बुधवार, अक्तूबर 28, 2015

जिल्द इक किताब का...

दो काल खण्ड
इस जीवन के
और उन्हें जोड़ता
वो इक लम्हा
जो हाथ पसारे
लेटा है इस तरह
दोनों को समेटता
मानिंद जिल्द हो
मेरी जिन्दगी की
किताब का!!

-समीर लाल ’समीर’


रविवार, अक्तूबर 18, 2015

टैटू पसंद लड़की



वो टैटू पसंद लड़की
चिपका लाती
दायें गाल पर तिरंगा
और
बायें गाल पर 
चाँद सितारा हरियाली
वो करवट बदलती
कि
बदल जाती जमाने की नजर!!
सहम जाती
वो टैटू पसंद लड़की!!

-समीर लाल ’समीर’

सोमवार, सितंबर 21, 2015

सम्मानित साहित्यकार्स!!

एकाएक सन २००५ के आस पास हिन्दी में ब्लॉग लिखने वाले अवतरित हुए.. और फिर तो सिलसिला चल पड़ा..रचनाओं के रचित होने का...लोगों को प्रोत्साहित करने का लिखने के लिए..आप भी लिखो. बोल लेते हो तो लिख भी लोगे. जैसे फिल्म देख कर घर लौटने पर फिल्म की कहानी सुनाते हो न..वैसे ही लिख कर सुनाओ. बस इतना सा निवेदन किया था और लोग उसे बड़ी गंभीरता से ले गये और टूट पड़े लिखने लिखाने में.
और इन रचनाओं को पढ़ने वाले भी वो ही होते थे जो लिखने वाले होते थे. पढ़ना मात्र मजबूरी होती थी कि पढ़ कर कुछ कमेंट कर दें तारीफ में तो बंदा भी हमें आकर पढ़ेगा और कमेंट करेगा. इस प्रक्रिया को उस वक्त कहा जाता था कि तू मेरी पीठ खुजा, मैं तेरी पीठ खुजाऊँ.
अब इस लिखने पढ़ने की होड़ में, हम दूसरे लिखने वाले से बेहतर कैसे दिखें? कैसे साबित करें कि हम तुमसे बेहतर रच रहे हैं. तब लोगों ने अपने ब्लॉग पर छपी कहानियों और कविताओं के अखबार में प्रकाशित हो जाने की खबरों को जोर शोर से उछालना शुरु किया.
अखबार वालों की भी पौ बारह हो निकली. हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा आये. न पैसा देना और न पूछना..जो पसंद आया..कट पेस्ट किया और अखबार में छाप दिया. मेहताना मांगना तो दूर..छपा ब्लॉगर उस अखबार की तस्वीर छाप छाप कर फूला न समाता कि हम तो बड़े साहित्यकार हो लिए..अखबार वाले छापने लगे.
ऐसे में जो अखबार में नहीं छप पाते वो ऐसी सूचनाओं की पोस्टों के कमेंट में आकर आपत्ति उठाते कि अखबार वाले चोर हैं ..बिना पूछे छाप देते हैं. आप उन पर मुकदमा करिये और अपना मेहताना माँगिये. छ्पा बंदा भी जानता था कि ये अगला मात्र खीज उतार रहा है, अतः इतना सा बस जबाब देता कि आप ठीक कह रहे हैं. देखते हैं.
धीरे धीरे समय के साथ साथ जब ब्लॉगरों का यह गुमान उन्हें भ्रमित कर यह विश्वास दिलाने लगा कि वो साहित्यकार हो गये हैं और आने वाले युग के वो ही प्रेमचन्द हैं और वो ही निराला. तब तो मानो जलजला सा ही आ गया. अब की बार खुद को बेहतर साहित्यकार प्रूव करने के लिए पुरुस्कारों और सम्मानों का दौर चला..और ऐसा चला कि अब तक चला आ रहा है.
जितने साहित्यकारों को ब्लॉग जन्म देता गया, उससे कई गुना ज्यादा सम्मान और पुरुस्कार जगह जगह जन्म लेते चले गये. नये नये पुरुस्कारों के नाम पता चलने लगे. नये नये शहरों के नाम पता चले जहाँ ये सम्मान समारोह आयोजित होते रहे. कमाल ये था कि अधिकतर सम्मान ऐसे थे जो पहली बार सुने गये और फिर कभी आगे सुनाई भी नहीं दिये मानों जैसे सिर्फ इन्हीं के लिए ऊगे थे और इन्हीं का सम्मान करके डूब गये.
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यूँ भी अगर ध्यान से सोचिये तो सम्मानित होने की प्रक्रिया में दो लोगों का ही तो काम है – एक वो जो सम्मान दे रहा हो और दूसरा वो जो सम्मान ले रहा हो. इसके बाद जितने भी लोग हों सब बोनस ही तो है. लेकिन जब ये सम्मानित साहित्यकार सम्मान पत्र हाथ में पकड़े अपनी सेल्फी फेसबुक पर चढ़ाते हैं यो कभी कभी चंचल मन शक में पड़ जाता है कि कहीं इस बार सम्मानित करने वाला और सम्मानित होने वाला बंदा एक ही तो नहीं. इसलिए निवेदन बस इतना सा है कि जब कभी सम्मानित हों तो कम से सम्मान देने वाले और लेने वाले का सम्मान आदान प्रदान करते समय का फोटो लगायें. यूँ भी वो है कौन- कौन चैक करने आ रहा है?
इस बीच फेसबुक ने दस्तक दी और ब्लॉगजगत के तथाकथित साहित्यकार अपने कहानी किस्से और कविताओं का बस्ता बॉधे फेसबुक पर चले आये. हालात वही कि नित नये सम्मान..नित नये ईनाम..
अगर कायदे से गिना जाये तो उन्होंने जितने पन्नों के आलेख और कविता न लिखे होंगे ..उससे कहीं ज्यादा पन्नें सम्मान और पुरुस्कारों की सूचना देने और बखान करने में लिख डाले. रोज एक नया स्टेटस.एक नया ईमेल..मसौदा कुछ यूँ..
मित्रों, आपको बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि मुझे फलाना संस्था ने इस वर्ष का ’साहित्य मणि’ मेरी रचना ’मुस्करा भी दो’ के लिए देना तय किया है. इस हेतु चिरई डौंगरी में महा आयोजन १८ दिसम्बर को शाम ७ बजे किया जायेगा..आप सादर आमंत्रित हैं’ अपना आशीर्वाद दें..याने बधाई देने वाला कमेंट करो मेरी स्टेटस पर.
सोचो तो इस आमंत्रण के आधार पर आयें कहाँ..न तो ये पता है कि चिरई डौंगरी कहाँ है..न ये पता कि अगर किसी तरह चिरई डौंगरी ढ़ूँढ कर पहुँच भी गये तो किस जगह आना है?
ये पुरुस्कार और सम्मान मिलने की सूचना ईमेल, गुगल प्लस, ट्विटर, व्हाटस अप, एस एम एस, फेस बुक, ब्लॉग, कमेंट..हर संभव रुट से भेजी जाती है. उनका बस चले तो वो आपके घर आकर बता जाये. जैसे बता रहे हों कि भाई साहब, नार्वे आईये. आपके आशीर्वाद से मुझे नोबल पुरुस्कार से सम्मानित किया जा रहा है...
अब तो ऐसी ईमेल या स्टेटस देखो जिसमें शुरुआत में लिखा हो कि आपको बताते हुए... देख कर ही घबराहट हो जाती है कि बंदे का फिर कहीं सम्मान हो गया या होने वाला है...लेकिन हद तो तब हो जाती है जब कर्जा उतार कमेंट में उसे बधाई दे डालते हैं कि ऐसा शुभ दिन बार बार आये..बिना ये सोचे कि आपको बताते हुए में..अपने पिता की मृत्यु की समाचार भी तो दे रहा हो सकता है..
समीर लाल ’समीर’

रविवार, अगस्त 30, 2015

शहर के मुँह में भी जुबान होती है....

सुन कर अजीब सा लग सकता है मगर हर शहर के मुँह में एक जुबान होती है और उस जुबान की अपनी एक अलग ही जुबान होती है.

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आपका शहर दरअसल वो शहर होता है जो आपके बचपन से जवानी तक के सफर का और अक्सर उसके बाद तक का भी, चश्मदीद गवाह होता है या यूँ कहें कि वो शहर जिस शहर में, आपके व्यक्तित्व की मौजूदा आलीशान इमारत जिन मुख्य स्तंभों पर आधारित है, वो स्थापित हो.

भले ही वहाँ आपने जन्म न लिया हो, भले ही वहाँ आपके माता पिता सदा किराये के मकान में रहते आये हो और आप भी किराये के मकान में रहते रह गये हों..मगर बचपन से खेलते पढ़ते घूमते ब़ड़े होते होते न जाने कब वो शहर आपमें समा जाता है. उसकी सड़के, गलियाँ, बाग बगीचे सब आपके मानस पर रच बस जाते हैं.

मुझ जैसा जबलपुर शहर का प्राणी जो आज बरसों से कनाडा में आ बसा है मगर फिर भी जब कभी कनाडा के विश्व विख्यात नियाग्रा फाल्स के सामने खड़ा होता है तो उसे उसमें जबलपुर का नर्मदा नदी का धुँआधार जलप्रपात नजर आता है और मेरी पत्नी जो मिर्जापुर की है, उसे उसी नियाग्रा फाल्स में विन्ढम का झरना. एक ही वक्त में एक ही चीज दो अलग अलग प्राणियों की आँखों को दो अलग अलग आलम दे – ये सिर्फ जहन में बसे एक शहर की औकात है.

अपना शहर और अपने शहर का जहां मे बसना समझना हो तो हालात तो यूँ हैं कि श्रीवास्तव जी जो सन १९६५ में लखनऊ से कनाडा में आ बसे थे सपरिवार और फकत चार पाँच साल में भारत जाना आना होता रहा था जिनका मात्र दो या तीन हफ्तों के लिए, वो अभी जब पिछले माह एक लम्बी बीमारी के बाद गुजरे तो उनके अंतिम संस्कार के दौरान लोगों को कहते सुना कि भाई साहब का बहुत मन था कि अंतिम सांस वो लखनऊ में ही लेते मगर मन का मांगा कब पूरा होता है. तब लगा कि ये होता है अपना शहर जो मरने के बाद भी आपके नाम के साथ गुथा रहता है.

आपके शहर के मुँह में जो जुबान होती है वो जरा सा फिसली और समझो कि हुआ आपका बंटाधार. फिर भले आप शहर में हों या उसे छोड़ कर कहीं और जा बसे हों मगर वो शहर आपको छोड़ने को तैयार नहीं..वो तो आपके भीतर रच बस चुका होता है और साथ साथ चलता रहता है और फिर जो आपको उस शहर से होने की पहचान देती है, वो होती है उस शहर के मुँह में बसी जुबान की अपनी एक अलग जुबान. कुछ ज्ञानी उसे उस शहर की भाषा या महाज्ञानी उसे उस शहर की बोली भी कहते हैं.

चाहे आप अपना शहर छोड़ कर दिल्ली, बम्बई या बैंगलोर आ बसें या सात समुन्दर पार अमेरीका, कनाडा आ बसें तो भी. जब कभी बात निकलेगी तो पूछने वालों का पहला प्रश्न ही यह होगा कि आप कहाँ से हैं?

तब आप जैसे ही बताते हो कि आप जबलपुर से हैं और वो पूछने वाला भी अगर आपके शहर का ही हुआ तो अति प्रसन्न भाव से बतायेगा कि ’गजब हो गओ महाराज!! हम भी जबलईपुर से हैं’. ये जबलपुर का जबलपुर वाले का जबलपुर वाले के सामने जबलईपुर निकल जाना एकदम स्वभाविक प्रक्रिया है, इसके लिए सामने वाले को न तो कुछ सोचना होता है और न ही कोई प्रयास करना होता है. यह एकदम सहज हो जाने वाली घटना है और आप जान जाते हो कि ये तो अपने शहर का सर्टिफाईड बंदा है. ये होती है उस शहर के मुँह में होने वाली जुबान की अपनी एक अलग जुबान. उस शहर की बोली.

तब बात आगे बढ़ती है और वो पूछता है कि काये, जबलपुर में कहाँ से? और आप जैसे ही उसे अपना मोहल्ला बताते हो, हालांकि अब उस मोहल्ले में आपका कुछ भी नहीं मगर वो मोहल्ला फिर भी हमेशा आपका ही रहता है, तुरंत वो कहता है कि अरे!! वहीं तो वो शर्मा जी रहते थे स्टेट बैंक वाले जिनकी लड़की का ड्राईवर के साथ चक्कर था. ये जो एकाएक बेवजह शर्मा जी और उनकी लड़की की भद्द उतार दी गई.. वो होती है उस शहर के मुँह में रहने वाली जुबान.

ये इसी शहर के मुँह में रहने वाली जुबान की मेहरबानी है कि अच्छा अच्छा बोले तो आप अच्छे और पोल खोल दे तो आप बुरे.

वैसे सच जानो तो दर्ज तो आपके शहर की मुँह की जुबान पर आपके बारे सब कुछ है ही..इतना कुछ कि जो करम आपने उस शहर में न कर, सेफ रहने के लिहाज से किसी और शहर में किये हों उसे तक वो अपने सीने से लगाये बैठी रहती है और न जाने कब, एकाएक लपलपा के बोल दे और फिर आप देखिये कि क्या तमाशा खड़ा होता है..

कभी अपने शहर के मुँह की जुबान से, अपनी पैदाईश से लेकर घटना दर घटना मय सबूत के पूरी जन्म कुण्डली, जिसे शायद आपको खुद भी याद करने के लिए दिमाग पर जोर डालना पड़े, सुनना हो तो एक काम करियेगा..बस!! एक बार एक बड़ा चुनाव लड़ लिजियेगा किसी जानी मानी पार्टी की टिकट पर..फिर सुनियेगा..मन लगा कर कि क्या क्या गुल खिलाये थे आपने मियाँ..अपने ही शहर की मुँह की जुबान से...उसी की जुबान में..

और तब आप भी मान जायेंगे..कि

’हर शहर के मुँह में एक जुबान होती है’

बस!! डर इतना सा है कि इस बदलती दुनिया में कहीं स्मार्ट सिटी का कल्चर शहर को बेजुबान न बना दे!! मुंबई बहुत नहीं तो थोड़ा स्ट्रीट स्मार्ट तो है ही और वो इसका काफी हद तक प्रमाण भी देता रहा है अन्य शहरों की तुलना में.

चित्र साभार: गुगल

रविवार, जून 21, 2015

योगा दिवस: सब पूर्ण स्वस्थ हैं!!

साहेब की थाली में दो सूखी रोटी और पालक का साग उनके स्वास्थय के प्रति सजगता दिखाती है. वो बड़े गौरव के साथ अपना ५६ इंची सीना ताने अपने रईस दोस्तों के बीच अपनी डाइट बताते है. अपना एक्सर्साईज रुटीन बधारते हैं. नित प्रति दिन ऐसी साइकिल (एक्सर्साईज बाईक) चलाने का दावा करते है जो जाती तो कहीं नहीं मगर मीटर में दिखाती है कि पूरे पाँच किमी चली है याने अगर १०० दिन की बात करें तो ५०० किमी चली- मानो साइकिल न हुई, सरकार हो गई हो. हुआ गया कुछ हो या न हो, १०० दिन में ५०० किमी का रिपोर्ट कार्ड लहराया जा रहा है हर तरफ. काश!! ५०० किमी की जगह, दिल्ली से ५० किमी दूर तक भी निकल लिए होते सही में साईकिल चलाते और कुछ जमीनी हकीकत का जायजा ले लेते तो शायद कुछ किसान आत्म हत्या करने से बच जाते. शायद महिनों से रुकी तनख्वाह की बाट जोते किसी नगर निगम के कर्मचारी के परिवार को कुछ आशा की किरण दिख जाती.

लेकिन हमारे नेताओं की आदत में है, आपदाओं और विपदाओं का हवाई निरक्षण करना और उसके आधार पर बने जमीनी विकास के रिपोर्ट कार्ड को हवा में लहरा लहरा कर जनता को बहलाना. आकाश से देखने का फायदा ये होता है कि कीचड़ में उगी घास भी हरियाली नजर आती है. मुश्किल तो उसकी है जिसे उस कीचड़ के दलदल से होकर गुजरना होता है. लेकिन उसकी किसे फिकर- कीचड़ में उसके कपड़े खराब हों या वो दलदल में फंस कर दम तोड़ दे- ये सब उसकी परेशानी है. हमारा रिपोर्ट कार्ड तो दिखा रहा है कि चहु ओर हरियाली ही हरियाली है. हरित क्रान्ति के इतिहास में पहली बार इतना हरा अध्याय.

खैर, बात चल रही थी एक्सर्साईज रुटीन की- तो यदि आप योग को योगा कह दें तो ये तुरंत वैसा ही स्टेटस सिंबल बन जाता है जैसे मानों आम आदमी की थाली से उचक कर दो सूखी रोटी और पालक का साग साहब की थाली में शोभायमान होने लगा हो और जब साहब की थाली में आया है तो बखाना भी जायेगा और जब बखाना जायेगा तो रिपोर्ट कार्ड में भी आयेगा.

गांवों में अस्पताल हो या न हो और अगर अस्पताल हो भी तो उसमें डॉक्टर का अता पता लापता हो मगर इससे क्या फरक पड़ता है. बेवजह हल्ला मचाते हो फालतू का मुद्दा उठा कर. चलो, तैयार हो जाओ इस समस्या के समाधान के लिए- २१ जून को अन्तर्राष्ट्रीय योगा दिवस के दिन सब साथ में योगा करो. योगा में अगर भगवान का नाम न लेना हो मत लेना, अल्लाह का ले लेना, ईशु का ले लेना - क्या फरक पड़ता है मोटापा कम होने में अगर पाव दो पाव का अंतर रह भी गया इस वजह से तो. जब सब सूर्य नमस्कार कर रहे हों तो तुम सूर्य ग्रहण की कल्पना करते हुए चाँद सलाम कर लेना, लिटिल स्टार मान कर ट्विंकल ट्विंकल हैलो कर लेना- आँख तो मूँदी ही रहना है.

जो मन करे सो करना- बस इतना ध्यान रखना कि अब आगे से बीमारी के लिए अस्पताल और डॉक्टर की मांग उठाना मना है क्यूँकि रिपोर्ट कार्ड दिखा रहा होगा कि भारत में सब योगा कर रहे हैं और सब पूर्ण स्वस्थ है!!

इससे अच्छे दिन की और क्या कल्पना कर सकते हो, बुड़बक!!

बात करते हो!!

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-समीर लाल ’समीर’

२१ जून २०१५ अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस पर दैनिक जनसंदेश में प्रकाशित

शनिवार, जून 20, 2015

अन्तरराष्ट्रीय स्तर के होने की योग्यता

बहुत सूक्ष्म अध्ययन एवं शोध के बाद लेखक इस निष्कर्ष पर पहुँचा है कि यदि आपके नाम के अन्त में आ की मात्रा लगाने के बाद भी नाम आप ही का बोध कराये तो आप अन्तरराष्ट्रीय स्तर के हो सकते हैं.

जैसे उदाहरण के तौर पर लेखक का नाम समीर है. यदि आपको समीर नाम सुनाई या दिखाई पड़े तो आपकी नजरों के आगे मेरी तस्वीर उभरती है, शायद कविता पढ़ते हुए या आपकी रचनाओं पर दाद देते हुए मगर जैसे ही मेरे नाम के अंत में आ की मात्रा लगा दी जाती है याने समीरा तो आपकी आँखों के आगे फिल्मों वाली समीरा रेड्डी की तस्वीर उभर आती है बीच पर गीत गुनगुनाते. समीर और समीरा- एकदम दो विपरीत ध्रुव. अतः समीर नाम अन्तरराष्ट्रीय स्तर का होने की पात्रता नहीं रखता.

अब दूसरा उदाहरण लें. नरेन्द्र- सुनते ही आँखो के सामने ५६ इंच का सीना तन गया न और कान में गूँजा- मितरों......!!! अब अगर आप इस नाम के अन्त में आ की मात्रा लगा दें याने कि नरेन्द्रा – तब भी आँख के आगे वही ५६ इंच की सीना और कान में..मितरों..!!!!! याने की इनमें अन्तरराष्ट्रीय हो जाने की योग्यता है और हो ही रहे हैं. राष्ट्र में तो होते ही कब हैं? अधिकतर अन्तर्राष्ट्र में ही बने रहते हैं. मित्र भी अन्तरराष्ट्रीय- जैसे बराक!! वरना तो किस की हिम्मत कि ओबामा साहब को बराक पुकारे. इसके लिए तो ५६ इंच के सीने के साथ साथ अन्तरराष्ट्रीय होना भी जरुरी है. अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर जहाँ जाते हैं वहीं नाम का डंका बज रहा होता है.

इनसे जब अरविन्द, राहुल टक्कर लेते हैं तो ये क्यूँ नहीं सोचते कि उनके नाम में अन्तरराष्ट्रीय होने की योग्यता नहीं है तो वो क्या होंगे. बेवजह टकराते हैं. अरविन्दा और राहुला- न जाने कोई होगा भी या नहीं कहीं पर इस नाम का तो तस्वीर क्या खाक उभरेगी भला?

एकदम ताजा ताजा- योग और योगा. योग कहो तो बाबा रामदेव गुलाटी खाते नजर आयें और कान में आवाज गूँजे- करत की विद्या है. करने से होता है- करो करो. और आ की मात्रा लगा कर योगा कह दो तो भी बाबा राम देव ही नजर आयें गुलाटी लगाते और कान में वही- करत की विद्या है. करने से होता है- करो करो.

और फिर ये तो संपूर्ण योग्यता वाले हैं- योग और योगा, राम और रामा और देव और देवा. ’समरथ को नहीं दोष गोसाईं’

Yoga

अब तो मान जाओ इनका लोहा.

मितरों!! चलो करो- आज अन्तरराष्ट्रीय योग (योगा) दिवस है. करो करो- करने से होता है.

-समीर लाल ’समीर’

चित्र साभार: इन्टरनेट

रविवार, जून 07, 2015

परदे के उस पार!!

मंच प्रस्तुति-

नगर की एक नौटंकी मे...

चक्रवर्ती सम्राट अशोक!!

परदा गिरा और सम्राट अशोक भागा चेंज रुम की तरफ..

कपड़े बदले और लग गया लाईन में..

आज का मेहताना मिले तो खरीदे बीमार बीबी की दवा

और

बच्ची के लिए ..क्या?

सोचा और सर झटकार दिया..

न! उतना सारा पैसा थोड़ी न मिलेगा!

गुड़िया अगली बार!!

जब एक जंग और जीतेगा...

चक्रवर्ती सम्राट अशोक!!

और गिरेगा परदा...

तब!

-समीर लाल ’समीर’

 

उपरोक्त लघुकथा को ’गागर मे सागर’  लघु कथा ग्रुप के ’परदा’ विषय पर आयोजित प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ और विशेषज्ञों के आंकलन और अन्य जानकारी के लिए कृप्या नीचे दिये लिंक पर जायें:

 

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लिंक

मंगलवार, जून 02, 2015

हम भारतीयों का डी एन ए!!

नजर की पहचान थी उससे यही कोई तीन चार बरसों की. सिर्फ दफ्तर आते जाते हुए ट्रेन में पड़ोस के डिब्बे में उसे चढ़ते उतरते देखता था और नजर मिल जाती थी. लबों के हाथ कभी इतने नहीं बढ़े कि कोई मुस्कराहट उस तक पहुँचा दें और उसके लबों के तो मानो हाथ थे ही नहीं. भाव विहीन चेहरा.

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हाँ, एक बार झुंझलाहट देखी थी उसके चेहरे पर..मगर वो भी मुझे लेकर नहीं..ट्रेन के देर से आने की वजह से. कनाडा में ट्रेन का लेट होना यदा कदा ही होता है अतः सभी चेहरे झुंझलाये से थे उस दिन तो उसका चेहरा फिर भीड़ के चेहरे सा ही दिखा. मेरा चेहरा सामान्य था बिना झुंझलाये. मैने उस दिन भी उसकी नजरों से वैसे ही नजर मिलाई थी जैसे हर रोज. उसे पक्का आश्चर्य हुआ होगा मेरा चेहरा देखकर कि मानो ट्रेन के देर से आने का मुझ पर कोई असर हुआ ही न हो.

उसे क्या पता कि ट्रेन का इस तरह, न जाने कितने दिनों बाद, ४५ मिनट देर से आना मुझे मेरे देश की यादों में वापस ले गया था..मुझे लगा कि मैं अपने शहर के स्टेशन पर खड़ा उस ट्रेन का इन्तजार कर रहा हूँ जो लेट है अनिश्चित काल के लिए. लेट आने वाली ट्रेन का इन्तजार खुशी खुशी करना और किसी भी तरह की समस्या के वक्त के साथ गुजर जाने पर विश्वास कर स्थितियों से समझौता कर लेना मेरे भारतीय होने की वजह से मेरे डी एन ए में है.

यही डी एन ए तो है जो आज तीन चार बरस बीत जाने बाद भी मुझे अपने लबों के हाथो के कद बढ़ जाने की उम्मीद हर रोज सुबह शाम रहती है..जो शायद उसके लबों पर एक मुस्कान ला दें कभी और वो मुझसे पूछे ..कैसे हो आप? और मैं उससे कह सकूँ..कि तुमने पूछा तो अब बेहतर महसूस कर रहा हूँ मैं!

ये इन्तजार अनिश्चित कालिन भी हो तो क्या और सतत बना भी रह जाये तो क्या..इन्तजार और वक्त के साथ समझौता कर लेना तो हम भारतीयों के डी एन ए में है...कर ही रहे हैं अच्छे दिनों के आने का इन्तजार!!

कुछ हर्फ मेरे उतरे ही नहीं, जीवन के कोरे पन्नों पर.

ये दुनिया वाले अजब से हैं, उसको भी गज़ल बुलाते हैं..

-समीर लाल ’समीर’

गुरुवार, मई 28, 2015

आऊट ऑफ सिलेबस और बोर्ड एक्जाम!!

१२ वीं के परिणाम घोषित हो गये हैं. लड़कियों ने फिर बाजी मार ली है ये अखबार की हेड लाईन्स बता रही हैं. जिस बच्ची ने टॉप किया है उसे ५०० में से ४९६ अंक मिले हैं यानि सारे विषय मिला कर मात्र ४ अंक कटे, बस! ये कैसा रिजल्ट है?

हमारे समय में जब हम १० वीं या १२ वीं की परीक्षा दिया करते थे तो मुझे आज भी याद है कि हर पेपर में ५ से १० नम्बर तक का तो आऊट ऑफ सिलेबस ही आ जाता था तो उतने तो हर विषय में घटा कर ही नम्बर मिलना शुरु होते थे. यहाँ आऊट ऑफ सिलेबस का अर्थ यह नहीं है कि किताब में वो खण्ड था ही नहीं. बल्कि वो तो बकायदा था मगर मास्साब बता देते थे इसे छोड़ दो, ये नहीं आयेगा. पहले भी कभी नहीं आया और हम लोगों की मास्साब में, कम से कम ऐसी बातों के लिए अटूट आस्था थी मगर अपनी किस्मत ऐसी कि हर बार ५ - १० नम्बर के प्रश्न उसी मे से आ जायें. तो बस हम घर आकर बताते थे कि आज फिर आऊट ऑफ सिलेबस १० नम्बर का आ गया. घर वाले भी निश्चिंत रहते थे कि कोई बात नहीं ९० का तो कर आये न!!
तब आगे का खुलासा होता कि ५ नम्बर का रिपीट आ गया. सो वो भी नहीं कर पाये और पेपर इत्ता लंबा था कि समय ही कम पड़ गया तो आखिरी सवाल आधा ही हल कर पाये, अब देखो शायद कॉपी जांचने वाले स्टेप्स के नम्बर दे दें तो दे दें वरना तो उसके भी नम्बर गये. अब आप सोच रहे होंगे कि ये रिपीट आ गया क्या होता है?
दरअसल हमारे समय में विद्यार्थी चार प्रकार के होते थे..एक तो वो जो बहुत अच्छेहोते थे, वो थारो (Thorough) (विस्तार से)घोटूं टाईप स्टडी किया करते थे याने सिर्फ आऊट ऑफ सिलेबस छोड़ कर बाकी सब कुछ पढ़ लेते थे. ये बच्चे अक्सर प्रथम श्रेणी में पास होते थे मगर इनके भी ७० से ८५ प्रतिशत तक ही आते थे. काफी कुछ तो आऊट ऑफ सिलेबस की भेंट चढ़ जाता था और बाकी का, बच्चा है तो गल्तियाँ तो करेगा ही, के नाम पर.
दूसरे वो जोकम अच्छेहोते थे वो सिलेक्टिव स्टडी करते थे यानि छाँट बीन कर, जैसे इस श्रेणी वाले आऊट ऑफ सिलेबस के साथ साथ जो पिछले साल आ गया है वो हिस्सा भी छोड़ देते थे क्यूँकि वो ही चीज कोई बार बार थोड़ी न पूछेगा जबकि इतना कुछ पूछने को बाकी है, वाले सिद्धांत के मद्दे नजर. तो जो पिछले साल पूछा हुआ पढ़ने से छोड़ कर जाते थे, उसमे से अगर कुछ वापस पूछ लिया जाये तो उसे रिपीट आ गया कहा जाता था. उस जमाने के लोगों को रिपीट आ गया इस तरह समझाना नहीं पड़ता था, वो सब समझते थे. ये बच्चे गुड सेकेन्ड क्लास से लगा कर शुरुवाती प्रथम श्रेणी के बीच टहलते पाये जाते थे. गुड सेकेन्ड क्लास का मतलब ५५ से लिकर ५९.% तक होता था. ६० से प्रथम श्रेणी शुरु हो जाती थी.
तीसरी और चौथी श्रेणी वाले विद्यार्थी धार्मिक प्रवृति के बालक होते थे जिनका की पुस्तकों, सिलेबस, मास्साब आदि से बढ़कर ऊपर वाले में भरोसा होता था कि अगर हनुमान जी की कृपा हो गई तो कोई माई का लाल पास होने से नहीं रोक सकता. इस श्रेणी के विद्यार्थी परीक्षा देने आने से पहले मंदिर में माथा टेक कर और तिलक लगा कर और दही शक्कर खाकर परीक्षा देने आया करते थे और उत्तर पुस्तिका में सबसे ऊपर ॐ श्री गणेशाय नम:” लिखने के बाद प्रश्न पत्र को माथे से छुआ कर पढ़ना शुरु करते थे. ये धार्मिक बालक १० प्रश्नों का गैस पेपर याने कि क्या आ सकता है और अमरमाला कुँजी जो हर विषय के लिए अलग अलग बिका करती थी और उसमें संभावित २० प्रश्न जिसे वो श्यूर शाट बताते थे और जिस कुँजी में उनके जबाब भी होते थे, को थाम कर परीक्षा के एक रात पहले की तैयारी और भगवान के आशीर्वाद को आधार बना परीक्षा देकर सेकेण्ड क्लास से पीछे की तरफ से चलते हुए थर्ड क्लास और ग्रेस मार्क से साथ पास श्रेणी के साथ साथ सप्लिमेन्ट्री और फेल की श्रेणियों में शुमार रहते थे. यह सब इस बात पर निर्भर किया करता था कि गैस पेपर और साल्व्ड गाईड से कित्ता फंसा? ये फंसाभी तब की ही भाषा थी जिसका अर्थ होता था कि जो गैस पेपर मिला था उसमें से कौन कौन से प्रश्न आये. नकलचियों का शुमार भी इसी भीड में होता था.
कुछ उस जमाने के हम, इस जमाने के नौनिहालों को ९९.% लाता देखकर आवाक न रह जायें तो क्या करें!!

-समीर लाल समीर

सोमवार, मई 25, 2015

आखिर ये अच्छे दिन हैं क्या? : फील गुड फेक्टर

अच्छे दिन आने वाले है! अच्छे दिन आने वाले हैं!

वो रोज रोज सुनता तो था मगर दिन था कि वैसे ही निकलता जैसे पहले निकलता था. कई बार तो वो सुबह जल्दी जाग जाता कि कहीं अच्छे दिन आकर लौट न जायें और उसकी मुलाकात ही न हो पाये. मगर अच्छे दिन का कुछ अता पता न चला और देखते सुनते इन्तजार करते पूरा बरस निकल गया.

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थक कर उसने सोचा कि आज स्कूल में मास्साब से पूछेगा. क्या पता शायद अच्छे दिन आये हों और वो पहचान ही न पाया हो. अच्छा परखने का भी तो कोई न कोई गुर तो होता ही होगा.

मास्साब! ये अच्छा क्या होता है? ८ वीं कक्षा को वो नादान बालक अपने मास्साब से पूछ रहा है.

बेटा!! अच्छा वो होता है जो अच्छा होता है, समझे? मास्साब समझा रहे हैं.

लेकिन मास्साब, वही तो मैं भी पूछ रहा हूँ कि अच्छा होता क्या है?

मास्साब तो मास्साब!! जैसी कि मास्साब लोगों की आदत होती है वो तुरंत ही नाराज हो गये कि एक तो पढ़ाई लिखाई में तुम्हारा मन नहीं लगता उस पर से बहस करते हो. छोटी छोटी बात समझ नहीं आती. चलो, इसको ऐसे समझो कि अच्छा वो होता है जो बुरा नहीं होता है.

याने कि जो बुरा नहीं है वो अच्छा होता है. तो मास्साब, बुरा क्या होता है? बालक की बाल सुलभ जिज्ञासा तो मानो मँहगाई हो गई हो कि हर हाल में बढ़ती ही जा रही थी.

और मास्साब का गुस्सा अब और उबाल पर था मगर एक मर्यादा और एक कर्तव्य कि बच्चों की जिज्ञासा का निराकरण का जिम्मा उन पर है, उन्हें अपने असली रुप में आने से रोके हुए था. उन्हें किसी ज्ञानी का ब्रह्म वाक्य भी याद आ गया कि अगर आप किसी को कुछ समझा नहीं पा रहे हैं तो उसे कन्फ्यूज कर दिजिये. बस इसी ज्ञान के तिनके को थामे उन्होंने फिर ज्ञान वितरण के अथाह सागर में छलाँग मारी और लगे तैरने..

देखो बालक, इतनी सरल सी बात तुम्हें समझ में नहीं आ रही है..इसे ऐसे समझो कि अच्छा वो होता है जो बुरा नहीं होता और बुरा वो होता है जो अच्छा नहीं होता. समझे?

बालक मुँह बाये एक आम आदमी की मुद्रा में, बिना पलक झपकाये मास्साब को देख रहा था और मास्साब गुस्से के साथ साथ उसकी मन्द बुद्दि पर तरस खाते हुए आगे बोले..

वैसे एक बात तुमको बताऊँ कि अगर कुछ अच्छा है न..तो बताना नहीं पड़ता ..वो खुद ही समझ में आ जाता है और अगर बुरा है तो भी उसकी बुराई खुद ही उजागर हो जाती है... उदाहरण के लिए जैसे सोचो.. मिठाई...वो अच्छी होती है इसमें बताना कैसा और गोबर, वो बुरा होता है..खुद ही समझ में आ जाता है न!! अब तो तुमको पक्का समझ आ गया होगा..

मास्साब अपने समझाने की कला पर मुग्द्ध बिहारी की नायिका की आत्म मुग्द्धता के मोड में चले गये मुस्कराते हुए.

लेकिन बालक तो मानो डॉलर की कीमत हुआ हो..हाथ आने को तैयार ही नहीं..

मास्साब!! मेरे दादा जी को शुगर की बीमारी है और अम्मा कहती है कि उनके लिए मिठाई बुरी है और फिर गोबर से तो हमारा आंगन रोज लीपा जाता है..दादी कहती हैं इससे स्वच्छता का वास होता है और स्वास्थय के लिए बहुत लाभकारी होता है. हमारा परिवार तो इसे स्वच्छता अभियान का हिस्सा मानता है.

मास्साब की झुंझलाहट और गुस्से की लगाम अब लगभग छूटने की कागार पर थी मगर फिर भी..एक कोशिश और करते हुए वो बोले..देखो बच्चे, सब मौके मौके की बात है, कभी वो ही बात किसी के लिए अच्छी होती है तो वो ही बात किसी और के लिए बुरी हो जाती है..अगर तुम सब कुछ बुरा बुरा महसूस करने की ठान लो जैसा तुम दिल्ली प्रदेश की सरकार की तकरार में देख रहे हो..तो अच्छा भी बुरा ही लगेगा और इसके इतर अगर अच्छा अच्छा सा महसूस करने की आदत डाल लो तो बुराई में भी अच्छाई का वास महसूस करोगे..

बालक के मुँह में जुबान न जाने कैसे फिसल गई कि ’याने अच्छा बुरा अगर हमारे महसूस करने की कला का ही नाम है तो कोई सरकार क्या अच्छा लाने की बात करती है..और पहले के किस बुरे को बदलने की बात करती है? और...’

बालक अभी अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाया था कि मास्साब के सब्र का बाँध टूट पड़ा और उसके साथ ही वो अपनी बेंत लिए टूट पड़े उस बालक पर...और कुटाई के साथ साथ एक ही प्रश्न बार बार...बोल, समझ आया कि नहीं कि और समझाऊँ?

बालक भौचक्का सा..पूर्णतः भ्रमित...बस कुटाई से बचने के लिए..कहता रहा कि मास्साब!! समझ आ गया!

तभी दूर कहीं कलेक्टरेट के मैदान से लाऊड स्पीकर पर किसी बहुत बड़े नेता की आवाज सुनाई दी:

’मितरों, एक बरस में अच्छे दिन आ गये हैं, है कि नहीं?’

समवेद स्वर गूँजे ..आ गये!!

मितरों!! बुरे दिन चले गये कि नहीं?

समवेद स्वर गूँजे ..चले गये!!

मितरों!! जो बुरा काम करते हैं मैने उनके लिए अच्छे दिन की गारंटी नहीं दी थी कभी!!

और इधर ये बालक अपनी बेंत से हुई कुटाई के दर्द को सहलाते हुए सोच रहा था कि शायद उसने मास्साब से पूछ कर बुरा काम कर दिया इसलिए उसकी अच्छे दिनों से मुलाकात नहीं हो पा रही है..

आगे से ध्यान रखेगा और अच्छा अच्छा महसूसस करेगा..

शायद उसमें ही फील गुड फेक्टर मिसिंग है!!

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, मई 17, 2015

देश में विकास- यू आर माई रोल मॉडल पापा!!

पापा, ये अंकल तो देश का विकास करने वाले थे फिर बार बार विदेश क्यूँ चले जाते हैं?

बेटा, वो क्या है न, कहते हैं विदेश में संभावना बसती है, उसी को तलाशने जाते हैं.

अरे, संभावना तो फ्रेन्डस कॉलोनी में रहती है. मेरे साथ पढ़ती है मेरे स्कूल में. वो तो कभी विदेश गई भी नहीं तो फिर उसे तलाशने विदेश क्यूँ जाते हैं बार बार. मेरे स्कूल में ही आकर मिल लें.

बेटा, समझने की कोशिश करो. ये वो वाली संभावना नहीं है जो तुम समझ रहे हो. ये वो वाली संभावना है जिसे सिर्फ वो समझ रहे हैं और जिसके मिल जाने पर उनके हिसाब से इस देश का विकास होगा.

याने पापा, देश के विकास के लिए, देश में बसी संभावना जिसका पता मुझे तक मालूम है वो किसी काम की नहीं और उसकी दो कौड़ी की औकात नहीं और विदेश में बसी संभावना, जिसकी तलाश में नित प्रति माह विदेश विदेश भटक रहे हैं वो विकास की लहर ला देगी.. याने जैसे हमारा योग कसरत और चाईना का योग – योगा ताई ची..सेल्फी तो बनती है ताई ची के नाम...मगर ये बात कुछ समझ नहीं आई. पापा ठीक से समझाओ न!! प्लीज!

अच्छा इसे ऐसे समझो कि अगर जिस संभावना की तलाश विदेशी धरती पर करने नित यात्रायें की जा रही हैं. नये मित्र बनाये जा रहे हैं ..ओबामा ..बराक हो जा रहे हैं और जिन्पिंग ..झाई..इन लन्गोटिया मित्रों के गप्प सटाके के दौर में...अगर उस संभावना की एक झलक भी मिल गई तो बस हर तरफ देश में विकास ही विकास नजर आयेगा और तब ये और जोर शोर से नई नई संभावनायें तलाशते और ज्यादा विदेशों में नजर आयेंगे.

मगर पापा, पता कैसे चलेगा कि विकास आ गया?

बेटा, कुछ विकास तो तुम अपने मानसिक स्तर पर देख ही रहे हो..जिन देशों के नाम तुमने सुने भी न थे..इस अंकल की यात्राओं ने और टीवी वालों की मेहरबानी ने तुमको कंठस्थ करा दिये हैं..जैसे शैशल्स, मंगोलिया आदि आदि..अभी और बहुत सारे सीखोगे हर हफ्ते एक नये देश का नाम...

बाकी सही मायने में विकास को समझने के लिए..ऐसे समझो कि जब एक सुबह तुम जागो और सुनो कि तुम्हारा शहर अब तुम्हारा वाला शहर न होकर स्मार्ट शहर हो गया है याने कि इत्ता स्मार्ट कि आत्म हत्या करने के लिए अब न तो तुम्हें खेतिहर होने की जरुरत महसूस हो, न खेत की और न खराब मौसम का इन्तजार करना पड़े और हर जगह ये कर जाने के कारण स्मार्टली खड़े नजर आयें..तो समझ लेना कि विकास ने दस्तक दे दी है....

याने जब तुम्हारी ट्रेन एक्सप्रेस, पैसेंन्जर, सुपर फास्ट से स्मार्ट होकर बुलेट हो जाये मतलब कि वो ३०० किमी प्रति घंटा की रफ्तार से दौड़ तो सकती हैं मगर उसके दौड़ने के लिए जरुरी ट्रेक अभी स्मार्ट होने के इन्तजार में हैं और उसे स्मार्ट बनाने वाली संभावना अभी तलाशी जाना बाकी है... जब बड़ी बड़ी विदेशी संभावनाओं की उत्साहित संताने मेक इन इंडिया का नारा लगाते लगाते आधारभूत जरुरतों जैसे बिजली, पानी, सड़क आदि के स्मार्ट होने के इन्तजार में ब्यूरोक्रेसी से लड़ते हुए एक किसान की तरह अच्छे दिनों के इन्तजार में किसी पेड़ से लटक कर अपनी हर योजनाओं का गला घोंट स्मार्टली वापस लौट जायें - उन्हीं संभावनाओं के पास, जहाँ से वो आई थीं- खुद को संभावनाओं के साथ पुनः तलाशे जाने के लिए. तो समझ जाना विकास आ गया है.

जब आत्म हत्या और हत्या समकक्ष हो जाये और पोस्टमार्टम का इन्तजार न करे और स्मार्ट सिस्टम पहले से उनके हो सकने का कारण बता सके...और कारण भी ऐसा जिसकी वजह से केस में आगे किसी इन्वेस्टीगेशन की जरुरत को नकारा जा सके ...तब समझ लेना विकास आ गया.

जब गांव इतने स्मार्ट विलेज और ग्रमीण इतने स्मार्ट विलेजर हो जाये कि वो इस बात को समझने लगे कि लैण्ड का स्मार्ट इस्तेमाल एग्रीकल्चर के लिए उपलब्ध कराना न होकर एक्विजिशन के लिए उपलब्ध कराना होता है...तब समझ लेना कि संभावना की तलाश का बीज विकास का फल बन कर बाजार में बिकने को तैयार है.

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पापा, मुझे तो अभी भी कुछ समझ नहीं आ रहा..भला विदेश में संभावना तलाशने से देश में किसी का विकास कैसे हो सकता है. कोई उदाहरण देकर समझाईये न!!

ओके, चलो इसे ऐसे देखो- तुम्हारे चाचा संभावनाओं की तलाश में कुछ बरस पहले सपरिवार विदेश में जा बसे थे- है न!!

और मैं देश में नौकरी करता रहा. तुम्हारे दादा जी धीरे धीरे अशक्त और बुढ़े हो गये...और तुम्हारे चाचा विदेश में संभावनाओं की तलाश के साथ व्यस्त...

बस!! मौका देखकर और तुम्हारे दादा के अशक्तता का फायदा उठाते हुये, तुम्हारे दादा की जिस जायदाद का आधा हिस्सा मुझे मिलना था वो पूरा मैने अपने नाम करा और बेच बाच कर सब अपना कर लिया...स्मार्टली! ये कहलाता है स्मार्ट विकास!!

देखा न कैसे तुम्हारे चाचा की विदेश में संभावनाओं की तलाश ने मुझे देश में ही रहते हुए दुगना विकास करा दिया..अब आया समझ में तुमको?

जी पापा, अब बिल्कुल समझ में आ गया....भईया भी कह रहा था कि बड़ा होकर वो कम्प्यूटर इंजीनियर बनेगा और विदेश जायेगा... तब तक तो आप भी बुढ़े हो जाओगे और मै भी भईया के विदेश में संभावना तलाशने की वजह से, आपके बुढ़ापे का फायदा उठाकर, आपकी जायदाद का मालिक बन कर दुगना विकसित हो जाऊँगा...

इतना ज्यादा विकसित और स्मार्ट कि आपको बिल्कुल तकलीफ न हो इसलिए नर्सिंग वाली सुविधायुक्त रिटायरमेन्ट होम में आपको स्पेशल कमरा दिलवाऊँगा ...क्यूँकि आप मेरे स्वीट और स्मार्ट पापा हो!!

लव यू पापा!!

यूँ आर माई रोल मॉडल पापा!!

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, मई 10, 2015

गरीबों को सहारा नहीं, शाक्ति चाहिये!!!

दुआ, प्रार्थना, शुभकामना, मंगलकामना, बेस्ट विशेस आदि सब एक ही चीज के अलग अलग नाम हैं और हमारे देश में हर बंदे के पास बहुतायत में उपलब्ध. फिर चाहे आप स्कूल में प्रवेश लेने जा रहे हों, परीक्षा देने जा रहे हों, परीक्षा का परिणाम देखने जा रहे हों, बीमार हों, खुश हों, इंटरव्यू के लिए जा रहे हों, शादी के लिए जीवन साथी की तलाश हो, शादी हो रही हो, बच्चा होने वाला हो, पुलिस पकड़ के ले जाये, मुकदमा चल रहा हो, या जो कुछ भी आप सोच सकें कि आप के साथ अच्छा या बुरा घट सकता है, आपके जानने वालों की दुआयें, उनकी प्रार्थना, उनकी शुभकामनायें आपके मांगे या बिन मांगे सदैव आपके लिए आतुर रहती हैं और मौका लगते ही तत्परता से आपकी तरफ उछाल दी जाती है.

भाई जी, हमारी दुआयें आपके साथ हैं. सब अच्छा होगा या हम आपके लिए प्रार्थना करेंगे या आपकी खुशी यूँ ही सतत बनी रहे, हमारी मंगलकामनायें. आप अपने दुख में और अपनी खुशी में मित्रों और परिचितों की दुआयें और शुभकामनायें ले लेकर थक जाओगे मगर देने वाले कभी नहीं थकते.

उनके पास और कुछ हो न हो, दुआओं और प्रार्थनाओं का तो मानो कारु का खजाना होता है- बस लुटाते चलो मगर खजाना है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रहा.

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अक्सर दुआ प्राप्त करने वाला लोगों और परिचितों की आत्मियता देखकर भावुक भी हो उठता है. अति परेशानी या ढेर सारी खुशी के पल में एक समानता तो होती है कि दोनों ही आपके सामान्य सोचने समझने की शक्ति पर परदा डाल देते हैं और ऐसे में इस तरह से परिचितों की दुआओं से आत्मियता की गलतफहमी हो भावुक हो जाना स्वभाविक भी है.

असल में सामान्य मानसिक अवस्था में यदि इन दुआओं का आप सही सही आंकलन करें तब इसके निहितार्थ को आप समझ पायेंगे मगर इतना समय भला किसके पास है कि आंकलन करे. जैसे ही कोई स्वयं सामान्य मानसिक अवस्था को प्राप्त करता है तो वो खुद इसी खजाने को लुटाने में लग लेता है. मानों की जैसे कर्जा चुका रहा हो. भाई साहब, आप मेरी मुसीबत के समय कितनी दुआयें कर रहे थे, मैं आज भी भूला नहीं हूँ. आज आप पर मुसीबत आई है, तो मैं तहे दिल दुआ करता हूँ कि आप की मुसीबत भी जल्द टले. उसे उसकी दुआ में तहे दिल का सूद जोड़कर वापस करके वैसी ही कुछ तसल्ली मिलती है जैसे किसी कब्ज से परेशान मरीज को पेट साफ हो जाने पर. एक जन्नती अहसास!!

जब आपके उपर सबसे बड़ी मुसीबत टपकती है जैसे कि परिवार में किसी अपने की मृत्यु, तब इस दुआ में ईश्वर से आपको एवं आपके परिवार को इस गहन दुख को सहने की शक्ति देने की बोनस प्रार्थना भी चिपका दी जाती है मगर स्वरुप वही दुआ वाला होता है याने कि इससे आगे और किसी सहारे की उम्मीद न करने का लाल लाल सिगनल.

दुआओं का मार्केट शायद इसी लिए हर वक्त सजा बजा रहता है क्यूँकि इसमें जेब से तो कुछ लगना जाना है नहीं और अहसान लदान मन भर का. शायद इसी दुआ के मार्केट सा सार समझाने पुरनिया ज्ञानी ये हिन्दी का मुहावरा छाप गये होंगे:

’हींग लगे न फिटकरी और रंग भी चोखा आये’

दरअसल अगर गहराई से देखा जाये तो जैसे ही आप सामने वाले को दुआओं की पुड़िया पकड़ाते हो, वैसे ही आप उसके मन में आने वाले या आ सकने वाले ऐसे किसी भी अन्य मदद के विचार को, जिसकी वो आपसे आशा कर सकता था, खुले आम भ्रूण हत्या कर देते हो और वो भी इस तरह से कि हत्या की जगह मिस कैरेज कहलाये.

जब कोई आपकी परेशानी सुन कर या जान कर यह कहे कि आप चिन्ता मत करिये मैं आपके लिए दुआ करुँगा और मेरॊ शुभकामनाएँ आपके साथ है तो उसका का सीधा सीधा अर्थ यह जान लिजिये कि वो कह रहा है कि यार, आप अपनी परेशानी से खुद निपटो, हम कोई मदद नहीं कर पायेंगे और न ही हमारे पास इतना समय और अपके लिए इतने संसाधन है कि हम आपके साथ आयें और समय खराब करें. आप कृपया निकल लो और जब सब ठीक ठाक हो जाये और उस खुशी में मिठाई बाँटों तो हमें दर किनार न कर दो इसलिए ये दुआओं की पुड़िया साथ लेते जाओ.

हाल ही में जब हमारे प्रधान मंत्री जी जन सुरक्षा की तीन तीन योजनाओं की घोषणा करने लगे, जैसे कि दुर्घटना बीमा, पेंशन एवं जीवन बीमा के लिए प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना, अटल पेंशन योजना एवं प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना- जिसमें पैसे आपके ही लगने है और उसी के आधार पर आगे आपको लाभ प्राप्त करना है, तब उनका ओजपूर्ण अंदाज भी कुछ ऐसा ही दुआओं और प्रार्थना वाला नजर आया. इसका सार उन्होंने अपने भाषण के शुरुआती ब्रह्म वाक्य में ही दे दिया जब उन्होंने कहा कि गरीब को सहारा नहीं, शक्ति चाहिये.

और बस मैं सोचने को मजबूर हुआ कि चलो, अब सरकार भी हम आम जनों जैसे ही दुआ करने में लग गई है और अधिक जरुरत पड़ने पर आपको और आपके परिवार को शक्ति प्रदान करने हेतु प्रार्थना में.

याने कि अब आप अपने हाल से खुद निपटिये और सरकार आपकी मुसीबतों से निपटने के लिए दुआ और उस हेतु आपको शक्ति प्रदान करने हेतु प्रार्थना करेगी.

मौके का इन्तजार करो कि जब ये ही लोग पाँच साल बाद आपके पास अपनी चुनाव जीतने की मुसीबत को लेकर आयें तो आप सूद समेत तहे दिल से दुआ देना, बस!!

वोट किसे दोगे ये क्यूँ बतायें! ये तो गुप्त मतदान के परिणाम बतायेंगे.

-समीर लाल ’समीर’

 

-चित्र गुगल साभार..

गुरुवार, अप्रैल 30, 2015

त्रासद मानसिकता

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अभी लम्हा पहले, जैसे ही अपने थके शरीर को कुछ आराम देने की एक ख्वाहिश लिए उसने पलंग पर लेट आँख मूँदी ही थी कि उसे लगा कि मानो कई सारी रेलगाड़ियाँ धड़धड़ाती हुई उसके मकान के नीचे से गुजरी हों...आँख खोली तो देखा पूरा मकान और उसकी हर दीवार उस धड़धड़ाहट से जैसे काँप उठी हो...न कभी सोचा होगा और न कभी अहसासा होगा इस धड़धड़ाहट को तो दहल कर काँप जाना ऐसे में एकदम लाज़मी सा है.

उसने महसूस किया अपने सीने पर आ गिरी छत की उस बीम का वजन कि इंच भर मौत से दूर...सांसे दफन होने की कगार पर..और खिड़की से आती कोहराम की आवाजें..हृदय विदारक क्रंदन के बीच...पदचापों की भागती चित्कार...जाने कौन कहाँ कैसे दफन होगा..कौन से अरमान...कौन से सपने...क्या कोई सोचता होगा इस मंजर के बीच...एक जिन्दगी की भीख मांगती मौत से फरियाद करती जुबां...चुप चुप सी घुँटी हुई आवाज...

चलते चलते एक विचार...कि इस जीवन से..जाने क्या किसने पाया होगा और जाने क्या किसने खोया होगा, कौन किस अपराध बोध तले क्या महसूस करता होगा की सोच से आगे ...आज सोच मजबूर हुई होगी...इस जीवन से...मात्र जी लेने की एक ऐसी तमन्ना लिए..और आती एक साँस...

और वो भी एक और इन्तजार में कि कैसे ले लूँ एक सांस और....

त्रासदी से गुजरती मानसिकता कभी सुकूं नहीं तलाशती...

उसकी सोच के परे की बात है सुकूँ और शांति जैसी शब्दावलि....

उसे तलाश होती है तो बस इतनी कि त्रासदी का असर कुछ कम हो जाये...

दुर्गति की गति को थोड़ा विराम मिल जाये..और वो जी सके एक और पल..चाहे जैसा भी पल..

एक अगला पल..जिसका उसे न अंदाज है और न ही कोई अरमान कि कैसा गुजरेगा वो पल..

मगर वो पल आये बस इतनी सी चाह...चाह कहें कि एक मात्र बचा विकल्प..

सुकूँ और शांति से भरे बेहतर पलों को जीने की चाह सिर्फ बेहतर पलों में जीते लोगों का शगल है ..

वरना तो किसी तरह जी पायें..बस इतना सा है सारा आसमान..कहने को मुठ्ठी भर आसमान...

मगर सोचें तो चिड़िया की चोंच में सिमटा सारा जहां..न जाने कितनों का..

उस जहां में जहाँ अब इन्सानों के नाम बदले है नम्बरों में..मृतक क्रमांक ७७८... मृतक क्रमांक ९७१ ..मजहब ..न मालूम..और सरकारी इन्तजाम...सब एक साथ जले और राख हो गये!!

सड़कों पर सबके लिए एक सा कैंडिल लाईट विज़ल..एक से फूल..एक से आँसूं..और एक सी राजनीति..

कुछ गहरे उतर कर सोचो तो...

एक दौड़ क्यूँ..

अगर ठौर ये..

फिर कहर क्यूँ?

-रुको, सोचो...

कुछ पल को जी लो जरा!!

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, मार्च 01, 2015

अदृश्य दृश्य

दफ्तर आते जाते अक्सर ही ट्रेन की उपरी मंजिल में बैठ जाता हूं. घोषित ’शांत क्षेत्र’ है अर्थात आपसी बातचीत, फोन आदि की अनुमति नहीं है. अक्सर मरघट की सी शांति की बात याद आती है इस जगह. मगर जब आप किसी से बात नहीं कर रहे होते तो मन के भीतर ही भीतर कितनी सारी बातचीत कर रहे होते हैं यह देखने वाले जान ही नहीं सकते. ऐसी बातें जो यूँ तो शायद ही कर पायें कभी मगर दोनों पात्र खुद ही के भीतर आपस में प्रश्न उत्तर करते, झगड़ते, विवाद करते, जबाब माँगते, उलझन सुलझाते, हँसते और जाने क्या क्या और एकाएक आप खुद को डपट देते हैं कि ये क्या पागलपन है, खुद ही उलझे हो अपने भीतर ही भीतर बातचीत में खुद को भ्रमित करते उसी स्वनिर्मित भ्रम की दुनिया में जो तुमने खुद ही गढ़ ली है बिना कुछ देखे, बिना कुछ जाने.

खुद की झिड़की सुन सकपकाया सा देखने लगता हूँ खिड़की से बाहर. भागती इमारतें, पेड़, सड़के और ठहरा हुआ मैं. भागती ट्रेन के भीतर बैठे यही अहसास कि सब कुछ भाग रहा है और थिर हूँ मैं और थमा हुआ है वक्त मेरा कि एकाएक नजरों की सामने से भागती इमारतें, पेड़ सब बदल जाते हैं कुछ चेहरों में, कुछ ऐसे स्थानों में जो यादों में कहीं दफन हैं और फिर बातचीत का सिलसिला शुरु- वही प्रश्न उत्तर, वही झगड़े, वही विवाद, वही उलझाव सुलझाव, हँसी ठहाके, क्रुदन, खुशबू का अहसास, साथ गुजारे पल और फिर वही खुद को खुद की झिड़की. चेहरे के बदलते भाव और फिर वही खिड़की के बाहर दिखते बदलते अदृश्य दृश्य.

कोई भीड़ में तन्हा और कोई अकेला ही भीड़..समय वही..वक्त का तकाजा जुदा जुदा..

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डंडी से ढोल पीटता बाप

और दो बाँसों के बीच

बँधी रस्सी पर

संभल संभल पर खुद को संभालती

डगमग डगमग करतब दिखाती

परिवार के पेट की खातिर

मैली कुचैली फ्राक में छोटी नटनी गुड़िया..

तालियाँ बजाते तमाशबीन...

याद करता हूँ नजारा

और

उतर पड़ता हूँ मन के भीतर

यादों की डोर पर

संभल संभल कर कदम जमाते

कुछ दूर चलने की नाकाम कोशिश

सुनाई देती है खुद की झिड़क

और लौट आता हूँ फिर अपनी

आज की दुनिया में..

कल फिर इन्हीं राहों से गुजरने के लिए...

-समीर लाल ’समीर’

 

चित्र साभार मित्र प्रशांत के ब्लॉग से

सोमवार, जनवरी 05, 2015

सुनहरी चाबुक

अगर आपके पास घोड़ा है तो जाहिर सी बात है चाबुक तो होगी ही. अब वो चाबुक हैसियत के मुताबिक बाजार से खरीदी गई हो या पतली सी लकड़ी के सामने सूत की डोरी बाँधकर घर में बनाई गई हो या पेड़ की डंगाल तोड़ कर पत्तियाँ हटाकर यूँ ही बना ली गई हो. भले ही किसी भी तरह से हासिल की गई हो, चाबुक तो चाबुक ही रहेगी जो हर घोड़े के मालिक के पास होती है. याने घोड़ा है तो चाबुक तो पक्का होगी ही. मगर इसके उलट यदि किसी के पास चाबुक है तो घोड़ा भी होगा ही- यह मान लेना ९०% मामलों में गलत ही साबित होगा.

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दरअसल यही चाबुक मनुष्य को, जो कि मूलतः स्वभाव से आलसी होता है, घोड़े के समान उर्जावान बनाती है. अधिकतर सरकारी दफ्तर इसी चाबुक के आभाव में पटे पड़े हैं आलसी शूरवीरों से. घोड़े अगर आलस्य की चादर ओढ़ लें तो गधों की श्रेणी में आ जाते हैं.

चाबुक का कार्य मुख्यत: घोड़ों को घोड़ा बनाये रख उन्हें नियंत्रण में रखने का है. चाबुक यह नहीं जानती कि वो जिस घोड़े पर बरस रही है, वो उच्च नस्ली है या आम नस्ल का घोड़ा- वो सब पर एक सी बरसती है. उसका बरसना मौसम ज्ञानी नहीं, चाबुकधारी निर्धारित करते हैं कि कितना कब कहाँ और कैसे बरसना है.

वैसे ही घोड़े, चाहे नस्ली हों या आम, नहीं जानते कि चाबुक सुनहरी धागे वाली महंगी है या घर पर बनी हुई है या डंगाल से तोड़ कर बनाई गई- वो तो बस उसके बरसने के अंदाज पर निहाल हो दौड़ते, मुड़ते और ठहरते हैं.

मगर चाबुकधारियों का अपना एक अलग जहान है, जहाँ चाबुकधारी की औकात चाबुक की क्वालिटी से आंकी जाने लगी. इसका महात्म ऐसा हो चला कि चाबुकधारी बजरंगी मठाधीष अब अपने चाबुक फैशन डिज़ानर्स से बनवाने लगे. पहले वाली सूत की डोरी लगी चाबुक मठाधीषों को निम्न श्रेणी की नजर आने लगी. हालांकि घोड़े इस बात से अब तक अनभिज्ञ ही हैं कि वो किस चाबुक से हकाले जा रहे हैं. उन्हें तो बस हकाले जाने से मतलब है.

चाबुक का करिश्मा ऐसा कि हकालना रोको और बस देखो घोड़ों को खच्चर और गधों में तबदील होते. आलसी, कामचोर और धूप में सूखी घास को देश के बाहर जमा धन मान कर सूख कर काँटा हो जाने वाले. खुशहाली की दरिया को, हरी घास समझ कर, चर जाने की गलतफहमी पाल मोटे होकर खुश हो जाने वाले गधे.

चाबुक रुकी और बस, हर हरे भरे खेत में मुँह मारना मानो इनका जन्म सिद्ध अधिकार हो. जहाँ से जितना चर पाओ..भरते जाओ. लीद जमा करा दो विदेशों में. कोई जान ही नहीं पायेगा कि क्या चरा और क्या निकाला.

नये घोड़ों की नई नसल भी हरी घास और चने की खुद के लिए आवंटित खुराक छोड़ कर चाबुक के आभाव में यत्र तत्र सर्वत्र मुँह मारने की फिराक में निकल पड़ती है और खा अघा कर गधा बन जाने की होड़ में नित नये कीर्तिमान स्थापित करने में लग गौरवांवित हुई जाती है.

बहुत जरुरी है कि मठाधीष चाहे डिज़ाईनर चाबुक ही लिये रहे, क्या फर्क पड़ता है एक चुटकी नमक किनारे कर देने से, पर इतना ध्यान रखे कि चाबुक लहरती रहे, गरजती रहे और बरसती रहे. चाबुक चलाना भी तो अपने आप में एक कला ही है. कभी डोरी हवा में नचाओ, कभी हड्डे पर मार करके डराओ और कभी सच में शरीर पर बरसाओ. जब जैसा मौका हो, जब कहीं भटकन का अहसास हो, पुनः रास्ते पर लाने का हुनर ज्ञात रहे बस. ज्ञात हुनर अज्ञात अभिलाषाओं की भंवर में डूब न जाये कहीं.

अंत में उद्देश्य तो यही है अगर विकास का मार्ग चुना है तो हर घोड़े जो हांके जायें वो इसी विकास मार्ग पर बने रहें. हर भटकन पर चाबुक बरसती रहे और बजरंगी मठाधीष घोड़े संभालने में यही न भूल बैठे कि उनका मुख्य कार्य विकास का मार्ग प्रश्सत करना है न कि घोड़ों को संभालने की कला में दक्षता हासिल करना. थोड़ा सा विवेचन जरुरी है वरना घोड़ा संभाल सीना फुलाये घुमते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा मात्र मति भ्रम के.

यूँ तो अभी चिन्ता का विषय यह है नहीं क्यूँकि सबसे बड़े अस्तबल के मठाधीष अभी यही सीखने की कोशिश में जुटे हैं कि चाबुक डोरी की तरफ से पकड़ कर चलाते हैं या लकड़ी की तरफ से. सीख भी जायेंगे तो ऐसे न जाने कितने ही प्रश्न उनकी राह में खुद मुँह बाये नजर आयेंगे. ये बात न तो वो जानते है और न ही उनकी जननी और न ही उनके सलाहकार!! खुदा उन पर रहम करे भी तो क्या? और हम दुआ करें भी तो क्या?

पुराने छुटपुट क्षेत्रिय अस्तबल के घोड़े जो पूर्णतः गधे हो चुके थे, पुनः मात्र विरोध के उद्देशय से एकजुट हो घोड़ा बनने की लम्बी तैयारी में है. अभी तो चार साल हैं. गधे और खच्चर बन चुके घोड़ों को च्यवनप्रास खिलाया जा रहा है. फिर से उन्हें घोड़ा बनाये जाने की पुरजोर तैयारी की जा रही है. उनके तथाकथित मठाधीषों के चाबुक भी डिजानर भले न भी हों तो भी फैशनेबल तो है ही..और फिर पहले ही बता दिया है कि चाबुक तो चाबुक होता है- घोड़े इसमें फरक नहीं करते. मगर उनकी समस्या यह है घोड़े से गधे बने को तो आप फिर से चचच- चाबुक, चना और च्यवनप्राश के भरोसे घोड़ा बना सकते हैं मगर जो शुरु से गधा रहा हो और मात्र हरी घास और चने के जुगाड़ में आया हो, उसको कैसे बदलोगे? उनका कहना है कि कोशिश करने में क्या बुराई है अतः उन्हें शुभकामनायें तो दी ही जा सकती हैं.

पर फिर भी- जब इत्ते सारे एकजुट मुट्ठी बाँधेगे तो खुले पंजे से तो मजबूत हो ही जायेगे अतः चेताया. ये मुझ भारतीय मूल का, भारत के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने का एक छोटा सा प्रयास ही मान लिजिये.

बस, घोड़े सरपट भागें. दिशा निर्धारित रहे- और चाबुक तनी तो क्या बाधा है जो विकास मार्ग पर कोई गतिरोध बनें.

तानो अपनी सुनहरी चाबुक हे महारथी- घर वापसी का नहीं विकास प्राप्ति का मार्ग प्रस्शत रखो!! घर वापसी स्वतः इसी राजमार्ग से हो जायेगी. मेरा विश्वास कीजिये.

हे महारथी- बरसाओ चाबुक!!

सट्टाक!!