बात थी आतंकवाद की. देश सन्न था. विचारसुन्नता की वो परम स्थिति जिस तक पहुँचने की कोशिश में हजारों विचार आ घेरते हैं न जाने कहाँ कहाँ से. जिन्हें भी मेडीटेशन का तनिक भी अनुभव है वो जानेंगे कि जब विचार शुन्यता की कोशिश करो तो अनायास ही कितने विचार आ घेरते हैं.
हजारों विचार. सीमित शब्दकोष फिर भी भरपूर उबाल. तो शुरु हुई रचना प्रक्रिया लेखन की. ढली एक गज़लनुमा कविता. अगर पूरी बहर में निकले तो गज़ल वरना गीत तो है ही. आदतानुसार मँहगे शब्दों से भयवश दूरी अतः हल्के फुल्के शब्द, गहरे भाव. .
वो देखो कौन बैठा, किस्मतों को बांचता है उसे कैसे बतायें, उसका घर भी कांच का है.
नहीं यूँ देखकर मचलो, चमक ये चांद तारों सी जरा सा तुम संभलना, शोला इक ये आंच का है.
वो मेरा रहनुमा था, उसको मैने अपना जाना था, बचा दी शह तो बेशक, शक मगर अब मात का है.
पता है ऐब कितने हैं, हमारी ही सियासत में मगर कब कौन अपना ही गिरेबां झांकता है.
यूँ सहमा सा खड़ा था, कौन डरके सामने मेरे जरा सा गौर से देखा, तो चेहरा आपका है.
चलो कुछ फैसला लेलें, अमन की फिर बहाली का वो मेरे साथ न आये, जो डर से कांपता है.
थमाई डोर जिसको थी, अमन की और हिफाजत की उसी को देखिये, वो देश को यूँ बांटता है.
दिखे है आसमां इक सा, इधर से उस किनारे तक न जाने किस तरह वो अपनी सरहद नापता है.
कफ़न है आसुओं का और शहीदों की मज़ारें है बचे है फूल कितने अब, बागबां ये आंकता है.
-समीर लाल ’समीर’
जब यह सब टाइप करने बैठे तो साथ ही पीछे से अपने मित्र बवाल लगे अपनी आदतानुसार ताका झांकी करने. हमने पूछा भी कि भई ,क्या बात है, कुछ बात जंची भी या नहीं. जाने किस किस मूड में तो रहता है वो भी. लगता है उस समय अमीर खुसरो या मीर तकी ’मीर’ मोड में रहा होगा और उर्दु का जानकार तो है ही एक बेहतरीन गायक और गज़लकार होने के साथ साथ. कैसे पचा ले इतनी सरलता से. इसीलिये मैं उन महिलाओं से हमेशा कहता हूँ जिनके पतियों को खाना बनाना नहीं आता कि तनिक भी दुखी न हो बल्कि तुम तो बड़ी सुखी हो. कम से कम पतिदेव ये तो नहीं कहते कि फलाना मसाला कम है या ठीक से भूना नहीं. जो परोस दो वो ही बेहतरीन.
बस, बवाल ने भी निकाली अपनी उर्दु की तरकश, गज़ल ज्ञान का तलवार और लगे गाते हुए नये नये अंदाज में पैंतरें आजमाने और जुट गये विकास कार्य में. तब जो गज़ल निकल कर आई और उन्होंने गाई, भाई वाह. आप भी पढ़ें और बतायें कि क्या विचार बनता है इस पर:
अब न वो ताज रहा, औ न उसके चाहने वाले ! सहम के आते हैं, इस मुल्क में, वो जो हैं, आने वाले !!
हमें तो याद हैं अब भी, इसके दिन जो पुराने वाले ! लो बुला लाते हैं फिर से, पल-छिन वो सुहाने वाले !!
जी हाँ, मैं उसी ताज की बात कर रहा हूँ जो मेरी प्रथम पाँच सितारा होटल की यात्रा का साक्षी रहा. अभी हालात जो भी हों..पाँच सितारा होटल में कदम रखने का अभियान यहीं से शुरु हुआ था. आज उसी को याद करते हुए यह संस्मरण:
पहली बार किसी फाईव स्टार होटल में घुसने का मौका था एक दोस्त के साथ.
तय हुआ था कि एक एक कॉफी पी जायेगी. एक कोई वहाँ बिल और १०% टिप देगा. बाहर आकर आधा आधा कर लेंगे. इसी बहाने फाईव स्टार घूम लेंगे,
छात्र जीवन था. बम्बई में पढ़ रहे थे. एक जिज्ञासा थी कि अंदर से कैसा रहता होगा फाईव स्टार. छोटे शहर के मध्यम वर्गीय परिवार से आये हर बालक के दिल में उस जमाने में ऐसी जिज्ञासायें कुलबुलाया करती थीं.
बम्बई से जब घर जाया करते थे तो वहाँ रह रहे मित्रों के सामने अमिताभ बच्चन वगैरह के नामों को इग्नोर करना बड़ा संतुष्टी देता था जैसे उनसे बम्बई में रोज मिलते हों और उनका कोई आकर्षण हममें शेष नहीं बचा है. यथार्थ ये था कि एक बार दर्शन तक नहीं हो पाये थे तब तक.
खैर बात फाईव स्टार की हो रही थी. होटल तय हुआ ताज. दोपहर से ही दो बार दाढ़ी खींची. सच कहता हूँ डबल शेव या तो उस दिन किया या अपनी शादी के दिन.. बस!!! सोचिये, दिलो दिमाग के लिए कितना बड़ा दिन रहा होगा.
अपनी सबसे बेहतरीन वाली सिल्क की गहरी नीली कमीज, जो अमिताभ नें मिस्टर नटवर लाल में पहनी थी, वो प्रेस करवाई. साथ में सफेद बेलबॉटम ३४ बॉटम वाला. जवानी का यही बहुत बड़ा पंगा है कि आदमी यह नहीं सोचता कि उस पर क्या फबता है. खुद का रंग रुप कैसा है. वो यह देखता है कि फैशन में क्या है. जब तक यह अच्छा बुरा समझने की समझ आती है, तब तक इसका असर होने की उमर जा चुकी होती है. दोनों तरफ लूजर.
४५ साल तक सिगरेट पीते रहे और फिर छोड़ कर ज्ञान बांटने लगे कि सिगरेट पीना अच्छा नहीं. मगर उससे होना क्या है, जितनी बैण्ड लंग्स की बजनी थी, बज चुकी. अब तो दुर्गति की गति को विराम देने वाली ही बात शेष है.
खैर, शाम हुई. हाई हील के चकाचक पॉलिश किये हुए जूते पहनें हम चले फाईव स्टार-द ताज!!!
चर्चगेट तक लोकल में गये और फिर वहाँ से टेक्सी में. ४-५ मिनट में पहूँच गये. दरबान नें दरवाजा खोला. ऐसा उतरे मानो घंटा भर के बैठे टेक्सी में चले आ रहे हैं. दरबान के सलाम को कोई जबाब नहीं. बड़े लोगों की यही स्टाईल होती है, हमें मालूम था.
सीधे हाथ हिलाते फुल कान्फिडेन्स दिखाने के चक्कर में संपूर्ण मूर्ख नजर आते (आज समझ आता है) लॉबी में. और सोफे पर बैठ लिए. मन में एक आशा भी थी कि शायद कोई फिल्म स्टार दिख जायें. नजर दौड़ाई चारों तरफ. लगा मानो सब हमें ही घूर रहे हैं. यह हमारे भीतर की हीन भावना देख रही थी शायद. मित्र नें वहीं से बैठे बैठे रेस्टॉरेन्ट का बोर्ड भांपा और हम दोनों चल दिये रेस्टॉरेन्ट की तरफ.
अन्दर मद्धम रोशनी, हल्का मधुर इन्सट्रूमेन्टल संगीत और हम दोनों एक टेबल छेक कर बैठ गये. मैने सोचा यहाँ तक आ ही गये हैं तो बाथरुम भी हो ही लें. बोर्ड भी दिख गया था, दोस्त को बोल कर चला गया.
अंदर जाते ही एक भद्र पुरुष सूटेड बूटेड मिल गये. नमस्ते हुई और हम आग्रही स्वभाव के, कह बैठे पहले आप हो लिजिये. वो कहने लगे नहीं सर, आप!! बाद में समझ आया कि वो तो वहाँ अटेडेन्ट था हमारी सेवा के लिए. हम खामखाँ ही फारमेल्टी में पड़ लिए. बाद में वो कितना हँसा होगा, सोचता हूँ तो आज भी शर्म से लाल टाईप स्थितियों में आ जाता हूँ.
वापस रेस्टॉरेन्ट में आये, तब तक हमारे मित्र, जरा स्मार्ट टाईप थे उस जमाने में, कॉफी का आर्डर दे चुके थे.
कॉफी आई तो आम ठेलों की तरह हमारा हाथ स्वतः ही वेटर की तरफ बढ़ गया आदतानुसार कप लेने के लिए और वो उसके लिए शायद तैयार न रहा होगा तो कॉफी का कप गिर गया हमारे सफेद बेलबॉटम पर. वो बेचारा घबरा गया. सॉरी सॉरी करने लगा. जल्दी से गीला टॉवेल ला कर पौंछा और दूसरी कॉफी ले आया. हम तो घबरा ही गये कि एक तो पैर जल गया, बेलबॉटम अलग नाश गया और उस पर से दो कॉफी के पैसे. मन ही मन जोड़ लिए. सोचे कि टिप नहीं देंगे और पैदल ही चर्चगेट चले जायेंगे तो हिसाब बराबर हो जायेगा. अबकी बारी उसे टेबल पर कप रख लेने दिये, तब उसे उठाये.
बाद में उसने फिर सॉरी कहा और बताया कि कॉफी इज ऑन द हाऊस. यानि बिल जीरो. आह!! मन में उस वेटर के प्रति श्रृद्धाभाव उमड़ पड़े. कोई और जगह होती तो पैर छू लेते मगर फाईव स्टार. टिप देने का सवाल नहीं था क्यूँकि नुकसान हुआ था सो अलग मगर जीरो का १०% भी तो जीरो ही हुआ. तब क्या दें?
चले आये रुम पर गुड नाईट करके उसे, दरबान को और टैक्सी वाले को. कॉफी का दाग तो खैर वाशिंग पाउडर निरमा के आगे क्या टिकता. ५० पैसे के पैकेट में बैलबॉटम फिर झकाझक सफेद.
फिर तो कईयों को फाईव स्टार घुमवाये. एक्सपिरियंस्ड होने के कारण हॉस्टल में हमारे जैसे शहरों और परिवेष से आये लोग अपना अनुभव बटोरने के लिए हमारा बिल पे करते चले गये.
भाई जी, आपका ठिया तो सबसे बड़े बाजार में है. पता चला है, होल सेल में डील करते हो. कुछ हमें भी बताओ भाई, सुना है दिवाली सेल लगी है आपके बाजार में.
हमने कहा कि दिवाली कहो या दिवाला. सेल तो लगी है ६०% से ७०% की भारी छूट चल रही है. एस एम एस से विज्ञापन भी किया जा रहा है. स्लोगन भेजा जा रहा है, आपको भी मिल गया लगता है..आपके जमाने में बाप के जमाने के भाव. और जाने क्या क्या विज्ञापन किये गये हैं.
मुझे सेठ दीनानाथ की आढत याद आ गई. दिन भर मंडी के बीचों बीच अपनी दुकान पर तख्त पर बिछे सफेद गद्दे पर आधे लेटे रहते थे. बंडा और प्रदर्शनकारी धोती पहने. भई, जब प्रदर्शनकारी नेता हो सकता है तो धोती क्यूँ नहीं. जो भी प्रदर्शन करे, वो प्रदर्शनकारी, ऐसी मेरी मान्यता है. मेरी नजर में तो मल्लिका शेहरावत और राखी सावंत के डिज़ानर परिधान को भी प्रदर्शनकारी श्रेणी में ही रखता हूँ. खैर, सेठ के मूँह में हर समय पान. सामने मुनीम अपने हिसाब किताब में व्यस्त. बस, होलसेल का व्यापार था उनका भी, इसीलिए याद हो आई.
उनके ठीक विपरीत हम. न्यूयार्क स्टॉक एक्सचेंज, टोरंटो स्टॉक एक्सचेंज, नेसडेक और शिकागो कमॉडेटी एक्सचेंज पर डील तो करते हैं मगर कुर्सी पर सीधे बैठे सामने कम्प्यूटर लगाये. न आसपास घूमते बजारिया सांड और न ही पास बैठा मुनीम. मुनीम, चपरासी से लेकर सब कुछ खुद. माल की खरीदी बिक्री सब कम्प्यूटर पर. अगर अपने आप को ट्रेडर न बतायें तो कोई कम्प्यूटर ऑपरेटर ही समझे.
मित्र कहने लगे कि हाँ, विज्ञापन तो मिला. इसीलिये फोन किये हैं. भाई, बहुत घाटा लग गया. आप तो वो माल बताओ जिसको १०० टका ऊपर ही जाना हो, बस, वो ही लेंगे और एक बार लॉस पूरे हुए तो जीवन में स्टॉक एक्सचेंज की दिशा में सर रख कर सोयेंगे तक नहीं. खेलने की तो छोड़ो.
हमने उनको पहले भी समझाया था और फिर समझाया कि भाई, हम तो बस आप जो बोलो, वो खरीद देंगे और जो बोलो, वो बेच देंगे. हमारे लिए तो हर माल बराबर, हमें तो दोनों हालात में कमीशन बस लेना है. चाहे बेचो तब और खरीदो तो. जिस दिन हमें या इन बाजार एनालिस्टों को ये मालूम चलने लग जाये कि ये वाला तो पक्का ऊपर ही जायेगा तो क्या पागल कुत्ता काटे है जो सुबह से शाम तक कम्प्यूटर लिये लोगों के लिए खरीदी बेची कर रहे हैं. घर द्वार बेच कर सब लगा दें और एक ही बार में वारा न्यारा करके हरिद्वार में आश्रम खोलकर साधु न बन जाये और जीवन भर एय्याशी करें. ये सब बाजार एनालिस्ट मूँह देखी बात करते हैं आज जो दिखा वो कह दिया, कल जो दिखा तो बदल गये.
हम में और नारियल बेचने वाले किराना व्यापारी में बस यही फरक है. दोनों को माल बेचने से मतलब है मगर हर आने वाले को वो नारियल देते वक्त एक को हिलाकर कान में न जाने क्या सुनता है. फिर उसे किनारे रख दूसरा उठाकर बजाता है और कहता है कि हाँ, ये ठीक है. इसे ले जाईये और आप टांगे चले आते हैं जबकि ऐसे ही हिला हिला कर शाम तक वो सारे नारियल बेच लेता है और आप भी खुश, वो भी खुश. हमारे यहाँ ऐसा हिलाने का सिस्टम नहीं हैं. निवेशक को बाजार खुद हिला लेता है इसलिये हमें हिलाने की जरुरत नहीं.
जिस दिन आप इस दिशा में सर रख कर सोना बंद कर दोगे, उस दिन से हम क्या घास छिलेंगे. ऐसा अशुभ न कहो एन धंधे के समय भाई.
अजी, आप तो अंतिम दमड़ी तक खेलो. जब पूरा बर्बाद हो जाओ, तब मजबूरी में बंद हो ही जायेगा, इसमें प्रण कैसा करना. हमें भी तब तक १० दूसरे मूर्ख मिल जायेंगे जो रातों रात लखपति बनना चाहते, हम उनसे अपना काम चला लेंगे. कसम खाते हैं आपको याद भी न करेंगे.
तो बोलो, क्या आर्डर लिखूँ...सब माल चोखे हैं. ऐसा मौका कहाँ बार बार आता है जब ६०% से ७०% तक छूट चले और आपके जमाने में बाप के जमाने के भाव पर माल मिलें.
जल्दी..फटाफट आर्डर बोलो. टाईम न खोटी करो.
नोट: यूँ भी अगर हम तुम्हें अपना खास मान कर बाजार से दूर रहने की सलाह दें तो तुम मानोगे थोड़ी न बल्कि किसी और ट्रेडर के यहाँ जाकर खेलोगे. फिर हम ही अपनी कमाई क्यूँ छोड़ें. ये बाजार ही अजीब है कि जब तक खुद न हार लो सब जीते हुए ही नजर आते हैं.
जबलपुर में विधान सभा का चुनाव था २७ को. सक्सेना जी को पहले से ज्ञात था कि २७ को छुट्टी है. २८ को भी छुट्टी ले ली थी. शनिवार इतवार यूँ भी दफ्तर बंद रहता है अतः लगातार ४ दिन मिल गये सो पचमढ़ी मय परिवार पिकनिक मनाने चल पड़े.
उधर मुम्बई में बम धमाके हो चले. लोग मर रहे थे, सुरक्षाकर्मी मुस्तैदी के साथ जुटे थे. मंत्रीगण बयानबाजी में व्यस्त थे. गृहमंत्री, हमला रुके तो बयान दें, इस हेतु नया सूट पहन कर कंघी करते चले जा रहे थे मगर हमला था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था.
मुख्य मुम्बई के समस्त दफ्तर बंद कर दिये गये थे अतः छुट्टी थी और शर्मा जी इसलिये मय परिवार पिकनिक मनाने खंडाला चले गये.
मौसम गुलाबी है और अखबार लाल!!
आपसी मित्र सक्सेना जी ने शर्मा जी को फोन लगाया. मुम्बई धमाकों पर अपना क्रोध, घुटन और सरकार की अक्षमता की लानत मलानत की. विमर्श चला कि कौन लोग हो सकते हैं इस हमले के पीछे. पड़ोसी देश का नाम भी उठा मगर फिर आज के अखबार की खबर को देखते हुए उस पर इल्जाम लगाना ठीक सा नहीं प्रतीत हुआ. खामखां क्यूँ शक करना? अरे, हमें तो जब पक्का मालूम होता है तो शक की बिनाह पर फाँसी माफ कर लेते हैं तो अभी तो बस शक ही है.
अखबार कहता है कि यह देश पर राहू की वक्र दृष्टि की वजह से है जो कि चन्द्र पर पड़ रही है अतः ये तो होना ही था. तब किसे दोष दें. चन्द्रयान तक भेज दिया मगर राहू की हिम्मत देखो कि फिर भी वक्र दृष्टि डालता है. सरकार तो मगर फिर भी गलत कहलाई क्योंकि ज्योतिष और भविष्यवक्ता तो उनके पास भी हैं. पास तो क्या, सभी तो वो सारे भविष्यवक्ता ही हैं. वर्तमान और भूतकाल की कहाँ बात करते हैं? फिर कैसे नहीं जान पाये ये प्रकांड भविष्यवक्ता सारे..
सक्सेना जी ने अपने पिकनिक पर चले आने के प्रयोजन को सार्थक बताते हुए कहा कि ऐसी ही सरकारें उन्हें पसंद नहीं आती इसलिए वो कभी भी वोट नहीं देते.
शर्मा जी ने भी सरकार और उसके सूचना तंत्र को निष्क्रिय और विफल बताते हुए आगे से कभी वोट न देने की लगभग कसम खाते हुए मारे जा रहे लोगों के प्रति अपनी गहरी संवेदनाऐं व्यक्त की और इस बात पर हर्ष भी उनमें से उनकी पहचान वाला कोई नहीं था.
दोनों दोस्तों ने फिर इस सदमे से उबरने के लिए फोन पर ही चियर्स किया और अपने अपने कमरे में सुरापान करते हुए सारे गम गलत किए.परिवार के साथ समय बीता.
अब दोनों अपने अपने शहर में फ्रेश हैं नये सिरे से काम पर लौटने के लिए.
सरकार भी चेहरे बदलने और लोगों का ध्यान बंटाने में मगन हो गई है.
रिमोट वही है .. जनता भी वही है.
निष्क्रिय कौन-बस यही समझना बाकी है-वोट न देने वाला या वोट पाकर चुन लिए जाने वाला?
हम हिन्दु हैं,हमहिन्दुस्तानी कायर हैं हल्ला करने को शायर हैं.. तुम खेल सियासी चालों का हम इक टुकड़ा हैं खालों का...
मारो कि हम हैं सहने को अब बचा नहीं कुछ कहने को... क्या शोक जताना काफी है क्यूँ अब भी जगना बाकी है...
-समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस वक्त मैं शोक व्यक्त करुँ या शहीदों को सलाम करुँ या खुद पर ही इल्जाम धरुँ....
-शोक व्यक्त करने के रस्म अदायगी करने को जी नहीं चाहता. गुस्सा व्यक्त करने का अधिकार खोया सा लगता है जब आप अपने सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पाते हैं. शायद इसीलिये घुटन नामक चीज बनाई गई होगी जिसमें कितने ही बुजुर्ग अपना जीवन सामान्यतः गुजारते हैं..बच्चों के सपोर्ट सिस्टम को अक्षम पा कर. फिर हम उस दौर से अब गुजरें तो क्या फरक पड़ता है..शायद भविष्य के लिए रियाज ही कहलायेगा.
----------क्या यही ????????????????? बाकी तो कुछ भी जोड़ लो....वाक्य सार्थक ही बनेगा.
आज खुद अपनी परछाई से घबरा गया हूँ.......
लगे है कि तेरे दामन में आ गया हूँ....................
-----------विशेष टीप:
आज क्षुब्द मन ने किसी भी ब्लॉग पर टीप करना उचित न समझा...अतः उम्मीद है आप समझेंगे.
वाशिंग्टन से वापस टोरंटो आना था. सुबह नाश्ता किया, जरा हेवी सा हो गया तो लंच गायब कर दिया. सोचा, एयरपोर्ट पर कुछ बर्गर वगैरह खा लूँगा फिर रात घर पहूँच कर तो खाना ही है.
४ बजे जहाज..घर से १५ मिनट की दूरी पर एयरपोर्ट. एक घंटे पहले चेक इन. अतः घर से २.३० बजे घर से निकल लिए. रास्ते में ट्रेफिक. एयरपोर्ट पहूँचते ३.२० हो गया. भागते भागते बोर्डिंग गेट पर पहूँचे. बोर्डिंग एनाउन्समेन्ट चल रह था. जल्दी से चेक ईन किया और घुस लिए जहाज में. वाशिंग्टन से ऑटवा. १ घंटे ४५ मिनट की फ्लाईट. फिर वहाँ २ घंटे रुक कर १ घंटे की टोरंटो की.
हवाई जहाज ऐसा कि मानो दवा वाली केपसूल. बीच में गली और दोनों तरफ दो दो सीटें. कुल मिला कर ३६-४० सीटें और बैठने वाले २५-२६ लोग. हमें लास्ट के कोने में सीट मिली बाथरुम के सामने. छोटा हवाई जहाज तो छोटी छोटी सीटें. हम बैठ गये तो जिसे हमारे बाजू में सीट मिली थी, वो आया और हमें देख और बची जगह का अनुमान लगा लगभग घूरता सा दूसरी खाली सीट पर जा बैठा. हम भी पूरा पसर लिये और खींच तान कर सीट पेटी बाँध ली. फैजाबाद से गौंडा तो जा नहीं रहे कोई जीप में बैठकर कि आधा बाहर टंग कर बैठ लें.
बहुत ही खराब मूँह बनाया था उसने दो छोटी छोटी सीटों में हमें एडजस्ट होता देख कर, मानो उसका दिया खा रहे हों. मन तो किया कि उठ के दो चमाट रसीद कर दें कि एक तो तेरे पास खाने को कुछ है नहीं. मरसिड्डा सा धरा है और हमारी सेहत पर नजर लगाता है. अरे खुद कमाते हैं और खाते हैं, तुझे क्या.
बचपन से हमारी अम्मा से सब हमारी तारीफ करते थे कि कितना तंदरुस्त बच्चा है. अम्मा फूली न समाती और तू नजर लगाता है. अम्मा हमें ठिठोना लगा देती थी काजल का कि किसी की नजर न लग जाये.
बस, अम्मा कि याद हो आई. न जाने कहाँ होगी, कौन दुनिया में. याद भी करती होगी कि नहीं. क्या पता? बस, उसी याद में मन किया और जेब से काली स्याही वाला डॉट पेन निकाल कर कान के पास एक ठो ठिठोना बैठा लिए खुद ही से. बुरी नजर से बचे रहें.
अब भगवान का दिया ऐसा रंग कि कोई जान ही न पाये कि ठिठोना लगाये बैठे हैं और काम भी बन गया कि बुरी नजर से बचे. ईश्वर का बड़ा धन्यवाद किए. ऐसे भाग सबके कहाँ?
ठिठोने ने रक्षा की, तबीयत खराब होने से बच गये. उस मूरख का वो खुद जाने हमें क्या. हम तो हवाई जहाज उड़ने के इन्तजार में लग गये.
हवाई जहाज रन वे पर आकर लाईन में लग लिया. देखते देखते घंटा गुजर गया मगर हवाई जहाज लाईन में ही लगा रहा. बहुत मुश्किल से जहाज उड़ा और चल पड़ा ऑटवा की तरफ मूँह उठाये, अमरीका की राजधानी से कनाडा की राजधानी के लिए.
हम भूखाये परिचारिका के खाना लाने का इन्तजार करने लगे हालांकि खरीद कर खाना था मगर भूख से अंतडियां टेढ़ी हुई जा रही थी. हम आखिरी सीट पर. जब तक हम तक वो पहूँची उसके पास सिर्फ ३ बीफ सेंडविच बचे. हालांकि चढ़े ५ वेजेटेरियन, दो चिकिन और बाकी बीफ के थे. मगर कुछ ईश्वर कृपा से और कुछ इन भड़काऊ लोगों के बयानों से जो दिन रात चिल्लाते रहते है कि शाकाहारी खाओ, स्वर्ग पाओ. शाकाहार से वास्ता...स्वर्ग का रास्ता.७ शाकाहारी और चिकिन खाने वाले मिल गये न हमारे पहले ही २६ लोगों की मात्र जनसंख्या में. अब हम क्या खायें??
हम ठहरे शुद्ध हिन्दु-भूखे मर जायें मगर बीफ, जानते बूझते तो न ही खा पायेंगे, भले चिकन खा लें..खा क्या लें, खा ही लेते हैं मगर बीफ..न जी न!! ऐसा नहीं कि स्वाद बुरा होता है. एक बार चिकिन के झटके में खा लिया था. लगा तो बड़ा टेस्टी था, दूसरा लेने गये तब पता चला कि बीफ है. तो अब गंगाजल तो यहाँ मिलने से रहा. बीयर से मुखशुद्धि की और सकॉच से अँतड़ियाँ. तब जाकर बैचेन दिल को करार आया और फिर चिकन खाया तो पेट को कुछ बेहतर लगा था..
भूख ऐसी लगी थी मगर मना कर दिये कि मोहतमा, बीफ तो न खा पायेंगे. एक गिलास पानी ही दे दो, कुछ तो जाये पेट में.
इतना गुस्सा आ रहा था इन शाकाहारी जलूसियों के उपर..और नारे लगा लो. बनवा दिये न ५ ठो यहाँ पर भी. अब हम क्या खायें..बोलो. ला कर दो खाना हवा में. हल्ला बस मचवा लो तुमसे, इन्तजाम करने बोल दो तो कहाँ से आओगे हवा में..बताओ.
ये हाल तो हुआ तब, जब मात्र २६ लोग थे. अगर पूरी दुनिया तुम्हारे बहकावे में आ गई तो एक दिन सब मरेंगे ऐसे ही हमारी तरह भूखे. अरे भाई, ईकोलॉजिकल बैलेंस ठीक रखने के लिए जहाँ कुछ शाकाहारी आवश्यक है, वहीं मांसाहारी भी. ऐसे ही चलती है दुनिया, काहे हल्ला मचाते हो बिना सोचे समझे. वो तो हमारे जैसा ही शरीर है जो झेल गये वरना तो तुम्हारे चक्कर में वाकई स्वर्ग की प्राप्ति हो लेती आज तो.
उस पर से छोटा सा हवाई जहाज. हिचकोले लेते ऐसे चल रहा है जैसे बिना मध्य प्रदेश की रोड याद दिलाये आज मानेगा नहीं. एकाएक एनाउन्समेन्ट हुआ कि सब पेटी बाँध लें, सामने तूफान आ रहा है. ये लो, हम तो समझ रहे थे कि हिचकोले तूफान के कारण है मगर वो तो अभी आ रहा है, अब तो भगवान ही मालिक है.
आँख बंद करके लगे पूजा करने कि प्रभु, बचवा लियो आज. कहीं जहाज गिर विर पड़ा तो ये हवाई जहाज वाले तो कम से कम हमारे केस में मेडीकल रिपोर्ट से सिद्ध कर ही लेंगे कि भूख से मरा है, हावई जहाज गिरने से नहीं. अतः घर वालों को नो मुआवजा.
मुआवजे की तो छोड़ो, वजन की वजह से कहो मरणोपरांत आक्षेप लगा दें कि इनके वजन के कारण गिरा है जहाज, अतः घर वाले जुर्माना भरें. अमरीका है भई!! अपने फायदे के लिए जब सद्दाम को चूहे के बिल से पकड़ा दिखा सकता है तो हमारी क्या बिसात.
बस ऑटवा पहूँच ही गये जैसे तैसे. लेट हो गये तो ऑटवा में भी भागते ही अगला हवाई जहाज पकड़े. फ्लाईट कम समय की होने के कारण-नो फूड. जय हो!!
बस, किसी तरह भगवान से मनाते भूखे प्यासे सिंगल पीस घर पहूँचे तो आपसे मुखातिब हो पा रहे है वरना तो उड़न तश्तरी फुस्स्स्स्स्स्स होने में कोई कसर न थी.
लेसर बी पियरसन एयरपोर्ट. टोरंटो शहर के बीच बसा टोरंटो की शान यहाँ का अंतर्राष्ट्रिय हवाई अड्डा. मैं टोरंटो के पूर्व स्थित एक सबर्ब में रहता हूँ और वहाँ से यहाँ तक आने में लगभग ४०-४५ मिनट लग जाते हैं. लगभग ६० किमी की दूरी आधा शहर पार करते हुए.
काफी बदलाव, साज सजावट की गई है इस हवाई अड्डे की महत्ता बरकरार रखने के लिए और अभी भी काफी काम जारी है. तीन बड़े बड़े टरमिनल हैं और १ नम्बर से अंतर्राष्ट्रिय उड़ाने, २ और ३ से आंतरिक एवं अमरीका की उड़ाने. अमरीका तो लगभग आंतरिक ही कहलाया. पड़ोसी और उस पर लंगोटिया.
आजकल टर्मिनलस को आपस में जोड़ने मोनोरेल भी शुरु हो गई है जिसमें ४ डिब्बे है मगर कोई चालक नहीं. स्वचालित है. शुरु में टेस्टिंग फेज़ में एक ड्राईवरनुमा प्राणी बैठा रहता था, लगता था जैसे वो ही ट्रेन चला रहा हो. लोगों का यह मात्र भ्रम साबित हुआ. ज्ञानी जानते भी थे मगर दिगभ्रमित लोगों को देख उन्हें भी मजा आता था, अतः खुद भी चेहरे पर भ्रम का भाव लिए भीतर भीतर प्रसन्न होते रहते थे.टेस्टिंग पूरी. अब चालक नहीं होता. यह टेस्टिंग प्रक्रिया मात्र ३-४ माह में पूरी हो गई. अब सब जान गये हैं कि मोनोरेल अपने आप चलती है और वो चालक मात्र चलाने का भ्रम पैदा कर रहा था.
और एक हम हैं अब तक भ्रम पाले हैं. ६० साल बीत गये. अभी भी टेस्टिंग फेज़ चालू है. सब सोच रहे हैं कि ये मंत्री देश चला रहे हैं.बहुतेरी जनता तो भ्रमित है और जानकार लोग लोगों के इस भ्रम पर भीतर भीतर मुस्कराते, फायदा उठाते. कब तक परिक्षण चलता रहेगा और हम यूँ ही भ्रमित होते रहेंगे.
आधे घंटे पहले पहुँचा हूँ. काउन्टर पर भारतिय बंदा था. आदतानुसार काम का दिखा अतः मित्र बन गया. कहाँ का रहने वाला है. कब से यहाँ है आदि आदि का आदान प्रदान हुआ और आराम से लगेज चैक इन हो गया है.
सुरक्षा जांच के बाद भीतर चले आये है. भव्य इमारत के उस कोने में जहाँ से हमारी फ्लाईट का गेट है. पूरे १५ मिनल का पैदल रास्ता मगर बेल्ट पर खड़े खड़े. कदम नहीं चलाने पड़े. और क्या चाहिये हमें. हिलना डुलना भी न पड़े और काम बन जाये. इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता.
अभी फ्लाईट में १ घंटे से ज्यादा समय है. फिर शुरु होगी आगे की थकाऊ २० घंटे की हवाई यात्रा २ घंटे ब्रसल्स में रुकते हुए. पत्नि हमेशा की तरह ड्यूटी फ्री शॉपिंग में व्यस्त और मैं हमेशा की तरह अपना कम्प्य़ूटर खोले आपको हाल सुना रहा हूँ.
अभी यहीं तक. पोस्ट करके फिर फ्लाईट पकड़ता हूँ. आगे का हाल भारत पहुँच कर या ब्रसल्स से पोस्ट करने का मौका मिला तो वहाँ से. ब्रसल्स वाले चांसेस तो कम ही मानो मगर आश्वासन देने में क्या जाता हैं. आखिर चुनाव का माहौल चल रहा है कितने ही राज्यों में तो यह अतिश्योक्ति नहीं कहलायेगी.
सुसंस्कृत हैं अतः बेवकूफ को भोला कहते हैं. यही वक्त का तकाजा है.
ऐसे ही सुसंस्कृत प्राणी कल टकरा गये. मोटा कहना ठीक न लगा होगा तो कह उठे कि ’आपकी बॉडी में काफी स्वेलिंग (सूजन) सी लग रही है. तबीयत तो ठीक है न?’
सुसंस्कृत हम भी कम नहीं अतः जबाब में बस इतना ही कहा ’ भाई साहब, जरा एलर्जी है.’
वो पूछने लगे कि ’काहे से एलर्जी है भाई’
हमने भी थोड़ा लजाते हुए बता दिया कि ’एक्सर्साइज (व्यायाम) करने से एलर्जी है’
क्या चल रहा है:
भारत निकलने की तैयारी, पैकिंग, भाग दौड़-मानो मिनट भर का समय निकलना भी मुश्किल सा हो रहा है. न कोई ब्लॉग पढ़ पाया कल सारा दिन और न ही कहीं कमेंट. कल कोशिश करुँगा कि कुछ तो देख ही लूँ.
अभी की सोच:
सोचा है अब से अपने पाठकों से जो टिप्पणी करते हैं, उनसे हफ्ते में एक बार बात की जाये और उनके प्रश्नों का जबाब दिया जाये. इस हेतु, भारत पहुँच कर यह साप्ताहिक स्तंभ शुरु करने की योजना है जिसमें कुछ टिप्पणियों द्वारा व्यक्त शंका का समाधान किया जायेगा.
नया क्या है:
नई पोस्ट तो क्या लिखता. बस, दफ्तर आते जाते ट्रेन में चिन्दियों पर की गई कलम घसीटी में से कुछ को आज फिर समेटा और बस, पेश कर दिया. न जाने कब, कौन सा ख्याल आता जाता रहता है और कागजों पर उतर कर ऑफिस बैग के किसी कोने में फंसा रह जाता है. आपस में कोई तारतम्य नहीं, न कोई संपादन-जैसा उतरा वैसा की अनगढ़ सा पेश कर दिया..शायद कहीं कुछ कहता सा प्रतीत हो तो बताईयेगा.
-१-
आज का ताजा अखबार और आज की ताजा खबरें!!
मोटे मोटे काले हर्फों में लाल लाल खून की जिन्दा तस्वीरें!
ये इंसानी खून भी कितनी जल्दी सूख जाता है लाल ताजा खून काले हर्फों में बदलता है
और
कुछ पलों में इंसान उन्हे भूल जाता है!!
-२-
अब आंख नहीं बस दिल रोता है
मगर
उसके आंसू किसी क नहीं दिखते!!
आदमी, इत्मिनान से सोता है.
-३-
रात का तीसरा पहर कागज, कलम , दवात सब हैं मेरे साथ
जुगनू ठिठक ठिठक कर रोशनी देता गया...
और
मैं सिसक सिसक कर दिल की बात कहता गया....
-४-
फोन की घंटी से मेरी तंद्रा टूटती है
मैं उसकी खुशनुमा यादों की दुनिया से बाहर आ जाता हूँ
फोन पर झुंझलाया सा अनमने ठंग से बात कर फोन काट देता हूँ..
और फिर कोशिश करता हूँ उन्हीं यादों की दुनिया मे वापस जाने की......
ख्याल झंकझोरता है....
ये फोन तो उसी का था!!!
-५-
सुनता हूँ....
घड़ी मेरी सुबह कहती है..
देखता हूँ....
खिड़की के बाहर उजाला भी है....
सोचता हूँ...
फिर आखिर ये रात जाती क्यूँ नहीं.
-६-
देखता था कभी कुछ कांटों भरे तार जो निर्धारित कर रहे थे...
तू पाकिस्तान है और मैं हिन्दुस्तान!!
वही कांटे अब हमारे दिल में उग आये हैं....
मैं हिन्दु हूँ और तू मुसलमान!!
सरहद बांटने वाले कांटे तो फिर भी हटाये जा सकते हैं... किन्तु ये...............
--समीर लाल ’समीर’
बस, आज इतना ही. अब फिर से भारत जाने की तैयारी में जुटता हूँ. ४ दिन ही तो बचे हैं.
कुछ साल पहले, भारत से कनाडा आते वक्त फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में एक दिन के लिए रुक गया. सोचा, जरा शहर समझा जाये और बस, इसी उद्देश्य से वहाँ की सबवे(मेट्रो) का डे-पास खरीद कर रवाना हुए. जो भी स्टेशन आये, मैं और मेरी पत्नी उतरें, आस पास घूमें. वहाँ म्यूजियम या दर्शनीय स्थल देखें और लोगों से बात चीत करें, ट्रेन पकड़ें और आगे. यह एक अलग ढंग से घूम रहे थे तो मजा बहुत आ रहा था. जर्मन न आने की वजह से बस कुछ तकलीफ हो रही थी, मगर काम चल जा रहा था.
इसी कड़ी में एक स्टेशन पर उतरे. बाहर निकलते ही मन प्रसन्न हो गया. एकदम उत्सव का सा माहौल. स्त्री, पुरुष सभी नाच रहे थे रंग बिरंगी पोशाक में.जोरों से मस्त संगीत बज रहा था. संगीत की तो भाषा होती नहीं वो तो अहसास करने वाले चीज है. इतना बेहतरीन संगीत कि खुद ब खुद आप थिरकने लगें.
खूब बीयर वगैरह पी जा रही थी. जगह जगह रंग बिरंगे गुब्बारे, झंडे और बैनर. क्या पता क्या लिखा था उन पर जर्मन में. शायद ’होली मुबारक’ टाईप उनके त्यौहार का नाम हो.
एक बात जिससे मैं बहुत प्रभावित हुआ कि महिलाऐं एक अलग समूह बना कर नाच रही थीं और पुरुष अलग. न रामलीला जैसे रस्से से बंधा अलग एरिया केवल महिलाओं के लिए और न कोई एनाऊन्समेन्ट कि माताओं, बहनों की अलग व्यवस्था बाईं ओर वाले हिस्से में है, कृप्या कोई पुरुष वहाँ न जाये और न कोई रोकने टोकने वाला. बस, सब स्वतः.
सोचने लगा कि कितने सभ्य और सुसंस्कृत लोग हैं दुनिया के इस हिस्से में भी. महिलाओं के नाचने और उत्सव मनाने की अलग से व्यवस्था. इतनी बीयर चल रही है फिर भी मजाल कि कोई दूसरे पाले में चला जाये नाचते हुए. पत्नी महिलाओं की तरफ जा कर एक तरफ बैन्च पर बैठ गई और हमने बीयर का गिलास उठाया और लगे पुरुष भीड़ के साथ झूम झूम कर नाचने.
अम्मा बताती थी मैं बचपन में भी मोहल्ले की किसी भी बरात में जाकर नाच देता था. बड़े होकर नाचने का सिलसिला तो आज भी जारी है. वो ही शौक कुलांचे मार रहा होगा.
चारों तरफ नजर दौड़ाई नाचते नाचते तो देखा ढ़ेरों टीवी चैनल वाले, अखबार वाले अपना अपना बैनर कैमरा और संवाददाताओं के साथ इस उत्सव की कवरेज कर रहे थे. लगता है, जर्मनी के होली टाईप किसी उत्सव में आ गये हैं. टीवी वालों को देख उत्साह दुगना हो गया. कमर मटकाने की और झूमने की गति खुद ब खुद बढ गई. झनझना कर लगे नाचने.
दो एक गिलास बीयर और सटक गये. वहीं बीयर स्टॉल के पास एक झंडा भी मिल गया जो बहुत लोग लिए थे. हमने भी उसे उठा लिया..
फिर तो क्या था, झंडा लेकर नाचे. इतनी भीड़ में अकेला भारतीय. प्रेस वाले नजदीक चले आये. टीवी वालों ने पास से कवर किया. प्रेस वालों ने तो नाम भी पूछा और हमने भी असल बात दबा कर बता दिया कि इसी उत्सव के लिए भारत से चले आ रहे हैं और सभी को शुभकामनाऐं दीं.
खूब फोटो खिंची. मजा ही आ गया. खूब रंग बरसाये गये, कईयों ने हमारे गाल पर गुलाबी, हरा रंग भी लगाया, गुब्बरे उडाये गये, फुव्वारे छोड़े गये और हम भीग भीग कर नाचे. कुल मिला कर पूरी तल्लिनता से नाचे और उत्सव मनाये.
भीड़ बढ़ती जा रही थी मगर व्यवस्था में कोई गड़बड़ी नहीं. स्त्रियाँ अलग और पुरुष अलग. कभी गल्ती से नजर टकरा भी जाये तो तुरंत नीचे. कितने ऊँचे संस्कार हैं. मन श्रृद्धा से भर भर आये. पूरा सम्मान, स्त्री की नजर में पुरुष का और पुरुष की नजर में स्त्री का. एकदम धार्मिक माहौल. जैसे कोई धार्मिक उत्सव हो. शायद वही होगा.
थोड़ी ही देर में भीड़ अच्छी खासी हो गई. प्रेस, प्रशासन सब मुस्दैद. जबकि कोई जरुरत नहीं थी पुलिस की क्यूँकि लोग तो यूँ ही इतने संस्कारी हैं, मगर फिर भी.
अपने यहाँ तो छेड़े जाने की गारंटी रहती है, फिर भी पुलिस वाला ऐन मौके पर गुटका खाने निकल लेता है. मगर यहाँ एकदम मुस्तैद!!
धीरे धीरे भीड़ ने जलूस की शक्ल ले ली. मगर महिलाऐं अलग, पुरुष अलग. वाह!!! निकल पड़ा मूँह से और सब निकल पड़े. पता चला कि अब यह जलूस शहर के सारे मुख्य मार्गों पर घूमेगा. जगह जगह ड्रिंक्स और खाना सर्व होगा. मजा ही आ जायेगा. हम भी इसी बहाने नाचते गाते शहर घूम लेंगे. खाना पीना बोनस और प्रेस कवरेज के क्या कहने. पूरे विश्व में दिखाये जायेंगे.
कई नये लोग जुड़ गये. नये नये बैनर झंडे निकल आये. अबकी अंग्रेजी वाले भी लग लिए. हम भी एक वही पुराना वाला जर्मन झंडा उठाये थे तो सोचा किसी अंग्रेजी से बदल लें. इसलिए पहुँच लिए झंडा बंटने वाली जगह. अंग्रेजी झंडा मिल गया. लेकर लगे नाचने. फिर सोचा कि पढ लें तो कम से कम कोई प्रेस वाला पूछे तो बता तो पायेंगे.
पढ़ा!!!!!!!!!!!!!!
अब तो काटो तो खून नहीं. तुरंत मूँह छिपा कर भागे. पत्नी को साथ लिया और ट्रेन से वापस एअरपोर्ट. मगर अब क्या होना था टीवी और अखबार ने तो अंतर्राष्ट्रिय स्तर पर कवर कर ही लिया.
दरअसल, अंग्रजी के जो बैनर और झंडॆ पढे तो पता चला कि अंतर्राष्ट्रिय समलैंगिक महोत्सव मनाया जा रहा था जिसे वो रेनबो परेड कहते हैं और वो झंडा हमारे हाथ में था, कह रहा था कि मुझे समलैंगिक होने का गर्व है. क्या बताये, कैसा कैसा लगने लगा.
कनाडा के जहाज में बैठ कर बस ईश्वर से यही प्रार्थना करते रहे कि कोई पहचान वाला इस कवरेज को न देखे या पढ़े.
सोचिये, ऐसा भी होता है कि सी एन एन और बी बी सी टाईप चैनल आपको कवर करे और आप मनायें कि कोई पहचान वाला आपको देखे न.
जबकि जरा सा अखबार में नाम आ जाये या टीवी पर दर्शक दीर्घा में भी हों तो एक पोस्ट लिख कर, ईमेल करके, फोन पर सब पहचान वालों को लिंक, स्कैन कॉपी और प्रोग्राम टाईम बताते नहीं थकते.
सब मौके मौके की बात है. टीवी पर तो तुम बम धमाके करके भी आ सकते हो मगर चाहोगे क्या कि कोई अपना तुम्हें देखे.
वैसे अब सोचता हूँ तो लगता है कि इस परेड का अर्थ क्या है? जलूस निकालने और नाचने जैसी आखिर बात क्या है? किस बात की प्रदर्शनी कर रहे हो, क्या बताना चाहते हो?
एक साधारण स्त्री पुरुष तो झंडा उठा उठा कर नाच नाच कर यह नहीं बताते कि हम प्रकृति द्वारा निर्धारित आम प्रवृति के लोग हैं फिर तुम ही क्यूँ यह सब करते हो पूरे विश्व में??
कहीं कुछ कुंठा या हीन भावना तो नहीं?
बताओ न!!!
नोट: इस तरह के संबंधों के प्रति श्रृद्धा रखने वालों की यह कतई खिलाफत न समझी जाये. बस, अपने मन के भाव कहे हैं. अतः वह आहत न हों.
आज शाम भर सोचता रहा कि किस रस में रचना लिखूँ. विचार कई उठे और खारिज होते गये. अधिकतर क्या लगभग सभी का कारण था कि बीबी साथ में है.
देखिये, सोचा विरह गीत लिखूँ मगर कैसे-बीबी साथ में है फिर कैसा विरह और किसका विरह. अतः खारिज.
फिर विचार बना कि वीर रस-मगर फिर वही, बीबी साथ में है तो काहे के वीर. बीबी के सामने तो अच्छे अच्छे पीर तक वीर नहीं हो पाये तो हम क्या होंगे. अतः खारिज.
अब सोचा, प्रेम गीत-मगर बीबी साथ में है. मियां बीबी मे प्रेम तो एक अनुभुति है, एक दिव्य अहसास है, एक साझा है-प्रेम तो इसका एक अंग है और एक अंग पर क्या लिखना. लिखो तो संपूर्ण लिखो वरना खारिज. अतः खारिज.
फिर रहा श्रृंगार रस तो बीबी साथ में है और वो चमेली का तेल लगाती नहीं फिर कैसे होगा पूर्ण श्रृंगार. अपूर्ण पर क्या रचूँ. अतः यह भी खारिज.
बच रहा हास्य रस- तो बीबी साथ हो या न हो. मगर यहाँ ब्लॉग पर हंसना मना है.यह हा हा ठी ठी ठीक नहीं वो भी जब बीबी साथ में हो तो गंभीर रहने की सलाह है. अतः खारिज.
अब क्या करुँ. कई विचारों के बाद नये रस ’टेंशन रस’ की रचना बन पाई यानि किसी भी चीज से बेवजह परेशान. ऐसा होगा तो फिर क्या होगा. वैसा होगा तो फिर क्या होगा. इस तरह की फोकट टेंशन में जीने वाले बहुत से हैं. इस तरह जीना भी एक कला ही कहलाई और जो जिये, वो कलाकार. तो ऐसे सभी कलकारों को प्रणाम करते हुए सादर समर्पित:
चाँद गर रुसवा हो जाये तो फिर क्या होगा रात थक कर सो जाये तो फिर क्या होगा.
यूँ मैं लबों पर, मुस्कान लिए फिरता हूँ आँख ही मेरी रो जाये तो फिर क्या होगा.
यों तो मिल कर रहता हूँ सबके साथ में नफरत अगर कोई बो जाये तो फिर क्या होगा.
कहने मैं निकला हूँ हाल ए दिल अपना अल्फाज़ कहीं खो जाये तो फिर क्या होगा.
किस्मत की लकीरें हैं हाथों में जो अपने आंसू उन्हें धो जाये तो फिर क्या होगा.
बहुत अरमां से बनाया था आशियां अपना बंट टुकड़े में दो जाये तो फिर क्या होगा.
ये उड़ के चला तो है घर जाने को ’समीर; हवा ये पश्चिम को जाये तो फिर क्या होगा.
नियमित प्रक्रिया के तहत सुबह सुबह ६.३० बजे ट्रेन पकड़ी दफ्तर जाने के लिए.
आज जरा जगह बदल गई. वजह, देर से पहुँचना. सामने की कुर्सी पर दो सहेलियाँ, सुकन्यायें. चलो, देर से पहुँचें मगर कोई गम नहीं और कोई नुकसान नहीं.
एक ने पहना था पीला टॉप, तो कान में पीले बूंदे और साथ ब्लैक जिन्स-टाईट फिट. गले में एक महिला कलर का स्कार्फ.
’महिला कलर’- अचरज न करें यह शब्द सुन कर. जैसे ’कहूँगी’ ’मरुँगी’ ’हट्ट’ ’आप बड़े वो हैं’ आदि स्त्रीलिंग हैं अर्थात सिर्फ वो ही बोलती और समझती हैं वैसे ही कई रंग भी होते हैं जो मेरी नजर में पुरुषों की समझ और पहचान से परे हैं. जैसे हम नहीं पहचान पाते कि मर्जेन्टा, बेज़, बरगंडी, धानी, मस्टर्ड आदि रंग कौन से होते हैं. हम इसे महिला वर्ग के लिए रिजर्व मान इस ओर मेहनत तक नहीं करते. उन्हीं में से किसी रंग का स्कार्फ था. पुरुष का काम पांच मुख्य रंगों में चल जाता है.
मुझे इन सब से क्या. वो तो नजर पड़ गई सो बता दिया. मुझे तो अपनी किताब पढ़ना है परसाई जी की ’माटी कहे कुम्हार से’ निकाली बैग से. अपना आई पॉड भी निकाल कर कान में फिट कर लिया मगर ऑन नहीं किया वरना दो सहेलियों की बात कैसे सुनता?? बताओ, कहलाया न होशियार. वो समझें कि हम गीत सुन रहे हैं और हम चुप्पे किताब में आँख गड़ाये उनकी बात सुन रहे हैं.
ईश्वर की विशिष्ट कृपा उस कन्या पर. सुन्दर काया..गोरा रंग और मानक अनुपात शरीर का. मानो ईश्वर के शो रुम का डिसप्ले आईटम हो. हर तरह से फिट और परफेक्ट.
सुना कि जल्दी में निकली तो ब्रेक फास्ट न कर पाई बेचारी. अतः साथ लाई है.
बैग खुला. पहले लिपिस्टिक निकली, वो लगी लगे पर. फिर मसखारा और फिर फेस फाऊन्डेशन, पाऊडर, रुज...मेकअप पूरा हुआ और उसने अपना ब्रेक फास्ट निकाला.
एक बिस्किट, फ्रूट्स में चार अंगूर, फ्रूट ज्यूस...एक ३० मिलि की बोतल. बिस्किट उसने बारह बार में चबा चबा कर खत्म किया..खाया तो क्या, कुतरा. हमारे तो एक कौर के बराबर था. चार अंगूर खाने में कांख गई. चार अंगूर जो हम एक मुट्ठी में फांक जायें. ज्यूस इतना सा कि मानो वाईन टेस्टिंग कर रहे हों.
उस पर से सब खत्म करके हल्की सी डकार भी ली...’एस्क्यूज मी’ न बोलती तो मालूम भी न पड़ता कि डकार ली, मौन की भी आवाज होती है सिद्ध करते हुए. अरे खाया ही क्या है जो डकार रही हो.
हमें तो गुस्सा सा आ गया. उस पर से वो ही गुस्सा सातवें आसमान पर पहूँच गया जब सुना कि इतने हेवी ब्रेक फास्ट के बाद लंच में सिर्फ सलाद खायेगी और उसका डिब्बा दिखाया सहेली को. मानो सिगरेट की साईज के डिब्बे में पूरा सलाद जो लंच में खाया जाना है. साथ में एक उतना बड़ा ही ज्यूस जो अभी खत्म किया है.
अरे, ऐसा भी क्या!!! क्या दुश्मनी है इतनी सुन्दर काया से. मन में तो आया कि गा गा कर अपनी वो जीरो साईज वाली कविता सुनाऊँ उसको. फिर सोचा, जाने दो-क्या बात का बतंगड़ बनाना.
मैं तो उसे अत्याचारी की कटेगरी में ही रखना पसंद करुँगा. नाजायज परेशान कर रही है अपने ही शरीर को.
शाम को डिनर के लिए भी योगर्ट (दही) और प्रोटीन बार रखा हुआ है.
हम सोचने लगे-अरे, हमें तो इसकी दस परसेंट भी रुप रंग और/ या काया मिलती तो आत्म मुग्ध हो रोज सुबह सुबह प्रसाद में खुद को ही एक किलो लड्डू प्रसाद में चढ़ा कर खाते हुए जाते दफ्तर वरना फायदा ही क्या ऐसी काया का कि भूखा मरना पड़े.
हद है फीगर कॉन्सेसनेस की.
स्वास्थय अपनी जगह है और फीगर के प्रति दीवानगी का पागलपन ...वो सिद्ध सा नहीं लगता, न जाने क्यूँ!!
वो अपना मेकअप फिर से कर रही है. समझ नहीं आता कि नाश्ते ने मेकअप का क्या बिगाड़ डाला. और अगर बिगाड़ा भी होता, तो नाश्ते के पहले काहे मेकअप किया था.
हम तो एक बार की क्रीम लगाये अगले नहान के बाद ही लगाते हैं, तब पर भी चेहरा चमकता रहता है. सरासर वेस्टेज करती हैं यह लड़कियाँ भी. कितना मंहगा तो आता है इनका मेकअप का सामान. कुछ तो कद्र करो.
चलो, जो देखा है सो बताया है. अब हम तो अपनी माटी क्या कह रही कुम्हार से, वो पढ़ते हैं.
याद आता है जब पहली बार सीए की ट्रेनिंग करते हुए ऑफिस टूर पर हवाई जहाज से जाना था. पहला मौका था जब हवाई जहाज में चढ़ता. खुशी का तो मानो कोई ठिकाना ही नहीं. अति उत्साहित. जब ऑफिस से बताया गया, उस दिन मंगलवार था और रविवार की रात उड़ान थी बम्बई से मद्रास.
उसी दिन शाम को दफ्तर से निकले तो बस एक धुन. कैसे लोगों से बताऊँ कि हवाई जहाज से जाने वाला हूँ. हॉस्टल के पास सीधे अपनी सिगरेट वाले की दुकान पर पहूँचे. पैकेट लिया और उससे कहा कि यार, शानिवार को तीन-चार पैकेट रख लेना (जबकि उसकी दुकान में मेरी ब्राण्ड की १०-१५ पैकेट तो सामने ही सजी रहती थी हर वक्त.) मद्रास जाना है मुझे. वैसे तो घंटे-१.३० घंटे में ही पहूँच जाऊँगा हवाई जहाज से मगर क्या पता वहाँ रात गये मिले न मिले. मन को बड़ी तसल्ली लगी कि चलो, इसी बहाने इसको बता लिया.
फिर, अपने चाय वाले के यहाँ. यार, जल्दी चाय लगवा दे, निकलना है टिकिट उठाने जाना है. शनिवार को निकल रहा हूँ जरा जरुरी काम से मद्रास हवाई जहाज से. उसी की टिकिट उठानी है, तब तक चाय सर्व भी हो गई. वो तो पहले से ही गरम होती रहती थी.
धोबी, नाई, मेहतर, कमरे में झाडू लगाने वाले से लेकर हर संभव दोस्त को व्यक्तिगत या फोन द्वारा बता ही दिया कि हवाई जहाज से जा रहे हैं किसी न किसी बहाने. रात मैस में खाना खाते खानसामा से लेकर सर्व करने वाले नौकर तक को कोई न कोई बहाने से बताते चले गये.
ये दीगर बात है कि शुक्रवार आते तक ऑडिट कैंसल और हम रह गये पुनः बिना हवाई यात्रा के. दो दिन को यूँ ही नासिक घूम आये और सबको बताया मद्रास वो भी हवाई जहाज से.
झूठ ही सही, एक माहौल सा बन गया. ऐसा मुझे लगा. इस लगने में ही तो हम हर माहौल में खुश दिख लेते हैं, अन्यथा तो दुखों की क्या कमीं चारों तरफ.
अभी चार दिन पहले फोन आया. एशिया टेलीविजन नेटवर्क (ATN) जो कि यहाँ सारे भारतीय टीवी चैनेल पूरे कनाडा के लिए संचालित करता है, उस पर एक काव्य संध्या का आयोजन है और दो दिन बाद स्टूडियो बुलाया गया है. बड़े खुश कि अब टीवी के माध्यम से घर घर पहूँच जायेंगे. सारे हिन्दी भाषी कनाडा में लोग हमें सुनेंगे. तीन चार कविता बिल्कुल कंठस्थ कर डाली.
लोगों को बताने का सिलसिला भी फिर चल निकला. ऑफिस से नाई के यहाँ जाकर कटे कटाये बाल फिर से कटवाये कि टीवी पर शो है. संभाल कर काटना. काटे क्या, कुछ हों तो काटे. मगर जान गया कि टीवी पर जा रहे हैं. अपना काम हो गया.
बॉस को बता दिया कि बुधवार को नहीं आयेंगे टीवी पर शो है. एक महिने बाद की डेड लाईन वाले प्रोजेक्ट की मिटिंग में जबरदस्ती फुदक लिए कि शायद प्रोजेक्ट एकाध दिन डिले हो जाये क्यूँकि कल नहीं आ पा रहा हूँ टीवी पर शो है. वो प्रोजेक्ट तो यूँ भी १० दिन से ज्यादा, पुरानी हरकतों की वजह से, डिले होने वाला है, उसका कोई जिक्र नहीं.
जिस दोस्त का फोन आये, उसे बताये जा रहे हैं कि कल ऑफिस नहीं जा पा रहा हूँ. जाहिर सी बात है कि पूछेगा कि क्या हुआ? और बस, अरे यार, वो टीवी वालों ने रिकाडिंग के लिए बुलवाया है. याने जितने कान, उसमें उतनी अलग अलग मंत्रों से एक ही बात-कल टीवी पर रिकार्डिंग है. कुछ को तो ईमेल पर भी कह दिया कि कल जबाब नहीं दे पाऊँगा, जरा टीवी रिकार्डिंग पर जाना है. जाना दो घंटे के लिए, व्यस्तता ऐसी मानो १५ दिन नहीं दिखेंगे.
खैर, जो व्यस्त नहीं होते वो ही सबसे व्यस्त होते हैं दिखने में-यह मुहावरा भी कोई तो सच करे.
तब बुधवार याने २२ अक्टूबर को रिकार्डिंग हो गई. ४ कवियत्रियाँ और २ कवि उपस्थित थे. सुश्री भुवनेश्वरी पाण्डे, श्री पराशर गौड, सुश्री लता पाण्डे, सुश्री सविता अग्रवाल, सुश्री किरण, एवं हम याने समीर लाल. कार्यक्रम संचालित किया सुश्री कान्ता अरोरा जी ने जो एटीएन की हिन्दी प्रभाग की संचालिका हैं एवं समाजसेवी भी.
सबने अपनी २-२ रचनाऐं पढ़ी और कनाडा में बसे हिन्दी भाषियों को अपना संदेशा दिया. हमने भी लोगों से हिन्दी से जुड़ने के लिए ब्लॉग जगत में आने की अपील की और ब्लॉग खोलने और हिन्दी में टंकण के लिए किसी भी मदद के लिए हमसे संपर्क साधने की अपील की. उम्मीद है जल्द ही ब्रॉडकास्ट होगा.
इस मौके पर एक मजेदार बात यह रही कि जब हम सब कविगण ग्रीन रुम में बैठ कर रिकार्डिंग के लिए स्टूडियो सेट-अप का इन्तजार कर रहे थे तो एटीएन के सौजन्य से चाय और भुवनेश्वरी जी के सौजन्य से बेहतरीन कचौरी और मिठाई का लुत्फ उठाते हुए एक काव्य गोष्टी का आयोजन हो लिया. यह भी बड़ा ही आनन्ददायी रहा. सबने अपनी रचनाऐं सुनाई.
फिर शुरु हुई स्टूडियो में रिकार्डिंग. जगह की कमी के कारण तीन लोग ही एक बैठक में शामिल हो सकते थे. अतः सेट बना दो कवियत्रियाँ और एक कवि का.
हम पहले सेट में थे भुवनेश्वरी जी और लता जी के साथ. दूसरे में पराशर जी, सुश्री सविता अग्रवाल जी, सुश्री किरण जी. दोनों हिस्सों का संचालन सुश्री कान्ता अरोरा जी ने ही किया.
उसी वक्त की कुछ तस्वीरें:
बायें से दायें: भुवनेश्वरी जी, समीर लाल, लता पाण्डे जी और कान्ता अरोरा जी:
सुश्री किरण जी, श्री पराशर गौड जी, सविता अग्रवाल जी एवं कान्ता अरोरा जी:
आज तो आनन्द ही आ गया, जब चिट्ठाजगत में आज जुड़े चिट्ठों के बारे में पता चला. पिछले २४ घंटो में ११७ नये चिट्ठे. अगर इसी तरह यह आंकड़ा चलता रहा तो १०००० चिट्ठों का दिन बहुत दूर नहीं. रोज पोस्टें सैकड़ा पार कर रही हैं. वक्त की अपनी बंदिशें हैं. सभी जगह पहुँच पाना कठिन होता जा रहा है. फिर भी कोशिश यही होती है कि जितना अधिक देख सकें.
एक सलाह सी है, कुछ लोग एक ही दिन में अभी भी चार चार पांच पांच या उससे भी ज्यादा पोस्ट कर रहे हैं. आपको दिनभर लिखना है, दिन भर लिखिये मगर कोशिश करके सबको अगर एक पोस्ट बना कर पोस्ट कर दें तो बेहतर हो जाये.
राजू श्रीवास्तव का लॉफ्टर होता तो वो जरुर कह उठते:
हम तो भरे बैठे हैं. हमारा मूँह न खुलवाओ. उनकी एक पोस्ट पर टिप्पणी लिख ही रहे हैं. सबमिट की कि उन्हीं की दूसरी पोस्ट हाजिर. वो टिपियाये, सबमिट की तो अगली हाजिर. पोस्ट लिख रहे हो कि हमको चिढ़ा रहे हो कि लगे रहो मुन्ना भाई टिपियाने में..हम भी न दौड़ाये तो कहना!!
महाराज!! कुछ तो रहम खाओ, इस काया पर. और साथ ही दूसरों की पोस्ट को भी कुछ देर रह लेने दो पहले पन्ने पर. बस, निवेदन ही बाकि तो जैसा जी में आये और जो उचित लगे, सो करिये.
एक तो लोगों को यूँ ही चैन नहीं. बार बार वही बात कि ये आदमी इतनी टिप्पणी कैसे करता है, क्यूँ करता है, कट पेस्ट करता है, रेडीमेड टिप्पणी चिपकाता है, नेटवर्क बनाता है, टिप्पणी पाने के लिए करता है..
मानो ये सब करके मुझे खजाना मिलने वाला है कि वाह, उड़न तश्तरी-इस साल तुमने सबसे ज्यादा टिप्पणियाँ पाईं तो तुमको नोबल पुरुस्कार दिया जाता है या फिर कोई खद्दरधारी चले आयेंगे कि भाई, बहुत बेहतरीन जनाधार है. आओ मैडम ने बुलाया है, तुमको सरदार बनायेंगे. आज से तुम भारत के प्रधान मंत्री. हम कहेंगे कि मैडम, हम तो चुनाव तक नहीं लड़े हैं और वो कहेंगी कि पहले प्रधान मंत्री बन लो, बाकि सब सेट हो जायेगा. ऐसे जनाधार वाले लोगों को हम नहीं छोड़ते.
हिन्दी चिट्ठाकारी की टिप्पणी साईकिल: वर्तमान परिपेक्ष में:
भई, अपना अपना काम शांति से करो न. कुछ मदद चाहिये तो बताओ. ये क्या है कि वो ये क्यूँ करते हैं. हम तो ऐसा नहीं करेंगे चाहे कोई हमारे द्वारे आये या न आये. अगर इतने ही निर्मोहि हो तो इसमें बताना क्या?
क्या फरक पड़ता है कि शास्त्री जी ने क्या कहा या उन्होंने १० चिट्ठों पर टिप्पणी करने की सलाह दी. अरे, हमसे पूछोगे तो हम १०० पर करने की देंगे और एक दो को जानता हूँ, उनसे पूछोगे तो वो कहेंगे कि एक ही जगह इक्कठे होकर गाली बको. सबकी अपनी सोच है, जो जिसे प्रभावित कर जाये.
सलाहकारों के देश में एक भारतीय मौलिक अधिकार के तहत सलाह ही दी जा रही है अपनी समझ से निवेदन के माध्यम से. मानना है मानो वरना कोई कानून तो पारित किया नहीं है उन्होंने. फिर कैसी परेशानी?
सब सोच की बात है-मान लो तो नये लोगों को जोड़ कर परिवार सुदृढ किया या मान लो नये लोगों को लाकर भीड़ की भभ्भड़ मचवाई दिहिन. जैसा दिल चाहे मानो.
कुछ पंक्तियाँ जेहन में आईं:
वो दूर खड़ा चाँद को कोसता रहा..
रोशन जहाँ उसे रास नहीं आता!!!
खैर, लिखो-और कुछ हो न हो पोस्ट की संख्या तो बढ़ती चलेगी. थोड़ा सनसनी भी मची रहेगी. चहल पहल बाजार की पहचान है शायद कल को व्यापार और सौदे होने लगे तो कुछ फायदा भी हो जाये. इन्तजार तो है ही ऐसे शुभ दिवस का.
एक बार की बात है-एक गांव में एक व्यापारी आया और उसने घोषणा की कि वो बंदर खरीदना चाहता है. हर बंदर के वो १० रुपये देगा.
गांव और उसके आस पास के जंगल में बहुत बंदर थे. गांव वाले बंदर पकड़ पकड़ कर लाने लगे और व्यापारी उन्हें हर बंदर के १० रुपये देता गया. सैकड़ों बन्दर वो खरीदता गया और एक बहुत बड़े पिंजड़ेनुमा बाड़े में रखता चला गया.
धीरे धीरे बन्दर गांव में और आसपास के जंगलों में मिलना बन्द हो गये तो लोगों ने मेहनत करना बंद कर दिया.
फिर व्यापारी ने घोषणा की कि अब वो २० रुपये में बन्दर खरीदेगा. गांव वाले फिर से मेहनत करने लगे और दूर दूर से बंदर पकड़ कर लाने लगे. धीरे धीरे दूर से भी बन्दर मिलना बन्द हो गये. सप्लाई खत्म, सब फिर बैठ गये.
फिर उसने २५ रुपये की बात की. सप्लाई तो खत्म हो चुकी थी. बन्दर पकड़ना तो दूर, दिखना ही बन्द हो गये. अब उसने दाम बढ़ा कर ५० कर दिये. फिर उसे किसी कार्य से शहर जाना था, तो उसने अपने साहयक को अधिकार सौंप दिया और खुद शहर चला गया.
व्यापारी के शहर जाते ही, उसके सहायक ने गांव वालों से कहा कि ये पुरानी खरीद का माल तो शहर में ३५ रुपये में बेचना ही है. अगर तुम लोगों को खरीदना हो तो तुम लोग ले लो और व्यापारी जब वापस आयेगा, तो उसे ५० रुपये में बेच देना. सारे गांव वालों ने अपनी जमा पूंजी लगाकर उससे बन्दर खरीद लिए.
उसके बाद गांव वालों ने न कभी उस व्यापारी को देखा और न ही उसके सहायक को. दिखे तो बस सब तरफ बन्दर ही बन्दर.
अब तो आपको समझ आ ही गया होगा कि शेयर बाजार कैसे चलता है.
(यह कथा एक ईमेल फारवर्ड पर आधारित है)
अब चलते चलते दो कवितानुमा कुछ विचार!!
शतरंज.....
शतरंज के खेल में घोड़ा हमेशा ढाई घर चलता है और ऊँट तिरछा.
चलाते तुम हो चाहो तो घोड़ा एक घर चला दो या ऊँट को सीधा.
लेकिन तुम ऐसा नहीं करते!!
हर चीज के अपने कायदे होते हैं!!!
-0-
कहीं तुम मुझे......!!!
मैं दौड़ रहा हूँ मुझे धावक न समझना! मैं तैर रहा हूँ मुझे तैराक न समझना!!
सब मजबूरियाँ हैं....
मैं हँसता भी हूँ कहीं तुम मुझे खुश तो नहीं समझते!!
यूँ तो मैं सांस भी लेता हूँ, कहीं तुम मुझे......!!!
बीती ११ अक्टूबर की सुनहरी शाम का ६ बजना चाहता था. कभी कभी ऐसा हो जाता है कि सूरज डूबने को होता है और चांद निकल आता है. एक तरफ डूबता सूरज, मानो आज घर जाने को राजी ही न हो और दूसरी तरफ चाँद, आज वक्त के पहले ही हाजिर. कौन नहीं होना चाहेगा जब इतना सुन्दर आयोजन हो राकेश खण्डेलवाल जी के अद्भुत गीतों के संकलन के विमोचन का.
यूँ तो गीत शब्द एक संज्ञा है. जब भी मन के भावों को एक विशेष छंदबद्ध तरीके से शब्दों में ढाला जाता है, तब हम उसे गीत कहते हैं. वो ही अगर बहुत उम्दा भाव, उम्दा शब्द चयन और उम्दा लय के संगम को दर्शाता हो, तो हम गीत रुपी इस संज्ञा में एक विशेषण जोड़ देते हैं, सुन्दर गीत. और यदि उस सुन्दर गीत में भावों को दर्शाने के लिए बिम्ब चयन भी विशिष्ट हो, तब एक और विशेषण लगा कर हम उसे अति सुन्दर गीत निरुपित करते हैं.
किन्तु राकेश भाई के गीतों के लिए ’अति सुन्दर गीत’ एक संज्ञा ही है. वो जब भी अपने दिल के भावों को छंदों मे उतारते हैं, वो स्वतः ही एक अति सुन्दर गीत का रुप ले लेता है और हम सुनने और गुनने वाले कह उठते हैं, ’वाह, अद्भुत’
इस मौके पर एक अन्तर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन का भी आयोजन था, जिसके मुख्य अथिति थे जाने माने साहित्यकार डॉ सत्यपाल आनन्द जी और कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे थे फिलाडेफिया से पधारे विख्यात कवि श्री घनश्याम गुप्ता जी.
राजधानी मंदिर, वर्जिनिया, अमरीका के प्रांगण में कवियों और श्रोताओं का जमावड़ा सा था.
कविश्रेष्ट श्री सुरेन्द्र तिवारी जी, न्यू जर्सी से अनूप भार्गव जी और उनकी कवियत्री पत्नी श्रीमति रजनी भार्गव जी, टोरंटो से मैं स्वयं याने समीर लाल उड़न तश्तरी वाले, वाशिंग्टन से श्रीमति बीना टोड़ी, विशाखा जी, जिन्होंने ने बखूबी कार्यक्रम का संचालन किया, श्रीमति मधु माहेश्वरी जी एवं वाशिंग्टन के ही अनेक कवियों ने अपनी रचनाओं को प्रस्तुत कर श्रोताओं को मंत्र मुग्ध कर दिया.
कार्यक्रम की शुरुवात स्थानीय कवियों के काव्य पाठ से हुई एवं उसके बाद डॉ सत्यपाल आनन्द जी ने किताब का विमोचन किया.
इसी दौरान, मैने इस पुस्तक के प्रकाशक शिवना प्रकाशन, सिहोर के संचालक श्री पंकज पुरोहित ’सुबीर’ जी का प्रतिनिधित्व करते हुए राकेश जी का सम्मान पत्र एवं शाल पहना कर अभिनन्दन किया.
इसके बाद फिर काव्य पाठ का सिलसिला शुरु हुआ जो देर रात जाकर थमा. बीच में राजधानी मंदिर के सौजन्य से विविध व्यंजनों का लुत्फ उठाया गया. आप भी सुनिये.
विडियो अनूप भार्गव जी के सौजन्य से यूट्यूब पर चढ़ाये गये है.
११ अक्टूबर को गीत सम्राट राकेश खण्डेलवाल जी की पुस्तक ’अंधेरी रात का सूरज’ का विमोचन है. हमारे तो खैर वो गुरु जी हैं और हम उनके खास मूँह लगे चेले. न भी बुलाते, तो भी जाते जबरन. मगर पिछले तीन साल से लगातार वो उस कवि सम्मेलन में हमें बुला रहे हैं और हम जा रहे हैं, जिसमें इस साल विमोचन भी होना है. कितना बड़ा सौभाग्य है.
इस बार हम वहाँ तिहरी भूमिका में जा रहे हैं. एक राकेश जी के भक्त शिष्य की, दूसरी शिवना प्रकाशन, सिहोर, जिसने इस पुस्तक का प्रकाशन किया है, उनके प्रतिनिधि के रुप मे और तीसरे हम खुद भी तो कुछ मायने रखते हैं भई.
शिवना प्रकाशन जो हमारे गुरु पंकज सुबीर जी का है, उसके एक विमोचन में मैं सिहोर में था पिछले साल. हटीला जी की पुस्तक ’बंजारे गीत’ का विमोचन था और साथ ही कवि सम्मेलन भी. सारा कार्यक्रम देखा, सुना और सुनाया. बहुत ही सम्मान और अभिनन्दन के साथ होता है विमोचन. बड़ा आनन्द आया था. इस बार उसी परम्परा का निर्वहन मैं करुँगा शिवना के लिए, यह सौभाग्य की बात है. फोटो आदि भी आगे पोस्ट की जायेंगी, मेरे लौटने पर.
यह आय्जन राकेश जी के लिए भावुक क्षण होगा..मेरे लिए भी. अनूप भार्गव जी और उनकी पत्नी रजनी भार्गव न्यू जर्सी से एवं घनश्याम गुप्ता जी जी फिलाडॆफिया से आ रहे हैं इस कार्यक्रम में शिरकत करने. बहुत आनन्ददायी यात्रा रहेगी. ३ घंटे की एक जगह रुकते फ्लाईट है. परसों दोपहर में...निकलेंगे और आनन्द उठायेंगे और आनन्द फैलाना की कोशिश तो खैर रहेगी ही.
राकेश जी के लिए:
हमारे पास तो राकेश जी के हर गीत के लिए एक ही टिप्पणी है: ’अद्भुत’ अब सुनिये पिछली बार इसी जगह हुए कवि सम्मेलन की रिकार्डिंग:
अनेकों शुभकामनाऐं इस कार्यक्रम के लिए. बाकी वहाँ से आकर रिपोर्ट पेश करता हूँ.
This video presentation is courtesy of YouTube. Video Taken By: Sameer Lal. Video camera: SONY Battery used: Nokia Categories: Songs, Movie, Poems
आज रविवार है अतः थोड़ा आराम रहा. सोचा था कि आज कुछ समय निकाल कर लिखा जायेगा. मगर मैने देखा है कि जब भी समय ज्यादा रहता है, सोचा हुआ काम पूरा नहीं हो पाता. पता नहीं क्या वजह है. जब समय कम रहता है तो काफी बड़े बड़े काम निपट जाते हैं मगर खाली वक्त जैसे कुछ करने ही नहीं देता.
दिन भर में सोचता ही रह गया और कुछ नहीं लिखा. कुछ ब्लॉग पढ़े. पुराने दिनों के ब्लॉग एग्रीगेटर पर भी जाना हुआ.लोग लिख रहे हैं और खूब लिख रहे हैं. एक बात सोचता हूँ कि जब इतना लिखा जा रहा है तो लोग एक ही पोस्ट दो दो चार चार ब्लॉग से बार बार क्यूँ पोस्ट करते हैं? क्या उद्देश्य रहता है? और भी कि एक लिखता है, वो एग्रीगेटर पर दिखता है तो दूसरा उसका लिंक बताता है, वो भी दिखने लगता है. संसाधनों का दुरुपयोग सा लगता है.
शिकायत तो नहीं, महज एक विचार है. कभी सोचता हूँ कि गाँधी जी जब जिन्दा रहे होंगे तब उनको जन्म दिन की इतनी मुबारकबाद मिली होगी क्या जितनी हम दिये चले जा रहे हैं. एक बार हो गया भई..१३७ पोस्ट-जन्म दिन मुबारक. फिर ११० इस पर कि शास्त्री जी को याद नहीं किया. फिर ९९ ईद मुबारक तो ८० नव रात्रे की शुभकामनाऐं.
त्यौहार का मौका है. मास्साब बच्चों को समझा रहे हैं-ईद है, गाँधी जयंति है, शास्त्री जी का जन्म दिन है, नवरात्रि है-सब का एक संदेश-भाई चारा फैलाना है. मानो कि भाई चारा न हुआ, रायता हो लिया अमेरीकी अर्थ व्यवस्था जैसा कि फैल जायेगा. चलो फैला भी लोगे-तो समेटेगा कौन?
बच्चा समझने की कोशिश कर रहा है. टीवी दर्शक बच्चा है यानि सीखा सिखाया ज्ञानी. सर, भाईचारा फैल ही नहीं सकता?
’क्या बात करते हो’ मैं उसकी नादानी पर आश्चर्य व्यक्त करता हूँ.
उसका कहना है कि जो चीज है ही नहीं, उसे फैलाओगे कैसे?
मैने कहा कि है कैसे नहीं?
बोल रहा है कि भाई तो पाकिस्तान में जाकर बैठा है, इन्टर पोल तक खोज रही है, वो भी नहीं ढ़ूंढ़ पा रही तो हम आप क्या खोजेंगे फैलाने के लिये. तो भाई तो प्रश्न से बाहर हो लिये. अब बचे चारा, वो अगर होता तो लालू और खा लेते. वेशियों और उन के समतुल्य माने जाने वाली आम जनता के हाथ तो आने से रहा. सी बी आई उसी चारे की तहकीकात कर रही है, उन्हें ही करने दें. फैलाने की बात बाद में करेंगे.
इसी बात में क्लास खत्म होने की घंटी बज जाती है और मैं बहुत शांत महसूस कर रहा हूँ घंटनाद से.
एक गीत लिख देता हूँ, पढ़िये:
स्वर्ग तुम्हें मैं दिलवा दूँगा
स्वर्ग तुम्हें मैं दिलवा दूँगा, मेरा तुम विश्वास करो फर्ज तुम्हारा भूल गये हो, पूरा उसको आज करो.
सोने की चिड़िया होता था भारत वो नीलाम हुआ जिसने जिसने लूटा इसको, उसकी तहकीकात करो.
फरमानों को गाँधी जी के, कैसे हम तुम भूल गये नेताओं आज यहाँ कहते है, अपना घर आबाद करो.
धर्म हमें जुड़ना सिखलाता, डूब के उसको जानों तुम आपस में लड़ते भिड़ते ही, वक्त न तुम बर्बाद करो.
देश हमारा फिर से होगा, सपनों वाला भारत वो, छोड़ो उसको क्या कहता है, तुम अपनी ही बात करो.
कल रात किसी वजह से सोने में ज्यादा देर हो गई और बिना किसी वजह नींद भी जल्दी खुल गई. कुछ देर कम्प्यूटर पर विचरण और चल दिये हमेशा की तरह सुबह ६.१५ पर ऒफिस के लिए. ६.३० की ट्रेन हमेशा की तरह सही समय स्टेशन पर आई और हम सवार होकर निकल पड़े.
थोड़ी देर किताब पढ़ते रहे मनोरह श्याम जोशी जी की और न जाने कब नींद का झोंका आया और हम सो गये. पूर्व से पश्चिम तक १०० किमी में फैले इस रेल्वे ट्रैक पर मेरे दफ्तर टोरंटो डाउन टाउन के लिए पूर्व से पश्चिम की ओर ५० किमी ट्रेन से जाना होता है. दूसरी तरफ फिर ५० किमी पश्चिम की तरफ ओकविल और हेमिल्टन शहर है. मगर मेरी ट्रेन डाऊन टाऊन पहुँच कर समाप्त हो जाती है. आगे नहीं जाती सवारी लेकर.
एकाएक नींद खुली, तो देखा ट्रेन में कोई नहीं है. मैं ट्रेन की पहली मंजिल से उतर कर जल्दी से नीचे आता हूँ, वहाँ भी कोई नहीं. खिड़की के कांच से बाहर झांक कर देखता हूँ. कहीं जंगल जैसा इलाका है जिसमें ट्रेन खड़ी है. मैं दूसरी तरफ की खिड़की से झांक कर देखता हूँ. एक नहर बह रही है और कुछ नहीं. दरवाजे बंद हैं और मै एक अकेला पूरी ट्रेन में. घड़ी पर नजर डालता हूँ तो ८ बज रहे हैं जबकि मेरा स्टेशन तो ७.१५ पर आ गया होगा. बाप रे!! कितनी देर सो गया और किसी ने उतरते वक्त जगाया भी नहीं. मैं थोड़ा सा घबरा जाता हूँ. क्या पता, अब कब वापस जायेगी और पहले तो यही नहीं पता कि हूँ कहाँ?
मन में विचार आया कि अगर शाम को वापस लौटी तब? तब तक मैं बंद पड़ा रहूँगा यहाँ. फिर अगला विचार कि भूख लगी तब? याद आया कि लंच तो साथ है ही. ब्रेकफास्ट भी नहीं किया था कि ऒफिस चल कर खा लेंगे. हाँ, एक केला और ज्यूस भी है. मैं कुर्सी पर फिर बैठ जाता हूँ. भारतीय हूँ, कैसी भी स्थितियों से फट समझौता कर लेता हूँ. मैं बैग में से केला निकाल कर खाने लगा.
इस दौरान विचार करता रहा कि क्या करना चाहिये. एक बार विचार आया कि आपातकाल वाली खिड़की फोड़ कर बाहर निकल जाऊँ मगर फिर सोचा कि जाऊँगा कहाँ? ट्रेक के दोनों बाजू तो तार की ऊँची रेल लगी है. इस शरीर के साथ तो कम से कम उस पर चढ़कर पार नहीं जाया जा सकता है. हाँ शायद चार छः दिन बंद रह जायें तो शरीर उस काबिल ढ़ल जाये मगर तब ताकत नहीं रहेगी कि चढ़ पायें, अतः यह विचार खारिज कर केला खाने लगा.
सेल फोन भी साथ है मगर फोन किसे करुँ और क्या बताऊँ कि कहाँ हूँ? सोचा, अगर लम्बा फंस गये तो घर फोन कर बता देंगे. अभी तो बीबी सोई होगी, बीमारी में खाम खां परेशान होगी. उसके हिसाब से तो शाम ५ बजे तक कोई बात नहीं है, ऒफिस में होंगे. कोई मिटिंग चल रही होगी, इसलिए दिन में फोन नहीं किए होंगे.
खाते खाते केला भी खत्म. मगर हम अब भी बंद. कुछ समझ नहीं आया तो बाजू के कोच में भी टहल आया. हर तरफ भूत नाच रहे थे याने कोई नहीं. रेल्वे वालों पर गुस्सा भी आया कि यार्ड में खड़ा करने से पहले चैक क्यूँ नहीं करते. अगर कोई बेहोश हो जाये तो?? पड़ा रहे इनकी बला से.
बस, ऐसा विचार आते ही गुस्सा आने लगा. गुस्सा शांत करने के लिए ज्यूस निकाल कर पीने लगा. विचार तो चालू हैं कि क्या करुँ? बेवकूफी ऐसी कि तीन पेट भरने के सामानों में से केला खा चुके, ज्यूस पीने लग गये और खाना रखा है मगर सोचो यदि एक दो दिन बंद रहना पड़ जाये कि ट्रेन आऊट ऒफ सर्विस हो गई है तब?? मुसीबत के समय के लिए कुछ तो बचा कर रखना चाहिये. मगर क्या करें इतनी दूर की सोच कहाँ? यह विचार आते ही, आधा पिया ज्यूस वापस बंद कर बैग में रख लिया.
बाथरुम में जाकर पानी चला कर भी देख लिया कि आ रहा है. वक्त मुसीबत पीने के भी काम आ जायेगा, यह सोच संतोष प्राप्त किया.
एकाएक ख्याल आया कि एमरजेन्सी बेल बजा कर देखता हूँ. शायद कहीं मेन से कनेक्ट हो. कोई सुन ले. बस, पीली पट्टी दबा दी. कोई जबाब नहीं. दो मिनट चुप खड़े रहे जबाब के इन्तजार में. फिर खिसियाहट में दबाई और वाह!! एकाएक एनाउन्समेन्ट हुआ कि डब्बा नं. २६२६ में कोई है, चैक किया जाये. जान में जान आई. ५ मिनट में ही अटेन्डेन्ट आ गया. कहने लगा आप यहाँ कैसे? मैने कहा कि भई सो गया था, अब मैं कहाँ हूँ? उसने बताया कि अभी आप पश्चिम में टोरंटो से ४५ किमी दूर ओकविल के बाहर हैं.
मैने उससे कहा कि आपको मुझे जगाना चाहिये था, अब मुझे वापस पहुँचाईये टोरंटो. मैं नहीं जानता कि कैसे पहुँचाओगे मगर यह तुम्हारी जिम्मेदारी है. वो मुस्कराता रहा. शायद मेरे मन में इतनी देर का भय गुस्सा बन कर निकल रहा है, वह समझ गया था.
मैं चिल्लाता गया, वो मुस्कराते हुए सुनता रहा. फिर कहा कि आप बैठ जाईये और हम दस मिनट बाद यहाँ से रवाना होंगे और दो स्टेशनों के स्टॉप के बाद टोरंटो डायरेक्ट जायेंगे. आपको वापस टिकिट खरीदने की भी जरुरत नहीं है, मैं टीसी से कह दूँगा. मेरी जान में जान आई और वो चला गया. दस मिनट बाद ट्रेन रवाना हुई और एक स्टेशन ’क्लार्कसन’ पर आकर रुकी. लोग चढ़ते हुए मुझे पहले से बैठा देख अजूबे की तरह से देख रहे थे कि ये पहले से यहाँ कैसे?
इतने में वो अटेन्डेन्ट भी आ गया. उसके हाथ मे दो कप कॉफी थी. एक उसके लिए और एक मेरे लिए तथा वो रेल्वे की तरफ से मुझसे मुझे हुई परेशानी के लिए माफी मांग रहा था. मैं तो मानो शरम से गड़ गया. फिर टोरंटो भी आ गया और मैं उसे धन्यवाद दे अपने ऒफिस आ गया.
सोचता हूँ कि इसी तरह सोते सोते मेरे देशवासी भी कहाँ से कहाँ तक चले आये हैं और अब कोई रास्ता ही नहीं सूझता है कि करें क्या? तो सब विधाता के हाथ छोड़ बैठे केला खा रहे हैं बिना कल की चिन्ता किये. जिस दिशा की हवा चल जायेगी, जहाँ लहर बहा कर ले जायेगी, चले जायेंगे. अभी तो केला खाओ!!
लगता है मित्रों, अब समय आ गया है कि हम जागें और पीला अलार्म बजायें. उनको सुनना ही होगा हमारी तकलीफें और देना ही होगा हमें कुछ निदान हमारी समस्याओं का. हमें ही हवाओं को और लहरों कों अपनी मंजिल की दिशा में मोड़ना होगा. अपने अधिकार की मांग करनी होगी. ठीक है आज तक हम सोते रहे, गल्ती हमारी है मगर उन्होंने भी तो हमें जगाया नहीं. बल्कि हमारी नींद की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते रहे. कैसे नहीं सुनेंगे हमारी वरना हम प्रतिकार करेंगे क्योंकि हम अब जाग गये हैं.
लड़कियों का दिवस है. बेटियों का दिवस है. कुछ ईमेलों पर इच्छा जाहिर की गई कि बेटियों के इस दिवस पर आप अपनी कलम से कुछ लिखें. इस दिशा में भी उड़न तश्तरी की उड़ान देखने की हार्दिक इच्छा है. अब, क्या करुँ? कईयों से सुझाव मांगे कि इस विषय पर आखिर क्या लिखूँ- कोई भ्रूण हत्या पर लिखने को कहता, कोई दमन पर, कोई कुछ-कोई कुछ.
शाम होने को आई मगर कुछ समझ ही नहीं आया. पत्नी बीमार है, समय भी ज्यादा नहीं मिल पा रहा कि ब्लॉगजगत में ही झांक लूँ और देखूँ, बाकियों ने क्या लिखा है. बस, फिर सोचा कि जो जमाने में देख रहा हूँ वो ही लिख देता हूँ:
जीरो साईज़ के लिए फेमस: करीना
कैसी चढ़ी जवानी बाबा मस्ती भरी कहानी बाबा
भूखी रहकर डायट करती फीगर की दीवानी बाबा
कमर घटायेगी वो कब तक जीरो साईज़ ठानी बाबा
सिगरेटी काया को लेकर सिगरेट खूब जलानी बाबा
डिस्को में वो थिरके झूमे सबको नाच नचानी बाबा
सड़कों पर चलती है ऐसे हिरणी हो मस्तानी बाबा
लड़के सारे आहें भरते सबके दिल की रानी बाबा
गाड़ी लेकर सरसर घूमें ईंधन है या पानी बाबा
बॉयफ्रेंड सब भाग लिये हैं खर्चा बहुत करानी बाबा
शादी करके हुई विदा वो छाई है मुर्दानी बाबा!!
-समीर लाल ’समीर’
बेटियों के इस विशेष दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
ब्लॉगजगत अब इतनी विविधता से भर गया है और ब्लॉगर याने कि यहाँ की जनता इतना कुछ कर रही है कि क्या कहें. जब विचार आया कि चिट्ठाकारी पर चिट्ठाकार को जनता मानते हुआ कुछ गज़लनुमा आईटम लिखा जाये, तब सोचा कि एक गज़ल में साधारणतः ५ या ७ शेर होते हैं तो इतने में कैसे समायेगी ये मेरी इतनी बड़ी दुनिया. फिर दूसरा विचार आया कि जब मेरी अपनी दुनिया है तो जितना चाहो, पैर पसार लो..कोई बुरा थोड़े न मानेगा..तो शेरों की संख्या बढ़ गई..थोड़ी बहुत नहीं..३० पर जाकर भी रोकना पड़ी, वरना एक गज़ल नुमा चीज़ एक किताब माफिक लिखी जा सकती है. जितना ख्याल और अनुभव ने साथ दिया, उतना लिखा..बाकी आप जोड़ लिजिये...फ्री गज़ल है...क्या फरक पड़ता है जोड़ने घटाने में. (ध्यान दिया जाये कि जनता = ब्लॉगर)
जाने क्या लिख लाती जनता उस पर यह इठलाती जनता
सुबह सुबह उठते ही पहले अपनी पोस्ट चढा़ती जनता
टिपटिप टिपटिप जाने कैसे दूजों पर टिपयाती जनता
जो भी इनकी पीठ खुजाये उसकी पीठ खुजाती जनता
दिन भर फिर अपने चिट्ठे पर टिप्पणी गिनने आती जनता
कुछ लोगों को छेड़छाड़ कर टंकी पर चढ़वाती जनता
नर नारी में भेद बता कर लोगों को भिड़वाती जनता
हिन्दु मुस्लिम बात चले जब तेवर बहुत दिखाती जनता.
नये नये आते लोगों को हिम्मत खूब दिलाती जनता
गाली खाने से बचने को सम्पादन अपनाती जनता
भारी भरकम शब्दों के संग साहित्यिक कहलाती जनता
लिखने को जब लाले पड़ते गाने भी सुनवाती जनता.
गाना जिनको समझ न आये फोटो ही दिखलाती जनता
सबसे अच्छा तुम लिखते हो सबको यूँ भरमाती जनता.
मैं आया हूँ तुम भी आना ऐसे ये बुलवाती जनता.
दुनिया भर के मातम लेकर आँसू रोज बहाती जनता
मसला कितना भी पेचीदा हल सबके सुझवाती जनता
भूखा उनको जो दिख जाये दाल भात खिलवाती जनता
भूत विनाशक संग मे रखकर भूतों को डरवाती जनता
मन के भाव कलम से लिखकर लय में उनको गाती जनता
तारीफों के दो शब्दों को गुटबाजी बतलाती जनता
खबर एक और दर्जन खबरी कैसी यह मायावी जनता.
खाना कैसे आप बनायें पाककला सिखलाती जनता
खुल कर जब कुछ कहना चाहे अपना नाम छुपाती जनता
खुद का मूँह बुरके में ढक कर सबका राज बताती जनता.
अब तक जिनको सुना नहीं है उनकी गज़ल सुनाती जनता
जाने किन किन शहरों वाले रस्तों को समझाती जनता.
आपस में कुछ भिड़ जाते हैं झगड़ों को सुलझाती जनता.
जाने कैसे लेख बनाने पन्ने* रोज चुराती जनता. (*डायरी के)
कैसी भी है जैसी भी है हमको बहुत लुभाती जनता.
--समीर लाल ’समीर’
(अब माड़स्साब पंकज सुबीर छड़ी लेकर आयेंगे और गल्ती बतायेंगे...उनकी सौ मार बरदास्त..आखिर मास्साब हैं हमारे..भले के लिए ही बोलेंगे....माड़स्साब आ जाओ..कुछ तो सिखला जाओ!! ३० शेर तक बहर साधते अच्छे खाँ बोल जायें तो हम तो फुस्सु खाँ भी नहीं.!!)
कल एक जरुरी काम से नेता जी के घर जाना हुआ. वहीं से उनकी डायरी का पन्ना हाथ लग गया, साहित्यकार बनने की फिराक में लगा शिष्टाचारी लेखक हूँ सो इस मैदान के सामान्य शिष्टाचारवश चुरा लाया. बहुत ही सज्जन पुरुष हैं. सच बोलना चाहते हैं मगर बोल नहीं पाते. देखिये, उनका आत्म मंथन-उन्हीं की लेखनी से (अभी साहित्यकार बनने की फिराक में लगा हूँ अतः ऐसा कहा अन्यथा लिखता मेरी लेखनी से):
झूठ बोलते बोलते तंग आ गया हूँ. कब मुझे इससे छुटकारा मिलेगा. क्या करुँ, प्रोफेशन की मजबूरियाँ हैं.
रोज सोचता हू कि झूठ को तिलांजलि दे दूँ. सच का दामन थाम लूँ. मगर कब कर पाया है मानव अपने मन की.
दो महिने में चुनाव आने वाले हैं और ऐसे वक्त इस तरह के भाव-क्या हो गया है मुझे? लुटिया ही डूब जायेगी चुनाव में अगर एक भी शब्द सच निकल गया तो.
क्या सच कह दूँ जनता से??
-यह कि तुम जैसे गरीब हो वैसे ही रह जाओगे, हमारे बस में नहीं कि तुम्हें अमीर बनवा दें?
-यह कि मँहगाई बढती ही जायेगी. आज तक कुछ भी सस्ता हुआ है जो अब होगा.
-यह कि मैं तुम्हारे बीच ही रहूँगा? ( तो दिल्ली कौन जायेगा, विदेशों में कौन घूमेगा?)
-यह कि तुम्हारी समस्यायों से मुझे कुछ लेना देना नहीं. तुम जानो, तुम्हारा काम जाने.
-यह कि मैं बिना घूस खाये अगर सब काम करता रहा तो चुनाव का खर्चा और विदेशों में पढ़ रहे मेरे बच्चों का खर्चा क्या तुम्हारा बाप उठायेगा.
-यह कि मैँ हिन्दु मुसलमानों के बीच दरार डालूंगा ताकि मैं लगातार चुनाव जीतता रहूँ.
-यह कि ..यह कि..यह कि....
क्या क्या बताऊँ, लोग तो सभी ज्ञानी हैं, सब समझते हैं. मेरी मजबूरी भी समझ ही गये होंगे.
फिर मैं ही क्यूँ अपराध बोध पालूँ?
आज इतना ही, एक पार्टी में जाना है. देश हित में एक सौदे की बात है. (लम्बी डील है, मोटा आसामी है.)
संपादकीय टिप्पणी: ध्यान दिया जाये कि नेता भाषण कितना भी लम्बा दे ले, लिखता जरा सा ही है.
कहाँ चले, बस नेता जी की डायरी पढ़ाने थोड़ी न बुलाये थे, वो तो घेर कर लाने का तरीका था. अब हमारी मुण्डलियाँ भी सुनते जाओ:
1
नेता जी को चाहिये, वोटिंग मे उत्पात जबहूँ धाँधली न मचे,खा जाते हैं मात. खा जाते हैँ मात कि उनकी हिम्मत देखो बनी रही मुस्कान, कितने भी अंडे फेंको कहे समीर कविराय, जब ये जीत के जाये रंग बदलते देख इन्हें, सब गिरगिट शरमाये.
2
डूबे कितने गाँव सब, बाढ चढ़ी इतराये नेता जी इस बार भी, पैसा खूब कमाये. पैसा खूब कमाये कि इनका किससे है नाता जो भी रकम दिलाये वही इनको है भाता कहे समीर कविराय, यही ईमान है इनका पैसे का सब खेल, वही भगवान है इनका.
3
इनकी क्या हैं नितियाँ, इनका क्या व्यवहार ये बस उनके साथ हैं, जिनकी हो सरकार जिनकी हो सरकार वही है काम में आता मौके की है बात, मंत्री पद मिल जाता कहत समीर कि इनमें शरम नहीं है शेष अपने हित के वास्ते, ये बेच रहे हैं देश.
आम शिकायत: समीर जी टिप्पणी में बस इतना सा लिख कर निकल जाते हैं-अच्छा है!! बहुत खूब!! बधाई!! जारी रहें!! शाबास!! बेहतरीन!! सटीक!!
उदाहरण -१
सड़क पर बिखरा
लाल रंग
-कहीं किसी नादान का
खूँ तो नहीं!!
अब इस पर क्या टिप्पणी करें सिवाय यह कहने कि-मार्मिक!!
क्या चाहते हो कि इस कविता पर ऐसी टिप्पणी लिखने लगें-
आपकी कविता पढ़ी. गीता पर हाथ रख कर कसम खाता हूँ कि पढ़ ली है, तब टिप्पणी करने निकला हूँ. उम्मीद है आपने जीवन में खून कई बार देखा होगा और सिन्दुर भी. फिर क्या वजह है कि आप पहचान नहीं पा रहे कि यह रंग जो बिखरा हुआ है, वह खून है कि नहीं. वैसे इसे और अद्भुत काव्य बनाने के लिए आप कह सकते थे कि
इसे किसी का खून न कहो, यह तो किसी के माथे का सिन्दुर बिखरा है.
बात गहरी हो जाती. यानि एक आदमी मरा और उसकी बीबी के माथे का सिन्दुर बिखर गया.
कोई खून खराबा हुआ होता तो हादसे की जगह के आसपास भीड़ दिखाई देती. देर से ही सही, पुलिस भी आती. साथ ही खूँ (खून लिखने का साहित्यिक तरीका) देखकर यह पता कर लेना कि यह किसी नादान का है या बदमाश का, माफ करियेगा मित्र-अभी विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की है. मैं आपकी इस शब्द के इस्तेमाल पर भर्त्सना करता हूँ तथा अपना मतभेद दर्ज कराता हूँ.
साथ ही मुझे तो लगता है आपको दृष्टि दोष है. साथी ब्लॉगिया होने के नाते मैं इसे अपना फर्ज समझता हूँ कि आपको किसी अच्छे नेत्र चिकित्सक को दिखलाने की सलाह दूँ. एक बार दृष्टि पर काबू कर लें, फिर कलम काबू में लेने का पुनः प्रयास करें, सहायता मिलेगी. मेरी बातों को अन्यथा न लें, बस सलाह मात्र है.
आपका पाठक एवं टिप्पणीकर्ता: समीर लाल. साथ ही एक नोट: कृप्या ध्यान दें कि यह टिप्पणी मैने बिना पलट टिप्पणी पाने की चाह से की है. कृप्या इसके बदले में मुझे टिप्पणी न करें और न ही इसे मेरा विज्ञापन माने.
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उदाहरण -२
या फिर किसी ने यू ट्यूब पर गीत पेश किया:
फिल्म परदेश का-जरा तस्वीर से तू, निकल कर सामने आ!!
हम क्या कह सकते हैं सिवाय इसके कि सुन्दर गीत या अच्छा लगा सुनकर!!
आपके कहे पर चलें तो कुछ यूँ शुरु हो जायें:
आपने यह गीत फिल्म परदेश का चुना है, उसे पहले भी मैं कई बार सुन चुका हूँ. तीन बार यह फिल्म देखी है. यह गीत मुझे बहुत पसंद है. हमारी आपकी पसंद कितनी मिलती है, सेम पिन्च!!
वैसे अगर आप गीत के साथ इसके संगीतकार, रचयिता और कोरियोग्राफर का नाम भी देती तो आनन्द दूना हो जाता, जानना तो मैं यह भी चाहता था कि तबला किसने बजाया है और ज्ञान में इजाफा भी होता जिसके लिए हम ब्लॉग पर आते हैं. अगर इसके नोट्स मिल जाते तो मैं की बोर्ड पर बजा कर देख लेता जैसे मैने कोशिश की है:
Notes: s r2 g2 m1 p d1 n3 S Kisi Roz Tumse Mulakat Hogi p.s g r s r p.n.r s n.s G.C D# D C D G.B.D C B.C Meri Jaan Us Din Mere Saath Hogi p.s g r s r p.n. r s n.s G.C D# D C D G.B. D C B.C
आदि आदि. की बोर्ड सीखने के उत्साही ब्लॉगरों का भी भला हो जाता.
एक बात पर बहुत दुखी हूँ कि आपने संपूर्ण महिला समाज को नजर अंदाज करने वाले इस गीत का चुनाव किया-देखिये बीच गीत में एक जगह गुब्बारे उड़ाये जाते हैं मगर उसमें महिलाओं को प्रतिनिधित्व करता गुलाबी रंग का एक भी गुब्बारा नहीं है. नारियों को इस तरह नजर अंदाज करना कतई भी उचित नहीं है और मैं नारी संगठन की ओर से इसका पुरजोर विरोध करता हूँ एवं गाने में नायिका को घूंघट में दिखाया गया है जो कि इस नरवादी समाज द्वारा नारी की स्वतंत्रता पर सीधा वार है और नारी पर की जा रही पुरुष समाज की प्रतारणा का जीता जागता नमूना. आखिर शाहरुख खान का मूँह क्यूँ नहीं ढका गया सिर्फ इसलिये कि वो पुरुष है और महिमा चौधरी नारी. आपको जबाब देना होगा कि आखिर आपने यह गीत किस उद्देश्य से चुना.
साथ ही आपने हिन्दी का अपमान करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है-गीत के बीचों बीच:
O Blood Dy Dy Dy O Blood Da Da Da O Blood Du Du Du We Love You...
यह आपका विदेशी भाषा प्रेम नहीं तो क्या है. आज आपके इस चयन से हिन्दी अपमानित हुई है. हिन्दी सुबक रही है. हम चुप नहीं बैठेंगे. हम हिन्दी को उसका अधिकार दिलवा कर रहेंगे. आंदोलन करेंगे. मैं आज इस मंच से आपके सामने खुला प्रश्न रखता हूँ कि क्या आपको ऐसा कोई गीत नहीं मिला जो पूरा शुद्ध हिन्दी में हो??
दीगर इन ऐतराजों के, मैं आपको साधुवाद कहने से भी गुरेज नहीं करुँगा कि आज जब हर तरफ संप्रदायिक्ता की आग भड़की हुई है, ऐसे वक्त में शाहरुख खान(मुसलमान) और महिमा चौधरी(हिन्दु) की प्रेम कहानी हिन्दु मुसलमान के परस्पर प्यार का सुन्दर संदेश देती है. उनका प्यार देख आँख नम हुई जाती है. यह गीत सचमुच संप्रदायिक सदभावना के लिए प्रेरित करता है.
और भी अन्य बातें हैं टिप्पणी में लिखने को, वो फिर कभी. न तो यह मेरा विज्ञापन है और न ही इसे पढ़कर आगे से आप मेरे ब्लॉग पर आने वाली हैं. अतः टिप्पणीधर्मिता पर यह टिप्पणी खरी उतरेगी.
******* अब बताईये क्या करुँ-रोज सुन सुन कर कान पक गये-समीर जी टिप्पणी में बस इतना सा लिख कर निकल जाते हैं-अच्छा है!! बहुत खूब!! बधाई!! जारी रहें!! शाबास!! बेहतरीन!! सटीक!!
निकल जाते हैं तो ठीक हैं निकल जायें. कम से कम खबर तो दे जाते हैं कि आये थे. आपका तो पता ही नहीं चल पाता कि आये थे. कितना धीरे से निकलते हो यार!! क्या चाल पाई है कि तनिक भी आवाज नहीं!! वाह!! आशिकों के गली के वाशिंदे दिखते हो.
मैं तो ऐसे शिकायतपीरों को भी जानता हूँ-जिनके सामने से चुपचाप निकल जाओ तो कहते हैं बहुत घमंड है, नमस्ते तक नहीं करता. नमस्ते करो तो कहते हैं पैर नहीं छूता. पैर छू लो तो हाल नहीं पूछा. हाल पूछो तो घर वालों का हाल नहीं पूछा-हद है यार!! मन तो करता है कि वहीं खटिया डाल कर बैठ जाऊँ और तब तक बात करता रहूँ, जब तक अगला ही चट कर न चला जाये. फिर दूसरे को साधूं.
खुद कुछ करना नहीं, न हिलना न डुलना और न किसी के यहाँ जाना...दूसरा करे तो परेशानी कि पेड़ की डाली पर टंगे नजर आते हैं, फलानें के साथ गुटुरगूं करते हैं, आँख मींचे हैं, पढ़ते नहीं यूँ ही बिना नजर मिलाये नमस्ते कर गये, काव्य गोष्टी के संस्कार यहाँ ले आये..जबकि यह तो मंदिर है, भजन में वाह वाह थोड़े न होती है, चश्मा लगाये हैं, सफेद शर्ट पहन ली, फुल पेन्ट पहनें हैं-याने कि कुछ न कुछ समस्या निकल ही आयेगी हर बीस पोस्ट के बाद.
कई बार सोचा कि चलो जाने दो-बीमार होगा या किसी हीन भावना से ग्रसित होगा या कोई कुंठा की ग्रन्थि सटपटा रही होगी या नाराज होगा किसी बात पर या टिप्पणी न पा पाने पर उदास(जायज कारण है-इस पर हम आपके साथ हैं) या समयाभाव एवं आलस्यवश टिप्पणी न कर पाने की तिलिमिलाहट और अपने इस व्यस्त दिनचर्या एवं नाकारेपन को सिद्ध करने की कुतर्की कोशिश-कुछ भी हो सकता है, हमें क्या करना. मगर रोज रोज-कुछ ज्यादा ही हो गया.
जरा सोचो, समझो मेरे भाई कुछ भी लिखने पढ़ने के पहले.
न समझ आये तो न सही. मौन धर लो. शायद कोई ज्ञानी ही समझ लेने की गल्ती कर बैठे. बड़े बड़े लिख्खाड़ बैठे ही हैं मौन धरे और हम उन्हें ज्ञानी समझे मौन व्रत तुड़वाने के प्रयास में कलम घिसे जा रहें हैं.
आप भी मौन रख लो और हमें जो समझ आयेगा, लिख देंगे.
कितना मन लगा कर कल लिखा होगा कि पीठ खुजाओ पीठ खुजाओ-लिखने के पहले निवेदन तो ठीक से पढ़ लेते मेरे भाई. हम अपने लिए टिप्पणी नहीं मांग रहे हैं, हम दूसरों को प्रोत्साहित करने की बात कर रहे हैं.
कहना है हम तो खाना(टिप्पणी) मांगते नहीं, फिर काहे प्लेट(टिप्पणी बाक्स) लिए घूम रहे हो भाई कि शायद कोई खाना डाल जाये तो खा लेंगे? बिल्कुल सही, ऐसे ही शर्मीले लोगों के लिए हम निवेदन कर रहे हैं औरों से कि कहीं वो भूखे ही साफ सुथरी प्लेट लिए घूमते ही न रह जायें.
आप सुकून से सोईये अपने आलस्य और मजबूरियों को तर्कों की रजाई से ढककर, कहीं ब्लॉगजगत में बहती ठंडी हवा न लग जाये-जब कभी बीच में नींद टूटे तो एक पोस्ट ठेल देना कि फलाना गलत कर रहा है और साथ में एक कवितानुमा कुछ:
ब्लॉगर महाराज की जय प्यारे समीर और शास्त्री जी की जय ब्लॉगवाणी और चिठ्ठाजगत की जय पूरे हिन्दी ब्लॉगिंग की जय
-फिर से अच्छी नींद आ जायेगी.
शुभ स्लीप!!
नोट: उपर वाली कविता (स्वरचित) एवं गाना, मात्र अपनी बात स्पष्ट करने को ली गई है. इसे ब्लॉग पर पेश करने वाले कृप्या आहत न हों. मैं तो नहीं हुआ. आशा करता हूँ आप भी नहीं होंगी. :)
पत्नी स्त्रियों की बीमारी से ग्रसित आज शल्य चिकित्सा के तहत अस्पताल में भरती कर ली गई. सुबह ६.३० बजे से बुला लिया था चिकित्सक महोदय ने. कागजी कार्यवाही एवं अन्य आवश्यक खानापूर्ति करते ८ बज गये और शल्य चिकित्सा प्रारंभ हुई. पूरे दो घंटे चली.
हम बाहर बैठे रहे और वहीं अस्पताल की लायब्रेरी से उठाकर फिलिस्तीन की क्रान्ति पर लिखी एक किताब का अध्ययन करते रहे. घर से ही थर्मोकप में ले जायी गई चाय के गरमागरम चुस्कियों के साथ. बरसों चली इस क्रांति का सार दो घंटों में निपटाकर संतुष्टी को प्राप्त हुए-क्या फरक पड़ता है जब बरतन दूसरे घर के फूटे. बल्कि मजा ही आता है और च च च!! जैसा अफसोस भी पूरे सुर ताल में रहता है. लगता है कि आपसे ज्यादा कोई दुखी नहीं..भले ही वो इस क्रान्ति में अपना सर्वस्व लुटा बैठा हो.
डॉक्टर ऑपरेशन करके बाहर आ चुका है. मुझसे बात कर ली है. पत्नी की हालत सामान्य है. एनेस्थिसिया का असर है, अतः होश नहीं है और शायद अगले ४ घंटे लगें जब होश आ पाये. हद है, जिसे होश नहीं है, उसकी हालत सामान्य?? भारत की जनता याद आई, मन मान गया. डॉक्टर में विश्वास जागा मात्र इसलिए कि अविश्वास से कोई फायदा नहीं. वो डॉक्टर ही रहेगा और मैं बीमार या बीमार का परीजन..पुनः मेरा भारतीय होना काम आया. मैं निश्चिंत हो गया. स्थिती से तुरंत समझौता कर लिया.
अगले ३ से ४ घंटे फिर इन्तजार करना था, जब वो कुछ होश में आये और उसे कमरे में स्थानान्तरित किया जाये. मैं अपने लिए एक कॉफी खरीद लेता हूँ-एकदम ब्लैक कॉफी. मूँह मे कड़वहाट भर दे मगर अंतरआत्मा को जगा कर रख दे. सब ऐसे ही जागे हैं मेरे देश में..कितने ही हैं जो मूँह में कड़वाहट भरे पूर्ण जागृत अवस्था का नाटक रचे घूम रहे हैं. मैं भी उनमें से एक हो गया तो क्या?? कौन नोटिस करेगा-और कर भी लेगा तो मेरा क्या हो जाने वाला है, जब लगभग सौ करोड़ का कुछ नहीं हुआ.
खैर, अब चार घंटे काटने के लिए मैने फिर अस्पताल की लायब्रेरी में किताब तलाशी. जहाँ फिलिस्तीन की क्रान्ति वाली किताब वापस रखी (जहाँ से उठाई थी), उसी के बाजू से ’इजराईल का अपना पक्ष’ वाली उठा ली. न जाने क्यूँ, लायब्रेरी हो या किताब की दुकान..दो विरोधी पक्ष आसपास ही क्यूँ जमाती है-क्या झगड़ा लगवाना इनका उद्देश्य है या कुछ और?? दुकान और लायब्रेरी हो या हमारे भारतीय नेता?
निश्चित ही इज़रायली का अपना पक्ष पर लिखी किताब फिलिस्तीन की क्रान्ति पर लिखी किताब से ज्यादा मोटी थी. हो भी क्यूँ न, पैसे वालों का पक्ष, जिन्हें बड़े बड़े गुण्डों का समर्थन हासिल हो, हमेशा़ भारी ही रहता है. फिर यहाँ तो अमरीका का समर्थन हासिल है. उससे बड़ा....कौन?? ज्यादा दस्तावेजी प्रमाणों से लैस. और उसे पढ़ने को मेरे पास समय भी ज्यादा ही था..रहना भी चाहिय..यही प्रभावी और पैसे वालों के प्रति आम शिष्टाचार की मांग भी है.
मेरे पास समय इतना कि लगभग दुगना. शल्य चिकित्सा, मुख्य भाग, में दो घंटे लगे..और रिकवरी में ४ घंटे लगने थे.आप समझ रहे होंगे क्यूँकि सामान्यतः यही होता है हमेशा!!! रिकवरी प्रोसेस हमेशा अपना समय लेती है, पूर्ववत स्थिती में आने को..पूर्ववत स्थिती की अहमियत का अहसास दिलाने.
इजराईल का पक्ष पढ़ा. अन्तरसात किया. जी मतलाया..वोमिट फीलिंग हुई थ्रो आउट वाली-बहुत समय पहले रशियन वोदका बिना जिन्जरेल के पीने पर ऐसा ही महसूस किया था ..मगर इम्प्रेस हुआ..इम्प्रेशन-अच्छा या बुरा..यह कहने वाला मैं कौन..मात्र एक पाठक की मामूली सी हैसियत.कोई आलोचक तो हूँ नहीं...आमतौर पर, पैसे वालों का और पॉवरफुल लोगों का पक्ष इम्प्रेस करता ही है. वो लिखा इसी उद्देश्य से जाता है.
यूँ अगर अलग नजरिये से आप देखना चाहें तो आपकी मरजी. मैं तो बस एक वृतांत पेश कर रहा हूँ पत्नी की ऑपरेशन के दौरान जो दिन गुजरा उसका.
एक नजरिया यूँ ही सही कि ऐसी क्रांति में झेलन पक्ष ( जो आम नजरों में झेल रहा है मगर सही मायनों में झिलवा रहा है) ज्यादा संवेदनशील प्रमाणपत्रों और पक्षों से लैस रहता है. मेरा लड़का है, इसका मेरे पास क्या प्रमाण पत्र होगा मगर अगर और कोई क्लेम करेगा तो वो डी ऎन ए रिपोर्ट से लेकर न जाने कितने फोटोग्राफ्स से लैस होगा कि चक्कर ही आ जायें. पाकिस्तान का हाल नहीं देख रहे हैं कश्मीर के मामले पर?? अब भी कोई प्रश्न है क्या?
क्या सही, क्या गलत!!! किस किस को रोईये..रो ही लेंगे तो खुद ही अपने आंसू पोछिये... छोडिये सब..बस, पत्नी की तबीयत देखिये, वो ही अपनी है..उसी से फरक पड़ता है, बाकि तो बस टाईम पास...चाहे प्रलय आ जाये..किसे बचाने भागियेगा... सोचो कुछई..भागोगे बीबी को बचाने ही न!!
खैर, वो कमरे में आ गई है. वेस्ट विंग का कमरा नं. ४००९. आलीशान कमरा..समृद्ध देश का समृद्ध अस्पताल...और मरीजों के लिए पेश किया खाना..मानो कोई अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन अटेंड कर रहे हों. मरीज के साथ वालों के लिए हाई फाई स्नैक, ज्यूस..और न जाने का क्या क्या विथ डिजर्ट.
उपरी मंजिल पर कमरा. अस्पताल जो एक बहुत विशाल प्रांगण में बना हुआ है..उत्तर में दो मील तक सिर्फ घास का करीने से कटा मैदान..दक्षिण में भी दो न सही डेढ़ मील का तो कम से कम...कमरे से खिडकी से दिखता दक्षिणी छोर...बीच मैदान में एक हैलीपैड..हैलीकाफ्टर से लाये गये मरीजों के लिये-लोहे की जाली से घिरा अहातानुमा... कुछ दूर पर इलेक्ट्रीक रुम और एक अन्य कोने में लगा प्रोपेन टैंक..अस्पताल की गैस सप्लाई के लिए... मैदान के दोनों ओर सड़क.
देखता हूँ सामने वाली सड़क से एक कन्या को मैदान में आते. सोचने लगता हूँ इतनी लम्बी दूरी और पैदल..दूसरी तरफ भी याने उत्तर में दो मील और, तब अगली सड़क पर पहूँचेगी. मैं सोच ही रहा हूँ और वो चलते चलते हैलीपैड का मुआयना करती, हेलिकाफ्टर को निहारती (सोचता हूँ मैं अकेला नहीं हूँ जो हेलिकाफ्टर और हवाई जहाज देखकर आनन्दित हो उठता है), इलेक्ट्रीक हाउस को पार कर, प्रोपेन सिलेंडर से किनारा कर गुम हो गई उत्तर मे..जल्द ही सड़क पा लेगी जो उसकी रफ्तार दिखी. मैं बस सोच ही रहा हूँ तभी उल्टी दिशा में जाता आदमी भी दिख गया..और जल्द ही दक्षिणी सड़क पर पहूँच भी गया. शायद पहला कदम जरुरी रहा होगा और फिर सब फासला तय हो गया.
मैं आल्स्यवश बैठा अस्पताल में, बस सोच रहा हूँ कि कैसे चल लेते हैं यह इतना.
एक स्वास्थ्य के प्रति जागरुक श्रेणी के लोग और एक हम आलसी..बस, सोच की दुनिया में जीते.
शायद यही कारण होगा कि वो दक्षिणी छोर से घुसी और उत्तरी छोर से निकल गई..आस्पताल को पार करती हुई-अस्पताल में रुकने की कोई जरुरत नहीं और हम अस्पताल में बैठे हैं बीमार या बीमार के साथ. जल्दी कुछ इस तरीके का टहलना न शुरु किया तो यहीं लेटे नजर आयेंगे.
कितना अंतर है किसी कथा को लिख देने में और उसे जीने में. टहलना एक आलसी के लिए मनभावन बात नहीं है अतः सरल साहित्य के तहत राही मासूम रज़ा की किताब ’टोपी शुक्ला’ पढ़ने लगता हूँ. कुछ आनन्द का अनुभव होता है टोपी की बातें सुन "तुम मुसलमान हो क्या इफ्फन?- हाँ- और तुम्हारे अब्बू, क्या वो भी मुसलमान हैं?? :)).. बालमन, नादान गहरी बातें और हम सोच की उथली सतह पर ही टहल रहे हैं.
नोट:शायद आप समझ गये होंगे कि मेरी टिप्पणियाँ क्यूँ नहीं दिख रही हैं. कम से कम यह राजशाही की तरफ बढ़ता कदम तो कतई नहीं है, बस एक पारिवारिक जिम्मेदारी है.
यह मुहावरा हमारे कालेज के दिनों में हमारे मोहल्ले से ही हमारी कोख से जन्मा था. आसिफ, हमारे बाल सखा और रजिया उनके पड़ोस में रहने वाली सुन्दर कन्या. यूँ तो आसिफ का पड़ोसी होने के कारण उनके घर आना जाना था मगर उनके मन में उपजे रजिया के प्रति प्रेम को वो मात्र हम दोस्तों के बीच ही बखान कर पाते थे. रजिया को छूना तो दूर, कभी सीधे नजर मिला कर बात भी न कर पाते, मन में चोर जो था. मगर अरमान ऐसे कि रजिया के नाम पर किसी से भी लड़ जायें. रजिया रोजा रखे, दुबले ये हों टाईप.
एक रोज रजिया के अब्बू गुजर गये. वो क्या गुजरे मानो आसिफ की लाटरी ही लग गई. खूब गले लगा लगा कर चुप कराया रजिया को. जितनी बार उसकी सिसकी फूटे वो आसिफ का कँधा सेवा में हाजिर पाये. आँसू पोछे गये, बालों को सहला कर ढाढस बंधाया गया गोया कि जितना संभव था, उससे भी ज्यादा आसिफ मियाँ ने मौके का फायदा उठाया. वहाँ साथ में रोयें और दोस्तों के बीच आँख दबा दबा कर हंसते हुए किस्से सुनाये. हालात ये हो गये कि दिन गुजरने के साथ उनके परिवार का मय रजिया के रोना बंद हो गया तो भी आसिफ मियाँ उनके घर जाकर अब्बू का किस्सा छेड याद में स्वयं रोने लगें. रजिया और उसकी अम्मा को भी मजबूरी में रोना पड़े और फिर आसिफ मियाँ को चुप कराने का मौका मिले.
कुल कथा का सार कि जब लोगों को मौका मिलता है, वो अपने मन की कर ही लेते हैं.
दो दिन पहले हमने पोस्ट लिखी कि हम थके हैं, दुखी हैं और कुछ पढ़कर अपने लेखन में कुछ सु्धार लाने के आकांक्षी. बस, मानो कि मौका हाथ लगा लोगों के. बहुतो ने क्या अधिकतर ने तो वाकई बहुत दुख जताया, मान मनोहार किया. सो तो खैर रजिया के यहाँ भी बहुतों नें किया था वाकई दुख व्यक्त.
मगर कुछ ऐसे दुख व्यक्त किये कि समझ ही नहीं आया कि मना रहे हैं, समझा रहे हैं, कविता लिख रहे हैं, धमका रहे हैं, डांट रहे हैं कि लतिया रहे हैं. कुछ की टोन तो ऐसी भी रही कि ठीक है, ठीक है-रो गा के जल्दी फुरसत हो लो. हम आते हैं अभी तुम्हारे लिए ड्रिक बनाकर (वो भी हमारी पसंदीदा-स्क्रू ड्राइवर- ऐसा प्रलोभन कि ज्यादा देर रोना भी भारी लगने लगा).
मास्साब पंकज भाई भी मौका ताड़े और इतने दिनों से जज्ब दिल की बात कह गये कि हमारे यहाँ का सबसे होशियार (शरारत में) छात्र और उधर हमारी छोटी बहना विनिता मनाते हुए कह रही हैं कि बुरा मत मानना मगर आप सत्या फिल्म के कल्लू मामा के जैसे दिखते हो-लो, एक तो हम पहले ही बुरा माने बैठे हैं तो सोचा होगा कि मान भी जायें तो क्या-एक दिन और नहीं लिखेंगे. मुर्दे पे क्या नौ मन माटी और क्या दस मन माटी. इतना हक तो बनता ही है छोटी बहन का. सही है, तुम्हें तो हक हईये है.
प्रिय ई-गुरु राजीव ने एक ही बार में मनुहार, अपना ब्लॉग खोलने का एजेंडा, फ्यूचर प्लान, शिकायत कि आपने आज तक हमें टिप्पणी नहीं दी, धमकी, सौगंध सब एक ही टिप्पणी में: अपनी टिप्पणी का समापन कुछ इस हृदय स्पर्शी अंदाज में किया-आप एक भीषण योद्धा की तलवार ( लेखनी ) छीन रहे हैं और कुछ नहीं. अब जब तक आप की टिपण्णी के दर्शन मैं अपने ब्लॉग पर नहीं कर लूँगा, महादेव की सौगंध मैं एक शब्द भी नहीं लिखूंगा.
अलग सा भाई टिप्पणी किये और फिर उसे पोस्ट बना कर लाये-मनुहार जैसा कि बहुतों ने किया घुड़की के अंदाज में-आप ऐसा कैसा कर सकते हैं? यही तो स्नेह है.
बालक आदित्य यानि हमारा प्यारा सा बबुआ, उसने तो रुला ही दिया कि मैं आपको बहुत मिस करुँगा. वहीं बेजी ने ऐसा लताड़ा कि हमारी तो घिघ्घी ही बंध गई.
पुराने योद्धा निश्चिंत थे तो ज्यादा इन्टरेस्ट नहीं लिये. इस टंकी पर उतरते चढ़ते हमारे संग संग उन्होंने कईयों को देखा है. इसे फैशन में लाने का और बाद में अपने नाम कॉपी राइट करा ले जाने का सेहरा अनुज सागर चन्द्र नहार के सर है.
एक जमाने में वो हर छठे छः मासे टंकी पर चढ़ा करते थे. फिर हम सब चिट्ठाकार फुरसतिया जी समेत जाकर उनकी मान मनुव्वल करके उतारा करते थे. बाद में तो उनका ऐसा रियाज बना कि जब तब दौड़ कर टंकी पर चढ़ जाते और जब कोई न भी मनाता तो भी खुद ही उतर आते कि मैं जानता हूँ, आप लोग आने ही वाले थे. कुछ ऐसे ही रास्तों पर महाशक्ति ने भी अपने जोहर दिखाये थे. फिर धीरे धीरे यह टंकी चढन कार्यक्रम फैशन से जाता रहा और आज हमारा कृत्य पुराने दिनों को याद बस करा गया.
अभ्यस्त फुरसतिया जी अमिताभ स्टाईल बैठे चाय पीते रहे, कहे बबुआ का मनोना चल रहा है, परसों चिट्ठाचर्चा करेंगे, वो बिल्कुल निश्चिंत थे कि परसों तक तो हम टंकी से उतर ही आयेंगे वरना वो लेपटॉप टंकी पर भिजवा देते कि पहले चिट्ठाचर्चा लिख लो फिर जो मन आये सो करो, गुरुदेव राकेश खंडेलवाल भी पुराने हैं, कहे कि मुझे पता है लौट कर फिर आओगे, तो पंकज बैंगाणी ’नो कमेन्ट’ कह कर अकर्मण्यता की पूर्व स्थिति को प्राप्त भये. सब अनुभव के सीखे हैं.
नवांगतुक वीनस केसरी बेचारे भागते रहे हमारे और मास्साब पंकज सुबीर जी के चिट्ठे के बीच, टिप्पणियां गिनते और कहते कि अब तक नहीं माने. सोच रहे होंगे कि कितना बड़ा पेट है., आखिर कब भरेगा.
किसी ने वीर कहा तोकिसी ने हाथी- हाथी अपनी मस्त चाल चलता है, भले ही... कितना भी भौंके. अतः आप चलते रहें. सेकेंड हाफ से हमारा साबका नहीं किन्तु पहला हिस्सा तो हमारे लिये ही कहा है न!!
पंगेबाज ईमेल के जरिये सारी दुनिया से पंगा लेने तैयार खड़े नजर आये और कहने लगे, बस दुख का कारण बता दो बाकि हम देख लेंगे. बहुत स्नेही जीव हैं!!! धार्मिक तो खैर हैं ही!!
एक दो तो इतने भावुक हो उठे लिखते लिखते ऐसा लिख गये कि हमें लगा अपना ही शोक संदेश पढ़ रहा हूँ. घबरा सा गया मैं.
भाई अरविन्द मिश्रा तो ऐसा सटपिटियाये कि कहने लगे आगे से जितनी कविता सुनाओगे, बिना कुछ बोले सुना करुँगा, बस वापस आ जाओ. हमें लगा ये तो एक उपलब्धि ही कहलाई.
अनेकों ईमेल मिले, कोशिश की कि जितना बन पाये, जबाब दे दूँ, फिर भी कितने अब भी पेन्डिंग है. सभी का आभार.
वैसे दो एक ईमेल ऐसे भी रहे कि क्या कहें. कहते हैं अच्छा ही हुआ कि आप खुद ही हट गये वरना तो हटाने के क्रेन बुलवाना पड़ती. यह आभास आपकी फोटो देख कर हो रहा है.
इन सबके साथ आज जब मां भवानी ने फटकारा, पुचकारा, प्यार जताया तब तो कुछ सोचने को शेष रहा ही नहीं. मां भवानी, क्षमा करना, आपको दुखी किया बेवजह.
कल मेरे अनुज शिव मिश्र जी के ससुर साहब का निधन हो गया. ऐसी दुखद घड़ी में भी वो समय निकाल कर मनुहार करने आये ईमेल द्वारा, कैसे रुकता वापस आने से भाई.
ऐसा अपार स्नेह, ऐसा प्रेम, ऐसा मनुहार-आँख भर भर आती है, गला रुँध जाता है, शब्द अटक जाते हैं-क्या कहूँ.
सभी तो आये-सच कहूँ तो भले ही एक वाकया पृष्ट भूमि बन गया मगर वाकई एक दो दिन का आराम चाहता था, अनुराग भाई और अन्य मित्र समझ भी रहे थे, सो हो गया. किसी से भी कोई शिकायत नहीं, कोई गुस्सा नहीं. सभी तो अपने हैं.
ऐसा ही स्नेह बनाये रखिये. सफर पर पुनः हाजिर होता हूँ आप सबके साथ.
उड़न तश्तरी के उड़ने का हुआ है क्या असर देखो चरागें लेके ढूँढे हर गली औ हर शहर देखो गजल की रूह व्याकुल है रदीफ़ो काफ़िया हैरां गुरू मायूस बैठे हैं हुई है नम नजर देखो
हमें आवाज देकर के चले हो तुम कहां साहिब चलो हम साथ चलते हैं चले हो तुम जहां साहिब यहां तनहाई सूनापन अकेलापन बहुत होगा, करेगा कौन मेहफिल को हमारी अब जवां साहिब.
जानता हू लौट कर वापिस पुन: आ जाओगे तुम क्योंकि यह विश्वास मेरा है, तुम्हें लौटा सकेगा चाह कर भी राम क्या पथ मोड़ पाये थे शिला से है पठन संकल्प मेरा जो तुम्हें प्रेरित करेगा
छोड़ सकती लेखनी क्या उंगलियों का साथ बोलो या जुदा परछाई होती है कभी अपने बदन से शब्द चाहे बोलिये कुछ और जो चाहे लिखें भी धार इक बहती रहेगी, नित तुम्हारी इस कलम से