सोमवार, दिसंबर 20, 2010

कैक्टस

सेठ बनारसी दास शहर के गणमान्य नागरिक एवं प्रतिष्ठित व्यापारी हैं. अगले विधान सभा चुनाव में सत्ताधारी पार्टी का टिकिट पाने के लिए तरह तरह के आयोजन कर बड़े बड़े नेताओं को आमंत्रित करते रहते हैं.

मुख्य मंत्री अपनी एक दिवसीय यात्रा पर शहर आने वाले हैं. बनारसी दास जानते हैं कि हल्के फुल्के आयोजन के लिए मुख्य मंत्री समय देंगे नहीं.

बहुत सोच विचार कर एक ऐसा प्रयोजन बनाना है कि मुख्य मंत्री घर आने से मना न कर सकें.

तुरंत याद आया पिताजी अभी-अभी गुजरे है .....बस, पिता जी की पुण्य तिथी का आयोजन कर डाला. मुख्य मंत्री आये, श्रृद्धांजलि दी. समाज में सेठ जी का रुतबा दुगना हो गया.

पिता जी को गांव में गुजरे वैसे भी ७ महिने तो बीत ही चुके थे.

 

अब एक कविता:

एक उन्माद

cactus

उम्र के उस पड़ाव मे

उगा लिया था

हथेली पर

एक कैक्टस

अब

उखाड़ना चाहता हूँ

मगर

कांटे डराते हैं मुझे!!

बुधवार, दिसंबर 08, 2010

पहाड़ी ओहदे..

सरकारी घर मिला हुआ था पिता जी को, पहाड़ के उपर बनी कॉलोनी में- अधिकारियों की कॉलोनी थी- ओहदे की मर्यादा को चिन्हित करती, वरना कितने ही अधिकारी उसमें ऐसे थे कि कर्मों से झोपड़ी में रखने के काबिल भी नहीं, रहना तो दूर की बात होती. मजदूरों और मातहतों का खून चूसना उन्हें उर्जावान बनाता था.

वो अपने पद के नशे में यह भूल ही चुके थे कि कभी उन्हें सेवानिवृत भी होना है. खैर, सेवा के नाम पर तो वो यूँ भी कलंक ही थे तो निवृत भला क्या होते लेकिन एक परम्परा है, जब साथ सारे अधिकार भी पैकेज डील में जाते रहते हैं. खुद तो खैर औपचारिक रुप से सेवानिवृत होने के साथ ही शहर में कहीं आकर बस जाते मगर बहुत समय लगता उन्हें, जब वो वाकई उस पहाड़ वाली कॉलोनी से अपनी अधिकारिक मानसिकता उतार पाते. जिनका जीवन भर खून पी कर जिन्दा रहे, उन्हीं से रक्त दान की आशा करते. कुछ छोड़ा हो तो दान मिले. खाली खजाने से कोई क्या लुटाये.

उसी पहाड़ पर उन्हीं अधिकारियों के बच्चे, हम सब भरी दोपहरिया में निकल लकड़ियाँ और झाड़ियाँ बीन कर चट्टानों के बीच छोटी छोटी झोपड़ियाँ बनाते और उसी की छाया में बैठ घर घर खेलते. अपने घर से टिफिन में लाया खाना खाते मिल बाँट कर और उस झोपड़ी को अपना खुद का घर होने जैसा अहसासते. मालूम तो था कि शाम होने के पहले घर लौट जाना है या अगर ज्यादा गरमी लगी तो शाम से कोई वादा तो है नहीं कि तुम्हारे आने तक रुकेंगे ही, और होता भी तो वादा निभाता कौन है? फिर रात तो गर्मी में कूलर और सर्दी में हीटर में सोकर कटेगी (आखिर अधिकारी के बेटे जो ठहरे) तो झोपड़ी की गर्मी/सर्दी की तकलीफ का कोई अहसास ही नहीं होता. घर से बना बनाया खाना और बस लगता कि काश इसी में रह जायें.

वातानुकूलित ड्राईंगरुम में बैठकर गरीबी उन्मूलन पर भाषण देने और शोध करने जैसा आनन्द मिला करता था उन झोपड़ियों में बैठ कर.

पहाड़ों पर तफरीह के लिए घूमने जाना और पहाड़ों की दुश्वारियों को झेलते हुए पहाड़ों पर जीवन यापन करना दो अलग अलग बातें हैं, दो अलग अलग अहसास जिन्दगी के.

सुनते हैं आजकल युवराज ऐसे ही कुछ अहसास रहे हैं शासन की बागडोर संभालने के पहले.

काश!! दुश्वारियाँ, परेशानियाँ और दर्द बिना झेले अहसासी जा सकती.

भरी रसोई में ही उपवास भी धार्मिक कहलाता है वरना तो फक्कड़ हाली को कौन पूछता है. न कोई पुण्य मिलता है, न ही पुण्य प्राप्ति की आशा उन दो रोटियों की उम्मीद में.

भगवान भी कैसे भेदभाव करता है-शौकिया भूखा रहने वालों को पुण्य और मजबूरीवश भूखा रहने वालों को अगले दिन फिर भूख झेलने की सजा.

ahode

 

कहने को

बहुत कुछ है

मगर लंगड़े हालात ऐसे

कि

जुबान लड़खड़ा जाती है...

और

बैसाखी मुहैया कराने को

सक्षम हाथ

कहते हैं

मैं

नशे में हूँ!!

-समीर लाल ’समीर’

 

नोट: जब यह पोस्ट आयेगी, तब मैं देहरादून के रास्ते में रहूँगा. शायद देहरादून ९ तारीख की रात पहुँच कमेंट अप्रूव कर पाऊँ अगर कनेक्शन मिला तो..वरना तो भगवान भरोसे देश चल रहा है तो हम तो चल ही जायेंगे. :)

देहरादून और नजदीकी ब्लॉगर अगर मिलना और संपर्क करना चाहें तो नम्बर ०८८८ ९३७ ६९३७…

रविवार, दिसंबर 05, 2010

पूर्ण विराम...

मुझे नहीं, वो मेरी लेखनी पसंद करती है. मुझे तो वो कभी मिली ही नहीं और ये भी नहीं जानता कि कभी मिलेगी भी या नहीं? बस जितना जानती है मुझे, वो मेरे लेखन से ही. कभी ईमेल से थोड़ी बात चीत या कभी चैट पर हाय हैल्लो बस.

मगर उसे लगता है कि वो मुझे जानती है सदियों से. एक अधिकार से अपनी बात कहती है. मुझे भी अच्छा लगता है उसका यह अधिकार भाव.

पूछती कि तुम कौन से स्कूल से पढ़े हो, क्या वहाँ पूर्ण विराम लगाना नहीं सिखाया? तुम्हारे किसी भी वाक्य का अंत पूर्ण विराम से होता ही नही ’।’ ..हमेशा ’.’ या इनकी लड़ी ’....’ लगा कर वाक्य समाप्त करते हो. शायद उसने मजाक किया होगा मेरी गलती की तरफ मेरा ध्यान खींचने को.

ऐसा नहीं कि मैं पूर्ण विराम लगाना जानता नहीं मगर न जाने क्यूँ मुझे पूर्ण विराम लगाना पसंद नहीं. न जिन्दगी की किसी बात मे और न ही उसके प्रतिबिम्ब अपने लेखन में. मुझे हमेशा लगता है अभी सब कुछ जारी है. पूर्ण विराम अभी आया नहीं है और शायद मेरी जैसी सोच वालों के लिए पूर्ण विराम कभी आता भी नहीं..कम से कम खुद से लगाने को तो नहीं. जब लगेगा तो मैं जानने के लिए हूँगा नहीं.

कहाँ कुछ रुकता है? कहाँ कुछ खत्म होता है? मेरा हमेशा मानना रहा है कि - जब सब कुछ खत्म हो जाता प्रतीत होता है तब भी कुछ तो रहता है. एक रास्ता..बस, जरुरत होती है उसे खोज निकालने की चाह की, एक कोशिश की.

मैं उसे बताता अपनी सोच और फिर मजाक करता कि अंग्रेजी माध्यम से पढ़ा हूँ न, इसलिए पूर्ण विराम लगाना नहीं सीखा..वो खिलखिला कर हँसती. उसे तो पहले ही बता चुका था कि सरकारी हिन्दी स्कूल से पढ़ा हूँ.

वो खोजती मेरी वर्तनी की त्रुटियाँ, वाक्य विन्यास की गलतियाँ और लाल रंग से उन्हें सुधार कर ईमेल से भेजती. मैं उसे मास्टरनी बुलाता तब वो पूछती कि लाल रंग से सुधारना अच्छा नहीं लगता क्या...जबकि उसका इस तरह मेरी गलतियाँ सुधारना मुझे अच्छा लगता और मुझे बस यूँ ही उसे मास्टरनी पुकारना बहुत भाता.

बातों से ही अहसासता कि वो जिन्दगी को थाम कर जीती है, बिना किसी हलचल के और मैं बहा कर.

मुझे एक कंकड़ फेंक उस थमे तलाब में हलचल पैदा करने का क्या हक, जबकि वो कभी मेरा बहाव नहीं रोकती.

अकसर जेब से कंकड़ हाथ में लेता फिर जाने क्या सोच कर रुक जाता फेंकने से..और रम जाता अपने बहाव में.

सब को हक है अपनी तरह जीने का...

लेकिन पूर्ण विराम...वो मुझे पसंद नहीं फिर भी.

pond

थमे ताल के पानी मे

एक कंकड़ उछाल

हलचल देख

मुस्कराता हूँ मैं...

ठहरे पानी में

यह भला कहाँ मुमकिन...

फिर भी

बहा जाता हूँ मैं!!

-समीर लाल ’समीर’

गुरुवार, दिसंबर 02, 2010

इनसे मिले, उनसे मिले: देखें किनसे मिले

आज दिनांक ०२/१२/२०१० को एकाएक दोपहर में फोन बजा. ललित शर्मा, अवधिया जी(दोनों रायपुर से), विजय सप्पत्ति जी(हैदराबाद से) बवाल एवं महेन्द्र मिश्र जी की अगुवाई में भेड़ाघाट की संगमरमरी वादियों की सैर पर गये हुए थे और मैं पारिवारिक परियोजनों में उलझा घर पर ही था. पता चला डॉ महेश सिन्हा जी (रायपुर) का फोन है. वो भी एक विवाह समारोह में सम्मलित होने जबलपुर आये हैं और आज ही वापस जा रहे हैं. विवाह एक तारीख को था इसलिए वह जबलपुर में होते हुए भी कार्यशाला में नहीं आ सके. बाद में मिलने पर ज्ञात हुआ कि वह हमारे मित्र की बिटिया की शादी में ही आये हैं जिसमें हम कार्यशाला की वजह से न जा सके. अजब संयोग है. घर से मात्र १ किमी की दूरी पर ठहरे महेश जी से फिर आज शाम सुखद मुलाकात हुई. उनके सारे रिश्तेदार जो जबलपुर में हैं, सभी हमारे पारिवारिक मित्र निकले और जहाँ जिस परिवार में विवाह किया है, वह परिवार भी हमारे अर्सों से मित्र है.

गये थे मिलने डॉ महेश सिन्हा से मिलने और जाने कितने बिछुड़े हुए पुराने पुराने साथियों से मुलाकात हो गई. बहुत आनन्द आया, उसी अवसर पर बतौर सबूत एक तस्वीर खिंचवा ली गई है, वो पेश है:

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कल दिनांक ०१/१२/२०१० को जबलपुर हिन्दी ब्लागर्स कार्यशाला का आयोजन होटल सूर्या के कांफ़्रेंस हाल में सायं ६ बजे से किया गया. कार्यशाला के मुख्य अतिथि श्री विजय सत्पथी, हैदराबाद एवं विशिष्ठ अतिथि श्री ललित शर्मा, रायपुर एवं श्री जी के अवधिया, रायपुर रहे. साथ ही जबलपुर से राजेश पाठक, महेंद्र मिश्रा जी, गिरीश बिल्लोरे जी, कार्टूनिस्ट राजेश डूबे जी,बवाल जी,पंकज गुलुस, डाक्टर विजय तिवारी’किसलय’, श्री अरुण निगम, विवेकरंजन श्रीवास्तव, सलिल समाधिया, सार्थक पाठक, प्रेम फ़रुख्खाबादी (सपत्नीक), आनंद कृष्ण ,संजू तिवारी आदि इस कार्यशाला में शामिल हुए. अनेकों पत्रकार एवं प्रेस फोटोग्राफर्स भी इस मौके पर उपस्थित थे.

इसी अवसर पर हिन्दी ब्लॉगिंग में आचार संहिता, हिन्दी ब्लॉगिंग के प्रचार एवं प्रसार के लिए आवश्यक कदम एवं अन्य विषयों पर लोगों ने अपने विचार प्रकट गये जिसकी अधिकारिक रिपोर्ट समारोह के अधिकृत प्रवक्ता श्री गिरीश बिल्लोरे जी द्वारा शीघ्र जारी की जावेगी .

उसी अवसर के कार्यक्रम प्रारंभ होने के पूर्व के कुछ चित्र:

राजेश डुबे जी (कार्टूनिस्ट) द्वारा बनाया गया मेरा चित्र: :)

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अन्य तस्वीरें:

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यहाँ क्लिक करें, गिरीश भाई की अधिकारिक रिपोर्ट आ गई है.

गुरुवार, नवंबर 25, 2010

दिल्ली में मिले दिल वालों से..१३ नवम्बर, २०१०

इतना सारा स्नेह, इतना सम्मान-ढेरों रिपोर्टिंग.

आनन्द आ गया दिल्ली मिलन समारोह में.

अक्षरम हिंदी संसार और प्रवासी टुडे से जुडे अनिल जोशी जी एवं अविनाश वाचस्पति जी जिस दिन मैं दिल्ली पहुँचा, उसके अगले दिन ही आकर मिले. बहुत देर चर्चा हुई, चाय के दौर चले और तय पाया कि सभी ब्लॉगर मित्र कनाट प्लेस में मुलाकात करेंगे. १३ तारीख को शाम ३ बजे मिलना तय पाया.

१३ तारीख को सतीश सक्सेना जी का फोन आया और उन्होंने मुझे अपने साथ चलने का ऑफर दिया. अंधा क्या चाहे, दो आँख. मैं तुरंत तैयार हो गया मगर जब बाद में पता चला कि वह मुझे लेने नोयडा से दिल्ली विश्व विद्यालय नार्थ कैम्पस तक आये हैं और उसकी दूरी और ट्रेफिक को जाना तो लगा कि काश!! मैं खुद से चला जाता तो उन्हें इतना परेशान न होना पड़ता.

कनाट प्लेस जैन मंदिर सभागर में बहुत बड़ी तादाद में ब्लॉगर मित्र पधारे थे, सभी के नाम आप विभिन्न रिपोर्टों में पढ़ ही चुके हैं उन सबके साथ साथ वहाँ प्रसिद्ध व्यंग्यकार मान. प्रेम जनमजेय जी को पाकर मन प्रफुल्लित हो उठा. फिर पाया कि वहाँ मीडिया रिसर्च स्कॉलर श्री सुधीर जी के साथ अनेक बच्चे मीडिया शिक्षार्थी ब्लॉगिंग के विषय में कुछ जानने समझने आए हैं. बहुत अद्भुत नजारा था सब का मिलना. इन्हीं शिक्षार्थियों में एक छात्रा रिया नागपाल जिसने हिंदी ब्लॉगिंग को ही शोध के विषय के रूप में चुना है, से मुलाकात हुई और उसने मुझे याद दिलाया कि एक बार वह मेरा इसी विषय पर कनाडा से साक्षात्कार ले चुकी है. बहुत अच्छा लगा सबसे मिलकर.

लगभग सभी ब्लॉगर मित्रों को मैं तुरंत पहचान गया. राजीव तनेजा (संजू तनेजा जी से फोन पर बात हुई थी पहले), मोहिन्दर जी और सुनिता शानु जी से तो पहले भी मिला था बस, रतन सिंह  जी बिना पगड़ी के पहचान नहीं आये और अजय कुमार झा को देख लगा जैसे कोई कालेज के फर्स्ट ईयर का छात्र है, जबरदस्त मेन्टेनेन्स के लिए वो बधाई के पात्र हैं. शहनवाज से भी एक दिन पूर्व फोन पर चर्चा हुई और वहाँ इस उर्जावान युवा मिलना  से बहुत अच्छा लगा.  श्री तारकेश्वर गिरि जी ,श्री नीरज जाट जी (पहले चैट पर आवाज तो सुन ही चुका था इनकी, बस दर्शन बाकी थे) , श्री अरुण सी रॉय जी, श्री एम वर्मा जी, श्री सुरेश यादव जी (आप विशेष तौर पर मिलने के लिए एक दिन रुके रहे दिल्ली में) , श्री निर्मल वैद्य जी , श्री अरविन्द चतुर्वेदी जी, एलोवेरा वाले राम बाबू सिंह  जी, डॉ वेद व्यथित जी, मयंक सक्सेना (बाद में मयंक ने टीवी के लिए इन्टरव्यू भी लिया), कनिष्क कश्यप (बहुत व्यस्तता के बीच पधारे), दीपक बाबा, भतीजे पद्म सिंह , श्री राजीव तनेजा जी ,श्री कौशल मिश्र , पुरबिया जी,  नवीन चंद्र जोशी जी, ,पंकज नारायण जी , सुश्री अपूर्वा बजाज सुश्री प्रतिभा कुशवाहा , आदि से मिलना अद्भुत रहा.

डॉ दराल सा: अपने पिता जी की तबीयत बहुत खराब होने के बावजूद भी समय निकाल कर मिलने आये.

रचना जी ने अपनी माता जी की कविताओं की पुस्तक सस्नेह भेंट की और चूँकि अगले दिन मुझे जबलपुर के लिए रवाना होना था तो बड़ी बहन का फर्ज निभाते हुए रास्ते में खाने के लिए बिस्कुट का पैकेट भी दिया. वाकई, रास्ते में काम आया चाय के साथ खाने में.

मुझे इस बात की कतई उम्मीद न थी कि वहाँ पहुँच कर चर्चा के अलावा भाषण जैसा कुछ देकर अपने विचार रखने होंगे अतः सबसे मिलने के उत्साह में कुछ तैयारी तो की नहीं थी. मेरे पहले श्री प्रेम जनमजेय जी ने और फिर बालेन्दु दधीची जी ने अपने विचार रखे. बालेन्दु जी पूरी तैयारी में थे. पाईण्ट बना कर लाये थे और बहुत सार्थक आंकड़े प्रस्तुत किये. साथ ही ब्लॉगर्स पर आधारित एक बेहतरीन कविता भी सुनाई. उनकी तैयारी देख कर मैं घबराया कि अब मैं क्या बोलूँगा मगर जब नम्बर आया तो बस, बिना तैयारी शुरु हो गये जैसे जैसे विचार मन में आते गये, कहते चले गये. मित्रों नें अपनी जिज्ञासाएँ भी प्रकट की और मैने हर संभव प्रयत्न किया कि उसका निवारण हो सके. भाषण खतम होते ही सबने ताली बजाकर मामला ही ठप्प कर दिया कि बहुत देर हो रही है, अशोक चक्रधर जी के कार्यक्रम में जाना है तो मुझे कविता झिलाने का समय ही नहीं मिला, वरना सोचा था कि गाकर सुनाऊँगा. :) खैर, फिर कभी सही. वरना बालेन्दु जी कविता सुना जायें और हमारी सुने बिना निकल जायें, यह कैसे संभव है. बस, समय का खेल है. उनको तो पक्का दो तीन सुनानी है खूब लम्बी लम्बी.

मैं सभी मित्रों का हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपनी व्यस्त दिनचर्या से समय निकाल कर मुझे समय प्रदान किया एवं श्री अविनाश वाचस्पति, श्री अनिल जोशी जी का इस विराट आयोजन के लिए विशेष आभार.

आयोजन की समाप्ति पर फिर वापस छोड़ने भी सतीश सक्सेना जी गये तो लगा कि कितना दुष्कर कार्य वह मित्रतावश मुस्कराते हुए कर गये. लौटते वक्त सतीश भाई ने डीनर का ऑफर भी दिया लेकिन तब तक भारत के हिसाब से पेट एडजस्ट नहीं हो पाया था तो जुबान की मांग के बावजूद भी मना करना पड़ा. अगली बार के लिए ड्यू है सतीश भाई. इस दौरान भाई विनोद पाण्डे भी साथ थे और मौके का फायदा उठाते हुए विनोद जी ने रास्ते में ही दो गज़लें भी सुना डाली. वैसे थी बहुत बेहतरीन. मैं जब तक माहौल बनाता कि बदला लिया जाये, तब तक शायद सतीश भाई भाँप गये और उन्होंने स्पीड बढ़ा कर यूनिवर्सिटी पहुँचा कर उतार दिया. ये नाईंसाफी है, एक न एक दिन घेर कर सुनाऊँगा जरुर.

आशा करता हूँ हम सभी मित्र समय समय पर ऐसे आयोजन कर हिन्दी ब्लॉगिंग को समृद्ध करते रहेंगे. अनेक शुभकामनाएँ.

नोट: फोटो सभी अजय झा के यहाँ से चुराई हुई हैं.

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रविवार, नवंबर 21, 2010

तेरी बिंदिया रे!!!

कहते हैं, मुसीबत कैसी भी हो, जब आनी होती है-आती है और टल जाती है-लेकिन जाते जाते अपने निशान छोड़ जाती है.

इन निशानियों को बचपन से देखता आ रहा हूँ और खास तौर पर तब से-जब से गेस्ट हाऊसेस(विश्राम गॄहों  और होटलों में ठहरने लगा. बाथरुम का शीशा हो या ड्रेसिंग टेबल का, उस पर बिन्दी चिपकी जरुर दिख जाती है. क्या वजह हो सकती है? कचरे का डब्बा बाजू में पड़ा है. नाली सामने है. लेकिन नहीं, हर चीज डब्बे मे डाल दी जायेगी या नाली में बहा देंगे पर बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी. जाने आईने पर चिपका कर उसमें अपना चेहरा देखती हैं कि क्या करती हैं, मेरी समझ से परे रहा. यूँ भी मुझे तो बिन्दी लगानी नहीं है तो मुझे क्या? मगर एकाध बार बीच आईने पर चिपकी बिन्दी पर अपना माथा सेट करके देखा तो है, जस्ट उत्सुकतावश. देखकर बढ़िया लगा था. फोटो नहीं खींच पाया वरना दिखलाता.

यही तो मानव स्वभाव है कि जिस गली जाना नहीं, उसका भी अता पता जानने की बेताबी.

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है, तो वैसे ही यह निशान भी. श्रृंगार, शिल्पा ब्राण्ड की छोटी छोटी बिन्दी से लेकर सुरेखा और सिंदुर ब्राण्ड की बड़ी बिन्दियाँ. सब का अंतिम मुकाम- माथे से उतर कर आईने पर.

bindi

कुछ बड़ी साईज़ की मुसीबतें,  बतौर निशानी, अक्सर बालों में फंसाने वाली चिमटी भी बिस्तर के साईड टेबल पर या बाथरुम के आईने के सामने वाली प्लेट पर छोड़ दी जाती हैं. इस निशानी की मुझे बड़ी तलाश रहती है. नये जमाने की लड़कियाँ तो अब वो चिमटी लगाती नहीं, अब तो प्लास्टिक और प्लेट वाली चुटपुट फैशनेबल हेयरक्लिपस का जमाना आ गया मगर कान खोदने एवं कुरेदने के लिए उससे मुफ़ीद औजार मुझे आज तक दुनिया में कोई नजर नहीं आया. चाहें लाख ईयर बड से सफाई कर लो, मगर एक आँख बंद कर कान कुरेदने का जो नैसर्गिक आनन्द उस चिमटी से है वो इन ईयर बडस में कहाँ?

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औजार के नाम पर एक और औजार जिसे मैं बहुत मिस करता हूँ वो है पुराने स्वरूप वाला टूथब्रश ... नये जमाने के कारण बदला टूथब्रश का स्वरुप. आजकल के कोलगेटिया फेशनेबल टूथब्रशों में वो बात कहाँ? आजकल के टूथब्रश तो मानो बस टूथ ब्रश ही करने आये हों, और किसी काम के नहीं. स्पेशलाईजेशन और विशेष योग्यताओं के इस जमाने में जो हाल नये कर्मचारियों का है, वो ही इस ब्रश का. हरफनमौलाओं का जमाना तो लगता है बीते समय की बात हो, फिर चाहे फील्ड कोई सा भी क्यूँ न हो.

बचपन में जो टूथब्रश लाते थे, उसके पीछे एक छेद हुआ करता था जिसमें जीभी (टंग क्लीनर) बांध कर रखी जाती थी. ब्रश के संपूर्ण इस्तेमाल के बाद, यानि जब वह दांत साफ करने लायक न रह जाये तो उसके ब्रश वाले हिस्से से पीतल या ब्रासो की मूर्तियों की घिसाई ..फिर इन सारे इस्तेमालों आदि के हो जाने के उपरान्त जहाँ ब्रश के स्थान पर मात्र ठूंठ बचे रह जाते थे, ब्रश वाला हिस्सा तोड़कर उसे पायजामें में नाड़ा डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. नाड़ा डालने के लिए उससे सटीक और सुविधाजनक औजार भी मैने और कोई नहीं देखा.

जिस भी होटल या गेस्ट हाऊस के बाथरुम के या ड्रेसिंग टेबल के आईने पर मुझे बिन्दी चिपकी नजर आती है, मेरी नजर तुरंत बाथरुम के आईने के सामने की पट्टी पर और बिस्तर के बाजू की टेबल पर या उसके पहले ड्राअर के भीतर जा कर उस चिमटी को तलाशती है जो कभी किसी महिला के केशों का सहारा थी, उसे हवा के थपेड़ों में भी सजाया संवारा रखती थी. खैर, सहारा देने वालों की, जिन्दगी के थपेड़ों से बचाने वालों की सदा से ही यही दुर्गति होती आई है चाहे वो फिर बूढ़े़ मां बाप ही क्यूँ न हो. ऐसे में इस चिमटी की क्या बिसात मगर उसके दिखते ही मेरे कानों में एक गुलाबी खुजली सी होने लगती है.

बदलते वक्त के साथ और भी कितने बदलाव यह पीढ़ी अपने दृष्टाभाव से सहेजे साथ लिये चली जायेगी, जिसका आने वाली पीढ़ियों को भान भी न होगा.

अब न तो दाढ़ी बनाने की वो टोपाज़ की ब्लेड आती है जिसे चार दिशाओं से बदल बदल कर इस्तेमाल किया जाता था और फिर दाढ़ी बनाने की सक्षमता खो देने के बाद उसी से नाखून और पैन्सिल बनाई जाती थी. आज जिलेट और एक्सेल की ब्लेडस ने जहाँ उन पुरानी ब्लेडों को प्रचलन के बाहर किया , वहीं स्टाईलिश नेलकटर और पेन्सिल शार्पनर का बाजार उनकी याद भी नहीं आने देता है. तब ऐसे में आने वाली पीढ़ी क्यों इन्हें इनके मुख्य उपयोगों और अन्य उपयोगों के लिए याद करे, उसकी जरुरत भी नहीं शेष रह जाती है.

फिर मुझे याद आता है वह समय, जब नारियल की जटाओं और राख से घिस घिस कर बरतन मांजे जाते थे. आज गैस के चूल्हे में न तो खाना पकने के बाद राख बचती है और न ही स्पन्ज, ब्रश के साथ विम और डिश क्लीनिंग लिक्विड के जमाने में उनकी जरुरत. स्वभाविक है उन वस्तुओं को भूला दिया जाना.

सब भूला दिया जाता है. हम खुद ही भूल बैठे हैं कि हमारे पूर्वज बंदर थे जबकि आज भी कितने ही लोगों की हरकतों में उन जीन्स का प्राचुर्य है. तो यह सारे औजार भी भूला ही दिये जायेंगे, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं.

अंतर बस इतना ही है कि आज अल्प बचत का सिद्धांत पढ़ाना होता है जो कि पहले आदत का हिस्सा होता था.

अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.

बुधवार, नवंबर 10, 2010

ब्लॉगिंग अगर इंडस्ट्री है तो गलत आ गये यार!!!

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ब्लॉगिंग अगर इंडस्ट्री है तो मैने गलत चुन ली. अफसोस होता है कभी कभी. कभी कभी कहना बहुत मर्यादित वक्तव्य है सिर्फ इसलिए क्यूँकि मैं इसका हिस्सा हूँ. न होता तो कहता ‘हमेशा’.

मैं बचपन से यह गलती करता रहा हूँ मगर फितरत ऐसी कि बार बार ऐसी ही गलती कर बैठता हूँ. यही फितरत मुझे एक अच्छा भारतीय इन्सान बनाती है. मानो गलती से कुछ सीखने को तैयार ही नहीं. हर बार वो ही गलती दोहराये जा रहे हैं और कोस रहे हैं दूसरों को.

सबसे पहले सी ए(चार्टड एकाउंटेन्ट- सनधि लेखापाल) बना, एक ऐसी इन्डस्ट्री सलाहकारों की जिसमें आपकी सलाह की पूछ ही तब हो जब बाल सफेद हो जायें. जब प्रेक्टिस करता था तो हर वक्त लगता था कि जल्दी बाल सफेद हों तो प्रेक्टिस चमके और जम कर चमके..मगर सफेद भी ऐसे हों कि सिर्फ साईड साईड से कलम पर (फैशन कॉन्शस तो था ही शुरु से. रुप रंग तो अपने हाथ में होता नहीं मगर सजना संवरना तो खुद को ही पड़ता है वरना तो रुप रंग भी धक्का खाता नजर आये, खाता ही है-आपने भी अनुभव किया होगा.)

फिर राजनीति में हाथ आजमाया. यूथ कांग्रेस ज्वाईन की. शायद कारण था कि जब नेहरु जी मरे तब मैं एक बरस का भी न था. शायद दूध पीने के लिए भूख के मारे रो रहा हूँगा और घर वालों ने समझा कि नेहरु जी के मरने की खबर जानकर रो रहा है तो तब से ही कांग्रेसी होने का ठप्पा लग गया. अब घर वालों को झुठलाना तो हमारी भारतीय संस्कृति नहीं सिखाती तो कांग्रेसी ही बन गये और अब तक निभाये जा रहे हैं.

जब आस पास नजर घुमाता हूँ तब पाता हूँ कि ९० प्रतिशत से ज्यादा किसी भी राजनैतिक पार्टी में इसी तरह की किसी ऊलजलूल वजहों से हैं, कोई पहचान से, तो कोई जुगाड़ से तो कोई विकल्प के आभाव में. बहुत मुश्किल से ऐसे नेता दिखेंगे जो किसी पार्टी में उस पार्टी की मान्यताओं और राजनैतिक विचारों की वजह से हैं. तभी तो मौका देख देख कर पार्टियाँ बदलते रहते हैं.

जब यूथ कांग्रेस ज्वाईन की तो ज्वाईन करने के बाद, फिर वही पाया कि लड़कों की कौन सुने? युवा पाले जाते हैं राजनीति में ताकि शांति भंग न करें मगर सुने नहीं जाते. शांति भंग न करें का तात्पर्य यह कतई न लगायें कि बिल्कुल शांति भंग न करें बल्कि इसे ऐसा समझे कि अपने मन से किसी तरह की कोई शांति भंग न करें यानि की सिर्फ वहीं शांति भंग करें जो सफेद बाल वाले तथाकथित वरिष्ट चाहते हों जटिल मुद्दों से आमजन का ध्यान भटकाने के लिए.

राजनैतिक पार्टी में भी सुनवाई के लिए फिर बालों में सफेदी जरुरी है भले ही दिमाग युवाओं से भी गया गुजरा हो. देश की छोड़ कोई सी भी चिन्ता पालो मगर बाल सफेद रहें. ज्यादा सफलता चाहिये तो घुटना भी रिप्लेसमेन्ट लायक कर लो. खुद चल पाओ या नहीं, मगर देश चलाने लायक मान लिए जाओगे. ये बात फिर सिर्फ एक पार्टी में नहीं, सभी पार्टियों में है. राजनीति तो राजनीति है, पार्टियाँ तो सिर्फ मन का बहलाव है मतदातओं के लिए. वो ही आज इस पार्टी में, तो कल उस में. फिर भी जीते जा रहा है. ऐसे कितने ही नेता हैं जो हर जीती पार्टी के साथ जीते. बात टाईमिंग की है और टाईम मैनेजमेन्ट की. मगर यही टाईम मैनेजमेन्ट तो ब्लॉगिंग में दगाबाज बनकर उभरा.

खैर, यह सब तो जैसे तैसे समय के साथ पार हो ही गया. होना ही था, इस पर इंसानी जोर कहाँ? समय कहाँ रुकता है? एक नियमित गति से चलता जाता है. यह तो आप पर है कि उससे तेज भाग लो, या धीरे चलो या फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहो समय के भाग जाने की दुहाई देते. आधे से ज्यादा लोग इसी कोसने में जिन्दगी गुजारे दे रहे हैं और इसी मे संतोष प्राप्त कर रहे हैं. आश्चर्य यह है कि वो इसके बावजूद भी खुश हैं.

फिर न जाने किस मनहूस घड़ी में शौक जागा ब्लॉगिंग का, वो भी हिन्दी में. पुरानी दो उम्मीदों के चलते नाजुक उमर में ही बाल तो सफेद कर बैठे थे. पत्नी की लाख लानत पर भी रंगने को कतई तैयार नहीं हुए हैं आज तक.

जैसे ही सन २००६ में लिखना शुरु किया तो पहले लोग आये कि वाह समीर, क्या लिखते हो. अच्छा लगा. तारीफ किसे बुरी लगती है. जानकारी के अनुसार, मात्र १०० लोग थे उस वक्त इस जगत में जो हिन्दी में लिखते थे अपना ब्लॉग और उनमें से एक हम भी.

फिर देखते देखते एक और नई खेप आई, समीर जी वाली..तुम से आप हो लिये. अच्छा लगा. कारवां तो बढ़ना ही था वरना शायर गलत हो जाते जो कहते हैं कि लोग खुद जुड़ते रहे और कारवां बनता गया, वो तो फिर नाकाबिले बर्दाश्त गुजरता:

लोग बढ़े, स्वभाविक है, बढ़ना ही था. जो भी होता है उसे बढ़ना ही है. वरना तो होना ही एक दिन खो जयेगा. नये लोग आये और आदरणीय कहने लगे, श्रेद्धेय, मठाधीष, गुरुवर, प्रणाम, चरण स्पर्श और न जाने क्या क्या-सब सहते रहे, अच्छा लगता रहा. कोई और रास्ता भी न था.

फिर समय के साथ चच्चा, अंकल और मामा का दौर लिए नवयुवा आये. नवयुवाओं के साथ लफड़ा ये है कि उनकी उम्र की कोई रेन्ज नहीं होती. कितने नेता तो मरते दम तक युवा नेता रहे. मानो असमय गुजर गये मात्र ८५ साल की अवस्था में.

सारी राजनीतिक पार्टियाँ ऐसी ही युवा शक्तियों से पटी पड़ी हैं जिनकी युवा अवस्था उनके गुजरने के पूर्व गुजरने का नाम ही नहीं लेती.

चुप रहना कई बार क्या, हमेशा ही, जुर्म बढ़वाते जाता है... मगर फिर भी लोग मजबूरीवश चुप रहते हैं.सबकी अपनी अपनी मजबूरी होती है और अपने अपने आसमान. कहते हैं कि प्रतिकार आवश्यक है अक्सर. मगर वो आदत रही नहीं, आप तो जानते हैं,  तो देखते देखते धीरे से दद्दा, नाना जी कहलाने लगे और वरिष्ट एवं बुजुर्ग बन बैठे.

५० पार की उम्र वाले भी चरण स्पर्श कह करके जाने लगे, कोई दादा जी, कोई नाना जी, कोई बाबू जी, कोई बाउ जी, तो कोई परम श्रद्धेय तो कोई नतमस्तक कह कर बढ़ जाता और हम अपना सा मूँह लिये टपते रहते. क्या करते?

सोचता हूँ कि काश, फिल्म इन्डस्ट्री में होता तो इस उम्र में तो सलमान की जगह मैं बिग बास का संचालन कर रहा होता. युवाओं का आईकान, जाने कितनों का स्वप्नकुमार और रातों की नींद, तन्हाई का साथी और दीवारों पर टंगी तस्वीर. आहें भर रहे होते लोग मेरे नाम पर मेरी इस बाली उम्र में और यहाँ..चार साल की ब्लॉगिंग में जिस स्पीड से उम्र बढ़ी है, इस रफ्तार से कदमताल मिलाने के लिए महामानव होना जरुरी लग रहा है और मैं, चुपचाप बैठा निठल्लों की तरह कह रहा हूँ कि समय बहुत तेज भाग रहा है.

केशव तो खैर बिना ब्लॉगिंग ही ऐसे लफड़े में फंस गये थे, और तब मजबूरी में उन्हें लिखना पड़ा:

केशव केसन अस करी जस अरिहूं न कराहिं,
चंद्रवदन मृगलोचनी बाबा कहि-कहि जांहि।

यही गति रही तो वो दिन दूर नहीं जब जीते जी लोग स्वर्गवासी कहने लग जायेंगे... कहना ही तो है-हैं कि नहीं इससे तो पहले भी कहाँ मतलब रखा किसी ने.

इन्हीं सब के मद्देनजर अब तो कई बार मन करता है कि किसी नजदीकी कब्रिस्तान में ही जाकर बिस्तर लगा कर सो जाऊँ. क्या पता नींद खुले न खुले. तब इन चहेतों की इच्छा भी रह जायेगी और यदि भूले से नींद खुल गई तो अगली रचना रच देंगे उसी अनुभव पर. आज तक तो किसी ने लिखा नहीं है कब्रिस्तान में सोने का अनुभव या कब्रिस्तान का यात्रा वृतांत. नयापन मिलेगा लोगों को. कुछ और लोग आकर चरण स्पर्श कर जायेंगे भावी स्वर्गवासी के.

किसी वाकई वाले बुजुर्ग से पूछा तो उसने कहा कि चुप रहना ही बेहतर है, साहित्यजगत की यही रीत है (हालांकि ब्लॉगिंग को वो वाले साहित्यकार साहित्य मानते नहीं हैं फिर भी दिल बहलाने को गालिब ख्याल अच्छा है कि तर्ज पर मान लेते हैं).  बस, संतुष्ट हूँ इस रीत का पालन कर कि शायद हिन्दी साहित्य जगत का हिस्सा कहलाया जाऊँ.

एक उम्मीद ही तो है...एक उम्मीद के सहारे ही तो पूरा भारत जिये जा रहा है, तब इसे मैं पाल बैठा तो क्या बुराई है??

नोट: जब यह पोस्ट छपेगी, तब तक भारत पहुँच चुका हूँगा. जल्दी ही बात चीत/मुलाकात होती है.

रविवार, नवंबर 07, 2010

दिवाली धमाका रिपोर्ट!!

बम्पर स्कीम!!

आप एक ईमेल भेजो-दीपावली शुभ और बदले में पाओ २० ईमेल शुभकामना संदेश- साथ में खुले आम ५० लोग फारवर्ड लिस्ट में और फिर उनके शुभकामना संदेश. ऑर्कुट से लेकर चिरकुट तक-हर तरफ दीपावली धमाका.

ब्लॉग पोस्टों पर जो लोग साल भर यही सोचते रह गये कि क्या लिखें, वो भी लिख गये. शुभ दीपावली. जो ज्यादा होशियार थे, उन्होंने साथ में तस्वीर भी लगाई-किसी नें लक्ष्मी गणेश, किसी ने लड्डू, किसी ने दीपक, जिसकी जैसी श्रृद्धा बन पाई. किसी ने पूजन विधी, किसी ने भजन, तो किसी ने भोजन परोसा. ज्यादा टेक्निकल लोगों ने जलते हुए दीपक की तस्वीर, घूमती हुई चकरी भी लगा डाली.

जो स्वयं खुद ही लक्ष्मी जी की सवारी बन जाने की संपूर्ण योग्यता रखते हैं, वह भी उन्हें अन्य स्थानों पर पहुँचाने की बजाय स्वयं अपने घर में निमंत्रित करने हेतु आँख मूँदे पूजा करते नजर आये.

कमेंट में भी दनादन पटाखे फोड़े गये. सबने अपने अपने हिसाब से बेहिसाब कॉपी पेस्ट करने का सुख प्राप्त किया. जो बरस भर कमेंट करने के लिए एक अदद अच्छी पोस्ट की तलाश में थे अन्यथा मूँह सिले बैठे रहना पसंद करते थे ताकि उनके श्रेष्ठ होने पर प्रश्न चिन्ह न लग जाये,  वे भी एकाएक मुखर हो उठे और कमेंट करने निकल पड़े. मुक्तक, कविता, गद्य हर फार्मेट में कमेंट किये गये. पोस्ट में कुछ भी लिखा हो, देना दिवाली की बधाई ही है, यही उद्देश्य चहुं ओर जोर मारता रहा. मैं स्वयं यही स्व-रचित मंत्र उच्चारता रहा, हर कमेंट, हर ईमेल में:

सुख औ’ समृद्धि आपके अंगना झिलमिलाएँ,
दीपक अमन के चारों दिशाओं में जगमगाएँ
खुशियाँ आपके द्वार पर आकर खुशी मनाएँ..
दीपावली पर्व की आपको ढेरों मंगलकामनाएँ!

-समीर लाल 'समीर'

कुल मिला कर दीपावली शुभ रही. आनन्द आया. अभी तक खुमार उतार पर ही है बुझा नहीं है. फुलझड़ियाँ चल ही रही हैं यहाँ वहाँ. ईमेल भी आये जा रही हैं. एक ही व्यक्ति से कई कई बार. लोग त्यौहार की खुशी में बार बार भूल जा रहे हैं कि पाँच बार पहले ही बधाई दे चुके हैं. आशा की जा रही है कि यह कार्यक्रम ग्यारस तक चलता रहेगा.

तब तक ओबामा भी भारत से चले जायेंगे. बहुत सारे मामले इसी मामले से ठंडे पड़ जायेंगे. दिवाली बीत चुके दिन बीत गये होंगे. रावण का भी बर्निंग सेन्शेसन खत्म हो चुका होगा और वह फिर मूँह उठा तैयार खड़े हो जायेगा और राम चन्द्र जी एक बरस के लिए पुनः विश्राम हेतु वन चले जायेंगे. १४ बरस बहुत होते हैं किसी भी बात की लत लग जाने को. एक बार वन में आराम करने की आदत पड़ जाये तो महल कहाँ सुहाता है?

तब तक हम भी भारत पहुँच चुके होंगे, फिर इत्मिनान से पोस्ट लिखेंगे. भारत पहुँचने तक अब कम से कम हमारी कोई पोस्ट नहीं आयेगी. बहुत चैन की सांस लेने के जरुरत नहीं है, बुधवार को तो पहुँच जायेंगे, अगली पोस्ट वैसे भी गुरुवार को ही ड्यू है.

crack

अब उस समय तक आप मास्साब पंकज सुबीर जी द्वारा आयोजित दीपावली तरही मुशायरा में मेरी प्रस्तुत गज़ल पढ़िये.

जलते रहें दीपक सदा काईम रहे ये रोशनी
बोलो वचन ऐसे सदा घुलने लगे ज्यूँ चाशनी

ऐसा नहीं हर सांप के दांतों में हो विष ही भरा
कुछ एक ने ऐसा डसा ये ज़ात ही विषधर बनी

सम्मान का होने लगे सौदा किसी जब देश में
तब जान लो, उस देश की है आ गई अंतिम घड़ी

किस काम की औलाद जो लेटी रहे आराम से
और भूख से दो वक्त की, घर से निकल कर मां लड़ी

(CWG स्पेशल)
सब लूटकर बन तो गये सरताज आखिरकार तुम
लेकिन खबर तो विश्व के अखबार हर इक में छपी

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, नवंबर 03, 2010

मन में जो उजियारा कर दे

D_wish_SS
कुछ रोज पहले किशोर दिवसे जी का एक आलेख पढ़ रहा था जिसका शीर्षक देख लगा कि इस पर तो पूरी गज़ल की बनती है, तो बस प्रस्तुत है एकदम ताजी गज़ल दीपावली पर खास आपके लिए:


लाखों रावण गली गली हैं,
इतने राम कहाँ से लाऊं?

चीर हरण जो रोक सकेगा
वो घनश्याम कहाँ से लाऊँ?

बापू सा जो पूजा जाये
प्यारा  नाम कहाँ से लाऊँ

श्रद्धा से खुद शीश नवा दूँ
अब वो धाम कहाँ से लाऊँ?

जो सच कहने से बन जाये
ऐसा काम कहाँ से लाऊँ?

जीवन की कड़वाहट हर ले
मीठा जाम कहाँ से लाऊँ?

दिल मेरा खुश होकर गाये
ऐसी शाम कहाँ से लाऊँ?

मन में जो उजियारा कर दे
वैसा दीप कहाँ से लाऊँ?

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, अक्तूबर 31, 2010

पीपल का पेड़

pipal

 

उम्र के दीप में
कम हुआ तेल
और मैं
अपने ही घर में बना दिया गया
मंदिर की मूरत

उनका स्वार्थ
मेरा खुश रहना
भोग लगाया जाता रहा
मेरा
भक्तों की इच्छानुसार
नियमित
स्नान,ध्यान,वन्दना
और
फूलों का श्रंगार
प्रतिमा
देखती है
बिना पलक झपके
मुस्कुराते हुए
सौम्य शान्त मुद्रा
अवाक
मैं
घर का
पूज्य
पीपल का पेड़....

-समीर लाल ’समीर’


आज आखर कलश पर भी मेरी दो रचनाएँ प्रकाशित हैं और एक गज़ल मेरे मन की पर अर्चना चावजी द्वारा गाई.

बुधवार, अक्तूबर 27, 2010

लबड़हत्था....

बचपन से ही मैं बाँये हाथ से लिखता था. लिखने से पहले ही खाना खाना सीख गया था, और खाता भी बांये हाथ से ही था. ऐसा भी नहीं था कि मुझे खाना और लिखना सिखाया ही बाँये हाथ से गया हो लेकिन बस जाने क्यूँ, मैं यह दोनों काम ही बांये हाथ से करता.

पहले पहल सब हँसते. फिर डाँट पड़ने का सिलसिला शुरु हुआ.

अम्मा हुड़कती कि लबड़हत्थे से कौन अपनी लड़की ब्याहेगा? (उत्तर प्रदेश में बाँये हाथ से काम करने वालों को लबड़हत्था कहते हैं)

आदत छुड़ाने के लिए खाना खाते वक्त मेरा बाँया हाथ कुर्सी से बाँध दिया जाता. मैं बहुत रोता. कोशिश करता दाँये हाथ से खाने की लेकिन जैसे ही बाँया हाथ खुलवा पाता, उसी से खाता. मुझे उसी से आराम मिलता.

एक मास्टर साहब रखे गये थे, नाम था पं.दीनानाथ शर्मा. रोज शाम को आते मुझे पढ़ाने और खासकर दाँये हाथ से लिखना सिखाने. जगमग सफेद धोती, कुर्ता पहनते और जर्दे वाला पान खाते. ऐसा नहीं कि बाद में और किसी मास्टर साहब ने मुझे नहीं पढ़ाया लेकिन उनका चेहरा आज भी दिमाग में अंकित है.

बहुत गुस्से वाले थे, तब मैं शायद दर्जा तीन में पढ़ता था. जैसे ही स्कूल से लौटता, वो घर पर मिलते इन्तजार करते हुए. पहला प्रश्न ही ये होता कि आज कौन से हाथ से लिखा? स्कूल में दाँये हाथ से लिख रहे थे या नहीं. मैं झूठ बोल देता, ’हाँ’. तब वो मुझसे हाथ दिखाने को कहते और बाँये हाथ की उँगलियों में स्याहि लगी देख रुलर से हथेली पर मारते. उनकी मुख्य बाजार में कपड़े की दुकान थी. पारिवारिक व्यवसाय था. उन्हीं में से थान के भीतर से निकला रुलर लेकर आते रहे होंगे क्यूँकि जिन दो साल उन्होंने मुझे पढ़ाया, एक सा ही रुलर हमेशा लाते.

फिर मैं जान गया कि वो स्याहि देखकर समझ जाते हैं. तब स्कूल से निकलते समय वहीं पानी की टंकी पर बैठ कर मिट्टी लगा धो धोकर स्याहि छुड़ाता और फिर घर आता.

मगर दीनानाथ मास्टर साहब फिर दाँये हाथ पर स्याहि का निशान न पाकर समझ जाते कि कुछ बदमाशी की है. मैं फिर मार खाता.

इसी दौर में मैने यह भी सीख लिया कि सिर्फ स्याहि धोने से काम नहीं चलेगा तो दाँये हाथ की उँगलियों में जानबूझ कर स्याहि लगा कर लौटता. ऐसा करके काफी हद तक मास्टर साहब को चकमा देता रहा और मार खाने से बचता रहा.

फिर जाने कैसे उनकी पहचान मेरे क्लास टीचर से हो गई. फिर तो वो उनसे पूछ कर घर पर इन्तजार करते मिलते. गनीमत यह रही कि परीक्षा में नम्बर बहुत अच्छे आ जाते तो बाँये हाथ से लिखना धीरे धीरे घर में स्वीकार्य होता चला गया और दीनानाथ मास्टर साहब को विदा दे दी गई. हाँ, खाने के लिए फिर भी बहुत बाद तक टोका गया.

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उसी बीच जाने कहाँ की शोध किसी अखबार में छपी कि बाँये हाथ से काम करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी होते हैं और किसी सहृदय देवतुल्य व्यक्ति ने पिता जी को भी वो पढ़वा दिया. पिता जी ने पढ़ा तो माता जी को ज्ञात हुआ. एकाएक मैं लबड़हत्थे से प्रमोट हो कर विलक्षण प्रतिभाशाली व्यक्तियों की जमात में आ गया.

तब मैं चाहता था कि वो मेरे बड़े भाई को अब डांटे और मास्टर साहब को लगवा कर उसे रुलर से मार पड़वाये कि बाँये हाथ से लिखो. मगर न जाने क्यूँ ऐसा हुआ नहीं. बालमन था, मैं इसका कारण नहीं जान पाया या शायद मेरी विलक्षणता अलग से दिखने लगे इसलिये उसे ऐसे ही छोड़ दिया होगा. ऊँचा पहाड़ तो तभी ऊँचा दिख सकता है, जब नापने के लिए कोई नीचा पहाड़ भी रहे. वरना तो कौन जाने कि ऊँचा है कि नीचा.

लबड़हत्थों की जमात में अमिताभ बच्चन जैसे लोगों का साथ मिला तो आत्मविश्वास में और बढ़ोतरी हुई और मेरी उस शोध परिणाम में घोर आस्था जाग उठी. काश, उस पेपर की कटिंग मेरे पास होती तो फ्रेम करा कर नित दो अगरबत्ती लगाता और ताजे फूल की माला चढ़ाता.

शोध परिणाम तो खैर समय, जरुरत, बाजार और स्पान्सरर्स/ प्रायोजकों के हिसाब से बदलते रहते हैं मगर अपने मतलब का शोध फ्रेम करा कर अपना काम तो निकल ही जाता. फिर नये परिणाम कोई से भी आते रहते, उससे मुझे क्या?

किन्तु सोचता हूँ क्या इससे वाकई कोई फरक पड़ता है कि आप बाँये हाथ से काम करते हैं या दाँये? फिर क्यूँ न जो सहज लगे, सरल लगे और जो स्वभाविक हो, उसे उसके स्वतंत्र विकास की लिए जगह दे दी जाये..प्रतिभा दाँया, बाँया देखकर नहीं आती. प्रतिभा तो मेहनत और लगन का परिणाम होती है,मेहनत किस हाथ/तरह से की गई उसका नहीं.

 

 
नोट:
सोच रहा हूँ कि जल्दी से इसे लिखकर छाप देता हूँ इससे पहले कि कोई शोध परिणाम ऐसा कहे कि ब्लॉग पर लिखने से इन्सान पागल हो जाता है इसलिए प्रिंट की पत्र पत्रिकाओं में लिखना चाहिये. वैसे कुछ कदम इस दिशा में बढ़ते दिखे तो हैं.

रविवार, अक्तूबर 24, 2010

दिल की हिफ़ाजत मैं करने लगा हूँ...

बस ऐसे ही, दो रोज पहले एक मंच के लिए गीत गुनगुनाया तो सोचा सुनाता चलूँ, शायद पसंद आ जाये.

sadsam

जब से बसाया तुझे अपने दिल में,   
दिल की हिफ़ाजत मैं करने लगा हूँ...
नहीं कोई मेरा, दुश्मन जहाँ में   
अपनों से खुद मैं, डरने लगा हूँ   

जमाना मुझे इक दीवाना समझता
मगर तुमने मुझको हरपल दुलारा 
कभी दूर से ही करती इशारा     
कभी पास आकर तुमने पुकारा   

जीना सिखाया था तुमने ही मुझको
ये मैं हूँ कि तुम पर मरने लगा हूँ... 
नहीं कोई मेरा, दुश्मन जहाँ में    
अपनों से खुद मैं, डरने लगा हूँ      

ऐसा नहीं था कि रहा मैं अकेला       
फिर भी न जाने, क्यूँ तन्हा रहा मैं             
लहरों ने आकर, मेरा हाथ थामा       
फिर भी न जाने, अकेला बहा मै..       

सभी मुझको थोड़ा थोड़ा चाहते       
मुझे लगता मैं ही बंटने लगा हूँ        
नहीं कोई मेरा, दुश्मन जहाँ में        
अपनों से खुद मैं, डरने लगा हूँ        

किसे प्यार मिलता सच्चा जहाँ में       
यहाँ प्यार भी एक, सौदा हुआ है       
तुम्हें पाकर मैने इतना तो जाना        
दुनिया में सबको ही, धोखा हुआ है.       

अभी तक विरह के, गीतों को जाना            
नये प्रेम गीतों को, रचने लगा हूँ       
नहीं कोई मेरा, दुश्मन जहाँ में     
अपनों से खुद मैं, डरने लगा हूँ    

-समीर लाल ’समीर’  

 

यू ट्यूब पर यहाँ देखें:

बुधवार, अक्तूबर 20, 2010

नजरों का यकीं...

कमरे में खड़ा खिड़की के बाहर देख रहा हूँ एकटक. वो नहीं दिखता जो बाहर है. नजर बस टिकी है लेकिन दिख वो रहा है जो मन में है. एक उड़ान मन की. विचारों की. कुछ उधेड़बुन तो कुछ धुंधली तस्वीरें हल्के भूरे रंग की. रंग भरा समय भी कैसे वक्त की मार झेल झेल कर बदरंग हो जाता है.

एक बार अपना सिर हल्के से झटकाता हूँ. खिड़की के बाहर हरियाली लिए सब स्थिर है. शायद हवा न चलती होगी. बंद खिड़की के कांच से हवा का अहसास भी पत्तियों की हलचल से होता है. वो न होती तो पता भी न चलता. सर्दियाँ आयेंगी, बर्फ़ जमीन पर कब्जा जमा कर बैठ जायेगी. पत्तियाँ बुरे वक्त में कहाँ साथ देती हैं? छोड़ कर चल देंगी फिर से बेहतर मौसम आने तक के लिए. अच्छे हालातों में ही अपने भी साथ देते हैं.

ऐसे में काँच के भीतर से झांकते हुए मैं भी भला कहाँ जान पाऊँगा कि हवा चल रही है या थमी. ठीक उन पेड़ों की सांसो की तरह-कौन जाने चलती भी होंगी या थम गई.

बिना पत्तों के ठंड की मार झेलते पेड़ों के ठिठुरते बदन खुद का अस्तित्व बचायें या मुझे हवा का पता दें. गर्दन उठाये बेहतर मौसम की आस में फिर अपनों के वापस आने का इन्तजार ही शायद उन्हें उर्जा देता होगा इस मार को झेल जाने की वरना तो हट्टा कट्टा इन्सान भी अगली सांस के इन्तजार में दम तोड़ दे और वो सांस सर्दीली मार में जमी, चाह कर भी लौट न पाये.

जब पत्ते लौटेंगे तो उनके बीच घिर खुशियाँ मनाते ये पेड़ भूल जायेंगे उस दर्द को, उस तकलीफ को जो इन्होंने इन्तजार करते झेली है और पत्तियाँ उन्हें सुखी देख कुछ समय साथ बिताएंगी, फिर विदा ले लेंगी अगली मौसम की मार अकेले झेलने को छोड़ कर.

यूँ सुनी थी एक कविता उस व्यक्ति की जो निर्वस्त्र एक सर्दीली रात काट देता है नदी के इस छोर पर उस पार जलती चिता से उगती आग की तपन सोच कर..

winter-tree

खिड़की से झांक
देखता हूँ वो
जो दिखता नहीं...

शायद

देखा है जमाना
कुछ इस तरह मैनें

कि

नजरों से नजर आती बातों से
यूँ भी यकीं जाता रहा

-जाने क्यूँ?

--समीर लाल ’समीर’

रविवार, अक्तूबर 17, 2010

गुलाब का महकना...

आज यहाँ रविवार है. भारत के लिए निकलने से पहले ऐसे तीन रविवार ही मिलेंगे अतः व्यस्तता चरम पर है. आज कविता पढ़िये:

gulab
*

 

जब कुछ लिखने का
मन नहीं होता
तब खोलता हूँ
नम आँखों से
डायरी का वो पन्ना
जहाँ छिपा रखा है
गुलाब का एक सूखा फूल
जो दिया था तुमने मुझे
और
भर कर अपनी सांसो में
उसकी गंध
बिखेर देता हूँ
एक कागज पर...

-लोग उसे कविता कहते हैं!!!

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, अक्तूबर 13, 2010

गीली पोली जमीन...

पैर से लिखने की ख्वाहिश है, उन इबारतों को, जिन्हें हाथ लिखने को तैयार नहीं. ख्वाहिशों को कब परवाह रही है किसी भी बात की. न ही उन्हें स्थापित नियमों से कुछ लेना देना है. डोर से टूटी पतंग, उड़ चली जिस ओर हवा बही. कभी पूरब तो कभी पश्चिम. कभी उपर तो कभी नीचे. क्या रंग है, क्या रुप है- इससे बेखबर. बस, एक बेढब बहाव और अंत, वही किसी मिट्टी में मिल जाना, खत्म हो जाना. तसल्ली ये कि किया मन का.

लिख डालने की कोशिश में जमीन पर गीली मिट्टी में पैर के अंगूठे से चन्द उघाड़े अक्स, कुरेदी हुई कुछ लकीरें आड़ी तिरछी. शाम की बारिश अपने साथ सब बहा कर ले गई. बस बच रही सिर्फ, एक मिट्टी की सतह. क्या जाने?.. इन्तजार करती भी होगी या नहीं-चन्द नई इबारतों का. उलझी हुई, किसी को न समझ आ सकने वाली. हाथों की बेवफाई को कुछ पल को ही सही मगर धता बताती ये ख्वाहिश, मानो बिटिया हाथों में बर्फ का नारंगी गोला लिये इतरा रही हो. धूप मुई बच्चों को भी कहाँ बख्शती है? बिटिया का इतराना भी बरदाश्त न हुआ और पिघला कर रख दिया उसका नारंगी बर्फ का गोला. वो नादान गोले की लकड़ी लिए चुसती रही घंटो उसे.

याद करो तो आज भी पैर का अंगूठा अनायास ही कालीन में जाने क्या कुरेदने लगता है. हाथ आज भी तैयार नहीं उस इबारत को लिखने के लिए जिसमें वो नाम जुड़े. वफाई बेवफाई का दिल आदी हुआ पर हाथ. वो मान में नहीं. दिल नाजुक और हाथ सख्त. एक ही शरीर के हिस्से. व्यवहार इतना जुदा.

उसी आंगन में खेलते थे दो भाई. एक ही खून के/ माँ के जाये. कब आंगन की अमराई दीवार में बदली, जान ही नही पाये. एक ही दिशा में निकलते/ एक ही मंजिल पत जाने को लेते-- दो जुदा रास्ते. आंगन एक से दो हुआ. दो चूल्हे बस धुँओं की राह मिलते. मिल जाते आसमान में जाकर और फिर बरसते बादल बन आँसूओं की धार की तरह और पौंछ जाते वो सब इबारते जिन्हें आज हाथ लिखने को राजी नहीं मगर अँगूठा कुरेदता है हर पोली और गीली मिट्टी को पा कर बेवजह. कहीं दिल की कोई टीस होगी जो पैर के अँगूठे के माध्यम से चीखती होगी और वो अनसुनी चीख मिल जाती होगी मिट्टी में बहते हुए बरसाती पानी के साथ.

दाग होते हैं दिल में गहरे गहरे जो किसी एक्स रे से नहीं दिखते. बस होते हैं अहसासों के मानिंद. अजब से दाग जिनका रंग नहीं होता बल्कि स्वाद होता है- कुछ मीठे तो कुछ खट्टे. महसूस करती है जुबान उस भीतर से उठते स्वाद को.

पत्नी आलू, मटर, पनीर की सब्जी बनाने की तैयारी करती. त्यौहार मनाने की खुशी और मैं उन उबले आलूओं में से एक उबला आलू किनारे रखवा देता हूँ. जाने क्यूँ आज पांच सितारा सब्जी के बदले उबले आलू फोड़ उसमें नमक और लाल मिर्च बुरक कर पराठें के साथ खाने का मन हो आया. छुटपन में जब नानी के घर जाते तो अम्मा रेल में पराठे और उबले आलू लेकर चलती. पैर का अँगूठा पोली मिट्टी तलाशता है डाईनिंग टेबल के नीचे सबकी नजर बचाता. वुडन फर्श है शायद कोई फांस गड़ गई है नाखून में. एक चीख सी उठने को है, दबा ली तो आँखें चुगली करने को तैयार. लाल मिर्च बुरकते आलू में सने हाथ से आँख पौंछ लेता हूँ.

दोष लाल मिर्च को मिला.

बच्चों की हँसी, पत्नी का आँख में फूँकना और...

फिर गीली पोली जमीन की अनवरत तलाश!

scraching

आज रात भर
बारिश होती रही.

उनकी
अलिखित इबारतें
पौंछने की फिराक..


और

पैर से लिखने की
ख्वाहिश लिये..


बिस्तर पर लेटा
नींद से
आँख मिचौली खेलता..
मैं.

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, अक्तूबर 10, 2010

प्यार तुम्हारा इक दिन..

एक बार भारत यात्रा के दौरान एक कवि सम्मेलन में शिरकत कर रहा था. एक कवि महोदय ने गीत प्रस्तुत किया. उसकी धुन मुझे बहुत पसंद आई और कई दिनों तक जेहन में गुँजती रही. फिर उसी धार पर मिसरा लिया और रचा अपना गीत. बहुत बार तो मंच से सुना चुका लेकिन फिर वही. ब्लॉग पर खोज रहा था तो पता लगा कि आप सबको तो पढ़वाया ही नहीं. तो आज वो ही सही:

 

प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....

प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं...
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं...
मुझको ज्ञान नहीं है तनिक इन छंदों का
बस मन में अपनी राग लिये फिरता हूँ मैं..

प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....

तनहा तनहा सर्दीली भीगी रातों में
विरह अगन से बदन मेरा जल जाता है
बरसाती आँधी वो जब जब भी चलती है
महल हमारे सपनों का फिर ढह जाता है
मौसम चाहे जितने रंग आज बदल डाले
दिल में इक मधुमास लिए बस फिरता हूँ मैं..

प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....

जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.

प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, अक्तूबर 06, 2010

सात समुंदर पार आती गली.....

सब कहते कि वो गली मेरे घर आकर खत्म हो जाती है. मैने इसे कभी नहीं माना. मेरे लिए वो गली मेरे घर से शुरु होती थी.

लोग कहते कि गली का आखिरी मकान मेरा है और उसके बाद गली बन्द हो जाती है. मेरा हमेशा मानना रहा कि गली का पहला मकान मेरा है और वहीं से उसके बाद दूसरों के मकान शुरु होते हैं.

कोई उसे कहता कि श्रीवास्तव जी की, यानि हमारी गली, तो कोई सामने के मकान वाले तिवारी जी की गली, नुक्कड़ पर कुठरिया में रहने वाले घुन्सू चमार की गली तक भी मैं लोगों के कहे का बुरा नहीं मानता मगर जब कोई इसे खज़रे कट्खन्ने कुत्ते वाली गली कहता, तो मेरा खून खौल उठता.

खज़रा कटखन्ना कुत्ता- कालू. बस, एक बार पाण्डे जी के बेटे को काटा था उसने, वो भी तब जब उसने उसकी पूँछ पर से साइकिल चला दी थी. अब तो कालू को मरे भी जाने कितने साल गुजर गये थे मगर लोग-गाहे बगाहे मेरी गली को खज़रे कट्खन्ने कुत्ते वाली गली कह ही देते हैं.

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मेरे लिए वो गली मेरे घर से शुरु होती है. वहीं मैं पैदा हुआ और होश संभाला. वो गली आकर बाजार में जुड़ती और फिर बाजार की सड़क से होती हुई राजमार्ग पर और फिर सीधे शहर में. शहर मुझे विदेश ले आया उस गली से शुरु होकर. वो गली मेरे लिए विदेश तक आती है. लौट लौट कर मैं उस तक जाता हूँ. कभी सच में मगर रोज - यादों में, सपनों में.

माँ मायके से आई और गली में समा गई. हाँ, उसके लिए गली हमारे घर पर समाप्त होती थी..वो जो उस घर में आई तो आँख मींचे ही निकली वहाँ से. उसे गली ने शमशान ले जाकर छोड़ा मगर वो तो माँ ने देखा नहीं. वो तो बस डोली में बैठकर आई थी इस घर में. दो बाँस और चार काँधों वाली सवारी कहाँ ले जाती है, सब जानकर भी नहीं जान पाते हैं जब खुद की सवारी निकलती है.

सामने वाले तिवारी जी मकान बेच कर अपने बेटे के पास शहर चले गये. मकान खरीदा वर्मा जी ने मगर गाँव ने कब भला माना इसे..वो मकान आज भी स्टेट बैंक वाले तिवारी जी का मकान कहलाता है. क्या पुराने और क्या नये- लोग अब भी उसे तिवारी जी की गली कहते हैं. कब मिटती हैं ऐसी पहचानें?

बहुत बदला गाँव. बिजली आई, नहर खुदी, एक सिनेमा बना. सरकारी स्कूल खुला. अस्पताल खुला. कई कुत्तों नें कई लोगों को काटा. सूखा पड़ा. बाढ़ आई. हैजा फैला. गली रुकी रही. मेरे लिए "श्रीवास्तव जी की गली"- मेरे साथ विदेश तक आई.

बचपन में पढ़ी उस भूत की कथा याद आई जिसका हाथ बड़ा होता जाता था दूर का सामान पकड़ने को. गली, जो मेरे घर से शुरु हुई, (और अब भी वहाँ है) मेरे साथ इस विदेशी गोरों की घरती पर भी आई. अजनबियों के इस देश में मेरा साथ निभाती आधी रात के अंधेरों में ढाढस बँधाती. एक तार को जोड़ती - बचपन से अब तक.परिवार के साथ. कुछ दूर न लगता.

एक दिन लौट जाना है - उस छोर पर जहाँ से गली शुरु हुई है. रास्ता याद दिलाती, यही तो दिली इच्छा है मेरी. मेरी ही क्यूँ..हर उस शक्स की जो गली से शुरु होकर दूर तक चला आया है.

सोचता हूँ क्या गली मुझे यहाँ लाई या मैं गली को?

गली चली या मैं ?? ..

रोशन जगमगाहट रोकती है और लालटेन की टिमटिमाती लौ बुलाती है.

पशोपेश में हूँ. फिर लौटने की चाह और रुके रहने की मजबूरी के बीच झूलता मैं.

वो
पिछवाड़े के दरवाजे पर
रात गये
तेरा छ्म्म से आना...

मुस्कराना
रोना
और
फिर बिछड़ जाना...

अब तो सब
सपनों की बातें हैं....

क्या तुम जानती हो....

मेरे साथ आज भी
वो रातें हैं...

-समीर लाल ’समीर’

सोमवार, अक्तूबर 04, 2010

गाँधी जी का जन्म दिवस समारोह मॉन्ट्रियल में

शुक्रवार से कुछ आवश्यक कार्यवश मॉन्ट्रियल जाना हुआ और आज याने सोमवार की शाम लौट कर आये. यही वजह हुई कि सोमवार सुबह की पोस्ट नहीं आ पाई. वो अब परसों ही आयेगी. मॉट्रियल यात्रा के दौरान ब्रोसार्ड सिटीहॉल के सामने स्थापित गाँधी जी की प्रतिमा स्थल पर गाँधी जी का जन्म दिवस का समारोह में शामिल होने का अवसर मिला, जिसमें वहाँ की मेम्बर ऑफ पार्लियामेन्ट से लेकर सिटी कॉन्सलर्स और डिप्टी मेयर एवं भारतीय समुदाय के अनेक लोग उपस्थित थे. उसी अवसर की कुछ तस्वीरें प्रस्तुत कर रहा हूँ.

इस पूरे कार्यक्रम के कर्ताधर्ता श्री उमाशंकर श्रीवास्तव थे, जिन्हें इस प्रतिमा को स्थापित कराने का भी श्रेय जाता है. उन्हीं के प्रयासों के चलते आज क्यूबेक के एसेम्बली हॉल में भी गाँधी जी की प्रतिमा स्थापित है. समारोह के उपरान्त समोसा, गुलाबजामुन, बर्फी आदि के स्वल्पाहार के साथ विदा ली गई.

 

 

 

 

 

बुधवार, सितंबर 29, 2010

मैं, अंधेरों का आदमी!!!

बचपन, खेल खेल में जुगनू पकड़ कर शीशी में बंद कर लिए. ढक्कन में एक छेद भी बनाया कि वो सांस ले सकें. सुबह को देखता था उन जुगनुओ को. कोई चमक न दिखती तो बंद अलमारी के अंधेरे में ले जाकर देखता. रात तीन बंद किये थे, अब बस एक चमकता था धीरे धीरे. वहीं अलमारी में उनको रखकर जब देर शाम लौटा तो उनमें से कोई भी नहीं चमकता था. सुबह उठकर देखा, तीनों मर गये. आज रात फिर नये पकड़ूंगा, सोच कर उनको बोतल से निकाल कर बाहर फेंक दिया.

बचपन की नादानी. सोचता कि जाने कैसे मर गये. छेद भी किया ढक्कन में सांस के वास्ते. सिर्फ सांस लेना ही जिन्दा रहने के लिए काफी नहीं.

कुछ यादों के जुगनू तुम्हारे खतों की शक्ल में डायरी में मोड़ कर रख दिये थे. अब अंधेरा हैं. वो चमकते नहीं, अलमारी के भीतर भी नहीं. हालांकि अलमारी के भीतर हो या बाहर, क्या फरक पड़ता है. अँधेरा तो बराबर से है. ट्यूब लाईट की रोशनी कई बार चीख चुकी मगर ये जिद्दी अँधेरा, हटता ही नहीं. डटा है जस का तस.

सबने लूटा जहां मेरा
फिर भी कोई कहाँ मेरा...

-खोजता फिरता हूँ पता उसका...

अँधेरे में बस यूँ ही टटोलते. कुछ हाथ नहीं आता.

कुछ टेबल से गिर कर टूटा अभी छन्न से. वो कहती कि कांच का टूटना अशुभ होता है.

मैं सोचता गिलास टूटा है, कांच तो कभी टूटता नहीं, बस, रुप बदल जाता है. टुकड़े टुकड़े. होता फिर भी कांच ही है. वो भला कब टूटा है. फिर क्या शुभ और क्या अशुभ. मैं भी टूटा कब, बस टुकड़ो में बटा.

वस्ल कहते हैं:

अपने अंदर ही सिमट जाऊँ तो ठीक
मैं हर इक रिश्ते से कट जाऊँ तो ठीक.

तब एक शायराना ख्याल:

सभी चाहते हैं यहाँ मुझे थोड़ा थोड़ा
मैं ही कई टुकड़ों में बट जाऊँ तो ठीक...

झपट कर कुछ पकड़ा तो है. हाथ आया मुट्ठी भर और अँधेरा. एक टुकड़ा अँधेरा और जुड़ गया हिस्से में मेरे.

डायरी से निकाल कुछ मुर्दा खत उस अँधेरी आग के हवाले कर देता हूँ. कुछ नई यादें पकड़ूंगा फिर से. कुछ मरे जुगनू मिले, चमकते ही नहीं. मरे जुगनू चमका नहीं करते. एक खत हाथ लगा. लिखती हो ’खुदा ने चाहा तो फिर मिलेंगे’. एक चमक बाकी हैं कहीं. सब कुछ लुट जाने पर भी एक उम्मीद की किरण, हल्की हल्की चमकती, सांस तोड़ती. अब शाम का इन्तजार भी नहीं. सपने मर रहे हैं.

अबकी नासमझी है कि खुदा के चाहने से कुछ होगा. खुदा गिरफ्त में है पंडो की और भगवान मौलवियों के चुंगल में लाचार. सौदा हो भी जाये तो एक छेद से कब तक सांस लेकर बच रहेंगे. आज वायदा बाजारी में सौदागरों का महत्व है, उन्हीं का बोलबाला, सौदे का नहीं. आर्टिफिशियल कमोडिटी की चमक दूर तक जाती है.

अँधेरे में पतंग उड़ाने की ख्वाईश है कंदील लटका कर. कंदील नजर आती रहे, पतंग न दिखे तो भी क्या. मन बहलता है.

एक कविता लिखूँगा तेरे नाम की आज शाम और शीर्षक रखूँगा-अँधेरा.

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झपट कर पकड़ता हूँ

हवा से

कुछ....

फिर

जोड़ लेता हूँ

एक मुट्ठी

अंधेरा और...

अपनी जिन्दगी के खाते में...

-मैं, अंधेरों का आदमी!!!

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, सितंबर 26, 2010

एक अलग अनुभव...

दो हफ्ते पहले एक मित्र का फोन आया कि एक हिन्दी सीरियल बना रहा हूँ, जरा आ जाना, कुछ बात करना है. वैसे वो पहले भी यहाँ फिल्म वगैरह बना चुका है. मौका देख कर पहुँचे उसके दफ्तर तो हाल चाल लेने के बाद उसने एक साउन्ड ट्रेक सुनाया और एक गीत. फिर कहा इस नेसल (नाक की) टोन के साथ एक गीत लिख दो तो वो काम आ जाये. मैने कहा कि भाई, किसी प्रोफेशनल से लिखा ले, मेरा ऐसा अनुभव नहीं है, जबरदस्ती इसके चक्कर में पूरा मामला ही न फ्लॉप हो जाये.

मगर न उसे मानना था, न माना. जिद पकड़ली कि कुछ तो लिखो. नहीं पसंद आयेगा तो फिर किसी और को ट्राई करेंगे. फिर चाय का दौर चला और मैं अपना लेपटॉप लिए कुछ कुछ टाईप करने की कोशिश करता रहा और वो फोन पर किसी के साथ सीरियल की रुपरेखा बनाने में व्यस्त था. चाय खत्म होते होते, मैंने कुछ पंक्तियाँ उसे दीं और और उसके म्यूजिक डायरेक्टर को दिखाई. उसने उसे गा कर मित्र को सुनाया और बस, यही फायनल है...सुनकर लगा कि जाने क्या होगा इस सीरियल का.

घर आ कर पत्नी को बताया. जरा सा टूं टां करके साऊन्ड ट्रेक पत्नी को भी बताया..उसी को आधार बना कर उसने गुनगुनाया है, आप भी पढ़ें और सुनें..साथ ही वो गीत जो उस सीरियल बनाने वाले मित्र के जेहन में गूँज रहा था और वो टुकड़ा जो उसने मुझे सुनाया था लिखने के लिए:


जाना, दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना

बीती हुई रातों मे
दूर हुये थे तुम
भीगी हुई बारिशों में
भीग रहे थे तुम..

गिर के संभलने को
मेरा हाथ थामा.

जाना..मेरा हाथ थामा.....


जाना!!!!!! मेरा हाथ थामा....

जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना
जाना, दूर नहीं जाना

रीती हुई जिन्दगी मे
गीत रहे हो तुम
तन्हा सफर में भी
मीत रहे हो तुम

तेरी हर अदा का
दिल हुआ दिवाना

जाना...दिल हुआ दिवाना

जाना, दूर नहीं जाना
मुझसे बिछड़ के
दूर नहीं जाना...

-समीर लाल ’समीर’

नोट: पोस्ट शायद हिन्दी सिनेमा से जुड़े ब्लॉगर्स का ध्यान आकर्षित करे इस प्रतिभा की ओर, यही एक मात्र कोशिश है. :)


साधना का गुनगुनाना:













वो गीत जो निर्माता के दिमाग में गूँज रहा था:














बस, आज इतना ही:

बुधवार, सितंबर 22, 2010

एक अंश- ट्रेलर ही समझिये!!

पिछले दिनों सड़क मार्ग से नजदीक के एक गांव में गया था. उसी दौरान इस एक घंटे की ड्राईव वाली सड़क यात्रा का एक वृतांत लिखा जो कि अगर पूरा यहाँ प्रस्तुत करुँ तो शायद आपको पढ़ने में उससे ज्यादा समय लग जाये, अतः उस वृतांत में से फिलहाल लगभग २% अंश:
नजर पड़ती है ठीक सामने वाली सफेद कार में ३२/३५ साल का कोई लड़का है. अभी कुछ देर पहले मेरे बाजू वाली लेन में था, जाने कैसे मौका लगा कि सामने आ गया. शायद मैने ही मौका दे दिया हो या वो ज्यादा स्मार्ट रहा हो तो मौका निकाल लिया हो. कब जान पाया है कौन इस बात को जीवन में. गाड़ियाँ धीरे धीरे सरक रही हैं और वो अपने बाजू बाजू कार में बैठी लड़की को बड़े ध्यान से देख रहा है. इतना अधिक ध्यान से कि उसे होश ही नहीं रहा और अपने आगे वाली गाड़ी के पीछे से टक्कर दे मारी. लो, एक तो वैसे ही ट्रेफिक अटका था, ये एक और आ गये. ५/७ मिनट को तो मामला फंस ही गया. झगड़ा और गाली गलौच तो इस बात पर यहाँ होती नहीं. बस, शालीनता से दोनों कार वाले उतरेंगे, सॉरी सॉरी का मधुर गीत गायेंगे. एक दूसरे के इन्श्यिरेन्स की जानकारी, फोन नम्बर, लायसेन्स प्लेट आदि अदला बदली करेंगे और ये चले. बाकी काम इन्श्यूरेन्स कम्पनी और पुलिस मिल कर करेगी. (भारत वाली मिली भगत नहीं, सही वाली) मेरे मन में बस यूँ ही आया कि यह बंदा जब इन्श्यूरेन्स क्लेम लिखायेगा तो कारण क्या देगा? पक्का झूठ बोलेगा कि जाने कैसे ब्रेक तो मारा था मगर ब्रेक नहीं लगा. ब्रेक की तो जुबान होती नहीं कि बोल दे कि ये भाई साहब झूठ बोल रहे हैं. ये लड़की देखने में व्यस्त थे, ब्रेक मारा ही नहीं तो मैं लगता कहाँ से? और मुझ प्रत्यक्षदर्शी से कोई पूछने से रहा और पूछे भी तो मुझे क्या लेना देना है-कोई मेरी गाड़ी तो टकराई नहीं तो मैं क्यूँ इन दो की झंझट में फंसू. भारत का तजुर्बा है. खैर, ब्रेक की तो जुबान ही नहीं होती, मैंने तो कितने ही जुबानधारियों को रसूकदारों के आगे मजबूरीवश मूक बने उनके झूठ को सच बना पिसते देखा है.

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि ये बंदे इतना क्या मगन हो जाते हैं लड़कियाँ देखने में कि सामने की गाड़ी से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं. मैने आज तक इतने जीवन में कभी किसी से ऐसा किस्सा नहीं सुना कि हाई वे पर जा रहे थे, ये बाजू की कार से निकली, हमने एक दूसरे को ध्यान से देखा. फोन नम्बर उछाले और अफेयर हो गया. फिर, हाई वे पर चलते एक दूसरे को देखकर अफेयर हो जाने की संभावना से कहीं ज्यादा संभावना इस बात की है कि आप चले जा रहे हैं और आसमान से बिजली गिरी और आप मर गये या आप हाई वे पर कार भगाये जा रहे हैं. आप को हार्ट की बिना किसी पूर्व शिकायत के हार्ट अटैक आ गया, आपने किसी तरह गाड़ी किनारे लगाई मगर जब तक एम्बूलेन्स आदि पहुँचती, आप गुजर गये. बाद में मित्र रिश्तेदार जरुर नम आँख लिए बात करते दिख जायेंगे कि अगर समय पर ईलाज पहुँच गया होता या दवा मिल गई होती तो भैय्या बच जाते. मगर ज्यादा बलवति संभावनाओं का ज्ञान होते हुए भी कोई व्यक्ति जिसे हार्ट की पूर्व शिकायत न हो, अपनी गाड़ी में सॉरबिट्रेट या ऐसी जीवन रक्षक दवा रख कर नहीं चलता मगर लगभग नगण्य संभावना वाली घटना की आशा बांधे बाजू की कार में लड़की को देखते हुए जाने कितने सामने की कार से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं. ऐसा एक दो बार नहीं, अनेकों बार हुआ है. शायद, मानव स्वभाव हो मगर है बड़ा रिस्की और ऐसा होता हमेशा ही दिख जायेगा.

यही आदत होती है और हम जीवन रुपी गाड़ी चलाते समय भी इससे छुटकारा नहीं पा पाते. ऐसी वस्तु की लालसा पाले अपना ध्यान भटका लेते हैं जो हमारे लिए है ही नहीं या जो हमारा उद्देश्य कभी थी ही नहीं या जिसे पाने की संभावना लगभग नगण्य है मानो मृग मरिचिका सी भटकन और इस चक्कर में अपने मुख्य उद्देश्य से, मंजिल से तो कभी संबंधों से एक्सिडेन्ट कर बैठते हैं और फिर सफाई में दोष ब्रेक जैसे किसी भी मूक पर मढ़ देते हैं. पता है वो कभी बोलेगा ही नहीं. मगर अंततः नुकसान हमारा ही होता है, भले ही कोई इन्श्युरेन्स कम्पनी मानिंद त्वरित भरपाई कर भी दे लेकिन प्रिमियम में वृद्धि के माध्यम से वसूला तो आपसे ही जायेगा.


संभल कर चलाना
जीवन की इस गाड़ी को
जरा सी चूक
और
कोई भी टकराहट
संबंधों की..
बड़ी से बड़ी कीमत
चुकाने के बाद भी
छोड़ जाती है
अपने निशान..
जो नासूर बन दुखते हैं
पूरी यात्रा में..

-समीर लाल ’समीर’

बताईयेगा कि क्या इसे पढ़ कर आपको उस वृतांत के कुछ और हिस्से पढ़ने की उत्सुक्ता है तो कभी प्रस्तुत किया जाये वरना वो किताब उपन्यासिका की शकल में छप कर तो आ ही रही है जल्दी एकाध महिने में. कॉपी बुक करना है क्या ट्रेलर पढ़कर?. :)

रविवार, सितंबर 19, 2010

तुझे भूलूँ बता कैसे

आज कम्प्यूटर पर वायरस का हमला हुआ. सुबह से मोर्चा संभाला हुआ है उनके खिलाफ. देखिये, क्या नतीजा निकलता है. अच्छा है कि ९७% कम्प्यूटर का बैक अप है. याने चार दिन पहले तक का. टेंशन डाटा लूज करने की हमेशा ज्यादा होती है तो उससे मुक्त हूँ. बस, आपसे पूछना चाह रहा था कि आपके पास बैक अप है अपने कम्पयूटर का? क्यूँकि जिस तरह एक आतंकवादी नहीं जानता कि हमले में वो किसे मार रहा है, और किस समय कर रहा है, उसी तरह वायरस की चपेट में भी कोई भी आ सकता है कभी भी. अपनी सुरक्षा का इन्तजाम खुद करें. हर समय तैयार रहें बैक अप के साथ.

अब मौसम जा रहा है. सर्दियाँ लगने को है. फल सब्जी जो भी बगीचे में हुए, तोड़ लिए गये या तोड़े जा रहे हैं. खूब खीरे, मिर्च, टमाटर, चेरी, नाशपाती खाई गई बगीचे की. कल सेब की अंतिम खेप भी तोड़ ली और लौकी (भ्रष्टाचार से तेज गति से बढ़ी) कल तोड़ी जायेगी. तो सेब और लौकी की तस्वीरें:



इन्हीं वजहों के चलते कुछ लिखना नहीं हुआ, बड़ी मिटती उड़ती फाईलें, उनका बचाव दिन ले गया तो बीच में नजर पड़ी अपनी एक पुरानी कविता पर जिसे मैं मंचों से अक्सर सुनाता हूँ मगर आश्चर्य कि वो मेरे ब्लॉग पर नहीं है. न जाने कैसे छूट गई. तो आज वो ही:


तुझे भूलूँ बता कैसे

मैं हूँ इस पार तू उस पार, मगर दिल साथ रहते हैं
हमारे देश में यारों, इसी को प्यार कहते हैं
मुझे तुम भूलना चाहो तो बेशक भूल जाना पर
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

न जाने कौन सा बंधन, न जाने कैसे रिश्ते हैं
दर्द उस पार उठता है, आँसूं इस पार गिरते हैं
ये हैं अहसास के रिश्ते, इसे तुम नाम मत देना
जैसे फूल में खुशबू, ये हर इक दिल में रहते हैं.

इन्हीं रिश्तों के बंधन से, हुआ जो हाल इस दिल का
कई बीमार कहते हैं, कई लाचार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

मुझे अक्सर रुलाती हैं, सुनहरी याद अपनों की
हमारे साथ के किस्से, लगे है बात सपनों की
मैं उन पत्तों से पूछूंगा, बता दो मुझको मजबूरी
छोड़ कर साथ शाखों का, बना ली तुमने क्यूँ दूरी

यूँ ही रोते बिलखते ही, मिटाने दूरियाँ निकला
हुई है मेरी हालत जो, उसे बेजार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

जहाँ बचपन ये खेला था, गली वो याद रहती है
जहाँ भी जा बसें हम तुम, याद वो साथ रहती है
उन्हीं यादों के साये में, गुजरती रात की घड़ियाँ
यहाँ अक्सर ही दिन में भी, अँधेरी रात रहती है.

हँसता हूँ यहाँ पर मैं, तुम्हारे बिन ही महफिल में,
मेरी जाँ ये समझ ले तू, इसे व्यवहार कहते हैं
तुझे मैं भूलता कैसे, तुझे हम यार कहते हैं.

--समीर लाल ’समीर’

बुधवार, सितंबर 15, 2010

जिन्दा सूखा गुलाब...

हरि बाबू, टूटती काया, माथे पर चिन्ता की लकीरें, मोटे चश्में से ताकती बुझी हुई आँखें, शायद ८४ बरस की उम्र रही होगी. हर दोपहर अपने अहाते में कुर्सी पर धूप में बैठे दिखते मानो किसी का इन्तजार कर रहे हों.

दो बेटे हैं. शहर में रहते हैं और हरि बाबू यहाँ अकेले. निश्चित ही बेटों का इन्तजार तो नहीं है, क्योंकि हरि बाबू जानते हैं कि वो कभी नहीं आयेंगे. बहु और बच्चों के लिए हरि बाबू देहाती हैं, तो इनके वहाँ जाने का भी प्रश्न नहीं. फिर आखिर किसका इन्तजार करती हैं वो आँखें?

उम्र की मार के कारण हरि बाबू की स्मृति धोखा देती है, पर बेटों से थोड़ा कम. आसपास देखी घटनायें ४-६ दिन तक याद रह जाती हैं. कुछ पुरानी यादें भी और कुछ पुरानी बातें भी, कुछ टीसें-नश्तर सी चुभती. इतना सा संसार बना हुआ है उनका जिसमें वो जिये जा रहे हैं. यही आधार है उनका और उनकी सोच का.

अकेले आदमी की भला कितनी जरुरतें, खुद से थोप थाप कर एक दो रोटी, कभी गुड़ तो कभी सब्जी के साथ खा लेते हैं और अहाते में बैठे-बैठे दिन गुजार देते हैं. बोलते कुछ नहीं.

जब नहीं रहा गया तो एक दिन उनके पास चला गया. पूछ बैठा कि ’चाचा, किसका इन्तजार करते हो?’

हरि बाबू पहले तो चुप रहे और फिर धीरे से बोले,’देश आजाद हो जाता तो चैन से मर पाता.’

मैं हँसा. मैने कहा कि ’चाचा, देश तो आजाद हो गया…. देश को आजाद हुए तो ६३ बरस हो गये. सन ४७ में ही आजाद हो गया था.’

देश तो आजाद हो गया…. सुनते ही एकाएक हरि बाबू के होंठों पर एक मुस्कान फैली और चेहरा बिल्कुल शांत.

हरि बाबू नहीं रहे.

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चलते चलते:

देखता हूँ जब

उस अँधेरे कमरे की

खिड़की पर रखा

बुझी लौ लिए एक दीपक,

जिन्दा सूखे हुए गुलाब

फंसे हुए गुलदस्ते में

और उस कोने वाली

दीवार से

टिका

टूटे तारों वाला

सितार....

तब दिखती है

इक रोशनी

उठती हुई दिये से

सुनाई देती है एक धुन

तारों से झंकृत

और

महक उठता है

गुलाब की खुशबू से

मेरा तन-मन!!

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, सितंबर 12, 2010

कुछ शामें और आज का दिन

मालूम तो था ही कि आ रहे हैं मगर कहाँ और कब मिलेंगे, यह आकर बताने वाले थे.

गुरुवार की सुबह बात हुई कि शुक्रवार की शाम को ७ बजे सिनेमा देखकर फुरसत होंगे, तब आ कर ले जाईये. टोरंटो अंतर्राष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल में भारत से पधारे हमारे चव्वनी चैप (छाप नहीं) ब्लॉग के मालिक अजय ब्रह्मात्मज को लेने हम पहुँचे घर से ८० किमी दूर, यही विचारते कि अभी खाना खिलवाकर फिर छोड़ने यहीं आना है फिर ८० किमी. ५ बजे शाम से रात १२.३० बजे के बीच हमारी ३६० किमी की ड्राईविंग किन्तु मिलकर इतना आनन्द आया कि पता ही नहीं चला.

८ बजे उनको घर लेकर पहुँचे और फिर जमीं महफिल हमारे बार में. कुछ जाम छलके, अनेको विषयों से लेकर ब्लॉगिंग और फिल्मों की बात चली, भोजन किया गया और फिर उनको होटल छोड़ आये. यादगार शाम थी. अपनी पुस्तक भी उसी दौर में उन्हें टिका दी. कह गये हैं कि पढ़ेंगे. :)

मुलाकात की कुछ तस्वीरें:

 

 

फिर कल शाम अनूप जलोटा जी के साथ गुजरी. एक से एक भजन सुने गये. नई बात जो देखने में आई वो यह कि आजकल उन्होंने भी बीच बीच में कुछ चुटकुले जोड़ना शुरु कर दिया है जिसे पब्लिक ने खूब मस्त होकर सुना. साथ ही चामुंडा स्वामी जी का प्रवचन भी था. तो कल की शाम भी मजेदार गुजरी. उनके चुटकुले की एक बानगी.भजन तो आप यू ट्यूब पर यूँ भी सुन सकते हैं.

आज सुबह से ही एक मित्र के घर जाना हो गया बार-बे-क्यू का इन्तजाम, शहर से १०० किमी दूर. अभी लौटे.

शाम अजय भाई भारत वापस निकल गये. फोन से बातचीत हो गई. उन्होंने हमारी तारीफ की, हमने उनकी. बाय बाय हो गई. अभी वो हवाई जहाज में होंगे.

ये सब इसलिए सुनाया कि इन सब के बीच कुछ लिखने का मौका नहीं लगा, तो आज ये ही. :)

तो आज के लिए:

 

चाहता

तो लिख देता

एक कविता

तुम्हारे लिए

लेकिन

जब कविता

कुछ कह न पाये

तब सोचता हूँ

बेहतर है

चुप रह जाये!!!

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, सितंबर 08, 2010

नीरो बाँसुरी बजाता है...

गुजरा वक्त लौट कर नहीं आता फिर भी सताता बहुत है.

अवसाद में न घिर जाऊँ इसीलिए डायरी नहीं लिखता. पहले लिखता था. बंद कर दिया. कई बार कलम उठाई, फिर रख दी.

एक गुलाब तोड़ लाया था बगीचे से. कांटा चुभ गया. कुछ देर गुलाब महकता रहा फिर मुरझा गया. ऊँगली में कांटा चुभने का दर्द बना रहा. मुरझाया फूल फेंक दिया.  ऊँगली में जहाँ कांटा गड़ा था, उसे छूकर देखा, तेज दर्द बना है. आँख से एक छोटी सी बूंद लुढ़क चन्द लम्हों में दम तोड़ती है. दर्द कुछ कम तो हुआ.

कुछ ही पन्ने लिखे हुए डायरी के. पन्ने भूरे से हो गये हैं. ज़िल्द की प्लास्टिक उखड़ने को है. अब नहीं लिखता डायरी वरना तो ज़िल्द कब का उखड़ गया होता. क्या लिखा है याद नहीं. पढ़ने का दिल भी नहीं.

डायरी से इतर कुछ घटनायें जेहन में कहीं अंकित हो गई हैं. सबको बसेरा चाहिये. बेहतर होता डायरी में लिखकर संदूक में बंद कर देता. जेहन पर अंकित हैं तो साथ साथ घूमती हैं हर वक्त.

जेहन पर अंकित हर्फ धुँधलाते नहीं. सफ्हे भी उजले के उजले.

हर की पौड़ी- हरिद्वार. गंगा आरती. कुछ यादें दोने में जला कर बहा देता हूँ. दूर जाते देखता हूँ उन्हें. बह गईं? भ्रम है शायद. पाप पुण्य बहते नहीं. पंडा अपने हिस्से के पैसे ले गया. प्रसादी में पेड़ा. ज्यादा मीठा खाकर मूँह में कसैलापन भर जाता है.

रेल भागी जा रही है. दरवाजे पर खड़ा अंधेरे में झांक रहा हूँ. दूर गांव में टिम टिम बत्ती. वो भी पीछे छूटती.

नीरा नाम है उसका. सामने की बर्थ पर. अम्मा ने उसे पुकारा, तो मैं जान गया. वो, उसकी अम्मा और बाबू जी. अगले स्टेशन पर तीनों उतर गये. कौन सा स्टेशन? क्या पता-कोई गांव, अंधेरे में नाम ही नहीं दिखा.

खिड़की से आती हवा सर्द है. कोई बड़ा स्टेशन आने को है. चाय पीने का मन है.

कौन से झौंके के साथ नींद आई-आँख खुली तब ट्रेन मेरे स्टेशन पर रुक रही है.

गरमा गरम चाय..चाय गरम. नहीं ली.

रिक्शे वाला बुढ़ा है, धीरे धीरे चल रहा है.

तिवारी जी टहलने निकल पड़े हैं. उनकी लड़की का नाम भी नीरा है.

डायरी मैं अब नहीं लिखता, कहीं अवसाद से घिर न जाऊँ.

नारंगी सूरज निकल रहा है. घर पर क्यारी में एक गुलाब ऊगा है-लाल रंग का.

ऊँगली को हल्का सा दबा कर देखता हूँ वहाँ जहाँ कांटा गड़ा था, दर्द नहीं है फिर आँख से ये बूंद कैसी? 

 

flute

 

वो
चुपके से
होले होले
कदम संभालते
बढ़ चला है
जाने किस ओर
गीली मिट्टी
उतार लेती है
पद चिन्ह
अपने सीने पर
और
बुढ़ा शजर
बाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में.

-आज फिर
नीरो बांसुरी बजा रहा है!!
न जाने क्यूँ??

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, सितंबर 05, 2010

अक्सर दिल करता है मेरा

अक्सर दिल करता है मेरा

चलूँ, बादलों के पार चलूँ
देखूँ, कहाँ रहता है वो चाँद
जो झाँकता है अपनी खिड़की से
मेरी खिड़की में सारी रात

चलूँ, उन पहाड़ों के पार चलूँ
देखूँ, कहाँ से आता है सूरज
जिसे देख मेरा चाँद
छुप जाता है
जाने किस परदे की ओट में

चलूँ, नदी की गहराई में चलूँ
मिलूँ, उन मछलियों से
जिनके साथ भी रहता है
एक चाँद
उस रात झील में देखा था उसे

चलूँ, गली के उस मोड़ तक चलूँ
देखूँ, उस कोने वाले मकान को
जहाँ रहती हो तुम..
और साथ दिखती है
चाँद की परछाई...

-समीर लाल ’समीर’

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