सुन कर अजीब सा लग सकता है मगर हर शहर के मुँह में एक जुबान होती है और उस जुबान की अपनी एक अलग ही जुबान होती है.
आपका शहर दरअसल वो शहर होता है जो आपके बचपन से जवानी तक के सफर का और अक्सर उसके बाद तक का भी, चश्मदीद गवाह होता है या यूँ कहें कि वो शहर जिस शहर में, आपके व्यक्तित्व की मौजूदा आलीशान इमारत जिन मुख्य स्तंभों पर आधारित है, वो स्थापित हो.
भले ही वहाँ आपने जन्म न लिया हो, भले ही वहाँ आपके माता पिता सदा किराये के मकान में रहते आये हो और आप भी किराये के मकान में रहते रह गये हों..मगर बचपन से खेलते पढ़ते घूमते ब़ड़े होते होते न जाने कब वो शहर आपमें समा जाता है. उसकी सड़के, गलियाँ, बाग बगीचे सब आपके मानस पर रच बस जाते हैं.
मुझ जैसा जबलपुर शहर का प्राणी जो आज बरसों से कनाडा में आ बसा है मगर फिर भी जब कभी कनाडा के विश्व विख्यात नियाग्रा फाल्स के सामने खड़ा होता है तो उसे उसमें जबलपुर का नर्मदा नदी का धुँआधार जलप्रपात नजर आता है और मेरी पत्नी जो मिर्जापुर की है, उसे उसी नियाग्रा फाल्स में विन्ढम का झरना. एक ही वक्त में एक ही चीज दो अलग अलग प्राणियों की आँखों को दो अलग अलग आलम दे – ये सिर्फ जहन में बसे एक शहर की औकात है.
अपना शहर और अपने शहर का जहां मे बसना समझना हो तो हालात तो यूँ हैं कि श्रीवास्तव जी जो सन १९६५ में लखनऊ से कनाडा में आ बसे थे सपरिवार और फकत चार पाँच साल में भारत जाना आना होता रहा था जिनका मात्र दो या तीन हफ्तों के लिए, वो अभी जब पिछले माह एक लम्बी बीमारी के बाद गुजरे तो उनके अंतिम संस्कार के दौरान लोगों को कहते सुना कि भाई साहब का बहुत मन था कि अंतिम सांस वो लखनऊ में ही लेते मगर मन का मांगा कब पूरा होता है. तब लगा कि ये होता है अपना शहर जो मरने के बाद भी आपके नाम के साथ गुथा रहता है.
आपके शहर के मुँह में जो जुबान होती है वो जरा सा फिसली और समझो कि हुआ आपका बंटाधार. फिर भले आप शहर में हों या उसे छोड़ कर कहीं और जा बसे हों मगर वो शहर आपको छोड़ने को तैयार नहीं..वो तो आपके भीतर रच बस चुका होता है और साथ साथ चलता रहता है और फिर जो आपको उस शहर से होने की पहचान देती है, वो होती है उस शहर के मुँह में बसी जुबान की अपनी एक अलग जुबान. कुछ ज्ञानी उसे उस शहर की भाषा या महाज्ञानी उसे उस शहर की बोली भी कहते हैं.
चाहे आप अपना शहर छोड़ कर दिल्ली, बम्बई या बैंगलोर आ बसें या सात समुन्दर पार अमेरीका, कनाडा आ बसें तो भी. जब कभी बात निकलेगी तो पूछने वालों का पहला प्रश्न ही यह होगा कि आप कहाँ से हैं?
तब आप जैसे ही बताते हो कि आप जबलपुर से हैं और वो पूछने वाला भी अगर आपके शहर का ही हुआ तो अति प्रसन्न भाव से बतायेगा कि ’गजब हो गओ महाराज!! हम भी जबलईपुर से हैं’. ये जबलपुर का जबलपुर वाले का जबलपुर वाले के सामने जबलईपुर निकल जाना एकदम स्वभाविक प्रक्रिया है, इसके लिए सामने वाले को न तो कुछ सोचना होता है और न ही कोई प्रयास करना होता है. यह एकदम सहज हो जाने वाली घटना है और आप जान जाते हो कि ये तो अपने शहर का सर्टिफाईड बंदा है. ये होती है उस शहर के मुँह में होने वाली जुबान की अपनी एक अलग जुबान. उस शहर की बोली.
तब बात आगे बढ़ती है और वो पूछता है कि काये, जबलपुर में कहाँ से? और आप जैसे ही उसे अपना मोहल्ला बताते हो, हालांकि अब उस मोहल्ले में आपका कुछ भी नहीं मगर वो मोहल्ला फिर भी हमेशा आपका ही रहता है, तुरंत वो कहता है कि अरे!! वहीं तो वो शर्मा जी रहते थे स्टेट बैंक वाले जिनकी लड़की का ड्राईवर के साथ चक्कर था. ये जो एकाएक बेवजह शर्मा जी और उनकी लड़की की भद्द उतार दी गई.. वो होती है उस शहर के मुँह में रहने वाली जुबान.
ये इसी शहर के मुँह में रहने वाली जुबान की मेहरबानी है कि अच्छा अच्छा बोले तो आप अच्छे और पोल खोल दे तो आप बुरे.
वैसे सच जानो तो दर्ज तो आपके शहर की मुँह की जुबान पर आपके बारे सब कुछ है ही..इतना कुछ कि जो करम आपने उस शहर में न कर, सेफ रहने के लिहाज से किसी और शहर में किये हों उसे तक वो अपने सीने से लगाये बैठी रहती है और न जाने कब, एकाएक लपलपा के बोल दे और फिर आप देखिये कि क्या तमाशा खड़ा होता है..
कभी अपने शहर के मुँह की जुबान से, अपनी पैदाईश से लेकर घटना दर घटना मय सबूत के पूरी जन्म कुण्डली, जिसे शायद आपको खुद भी याद करने के लिए दिमाग पर जोर डालना पड़े, सुनना हो तो एक काम करियेगा..बस!! एक बार एक बड़ा चुनाव लड़ लिजियेगा किसी जानी मानी पार्टी की टिकट पर..फिर सुनियेगा..मन लगा कर कि क्या क्या गुल खिलाये थे आपने मियाँ..अपने ही शहर की मुँह की जुबान से...उसी की जुबान में..
और तब आप भी मान जायेंगे..कि
’हर शहर के मुँह में एक जुबान होती है’
बस!! डर इतना सा है कि इस बदलती दुनिया में कहीं स्मार्ट सिटी का कल्चर शहर को बेजुबान न बना दे!! मुंबई बहुत नहीं तो थोड़ा स्ट्रीट स्मार्ट तो है ही और वो इसका काफी हद तक प्रमाण भी देता रहा है अन्य शहरों की तुलना में.
चित्र साभार: गुगल
समीरजी, आपने मेरे मन की बात कह दी...सुबह सुबह इतना सुंदर लेख पढ़ने को मिल जाये तो दिन भर यादों का सिलसिला जारी रहता है.....
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया लेख है समीर जी! हमेशा की तरह इस लेख में भी आप ने हास्य-व्यंग्य- विचार-भाव-विषय के साथ आत्मीयता- सभी कुछ एक साथ शब्दों में गूँथ कर प्रस्तुत किया है। लेख के लिये बहुत -बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया लेख है समीर जी! हमेशा की तरह इस लेख में भी आप ने हास्य-व्यंग्य- विचार-भाव-विषय के साथ आत्मीयता- सभी कुछ एक साथ शब्दों में गूँथ कर प्रस्तुत किया है। लेख के लिये बहुत -बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएंbahut badhiya lekh.
जवाब देंहटाएंलाजवाब ! अपने शहर के अलावा दूसरे शहरों की जुबान भी सीखनी चाहिए , बहुत नहीं तो थोडी़-थोडी़ । न्यूजर्सी की जुबान न समझने पर खूब नुक्सान झेला !!
जवाब देंहटाएंएकदम सच कहती सशक्त प्रस्तुति ! पोल खोलने वालों का तो अति उत्साही नेटवर्क भी सक्रिय रहता है अपने ही शहर में जो उन कारनामों को भी प्रामाणिकता के साथ उजागर करने से नहीं चूकता जो आपने सपने में भी नहीं किये होते हैं ! हा हा हा ! रोचक पोस्ट !
जवाब देंहटाएंबिलकुल सच ...... :)
जवाब देंहटाएंकितने प्यार से आपने अपनी बात कही !!
बहुत खूब कहा आपने समीर जी—
जवाब देंहटाएंशहर की भी जुबान होती है—और मुजे भी याद आई
भीनी-भीनी सी अपने शहर की—मैं आगरा से हूं.
क्योंकि अभी मैं सिडनी में हूं—सो याद आ ही गयी.
बहुत खूब कहा आपने समीर जी—
जवाब देंहटाएंशहर की भी जुबान होती है—और मुजे भी याद आई
भीनी-भीनी सी अपने शहर की—मैं आगरा से हूं.
क्योंकि अभी मैं सिडनी में हूं—सो याद आ ही गयी.
वाह , हर शहर की तरह नया अंदाज़ है आपका ! मंगलकामनाएं आपकी लेखनी को
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, प्याज़ के आँसू - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंपहले शहर में हम उस शहर में रहते थे वहाँ से हटते ही वह हममें आ बसता है .अलग नहीं होता फिर,एक छाप लगा देता है अपनी.
जवाब देंहटाएंbahut achha likha aapne ...bahut baut badhai..
जवाब देंहटाएंdada , kya baat kahi hai .
जवाब देंहटाएंwaah , bahut dino ke baad kuch achaa sa man ko lagne waala padha
thanks a lot dada
vijay
Yahi to.... :)
जवाब देंहटाएंये तो सच है की हर शहर की अपनी पहचान और जुबान होती है जो उम्र भर उसकी पहचान बन जाते हैं ...
जवाब देंहटाएंपर समय का भी तकाजा है ... स्मार्ट सिटी भी बनेंगे ... अभी नहीं तो कब तक ये दौर रुकेगा ...
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना ..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है...
सच कहा है अपना शहर दिल में रच बस गया होता है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि शहर वो कैसा है या था.
जवाब देंहटाएंbahut badhiya likha hai ...bachpan ka shahar to vajood ka hissa hota hi hai .
जवाब देंहटाएंअतीत भी कहीं दफन होते हैं मियाँ...हम भले हो जायें...अपने गाँव, शहर और देश से हम दूर तो जा सकते हैं लेकिन... दिल तो वहीँ बसता है...
जवाब देंहटाएंजी आपने बिलकुल सही लिखा है शहर इन्सान के अंदर रच बस जाता है । बस बोलते ही पहचान में आ जाता है ।
जवाब देंहटाएंbahut sunder sir
जवाब देंहटाएंसमीर जी , बेहतरीन लेख बहोत अच्छी तरह से आपने दिल की बात रखी. धन्यवाद्
जवाब देंहटाएंबिलकुल होती है ! और वो ज़बाँ सिर्फ उस शहर में रहनेवालों को ही सुनाई देती है। बाहर के लोग कान लगाके भोंहे तानके सुनते हैं पर कुछ सुनाई नहीं देता!
जवाब देंहटाएंआपको सपरिवार श्री गणेश जन्मोत्सव की हार्दिक मंगलकामनाएं!
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया POST
जवाब देंहटाएंहर शहर की अपनी जुबान है, जैसे हम बुंदेलखंडी को कोई बुंदेली मिल जाता है तो स्वाभाविक ही उसके मुँह से निकलता है कहों कितें रते हो महाराज हमीरपुर मे।। वाह सुंदर लेख
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