अभी लम्हा पहले, जैसे ही अपने थके शरीर को कुछ आराम देने की एक ख्वाहिश लिए उसने पलंग पर लेट आँख मूँदी ही थी कि उसे लगा कि मानो कई सारी रेलगाड़ियाँ धड़धड़ाती हुई उसके मकान के नीचे से गुजरी हों...आँख खोली तो देखा पूरा मकान और उसकी हर दीवार उस धड़धड़ाहट से जैसे काँप उठी हो...न कभी सोचा होगा और न कभी अहसासा होगा इस धड़धड़ाहट को तो दहल कर काँप जाना ऐसे में एकदम लाज़मी सा है.
उसने महसूस किया अपने सीने पर आ गिरी छत की उस बीम का वजन कि इंच भर मौत से दूर...सांसे दफन होने की कगार पर..और खिड़की से आती कोहराम की आवाजें..हृदय विदारक क्रंदन के बीच...पदचापों की भागती चित्कार...जाने कौन कहाँ कैसे दफन होगा..कौन से अरमान...कौन से सपने...क्या कोई सोचता होगा इस मंजर के बीच...एक जिन्दगी की भीख मांगती मौत से फरियाद करती जुबां...चुप चुप सी घुँटी हुई आवाज...
चलते चलते एक विचार...कि इस जीवन से..जाने क्या किसने पाया होगा और जाने क्या किसने खोया होगा, कौन किस अपराध बोध तले क्या महसूस करता होगा की सोच से आगे ...आज सोच मजबूर हुई होगी...इस जीवन से...मात्र जी लेने की एक ऐसी तमन्ना लिए..और आती एक साँस...
और वो भी एक और इन्तजार में कि कैसे ले लूँ एक सांस और....
त्रासदी से गुजरती मानसिकता कभी सुकूं नहीं तलाशती...
उसकी सोच के परे की बात है सुकूँ और शांति जैसी शब्दावलि....
उसे तलाश होती है तो बस इतनी कि त्रासदी का असर कुछ कम हो जाये...
दुर्गति की गति को थोड़ा विराम मिल जाये..और वो जी सके एक और पल..चाहे जैसा भी पल..
एक अगला पल..जिसका उसे न अंदाज है और न ही कोई अरमान कि कैसा गुजरेगा वो पल..
मगर वो पल आये बस इतनी सी चाह...चाह कहें कि एक मात्र बचा विकल्प..
सुकूँ और शांति से भरे बेहतर पलों को जीने की चाह सिर्फ बेहतर पलों में जीते लोगों का शगल है ..
वरना तो किसी तरह जी पायें..बस इतना सा है सारा आसमान..कहने को मुठ्ठी भर आसमान...
मगर सोचें तो चिड़िया की चोंच में सिमटा सारा जहां..न जाने कितनों का..
उस जहां में जहाँ अब इन्सानों के नाम बदले है नम्बरों में..मृतक क्रमांक ७७८... मृतक क्रमांक ९७१ ..मजहब ..न मालूम..और सरकारी इन्तजाम...सब एक साथ जले और राख हो गये!!
सड़कों पर सबके लिए एक सा कैंडिल लाईट विज़ल..एक से फूल..एक से आँसूं..और एक सी राजनीति..
कुछ गहरे उतर कर सोचो तो...
एक दौड़ क्यूँ..
अगर ठौर ये..
फिर कहर क्यूँ?
-रुको, सोचो...
कुछ पल को जी लो जरा!!
-समीर लाल ’समीर’
कितनी अजीब बात है न ... सबको पता है ठोर, फिर भी है दोड़ ... और दौड़ भी अनंत जैसे सब कुछ इसी जीवन में मिल ही जाएगा ... कहाँ और कब तक दो-चार का फेर ... आ जाओ समीर भाई कुछ दिन पुरानी फक्कड़ मस्ती के बिताते हैं ...
जवाब देंहटाएंजन्म को मृत्यि का पीना ज़हर है
जवाब देंहटाएंवक्त की हर सांस में सोई कहर है
चान्द पर रख चाहे गर्व कर ले
अंत में इंसान का मरघट शह्र है
बहुत बढ़िया लिखा है।
जवाब देंहटाएंसब कुछ जानते समझते हुए भी हम भाग रहे हैं , अपने ही बनाए चक्र व्यूह में फँसे जी रहे हैं !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (02-05-2015) को "सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं" (चर्चा अंक-1963) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
श्रमिक दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
---------------
इसी का नाम जिंदगी है...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण प्रस्तुति.
यही दुनिया की पहेली है जो न कभी सुलझी है न सुलझेगी .
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट ! मैंने तो इस पोस्ट को बुकमार्क ही कर दिया . धन्यवाद
जवाब देंहटाएंयही तो जीवन है
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।
बढ़िया पोस्ट।
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं भाई जी !
जवाब देंहटाएंएकदम चौकस, दुआओं में याद रखिए...
जवाब देंहटाएं