गुजरा वक्त लौट कर नहीं आता फिर भी सताता बहुत है.
अवसाद में न घिर जाऊँ इसीलिए डायरी नहीं लिखता. पहले लिखता था. बंद कर दिया. कई बार कलम उठाई, फिर रख दी.
एक गुलाब तोड़ लाया था बगीचे से. कांटा चुभ गया. कुछ देर गुलाब महकता रहा फिर मुरझा गया. ऊँगली में कांटा चुभने का दर्द बना रहा. मुरझाया फूल फेंक दिया. ऊँगली में जहाँ कांटा गड़ा था, उसे छूकर देखा, तेज दर्द बना है. आँख से एक छोटी सी बूंद लुढ़क चन्द लम्हों में दम तोड़ती है. दर्द कुछ कम तो हुआ.
कुछ ही पन्ने लिखे हुए डायरी के. पन्ने भूरे से हो गये हैं. ज़िल्द की प्लास्टिक उखड़ने को है. अब नहीं लिखता डायरी वरना तो ज़िल्द कब का उखड़ गया होता. क्या लिखा है याद नहीं. पढ़ने का दिल भी नहीं.
डायरी से इतर कुछ घटनायें जेहन में कहीं अंकित हो गई हैं. सबको बसेरा चाहिये. बेहतर होता डायरी में लिखकर संदूक में बंद कर देता. जेहन पर अंकित हैं तो साथ साथ घूमती हैं हर वक्त.
जेहन पर अंकित हर्फ धुँधलाते नहीं. सफ्हे भी उजले के उजले.
हर की पौड़ी- हरिद्वार. गंगा आरती. कुछ यादें दोने में जला कर बहा देता हूँ. दूर जाते देखता हूँ उन्हें. बह गईं? भ्रम है शायद. पाप पुण्य बहते नहीं. पंडा अपने हिस्से के पैसे ले गया. प्रसादी में पेड़ा. ज्यादा मीठा खाकर मूँह में कसैलापन भर जाता है.
रेल भागी जा रही है. दरवाजे पर खड़ा अंधेरे में झांक रहा हूँ. दूर गांव में टिम टिम बत्ती. वो भी पीछे छूटती.
नीरा नाम है उसका. सामने की बर्थ पर. अम्मा ने उसे पुकारा, तो मैं जान गया. वो, उसकी अम्मा और बाबू जी. अगले स्टेशन पर तीनों उतर गये. कौन सा स्टेशन? क्या पता-कोई गांव, अंधेरे में नाम ही नहीं दिखा.
खिड़की से आती हवा सर्द है. कोई बड़ा स्टेशन आने को है. चाय पीने का मन है.
कौन से झौंके के साथ नींद आई-आँख खुली तब ट्रेन मेरे स्टेशन पर रुक रही है.
गरमा गरम चाय..चाय गरम. नहीं ली.
रिक्शे वाला बुढ़ा है, धीरे धीरे चल रहा है.
तिवारी जी टहलने निकल पड़े हैं. उनकी लड़की का नाम भी नीरा है.
डायरी मैं अब नहीं लिखता, कहीं अवसाद से घिर न जाऊँ.
नारंगी सूरज निकल रहा है. घर पर क्यारी में एक गुलाब ऊगा है-लाल रंग का.
ऊँगली को हल्का सा दबा कर देखता हूँ वहाँ जहाँ कांटा गड़ा था, दर्द नहीं है फिर आँख से ये बूंद कैसी?
बुढ़ा शजर
जवाब देंहटाएंबाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में
कमाल का लेखन है आपका शुभकामनायें
सच में उम्दा लेखन......
जवाब देंहटाएंकुंवर जी,
याद न जाये
जवाब देंहटाएंदिल से
बीते दिनों की---
कितनी पुरानी यादें है जो खिडकी के परदे पर ताजा हो रही है ....
जवाब देंहटाएंकितनी यादें है तो खिडकी के परदे पर ताजा हो रही हैं ...
जवाब देंहटाएं... bahut sundar !!!
जवाब देंहटाएंबुढ़ा शजर
जवाब देंहटाएंबाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में.
बस इसीलिए नीरो भी बांसुरी बजा रहा है।
आभार
आदरणीय समीर जी
जवाब देंहटाएं" गुजरा वक्त लौट कर नहीं आता फिर भी सताता बहुत है ! "
सच कहते हैं समीर भाई
यादों का एक झोंका आया जाने कितने बरसों बाद
पहले इतना रोये नहीं थे , जितना रोये बरसों बाद
कहां ले गए आप हमें भी अपने अपने अतीत में भटकने … … … !
गुलाब महकता रहा फिर मुरझा गया. उंगली में कांटा चुभने का दर्द बना रहा … … …
नीरा नाम है उसका … … …
घर पर क्यारी में एक गुलाब ऊगा है-लाल रंग का. उंगली को हल्का सा दबा कर देखता हूं , वहां जहां कांटा गड़ा था, दर्द नहीं है । …फिर आंख से ये बूंद कैसी?
समीरजी ! समीरजी ! समीरजी !
इतने भावुक हैं आप भी ??
… और आपकी लेखनी को सच्चा सलाम ! पूरे मन से !! क्या लिखा है …
- राजेन्द्र स्वर्णकार
आंख से छलका आंसू तो जा टपका शराब में,
जवाब देंहटाएंदिल में चुभा जो कांटा तो जा निकला गुलाब में...
जय हिंद...
जिन्दगी के झंझावातों में घिरे हुए हम और समाधान कहीं नहीं। सभी और स्वार्थपरता नजर आती है तब लगता है कि हम भी नीरो की तरह काश बंशी ही बजा पाते। अब समझ आने लगा है कि जब रोम जल रहा था तो नीरो कैसे बंशी बजा रहा था? अच्छी पोस्ट।
जवाब देंहटाएंसमीर बाबू, आज त आपका इस्टाइल बदला बदला लग रहा है..मगर अच्छा है जो भी बदलाव है..हमरे लिए त ई भी समझना मोस्किल हो रहा है कि आपका लिखा हुआ प्रस्तावना को कबिता कहें कि गद्य. एतना पिक्चरस्क अर्नन है कि ऊ अपने आप में कबिता लगता है.. उँगली में लगा काँटा और खून का कण, हरिद्वार, ट्रेन, नीरा, नारंगी सूरज और फड़फड़ाते हुए डायरी के पन्ने.. एक कोलॉज बन रहा है, उसपर ई कबिता.. बस मेमेरिज़्म!!
जवाब देंहटाएंबहुत भावनात्मक लेखन|ओह!! गुलाब के संग कांटा...दर्द की तासीर भी कभी कभी सुखद हो जाती है| पूरा महाकाव्य कह गए आप|
जवाब देंहटाएंवो शेर है ना :
जवाब देंहटाएंजिंदगी आँसुओ का एक प्याला था,
थोडा पी गए थोडा छलका गए ..
शराब की तरह यादें भी बड़ी कमबख्त चीज़ है, थोड़ी थोड़ी तो ठीक, overdose से बचिए, वर्ना लत लग जाएगी ...
kavita bahut achchi lagii sameer
जवाब देंहटाएंइस बांसुरी को बजते रहने दें. धुनें बड़ी रोमांचक हैं.
जवाब देंहटाएंआलेख और कविता खस कर ये बहुत उम्दा है बाँह फैलाये खड़ा है
जवाब देंहटाएंहरियाली के इन्तजार में. -आज फिर
नीरो बांसुरी बजा रहा है!
खुद से बतियाना अच्छा लगा। आखिर नीरो भी यही कर रहा था न।
जवाब देंहटाएंएक वाक्य में कहें तो शब्दों का मायाजाल
जवाब देंहटाएंनीरो की बांसुरी तो बस.........
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड और साथ में जय श्री राम
दर्द है कि भुलाए नहीं भूलता । बांटा भी नहीं जा सकता । यह निहायत अपना होता है ।
जवाब देंहटाएंक्या कहें विस्मृत है।
जवाब देंहटाएंशायद इसीलिए यादों और समय का गहरा सम्बन्ध है।
आह कहूँ कि अहा,
जवाब देंहटाएंजो कुछ भी बहा,
जो कुछ भी सहा,
न डायरी सही,
हृदय में तो सब रहा।
Lekhan gazab ka hai ye kahna sooraj ko diya dikhane jaise hoga...aaj bhi aapka aalekh aankhen nam kar gaya...dairy likhne ki adat se hua ek bhayankar qissa yaad aa gaya...wo dairy to jala deni padi,par wo sadma aajtak bhulaya nahi gaya..ya bhoolne nahi diya gaya.
जवाब देंहटाएंनीरो की बांसुरी नें कविता को एक अलग ही शक्ल दे दी !
जवाब देंहटाएंआज आप कुछ सेंटिया रहे हैं...चीयर अप यंग मैन...
जवाब देंहटाएंफिर भी आपने जो लिखा है बहुत दिल से अच्छा लिखा है...जब नीरो रोम जलने पे बांसुरी बजा सकता है तो दुखी होने पर आप क्यूँ नहीं?
नीरज
beete vakt ke lamhen jab kabhi ankhon men chaa jaate han tab dard ka aalam yahi hota ha..par kabhi koi kaya beeta vakt bhula paata hai?lakh koshish ke baad bhi nahi...bahut bhavuk lekh,rachna bhi bahut pasnd aayi..bahut2 badhai
जवाब देंहटाएं-आज फिर
जवाब देंहटाएंनीरो बांसुरी बजा रहा है!!
न जाने क्यूँ??
अच्छी पोस्ट।
गद्य अंश के प्रायः सभी पैरे पद्यमय हैं और केवल लाइनों को तोड़ देने मात्र से वे स्वतंत्र कविताएं प्रतीत होंगी।
जवाब देंहटाएंबहुत समय बाद मेरी पसंद ने पाया जब प्रोस ने पोएट्री पर बाज़ी मारी हो .यूँ कहू की मुझे तो आपका प्रोस भी कविता ही लगी हैऔर बहुत दिनों बाद किसी लेख ने इतना इम्प्रेस किया है.(मेरा मतलब यह हरगिज़ नहीं की कविता में कमी हैं)जनाब मेरे लिए तो कविता ही है यह लेख . क्या बात निकली है, गुलाब के फूल, कांटे से ज़ख्म , दर्द जो शायद आत्मा तक पहुँचा, एक बूँद जल की ,कितनी कीमती थी वोह बूँद.नरेश शाद साब की बात याद आ गयी है.
जवाब देंहटाएंतू मेरे गम में ना हँसती हुई आँखों को रुला
मैं तो मर मर के भी जी सकता हूँ मेरा क्या है
दर्दे दिल की तड़प मेरे ही सीने में रहने दे
तू तो आंख से भी रो सकता है तेरा क्या है
आगे लिखी आपने बात है सफर की ,चाय की तलब, प्यासे होंट .डायरी के भूरे पड़ते पन्ने ...फ़राज़ साबने कहा है ,अबके हम बिछड़े तो शायद कभी खाबों में मिले /जिस तरह सूखे हुवे फूल किताबों में मिले. जी चाह रहा है लिखता ही रहूँ पर अभी तो यही कहूँ आपका तलिस्मी टाईटल "नीरो बाँसुरी बजाता है..."बहुत ख़ूब इक टूटा सा विचार जन्म रहा है -गावं उजड़ा क़स्बा बसा /दिल उजड़ा कभी ना बसा.
फिर पढ़ने और समझने को जी चाह रहाहै. बहुत शुक्रिया
नीरो और नीरा में कितना साम्य है ना? ये अनायास था या...?
जवाब देंहटाएंसच कहा सरकार आपने...डायरी में उकेर देने के बाद फिर सफ्हों के साथ ही शब्द भी धुंधले पर जाते हैं, लेकिन जेहन में अंकित हो तो संग-संग घुमते रहते हैं कमबख्त।
कविता बहुत पसंद आयी।
chahkar bhi likh na saka man
जवाब देंहटाएंaur ho gaya 'kitab' jindagi ki..
badi khoobsurati se likha hai ye panna..!
बहुत सी यादों को झंझोर देता है यह वक़्त जब कुछ ऐसा लिखा हुआ सामने पढने के लिए आता है ...डायरी लिखना और अवसाद बहुत मेल है इन लफ़्ज़ों में ...पर लिखा हुआ बहुत राहत भी देता है कभी कभी ...कविता बहुत पसंद आई
जवाब देंहटाएंडायरी नहीं लिखते ...सब कुछ जेहन में साथ रहता है ...फूल मुरझा गया ..पर कांता चुभने का दर्द बना रहा ...
जवाब देंहटाएंकविता बहुत भावुक मन की अभिव्यक्ति लगी ...
तीनों कविताएं, ऊपर वाली, नीचे वाली और बीच में जो चित्र है (वह भी काव्यात्मक ही है), बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंबुढ़ा शजर
बाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में.
इस पर बस इतना ही कहना है
बहुत हसीन सा एक बाग मेरे घर के नीचे है,
मगर सकून मिलता पुराने शज़र के नीचे है।
मुझे कढ़े हुए तकियों की क्या ज़रूरत है,
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है।
आंच पर संबंध विस्तर हो गए हैं, “मनोज” पर, अरुण राय की कविता “गीली चीनी” की समीक्षा,...!
गुजर वक्त लौट कर नहीं आता , पर भुला भी कहाँ जाता है...
जवाब देंहटाएंदिल की गहराइयों से लिखी पोस्ट.
"नीरो बांसुरी बजा रहा है!!
जवाब देंहटाएंन जाने क्यूँ?"
सिम्पल.... पहले वो गिटार फ़िडल कर रहा था.. अब रोम जल चुका है तो बांसुरी बजा रहा है:)
और
जवाब देंहटाएंबुढ़ा शजर
बाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में. .... bhavuk kar dene wali panktiyaan.. aur puri rachna !
sir sach kahun gulab wali baat padhkar maja aa gaya.......
जवाब देंहटाएंगुजरा वक्त लौट कर नहीं आता फिर भी सताता बहुत है
जवाब देंहटाएंmain aapki kalam ko naman karti hun
अगर बांसुरी तोड़ दी जाए तो नीरो क्या बजाएगा?
जवाब देंहटाएं………….
गणेशोत्सव: क्या आप तैयार हैं?
अत्यंत भावपूर्ण...
जवाब देंहटाएंऔर कविता भी.
अब डायरी कोई नहीं लिखता..सब ब्लाग लिखते हैं
जवाब देंहटाएं्बेहद उम्दा ……………कुछ ख्यालात और कुछ यादें कभी ना कभी दस्तक दे ही जाते हैं।
जवाब देंहटाएंबुढ़ा शजर
जवाब देंहटाएंबाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में ..
बूढ़े शजार पर तो हरियाली आ जायगी अगले मौसम ... पर उम्र की ढलान पर कब हरियाली आएगी ये कोई नही जानता ..... गहरी यादों में उतार देती है आपकी पोस्ट समीर भाई ...
यह बंसुरी हम ने पहले भी सुनी है, लेकिन आप के अंदाज मै नही, बहुत सुंदर लेख धन्यवाद
जवाब देंहटाएंवाह...... बेहतरीन....
जवाब देंहटाएंवो
चुपके से
होले होले
कदम संभालते
बढ़ चला है
जाने किस ओर
गीली मिट्टी
उतार लेती है
पद चिन्ह
अपने सीने पर
और
बुढ़ा शजर
बाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में.
पोस्ट और रचना सोचने को बाध्य करती है!
जवाब देंहटाएंA real good narration simple but sharp and beautiful. I expect more from you.
जवाब देंहटाएंमंत्र्मुग्ध कर गये समीर भाई आप तो ...
जवाब देंहटाएंसुंदर कविता और उसके साथ नीरो की संबद्धता इस पोस्ट को नये आयाम दे रही है. शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
इसका मतलब सरजी, रोम फ़िर जल रहा है?
जवाब देंहटाएंबूढ़ा शजर हरियाली के इंतज़ार में, बिल्कुल हक है साहब। और इन्तज़ार में खींच होगी तो हरियाली कैसे नहीं आयेगी? बहुत बढ़िया लगी ये पोस्ट भी।
आभार।
सदा यह नीरो ही क्यों बाँसुरी बजाता है? कभी नीरा क्यों नहीं बजाती?
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
क्या डायरी इससे अलग होती है ? अच्छे से आपने एक स्म्रति को दर्ज किया है।
जवाब देंहटाएंbeete hue lamho ki kasak aaj bhi hogee
जवाब देंहटाएंaapki rachnao me har koi pathak apne ko dhoodhta hai
समीर जी, हालाँकि मैं आपको बहुत कम ही पढ़ पाया हूँ, लेकिन जितना भी पढ़ा है उससे यह बात ज़ाहिर हुई है की आप बहुत अच्छा लिखते हैं. आज का लेख और कविता दोनों ही अच्छी है.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंपश्यन्ति शुक्ला जी की बात से भी सहमत हूँ की आजकल डायरी कोई नहीं लिखता, सभी ब्लॉग लिखते हैं
ये नीरा जो ना कराये कम है
जवाब देंहटाएंये नीरा जो ना कराये कम है
जवाब देंहटाएंBahut Khub...dil ko chuta hai ye rachna..
जवाब देंहटाएंडायरी से इतर कुछ घटनायें जेहन में कहीं अंकित हो गई हैं. सबको बसेरा चाहिये. बेहतर होता डायरी में लिखकर संदूक में बंद कर देता. जेहन पर अंकित हैं तो साथ साथ घूमती हैं हर वक्त.
जवाब देंहटाएंसच कहूँ तो आज आपकी पोस्ट पड़कर वाह !
नहीं आह ....निकला बहुत गहन और प्रभावशाली
आपका गद्य भी पद्य से कम नहीं .....आभार
GADYA AUR PADYA DONO MEIN AAPNE
जवाब देंहटाएंJAADOO JAGAA DIYAA.PRAKASHKON KO
TO AAPKO HATHON HAATH LENAA CHAHIYE.BHAI, JAB BHEE APNEE KRITI
KE LIYE KISEE PRAKAASHAK SE ANUBANDH KAREN TO AGRIM MEIN ACHCHHEE VASOOLEE KAREN.MEREE YAH
BAAT APNEE GAANTH MEIN BAANDH LEN.
समीर जी ! स्मृतियों से आप चुन चुन कर मोती निकाल लाते हैं ....,मुझे भी एक सफर याद आया !!!!!
जवाब देंहटाएंजेहन पर अंकित हर्फ धुँधलाते नहीं. सफ्हे भी उजले के उजले...
जवाब देंहटाएंक्या बात कही है...समीर जी...
यादें होती ही ऐसी हैं , कि भुलाये न भूलें ।
जवाब देंहटाएंफिर वो नीरा की हो या नीरो की ।
कुछ ही पन्ने लिखे हुए डायरी के. पन्ने भूरे से हो गये हैं. ज़िल्द की प्लास्टिक उखड़ने को है.
जवाब देंहटाएंक्या खूब समीरजी. कहने के पीछे बहुत कुछ अनकहा सुन रहा है पाठक.
मनोज खत्री
आजकल गम्भीर पोस्ट ज़्यादा लिख रहे हैं...:( अच्छी , सुन्दर पोस्ट.
जवाब देंहटाएंसच ही तो है डायरी में लिखा अपना कहाँ होता है ?बहुत कुछ तो अन्दर ही रह जाता है |
जवाब देंहटाएंकाविता बहुत अच्छी लगी स्वेदानाओ को साथ लिए हुए |
bahut achchi lagi.
जवाब देंहटाएंडायरी लिख कर बाद में जुगाली करने की तमन्ना में आंसूंओं का सैलाब आ जय तो यही करन चाहिये.
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा रचना .....समीर भाई .....हमेशा की ही तरह ....... कभी तो कुछ 'बुरा भला' लिखा करो !
जवाब देंहटाएंवैसे नीरज भाई से सहमत हूँ .....बजाये रहिये बांसुरी..... पर सुख चैन की !
न जाने क्यों कल ही लिखी अपनी एक डायरी से कुछ की याद आ गयी...
जवाब देंहटाएंन जाने क्यों उसकी झलकियां दिखी इस पोस्ट में..
हो सकता है मेरा भ्रम हो.. हो सकता है सिर्फ़ इत्त्फ़ाक..
कविता यहाँ से इन्सपायर्ड लग रही है.. हो सकता है जेहन में रह गया हो कुछ...
हो सकता है मेरा भ्रम हो.. हो सकता है सिर्फ़ इत्त्फ़ाक..
समीर भाई आपकी डायरी पढ़कर ऐसा लगा जैसे कि यह शब्द मेरे हैं जो आप लिख रहे हैं वे सारे दिन सचमुच जैसे पंख फडफडाकर उड गये .. एक कविता ऐसे ही रेल के सफर मे लिखी थी याद आ गई ...
जवाब देंहटाएंलोहे का घर
सुरंग से गुजरती हुई रेल
बरसों पीछे ले जाती है
उम्र के साथ
बीते सालों के
फड़फड़ाते पन्नों को
खिड़की से आया पहचानी हवा का झोंका
किसी एक खास पन्ने पर
रोक देता है
एक सूखा हुआ गुलाब का फूल
दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
रात भर जागकर बतियाने का सुख
उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श
स्वप्न देखने के लिये टिकट लेना
कतई ज़रूरी नहीं है ।
शरद कोकास
आज फिर
जवाब देंहटाएंनीरो बांसुरी बजा रहा है!!
बेहतरीन...हम तो नीरो की इस बँसी पर मुग्ध हुए जा रहे हैं...
यादों का यहाँ भी का गुज़र-बसर है,
जवाब देंहटाएंबस अंदाज़ अलग है,
आंसूं की बूँद जानती है, की दर्द आज भी है,
बस जगह अलग है.
बहुत सुंदर लेख और कविता. बेहद खूबसूरत अंदाज़ है लेखनी का!
वाह सर... आज ये कोलाज की कलाकारी भी कमाल रही.. और कविता तो लुटेरी है ये.. दिल लूट ले गई.. :)
जवाब देंहटाएंबांसुरी की धुन अच्छी लगी....
जवाब देंहटाएंबांसुरी की धुन अच्छी लगी....
जवाब देंहटाएंजेहन मे अंकित हों तो ही बेहतर है...अब हर बार डायरी तो साथ नही रख सकते न..और न कहीं ले जा सकते हैं....और फ़िर उंगली मे दर्द लिखना तो हो नही पाता...और बूंद टपकी तो लिखावट ......उफ़्फ़..
जवाब देंहटाएंअच्छी रचना...और अनोखा बिम्ब प्रस्तुत किया है आपने सर...
जवाब देंहटाएंbuda shazar bahen failaye khada hai, hariyali ke intezar me . bhai ,wah.........
जवाब देंहटाएंgiली मिट्टी
जवाब देंहटाएंउतार लेती है
पद चिन्ह
अपने सीने पर
और
बुढ़ा शजर
बाँह फैलाये खड़ा है
bahut sundar bhaav ! Aur ek khoobsoorat kavita!
Mere blog per padhaarne ka bahut bahut shukriya. Kal raat ko post ki thi aur der ho gayi thi isliye poori nahi post kar payi thi. Ab poori post kar di hai.
Magar Mujhe khushi hai ke aapke blog per aane ka mauka mila aur itni badhiya rachnaayein .... wow !!
Shubhkaamnaayein.
Couldn't find the option to follow your blog on the front page .. :( please help.
जवाब देंहटाएंअब तक इंतजार में हूँ कि आप कुछ तो बोलेंगे और मेरी कन्फ़्यूजन दूर करेंगे... :-।
जवाब देंहटाएंवाह !!!!
जवाब देंहटाएंभावों को शब्दों में ख़ूबसूरती से गूंथ माला बनाना तो कोई आपसे सीखे...
सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंयहाँ भी पधारें :-
No Right Click
एज युजअल, समीरजी पोस्ट पर देरी से ही पहुंची, आदतन टिप्पणी नहीं करने वाली थी पर पोस्ट में कहीं ऐसी सच्चाई दिखी कि खुद को लिखने से रोक नहीं सकी। उम्दा पोस्ट.
जवाब देंहटाएंलेखन का ये अंदाज़!!!
जवाब देंहटाएंसमीर लाल जी कमाल है...
जनाब समीर लाल साब
जवाब देंहटाएंफिर लोटा हूँ, फिर आपका लिखा पढ़ा है, फिर दिलमें याद की एक दुनिया जागी है और एक पुराना शेर याद आया है .जो अर्ज है-
मुमकिन है वक्त हर ज़ख्म को भर देता हो
ज़ख्म भर भी जायें तो निशान कहाँ जाते है
और एक शेर अदम साब का भी मोज़ुं है -
याद एक ज़ख्म बन गयी वरना /भूल जाने का कुछ ख्याल तो था . और फैज़ साब भी आ गए हैं-
यादों के गरीबाँनो के रफु में दिल की गुजर कहाँ होती है /एक बखिया सिया एक उधेडा यूँ उम्र बसर कहाँ होती है.माफ करें .मुझे लिख कर कुछ सकून मिला है, जिसकेलिए आपका शुक्रिया
bahut sundar likha hai.... aur mitti jo pero ke nishaan khud me samaa leti hai...vaah bahut sundar lekhan aur bahut bhavatmk... shubhkaamnaye..
जवाब देंहटाएंबुढ़ा शजर
जवाब देंहटाएंबाँह फैलाये खड़ा है
हरियाली के इन्तजार में.......
...................................
भावनात्मक गहराइयों से लिखी पोस्ट....बेहद उम्दा रचना .....
आज नीरो फिर बांसुरी क्यों बजा रहा है ! वह नीरो नही नीरा है ! गुलाब के साथ कांटे हैं ! स्मृति चुभती है ! फिर भी यादें हैं की बस..बस में नहीं ! आभार
जवाब देंहटाएंneera kee yad aapko aai aur yahaa to rom nahee rom-rom jal rahaa hai
जवाब देंहटाएंलौट आते जो ,
जवाब देंहटाएंवो गुजरे हुए पल,
ना बनते ये गीत ,
ना बनते गजल.
ना होते मेरे नैन सज़ल.
वक़्त बस यादें छोडती है क्योंकि ,उस यादों में हम बहुत कुछ खोकर भी बहुत कुछ पा लेते हैं.
बहुत उम्दा लिखा है आपने,
हमारे ब्लॉग का रास्ता भूल गए .......
आपको एवं आपके परिवार को गणेश चतुर्थी की शुभकामनायें ! भगवान श्री गणेश आपको एवं आपके परिवार को सुख-स्मृद्धि प्रदान करें !
जवाब देंहटाएंउम्दा लेखन !
आज फिर नीरो बांसुरी बजा रहा है न जाने क्यूं । वास्तविकता से भागने को कितना जी चाहता है कभी कभी । लेकिन भाग कहां पाता है ।
जवाब देंहटाएंगणेशोत्सव की हार्दिक शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंसमीर जी, आज ही इस शानदार पोस्ट की चर्चा जनसत्ता में पढ़ी...अच्छा लगा....मुबारकवाद.
जवाब देंहटाएंआज दिनांक 13 सितम्बर 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट नीरो की बांसुरी शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें। सुबह नेट न चलने के कारण सूचित करने में देरी हुई है।
जवाब देंहटाएंनीरो बाँसुरी बजा रहा है ,इधर रोम जल रहा है;लगता है एक बाँसुरी आपके मन में भी बज रही है-
जवाब देंहटाएं'न जाने क्यूँ?'
बहुत सुन्दर, चाचा.
जवाब देंहटाएं