रिया की जानकारी है. तभी तो सब उन्हें भूतपूर्व स्वर्गवासी की उपाधि से नवाजते थे.
उनके ज्ञान का विस्तार देखते हुए एक बार हमने भी जिज्ञासावश प्रश्न किया कि नारायण भाई, आप तो कह रहे थे कि भारत के लिये त्वचा का रंग भूरा फिक्स है. फिर यहाँ गोरे और हमारे रंग के लोग कहाँ से आ गये?
भू.पू.स्व. नारायण जी ने तुरंत अपने संस्मराणत्मक अंदाज में कहना शुरु किया कि दरअसल भारत की फैक्टरी के सुपरवाईजर विश्वकर्मा जी बहुत जुगाड़ू टाइप के हैं. जब पेन्ट खत्म होने लगता है तो कभी तारपीन ज्यादा करवा देते है.
कभी अमरीकी फेक्टरी का और कभी अफ्रिकी फेक्टरी का बचा पेन्ट मार देते हैं मगर मिला जुला कर, जोड़तोड़ कर काम निकाल ही देते हैं. इसीलिये भारत में भी कुछ लोग गोरे पैदा हो जाते हैं और अगर अफ्रिका वाला ज्यादा पेन्ट मार लाये तो तुम्हारे जैसे. किन्तु बाकी ऐसा नहीं करते वो काम रोक देते हैं. इसीलिये अफ्रिका में कभी कोई गोरा नहीं पैदा होता और न अमरीका में काला. इसी से उनकी फैक्टरी भी मटेरियल के इन्तजार में कई कई दिन बंद रहती है तो प्रोडक्शन भी कम होता है. आज तक मटेरियल की कमी के कारण भारत वाली फेक्टरी में काम नहीं रुका. हर साल सबसे अनवरत संचालन का अवार्ड भी विश्वकर्मा जी को ही मिलता है. इसीलिये तो हमारे यहाँ सभी फेक्टरियों में उनकी पूजा होती है.
हम तो सन्न रह गये कि वाह रे विश्वकर्मा जी, आप तो अवार्ड पर अवार्ड लूट रहे हो, जगह जगह पूजे जा रहे हो और खमिजियाना भुगतें हम!! बहुत खूब!
नोट: इस आलेख का उद्देश्य मात्र हास्य-व्यंग्य है. यदि किसी वर्ग या समुदाय विशेष की भावनाओं को ठेस पहुँची हो, तो मैं क्षमायाचना करता हूँ.
गुरुवार, सितंबर 27, 2007
बड़ा अच्छा लगता है!!
दफ्तर से घर लौट रहा हूँ. स्टेशन पर ट्रेन से उतरता हूँ. गाड़ी करीब ५ मिनट की पैदल दूरी पर खुले आसमान के नीचे पार्क की हुई है. थोड़ी दूर पार्क करके इस ५ मिनट के पैदल चलने से एक मानसिक संतोष मिलता है कि ऐसे तो पैदल चलना नहीं हो पाता, दिन भर भी तो दफ्तर में अपनी सीट में धंसे बैठे ही रहते हैं, कम से कम इसी बहाने चल लें. नहीं से हाँ भला. सेहत के लिये अच्छा होगा. दिल के एक कोने में खुद को हँसी भी आती है कि भला ५ मिनट सुबह और ५ मिनट शाम पैदल चलने से इस काया पर क्या असर होने वाला है मगर खुद को साबित करने के लिये उस हँसी को उसी कोने में दमित कर देता हूँ, जहाँ से वो उठी थी. सब मन का ही खेला है. अच्छा लगता है.
जब कार पास में खड़ी करता था, तब मन को समझाता था कि चलो, इसी बहाने शरीर को आराम मिलेगा. सुबह सोचता कि दिन भर तो खटना ही है और शाम सोचता कि दिन भर खट कर आ रहे हैं. अच्छा है पास में पार्क की. व्यक्ति हर हालत में अपना किया सार्थक साबित कर ही लेता है. अच्छा लगता है.
आज जब स्टेशन पर उतरा तो एकाएक बारिश शुरु हो गई. वहीं वेटिंग एरिया में रुक कर बारिश रुकने की प्रतिक्षा करने लगा. छाता आज लेकर नहीं निकला था और इस बारिश का देखिये. रोज छाता लेकर निकलता हूँ, तब महारानी गायब रहती हैं. आज एक दिन लेकर नहीं निकला तो कैसी बेशरमी से झमाझम बरस रही हैं. मानो मुँह चिढा रही हो.
कोई बच्चा तो हूँ नहीं कि बारिश की इस अल्हड़ता पर खुश हो लूँ. स्वीकार कर लूँ उसका नेह निमंत्रण. लगूँ भीगने. नाचूँ दोनों हाथ फेलाकर. माँ कितना भी चिल्लाये, अनसुना कर दूँ कि तबीयत खराब हो जायेगी. बस बरसात में उभर आए छोटी छोटी छ्पोरों के पानी में छपाक छपाक करुँ , आज पास खड़ी लड़कियों को छींटों से भिगाऊं और कागज की नाँव बना कर बहाने लगूँ. मैंढ़क पकड़ कर शीशी में रख लूँ. लिजलिजे से केंचुऐं पकड़ लूँ , वो पहाड़ के नीचे वाले बड़े नाले में से आलपिन से गोला बना कर मछली अटकाने के लिये.
हम्म!! ये सब तो बच्चे करते हैं. मैं तो बड़ा हूँ. पानी रुक जाने पर ही पोखरे बचाते हुए धीरे धीरे संभल कर कार तक जाऊँगा. कल फिर से तो दफ्तर जाना है. वो दफ्तर वाले थोड़ी न समझेंगे कि बारिश देखकर मैं बच्चा बन गया और लगा था भीगने. न, मैं नहीं भीगने वाला.
बहुत गुस्सा आ रहा है बारिश पर, बादलों पर, मौसम पर. क्यूँ मुझे बच्चा बनाने पर तुले हैं. वैसे मन के एक कोने में यह भी लग रहा है कि फिर से बच्चा बन जाने में मजा तो बहुत आयेगा. मगर अब कहाँ संभव यह सब. इसलिये यह विचार त्याग कर सोचने लगता हूँ कि कैसे जान लेते हैं ये कि आज मैं छतरी नहीं लाया. दिन भर बरस लेते, कम से कम मेरे आने के समय तो ५ मिनट चैन से रह लेते. मगर इन्हें इतनी समझ हो, तब न! मैं भी किन मूर्खों को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.
फिर अपनी खीझ उतार कर चुपचाप बारिश रुकने का इन्तजार कर रही भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ. यूँ भी तो ज्यादा जिंदगी भीड़ का हिस्सा बने ही तो गुजर रही है सबकी. जब आप आप नहीं होते बस एक भीड़ होते हैं. तब आप अपने मन की नहीं करते जो भी करते हैं या तटस्थ भीड़ शामिल रहते हैं, वो ही तो भीड़ की मानसिकता कहलाती है. उस वक्त तो सब जायज लगता है.
अपनी गलती कौन मानता है कि छाता लेकर निकलते तो इन्तजार न करना पड़ता. मुझे तो सारी गलती बारिश, बादल और मौसम की ही लगती है. अच्छा लग रहा है अपनी खीझ उतार कर.
बस, इसी अच्छा लगने की तलाश में हर जतन जारी है.
पता नहीं क्यूँ, कार में बैठते ही मैथिली की यह कजरी झूम झूम के गाने का मन करने लगा, सीट पर बैठे बैठे थोड़ा सा नाच भी लेता हूँ, कोई देख नहीं रहा. अच्छा लग रहा है:
बदरा उमरी घुमरी घन गरजे
बूँदिया बरिसन लागे न.....
आप भी सुनिये न!! विश्वास जानिये, अच्छा लगेगा!!!
जब कार पास में खड़ी करता था, तब मन को समझाता था कि चलो, इसी बहाने शरीर को आराम मिलेगा. सुबह सोचता कि दिन भर तो खटना ही है और शाम सोचता कि दिन भर खट कर आ रहे हैं. अच्छा है पास में पार्क की. व्यक्ति हर हालत में अपना किया सार्थक साबित कर ही लेता है. अच्छा लगता है.
आज जब स्टेशन पर उतरा तो एकाएक बारिश शुरु हो गई. वहीं वेटिंग एरिया में रुक कर बारिश रुकने की प्रतिक्षा करने लगा. छाता आज लेकर नहीं निकला था और इस बारिश का देखिये. रोज छाता लेकर निकलता हूँ, तब महारानी गायब रहती हैं. आज एक दिन लेकर नहीं निकला तो कैसी बेशरमी से झमाझम बरस रही हैं. मानो मुँह चिढा रही हो.
कोई बच्चा तो हूँ नहीं कि बारिश की इस अल्हड़ता पर खुश हो लूँ. स्वीकार कर लूँ उसका नेह निमंत्रण. लगूँ भीगने. नाचूँ दोनों हाथ फेलाकर. माँ कितना भी चिल्लाये, अनसुना कर दूँ कि तबीयत खराब हो जायेगी. बस बरसात में उभर आए छोटी छोटी छ्पोरों के पानी में छपाक छपाक करुँ , आज पास खड़ी लड़कियों को छींटों से भिगाऊं और कागज की नाँव बना कर बहाने लगूँ. मैंढ़क पकड़ कर शीशी में रख लूँ. लिजलिजे से केंचुऐं पकड़ लूँ , वो पहाड़ के नीचे वाले बड़े नाले में से आलपिन से गोला बना कर मछली अटकाने के लिये.
हम्म!! ये सब तो बच्चे करते हैं. मैं तो बड़ा हूँ. पानी रुक जाने पर ही पोखरे बचाते हुए धीरे धीरे संभल कर कार तक जाऊँगा. कल फिर से तो दफ्तर जाना है. वो दफ्तर वाले थोड़ी न समझेंगे कि बारिश देखकर मैं बच्चा बन गया और लगा था भीगने. न, मैं नहीं भीगने वाला.
बहुत गुस्सा आ रहा है बारिश पर, बादलों पर, मौसम पर. क्यूँ मुझे बच्चा बनाने पर तुले हैं. वैसे मन के एक कोने में यह भी लग रहा है कि फिर से बच्चा बन जाने में मजा तो बहुत आयेगा. मगर अब कहाँ संभव यह सब. इसलिये यह विचार त्याग कर सोचने लगता हूँ कि कैसे जान लेते हैं ये कि आज मैं छतरी नहीं लाया. दिन भर बरस लेते, कम से कम मेरे आने के समय तो ५ मिनट चैन से रह लेते. मगर इन्हें इतनी समझ हो, तब न! मैं भी किन मूर्खों को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.
फिर अपनी खीझ उतार कर चुपचाप बारिश रुकने का इन्तजार कर रही भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ. यूँ भी तो ज्यादा जिंदगी भीड़ का हिस्सा बने ही तो गुजर रही है सबकी. जब आप आप नहीं होते बस एक भीड़ होते हैं. तब आप अपने मन की नहीं करते जो भी करते हैं या तटस्थ भीड़ शामिल रहते हैं, वो ही तो भीड़ की मानसिकता कहलाती है. उस वक्त तो सब जायज लगता है.
अपनी गलती कौन मानता है कि छाता लेकर निकलते तो इन्तजार न करना पड़ता. मुझे तो सारी गलती बारिश, बादल और मौसम की ही लगती है. अच्छा लग रहा है अपनी खीझ उतार कर.
बस, इसी अच्छा लगने की तलाश में हर जतन जारी है.
पता नहीं क्यूँ, कार में बैठते ही मैथिली की यह कजरी झूम झूम के गाने का मन करने लगा, सीट पर बैठे बैठे थोड़ा सा नाच भी लेता हूँ, कोई देख नहीं रहा. अच्छा लग रहा है:
बदरा उमरी घुमरी घन गरजे
बूँदिया बरिसन लागे न.....
आप भी सुनिये न!! विश्वास जानिये, अच्छा लगेगा!!!
रविवार, सितंबर 23, 2007
आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!!
समय भी अजब चीज बनी है इस दुनिया में. जब हम चाहते हैं कि जल्दी से कट जाये तो ऐसा रुकता है कि पूछो मत और जब चाहें कि थमा रहे, तो ऐसा भगता है कि पूछो मत. बिल्कुल उलट दिमाग व्यक्तित्व है समय का.
कुछ दिन पहले दफ्तर से घर के निकला. उस रोज घर जरा जल्दी पहुँचना था. स्टेशन से ट्रेन छूटी और तुरन्त ही कुछ दूर आकर रुक गई. तीन स्टेशन छोड़कर एग्लिंगटन स्टेशन पर किसी ने ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली थी. पुलिस की जाँच पड़ताल जारी थी. उनकी जाँच समाप्ति के बाद ही एक एक करके सब ट्रेनें छूटेंगी. वाकिया हुए पहले ही एक घंटे हो चुके थे, उम्मीद थी कि जल्द ही हरी झंडी मिलेगी.
यात्रियों का समय काटे नहीं कट रहा था. मैने कुछ देर अखबार पलटाया. कुछ देर इधर उधर लोगों के चेहरे के हाव भाव पढ़ता रहा. कोई परेशान दिख रहा था, तो कोई सेल फोन पर बातचीत में मगन और कोई कसमसाया सा सोया था. कुछ बतों में मशगुल थे और कुछ रेल्वे को गरिया रहे थे. अब कोई पटरी पर कूद गया तो रेल्वे क्या करे? मगर मानव तो मानव है, गल्ती थोपी और खुश हो लिये.
एक सज्जन अपने मित्र से बड़े मजाकिया अंदाज में बोले कि इनको भी रश ऑवर में ही कूदना होता है. १२ या १ बजे दिन में कूद लेते तो अब तक ट्रेक क्लियर हो जाता. कितना असंवेदनशीन बना दिया है वक्त ने मानव को. एक महिला का बेटा डे-केयर में था, उसे उसके लिये चिंता थी. ऐसा लगा कि जैसे मैं ही बस फुरसत में हूँ. घर फोन कर दिया था और इत्मिनान से बैठा बाकियों की परेशानियों का अवलोकन करने में सच्चे भारतीय की तरह ऐसा खो गया कि खुद की परेशानी हावी ही नहीं हो पाई.
सुबह से मेकअप में छिपे चहेरों की रंगत धीरे धीरे उड़ती जा रही थी. वो हरे टॉप वाली लड़की सुबह बहुत सुन्दर दिख रही थी. अब दो घंटे के इन्तजार के बाद कम सुन्दर हो गई थी. मैं सोचने लगा कि कितनी टाईमबाउन्ड सुन्दरता है. कहीं तीन चार घंटे और इन्तजार करवा दिया तो एक नया ही रुप न सामने आ जाये. वैसे भी कहा गया है कि किसी का असली रुप देखना है तो उसे गुस्से में या परेशानी में देखो. मेरे साथ कम से कम यह समस्या नहीं है. जैसा सुबह दिखता हूँ, वैसा ही शाम को और वैसा ही गुस्से में भी, जब कभी अगर आ जाये तो. :) उपर वाले की बड़ी कृपा है और आप सबने तो मेरी तस्वीर गाथा तो देखी ही है.
लगा कि समय आगे बढ़ ही नहीं रहा. तीन घंटे का इन्तजार लोगों के लिये मानो तीन साल की तरह कटा, तब कहीं ट्रेन चली. वाकई, इन्तजार की घड़ियां अक्सर बहुत मुश्किल से कटती हैं.
वहीं दूसरी तरफ, पिता जी भारत से मई में आ गये थे चार माह के लिये. हम भी निश्चिंत थे कि अब लम्बे समय तक हमारे साथ रहेंगे. रोज शाम को साथ बैठ कर चाय पीना, टीवी देखना, जमाने की बातें, अपनी आलेखों और कविताओं को सुना सुना कर उनसे स्नेह भरी वाहवाही लूटना.
यही रुटीन हो गया था. हर लेख और कविता पर उनकी तारीफ सुनना मेरी आदत सा बन गये इतने कम दिनों में ही. पत्नी का रुटीन भी उन्हीं के इर्द गिर्द घूमने लगा. अब पापा का चाय का समय हो गया, अब दवा देना है, अब नाश्ता तो अब खाना. सब कुछ उसी रंग में रंग गया. सब बड़े मजे से चलता रहा और इस बार तो समय को जैसे पंख नहीं पंखा लग गये. आज चार महिने बीत भी गये. अभी कल ही तो आये थे ऐसा लगा. कितना तेज समय बीता, समझ ही नहीं पाये.
अभी कुछ घंटे पहले ही उन्हें हवाई जहाज पर बैठा कर लौटे हैं. घर तो जैसे पूरा खाली खाली लग रहा है. दादा जी के जाने से तीनों चिड़िया भी उदास है, जो शाम को उनको अपनी चीं चीं से हैरान कर डालती थीं, आज वो भी चीं चीं नहीं कर रहीं. पत्नी चुपचाप अनमनी सी बैठी टीवी देख रही है, जैसे अब उसके पास कोई काम करने को ही नहीं बचा.
पापा, बार बार सीढ़ी पर छड़ी की ठक ठक सुनाई दे रही है, लगता है आप उतर कर फेमली रुम में आ रहे हैं. मैं इन्तजार कर रहा हूँ आपको अपना नया आलेख सुनाने के लिये.
अब तक तो पिता जी का ३ घंटे का सफर कट भी गया होगा. फिर भी अभी १८ घंटे बाकी ही हैं जब वो इतने लम्बे सफर से थके हुए भारत पहुँचेंगे.
मेरा मन भी बहुत भारी है, बस तसल्ली इतनी सी है कि नवम्बर में मैं खुद भारत जा रहा हूँ तो फिर से साथ हो जायेगा.
सोच रहा हूँ आज यह लेख लिख कर किसे सुनाऊँगा जो उस स्नेह से तारीफ करते हुए कहे कि तुमने आज फिर बहुत सुन्दर लिखा है और मैं दुगने उत्साह से इसे प्रकाशित करुँगा.
कुछ दिन पहले दफ्तर से घर के निकला. उस रोज घर जरा जल्दी पहुँचना था. स्टेशन से ट्रेन छूटी और तुरन्त ही कुछ दूर आकर रुक गई. तीन स्टेशन छोड़कर एग्लिंगटन स्टेशन पर किसी ने ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली थी. पुलिस की जाँच पड़ताल जारी थी. उनकी जाँच समाप्ति के बाद ही एक एक करके सब ट्रेनें छूटेंगी. वाकिया हुए पहले ही एक घंटे हो चुके थे, उम्मीद थी कि जल्द ही हरी झंडी मिलेगी.
यात्रियों का समय काटे नहीं कट रहा था. मैने कुछ देर अखबार पलटाया. कुछ देर इधर उधर लोगों के चेहरे के हाव भाव पढ़ता रहा. कोई परेशान दिख रहा था, तो कोई सेल फोन पर बातचीत में मगन और कोई कसमसाया सा सोया था. कुछ बतों में मशगुल थे और कुछ रेल्वे को गरिया रहे थे. अब कोई पटरी पर कूद गया तो रेल्वे क्या करे? मगर मानव तो मानव है, गल्ती थोपी और खुश हो लिये.
एक सज्जन अपने मित्र से बड़े मजाकिया अंदाज में बोले कि इनको भी रश ऑवर में ही कूदना होता है. १२ या १ बजे दिन में कूद लेते तो अब तक ट्रेक क्लियर हो जाता. कितना असंवेदनशीन बना दिया है वक्त ने मानव को. एक महिला का बेटा डे-केयर में था, उसे उसके लिये चिंता थी. ऐसा लगा कि जैसे मैं ही बस फुरसत में हूँ. घर फोन कर दिया था और इत्मिनान से बैठा बाकियों की परेशानियों का अवलोकन करने में सच्चे भारतीय की तरह ऐसा खो गया कि खुद की परेशानी हावी ही नहीं हो पाई.
सुबह से मेकअप में छिपे चहेरों की रंगत धीरे धीरे उड़ती जा रही थी. वो हरे टॉप वाली लड़की सुबह बहुत सुन्दर दिख रही थी. अब दो घंटे के इन्तजार के बाद कम सुन्दर हो गई थी. मैं सोचने लगा कि कितनी टाईमबाउन्ड सुन्दरता है. कहीं तीन चार घंटे और इन्तजार करवा दिया तो एक नया ही रुप न सामने आ जाये. वैसे भी कहा गया है कि किसी का असली रुप देखना है तो उसे गुस्से में या परेशानी में देखो. मेरे साथ कम से कम यह समस्या नहीं है. जैसा सुबह दिखता हूँ, वैसा ही शाम को और वैसा ही गुस्से में भी, जब कभी अगर आ जाये तो. :) उपर वाले की बड़ी कृपा है और आप सबने तो मेरी तस्वीर गाथा तो देखी ही है.
लगा कि समय आगे बढ़ ही नहीं रहा. तीन घंटे का इन्तजार लोगों के लिये मानो तीन साल की तरह कटा, तब कहीं ट्रेन चली. वाकई, इन्तजार की घड़ियां अक्सर बहुत मुश्किल से कटती हैं.
वहीं दूसरी तरफ, पिता जी भारत से मई में आ गये थे चार माह के लिये. हम भी निश्चिंत थे कि अब लम्बे समय तक हमारे साथ रहेंगे. रोज शाम को साथ बैठ कर चाय पीना, टीवी देखना, जमाने की बातें, अपनी आलेखों और कविताओं को सुना सुना कर उनसे स्नेह भरी वाहवाही लूटना.
यही रुटीन हो गया था. हर लेख और कविता पर उनकी तारीफ सुनना मेरी आदत सा बन गये इतने कम दिनों में ही. पत्नी का रुटीन भी उन्हीं के इर्द गिर्द घूमने लगा. अब पापा का चाय का समय हो गया, अब दवा देना है, अब नाश्ता तो अब खाना. सब कुछ उसी रंग में रंग गया. सब बड़े मजे से चलता रहा और इस बार तो समय को जैसे पंख नहीं पंखा लग गये. आज चार महिने बीत भी गये. अभी कल ही तो आये थे ऐसा लगा. कितना तेज समय बीता, समझ ही नहीं पाये.
अभी कुछ घंटे पहले ही उन्हें हवाई जहाज पर बैठा कर लौटे हैं. घर तो जैसे पूरा खाली खाली लग रहा है. दादा जी के जाने से तीनों चिड़िया भी उदास है, जो शाम को उनको अपनी चीं चीं से हैरान कर डालती थीं, आज वो भी चीं चीं नहीं कर रहीं. पत्नी चुपचाप अनमनी सी बैठी टीवी देख रही है, जैसे अब उसके पास कोई काम करने को ही नहीं बचा.
पापा, बार बार सीढ़ी पर छड़ी की ठक ठक सुनाई दे रही है, लगता है आप उतर कर फेमली रुम में आ रहे हैं. मैं इन्तजार कर रहा हूँ आपको अपना नया आलेख सुनाने के लिये.
अब तक तो पिता जी का ३ घंटे का सफर कट भी गया होगा. फिर भी अभी १८ घंटे बाकी ही हैं जब वो इतने लम्बे सफर से थके हुए भारत पहुँचेंगे.
मेरा मन भी बहुत भारी है, बस तसल्ली इतनी सी है कि नवम्बर में मैं खुद भारत जा रहा हूँ तो फिर से साथ हो जायेगा.
सोच रहा हूँ आज यह लेख लिख कर किसे सुनाऊँगा जो उस स्नेह से तारीफ करते हुए कहे कि तुमने आज फिर बहुत सुन्दर लिखा है और मैं दुगने उत्साह से इसे प्रकाशित करुँगा.
गुरुवार, सितंबर 20, 2007
मुझे मुक्ति चाहिये!!!!
याद है मुझे, तब सरकारी मकान में रहते थे. छत पर ईंट और मिट्टी से घेर कर पानी भर दिया जाता था और घर की सारी खिड़कियों के काँच पर गाढ़ा रंग. गर्मी की तपती दुपहरी में खिड़कियाँ बंद होने पर कमरे में घुप्प अंधेरा हो जाता था और छत पर पानी भरा होने से पंखे से एकदम ठंडी हवा आती थी. बड़ी राहत से सोते थे उसमें.
रात में आंगन में पहले पानी से सिंचाई होती थी और अंधेरा होते ही बिस्तर बिछा दिये जाते थे. जब सोने जाते तो ठंडे ठंडे बिस्तर मिलते और सबेरा होने तक मोटी खेस की चादर ओढ़ने की नौबत आ जाती.
समय के साथ साथ देखते देखते बाहर सोने का प्रचलन बंद सा होता गया और तब तक कुलर भी आ गये थे. तब गर्मी में बिना कुलर चलाये नींद ही नहीं आती थी. उस पर से रात बिरात अगर बिजली चली जाये तो जैसे पूरा बदन चुनमुना उठता था मानों सैकड़ों चिटियों ने एक साथ काटना शुरु कर दिया हो. फिर जब बिजली आ जाये, तभी नींद आती थी.
कुछ समय और बीता. कुलर की जगह एसी ने ले ली. अब कुलर में उमस लगती थी. बिना एसी जैसे सोने की कल्पना भी मुश्किल हो जाती. कार में एसी, घर में एसी, बिजली जाये तो जनरेटर/इन्वर्टर ऑन. शरीर जैसे एकदम से सुविधाओं का लती हो गया.
इस बात की कल्पना भी मुश्किल हो गई कि बिना इन सब तामझामों के गर्मी में कैसे सो पायेंगे.
फिर कनाडा आ गये. बिजली जाती भी है जैसे भूल ही गये. गर्मी में हर वक्त एसी मे रहना. चाहे घर में, कार में, बजार में या दफ्तर में. सर्दी हो जाये तब यही सब पलट कर हिटिंग में बदल जाता है.
आने के बाद पहली ही भारत यात्रा के बाद अब तो गर्मियों में भारत जाने में भी घबराहट होने लगी है कि कैसे बरदाश्त करेंगे. बार बार तो बिजली चली जाती है और फिर गर्मी भी इतनी ज्यादा.
है तो वो ही भारत, जहाँ से मैं आया था. तब भी तो बिजली जाती थी. फिर क्या हुआ??
शायद सुविधायें बहुत जल्दी हमें अपना गुलाम बना लेती हैं. जकड़ लेती हैं अपने भुजपाश में. अब आप भी तो पेड़ की छाया में नहीं सो सकते?
और गुलाम आदमी तो बदल ही जाता है, वो वो ही कहाँ रह जाता है.
इस गुलामी से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है?
नहीं सुझता है कोई मार्ग.
मगर मुझे मुक्ति चाहिये!!!!
मुझे मेरे भारत आने के लिये मौसम नहीं देखना है.
रात में आंगन में पहले पानी से सिंचाई होती थी और अंधेरा होते ही बिस्तर बिछा दिये जाते थे. जब सोने जाते तो ठंडे ठंडे बिस्तर मिलते और सबेरा होने तक मोटी खेस की चादर ओढ़ने की नौबत आ जाती.
समय के साथ साथ देखते देखते बाहर सोने का प्रचलन बंद सा होता गया और तब तक कुलर भी आ गये थे. तब गर्मी में बिना कुलर चलाये नींद ही नहीं आती थी. उस पर से रात बिरात अगर बिजली चली जाये तो जैसे पूरा बदन चुनमुना उठता था मानों सैकड़ों चिटियों ने एक साथ काटना शुरु कर दिया हो. फिर जब बिजली आ जाये, तभी नींद आती थी.
कुछ समय और बीता. कुलर की जगह एसी ने ले ली. अब कुलर में उमस लगती थी. बिना एसी जैसे सोने की कल्पना भी मुश्किल हो जाती. कार में एसी, घर में एसी, बिजली जाये तो जनरेटर/इन्वर्टर ऑन. शरीर जैसे एकदम से सुविधाओं का लती हो गया.
इस बात की कल्पना भी मुश्किल हो गई कि बिना इन सब तामझामों के गर्मी में कैसे सो पायेंगे.
फिर कनाडा आ गये. बिजली जाती भी है जैसे भूल ही गये. गर्मी में हर वक्त एसी मे रहना. चाहे घर में, कार में, बजार में या दफ्तर में. सर्दी हो जाये तब यही सब पलट कर हिटिंग में बदल जाता है.
आने के बाद पहली ही भारत यात्रा के बाद अब तो गर्मियों में भारत जाने में भी घबराहट होने लगी है कि कैसे बरदाश्त करेंगे. बार बार तो बिजली चली जाती है और फिर गर्मी भी इतनी ज्यादा.
है तो वो ही भारत, जहाँ से मैं आया था. तब भी तो बिजली जाती थी. फिर क्या हुआ??
शायद सुविधायें बहुत जल्दी हमें अपना गुलाम बना लेती हैं. जकड़ लेती हैं अपने भुजपाश में. अब आप भी तो पेड़ की छाया में नहीं सो सकते?
और गुलाम आदमी तो बदल ही जाता है, वो वो ही कहाँ रह जाता है.
इस गुलामी से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है?
नहीं सुझता है कोई मार्ग.
मगर मुझे मुक्ति चाहिये!!!!
मुझे मेरे भारत आने के लिये मौसम नहीं देखना है.
मंगलवार, सितंबर 18, 2007
हाय टिप्पणी!! काहे टिप्पणी!!
अगर मैं कहूँ कि ९८ प्रतिशत भारत की आबादी को, जिसमें मैं भी शामिल हूँ, को न तो धन्यवाद देना आता है और न ही स्वीकारना आता है और न ही किसी का अभिनन्दन या प्रशंसा करना या फिर अपना अभिनन्दन या प्रशंसा स्वीकार करना, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. हाँ, इस बात को सुनकर अनेकों भृकुटियाँ जरुर टेढी हो जायेंगी. यह तो हम सबको आता है.
जरा बताईयेगा:
क्या आप अपने नौकर को पानी या चाय देने के लिये धन्यवाद देते हैं?
क्या आप अपने ड्राइवर को दफ्तर पर उतरते समय या घर पर उतरते समय, सुरक्षापूर्वक पहुँचाने का धन्यवाद देते हैं?
क्या आप पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरने वाले बालक को पेट्रोल भरने का धन्यवाद देते हैं?
क्या आप अपने मित्र का फोन आने पर फोन रखते समय उसे फोन करके याद करने का आभार करते हैं?
क्या आप से जब कोई आपका हाल पूछता है तो उसे अपना हाल 'ठीक हूँ' के साथ हाल पूछने के लिये धन्यवाद करते हैं?
क्या आप दुकानदार को पैसा देने के बाद बचे पैसे वापस लेते हुये उसकी सेवाओं के लिये धन्यवाद कहते हैं?
क्या आप स्टेशन पर कुली को या रिक्शे वाले को पैसे के सिवाय धन्यवाद भी देते हैं?
उपरोक्त सूची में अभी कम से कम १०० और वाकये रख सकने में सक्षम हूँ जिसमें ९८% लोगों का जबाब नकारात्मक होगा.लोग सोचते हैं कि किस बात का धन्यवाद दें इनको. यह तो इनका काम है. पैसे देते हैं इसको. इसकी औकात ही क्या है हमारे सामने ? और भी न जाने क्या क्या कारण.
(अमरीका/ कनाडा में इन्हीं के जबाब ९८% लोगों के सकारात्मक होंगे और इसका जबाब देते हुये भी अधिकतर इन प्रश्नों को उनसे पूछने का धन्यवाद दे रहे होंगे.)
चलिये, यह तो देने की बात हो गई. अगर कोई दे दे तो लेना नहीं आता. धन्यवाद का सीधा जबाब अंग्रेजी में ' यू आर वेलकम' या 'मेन्शन नॉट' से दे सकते हैं या फिर हिन्दी में इसे ही 'आपका बहुत आभार', लिखित में 'साधुवाद' आदि से दिया जा सकता है. मगर मैने देखा है कि आधे से तो कोई भी जबाब देने की बजाय या तो उसे अनसुना कर देंगे या चुपचाप निकल लेंगे या फिर 'हें हें हें, कैसी बात कर रहे हैं?' या 'अरे, धन्यवाद कैसा?' या फिर 'आप भी न!! हद करते हो, भाई साहब' या 'अरे, यह तो हमारा फर्ज है, इसमें धन्यवाद कैसा.'
वही हालत अभिनन्दन और प्रशंसा की है. किसी से कह देजिये कि भाई, तुम्हारी शर्ट गजब की है. जबाब में धन्यवाद की जगह 'क्या भाई, सुबह से कोई मिला नहीं क्या?' या 'अरे कहाँ, बस ऐसी ही है.' या फिर 'अरे भाई साहब, बस काम चल जा रहा है.' या 'आप ले लो.' हद है, यार. एक धन्यवाद देने की बजाय ये सब क्या है?
इसको इस ढंग से भी देखें कि अगर चाय पिलाने का इन्तजाम करना धन्यवाद प्राप्ति की पात्रता रखता है तो चाय पिलाने का वादा करना, चाय पिलाने के लिये बुलवाना, चाय पिलवाना, हर बार चाय पिलवाना भी हर बार धन्यवाद प्राप्ति की पात्रता रखता है. अगर चाय अच्छी नहीं बनी है, तो या तो आपका प्रोत्साहन पाकर वह स्वयं बना बना कर सीख जायेगा या फिर आप उसे मार्गदर्शन दें कि कैसे बेहतर बनती है. परिणाम दोनों के ही अंत में एक अच्छी चाय बन जाने के ही होने की संभावना है.
किन्तु यदि आप चाय पीने ही न जायें या जायें भी, तो पी कर बिना कुछ कहे ही लौट जायें तो वो भी आखिर कब तक आपके आगे बीन बजाता रहेगा. हताश होकर चाय बनाना ही छोड़ देगा. कोई उधार तो ले नहीं रखी. फ्री में चाय पिला रहा है और आप है कि धन्यवाद तक नहीं कहते मगर चले हर बार आते हैं क्योंकि अभी शहर में बहुत सारी इस तरह की चाय स्थलियों की आवश्यकता है. रोज आवाज लगाते हैं कि अभी चाय पिलाने वाले कम हैं और आओ, और आओ.
कहते हैं न कि
'करत करत अभ्यास ते, जड़मत होत सुजान'
किन्तु बिन प्रोत्साहन के तो अभ्यास हो नहीं सकता. जल्द ही हौसला चुक जायेगा.
मुझे खुद गर तीन दिन तक पत्नी न कहे कि कुछ दुबले दिखने लगे हैं तो ट्रेड मिल पर जाने की इच्छा खत्म होने लगती है जबकि वजन तौलने वाली मशीन चिंघाड़ चिघांड़ कर कह रही होती है कि आपकी बीबी झूठ बोल कर सिर्फ आपको कसरत जारी रखने के प्रोत्साहित कर रही है. सालों में इकट्ठा किया वजन निकलने में भी कुछ समय दोगे कि हर तीसरे दिन दुबले होते जाओगे. मगर उसका प्रोत्साहन ही तो है जो मुझे बार बार ट्रेड मिल पर बनाये रखता है. भले ही कम न हो रहा हो मगर कम से कम बढ़ तो नहीं रहा. यह ही गनीमत है वरना अभी तक क्या हाल हो गया होता.
किसी ने मेहनत की है. भले ही आपके लिये न की हो, खुद के लिये ही की हो मगर उसकी मेहनत का जो फल आया, वो एक अच्छाई के लिये है, आप भी उसका आनन्द उठाते हैं तो दो शब्द धन्यवाद के देना क्या आपका फर्ज नहीं बनता?
बनता है न!! इसी धन्यवाद को, इसी प्रोत्साहन को, इसी अभिनन्दन को चिट्ठाकारी में 'टिप्पणी' कहते हैं और इस धन्यवाद के बदले जो 'यू आर वेलकम' बोलने का शिष्टाचार है, उसे टिप्पणी देने वाले के चिट्ठे पर जाकर 'टिप्पणी' करना बोलते हैं.
फिर शिष्टाचार निभाने में अकड़ कैसी और शर्माना कैसा?
कहीं उन ९८% की तरह आप भी तो इस बात से नहीं डर रहे कि इससे आपकी औकात कमतर आँक ली जायेगी?
बात मानो इससे आपका बड़प्पन ही साबित होगा और औकात में इजाफा. बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं.
चलते चलते:
इस आलेख की वजह बनी अभी अभी ताजा चली टिप्पणी महत्ता पर वेचारिक आँधी. अगर बहुत गहरा उतरने की चाह हो तो यह सारे लिंक एक जगह उपलब्द्ध करा रहा हूँ. कुछ राजीव जी के ब्लॉग से टीपे हैं बिना अनुमति :) :
राजीव टंडन के अंतरिम पर
ज्ञान दत्त जी मानसिक हलचल पर
शास्त्री जे सी फिलिप जी के सारथी पर
टिप्पणीकार पर
संजय तिवारी जी के विस्फोट पर
कुछ पुराने जमाने की बातें:
उड़न तश्तरी पर : अपना ब्लॉग बेचो रे भाई
फुरसतिया पर: सुभाषित वचन-ब्लाग, ब्लागर, ब्लागिंग
जीतू भाई: ब्लाग पर टिप्पणी का महत्व
उड़न तश्तरी पर: पुनि पुनि बोले संत समीरा
सागर चन्द नहार जी: अपने ब्लाग की टी आर पी कैसे बढ़ायें
नोटपैड पर: तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊँ
और भी अनेकों बार इस विषय पर लिखा जा चुका है, जिनके लिंक फिर कभी. मसीजिवी और निलिमा जी भी इस विषय पर अपनी तरह से विचार रख चुके हैं.
सूचना:
यह आलेख स्वांत: सुखाय लेखन वालों के लिये सफेद पन्ना है. वे इसे न देखें. वैसे भी वो सब कुछ पनी डायरी में लिख सकते हैं या टिप्पणी वाला टैब बंद कर सकते हैं तो फिर बताना भी नहीं पड़ेगा कि स्वांत: सुखाय लिख रहे हैं. सब समझ जायेंगे.
उनके काम यह आलेख तभी आयेगा अगर वो हमारे मोहल्ले में रहने वाले शर्मा जी की तरह स्टेटमेंट दे रहे हों तो!! शर्मा जी निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं. रोज मिलते हैं और कहते हैं कि मैं बहुत खुश हूँ. क्या करना है इतना पैसा कि चैन खो जाये? खाना वो दो रोटी ही है चाहे कितना भी पैसा आ जाये. हम तो बस अपने में खुश हैं. जितना है दो टाईम की रोटी आ जाती है, इससे ज्यादा की हा हा क्या मचाना. और मुझे तिवारी जी बता रहे थे कि वो कोई साईड बिजनेस की तलाश में हैं ताकि कुछ अलग से कमाई हो जाये.
वैसे अगर संतोष है तो संतोष में बहुत शक्ति है:
गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
जरा बताईयेगा:
क्या आप अपने नौकर को पानी या चाय देने के लिये धन्यवाद देते हैं?
क्या आप अपने ड्राइवर को दफ्तर पर उतरते समय या घर पर उतरते समय, सुरक्षापूर्वक पहुँचाने का धन्यवाद देते हैं?
क्या आप पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरने वाले बालक को पेट्रोल भरने का धन्यवाद देते हैं?
क्या आप अपने मित्र का फोन आने पर फोन रखते समय उसे फोन करके याद करने का आभार करते हैं?
क्या आप से जब कोई आपका हाल पूछता है तो उसे अपना हाल 'ठीक हूँ' के साथ हाल पूछने के लिये धन्यवाद करते हैं?
क्या आप दुकानदार को पैसा देने के बाद बचे पैसे वापस लेते हुये उसकी सेवाओं के लिये धन्यवाद कहते हैं?
क्या आप स्टेशन पर कुली को या रिक्शे वाले को पैसे के सिवाय धन्यवाद भी देते हैं?
उपरोक्त सूची में अभी कम से कम १०० और वाकये रख सकने में सक्षम हूँ जिसमें ९८% लोगों का जबाब नकारात्मक होगा.लोग सोचते हैं कि किस बात का धन्यवाद दें इनको. यह तो इनका काम है. पैसे देते हैं इसको. इसकी औकात ही क्या है हमारे सामने ? और भी न जाने क्या क्या कारण.
(अमरीका/ कनाडा में इन्हीं के जबाब ९८% लोगों के सकारात्मक होंगे और इसका जबाब देते हुये भी अधिकतर इन प्रश्नों को उनसे पूछने का धन्यवाद दे रहे होंगे.)
चलिये, यह तो देने की बात हो गई. अगर कोई दे दे तो लेना नहीं आता. धन्यवाद का सीधा जबाब अंग्रेजी में ' यू आर वेलकम' या 'मेन्शन नॉट' से दे सकते हैं या फिर हिन्दी में इसे ही 'आपका बहुत आभार', लिखित में 'साधुवाद' आदि से दिया जा सकता है. मगर मैने देखा है कि आधे से तो कोई भी जबाब देने की बजाय या तो उसे अनसुना कर देंगे या चुपचाप निकल लेंगे या फिर 'हें हें हें, कैसी बात कर रहे हैं?' या 'अरे, धन्यवाद कैसा?' या फिर 'आप भी न!! हद करते हो, भाई साहब' या 'अरे, यह तो हमारा फर्ज है, इसमें धन्यवाद कैसा.'
वही हालत अभिनन्दन और प्रशंसा की है. किसी से कह देजिये कि भाई, तुम्हारी शर्ट गजब की है. जबाब में धन्यवाद की जगह 'क्या भाई, सुबह से कोई मिला नहीं क्या?' या 'अरे कहाँ, बस ऐसी ही है.' या फिर 'अरे भाई साहब, बस काम चल जा रहा है.' या 'आप ले लो.' हद है, यार. एक धन्यवाद देने की बजाय ये सब क्या है?
इसको इस ढंग से भी देखें कि अगर चाय पिलाने का इन्तजाम करना धन्यवाद प्राप्ति की पात्रता रखता है तो चाय पिलाने का वादा करना, चाय पिलाने के लिये बुलवाना, चाय पिलवाना, हर बार चाय पिलवाना भी हर बार धन्यवाद प्राप्ति की पात्रता रखता है. अगर चाय अच्छी नहीं बनी है, तो या तो आपका प्रोत्साहन पाकर वह स्वयं बना बना कर सीख जायेगा या फिर आप उसे मार्गदर्शन दें कि कैसे बेहतर बनती है. परिणाम दोनों के ही अंत में एक अच्छी चाय बन जाने के ही होने की संभावना है.
किन्तु यदि आप चाय पीने ही न जायें या जायें भी, तो पी कर बिना कुछ कहे ही लौट जायें तो वो भी आखिर कब तक आपके आगे बीन बजाता रहेगा. हताश होकर चाय बनाना ही छोड़ देगा. कोई उधार तो ले नहीं रखी. फ्री में चाय पिला रहा है और आप है कि धन्यवाद तक नहीं कहते मगर चले हर बार आते हैं क्योंकि अभी शहर में बहुत सारी इस तरह की चाय स्थलियों की आवश्यकता है. रोज आवाज लगाते हैं कि अभी चाय पिलाने वाले कम हैं और आओ, और आओ.
कहते हैं न कि
'करत करत अभ्यास ते, जड़मत होत सुजान'
किन्तु बिन प्रोत्साहन के तो अभ्यास हो नहीं सकता. जल्द ही हौसला चुक जायेगा.
मुझे खुद गर तीन दिन तक पत्नी न कहे कि कुछ दुबले दिखने लगे हैं तो ट्रेड मिल पर जाने की इच्छा खत्म होने लगती है जबकि वजन तौलने वाली मशीन चिंघाड़ चिघांड़ कर कह रही होती है कि आपकी बीबी झूठ बोल कर सिर्फ आपको कसरत जारी रखने के प्रोत्साहित कर रही है. सालों में इकट्ठा किया वजन निकलने में भी कुछ समय दोगे कि हर तीसरे दिन दुबले होते जाओगे. मगर उसका प्रोत्साहन ही तो है जो मुझे बार बार ट्रेड मिल पर बनाये रखता है. भले ही कम न हो रहा हो मगर कम से कम बढ़ तो नहीं रहा. यह ही गनीमत है वरना अभी तक क्या हाल हो गया होता.
किसी ने मेहनत की है. भले ही आपके लिये न की हो, खुद के लिये ही की हो मगर उसकी मेहनत का जो फल आया, वो एक अच्छाई के लिये है, आप भी उसका आनन्द उठाते हैं तो दो शब्द धन्यवाद के देना क्या आपका फर्ज नहीं बनता?
बनता है न!! इसी धन्यवाद को, इसी प्रोत्साहन को, इसी अभिनन्दन को चिट्ठाकारी में 'टिप्पणी' कहते हैं और इस धन्यवाद के बदले जो 'यू आर वेलकम' बोलने का शिष्टाचार है, उसे टिप्पणी देने वाले के चिट्ठे पर जाकर 'टिप्पणी' करना बोलते हैं.
फिर शिष्टाचार निभाने में अकड़ कैसी और शर्माना कैसा?
कहीं उन ९८% की तरह आप भी तो इस बात से नहीं डर रहे कि इससे आपकी औकात कमतर आँक ली जायेगी?
बात मानो इससे आपका बड़प्पन ही साबित होगा और औकात में इजाफा. बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं.
चलते चलते:
इस आलेख की वजह बनी अभी अभी ताजा चली टिप्पणी महत्ता पर वेचारिक आँधी. अगर बहुत गहरा उतरने की चाह हो तो यह सारे लिंक एक जगह उपलब्द्ध करा रहा हूँ. कुछ राजीव जी के ब्लॉग से टीपे हैं बिना अनुमति :) :
राजीव टंडन के अंतरिम पर
ज्ञान दत्त जी मानसिक हलचल पर
शास्त्री जे सी फिलिप जी के सारथी पर
टिप्पणीकार पर
संजय तिवारी जी के विस्फोट पर
कुछ पुराने जमाने की बातें:
उड़न तश्तरी पर : अपना ब्लॉग बेचो रे भाई
फुरसतिया पर: सुभाषित वचन-ब्लाग, ब्लागर, ब्लागिंग
जीतू भाई: ब्लाग पर टिप्पणी का महत्व
उड़न तश्तरी पर: पुनि पुनि बोले संत समीरा
सागर चन्द नहार जी: अपने ब्लाग की टी आर पी कैसे बढ़ायें
नोटपैड पर: तू मेरी पीठ खुजा मैं तेरी पीठ खुजाऊँ
और भी अनेकों बार इस विषय पर लिखा जा चुका है, जिनके लिंक फिर कभी. मसीजिवी और निलिमा जी भी इस विषय पर अपनी तरह से विचार रख चुके हैं.
सूचना:
यह आलेख स्वांत: सुखाय लेखन वालों के लिये सफेद पन्ना है. वे इसे न देखें. वैसे भी वो सब कुछ पनी डायरी में लिख सकते हैं या टिप्पणी वाला टैब बंद कर सकते हैं तो फिर बताना भी नहीं पड़ेगा कि स्वांत: सुखाय लिख रहे हैं. सब समझ जायेंगे.
उनके काम यह आलेख तभी आयेगा अगर वो हमारे मोहल्ले में रहने वाले शर्मा जी की तरह स्टेटमेंट दे रहे हों तो!! शर्मा जी निम्न मध्यम वर्ग से आते हैं. रोज मिलते हैं और कहते हैं कि मैं बहुत खुश हूँ. क्या करना है इतना पैसा कि चैन खो जाये? खाना वो दो रोटी ही है चाहे कितना भी पैसा आ जाये. हम तो बस अपने में खुश हैं. जितना है दो टाईम की रोटी आ जाती है, इससे ज्यादा की हा हा क्या मचाना. और मुझे तिवारी जी बता रहे थे कि वो कोई साईड बिजनेस की तलाश में हैं ताकि कुछ अलग से कमाई हो जाये.
वैसे अगर संतोष है तो संतोष में बहुत शक्ति है:
गोधन, गजधन, वाजिधन, और रतन धन खान।
जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान॥
रविवार, सितंबर 16, 2007
तस्वीर बनाता हूँ, तस्वीर नहीं बनती!!!
गमगीन सा बोझिल माहौल. सभी के चहेरों पर गंभीरता. शांत वातावरण के बीच सुनाई पड़ती फुसफुसाहट. पूरे हॉल के भीतर दीवालों पर टंगी पेन्टिंग्स और उसके पास फुसफुसा कर उसकी डिटेल्स पर प्रकाश डालते कुर्ता पहने, हल्की दाढ़ी और बिखरे बाल में सजे गंभीर मुद्राधारी चित्रकार. कुछ कुछ लोगों की भीड़ अलग अलग हर तरफ तस्वीरों के सामने.
यह दृश्य है एक चित्रकला प्रदर्शनी का जिसमें जाने का शौक हमने कुछ समय पूर्व अपने मित्र भारत के विख्यात चित्रकार विजेन्द्र ’विज’ से प्रभावित होकर पाल लिया.
अब एक कलाकार का हौसला दूसरा कलाकार ही तो बढ़ाता है. एक कवि/लेखक का दूसरा कवि/लेखक, एक चिट्ठाकार का दूसरा चिट्ठाकार, एक चित्रकार का दूसरा चित्रकार. मगर अब हमारी सोच का दायरा हमने जरा बढ़ाया और न सिर्फ चिट्ठाकार/कवि और लेखक की हौसला अफजाई करने के हमने चित्रकारों को भी इसमें शामिल करने का प्रयास किया.
हॉल मे घुसे और जिस चित्र के नीचे सबसे ज्यादा भीड़ थी वहाँ पहुँच लिये. चित्रकार महोदय फुसफुसाते से, हाथ में कूची पकड़े चित्र की डिटेल समझा रहे थे. पता चला कि प्रदर्शनी का विषय था ’ध्यान’. यह चित्र समझाया जा रहा था.
हम कवि सम्मेलनियों को फुसफुसाहट सुनाई नहीं देती सो कान एक पास ले जाकर सुनना पड़ा. बाकी सब दूर से भी सुन ले रहे थे या कम से कम सुन रहे हैं इसका प्रदर्शन सफलतापूर्वक कर रहे थे.
चित्रकार महोदय गंभीरता से कह रहे थे कि इस लाल बिन्दु को ध्यान से देखें. इसमें साक्षात ब्रह्म है. यही शून्य है और यही एक मात्र सत्य. इस पर ध्यान केन्द्रित किजिये, यही उर्जा का स्त्रोत है. एकटक बिना पलक झपकाये पूरी श्रृद्धा से इस पर ध्यान केन्द्रित करें और कुछ ही पल में आप अपने आपको दूसरे लोक में पायेंगे, इसका विराट स्वरुप आपको दिखने लगेगा. बस डूब जाईये इस बिन्दु में. डुबकी लगाईये इस सागर में. यही ध्यान है और यही सफल जीवन का एक मात्र मार्ग है. भीड़ के साथ हम भी लगे डुबने. सबने विस्तार देखा और उन सभी ने भी समझा कि हमने भी विस्तार देखा. कौन अपने आपको भीड़ मे मूर्ख घोषित करवाये मना करके.
फिर बाकी के चित्र भी देखे जो और चित्रकारों द्वारा बनाये गये थे. बड़ी बड़ी मेहनत के नमूने. कुछ समझ में आये और अधिकतर नहीं. मगर सुना बड़ी गंभीरता से सभी चित्रकारों को. पहला पहला अनुभव था न!
अगले दिन अखबार में देखा, लाल बिन्दी को सर्वश्रेष्ठ चित्र घोषित किया गया. बाकी सबकी घोर मेहनत नदी, पहाड़, आकाश रंगने की गई पानी में. ऐसा ही तो कविता में भी होता है कि भले ही कम शब्द हों मगर संदेश सालिड हो और कहा ओजपूर्वक तरीके से गया हो. साथ ही फिर आपका नाम भी काम करता है.
फिर तो मानिये सिलसिला सा लग गया इस तरह की प्रदर्शनियों में जाने का. अगली बार गये तो बिल्कुल वही माहौल मगर टॉपिक अलग. इस बार ’रक्त दान’ सप्ताह के उपलक्ष्य में रेड क्रास द्वारा स्पॉन्सर्ड शो था.
फिर हॉल में पहुँचे. तरह तरह के चित्र लगे थे. मगर जिस जगह सबसे ज्यादा भीड़ थी हम भी वहीं पहुँच गये. अरे, यह तो वही चित्रकार हैं. फिर नजर दौड़ा कर देखा तो चित्र भी वही और वो फुसफुसा रहे थे. यह रक्त की वह बूँद है जो किसी को जीवन दे सकती है या इसका आभाव किसी की जिन्दगी ले सकता है. आपकी एक बूँद से किसी का जीवन संवर सकता है और आपका कुछ नहीं जाता और जाने क्या क्या. हम तो ऐसा प्रभावित हो गये कि वहीं रक्त दान शिविर में एक बोतल खून भी दान दे आये.
अगले दिन पता चला कि उनका वही चित्र इसमें भी फिर सर्वश्रेष्ठ चुना गया. हम तो दंग रह गये या ज्यादा साहित्यिक हो कहें तो सन्न रह गये. मगर ऐसा ही तो कविता में भी होता है कि भले ही कम शब्द हों मगर संदेश सालिड हो और कहा ओजपूर्वक तरीके से गया हो. भले ही हर मंच से वही पढ़ रहे हों बार बार. साथ ही फिर आपका नाम भी काम करता है.
इसके बाद तो एक के एक बाद उसी चित्र पर अलग अलग आख्यान दे उन्हें सर्वश्रेष्ठ घोषित होते मैने न जाने कितनी प्रदर्शनियों में देखा. एक बार किसी भारतीय शादी की साईट द्वारा स्पान्सर्ड ’सुहाग’ टॉपिक पर. आख्यान था कि यह लाल बिन्दी सुहाग की निशानी है. यह सुहागन का गहना है.
फिर जापान के सांस्कृतिक कार्यक्रम में- इसे जापान के झंडे के रुप में प्रदर्शित किया गया और फिर संस्कृति की रक्षा के लिये सर्वश्रेष्ठ चुना गया.
फिर ’यातायात जागरुकता अभियान’ में, वही लाल बिन्दी लाल सिग्नल लाईट बन गई. सबसे जरुरी. न ध्यान दिया तो जान जा सकती है. आह्ह!!
हम तो सोच में ही पड़ गये. प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी याद आ गये जो कवियों से रश्क खाते हुये कहते थे कि हम रोज एक व्यंग्य लिखते हैं और सुनाते हैं और हर बार नया सुनाये, तब किसी तरह नाम चला पाते हैं और एक ख्याति प्राप्त कवि जीवन भर छः कविता लिख कर हमेशा मंच साधे रहता है. वही वही कविता हर बार.
मगर आज तो हमने कवि को भी रश्क खाते देखा. एक चित्रकार सारा जीवन एक चित्र के सहारे काट दे..हद है भाई..और उस पर से हर बार सर्वश्रेष्ट. हाय! हम क्यूँ फंस गये छः कविता के चक्कर में सस्ता सौदा समझ कर.
आगे से ध्यान रखूँगा. ऐसा चित्र बनाऊँगा जो हर जगह फिट हो जाये फिर छः कविता लिखने की झंझट भी छूटे. कौन पड़े चक्कर में.
चलते-चलते:
आधा दर्जन गीत लिख, यूँ जीते मंच मचान
सारा जीवन काट गये, वो अपना सीना तान
अपना सीना तान कि नाम कवियों में होता
बार बार सुन करके भी, श्रोता ताली है धोता
कहे समीर कविराय, इससे भी सस्ता पाओ
एक ही चित्र बनाओ,जीवन भर नाम कमाओ.
--समीर लाल ’समीर’
निवेदन: कोई भी कलाकार इसे अन्यथा लेकर आहत न हो. यह मात्र मौज मजे के लिये है. हर कला का सम्मान हो, यही मेरी मान्यता है.
यह दृश्य है एक चित्रकला प्रदर्शनी का जिसमें जाने का शौक हमने कुछ समय पूर्व अपने मित्र भारत के विख्यात चित्रकार विजेन्द्र ’विज’ से प्रभावित होकर पाल लिया.
अब एक कलाकार का हौसला दूसरा कलाकार ही तो बढ़ाता है. एक कवि/लेखक का दूसरा कवि/लेखक, एक चिट्ठाकार का दूसरा चिट्ठाकार, एक चित्रकार का दूसरा चित्रकार. मगर अब हमारी सोच का दायरा हमने जरा बढ़ाया और न सिर्फ चिट्ठाकार/कवि और लेखक की हौसला अफजाई करने के हमने चित्रकारों को भी इसमें शामिल करने का प्रयास किया.
हॉल मे घुसे और जिस चित्र के नीचे सबसे ज्यादा भीड़ थी वहाँ पहुँच लिये. चित्रकार महोदय फुसफुसाते से, हाथ में कूची पकड़े चित्र की डिटेल समझा रहे थे. पता चला कि प्रदर्शनी का विषय था ’ध्यान’. यह चित्र समझाया जा रहा था.
हम कवि सम्मेलनियों को फुसफुसाहट सुनाई नहीं देती सो कान एक पास ले जाकर सुनना पड़ा. बाकी सब दूर से भी सुन ले रहे थे या कम से कम सुन रहे हैं इसका प्रदर्शन सफलतापूर्वक कर रहे थे.
चित्रकार महोदय गंभीरता से कह रहे थे कि इस लाल बिन्दु को ध्यान से देखें. इसमें साक्षात ब्रह्म है. यही शून्य है और यही एक मात्र सत्य. इस पर ध्यान केन्द्रित किजिये, यही उर्जा का स्त्रोत है. एकटक बिना पलक झपकाये पूरी श्रृद्धा से इस पर ध्यान केन्द्रित करें और कुछ ही पल में आप अपने आपको दूसरे लोक में पायेंगे, इसका विराट स्वरुप आपको दिखने लगेगा. बस डूब जाईये इस बिन्दु में. डुबकी लगाईये इस सागर में. यही ध्यान है और यही सफल जीवन का एक मात्र मार्ग है. भीड़ के साथ हम भी लगे डुबने. सबने विस्तार देखा और उन सभी ने भी समझा कि हमने भी विस्तार देखा. कौन अपने आपको भीड़ मे मूर्ख घोषित करवाये मना करके.
फिर बाकी के चित्र भी देखे जो और चित्रकारों द्वारा बनाये गये थे. बड़ी बड़ी मेहनत के नमूने. कुछ समझ में आये और अधिकतर नहीं. मगर सुना बड़ी गंभीरता से सभी चित्रकारों को. पहला पहला अनुभव था न!
अगले दिन अखबार में देखा, लाल बिन्दी को सर्वश्रेष्ठ चित्र घोषित किया गया. बाकी सबकी घोर मेहनत नदी, पहाड़, आकाश रंगने की गई पानी में. ऐसा ही तो कविता में भी होता है कि भले ही कम शब्द हों मगर संदेश सालिड हो और कहा ओजपूर्वक तरीके से गया हो. साथ ही फिर आपका नाम भी काम करता है.
फिर तो मानिये सिलसिला सा लग गया इस तरह की प्रदर्शनियों में जाने का. अगली बार गये तो बिल्कुल वही माहौल मगर टॉपिक अलग. इस बार ’रक्त दान’ सप्ताह के उपलक्ष्य में रेड क्रास द्वारा स्पॉन्सर्ड शो था.
फिर हॉल में पहुँचे. तरह तरह के चित्र लगे थे. मगर जिस जगह सबसे ज्यादा भीड़ थी हम भी वहीं पहुँच गये. अरे, यह तो वही चित्रकार हैं. फिर नजर दौड़ा कर देखा तो चित्र भी वही और वो फुसफुसा रहे थे. यह रक्त की वह बूँद है जो किसी को जीवन दे सकती है या इसका आभाव किसी की जिन्दगी ले सकता है. आपकी एक बूँद से किसी का जीवन संवर सकता है और आपका कुछ नहीं जाता और जाने क्या क्या. हम तो ऐसा प्रभावित हो गये कि वहीं रक्त दान शिविर में एक बोतल खून भी दान दे आये.
अगले दिन पता चला कि उनका वही चित्र इसमें भी फिर सर्वश्रेष्ठ चुना गया. हम तो दंग रह गये या ज्यादा साहित्यिक हो कहें तो सन्न रह गये. मगर ऐसा ही तो कविता में भी होता है कि भले ही कम शब्द हों मगर संदेश सालिड हो और कहा ओजपूर्वक तरीके से गया हो. भले ही हर मंच से वही पढ़ रहे हों बार बार. साथ ही फिर आपका नाम भी काम करता है.
इसके बाद तो एक के एक बाद उसी चित्र पर अलग अलग आख्यान दे उन्हें सर्वश्रेष्ठ घोषित होते मैने न जाने कितनी प्रदर्शनियों में देखा. एक बार किसी भारतीय शादी की साईट द्वारा स्पान्सर्ड ’सुहाग’ टॉपिक पर. आख्यान था कि यह लाल बिन्दी सुहाग की निशानी है. यह सुहागन का गहना है.
फिर जापान के सांस्कृतिक कार्यक्रम में- इसे जापान के झंडे के रुप में प्रदर्शित किया गया और फिर संस्कृति की रक्षा के लिये सर्वश्रेष्ठ चुना गया.
फिर ’यातायात जागरुकता अभियान’ में, वही लाल बिन्दी लाल सिग्नल लाईट बन गई. सबसे जरुरी. न ध्यान दिया तो जान जा सकती है. आह्ह!!
हम तो सोच में ही पड़ गये. प्रसिद्ध व्यंग्यकार शरद जोशी याद आ गये जो कवियों से रश्क खाते हुये कहते थे कि हम रोज एक व्यंग्य लिखते हैं और सुनाते हैं और हर बार नया सुनाये, तब किसी तरह नाम चला पाते हैं और एक ख्याति प्राप्त कवि जीवन भर छः कविता लिख कर हमेशा मंच साधे रहता है. वही वही कविता हर बार.
मगर आज तो हमने कवि को भी रश्क खाते देखा. एक चित्रकार सारा जीवन एक चित्र के सहारे काट दे..हद है भाई..और उस पर से हर बार सर्वश्रेष्ट. हाय! हम क्यूँ फंस गये छः कविता के चक्कर में सस्ता सौदा समझ कर.
आगे से ध्यान रखूँगा. ऐसा चित्र बनाऊँगा जो हर जगह फिट हो जाये फिर छः कविता लिखने की झंझट भी छूटे. कौन पड़े चक्कर में.
चलते-चलते:
आधा दर्जन गीत लिख, यूँ जीते मंच मचान
सारा जीवन काट गये, वो अपना सीना तान
अपना सीना तान कि नाम कवियों में होता
बार बार सुन करके भी, श्रोता ताली है धोता
कहे समीर कविराय, इससे भी सस्ता पाओ
एक ही चित्र बनाओ,जीवन भर नाम कमाओ.
--समीर लाल ’समीर’
निवेदन: कोई भी कलाकार इसे अन्यथा लेकर आहत न हो. यह मात्र मौज मजे के लिये है. हर कला का सम्मान हो, यही मेरी मान्यता है.
शुक्रवार, सितंबर 14, 2007
तन्हा रात
नोट: यह पोस्ट जनवरी, २००७ की पुरानी पोस्ट है जो कि गल्ती से सुधार कार्य के चक्कर में फिर से पोस्ट हो गई है और पुरानी दिनाँक में पोस्ट कर पाना संभव नहीं हो पा रहा है. अतः आप सबको हुई असुविधा के लिये क्षमापार्थी हूँ.
अब कल फुरसतिया जी हमारे द्वार संदेश " एक आग का दरिया है और डूब के जाना है" पर हमें ऐसा लपेटे कि हमारी तो हवा ही खिसक गई. मगर, हम भी कम चिरकुट चक्रम नहीं हैं, जवाब में जरुर लिखेंगे, जो कुछ भी पूछा गया है. अपनी बात को और पुख्ता करने के लिये एक गीत का मल्लमा और चढ़ा देता हूँ फिर इक्कठे ही फोड़ेंगे. :)
तो सुनिये, हमारी नयी रचना, जो जी में आये, कहिये और जो जी में आये वो सोचिये, हम तो लिख गये. आगे खुलासा किया जायेगा, फुरसतिया जी के लेख को देख कर और आपकी टिप्पणियों के मद्दे नजर इस पोस्ट पर:
तन्हा रात
सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
महफिल आती रहीं सजाने, हर लम्हे बस तेरी याद
क्या बतलायें किससे किससे, हमने बाँटी सारी रात.
लिखी दास्ताने हिजरां भी जब, तुझको ही था याद किया
हर्फ़ हर्फ़ को लफ्ज़ बनाती , हमसे यूँ लिखवाती रात.
राहें वही चुनी है मैने, जिस पर हम तुम साथ रहें,
क्यूँ कर मुझको भटकाने को, आई यह भरमाती रात.
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान जमानें में,
किस किस के संग कैसे कैसे, खेल यहाँ खिलवाती रात.
-समीर लाल 'समीर'
अब कल फुरसतिया जी हमारे द्वार संदेश " एक आग का दरिया है और डूब के जाना है" पर हमें ऐसा लपेटे कि हमारी तो हवा ही खिसक गई. मगर, हम भी कम चिरकुट चक्रम नहीं हैं, जवाब में जरुर लिखेंगे, जो कुछ भी पूछा गया है. अपनी बात को और पुख्ता करने के लिये एक गीत का मल्लमा और चढ़ा देता हूँ फिर इक्कठे ही फोड़ेंगे. :)
तो सुनिये, हमारी नयी रचना, जो जी में आये, कहिये और जो जी में आये वो सोचिये, हम तो लिख गये. आगे खुलासा किया जायेगा, फुरसतिया जी के लेख को देख कर और आपकी टिप्पणियों के मद्दे नजर इस पोस्ट पर:
तन्हा रात
सिसक सिसक कर तन्हा तन्हा, कैसे काटी काली रात
टपक टपक कर आँसू गिरते, थी कैसी बरसाती रात.
महफिल आती रहीं सजाने, हर लम्हे बस तेरी याद
क्या बतलायें किससे किससे, हमने बाँटी सारी रात.
लिखी दास्ताने हिजरां भी जब, तुझको ही था याद किया
हर्फ़ हर्फ़ को लफ्ज़ बनाती , हमसे यूँ लिखवाती रात.
राहें वही चुनी है मैने, जिस पर हम तुम साथ रहें,
क्यूँ कर मुझको भटकाने को, आई यह भरमाती रात.
हुआ 'समीर' आज फिर तनहा, इस अनजान जमानें में,
किस किस के संग कैसे कैसे, खेल यहाँ खिलवाती रात.
-समीर लाल 'समीर'
बुधवार, सितंबर 12, 2007
हिन्दी हैं हम वतन है, हिन्दुस्तां हमारा...
मौका है भारत से सात समंदर पार कनाडा में हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार के लिये आयोजित समारोह का. अब समारोह है तो मंच भी है. माईक भी लगा है.टीवी के लिये विडियो भी खींचा जा रहा है. मंच पर संचालक, अध्यक्ष, मुख्य अतिथि विराजमान है और साथ ही अन्य समारोहों की तरह दो अन्य प्रभावशाली व्यक्ति भी सुसज्जित हैं. माँ शारदा की तस्वीर मंच पर कोने में लगा दी गई है और सामने दीपक प्रज्ज्वलित होने की बाट जोह रहा है.
कार्यक्रम पूर्वनियोजित समय से एक घंटा विलम्ब से प्रारंभ हो चुका है. संचालक महोदय सब आने वालों का जुबानी और मंचासीन लोगों का पुष्पाहार से स्वागत कर चुके हैं. अब वह मुख्य अतिथि महोदय से दीप प्रज्ज्वलित कर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार कार्यक्रम की विधिवत शुरुवात का निवेदन कर रहे हैं.
मुख्य अतिथि ने अपनी टाई बचाते हुए दीपक प्रज्ज्वलित कर दिया है. हिन्दी द्वैदीप्तिमान होने लगी है. उसका प्रकाश फैलने लगा है. मुख्य अतिथि वापस अपना स्थान ग्रहण कर चुके हैं. अध्यक्ष महोदय अपना उदबोधन कर रहे हैं. हिन्दी के प्रचार और प्रसार कार्यक्रम के अध्यक्ष बनाये जाने के लिये आभार व्यक्त करते हुए आयोजकों का नाम ले लेकर गिर गिर से पड़ रहे हैं.
वहीं मंच पर विराजित सूट पहने मुख्य अतिथि, जो कि भारत में मंत्रालय के हिन्दी विभाग में उच्चासीन पदाधिकारी हैं और यहाँ किसी अन्य कार्य से भारत से पधारे हैं एवं उन दो मंचासीन प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक के संयोजन से मंच पर महिमा मंडित हो रहे हैं, अपने चेहरे से पसीना पोंछ रहे हैं.
उनको पसीना आने के दो मुख्य कारण समझ में आ रहे हैं. पहला, गर्मी के मौसम में वो उनी सूट पहने हैं और दूसरा, मंच से बोलने का भय. दोनों ही कारण स्वभाविक हैं.
भारत से आने वाले अधिकारियों द्वारा यहाँ के किसी भी मौसम में गरम सूट पहनना तो एकदम सहज और सर्व दृष्टिगत प्रक्रिया है, इससे मुझे कोई आश्चर्य भी नहीं होता. और दूसरा मंच से बोलने का भय, वह भी मौकों और अभ्यास के अभाव में सामान्य ही है. वहाँ भारत में भी दफ्तर में यह न सिर्फ बिना बोले ही काम चला लेते हैं बल्कि बिना लिखे भी. मात्र दस्तखत करने में महारत हासिल है और उसका इस मंच से कोई कार्य नहीं, तो पसीना आना स्वभाविक ही कहलाया.
उनकी हालत देखकर कार्यक्रम के प्रथम स्तरीय संयोजक, जो कि संचालक की हैसियत से मंचासीन हैं, मंच के आसपास घूमते द्वितीय स्तरीय संयोजक को इशारा करते हैं और वो द्वितीय स्तरीय संयोजक उपस्थित श्रोताओं के पीछे घूमते तृतीय स्तरीय संयोजक को इशारा करता है जो कि भाग कर कनैडियन एयरफ्लो पंखे का इन्तजाम कर मंच के बाजू में लगा देता है.
पंखे से चलती अंग्रेजी हवा से, जहाँ एक ओर मुख्य अतिथि महोदय राहत की सांस ले रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ हिन्दी को प्रचारित, प्रसारित और प्रकाशित करती दीपक की लौ लड़खड़ाते हुए अपने अस्तित्व को बचाने का भरसक प्रयास कर रही है. आखिरकार उसकी हिम्मत जबाब दे गई.
हिन्दी का प्रचार और प्रसार थम गया. दीपक में अंधेरा छा गया. संचालक महोदय दीपक की तरफ भागे. अध्यक्ष का भाषण एकाएक रुक गया. पंखा बंद कर उस अंग्रजी हवा को रोक दिया गया. माचिस से जला कर दीपक पुनः प्रज्ज्वलित हुआ. हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार पुनः प्रारंभ हुआ. हिन्दी प्रकाशित हुई.
हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार को बाधित करने का जिम्मेदार वह तृतीय स्तरीय संयोजक द्वितीय स्तरीय संयोजक से डांट खाकर किनारे खड़े खिसियानी हंसी हंस रहा है.
कार्यक्रम सुचारु रुप से चलता जा रहा है. सभी भाषण हो रहे हैं. कुछ कवितायें भी पढ़ी जा रहीं हैं और अंत में मुख्य अतिथि द्वारा हिन्दी के प्रचार प्रसार में विशिष्ठ योगदान देने वाले पाँच लोगों को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जा रहा है, जिस पर लिखा है:
इन रिक्गनिशन ऑफ योर कॉन्ट्रिब्यूशन टूवर्डस हिन्दी………..
( In Recognisition of your contribution towards Hindi.)..
इसके आगे मुझसे पढ़ा नहीं जा पा रहा है. मैंने हिन्दी का ऐसा प्रचार और प्रसार पहले कभी नहीं देखा शायद इसलिये.
कार्यक्रम समाप्त हो गया है. माँ शारदा की तस्वीर को झोले में लपेट कर रख दिया गया है. दीपक बुझा कर रख दिया गया है. अब अगले साल फिर यह दीप प्रज्जवलित हो हिन्दी का प्रचार, प्रसार करेगा और हिन्दी को प्रकाशित करेगा.
तब तक के लिये जय हिन्दी.
आप सबको १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस की औपचारिक एवं सरकारी शुभकामनायें.
कार्यक्रम पूर्वनियोजित समय से एक घंटा विलम्ब से प्रारंभ हो चुका है. संचालक महोदय सब आने वालों का जुबानी और मंचासीन लोगों का पुष्पाहार से स्वागत कर चुके हैं. अब वह मुख्य अतिथि महोदय से दीप प्रज्ज्वलित कर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार कार्यक्रम की विधिवत शुरुवात का निवेदन कर रहे हैं.
मुख्य अतिथि ने अपनी टाई बचाते हुए दीपक प्रज्ज्वलित कर दिया है. हिन्दी द्वैदीप्तिमान होने लगी है. उसका प्रकाश फैलने लगा है. मुख्य अतिथि वापस अपना स्थान ग्रहण कर चुके हैं. अध्यक्ष महोदय अपना उदबोधन कर रहे हैं. हिन्दी के प्रचार और प्रसार कार्यक्रम के अध्यक्ष बनाये जाने के लिये आभार व्यक्त करते हुए आयोजकों का नाम ले लेकर गिर गिर से पड़ रहे हैं.
वहीं मंच पर विराजित सूट पहने मुख्य अतिथि, जो कि भारत में मंत्रालय के हिन्दी विभाग में उच्चासीन पदाधिकारी हैं और यहाँ किसी अन्य कार्य से भारत से पधारे हैं एवं उन दो मंचासीन प्रभावशाली व्यक्तियों में से एक के संयोजन से मंच पर महिमा मंडित हो रहे हैं, अपने चेहरे से पसीना पोंछ रहे हैं.
उनको पसीना आने के दो मुख्य कारण समझ में आ रहे हैं. पहला, गर्मी के मौसम में वो उनी सूट पहने हैं और दूसरा, मंच से बोलने का भय. दोनों ही कारण स्वभाविक हैं.
भारत से आने वाले अधिकारियों द्वारा यहाँ के किसी भी मौसम में गरम सूट पहनना तो एकदम सहज और सर्व दृष्टिगत प्रक्रिया है, इससे मुझे कोई आश्चर्य भी नहीं होता. और दूसरा मंच से बोलने का भय, वह भी मौकों और अभ्यास के अभाव में सामान्य ही है. वहाँ भारत में भी दफ्तर में यह न सिर्फ बिना बोले ही काम चला लेते हैं बल्कि बिना लिखे भी. मात्र दस्तखत करने में महारत हासिल है और उसका इस मंच से कोई कार्य नहीं, तो पसीना आना स्वभाविक ही कहलाया.
उनकी हालत देखकर कार्यक्रम के प्रथम स्तरीय संयोजक, जो कि संचालक की हैसियत से मंचासीन हैं, मंच के आसपास घूमते द्वितीय स्तरीय संयोजक को इशारा करते हैं और वो द्वितीय स्तरीय संयोजक उपस्थित श्रोताओं के पीछे घूमते तृतीय स्तरीय संयोजक को इशारा करता है जो कि भाग कर कनैडियन एयरफ्लो पंखे का इन्तजाम कर मंच के बाजू में लगा देता है.
पंखे से चलती अंग्रेजी हवा से, जहाँ एक ओर मुख्य अतिथि महोदय राहत की सांस ले रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ हिन्दी को प्रचारित, प्रसारित और प्रकाशित करती दीपक की लौ लड़खड़ाते हुए अपने अस्तित्व को बचाने का भरसक प्रयास कर रही है. आखिरकार उसकी हिम्मत जबाब दे गई.
हिन्दी का प्रचार और प्रसार थम गया. दीपक में अंधेरा छा गया. संचालक महोदय दीपक की तरफ भागे. अध्यक्ष का भाषण एकाएक रुक गया. पंखा बंद कर उस अंग्रजी हवा को रोक दिया गया. माचिस से जला कर दीपक पुनः प्रज्ज्वलित हुआ. हिन्दी का प्रचार एवं प्रसार पुनः प्रारंभ हुआ. हिन्दी प्रकाशित हुई.
हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार को बाधित करने का जिम्मेदार वह तृतीय स्तरीय संयोजक द्वितीय स्तरीय संयोजक से डांट खाकर किनारे खड़े खिसियानी हंसी हंस रहा है.
कार्यक्रम सुचारु रुप से चलता जा रहा है. सभी भाषण हो रहे हैं. कुछ कवितायें भी पढ़ी जा रहीं हैं और अंत में मुख्य अतिथि द्वारा हिन्दी के प्रचार प्रसार में विशिष्ठ योगदान देने वाले पाँच लोगों को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया जा रहा है, जिस पर लिखा है:
इन रिक्गनिशन ऑफ योर कॉन्ट्रिब्यूशन टूवर्डस हिन्दी………..
( In Recognisition of your contribution towards Hindi.)..
इसके आगे मुझसे पढ़ा नहीं जा पा रहा है. मैंने हिन्दी का ऐसा प्रचार और प्रसार पहले कभी नहीं देखा शायद इसलिये.
कार्यक्रम समाप्त हो गया है. माँ शारदा की तस्वीर को झोले में लपेट कर रख दिया गया है. दीपक बुझा कर रख दिया गया है. अब अगले साल फिर यह दीप प्रज्जवलित हो हिन्दी का प्रचार, प्रसार करेगा और हिन्दी को प्रकाशित करेगा.
तब तक के लिये जय हिन्दी.
आप सबको १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस की औपचारिक एवं सरकारी शुभकामनायें.
सोमवार, सितंबर 10, 2007
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
आज ऐसे ही ऑर्कुट पर टहल रहा था. एकाएक कुछ स्क्रेप्स पर नजर चली गई. कुछ कवितायें टंगी थीं. बचपन की याद दिला गई.
बस सीडी में यह नज़्म लगाई और याद करने लगा:
"ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी."
गर्मी की छुट्टियाँ. तपती दुपहरी. घर की खिड़कीयों पर बंधी वो खस की टट्टियाँ. उस पर बार बार सिंचाई और उसके सामने रख कर चलता सिन्नी का काला वाला टेबल फैन. कितनी ठंडा हो जाता था कमरा. मगर बच्चों को कहाँ चैन. इधर माँ दुपहरी का काम निपटा कर कमर सीधी करने जहाँ आँख झपकाये, उधर सारे बच्चे घर के बाहर धूप में लगे खेलने. तब टीवी वगैरह तो होता नहीं था कि कार्टून देखने बैठ जाते.
याद आते हैं, कितनी तरह के खेल खेला करते थे.
कंचे, तरह तरह के रंग बिरंगे. आधे खरीदे और उससे ज्यादा जीते हुए. रोज रात में गिन कर रख कर सोते और सुबह उठकर फिर गिनते. साथ में होते कई सारे सुन्दर सुन्दर बंटे, जिनसे निशाना लगाते थे.
भौरां याने लट्टू-इसमें तो हमारी मास्टरी थी. बढ़ियां नुकीली आर वाला लट्टू बिना जमीन में छुलायें सीधे हाथ पर नचाते हुए गुद्दा खेला करते थे. न जाने कितनों की कितने लट्टू गुद्दा मार मार कर फोड़ने का विश्व रिकार्ड हमारे नाम जाता अगर इस खेल को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली होती.
सतौलिया, सात पत्थर के चिप्स एक के उपर एक जमा कर उसे गेंद से फोड़ना और फिर भाग कर उन्हें जमाना जब तक दूसरी टीम के लोग आपको गेंद से मारने की कोशिश करते रह्ते थे. जैसे ही जम जाये-जोर से चिल्लाना-सतौलिया. हम्म!!
मार गेंद-इसमें एक दूसरे को गेंद से मारा जाता था. रबर की लाल गेंद. कई बार तो ऐसी चिपकती थी कि निशान ही बन जाये.
मेरे काफी बाद उम्र तक प्रिय रहा-टीप रेस याने छुप्पन छुपाई. क्यूँ प्रिय रहा यह नहीं बतायेंगे. पूरे मोहल्ले के लड़के लड़कियाँ खेला करते थे एक साथ.
गुल्ली डंडा-इस खेल में तो सारे दोस्त डरा करते थे हमसे. इसलिये नहीं कि मैं बहुत अच्छा खेलता था. मगर जितना भी सामने वाले को दाम देना पड़ जाये, जिसमें जो दाम देता है वो आपको कंधे पर लाद कर चलता है उतनी दूर जितनी दूर आपने गुल्ली मारी है, उसकी तो दम ही बैठ जाती थी. हमारा यह विस्तार आज का भर थोड़े ही है. हम हमारी उम्र के हिसाब से हमेशा ही मोटे थे और दुबले होने का आजीवन प्रयास इस बात का साक्षी है. जब से होश संभाला, हमारे मोटापे और दुबले होने के प्रयास, दोनों ने बराबरी से आजतक हमारा साथ निभाया है. जैसे कि अपने नेताओं का साथ मक्कारी और भ्रष्टाचार निभाते हैं.
और भी ढ़ेरों खेल होते थे जैसे गुलेल, खुद बनाते थे अमरुद के पेड़ (जबलपुर में हम उसे बीही का झाड़ कहते थे) से केटी काट कर और ट्रक की पुरानी गास्केट से ट्यूब निकालकर. निशाना ऐसा कि जिस काँच पर नाराज बस हो जायें.
फिर विष अमृत, नदी पहाड़ बाकि तो नाम भी याददाश्त से जाते रहे. याद है क्या वो जिसमे लंगड़ी कुद कर सात खाने कुदने होते थे चिप फेकने के बाद उसे लंगड़ी मे पार कराना होता था, मुझे तो नाम ही नहीं याद आ रहा. शायद एक्कड़ दुक्कड़ या अड़ई गुड़ई या जाने क्या..
क्रिक्रेट, फुटबाल, हॉकी, पतंगबाजी आदि तो आजकल भी बच्चे खेलते दिख जाते हैं मगर वो मेरे खेल कहाँ गये??
मेरे बीते बचपन के साथ ही वो भी दफन हो जायेंगे, अगर यह तभी पता चल जाता तो थोड़ा और खेल लेता. कुछ और गुद्दे मार लेता और कंचे तो आराम से और जीत ही ले आता.
अब पछताने से क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत. मगर इन कविताओं को तो अब भी सहेज सकते हैं. इसीलिये यहाँ पर दर्ज कर देता हूँ कि भले ही रोज नहीं, पर कभी कभी तो मेरे जमाने का कोई इससे अपना बचपन फिर से जी कर देख सके. आज के बच्चों का बचपन तो शायद इन कविताओं से विहीन होगा मगर हमारे समय के सभी हिन्दी भाषी बच्चों ने कभी न कभी इन कविताओं का पढ़कर या सुनकर लुत्फ जरुर उठाया होगा.
पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,
जेल की रोटी खानी पडेगी,
जेल का पानी पीना पडेगा।
थै थैयाप्पा थुशमदारी बाबा खुश।
************
आलू-कचालू बेटा कहाँ गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।
**************
मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।
************
आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।
************
झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
तुमको उठा ले जायेगी।
************
चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये भूर के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली में।
************
तितली उड़ी,
बस मे चढी।
सीट ना मिली,
तो रोने लगी।
ड्राईवर बोला, आजा मेरे पास,
तितली बोली " हट बदमाश "।
************
कविता साभार: आर्कुट-विचरण
चित्र साभार: डिस्कवर इंडिया-स्ट्रीट गेम्स
बस सीडी में यह नज़्म लगाई और याद करने लगा:
"ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी."
गर्मी की छुट्टियाँ. तपती दुपहरी. घर की खिड़कीयों पर बंधी वो खस की टट्टियाँ. उस पर बार बार सिंचाई और उसके सामने रख कर चलता सिन्नी का काला वाला टेबल फैन. कितनी ठंडा हो जाता था कमरा. मगर बच्चों को कहाँ चैन. इधर माँ दुपहरी का काम निपटा कर कमर सीधी करने जहाँ आँख झपकाये, उधर सारे बच्चे घर के बाहर धूप में लगे खेलने. तब टीवी वगैरह तो होता नहीं था कि कार्टून देखने बैठ जाते.
याद आते हैं, कितनी तरह के खेल खेला करते थे.
कंचे, तरह तरह के रंग बिरंगे. आधे खरीदे और उससे ज्यादा जीते हुए. रोज रात में गिन कर रख कर सोते और सुबह उठकर फिर गिनते. साथ में होते कई सारे सुन्दर सुन्दर बंटे, जिनसे निशाना लगाते थे.
भौरां याने लट्टू-इसमें तो हमारी मास्टरी थी. बढ़ियां नुकीली आर वाला लट्टू बिना जमीन में छुलायें सीधे हाथ पर नचाते हुए गुद्दा खेला करते थे. न जाने कितनों की कितने लट्टू गुद्दा मार मार कर फोड़ने का विश्व रिकार्ड हमारे नाम जाता अगर इस खेल को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली होती.
सतौलिया, सात पत्थर के चिप्स एक के उपर एक जमा कर उसे गेंद से फोड़ना और फिर भाग कर उन्हें जमाना जब तक दूसरी टीम के लोग आपको गेंद से मारने की कोशिश करते रह्ते थे. जैसे ही जम जाये-जोर से चिल्लाना-सतौलिया. हम्म!!
मार गेंद-इसमें एक दूसरे को गेंद से मारा जाता था. रबर की लाल गेंद. कई बार तो ऐसी चिपकती थी कि निशान ही बन जाये.
मेरे काफी बाद उम्र तक प्रिय रहा-टीप रेस याने छुप्पन छुपाई. क्यूँ प्रिय रहा यह नहीं बतायेंगे. पूरे मोहल्ले के लड़के लड़कियाँ खेला करते थे एक साथ.
गुल्ली डंडा-इस खेल में तो सारे दोस्त डरा करते थे हमसे. इसलिये नहीं कि मैं बहुत अच्छा खेलता था. मगर जितना भी सामने वाले को दाम देना पड़ जाये, जिसमें जो दाम देता है वो आपको कंधे पर लाद कर चलता है उतनी दूर जितनी दूर आपने गुल्ली मारी है, उसकी तो दम ही बैठ जाती थी. हमारा यह विस्तार आज का भर थोड़े ही है. हम हमारी उम्र के हिसाब से हमेशा ही मोटे थे और दुबले होने का आजीवन प्रयास इस बात का साक्षी है. जब से होश संभाला, हमारे मोटापे और दुबले होने के प्रयास, दोनों ने बराबरी से आजतक हमारा साथ निभाया है. जैसे कि अपने नेताओं का साथ मक्कारी और भ्रष्टाचार निभाते हैं.
और भी ढ़ेरों खेल होते थे जैसे गुलेल, खुद बनाते थे अमरुद के पेड़ (जबलपुर में हम उसे बीही का झाड़ कहते थे) से केटी काट कर और ट्रक की पुरानी गास्केट से ट्यूब निकालकर. निशाना ऐसा कि जिस काँच पर नाराज बस हो जायें.
फिर विष अमृत, नदी पहाड़ बाकि तो नाम भी याददाश्त से जाते रहे. याद है क्या वो जिसमे लंगड़ी कुद कर सात खाने कुदने होते थे चिप फेकने के बाद उसे लंगड़ी मे पार कराना होता था, मुझे तो नाम ही नहीं याद आ रहा. शायद एक्कड़ दुक्कड़ या अड़ई गुड़ई या जाने क्या..
क्रिक्रेट, फुटबाल, हॉकी, पतंगबाजी आदि तो आजकल भी बच्चे खेलते दिख जाते हैं मगर वो मेरे खेल कहाँ गये??
मेरे बीते बचपन के साथ ही वो भी दफन हो जायेंगे, अगर यह तभी पता चल जाता तो थोड़ा और खेल लेता. कुछ और गुद्दे मार लेता और कंचे तो आराम से और जीत ही ले आता.
अब पछताने से क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत. मगर इन कविताओं को तो अब भी सहेज सकते हैं. इसीलिये यहाँ पर दर्ज कर देता हूँ कि भले ही रोज नहीं, पर कभी कभी तो मेरे जमाने का कोई इससे अपना बचपन फिर से जी कर देख सके. आज के बच्चों का बचपन तो शायद इन कविताओं से विहीन होगा मगर हमारे समय के सभी हिन्दी भाषी बच्चों ने कभी न कभी इन कविताओं का पढ़कर या सुनकर लुत्फ जरुर उठाया होगा.
पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,
जेल की रोटी खानी पडेगी,
जेल का पानी पीना पडेगा।
थै थैयाप्पा थुशमदारी बाबा खुश।
************
आलू-कचालू बेटा कहाँ गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।
**************
मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।
************
आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।
************
झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
तुमको उठा ले जायेगी।
************
चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये भूर के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली में।
************
तितली उड़ी,
बस मे चढी।
सीट ना मिली,
तो रोने लगी।
ड्राईवर बोला, आजा मेरे पास,
तितली बोली " हट बदमाश "।
************
कविता साभार: आर्कुट-विचरण
चित्र साभार: डिस्कवर इंडिया-स्ट्रीट गेम्स
बुधवार, सितंबर 05, 2007
जाओ तो जरा स्टाईल से...
जरा हट के का भाग-२ ही समझो इसे.....
आज एक चिट्ठी आई. उसे देखकर बहुत पहले सुना चुटकुला याद आया.
एक सेठ जी मर गये. उनके तीनों बेटे उनकी अन्तिम यात्रा पर विचार करने लगे. एक ने कहा ट्रक बुलवा लेते हैं. दूसरे ने कहा मंहगा पडेगा. ठेला बुलवा लें. तीसरा बोला वो भी क्यूँ खर्च करना. कंधे पर पूरा रास्ता करा देते हैं. थोड़ा समय ही तो ज्यादा लगेगा. इतना सुनकर सेठ जी ने आँख खोली और कहा कि मेरी चप्प्ल ला दो, मैं खुद ही चला जाता हूँ.
चिट्ठी ही कुछ ऐसी थी. एक बीमा कम्पनी की. लिखा था कि अपने अंतिम संस्कार का बीमा करा लें. पहले बताया गया कि यहाँ अंतिम संस्कार में कम से कम ५००० से ६००० डालर का खर्च आता है और अक्सर तो १०००० डालर भी अगर जरा भी स्टेन्डर्ड का किया. जरा विचारिये कि जब तक आप का नम्बर आयेगा तब तक मुद्रा स्फिति की दर को देखते हुए यह २५००० डालर तक भी हो सकता है.
आगे बताया गया कि आप अपनी मनपसन्द का ताबूत चुनिये, डिजाईनर. जिसमें आप को आराम से रखा जायेगा. कई डिजाईन साथ में भेजे ताबूत सप्लायर के ब्रोचर में थे. सागौन, चीड़ और हाथी दाँत की नक्काशी से लेकर प्लेन एंड सिंपल तक. उसके अन्दर भी तकिया, गुदगुदा गद्दा और न जाने क्या क्या. उदाहरण के लिये यह देखिये अन्दर और बाहर की तस्वीर.
और:
फिर आपके साईज का सूट, जूते आदि जो आपको पहनाये जायेंगे पूरी बामिंग और मेकअप के साथ. मेकअप स्पेशलिस्ट मेकअप करेगी, वाह!! यह तो हमारी शादी में तक नहीं हुआ. खुद ही तैयार हो गये थे. मगर उस समय तो खुद से तैयार हो नहीं पायेंगे तो मौका भी है और मौके की नजाकत भी.
फिर अगर आपको गड़ाया जाना है तो प्लाट, उसकी खुदाई, उसकी पुराई, रेस्ट इन पीस का बोर्ड आदि आदि. अगर जलाया जाना है तो फर्नेस बुकिंग और ताबूत समेत उसमें ढकेले जाने की लेबर. सारे खर्चे गिनवाये गये. साथ ही आपको ले जाने के लिये ब्लैक लिमोजिन. अभी तक तो बैठे नहीं हैं उतनी लम्बी वाली गाड़ी मे. चलो, उसी बहाने सैर हो जायेगी. वैसे बैठे तो ट्रक में भी कितने लोग होते हैं?
हिट तो ये कि आप हिन्दु हैं और राख वापस चाहिये तो हंडिया का सेम्पल भी है और उसे लकड़ी के डिब्बे में रखकर, जिस पर बड़ी नक्काशी के साथ आपका नाम खोदा जायेगा और आपके परिवार को सौंप दिया जायेगा.
और:
इतने पर भी कहाँ शांति-फूल कौन से चढ़वायेंगे अपने उपर, वो भी आप ही चुनें. गुलाब से लेकर गैंदा तक सब च्वाइस उपलब्द्ध है.
अब जैसी आपकी पसंद वैसा बीमा का भाव तय होगा.
तब से रोज फोन करते हैं कि क्या सोचा?
क्या समझाऊँ उन्हें कि भाई, यह सब आप धरो. हम तो भारत के रहने वाले हैं. समय से कोशिश करके लौट जायेंगे. यह सब हमको नहीं शोभा देता. अपच हो जायेगी.
हमारे यहाँ तो दो बांस पर लद कर जाने का फैशन है, अब कंधा दर्द करे कि टूटे. यह उठाने वाला जाने और उस पर खर्चा भी उसी का. अपनी अंटी से तो खुद के लिये कम से कम इस काम पर खर्च करना हमारे यहाँ बुरा मानते है.
भाई, अमरीका/कनाडा वालों, आप लोगों की हर बात की तरह यह भी बात-है तो जरा हट के.
आज एक चिट्ठी आई. उसे देखकर बहुत पहले सुना चुटकुला याद आया.
एक सेठ जी मर गये. उनके तीनों बेटे उनकी अन्तिम यात्रा पर विचार करने लगे. एक ने कहा ट्रक बुलवा लेते हैं. दूसरे ने कहा मंहगा पडेगा. ठेला बुलवा लें. तीसरा बोला वो भी क्यूँ खर्च करना. कंधे पर पूरा रास्ता करा देते हैं. थोड़ा समय ही तो ज्यादा लगेगा. इतना सुनकर सेठ जी ने आँख खोली और कहा कि मेरी चप्प्ल ला दो, मैं खुद ही चला जाता हूँ.
चिट्ठी ही कुछ ऐसी थी. एक बीमा कम्पनी की. लिखा था कि अपने अंतिम संस्कार का बीमा करा लें. पहले बताया गया कि यहाँ अंतिम संस्कार में कम से कम ५००० से ६००० डालर का खर्च आता है और अक्सर तो १०००० डालर भी अगर जरा भी स्टेन्डर्ड का किया. जरा विचारिये कि जब तक आप का नम्बर आयेगा तब तक मुद्रा स्फिति की दर को देखते हुए यह २५००० डालर तक भी हो सकता है.
आगे बताया गया कि आप अपनी मनपसन्द का ताबूत चुनिये, डिजाईनर. जिसमें आप को आराम से रखा जायेगा. कई डिजाईन साथ में भेजे ताबूत सप्लायर के ब्रोचर में थे. सागौन, चीड़ और हाथी दाँत की नक्काशी से लेकर प्लेन एंड सिंपल तक. उसके अन्दर भी तकिया, गुदगुदा गद्दा और न जाने क्या क्या. उदाहरण के लिये यह देखिये अन्दर और बाहर की तस्वीर.
और:
फिर आपके साईज का सूट, जूते आदि जो आपको पहनाये जायेंगे पूरी बामिंग और मेकअप के साथ. मेकअप स्पेशलिस्ट मेकअप करेगी, वाह!! यह तो हमारी शादी में तक नहीं हुआ. खुद ही तैयार हो गये थे. मगर उस समय तो खुद से तैयार हो नहीं पायेंगे तो मौका भी है और मौके की नजाकत भी.
फिर अगर आपको गड़ाया जाना है तो प्लाट, उसकी खुदाई, उसकी पुराई, रेस्ट इन पीस का बोर्ड आदि आदि. अगर जलाया जाना है तो फर्नेस बुकिंग और ताबूत समेत उसमें ढकेले जाने की लेबर. सारे खर्चे गिनवाये गये. साथ ही आपको ले जाने के लिये ब्लैक लिमोजिन. अभी तक तो बैठे नहीं हैं उतनी लम्बी वाली गाड़ी मे. चलो, उसी बहाने सैर हो जायेगी. वैसे बैठे तो ट्रक में भी कितने लोग होते हैं?
हिट तो ये कि आप हिन्दु हैं और राख वापस चाहिये तो हंडिया का सेम्पल भी है और उसे लकड़ी के डिब्बे में रखकर, जिस पर बड़ी नक्काशी के साथ आपका नाम खोदा जायेगा और आपके परिवार को सौंप दिया जायेगा.
और:
इतने पर भी कहाँ शांति-फूल कौन से चढ़वायेंगे अपने उपर, वो भी आप ही चुनें. गुलाब से लेकर गैंदा तक सब च्वाइस उपलब्द्ध है.
अब जैसी आपकी पसंद वैसा बीमा का भाव तय होगा.
तब से रोज फोन करते हैं कि क्या सोचा?
क्या समझाऊँ उन्हें कि भाई, यह सब आप धरो. हम तो भारत के रहने वाले हैं. समय से कोशिश करके लौट जायेंगे. यह सब हमको नहीं शोभा देता. अपच हो जायेगी.
हमारे यहाँ तो दो बांस पर लद कर जाने का फैशन है, अब कंधा दर्द करे कि टूटे. यह उठाने वाला जाने और उस पर खर्चा भी उसी का. अपनी अंटी से तो खुद के लिये कम से कम इस काम पर खर्च करना हमारे यहाँ बुरा मानते है.
भाई, अमरीका/कनाडा वालों, आप लोगों की हर बात की तरह यह भी बात-है तो जरा हट के.
रविवार, सितंबर 02, 2007
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं
सलाहकारों की भूमि-भारत भूमि. मैं गौरवान्वित महसूस करता हूँ कि मैने ऐसी भूमि पर जन्म लिया. यही पुण्य आदत मेरी भी है. आप मांगे न मांगे, मैं तो हाजिर हो जाता हूँ मुफ्त में सलाह लेकर.
याद आता है जब भारत में रहता था. कार पंचर हो जाये और हमारे सलाहकार मित्र हाजिर. तुमको फलानां टायर लगाना चाहिये और बात बढ़ते बढ़्ते सरकार तक पहुँच जाये कि सड़के बेहतरीन होना चाहिये जैसी अमरीका में होती हैं. अव्वल तो वो कभी अमरीका गये नहीं, उस पर से अगर आप पूछो कि कैसे बनेंगी तो बस इतना ही-हमें क्या करना इससे कि कैसे बनेंगी. सरकार का काम है वो जाने. आप खांसिये तो, छींकये तो, सलाह हाजिर.
आज हमारे मित्रों और शुभचिंतकों की तो कमी नहीं, तब जाहिर सी बात है कि सलाहें भी उसी अनुपात में आती होंगी. मुझे बहुत अच्छा लगता है कि कितना चाहते हैं सब मुझे. कितना ख्याल रखते हैं? कभी तो रात में घबरा कर उठ बैठता हूँ कि अगर मैं भारत का न होता तब तो सलाह के आभाव में क्या से क्या हो गया होता. फिर वंदे मातरम गाता हूँ तब जाकर नींद आ पाती है.
अभी पिछले दिनों नारद की फीड पर हमारी तस्वीर नहीं आती थी. जीतू भाई से बात हुई और उनके कहने पर हमने अपनी तस्वीर भेज दी. उन्होंने तस्वीर लौटती ईमेल से वापस कर दी और साथ मे सलाह कि भाई, आपकी तस्वीर 800 X 600 पिक्सल वाली है. यह नारद पर नहीं चलेगी. 50 x 50 पिक्सल की भेजिये. अब बताईये, हमारी फोटो तो 800 X 600 पिक्सल में भी अगर कोई शातिर फोटोग्राफर सही निशाना साध कर न खींचे तो कहो एकाध बाजू कट ही जाये. 50 x 50 पिक्सल में तो हमारे अंगूठे की फोटो ले लो.
खैर, मित्र की सलाह तो हम टालते नहीं. किसी तरह काट पीट कर सिर्फ चेहरे को छोटा छोटा करते करते 50 x 50 पिक्सल किया, तो करेला उस पर से नीम चढ़ा वाली कहावत एकदम से चरितार्थ होती नजर आई. एक तो भगवान की रचना वैसे ही माशा अल्ला और उस पर यह 50 x 50 पिक्सल की कलाकारी. हमने तो हाथ जोड़ दिये कि जीतू भईया, तस्वीर की जगह ऐसे ही ब्लैक स्पॉट मार दो, मगर हमसे फोटो भेजने को न कहो. तब जाकर वो थोड़ा पसीजे और 100 x 100 पिक्सल पर मान गये. फिर भी जो नतीजा आया वो तो आप हमारी हर फीड पर देख ही रहे हैं.
इसी सदमे से उबरने के लिये हम बैठे ’मासूम’ फिल्म का गाना गा रहे थे:
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं....
पूरी राग में आँखों में पानी लिये कि तब तक टिप्पणी के माध्यम से खबर मिली. अपनी ब्लॉग पर तस्वीर बदलिये भाई..यह कौन सी लगा रखी है बेकार सी.
अब उनको क्या बतलाऊँ कि १००/१२५ तस्वीरों में से ढ़ूँढ़ कर सबमे बेस्ट वाली लगाई थी. वो तो यहाँ भी साईज का लफड़ा फंस गया वरना बड़ी खूबसूरत तस्वीर है क्यूट सी. साईज क्या छोटी की कि मानो खूबसूरती ही पिट गई, जैसे ग्रहण लग गया हो. इसी से मेरा तो दुबले होने से मन ही हट गया है. कैसा तो लगता हूँ दुबला छोटा..हम तो यूँ ही ठीक है बकौल गालिब क्यूट से.
यह देखिये पूरी साईज-क्या खूबसूरत और हसीन, कोई भी वाह कर उठे!!!
और यह देखिये, फोटो शॉप में दुबला/छोटा करने पर हुई हालत- ह्म्म्म!!!
मगर अच्छा लगा. मित्र ने ध्यान दिया. यही तो स्नेह है. वरना किसी को क्या लेना देना? आप अपनी बंदर जैसी फोटो लगा लें. चाहने वाले मित्र न होंगे तो लगी ही रह जायेगी, एक सलाह न मिलेगी. लोगों ने लगा ही रखी है. मित्रों के आभाव में टंगी है. हमने सलाह मानते हुए तुरन्त फेर बदल किया. नई तस्वीर खोजी. काटा पीटा और लगा दिया.
यह देखिये, करेंट वाली:
फिर जो एकदम खास मित्र और रहनुमा ने सलाह दी कि इसे जरा ब्राईट कर लिजिये. हमने फोटोशॉप खोली और शुरु हो गये. पता चला कि ऑलरेडी ९९% ब्राईट है. १% की गुंजाईश है फिर फोटो दिखना बंद हो जा रही है. मगर फिर भी उनकी सलाह टाली नहीं जा सकती, इसलिये इस १% की गुंजाईश में भी जो भी बन पायेगा, रविवार तक कर ही दूँगा.
लेकिन यह हमारे दूसरे मित्र की सलाह क्या करुँ? उनका कहना है कलर्ड फोटो लगाईये न..क्या ब्लैक एंड व्हाईट लगाते हैं हर बार.
अब कैसे समझाऊँ तुम्हे हे मेरे सखा!!! यह कलर्ड ही है. बस कुर्ता सफेद पहने हैं बस. बाकि हमारा रंग तो हम कई बार अपने नख शिख वर्णन में आपको बता ही चुके हैं. अब और कैसा कलर.
होली के दिन खिंचवा कर टांग दूँ क्या?
ये होली टाईप की चलेगी क्या कलर्ड में??
हमारा तो दिमाग ही काम करना बंद कर दिया है. कोई सलाह हो तो बताईयेगा जरुर!!
हम तो बस गाना गायेंगे:
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं....
तेरे मासूम सवालों से... परेशान हूँ मैं...
परेशान हूँ मैं...
नोट: कृप्या कोई भी सलाहकार मित्र बुरा न माने. यह पोस्ट किसका उपहास करने हेतु नहीं वरन बस मौज मजे के लिये है. बस आप सलाह देना बंद मत करियेगा. हम तो मस्ती लेते ही रहते हैं, आप तो जानते हैं.
याद आता है जब भारत में रहता था. कार पंचर हो जाये और हमारे सलाहकार मित्र हाजिर. तुमको फलानां टायर लगाना चाहिये और बात बढ़ते बढ़्ते सरकार तक पहुँच जाये कि सड़के बेहतरीन होना चाहिये जैसी अमरीका में होती हैं. अव्वल तो वो कभी अमरीका गये नहीं, उस पर से अगर आप पूछो कि कैसे बनेंगी तो बस इतना ही-हमें क्या करना इससे कि कैसे बनेंगी. सरकार का काम है वो जाने. आप खांसिये तो, छींकये तो, सलाह हाजिर.
आज हमारे मित्रों और शुभचिंतकों की तो कमी नहीं, तब जाहिर सी बात है कि सलाहें भी उसी अनुपात में आती होंगी. मुझे बहुत अच्छा लगता है कि कितना चाहते हैं सब मुझे. कितना ख्याल रखते हैं? कभी तो रात में घबरा कर उठ बैठता हूँ कि अगर मैं भारत का न होता तब तो सलाह के आभाव में क्या से क्या हो गया होता. फिर वंदे मातरम गाता हूँ तब जाकर नींद आ पाती है.
अभी पिछले दिनों नारद की फीड पर हमारी तस्वीर नहीं आती थी. जीतू भाई से बात हुई और उनके कहने पर हमने अपनी तस्वीर भेज दी. उन्होंने तस्वीर लौटती ईमेल से वापस कर दी और साथ मे सलाह कि भाई, आपकी तस्वीर 800 X 600 पिक्सल वाली है. यह नारद पर नहीं चलेगी. 50 x 50 पिक्सल की भेजिये. अब बताईये, हमारी फोटो तो 800 X 600 पिक्सल में भी अगर कोई शातिर फोटोग्राफर सही निशाना साध कर न खींचे तो कहो एकाध बाजू कट ही जाये. 50 x 50 पिक्सल में तो हमारे अंगूठे की फोटो ले लो.
खैर, मित्र की सलाह तो हम टालते नहीं. किसी तरह काट पीट कर सिर्फ चेहरे को छोटा छोटा करते करते 50 x 50 पिक्सल किया, तो करेला उस पर से नीम चढ़ा वाली कहावत एकदम से चरितार्थ होती नजर आई. एक तो भगवान की रचना वैसे ही माशा अल्ला और उस पर यह 50 x 50 पिक्सल की कलाकारी. हमने तो हाथ जोड़ दिये कि जीतू भईया, तस्वीर की जगह ऐसे ही ब्लैक स्पॉट मार दो, मगर हमसे फोटो भेजने को न कहो. तब जाकर वो थोड़ा पसीजे और 100 x 100 पिक्सल पर मान गये. फिर भी जो नतीजा आया वो तो आप हमारी हर फीड पर देख ही रहे हैं.
इसी सदमे से उबरने के लिये हम बैठे ’मासूम’ फिल्म का गाना गा रहे थे:
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं....
पूरी राग में आँखों में पानी लिये कि तब तक टिप्पणी के माध्यम से खबर मिली. अपनी ब्लॉग पर तस्वीर बदलिये भाई..यह कौन सी लगा रखी है बेकार सी.
अब उनको क्या बतलाऊँ कि १००/१२५ तस्वीरों में से ढ़ूँढ़ कर सबमे बेस्ट वाली लगाई थी. वो तो यहाँ भी साईज का लफड़ा फंस गया वरना बड़ी खूबसूरत तस्वीर है क्यूट सी. साईज क्या छोटी की कि मानो खूबसूरती ही पिट गई, जैसे ग्रहण लग गया हो. इसी से मेरा तो दुबले होने से मन ही हट गया है. कैसा तो लगता हूँ दुबला छोटा..हम तो यूँ ही ठीक है बकौल गालिब क्यूट से.
यह देखिये पूरी साईज-क्या खूबसूरत और हसीन, कोई भी वाह कर उठे!!!
और यह देखिये, फोटो शॉप में दुबला/छोटा करने पर हुई हालत- ह्म्म्म!!!
मगर अच्छा लगा. मित्र ने ध्यान दिया. यही तो स्नेह है. वरना किसी को क्या लेना देना? आप अपनी बंदर जैसी फोटो लगा लें. चाहने वाले मित्र न होंगे तो लगी ही रह जायेगी, एक सलाह न मिलेगी. लोगों ने लगा ही रखी है. मित्रों के आभाव में टंगी है. हमने सलाह मानते हुए तुरन्त फेर बदल किया. नई तस्वीर खोजी. काटा पीटा और लगा दिया.
यह देखिये, करेंट वाली:
फिर जो एकदम खास मित्र और रहनुमा ने सलाह दी कि इसे जरा ब्राईट कर लिजिये. हमने फोटोशॉप खोली और शुरु हो गये. पता चला कि ऑलरेडी ९९% ब्राईट है. १% की गुंजाईश है फिर फोटो दिखना बंद हो जा रही है. मगर फिर भी उनकी सलाह टाली नहीं जा सकती, इसलिये इस १% की गुंजाईश में भी जो भी बन पायेगा, रविवार तक कर ही दूँगा.
लेकिन यह हमारे दूसरे मित्र की सलाह क्या करुँ? उनका कहना है कलर्ड फोटो लगाईये न..क्या ब्लैक एंड व्हाईट लगाते हैं हर बार.
अब कैसे समझाऊँ तुम्हे हे मेरे सखा!!! यह कलर्ड ही है. बस कुर्ता सफेद पहने हैं बस. बाकि हमारा रंग तो हम कई बार अपने नख शिख वर्णन में आपको बता ही चुके हैं. अब और कैसा कलर.
होली के दिन खिंचवा कर टांग दूँ क्या?
ये होली टाईप की चलेगी क्या कलर्ड में??
हमारा तो दिमाग ही काम करना बंद कर दिया है. कोई सलाह हो तो बताईयेगा जरुर!!
हम तो बस गाना गायेंगे:
तुझसे नाराज नहीं...जिन्दगी हैरान हूँ मैं....
तेरे मासूम सवालों से... परेशान हूँ मैं...
परेशान हूँ मैं...
नोट: कृप्या कोई भी सलाहकार मित्र बुरा न माने. यह पोस्ट किसका उपहास करने हेतु नहीं वरन बस मौज मजे के लिये है. बस आप सलाह देना बंद मत करियेगा. हम तो मस्ती लेते ही रहते हैं, आप तो जानते हैं.
शुक्रवार, अगस्त 31, 2007
जरा हट के: भाग-१
जरा हट के में सोचता हूँ ऐसी कुछ बातें लिखूँ जो हमारी स्थापित सोच, संस्कृति और समाज से जरा परे हटकर हों.
आज देखिये न!! पड़ोस में दो घर छोड़ कर नये लोग आये हैं. अभी सामान का आना लगा ही है. आदतानुसार पहुँच लिये हम हाय हैलो करते. बातचीत के दौरान पता चला भरा पुरा परिवार है.
घर में एक महिला, एक पुरुष और पाँच बच्चे हैं ७ वर्ष से लेकर १८ बरस तक के. इनमें से तीन महिला के बच्चे हैं और २ पुरुष के. तीन महिला के बच्चों में दो उसके पहले पति से हैं और एक दूसरे पति से. अब तीसरे यह साहब हैं जिनकी दूसरी पत्नी से इन्हें दो बच्चे हैं. पहली वाली से भी एक लड़की थी, जो अब अपने बॉय फ्रेंड के साथ रहने लग गई है. बड़ी हो गई है-पूरे २० साल की. यह साहब बहुत खुश हैं कि अगले साल जून में वह इस महिला के साथ शादी करने वाले हैं. रह तो अभी भी वैसे ही एक साथ हैं. मगर तब पति पत्नी हो जायेंगे. फिर इनके भी बच्चे होंगे.
कुछ हैं मेरे और कुछ हैं ये तुम्हारे
आएंगे जो कल को वो होंगे हमारे.
है तो खुशी की बात मगर हमारे लिये जरा हट के.
नोट: अगर आपके पास भी ऐसे किस्से हों तो आप मुझे ईमेल करें. मुझे अगर उचित लगा तो आपके साभार से उसे इस श्रृंखला में छापने का प्रयास करुँगा.
आज देखिये न!! पड़ोस में दो घर छोड़ कर नये लोग आये हैं. अभी सामान का आना लगा ही है. आदतानुसार पहुँच लिये हम हाय हैलो करते. बातचीत के दौरान पता चला भरा पुरा परिवार है.
घर में एक महिला, एक पुरुष और पाँच बच्चे हैं ७ वर्ष से लेकर १८ बरस तक के. इनमें से तीन महिला के बच्चे हैं और २ पुरुष के. तीन महिला के बच्चों में दो उसके पहले पति से हैं और एक दूसरे पति से. अब तीसरे यह साहब हैं जिनकी दूसरी पत्नी से इन्हें दो बच्चे हैं. पहली वाली से भी एक लड़की थी, जो अब अपने बॉय फ्रेंड के साथ रहने लग गई है. बड़ी हो गई है-पूरे २० साल की. यह साहब बहुत खुश हैं कि अगले साल जून में वह इस महिला के साथ शादी करने वाले हैं. रह तो अभी भी वैसे ही एक साथ हैं. मगर तब पति पत्नी हो जायेंगे. फिर इनके भी बच्चे होंगे.
कुछ हैं मेरे और कुछ हैं ये तुम्हारे
आएंगे जो कल को वो होंगे हमारे.
है तो खुशी की बात मगर हमारे लिये जरा हट के.
नोट: अगर आपके पास भी ऐसे किस्से हों तो आप मुझे ईमेल करें. मुझे अगर उचित लगा तो आपके साभार से उसे इस श्रृंखला में छापने का प्रयास करुँगा.
मंगलवार, अगस्त 28, 2007
और भईया जी नहीं रहे…
जब हमारे व्यंग्यकार मित्र ने कुछ समय पूर्व अपने जीते जी अपनी मरणोपरांत खोले जाने वाली वसीयत सार्वजनिक कर दी, तो हम भी जरा संभल गये. उनका इस दुनिया से रुखसती का विचार कर ही जाने मन कैसा कैसा हो गया. ठीक वैसा ही जैसा कि कभी कभी बहुत दुखी हो जाने पर होता है. पता नहीं क्यूँ ऐसी फीलिंग आई. जबकि उतनी दुखी होने जैसी बात भी नहीं थी.
इनकी वसीयत भी ऐसी कि क्या कहा जाये. आज तक जितनी वसीयत देखी उसमें सब पीछे छूटे को कुछ न कुछ देकर जाते हैं. इस वसीयत में पहली बार देखा कि देना देवाना तो कुछ नहीं बल्कि फलाने की इतनी उधार लौटा देना. फलाने का इतना बाकी है. उसे ब्याज का यह भाव देना है. तुम मेरे खास हो और मैं तुम्हें चाहता हूँ इसलिये तुम फलाने को लौटाना क्योंकि वो किश्तों में ले लेगा और ब्याज भी कम है.
अब वो पत्रिका नहीं निकला करेगी. अब से वो इतिहास हो गई.(व्यंग्य तो खैर कभी भी नहीं थी, कम से कम कुछ तो हुई)
भईया जी के अहसानों को याद कर उन्हें नमन करता हूँ और अब हम दो मिनट का मौन रख यहाँ से विदा लेंगे.(मौन तो खैर सब यूँ भी हैं, बस दो मिनट बाद विदा ले लिजिये).”
इनकी वसीयत भी ऐसी कि क्या कहा जाये. आज तक जितनी वसीयत देखी उसमें सब पीछे छूटे को कुछ न कुछ देकर जाते हैं. इस वसीयत में पहली बार देखा कि देना देवाना तो कुछ नहीं बल्कि फलाने की इतनी उधार लौटा देना. फलाने का इतना बाकी है. उसे ब्याज का यह भाव देना है. तुम मेरे खास हो और मैं तुम्हें चाहता हूँ इसलिये तुम फलाने को लौटाना क्योंकि वो किश्तों में ले लेगा और ब्याज भी कम है.
धन्य है यह वसीयत. संग्रहालय में रखने लायक.
इतने खास मित्र हैं कि यह तो तय ही समझा जाये कि उनके जाने पर राजू भाई का रोल हमें ही अदा करना होगा. बाँस मंगवाने से लेकर उनको राख बनाने तक का सारा जिम्मा इन नाजूक काँधों पर गिरा ही समझिये. फिर आखिर में पेड़ के नीचे खड़े होकर वो भाषाण, जिसमें उनके महान होने से लेकर उनके जाने के अफसोस तक को कवर करना, कोई हँसी खेल तो है नहीं. इसीलिये हमने सोचा कि जब वो वसीयत सार्वजनिक कर गये पूरी उधार आदि के हिसाब के साथ तो हम भी वो भाषाण अभी से तैयार कर लें. फिक्स डेट मालूम रहती तो ट्रक और तैरहवीं के भोज के लिये हलवाई आदि की बुकिंग भी अभी से कर देते. ऐन टाईम पर बिना बुक किये सभी कुछ तो महंगा पड़ता है. कहाँ तक उस समय मोल भाव करेंगे. एक ही काम तो है नहीं.
अब जितना हो सकता है, उतना कर लिया है अभी से. जैसे कि यह भाषाण. कोई सुधार करना हो तो बताईयेगा. अभी तो लगता है कि कुछ समय है:
कृप्या ध्यान दें, नीचे दिये भाषण में () के बीच के वाक्य भाव भंगिमा बनाने और वाक्यों का अर्थ समझाने के लिये हैं, वो भाषाण के दौरान बोले नहीं जायेंगे.
भाषण:
“ भईया जी नहीं रहे. (विराम-चेहरे पर घोर उदासी)
कल रात तक थे. खाना भी खूब खाया. (उनको खाता देख कोई भी समझदार जान लेता कि ऐसे खा रहे हैं जैसे कि आगे कभी नहीं मिलेगा. मगर कोई समझ ही नहीं पाया. सबने समझा ऐसा वो आदतन कर रहे हैं.) फिर वो सो गये. (सोये भी तो ऐसा कि फिर उठे ही नहीं.) हमेशा के लिये सो गये. चिर निद्रा में लीन.(अब तो जला भी दिया है तो उठने की कोई उम्मीद भी नहीं.)
बहुत दुख हो रहा है. (दुख इस बात का नहीं कि वो नहीं रहे. इन्सान का जीवन है सभी को एक दिन नहीं रहना है, सभी को चले जाना है. दुख तो इस बात का है कि बस थोड़ा जल्दी चले गये.) कुछ (दो-तीन) साल और रुक जाते. (तो हम स्टेब्लिश हो जाते.- दो बूँद आंसू) वे बहुत याद आयेंगे. उन्होंने मेरा बहुत साथ दिया. आज व्यंग्यकारी की दुनिया में मेरा जो भी नाम है वो उनकी ही देन है. उन्हीं के कारण मेरा लिखा अच्छा माना जाता था. (ऐसा नहीं कि वो मुझे लिखना सिखाते थे. मगर उन्हीं की लेखनी का जादू था कि मैं कुछ भी लिख दूँ उनसे बेहतर ही होता था और लोग मुझे पढ़ लेते थे.)
उनके और मेरे संबंधों पर इस मौके पर एक शेर कहना चाहूँगा:
आज मेरा इस जहाँ में, जो जरा सा नाम है
मान ले इस बात को तू, वो तेरा ही काम है.
उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है, वो कभी नहीं भरा जा सकेगा. (भर तो सकता है मगर कौन भरना चाहेगा. कोई क्यूँ अपनी लेखनी का स्तर गिरा कर खाई को भरेगा. बेहतर है वो रिक्त ही रहे. सभी तो चैन चाहते हैं.)
भईया जी सिर्फ भईया जी नहीं थे वरन एक युग थे. (युग तो क्या कहिये, घोर कलयुग थे. हर बड़े नेता से लेकर धर्म गुरुओं, भगवानों, शासन तंत्र, बाजार, सामाजिक व्यवस्था को उन्होंने लेखनी के माध्यम से अपना निशाना बनाया. लगा कि नहीं यह अलग बात है, मगर बनाया.) आज सब मौन हैं (सुख चैन में हैं, अब हाहाकार की आवश्यक्ता नहीं रही), सब यहाँ उपस्थित हैं (देखने आये हैं कि सच में चले गये गये या वापस न लौट आयें). आज उनके साथ उस युग की समाप्ति हो गई.
भविष्य उनको याद रखेगा. उनका बताया मार्ग सभी नव व्यंग्यकारों का मार्ग दर्शन करेगा. (इस मार्ग से बच कर चलो).
आज उनके परिवार का रुदन देखा नहीं जा रहा. सब रो रहे हैं. (कमाया धमाया तो कुछ नहीं, इतनी उधार छोड़ गया है कि कैसे चुका पायेंगे सोच सोच कर). आने वाली पीढ़ी भी उन्हें याद करेगी.(इतनी उधार चुकाना इस पीढ़ी के बस में नहीं-अगली पीढ़ी तक ही चूक पायेगा मय ब्याज) .
उनकी व्यंग्य-भारती किताब सदैव उनकी याद ताजा रखेगी. (बिकी तो एक कॉपी नहीं, सारी प्रतियाँ घर पर लदी हैं और प्रिन्टर के पैसे जो बकाया सो अलग ब्याज का मीटर चला रहे हैं). भईया जी रोज एक व्यंग्य कम से कम लिखा करते थे और तीस व्यंग्य की मासिक पत्रिका निकाला करते थे, जिसे वो घूम घूम कर, इस तकादे के साथ कि इस बार फ्री दे रहा हूँ अगले माह से पैसे लगेंगे, सबको बाँटा करते थे. (यह बाँटने का क्रम और तकादे का क्रम सतत चला और हर माह उधार में वृद्धि भी सतत होती गई)
इतने खास मित्र हैं कि यह तो तय ही समझा जाये कि उनके जाने पर राजू भाई का रोल हमें ही अदा करना होगा. बाँस मंगवाने से लेकर उनको राख बनाने तक का सारा जिम्मा इन नाजूक काँधों पर गिरा ही समझिये. फिर आखिर में पेड़ के नीचे खड़े होकर वो भाषाण, जिसमें उनके महान होने से लेकर उनके जाने के अफसोस तक को कवर करना, कोई हँसी खेल तो है नहीं. इसीलिये हमने सोचा कि जब वो वसीयत सार्वजनिक कर गये पूरी उधार आदि के हिसाब के साथ तो हम भी वो भाषाण अभी से तैयार कर लें. फिक्स डेट मालूम रहती तो ट्रक और तैरहवीं के भोज के लिये हलवाई आदि की बुकिंग भी अभी से कर देते. ऐन टाईम पर बिना बुक किये सभी कुछ तो महंगा पड़ता है. कहाँ तक उस समय मोल भाव करेंगे. एक ही काम तो है नहीं.
अब जितना हो सकता है, उतना कर लिया है अभी से. जैसे कि यह भाषाण. कोई सुधार करना हो तो बताईयेगा. अभी तो लगता है कि कुछ समय है:
कृप्या ध्यान दें, नीचे दिये भाषण में () के बीच के वाक्य भाव भंगिमा बनाने और वाक्यों का अर्थ समझाने के लिये हैं, वो भाषाण के दौरान बोले नहीं जायेंगे.
भाषण:
“ भईया जी नहीं रहे. (विराम-चेहरे पर घोर उदासी)
कल रात तक थे. खाना भी खूब खाया. (उनको खाता देख कोई भी समझदार जान लेता कि ऐसे खा रहे हैं जैसे कि आगे कभी नहीं मिलेगा. मगर कोई समझ ही नहीं पाया. सबने समझा ऐसा वो आदतन कर रहे हैं.) फिर वो सो गये. (सोये भी तो ऐसा कि फिर उठे ही नहीं.) हमेशा के लिये सो गये. चिर निद्रा में लीन.(अब तो जला भी दिया है तो उठने की कोई उम्मीद भी नहीं.)
बहुत दुख हो रहा है. (दुख इस बात का नहीं कि वो नहीं रहे. इन्सान का जीवन है सभी को एक दिन नहीं रहना है, सभी को चले जाना है. दुख तो इस बात का है कि बस थोड़ा जल्दी चले गये.) कुछ (दो-तीन) साल और रुक जाते. (तो हम स्टेब्लिश हो जाते.- दो बूँद आंसू) वे बहुत याद आयेंगे. उन्होंने मेरा बहुत साथ दिया. आज व्यंग्यकारी की दुनिया में मेरा जो भी नाम है वो उनकी ही देन है. उन्हीं के कारण मेरा लिखा अच्छा माना जाता था. (ऐसा नहीं कि वो मुझे लिखना सिखाते थे. मगर उन्हीं की लेखनी का जादू था कि मैं कुछ भी लिख दूँ उनसे बेहतर ही होता था और लोग मुझे पढ़ लेते थे.)
उनके और मेरे संबंधों पर इस मौके पर एक शेर कहना चाहूँगा:
आज मेरा इस जहाँ में, जो जरा सा नाम है
मान ले इस बात को तू, वो तेरा ही काम है.
उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है, वो कभी नहीं भरा जा सकेगा. (भर तो सकता है मगर कौन भरना चाहेगा. कोई क्यूँ अपनी लेखनी का स्तर गिरा कर खाई को भरेगा. बेहतर है वो रिक्त ही रहे. सभी तो चैन चाहते हैं.)
भईया जी सिर्फ भईया जी नहीं थे वरन एक युग थे. (युग तो क्या कहिये, घोर कलयुग थे. हर बड़े नेता से लेकर धर्म गुरुओं, भगवानों, शासन तंत्र, बाजार, सामाजिक व्यवस्था को उन्होंने लेखनी के माध्यम से अपना निशाना बनाया. लगा कि नहीं यह अलग बात है, मगर बनाया.) आज सब मौन हैं (सुख चैन में हैं, अब हाहाकार की आवश्यक्ता नहीं रही), सब यहाँ उपस्थित हैं (देखने आये हैं कि सच में चले गये गये या वापस न लौट आयें). आज उनके साथ उस युग की समाप्ति हो गई.
भविष्य उनको याद रखेगा. उनका बताया मार्ग सभी नव व्यंग्यकारों का मार्ग दर्शन करेगा. (इस मार्ग से बच कर चलो).
आज उनके परिवार का रुदन देखा नहीं जा रहा. सब रो रहे हैं. (कमाया धमाया तो कुछ नहीं, इतनी उधार छोड़ गया है कि कैसे चुका पायेंगे सोच सोच कर). आने वाली पीढ़ी भी उन्हें याद करेगी.(इतनी उधार चुकाना इस पीढ़ी के बस में नहीं-अगली पीढ़ी तक ही चूक पायेगा मय ब्याज) .
उनकी व्यंग्य-भारती किताब सदैव उनकी याद ताजा रखेगी. (बिकी तो एक कॉपी नहीं, सारी प्रतियाँ घर पर लदी हैं और प्रिन्टर के पैसे जो बकाया सो अलग ब्याज का मीटर चला रहे हैं). भईया जी रोज एक व्यंग्य कम से कम लिखा करते थे और तीस व्यंग्य की मासिक पत्रिका निकाला करते थे, जिसे वो घूम घूम कर, इस तकादे के साथ कि इस बार फ्री दे रहा हूँ अगले माह से पैसे लगेंगे, सबको बाँटा करते थे. (यह बाँटने का क्रम और तकादे का क्रम सतत चला और हर माह उधार में वृद्धि भी सतत होती गई)
अब वो पत्रिका नहीं निकला करेगी. अब से वो इतिहास हो गई.(व्यंग्य तो खैर कभी भी नहीं थी, कम से कम कुछ तो हुई)
भईया जी के अहसानों को याद कर उन्हें नमन करता हूँ और अब हम दो मिनट का मौन रख यहाँ से विदा लेंगे.(मौन तो खैर सब यूँ भी हैं, बस दो मिनट बाद विदा ले लिजिये).”
नोट: यह पोस्ट मौज मजे के लिये है फिर भी कोई सिरियस हो जाये या बुरा मान जाये तो यहाँ टिप्पणी करने की बजाये भईया जी से उपर जाकर शिकायत करे. वो हमसे कहेंगे तो हम आपसे माफी माँग लेंगे आखिर उनके बहुत अहसान हैं हम पर, कैसे उनकी बात टाल पायेंगे. :)
गुरुवार, अगस्त 23, 2007
दिन का सूरज उगा
तेरी सूरत दिखी आज फिर याद में,
दिन का सूरज उगा यूँ लगा रात में.
फल से लदने लगे पेड़ अंगनाई के
तुम लिए ही रहे बीज बस हाथ में.
उसकी आदत बुरी है वो रोता रहा
जिसने पाई है दौलत भी खैरात में
बेवफा इश्क के जो भी किस्से उठे
जिक्र तेरा ही आया है हर बात में.
तुम मिलोगे उसी मोड़ पर, इसलिये
भीगते ही गये हम तो बरसात में.
प्यार से जो तुम्हारी नजर पड़ गई
आग जैसे लगी मेरे जज्बात में.
घर तुम्हारा यहीं पर कहीं है समीर
देर क्यूँ लग रही फिर मुलाकात में.
--समीर लाल 'समीर'
बुधवार, अगस्त 22, 2007
चूं चूं चीं चीं और हम लोग!!
इस कविता के वास्ते मैने अपने पाठकों, जो कि अधिकतर चिट्ठाकार भी हैं, तीन वर्गों में बाँट दिया है.
पहला वर्ग जो कि 'अ' कहलायेगा कि उम्र सीमा १२ एवं नीचे.
दूसरा वर्ग जो कि 'ब' कहलायेगा कि उम्र सीमा १२ से ६५ वर्ष
तीसरा वर्ग जो कि 'स' कहलायेगा कि उम्र सीमा ६५ वर्ष एवं उपर...?? (उपर का अर्थ सिधार चुकों से न लगाये. इसका मतलब है 65+)
यह कविता 'अ' वर्ग के लिये रची गयी है, वो इसे पूर्णतः रोचक, मनोरंजक ओर ज्ञानवर्धक पायेंगे.
यह कविता 'ब' वर्ग के उन लोगों के लिये भी है जो 'अ' वर्ग की मातायें हैं. 'अ' वर्ग के पिता इसे बेतुका, वाहियात और बकवास मानेंगे अन्य नापसंद करने वाले वर्ग के साथ. इसमें इस कविता का दोष नहीं है. इसमें उनका दर्शन दोष है. उन्हें हर चीज में दोष नजर आता है.राजनेता दोषी-जबकि हैं उनके द्वारा चुने गये. अर्थ व्यवस्थता दोषी, राजनीति दोषी..जब पूछो-क्या आप चुनाव लड़ेंगे इसे सुधारने के लिये? तब उनसे सुनिये कि हम इस लफड़े में नहीं पड़ना चाहते, हमें यह पसंद नहीं. खुद कुछ करना नहीं बाकि सब दोषी. उन्हें स्वभावतः यह कविता पसंद नही आयेगी. जबकि इसका स्टेन्डर्ड साहित्यिक है-बाल साहित्य.
मगर 'ब' और 'स' वर्ग में भी ऐसे लोग हैं जो प्रोफाईल उम्र के हिसाब से इस वर्ग में आ गये हैं मगर हरकत अभी भी वर्ग 'अ' की है, उनकी प्रतिक्रिया का मुझे इंतजार है. हाल यह है कि तुमने मुझे क्यूँ छेड़ा भले ही मैने तुम्हें छेड़ा हो..मैं तो विवाद करुँगा. जो कह लो वो रुठ ही जायेंगे. हर बात में बच्चों की तरह झगड़ना. उस दिन तुमने मुझको परेशान किया था न...आज मैं करुँगा. सारे दोस्तों को बताऊँगा कि तुम गंदे हो. फसाद करवाऊँगा. फिर हसूंगा. शायद उनको भी यह रचना हरकतों के हिसाब से आंकी गई उम्र के कारण उपयुक्त लगे. कोई कह तो दे कि कौआ तुम्हारे कान ले गया, बस दौड़ पड़े कौए के पीछे. अरे भाई, एक बार कान तो चैक कर लो कि ले भी गया है कि नहीं?
यह उनके लिये भी राम बाण सिद्ध हो सकती है जो अपने दोस्तों के बच्चों के पोयेट्रिक काम्पिटेन्स (बेटा, अंकल को पोयेट्री सुनाओ के जबाब में) में जैक एण्ड जिल सालों से झेलते चले आ रहे हैं या फिर मछली जल की रानी है सुन सुन कर पक गये हैं. कम से कम एक नई कविता स्टॉक में आयेगी. आप उन बच्चों को यह कविता प्रिंट करके गिफ्ट स्वरुप दे सकते हैं. यह जनहित का कार्य कहलायेगा. बाकि के लोग भी जैक एण्ड जिल से बच जायेंगे.
वर्ग 'स' इसे नाती पोतों के लिये पसंद करेगा और हमारा अहसान भरेगा. साथ ही उम्र रिवर्सल ऑफ्टर ६५ के सिद्धांत पर उन्हें खुद भी यह पसंद आयेगी.
पाठ्य पुस्तक निगम वाले अगर चाहें तो मुझसे संपर्क करें, उन्हें मैं दे दूँगा इस कविता के सारे अधिकार बहुते सस्ते में.
अब कारण मत पूछिये कि हमने यह कविता क्यूँ रची? ठीक है नहीं मानते हैं तो आगे कभी पोस्ट में बताते हैं कि क्या कारण बना कि हम बाल कविता रच गये. चिट्ठा साहित्य का इतिहास इसका गवाह रहेगा.. इंतजार करिये न!!!
इन्तजार तो खैर करते रहियेगा... पहले के भी बहुत सारे वादों को पूरा करने का इन्तजार हमारे भारत के प्रधान मंत्री बनने की पूर्ण योग्यता की गवाही देते हुए सतत पेन्डिंग हैं.
अभी कविता सुनिये जो कतई अनुराग के महा पकाऊ अभियान का हिस्सा नहीं है.
एक है चिड़िया-
चूं चूं करती
चूं चूं करती
चीं चीं करती
नाम है उसका बोलू
इस डंडी से उस डंडी पर
उड़ती फिरती
कभी न गिरती
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फिर दूजी चिड़िया भी आई
चूं चूं करती
चीं चीं करती
उड़ती फिरती
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
नाम बताया मोलू
झूले में वो झूल रही है
खुशी खुशी से बोल रही है
मेरी यार बनोगी, बोलू?
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं
दोनों ने यह गाना गाया
कूद कूद के खाना खाया
तब तक तीजा दोस्त भी आया
नाम जरा था अलग सा पाया
हिन्दु मुस्लिम सिख इसाई
चिड़ियों ने यह जात न पाई
जिसने पाला उसकी होती
उसी धर्म का बोझ ये ढोती
मुस्लिम के घर रह कर आई
एक नहीं पूरे दो साल
ऐसा ही तो नाम भी उसका
सबने कहा उसे खुशाल
वो भी झूला उस झूले पर
इस झूले पर, उस झूले पर
हन हन हन हन
घंटी वो भी खूब बजाता
ट्न टन टन टन
फिर सबके संग खाना खाता
मिल मिल करके गाना गाता
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं
तीनों सबको खुश रखते हैं
ठुमक ठुमक के वो चलते हैं
खुशी में होते सभी निहाल
बोलू, मोलू और खुशाल!!
हम भी मिलकर
गाना गाते
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं
उड़ते जाते
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
पहला वर्ग जो कि 'अ' कहलायेगा कि उम्र सीमा १२ एवं नीचे.
दूसरा वर्ग जो कि 'ब' कहलायेगा कि उम्र सीमा १२ से ६५ वर्ष
तीसरा वर्ग जो कि 'स' कहलायेगा कि उम्र सीमा ६५ वर्ष एवं उपर...?? (उपर का अर्थ सिधार चुकों से न लगाये. इसका मतलब है 65+)
यह कविता 'अ' वर्ग के लिये रची गयी है, वो इसे पूर्णतः रोचक, मनोरंजक ओर ज्ञानवर्धक पायेंगे.
यह कविता 'ब' वर्ग के उन लोगों के लिये भी है जो 'अ' वर्ग की मातायें हैं. 'अ' वर्ग के पिता इसे बेतुका, वाहियात और बकवास मानेंगे अन्य नापसंद करने वाले वर्ग के साथ. इसमें इस कविता का दोष नहीं है. इसमें उनका दर्शन दोष है. उन्हें हर चीज में दोष नजर आता है.राजनेता दोषी-जबकि हैं उनके द्वारा चुने गये. अर्थ व्यवस्थता दोषी, राजनीति दोषी..जब पूछो-क्या आप चुनाव लड़ेंगे इसे सुधारने के लिये? तब उनसे सुनिये कि हम इस लफड़े में नहीं पड़ना चाहते, हमें यह पसंद नहीं. खुद कुछ करना नहीं बाकि सब दोषी. उन्हें स्वभावतः यह कविता पसंद नही आयेगी. जबकि इसका स्टेन्डर्ड साहित्यिक है-बाल साहित्य.
मगर 'ब' और 'स' वर्ग में भी ऐसे लोग हैं जो प्रोफाईल उम्र के हिसाब से इस वर्ग में आ गये हैं मगर हरकत अभी भी वर्ग 'अ' की है, उनकी प्रतिक्रिया का मुझे इंतजार है. हाल यह है कि तुमने मुझे क्यूँ छेड़ा भले ही मैने तुम्हें छेड़ा हो..मैं तो विवाद करुँगा. जो कह लो वो रुठ ही जायेंगे. हर बात में बच्चों की तरह झगड़ना. उस दिन तुमने मुझको परेशान किया था न...आज मैं करुँगा. सारे दोस्तों को बताऊँगा कि तुम गंदे हो. फसाद करवाऊँगा. फिर हसूंगा. शायद उनको भी यह रचना हरकतों के हिसाब से आंकी गई उम्र के कारण उपयुक्त लगे. कोई कह तो दे कि कौआ तुम्हारे कान ले गया, बस दौड़ पड़े कौए के पीछे. अरे भाई, एक बार कान तो चैक कर लो कि ले भी गया है कि नहीं?
यह उनके लिये भी राम बाण सिद्ध हो सकती है जो अपने दोस्तों के बच्चों के पोयेट्रिक काम्पिटेन्स (बेटा, अंकल को पोयेट्री सुनाओ के जबाब में) में जैक एण्ड जिल सालों से झेलते चले आ रहे हैं या फिर मछली जल की रानी है सुन सुन कर पक गये हैं. कम से कम एक नई कविता स्टॉक में आयेगी. आप उन बच्चों को यह कविता प्रिंट करके गिफ्ट स्वरुप दे सकते हैं. यह जनहित का कार्य कहलायेगा. बाकि के लोग भी जैक एण्ड जिल से बच जायेंगे.
वर्ग 'स' इसे नाती पोतों के लिये पसंद करेगा और हमारा अहसान भरेगा. साथ ही उम्र रिवर्सल ऑफ्टर ६५ के सिद्धांत पर उन्हें खुद भी यह पसंद आयेगी.
पाठ्य पुस्तक निगम वाले अगर चाहें तो मुझसे संपर्क करें, उन्हें मैं दे दूँगा इस कविता के सारे अधिकार बहुते सस्ते में.
अब कारण मत पूछिये कि हमने यह कविता क्यूँ रची? ठीक है नहीं मानते हैं तो आगे कभी पोस्ट में बताते हैं कि क्या कारण बना कि हम बाल कविता रच गये. चिट्ठा साहित्य का इतिहास इसका गवाह रहेगा.. इंतजार करिये न!!!
इन्तजार तो खैर करते रहियेगा... पहले के भी बहुत सारे वादों को पूरा करने का इन्तजार हमारे भारत के प्रधान मंत्री बनने की पूर्ण योग्यता की गवाही देते हुए सतत पेन्डिंग हैं.
अभी कविता सुनिये जो कतई अनुराग के महा पकाऊ अभियान का हिस्सा नहीं है.
एक है चिड़िया-
चूं चूं करती
चूं चूं करती
चीं चीं करती
नाम है उसका बोलू
इस डंडी से उस डंडी पर
उड़ती फिरती
कभी न गिरती
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फिर दूजी चिड़िया भी आई
चूं चूं करती
चीं चीं करती
उड़ती फिरती
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
नाम बताया मोलू
झूले में वो झूल रही है
खुशी खुशी से बोल रही है
मेरी यार बनोगी, बोलू?
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं
दोनों ने यह गाना गाया
कूद कूद के खाना खाया
तब तक तीजा दोस्त भी आया
नाम जरा था अलग सा पाया
हिन्दु मुस्लिम सिख इसाई
चिड़ियों ने यह जात न पाई
जिसने पाला उसकी होती
उसी धर्म का बोझ ये ढोती
मुस्लिम के घर रह कर आई
एक नहीं पूरे दो साल
ऐसा ही तो नाम भी उसका
सबने कहा उसे खुशाल
वो भी झूला उस झूले पर
इस झूले पर, उस झूले पर
हन हन हन हन
घंटी वो भी खूब बजाता
ट्न टन टन टन
फिर सबके संग खाना खाता
मिल मिल करके गाना गाता
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं
तीनों सबको खुश रखते हैं
ठुमक ठुमक के वो चलते हैं
खुशी में होते सभी निहाल
बोलू, मोलू और खुशाल!!
हम भी मिलकर
गाना गाते
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं
उड़ते जाते
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र