रविवार, नवंबर 21, 2010

तेरी बिंदिया रे!!!

कहते हैं, मुसीबत कैसी भी हो, जब आनी होती है-आती है और टल जाती है-लेकिन जाते जाते अपने निशान छोड़ जाती है.

इन निशानियों को बचपन से देखता आ रहा हूँ और खास तौर पर तब से-जब से गेस्ट हाऊसेस(विश्राम गॄहों  और होटलों में ठहरने लगा. बाथरुम का शीशा हो या ड्रेसिंग टेबल का, उस पर बिन्दी चिपकी जरुर दिख जाती है. क्या वजह हो सकती है? कचरे का डब्बा बाजू में पड़ा है. नाली सामने है. लेकिन नहीं, हर चीज डब्बे मे डाल दी जायेगी या नाली में बहा देंगे पर बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी. जाने आईने पर चिपका कर उसमें अपना चेहरा देखती हैं कि क्या करती हैं, मेरी समझ से परे रहा. यूँ भी मुझे तो बिन्दी लगानी नहीं है तो मुझे क्या? मगर एकाध बार बीच आईने पर चिपकी बिन्दी पर अपना माथा सेट करके देखा तो है, जस्ट उत्सुकतावश. देखकर बढ़िया लगा था. फोटो नहीं खींच पाया वरना दिखलाता.

यही तो मानव स्वभाव है कि जिस गली जाना नहीं, उसका भी अता पता जानने की बेताबी.

मुसीबतें भी अलग अलग आकार की होती है, तो वैसे ही यह निशान भी. श्रृंगार, शिल्पा ब्राण्ड की छोटी छोटी बिन्दी से लेकर सुरेखा और सिंदुर ब्राण्ड की बड़ी बिन्दियाँ. सब का अंतिम मुकाम- माथे से उतर कर आईने पर.

bindi

कुछ बड़ी साईज़ की मुसीबतें,  बतौर निशानी, अक्सर बालों में फंसाने वाली चिमटी भी बिस्तर के साईड टेबल पर या बाथरुम के आईने के सामने वाली प्लेट पर छोड़ दी जाती हैं. इस निशानी की मुझे बड़ी तलाश रहती है. नये जमाने की लड़कियाँ तो अब वो चिमटी लगाती नहीं, अब तो प्लास्टिक और प्लेट वाली चुटपुट फैशनेबल हेयरक्लिपस का जमाना आ गया मगर कान खोदने एवं कुरेदने के लिए उससे मुफ़ीद औजार मुझे आज तक दुनिया में कोई नजर नहीं आया. चाहें लाख ईयर बड से सफाई कर लो, मगर एक आँख बंद कर कान कुरेदने का जो नैसर्गिक आनन्द उस चिमटी से है वो इन ईयर बडस में कहाँ?

hairpin (1)

औजार के नाम पर एक और औजार जिसे मैं बहुत मिस करता हूँ वो है पुराने स्वरूप वाला टूथब्रश ... नये जमाने के कारण बदला टूथब्रश का स्वरुप. आजकल के कोलगेटिया फेशनेबल टूथब्रशों में वो बात कहाँ? आजकल के टूथब्रश तो मानो बस टूथ ब्रश ही करने आये हों, और किसी काम के नहीं. स्पेशलाईजेशन और विशेष योग्यताओं के इस जमाने में जो हाल नये कर्मचारियों का है, वो ही इस ब्रश का. हरफनमौलाओं का जमाना तो लगता है बीते समय की बात हो, फिर चाहे फील्ड कोई सा भी क्यूँ न हो.

बचपन में जो टूथब्रश लाते थे, उसके पीछे एक छेद हुआ करता था जिसमें जीभी (टंग क्लीनर) बांध कर रखी जाती थी. ब्रश के संपूर्ण इस्तेमाल के बाद, यानि जब वह दांत साफ करने लायक न रह जाये तो उसके ब्रश वाले हिस्से से पीतल या ब्रासो की मूर्तियों की घिसाई ..फिर इन सारे इस्तेमालों आदि के हो जाने के उपरान्त जहाँ ब्रश के स्थान पर मात्र ठूंठ बचे रह जाते थे, ब्रश वाला हिस्सा तोड़कर उसे पायजामें में नाड़ा डालने के लिए इस्तेमाल किया जाता था. नाड़ा डालने के लिए उससे सटीक और सुविधाजनक औजार भी मैने और कोई नहीं देखा.

जिस भी होटल या गेस्ट हाऊस के बाथरुम के या ड्रेसिंग टेबल के आईने पर मुझे बिन्दी चिपकी नजर आती है, मेरी नजर तुरंत बाथरुम के आईने के सामने की पट्टी पर और बिस्तर के बाजू की टेबल पर या उसके पहले ड्राअर के भीतर जा कर उस चिमटी को तलाशती है जो कभी किसी महिला के केशों का सहारा थी, उसे हवा के थपेड़ों में भी सजाया संवारा रखती थी. खैर, सहारा देने वालों की, जिन्दगी के थपेड़ों से बचाने वालों की सदा से ही यही दुर्गति होती आई है चाहे वो फिर बूढ़े़ मां बाप ही क्यूँ न हो. ऐसे में इस चिमटी की क्या बिसात मगर उसके दिखते ही मेरे कानों में एक गुलाबी खुजली सी होने लगती है.

बदलते वक्त के साथ और भी कितने बदलाव यह पीढ़ी अपने दृष्टाभाव से सहेजे साथ लिये चली जायेगी, जिसका आने वाली पीढ़ियों को भान भी न होगा.

अब न तो दाढ़ी बनाने की वो टोपाज़ की ब्लेड आती है जिसे चार दिशाओं से बदल बदल कर इस्तेमाल किया जाता था और फिर दाढ़ी बनाने की सक्षमता खो देने के बाद उसी से नाखून और पैन्सिल बनाई जाती थी. आज जिलेट और एक्सेल की ब्लेडस ने जहाँ उन पुरानी ब्लेडों को प्रचलन के बाहर किया , वहीं स्टाईलिश नेलकटर और पेन्सिल शार्पनर का बाजार उनकी याद भी नहीं आने देता है. तब ऐसे में आने वाली पीढ़ी क्यों इन्हें इनके मुख्य उपयोगों और अन्य उपयोगों के लिए याद करे, उसकी जरुरत भी नहीं शेष रह जाती है.

फिर मुझे याद आता है वह समय, जब नारियल की जटाओं और राख से घिस घिस कर बरतन मांजे जाते थे. आज गैस के चूल्हे में न तो खाना पकने के बाद राख बचती है और न ही स्पन्ज, ब्रश के साथ विम और डिश क्लीनिंग लिक्विड के जमाने में उनकी जरुरत. स्वभाविक है उन वस्तुओं को भूला दिया जाना.

सब भूला दिया जाता है. हम खुद ही भूल बैठे हैं कि हमारे पूर्वज बंदर थे जबकि आज भी कितने ही लोगों की हरकतों में उन जीन्स का प्राचुर्य है. तो यह सारे औजार भी भूला ही दिये जायेंगे, इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं.

अंतर बस इतना ही है कि आज अल्प बचत का सिद्धांत पढ़ाना होता है जो कि पहले आदत का हिस्सा होता था.

अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.

90 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत खूब समीर जी, आपने तो एक गुजरे जमाने की तस्वीर पेश कर दी। हालाँ कि आपसे बहुत छोटा हूँ उम्र में फिर भी ये सारी चीजें देखी हैं। जिन छूटी हुई बिँदियोँ की आप बात कर रहे हैं उन पर मैने भी अक्सर गौर किया है। बहुत अच्छा लेख।
    वो टोपाज के ब्लेड्स भारत में अब भी चलते हैं सैलून वाले मुख्यतः इसका ही उपयोग करते हैं।

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  2. बहुत खूब समीर जी, आपने तो एक गुजरे जमाने की तस्वीर पेश कर दी। हालाँ कि आपसे बहुत छोटा हूँ उम्र में फिर भी ये सारी चीजें देखी हैं। जिन छूटी हुई बिँदियोँ की आप बात कर रहे हैं उन पर मैने भी अक्सर गौर किया है। बहुत अच्छा लेख।
    वो टोपाज के ब्लेड्स भारत में अब भी चलते हैं सैलून वाले मुख्यतः इसका ही उपयोग करते हैं।

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  3. बहुत काम का अनुभव है आपका मानना पड़ेगा .

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  4. आप महिलाओं के माथे की बिंदी पर चिंतन पर व्‍यस्‍त हो गए, इधर ब्‍लॉगों के माथे पर हिंदी की बिंदी की चिंता है। दिल्‍ली हिन्‍दी ब्‍लॉग विमर्श के आपके सचित्रीय अनुभव कब और कहां प्रकाशित हो रहे हैं, इंतजार है
    बहुत चिंतित है ब्लु लाइन बसे



    शनिवार को गोवा में ब्‍लॉगर मिलन और रविवार को रोहतक में इंटरनेशनल ब्‍लॉगर सम्‍मेलन

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  5. Bhai saheb, Aapka post bahut hi achha laga.One run saved means one run made-wali kahavat charitarth ho rahi hai, plz. visit my blog.

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  7. बेनामी11/21/2010 09:23:00 pm

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  8. बहुत खूब. धीरे से बचपन में ले गये.. मितव्ययिता के लिये नायाब चीजों का इस्तेमाल किया गया था बीसवीं सदी के भारत में... पैसे की पूरी वसूली..

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  9. छोटी-छोटी मुसीबतों पर प्रस्‍तुत छोटा सा शोध प्रबन्‍ध। आपने बता दिया कि विषय तो चारों ओर बिखरे हैं। बस, नजर चाहिए।
    सामान्‍य पर असामान्‍य प्रस्‍तुति।

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  10. आईनों पर चिपकी बिन्दियाँ प्रमाण हैं उन बेसुध यात्राओं का जिसमें कई बार स्वयं को सुन्दरता का प्रमाणपत्र दिलवाती रहीं श्रंगार नायिकायें। चिमटी अब कम ही मिलती है पर बिंदियाँ मिलने का क्रम बना हुआ है।
    आज कल के नवयुवक जीभी का मान ही नहीं रखते हैं, फटाफटिया मानसिकता में वह छोटे छोटे सुख और बचत खो बैठे हैं।

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  11. गुरुदेव,
    कांच की टूटी चूड़ियां, रबड़-बैंड का ज़िक्र करना भूल गए आप...ये निशानियां भी अक्सर मिल जाया करती हैं...

    माचिस की तीली भी कान को चिमटी वाला ही परमानंद देती है...

    बंदरों को ये तो शुक्र है कि इनसान उनके पूर्वज नहीं थे...

    कल आप रोहतक में होते तो राज भाटिया जी की तरह अल्पबचत-वचत भूल पेट-पूजा कर रहे होते, करा रहे होते...

    जय हिंद...

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  12. जीवन में कितनी ही छोटी छोटी चीज़ों की महत्व हम धीरे धीरे भूलते जा रहे हैं ... ज़माना बदलते जा रहा है ... इससे अच्छा चित्रण और क्या हो सकता है ... लाजवाब !

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  13. बहुत खूब बहुत अच्छा लेख।

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  14. बेनामी11/21/2010 10:44:00 pm

    वाह समीर जी गहन चिंतन किया है....
    दिल बाग़-बाग़ हो गया पढ़ कर...
    मेरे ब्लॉग पर देखें देश के सच्चे सपूत को...

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  15. माथे की बिंदिया से बर्तन मांजने तक की कथा बड़ी रोचक थी. हमने भी उस काल में झांक लिया. वैसे बिंदिया अब भी उन्हीं जगहों पर पायी जाती है.

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  16. उपयोगी व स्मृतियों को ताजा करती शानदार पोस्ट।

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  17. अभी कहाँ हैं ? बनारस कब आएंगे ? क्या प्रोग्राम है?
    ..सादर।

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  18. लगता है घर पहुँच कर आप पुरानी यादों में खो गए हैं ,अपने साथ साथ आपने हम सबको भी अपने बीते समय में पहुंचा दिया.
    आप छोटी छोटी बातों पर इतना कैसे लिख लेते हैं ?

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  19. आईने पर चिपकी बिंदी से बात शुरू कर राख से बर्तन मांजने तक की यात्रा में जहाँ हास्य है वहाँ गंभीर चिंतन भी ...हंसी हंसी में बहुत बड़ी बात कह दी है ...
    जिन्दगी के थपेड़ों से बचाने वालों की सदा से ही यही दुर्गति होती आई है चाहे वो फिर बूढ़े़ मां बाप ही क्यूँ न हो. ऐसे में इस चिमटी की क्या बिसात ----

    और सच ही आपके बताये औजारों का कोई मुकाबला नहीं ...अल्प बचत के लिए आज कल कुछ बचता ही कहाँ है ...

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  20. कान का मैल निकालने के लिए वास्‍तव में बालों की पिन से बढिया कोई औजार नहीं है। आपकी पोस्‍ट तो आज गजब ढा रही है। भारत में आते ही दिमाग भारतीय हो जाता है। आप भी यूज एण्‍ड थ्रो के जमाने में अल्‍प बचत की बात करने लगे?

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  21. अंतर बस इतना ही है कि आज अल्प बचत का सिद्धांत पढ़ाना होता है जो कि पहले आदत का हिस्सा होता था.

    अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.

    --------
    यह लेख आज की युवा पीढ़ी को जरूर पढ़ना चाहिए कि जब कमरा काम चिमटी से चलता हो तो फिर ४० रूपए की बड क्यों खरीदें...

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  22. सर्व प्रथम गृह नगर जबलपुर आगमन पर आपका हार्दिक अभिनन्दन है.
    पहले की अपेक्षा आज के समय में लोगों की सोच और विचारधाराओं में काफी अंतर आ गया है ... काफी विचारणीय आलेख ... बढ़िया सारगर्वित आलेख प्रस्तुति ... आभार

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  23. क्लिप से कान खुजाते हुए एक आंख बंद करने पर बनी आपकी मुद्रा के बारे में सोचकर ही अभिभूत हूं। टोपाज ब्‍लैड तो बहुत बाद में आया पहले तो भारत ही चलता था।

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  24. ab suhaag ki nishani ko koi dustbin mae faek jaaye achcha lagega kyaa

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  25. बहुत शानदार पोस्ट है. कान खुजलाने का मन कर रहा है अभी पिन ढूंढती हूँ. :)

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  26. अब कितना पीछे ले जाओगे .... और पीछे जाने पर बहुत कुछ याद आने लगता है जो दिल को टिकने नहीं देता पूरे दिन .....
    क्या बात है समीर भाई ...

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  27. बाथरुम का शीशा हो या ड्रेसिंग टेबल का, उस पर बिन्दी चिपकी जरुर दिख जाती है. क्या वजह हो सकती है? बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी. जाने आईने पर चिपका कर उसमें अपना चेहरा देखती हैं कि क्या करती हैं, मेरी समझ से परे रहा....

    समझना इतना आसान नहीं.

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  28. अच्छा लिखा है , मुसीबत जिसे कह रहे हैं आप ...वो अपने सुहाग की निशानी को भी डस्टबिन या नाली में नहीं डालती ...बेशक वो लगाती है उसे कि शायद दुबारा लगा सकूँ , मगर याद किसे रहता है ...खैर ये भरम भी अच्छा ही है वो बिंदी सा मुस्करा रहा है ..किसी शीशे पर या टंगा है दीवार पर ।

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  29. आम महिलाओं के विपरीत मुझे शीशे पर बिंदी चिपकाना बहुत बुरा लगता है ...जहाँ कही भी मुझे शीशे पर चिपकी बिंदी दिख जाती है मैं बुरी तरह चिढ जाती हूँ .....बिंदियों को उनके पैकेट पर भी तो चिपकाया जा सकता है ....पता नहीं क्यूँ करती हैं महिलाएं ऐसा ...
    पोस्ट खालिस भारतीय है ...यहाँ की आबोहवा का असर है ..!

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  30. एक छोटी सी चीज पर गहन बाते लिख देना आप के लेखन की खूबी है |

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  31. हा हा हा .समीर जी समझ में आ गया कि भारत में आपको १ हफ्ते से ज्यादा हो गया है :) बिंदिया ,चिमटी ...अब आगे आगे देखते हैं क्या क्या आता है :).
    मस्त पोस्ट है.

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  32. आपकी इन छोटी-छोटी यादों ने सभी पढ़ने वालों को अपनी कोई न कोई गुजरे जमाने की बात याद करा दी ....इतना प्रभावशाली लेखन जिसके लिये आपको बधाई के साथ शुभकामनायें ।

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  33. ` बिन्दी, वो माथे से उतरी और आईने पर चिपकी'

    चोर और महिला कुछ न कुछ निशानी छॊड ही जाते हैं :)

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  34. बेहतरीन प्रस्तुति ... पुराने ज़माने की हर चीज कि सही विशेषता बतलाई आपने. बिलकुल सही .

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  35. बहुत रोचक पोस्ट है समीरजी ! मेरे संकलन में आज भी ऐसी पुरातन वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में हैं जिनकी उपयोगिता की महिमा में आपने यह पोस्ट लिखी है ! हा हा हा ! बहुत दिनों के बाद आज आपके ब्लॉग पर आना हो पाया और वह निश्चित रूप से बहुत आनंदवर्धक रहा ! शुभकामनाएं एवं आभार !

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  36. बहुत खूब, चिमटी, बिंदिया और टूथब्रश -------- इन सबसे तो सभी का पाला पड़ता है. हम लोग टूथब्रश का इस्तेमाल मच्छरदानी टांगने में और बन्दूक की नाल साफ़ करने में किया करते थे और आज भी करते हैं.
    हमारे बाबा कहा भी करते थे "सकल चीज संग्रह करो, कौनौ दिन आवे काम."
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  37. एक बार फिर- सामान्‍य पर असामान्‍य प्रस्‍तुति । उम्मीद करता हूँ कि इसी कालखंड के थोडे और पीछे भोजन पकने हेतु लकडी-कोयले और स्टोव व लालटेन की रोशनी के लिये घासलेट के डिब्बे से खींचकर निकालने वाले झिब्बेदार पंप जैसे पूर्वोपयोगी औजारों पर भी आपकी लेखनी वर्तमान पाठकों का ज्ञानार्जन करेगी ।

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  38. ’कान खोदने एवं कुरेदने के लिए उससे मुफ़ीद औजार मुझे आज तक दुनिया में कोई नजर नहीं आया. चाहें लाख ईयर बड से सफाई कर लो, मगर एक आँख बंद कर कान कुरेदने का जो नैसर्गिक आनन्द उस चिमटी से है वो इन ईयर बडस में कहाँ?’
    हा हा हा
    आगे पढ़्ते हैं एक ब्रेक के बाद

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  39. लेख पढ़ते पढ़ते बहुत सारी पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं ! आज हम आधुनिकता की चकाचौध में चीजों को ही नहीं बल्कि इंसानियत को भी बहुत पीछे छोड़ चुके हैं!
    इस सार्थक लेख के लिए धन्यवाद !
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  40. बहुत कुछ बदल चुका है. अब क्या हो सकता है. हाँ आपने पुरानी बातों को अच्छे से बुना है. अच्छा लगा.

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  41. बहुत सही. लेकिन एक बिंदी वाली फोटू भी होती तो इस खुबसूरत पोस्ट पर एक बिंदी की तरह हो जाती :)

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  42. हंसने हँसाने से शुरू कर गंभीर मोड़ पर लाकर बात को समेट दिया आपने...

    वैसे सच कहूँ तो मुझे भी यह अक्सर लगता है,डस्टबीन में चाहे जो भी पुराना बेकाम फेंक दें,पर अधिकांशतः ही हम महिलायें बिंदी चूड़ी कभी नहीं फेंक पाते....

    शायद आज जो कुछ पुराना सहेजा हुआ बचा हुआ है,वह भी हम महिलायें ही मोहवश बचाए हुए हैं..नहीं ???? क्योंकि फटे पुराने बेकार सी लगने वाले चीजों में भी भविष्य की उपयोगिता संभावित कर उसे सहेज लेने की प्रवृत्ति महिलाओं में कुछ अधिक ही होती है..

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  43. बहुत शानदार पोस्ट है ।

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  44. समीर बाबू! एक पोस्ट में सारी यादों को समेट लिया! अम्मा से लेकर “ए जी” तक की बातें.अपने घर के शीशे पर चिपकी बिंदियों को देखकर मैंने भी यही सवाल किया था अपनी बेस्ट हाफ़ से... और उनका जवाब था कि बिंदी शिल्पा की हो या डिज़ायनर ब्राण्ड की होती सुहाग की निशानी है. और सुहाग की निशानी को कोई ट्रैश बास्केट में नहीं फेंकता.. ऐसा कहकर उन्होंने अपनी बिंदी आईने पर चिपकाई और “सजन बिंदिया ले लेगी तेरी निंदिया” गाती हुई कमरे से बाहर हो गईं.

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  45. जब सब कुछ ही बदल रहा है तो नये ज़माने की चीज़ों की ही आदत डाली जाये तो बेह्तर है. हां 'गुलाबी खुजली" पसन्द आया.

    अब तो पुराने ज़माने का सब कुछ बिसरता जाता लगता है.

    मेरी एक गज़ल का शेर यूं है:

    सर से गायब हुई चूनरी ओढ़नी
    और दुपट्टे भी दिखते नहीं आजकल


    आपके कनाडा में तो खैर दिखेगें भी क्यों ?

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  46. बिन्दी तो बिन्दी है . आजकल तो विधवाये भी काली बिन्दी लगाती है

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  47. .
    .
    .
    सर जी,

    यह आइने पर चिपकी बिंदी कभी कभी बहुत बुरा फंसाती भी है ;)

    चिमटी तो अपने यहाँ अब भी इस्तेमाल होती है... और हम तो एक आँख बंद कर कान कुरेदने का नैसर्गिक आनन्द अब भी उठाते हैं... वैसे यह आनन्द चश्मे की कमानी से भी उतना ही आता है ।

    "अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है"

    सत्य वचन सर जी... पर हम नहीं सुधरेंगे... ;)

    ...

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  48. अगली बार फोटू जरूर उतरवा लीजियेगा ............:) भाई फसबूक के जरिये ब्लॉग पढ़ने में आसानी हो गईल बा.......

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  49. यह सब भी हमारी समृद्ध भारतीय परम्परा के अंग हैं। रोचक आलेख के लिए धन्यवाद।

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  50. बड़ी पुरानी याद दिला दी ! शुभकामनायें

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  51. Hi sameer darling..where r u? u didnt come to Bhatia darling's Rohtak Blogger Meet? Tell me why darling. love u darling..n take care.

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  52. अच्छी तुलना की है आपने...सर

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  53. हमें नहीं पता था कि हमारे घर के सिवा और घरों के लोग भी चिमटी से कान खुजलाते हैं.आज पता लगा!

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  54. आइने पर चिपकी हुई बिन्दियों के बहाने किन किन गलियों में घुमा लाये आप भी.... बहुत सुन्दर्पोस्ट. ( वैसे आइने पर बिन्दी चिपका देने की आदत तो मेरी भी है) :)

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  55. समझ नहीं आता कि कहीं मैं आपकी पीढ़ी का तो नहीं जिसे भगवान् ने पैकिंग करने में देर कर दी और इस पीढ़ी में ला पटक दिया है. हर उस चीज जिसे आपने गुजरे जमाने का बताया है उससे अपनापन महसूस होता है. हाँ हमारे यहाँ, पैजामे का नाड़ा लगाने के लिए माँ safety pin का इस्तेमाल करती है.

    <a href="http://draashu.blogspot.com/2010/11/blog-post_22.html>कल्पनाओं से परे एक परिवार की उड़ान!</a>

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  56. कमाल... बिंदी चिमटी को लेकर एक मितव्ययता का सुंदर दर्शन :)

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  57. सत्य वचन, चिमटी से कान खुजाने का मज़ा ही कुछ और है.... लड़कियां लगायें या ना लगायें... दूकान में तो यह आज भी मिलती हैं... चाहें तो कान खुजाने के लिए खरीद सकतें हैं... :-)

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  58. हम तो इस थ्योरी में विश्वास रखते हैं -- कि
    किसी चीज़ का तब तक उपयोग करना चाहिए जब तक वह बिल्कुल ही अनुपयोगी न हो जाए।
    हमारा घर .. लोग कहते हैं कबाड़ और कचरों से भरा है, ... हम कहते हैं हमने बहुत उपयोगी चीज़ें इकट्ठी कर रखी है।

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  59. इस बिंदी ने तो कई बार आफिस में मजाक भी उड़वाया है ।

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  60. बहुत बढ़िया ..बहुत कुछ याद आ जाता है अक्सर आपका लिखा पढ़ कर ....

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  61. बहुत सुन्दर..........मजा आ गया

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  62. बहुत minute observation ने आपकी रचना में जान फूँक दी है |बहुत बहुत उत्तम रचना |आपने तो हमें अपने काल में पहुंचा दिया |बधाई
    आशा

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  63. बेनामी11/23/2010 03:36:00 am

    Bhsiya ji

    Tooth brush wala jikar to bindiya se bhi behtar hai, fir use side hero wala treatment kyon?

    Debasish

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  64. बिंदिया के माध्यम से कितना कुछ याद दिला दिया। कुछ भी बदल जाये लेकिन बिन्दी कभी आईने के सामने से नही हटेगी। शुभकामनायें।

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  65. समीर जी,
    क्यों सिर्फ महिलाओं के प्रसाधनों पर आपकी नजर गयी. अगर हम खोजने निकलें तो आप लोग भी कुछ न कुछ छोड़ ही आते होंगे. अरे आपने को शीशे में लगी बिंदी के आगे खुद को भी सजा कर देख लिया. आशा है बहुत सुंदर लग रहे होंगे. चिमटी पुराण तो एकदम सही है. जो अनुभव आपने लिखा है न वही अनुभव करीब करीब सभी का है.
    वैसे इसी को कहते हैं कलम का कमाल कि जिस पर नजर डाल दी उसको सजा संवार कर खूबसूरत बना दिया और देखने वाले पढ़ने वाले वाह वाह करने लगे.

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  66. सुन्दर - चर्चा..और अनुभव .. उस पड़े सामान पर भी आपके विचार उपज गये.. एक लेखक का दिल ही ऐसा बोलता है.. उम्दा..

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  67. मेरी मम्मी तो इस लिए उसे चिपका देती है क्योंकि वो लेकर बहुत भावुक है और सुहाग की निशानी को कचरे में नहीं फेंक सकती है। दूसरी बात कि ब्रश की उपयोगिता आज भी कंघे साफ करने में बहुत ज़्यादा है।

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  68. राम राम समीर जी यह क्या इंडिया की यात्रा का तजुर्बा है. बिंदियों के साथ अच्छा तजुर्बा रहा. वैसे जितना मेरा ज्ञान है की बिंदिया मैं गोंद या चिपकने वाला कोई पदार्थ होता है, जब उसको निकालो तो ऊँगली मैं बिंदिया चिपक जाया करती है. उसको फेंके की जगह चिपका देना अधिक आसान हुआ करता है. वैसे तो इस बिंदिया और आईने के रिश्ते बड़े गहरे हैं और इसमें बड़े राज़ छुपे हैं. .

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  69. सच कितना कुछ यद् दिला गई आपकी यह पोस्ट |एक चीज के कितने उपयोग कर ते रहे है हम लोग |आज ही सुबह मै सोच रही थी |कितना पानी बहाते है
    हम |जब छोटे थे छोटे शहरों में रहते थे तो कुए से पानी भरना होता था जितना पानी लगता उतना ही खींचते और बड़ी मितव्ययिता से खर्चते थे |राख से सूखे
    बर्तन मांजते ताकि पानी ज्यादा न लगे |सिल बट्टे पर उअतनी चटनी पिसते एक बार में सारा परिवार खा ले |अब कटोरे भर भर कर चटनी पिसते है मिक्सर में एक दिन खाई एक हफ्ते फ्रिज में रखकर फेंक दी |
    बहुत अच्छी लगी पोस्ट |

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  70. बदलते समय और बदलती जरूरतों के चलते हमारी सोच भी बदलने लगती है और उसका ही परिणाम है कि हम कुछ चीजें भुला देते हैं और कुछ नई चीजें अपनाना शूरो कर देते हैं , मगर हम आपको न ही भुलायेंगे और न ही बदलेंगे. हाँ आप बस ऐसे ही लिखते रहिये और अपने लेखन के नयेपन से हमें अभिभूत करते रहिये.
    - विजय तिवारी 'किसलय '

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  71. याद तो गुरुदेव आपने बहुत कुछ कर लिया। पर गुरुदेव ये सुख अमेरिका में आपके लिए दुर्लभ हो गए होंगे, पर भारत में अब भी आधे सुख प्रचुरता में उपल्बध हैं। जिस देश में 80 फीसदी आज भी भारत में रहते हैं, वहां से कैसे बालों कि क्लिप गायब हो सकती है। जब वो गायब नहीं हो सकती, तो कान को खुजाने का नैसर्गिंक आनंद कैसे नहीं मिलेगा। जिसकी राजधानी में आज भी बिंदिया के पते बनाकर अतिरिक्त आमदनी करके घर की गाड़ी खींचने का काम होता हो वहां से कैसे बिंदी गायब हो सकती है। टोपाज ब्लेड का आना आज भी बरकरार है। सख्त दाढ़ी वालों के लिए आज भी वो चौतरफा न सही दो तरफा से तो चार-पांच दाढ़ी बनाने के काम आ ही रहा है। हां, राख औऱ नारियल के रेश राजधानी और बड़े शहरों से गायब हो चुके हैं, या गायब होने के कगार पर हैं। वैसे तो अब धोने का झंझट भी तो नहीं रहा कई घरों में। खाना बनाया, पोंछा औऱ रख दिया बर्तन। नान-स्टिक का जमाना है। वहीं अब पायजाम खुद ही गायब होता जा रहा है, तो टूथपेस्ट का इस्तेमाल कहां से लोग सीखेंगे। हां हम जैसे कुछ लोग यदाकदा उसका इस्तेमाल कर ही लेते हैं। हम तो इतने इंटेलिजेंट हैं कि टूथपेस्ट से नाड़ा डालने के साथ-साथ पैन से भी नाड़ा डाल लिया करते थे। पुरानी चीजें ठीक बुजुर्गों की तरह गायब होती जा रही हैं, ये आपने सही कहा।

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  72. बहुत दिनों के बाद आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा! बहुत ही बढ़िया पोस्ट लगाया है आपने! बड़े ही सुन्दरता से आपने प्रस्तुत किया है! उम्दा पोस्ट!

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  73. भला हो हम भारतीय नारियों का, बिना बिन्दी चिपका शीशा कितना सूना लगता है .हाँ पलंग के सिरहाने को भी देखिये वहां भी दिख जायेगी यह बिन्दी . राख से मंजे बर्तन की चमक अलग ही होती है .और अब तो लोहे के बर्तन कहां ,न ही कांस के . बहुत अच्छी पोस्ट !

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  74. Parul ने आपकी पोस्ट " तेरी बिंदिया रे!!! " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    teri bindiya re...mujhe to abhimaan ka sadabahar geet yaad aa gaya :)

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  75. teri bindiya re...mujhe to abhimaan ka sadabahar geet yaad aa gaya :)

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  76. क्या बात है...
    रोज़मर्रा की बातों और सामानों को बहुत खूब याद किया आपने..
    पर आज भी काफी चीज़ें जीवित हैं... कम से कम भारत में तो नज़र आ ही जाएँगे ये सब जगह-जगह...

    अच्छा लगा.. पुरानी बातों को पढ़ कर...

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  77. पुराने दिन याद आ गये वाह क्या बा है...शुक्रिया
    चन्दर मेहेर्
    इंग्लिश की क्लास

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  78. भूली बिसरी तस्वीरों के सजीव जीवंत चित्रण से सजा संवरा, रोचक आलेख. खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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  79. याने कि छोटी से छोटी चीज भी आपकी पैनी निगाह से बच नहीं सकती और ब्लॉग पर आ ही जाती हैं. रोचक आलेख . दिलचस्प प्रस्तुति . बधाई .

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  80. पति ने कहा- करूा हो गया इस ब्‍लेड को, ठीक नहीं चल रहा है. पत्‍नी ने कहा- तुम्‍हारे हाथ में आते ही चीजें ऐसी हो जाती है, मैंने अभी उसीसे मुन्‍ने की पेंसिल बनाई, एकदम ठीक चल रही थी.

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  81. जैसे एक महिला का चेहरा बिंदी के बिना अधूरा है, उसी तरह आपकी दिल को छू लेने वाली कहानियो के बिना बलागस अधूरे है

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  82. समीर जी आपने तो बचपन की याद दिला दी. हम मगर उससे भी ज्यादा शैतान थे, नागराज, सुपर कमांडो ध्रुव, डोगा इन सबमे स्टिकर मिलते थे, उनको अलमारी, फ्रिज, आइना सबके कोने में चिपका बड़ा खुश होते थे कि घर सुन्दर लग रहा है.

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  83. आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम...गुज़रा ज़माना बचपन का...हाय रे अकेले छोड़ के जाना और ना आना बचपन का...

    समीर जी एक एक चीज़ जो आपने गिनाई कभी भूली ही नहीं हमेशा ज़ेहन में रहती है...हम लोगों ने अपने जीवन में इतने बदलाव देखें हैं जो हमारे पूर्वजों ने सात जन्मों में भी नहीं देखे होंगे...:-)

    नीरज

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  84. अल्प बचत मात्र थोड़े थोड़े पैसे जमा करने का नाम नहीं बल्कि छोटे छोटे खर्चे बचाने का नाम भी है.
    बहुत खूब ...

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  85. ADBHUT, MAJEDAR BAS MAJA AA GAYA
    BARIK AUR PAINI NAZAR.

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  86. lovely. a bindi stuck to the mirror and a hairpin in the drawer brought out a classic piece of humour from u. we ought to be thankful to bindis and chimtis :)

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