बुधवार, फ़रवरी 24, 2010

ऑपरेशन कनखजूरा

बड़े आदमी की पूछ है, छोटे को कौन पूछे. -यही चलन है.

पी एम साहब का घुटना मायने रखता है क्षण क्षण की रिपोर्ट मीडिया दिखाता है. अमरीका से डॉक्टर आता है. आज आराम मिला, आज घुटना बदला, कल से काम पर लौटेंगे, हर बात की रिपोर्ट जारी होती है और एक आम आदमी भूख से तड़प कर मर जाये, तो कोई सुनवाई नहीं.

राज्य सभा की सदस्यता छोड़ने के लिए किड़नी वापस मांगी जाती है लेकिन उन मांगों का सिन्दुर और उन बच्चों का बाप कौन लौटायेगा, जिनसे बैंक ऋण वापस माँगता है और किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है.

बड़े आदमी की छींक बीमारी और छोटे आम आदमी की छींक, मौसम का असर और बदतमीजी कि नाक पर हाथ रख कर नहीं छींकता.

हद है, एक मंत्री की लड़की कश्मीर में अगुआ हो जाये तो आतंकवादी छोड़ दिये जाते हैं और एक गरीब की बिटिया की इज्जत लूट कर मार दिया जाये, तो अखबार की खबर भी नहीं बनती.

आश्चर्य होता है. नेता जी दो दिन से दिखे नहीं तो हल्ला मचा है कि नेता जी लापता, वो भी ऐसे नेता जिनके चलते जाने कितने हमेशा के लिए लापता हो गये जिनका आजतक पता नहीं चला.

अरे, गायब हो जाने दो..काश, पूरे ५४२ लापता हो जायें एक बार में तो कुछ राहत हो १२० करोड को. लेकिन बड़ों को कैसे लापता होने दें.

पूरा मीडिया और देश परेशान है कि नेता जी मिल नहीं रहे, जाने कहाँ गये. काश, इसका आधा भी उन्हीं नेताओं के ईमान गायब होने पर परेशान हुए होते तो आज देश के हालात कुछ और होते.

जो बड़ा, उसका बोलबाला,
छोटे का मूँह काला.

कई बार सोचता हूँ कि टाइगर बचाओ अभियान भी वैसा ही तो नहीं. मात्र १४११ बचे हैं. कौन जाने कितने बचे हैं, यहाँ तो एक दिख जाये तो गिनती भूल जायें फिर १४११ गिनना, वो तो शूरवीर ही होगा जो गिन पाये.

१४११ का इतना हल्ला मचा है, इतना प्रोपोगांडा कि २६११ फीका पड़ गया.

छोटू को भी तो बचाओ. मात्र १२४३ बचे हैं यह कनखजूरे. लेकिन इनको पूछे कौन?

आप सोच रहे होगे कि मुझे कैसे पता कि १२४३ कनखजूरे बचे हैं, कैसे माने? हमने तो गिना नहीं, आपके कहने पर मान जायें?

मैं आपसे पूछ लेता हूँ कि बाघ गिने हैं क्या, फिर कैसे मान गये?

कनखजूरे की क्यूँ चिन्ता करें, इनसे क्या फायदा तो जरा बताना बाघ बचा कर करोगे क्या? खेत में हल जुतवाओगे कि नेता जी की तलाश में भेजोगे??

जो बचाना है उस पर ध्यान नहीं जाता. स्विस बैंक से पैसा आने का सब मूँह बाये इन्तजार कर रहे हैं, जाने पर कोई रोक टोक नहीं. पहले वो छेद तो बंद करो जो अपनी तरफ है याने की जाने वाला, फिर जो जा चुका है, उसके आने का इन्तजार करना वरना तो स्विस बैंक के बदले कहीं और जाने लगेगा और सब बस खुशियाँ मनाते नजर आयेंगे कि स्विस बैंक से वापस आ गया.

ज्यादा जरुरी काम पहले करना होगा. पहले जंगल तो बचाओ वरना यह बाघ क्या कोई मगरमच्छ है जो बिना पानी के भी संसद में आकर बैठा झूटमूठ के मुद्दों पर आँसू बहाता रहेगा. जब जंगल ही नहीं बचेंगे तो बाध कैसा?

बीच शहर में चार पेड़ लगाकर फोटो खिंचवा कर अखबार में छपवा लेते हो, उसमें से एक उगता है और दूसरी तरफ, जंगल काट काट कर कांक्रिट का जंगल बनाये चले जा रहे हो, तब बाघ बच भी जायें तो रहे कहाँ? इंसानो और बाघ में यही तो अंतर है कि बिना रहने और खाने की चिंता किये बाघ बच्चे पैदा नहीं करता.

kankhajura

दुनिया का क्या हाल हुआ है
जंगल था जो मॉल हुआ है
बिजली पानी को रोते है
हाल यहाँ बेहाल हुआ है.
पहले तुम इन्सान बचाओ
बाघ हमारे खुद बच लेंगे
तुम तो हिन्दुस्तान बचाओ.

तूने कैसा काम किया है
संसद को बदनाम किया है
अरे अरे ओ अरे अभागे
माता को नीलाम किया है
लुटता हुआ ईमान बचाओ
बाघ हमारे खुद बच लेंगे
तुम तो हिन्दुस्तान बचाओ.

मँहगाई पर रोक नहीं है
भ्रष्टाचार पर टोक नहीं है
मजहब में तुम फूट डालते
बिन उसके कोई वोट नहीं है.
मरता हुआ किसान बचाओ
बाघ हमारे खुद बच लेंगे
तुम तो हिन्दुस्तान बचाओ.

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, फ़रवरी 21, 2010

आओ!! तुम्हें सम्मान दिला दूँ!!

अरे साहब, आज की इस भागती दौड़ती जिन्दगी में सुकून कहाँ? समय ही नहीं मिल पाता.

आजकल यह जुमला बड़ा आम हो गया है और सभी को अपनी नाकामियों और गल्तियों को छुपाने में साहयक सिद्ध हो रहा है.

मैं समझ नहीं पाता कि फिर इतनी भागती दौड़ती जिन्दगी में इन्सान लड़ने झगड़ने को समय कैसे निकाल लेता है, क्या यह इसी असुकून का परिणाम है कि झुंझलाये आये और जो सामने पड़ा, उस पर बरस पड़े.

ब्लॉगजगत भला इससे कैसे अछूता रहे, जब वही लोग यहाँ भी बस रहे हैं. सहिष्णुता और सहनशक्ति तो मानो दुर्लभ वस्तु हो गई है.

किसी ने पोस्ट लिखी, किसी ने टिप्पणी और निकल आई नई पोस्ट कि ऐसी क्यूँ टिप्पणी की. ऐसा नहीं कि आपने उनको टिप्पणी की लेकिन भागते दौड़ते उनको चिपक गई, तो उन्होंने ने पोस्ट तान दी. अब आप उनको सफाई दिजिये तो तीसरे उस पर लिखेंगे. पूरा चेन रियेक्शन है.

इस ब्लॉगजगत में बम फोड़ना बहुत सरल हो गया है. और कुछ नहीं मिले तो हिन्दु मुसलमान पर लिख दो, मोदी पर लिख दो, ठाकरे पर लिख दो, शाहरुख पर लिख दो. बस, फिर देखो धमाका.

चलो, इन के कारण धमाका तो फिर भी समझ आता है कि ब्लॉगजगत के नहीं है. जरा, किसी को सम्मानित घोषित कर दो, किसी को इनाम दे दो, बस, धम्म!!

ये भी कोई बात हुई. ब्लॉगर की हालत जानते हुए भी, जरा सा सम्मानित नहीं होने देते. कितनी तकलीफों से ब्लॉगर गुजरता है और कोई इस दुखी आत्मा को सम्मानित करे तो बाकी जल भुन जाते हैं कि हम कैसे रह गये.

क्या कहा जाये इन हालातों का. हमारा तो किसी को सम्मानित करने का मन कर रहा है, चाहे वो कोई सा भी ब्लॉगर हो. देखिये:

computer-addict

 

आओ तुम्हें इक नाम दिला दूँ
ब्लॉगिंग का सम्मान दिला दूँ.

जगते हो तुम बड़े सबेरे
सन्नाटे जब जग को घेरे
कुर्सी से तुम चिपक गये हो
कम्प्यूटर पर आँख तरेरे.

इसका कुछ इनाम दिला दूँ
आओ तुम्हें इक नाम दिला दूँ
ब्लॉगिंग का सम्मान दिला दूँ.

बीबी जब सोकर उठती है
तेरी हालत पर कुढ़ती है
ब्लॉगिंग की लत देख सोचती
इससे बेहतर तो सुरती है.

आज तुम्हें इक जाम पिला दूँ
आओ तुम्हें इक नाम दिला दूँ
ब्लॉगिंग का सम्मान दिला दूँ.

चाय चाय रटते जाते हो
कुर्सी में धंसते जाते हो
कोई काम नहीं करते हो
जाने क्यूँ हँसते जाते हो.

चलो तुम्हें कुछ काम दिला दूँ
आओ तुम्हें इक नाम दिला दूँ
ब्लॉगिंग का सम्मान दिला दूँ.

बच्चों से अब बात न होती
रिश्तों में मुलाकात न होती
सोने भी तुम कभी न जाते
गर कमर दर्द से मात न होती.

आह! दर्द निवारक बाम दिला दूँ
आओ तुम्हें इक नाम दिला दूँ
ब्लॉगिंग का सम्मान दिला दूँ.

सुबह शाम तुम खूब लिखे हो
टिप्पणी में हर ओर दिखे हो
ब्लॉगिंग से क्या हासिल होगा
जाने क्या तुम सोच टिके हो.

चल खुशियों की शाम दिला दूँ
आओ तुम्हें इक नाम दिला दूँ
ब्लॉगिंग का सम्मान दिला दूँ.

बात बात पर अकड़ रहे हो
इससे उससे झगड़ रहे हो
टिप्पणी उसकी पोस्ट तुम्हारी
नाहक मुद्दे पकड़ रहे हो.

चल इससे आराम दिला दूँ
आओ तुम्हें इक नाम दिला दूँ
ब्लॉगिंग का सम्मान दिला दूँ.

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, फ़रवरी 17, 2010

सहेजने का महत्व: विल्स कार्ड भाग ९

पहले की तरह ही, पिछले दिनों विल्स कार्ड भाग १ , भाग २ , भाग ३ ,भाग ४ , भाग ५ भाग भाग और भाग को सभी पाठकों का बहुत स्नेह मिला और बहुतों की फरमाईश पर यह श्रृंख्ला आगे बढ़ा रहा हूँ.

(जिन्होंने पिछले भाग न पढ़े हों उनके लिए: याद है मुझे सालों पहले, जब मैं बम्बई में रहा करता था, तब मैं विल्स नेवीकट सिगरेट पीता था. जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता......)

भाव कब किस वक्त किस रुप में आयेंगे, कोई नहीं जानता. बस, एक कवि या लेखक उन्हें शब्द रुप दे देता है और बाकी लोग उसे वैसे ही भूल जाते हैं, जैसे वो आते हैं.

कभी कोई घटना, कोई दृष्य, कोई मौसम, कुछ भी एक नये भाव को जन्म देता है. कभी उन्हें विल्स कार्ड पर उतार लिया करता था, फिर माँ के जाने के साथ सिगरेट छूटी तो किसी भी कागज के टुकड़े पर उतारने लगा. जब कभी भी चूका, वो विचार कभी लौट कर नहीं आता. उन्हें सहेजना होता है.

वैसे ही जैसे जीवन में रिश्तों को प्रगाढ़ करने के मौकों के महत्व को, सफलता के मौकों को, सहेजना होता है..बस, जरा चूके और वो फिर नहीं लौटते. बच रहता है एक खोया खोया अहसास और कुछ चूक जाने का अपराध बोध.

सोचता हूँ कितना साम्य है मन में उठते भावों और इनमें. जीवन में सहेजने का कितना महत्व है. शायद सफल जीवन की यही कुँजी है.

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जिन भावों को सहेजा, वो आज मेरी धरोहर हैं. खंगालता हूँ उन्हें और लौट पड़ता हूँ उस वक्त में. कभी एक मुस्कराहट उठती तो कभी आँसू. जो भी हो, एक सुखद अहसास देती हैं. बस, उन्हीं में कुछ:

-१-

कल रात

चाँद ने शरारत से

मुझे ताका...

और

मेरी उस लाल डायरी में

आ छिपा

बिल्कुल

तुम्हारी तरह...

फिर रात अँधेरी गुजरी.

-२-

रात काली

मावस की,

मुझे

कोई फर्क नहीं पड़ता...

तुम्हारे बाद

अब कोई

तलाश बाकी नहीं!!

-३-

पाई है किताबों से

तालीम

चलाने की नौकरी...

और

बाहर उसके

सीख रहा हूँ रोज

कुछ नया

हर कदम

एक नई तालीम

जीवन से

जीवन चलाने की...

आधा अधूरा

यह पाठ

कब पूरा होगा??

-४-

याद है तुमको

जब बरसों पहले

सार्दियों में तुम मुझको

चली गई थी छोड़ कर

उस बरस

गिर गया था

आँगन वाला

आम का पेड़

और

बच रहा था

एक ठूंठ!!

देखता हूँ

इतने बरसों बाद

अबकी

उसमें कुछ हरी हरी पत्तियाँ निकल आई हैं..

क्या तुम आने को हो?

-५-

पत्थर से पानी निकालने
की
जुगत में
उसने छैनी जमा
जैसे ही हथौड़ा चलाया
नौसिखाया था
पानी तो नहीं निकला..
अपने हाथ पर उसने
एक गहरा जख़्म पाया...

-६-

कड़े परिश्रम के बाद मिली
चिलचिलाती धूप में
माथे से बहती पसीने की धार..

कर्मों के प्रतिफल की आशा में
शुष्क कंठ के लिए
खारे पानी की बौछार...

-७- (बरसों बाद किसी कागज के टुकड़े पर उतरा)

चंद सीढ़ियाँ नीचे उतर कर

मेरे घर के तहखाने में

एक पुराना

सितार रहता है..

गूंगा है,

कुछ बोलता नहीं.

माँ जिन्दा थी

तब बजाया करती थी...

अब घर में

कोई सुर नहीं सजते!!

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, फ़रवरी 14, 2010

शाही स्नान: मुक्ति घाट पर

शायद इन्सानी फितरत है. हर इन्सान मुक्ति चाहता है. हर इन्सान शांति चाहता है और इसी तलाश में और अधिक उलझता चला जाता है.

क्या हमें सही मार्ग ज्ञात नहीं? हो सकता है कि सही मार्गदर्शक न मिल पाता हो.

अव्वल तो हम ठीक ठीक परिभाषित ही नहीं कर पाते कि हम चाहते क्या हैं. हमारे लिए मुक्ति के मायने क्या हैं? ऐसा क्या मिल जाये कि सिर्फ शान्ति ही शान्ति हो?

खुद से प्रश्न करता हूँ. कभी किताबों में खोजता हूँ तो फिर कभी बौराया हुआ विकल्प के आभाव में टी वी खोल कर बैठ जाता हूँ.

महाकुम्भ के समाचार आ रहे हैं. हरिद्वार का मुक्ति घाट हॉट स्पॉट बना है. रिपोर्टर्स सब कैमरा और माईक थामे खड़े हैं. पुलिस प्रशासन मुस्तैद है. महाशिवरात्रि है. श्रृद्धालुओं से घाट खाली कराया जा रहा है, पूरा घाट सफाईकर्मियों ने पाट लिया है. सफाई पूरी हो तो सन्यासी आयें और प्रारंभ हो शाही स्नान, अखाड़ा दर अखाड़ा.

कुछ विचार उद्वेलित करते हैं:

kumbmela

मन करता है
वस्त्र उतार फेंकूँ..
मल लूँ
पूरे तन में
भभूत

चुरा कर नजरें
अपने कर्तव्य से
जा बैठूँ
अपनी
नकारी हुई
जिम्मेदारियों की
शिला पर..
मूँद लूँ
आँखें
और
पूजा जाऊँ!!

अखाड़ों मे
तलाशूँ
अनन्त शांति को!

सर्वस्व त्याग कर
शिवरात्रि को
हरिद्वार में
शाही स्नान!!

क्या यह
विडंबना है
या
कायरता?

क्या यही है
मुक्ति का मार्ग
और
शांति का तलाश?

बस! सोचता हूँ मैं!

-समीर लाल ’समीर’

नोट: महाशिवरात्रि अर्थात १२ फरवरी, २०१० को रची गई!

बुधवार, फ़रवरी 10, 2010

एक कहानी: एक कविता

जाने किस आहट से नींद खुल जाती है.कोई थकान नहीं, शायद नींद पूरी हो गई. खिड़की के बाहर झांकता हूँ. सफेद रात. जहाँ तक नजर जाती है, बरफ ही बरफ और रुई के फाहे की तरह गिरती लहराती बरफ अभी भी थमी नहीं है.

घड़ी पर नजर डालता हूँ. ३ बज कर १० मिनट. अब फिर से सोने की कोशिश करना याने सुबह ५ बजे शुरु होने वाली दिनचर्या बिगाड़ना. रसोई में जा कर एक कप गर्म काली कॉफी बना लाता हूँ और फिर सामने कम्प्यूटर. ऐसे ही शुरु होती है अधिकतर दिनचर्या.

कुछ यहाँ वहाँ की खबरें. आँख लगने से आँख खुलने के बीच बदली दुनिया की ताजा तरीन जानकारी. कोई खास नहीं. शायद लोगों के मरने जीने, कुछ बलात्कार, कुछ घोटाले, कुछ मजबूर किसानों की आत्महत्या सभी तो इस दौर में कुछ खास नहीं के दायरे में आ ठहरी हैं. जाने क्यूँ पढ़ता हूँ यह खबरें. क्या देखना चाहता हूँ जिस दिन कह सकूँ कि हाँ, कुछ कुछ खास समाचार है. कुछ भी तो समाचारों के नाम पर अब विचलित नहीं करता.

कभी सोचता हूँ कि क्या मेरी संवेदनाएँ मर गई हैं लेकिन फिर नजर पड़ती है कुछ कहानियों पर, कुछ आलेखों पर जो भीतर तक झकझोर जाते हैं तो एक विश्वास जागता है कि नहीं, अभी जिन्दा हूँ मैं और साथ जिन्दा है मेरी संवेदनाएँ.

snowing

ऐसे जी विचारों के उतार चढ़ाव में नजर पड़ती है उद्धव जी पर छपी कहानी ’आरती’ पर. सधी हुई शुरुवात बाँध लेती है. छोटी सी कथा और गहराई इतनी कि डूबा ले गई दो जन्मों की सोच में. कहानी वो जो सोचने को मजबूर करे और कुछ नये भावों को जन्म दे. बस, बह निकले चन्द शब्द एक रुप ले:

एक अमर प्रेम,
एक रुढ़ीवादी समाज,
एक संस्कार
माँ बाप
का सम्मान,
धन लोलुपता,
मान्यतायें,
समर्पण..
त्याग.

एक समझौता
एक इन्तजार
एक विश्वास,
एक आस्था
पुनर्जन्म की,
एक अव्यक्त वादा,
एक निर्वहन,
एक तपस्या.

एक अहसासने वाला
धड़कता दिल,
एक संवेदना,
एक कलम
शब्दों की
बेजोड़ ताकत,
संप्रेषण,
एक लेखक
कशमकश,
श्रृद्धा.

एक पाठक
नम आँखें
आवाक,
स्तब्द्ध चेहरा
और
सन्न मानसिक हालात!!

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, फ़रवरी 07, 2010

बिजली रानी, बड़ी सयानी

 

अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका “हिन्दी चेतना” , हिन्दी प्रचारणी सभा कनाडा की त्रेमासिक पत्रिका है. साहित्य जगत में अग्रणी स्थान रखने वाली इस पत्रिका के संरक्षक एवं प्रमुख सम्पादक श्री श्याम त्रिपाठी, कनाडा एवं सम्पादक डॉ सुधा ओम ढींगरा, अमेरीका हैं. हाल ही में इसका जनवरी, २०१० अंक प्रकाशित हुआ जिसकी पी डी एफ कॉपी आप हिन्दी चेतना के ब्लॉग  एवं विभोम एन्टरप्राइज की वेब साईट से डाउन लोड कर सकते हैं. इस अंक में मेरी व्यंग्य रचना ’बिजली रानी, बड़ी सयानी’ प्रकाशित हुई है.

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समाचार पढ़ा:

"मेसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने प्रयोग कर दिखा दिया है कि अब बिजली के तार की जरूरत नहीं पडेगी। उन्होंने बिना तार के बिजली को एक स्थान से दूसरे स्थान पहूँचा कर दिखा दिया. वैज्ञानिकों ने बताया है कि यह रिजोनेंस नामक सिद्धांत के कारण हुआ है।"

यह खबर जहां एक तरफ खुशी देती है तो दूसरी तरफ न जाने कैसे कैसे प्रश्न खड़े कर देती है दिमाग में. अमरीका में तो चलो, मान लिया.

मगर भारत में?

एक मात्र आशा की किरण, वो भी जाती रहेगी. अरे, बिजली का तार दिखता है तो आशा बंधी रहती है कि आज नहीं तो कल, भले ही घंटे भर के लिए, बिजली आ ही जायेगी. आशा पर तो आसमान टिका है, वो आशा भी जाती रहेगी.

सड़कें विधवा की मांग की तरह कितनी सूनी दिखेंगी. न बिजली के उलझे तार होंगे और न ही उनमें फंसी पतंगे होंगी. जैसे ही नजर उठी और सीधे आसमान. कैसा लगेगा देखकर. आँखे चौंधिया जायेंगी. ऐसे सीधे आसमान देखने की कहाँ आदत रह गई है.

चिड़ियों को देखता हूँ तो परेशान हो उठता हूँ. संवेदनशील हूँ इसलिये आँखें नम हो जाती हैं. उनकी तो मानो एक मात्र बची कुर्सी भी जाती रही बिना गलती के. पुराने रेल वाले मंत्री की तो फिर भी अपनी गलती से गई, मगर ये पंछी तो बेचारे चुपचाप ही बैठे थे बिना किसी बड़ी महत्वाकांक्षा के. पेड़ तो इन निर्मोहि मानवों ने पहले ही नहीं छोड़े. बिजली के तार ही एकमात्र सहारा थे, लो अब वो भी विदा हो रहे हैं.

विचार करता हूँ कि जैसे ही ये बिना तार की बिजली भारत के शहर शहर पहुँचेगी तो उत्तर प्रदेश और बिहार भी एक न एक दिन जरुर पहुँचेगी. तब जो उत्तर प्रदेश का बिजली मंत्री इस कार्य को अंजाम देगा वो राजा राम मोहन राय सम्मान से नवाज़ा जायेगा.

राजा राम मोहन राय ने भारत से सति प्रथा खत्म करवाई थी और यह महाशय, उत्तर प्रदेश से कटिया प्रथा समाप्त करने के लिए याद रखे जायेंगे. जब तार ही नही रहेंगे तो कटिया काहे में फसांयेंगे लोग. वह दिन कटिया संस्कृति के स्वर्णिम युग का अंतिम दिन होगा और आने वाली पीढ़ी इस प्रथा के बारे में केवल इतिहास के पन्नों में पढ़ेगी जैसा यह पीढ़ी नेताओं की ईमानदारी के बारे में पढ़ रही है.

थोड़ा विश्व बैंक से लोन लेने में आराम हो जायेगा. अभी तो उनका ऑडीटर आता है तो झूठ नहीं बोल पाते, जब तक तार-वार नहीं बिछवा दें कि इस गाँव का विद्युतिकरण हो गया है. तब तो दिन में ऑडीटर को गाँव गाँव की हेलिकॉप्टर यात्रा करा कर बता दो कि १००% विद्युतिकरण हो गया है. तार तो रहेंगे ही नहीं तो देखना दिखाना क्या? शाम तक दिल्ली वापिस. पाँच सितारा होटल में पार्टी और लोन अप्रूव अगले प्रोजेक्ट के लिए भी.

एक आयाम बेरोजगारी का संकट भी है. अभी भी हालांकि अधिकतर बिजली की लाईनें शो पीस ही हैं, लेकिन टूट-टाट जायें, चोरी हो जायें तो कुछ काम विद्युत वितरण विभाग के मरम्मत कर्मचारियों के लिए निकल ही पड़ता है. एक अच्छा खासा भरा पूरा अमला है इसके लिए. उनका क्या होगा?

न तार होंगे, न टूटेंगे, न चोरी होगी. वो बेचारे तो बेकाम हो जायेंगे नाम से भी.
न मरम्मत कर्मचारियों की नौकरी बचेगी, न तार चोरों की रोजी और न उनको पकड़ने वाली पुलिस की रोटी. बड़ा विकट सीन हो जायेगा हाहाकारी का. कितनी खुदकुशियाँ होंगी, सोच कर काँप जाता हूँ. विदर्भ में हुई किसानों की खुदकुशी की घटना तो इस राष्ट्रव्यापी घटना के सामने अपना अस्तित्व ही खो देगी हालांकि अस्थित्व बचाकर भी क्या कर लिया. कौन पूछ रहा है. सरकार तो शायद अन्य झमेलों में उन्हें भूला ही बैठी है.

चलो चोर तो फिर भी गुंडई की सड़क से होते हुए डकैती का राज मार्ग ले कर विधान सभा या संसद में चले जायेंगे, जाते ही है, सिद्ध मार्ग है मगर ये बेकार बेकाम हुए मरम्मत कर्मचारी और पुलिस. इनका क्या होगा?

एक तार का जाना और इतनी समस्यायों से घिर जाना. कैसे पसंद करेगी मेरे देश की भोली और मासूम जनता!!

योजना अधिकारियों से करबद्ध निवेदन है कि जो भी तय करना, इन सब बातों पर चिन्तन कर लेना.

मेरा क्या, मैं तो बस सलाह ही दे सकता हूँ. भारतीय हूँ, निःशुल्क हर मामले में सलाह देना मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है. और हाँ, मैं कवि भी तो हूँ, बहुत ज्यादा जिद करोगे तो कविता सुना सकता हूँ. नेता होता तो कुछ वादे भी कर देता:

सबको यह चौकाती बिजली
बिन तारों के आती बिजली.

चोर नापते सूनी सड़कें
उनकी रोजी खाती बिजली.

कभी सुधारा जो करते थे
उनको धता बताती बिजली.

कटियाबाजी वाले युग को
इतिहासों में लाती बिजली.

सोच सोच कर डर जाता हूँ
कैसे दिन दिखलाती बिजली.

-समीर लाल ’समीर’

hindichetna

बुधवार, फ़रवरी 03, 2010

महिला सशक्तिकरण: गजब हो गया!

नारी सशक्तिकरण-यह आंदोलन और सोच विश्वव्यापी है.

अफगानिस्तान जैसा देश, जहाँ यह एक आम नजारा है कि एक पुरुष आगे चले और उसकी ४-४ बेगमें उस पुरुष का अनुगमन करती उसके पीछे बुरका पहने एक लाईन में चलती दिखें .

महिला अधिकार, महिला सशक्तिकरण, नारी मुक्ति जैसे विषयों की कहानियाँ, कथाओं और ब्लॉग पोस्टों के असर में नहाई हुई एक अमरीकन महिला इसी धुन को गाती जब हाल ही अफगानिस्तान पहुँचीं तो एकदम बदला नजारा देखकर दंग रह गई. बल्कि दंद से भी ज्यादा, सन्न रह गई. ऐसा जबरदस्त बदलाव. इतना असर महिला सशक्तिकरण आंदोलन का कि चार महिलायें आगे आगे और उनका अनुगमन करता उनका पति उनके पीछे पीछे.

ऐसा अद्भुत बदलाव देखकर अमरीकन महिला ने तुरंत तस्वीरें खींची, जो अमेरीका के अखबारों में रातों रात हाथों हाथ छपीं और खूब सराही गई.

अखबारों में सुर्खियाँ थी तस्वीर के साथ, ’जल्द ही एक्सक्लूसिव खुलासा-अफगानिस्तान महिला सशक्तिकरण में अग्रणी-पुरुषों ने महिलाओं की सत्ता स्वीकारी’ इन्तजार करिये और पढ़िये सिर्फ हमारे अखबार में.

वही हाल टीवी का-चिल्ला चिल्ला कर बोले- देखिये, जल्द ही-सिर्फ और सिर्फ हमारे चैनेल पर-एक्सक्लूसिव- वो क्या वजह है जिसने बदल दी महिलाओं की तस्वीर. महिला जाग उठी है-अब महिलायें राज करेंगी. पुरुष हुआ गुलाम’ देखते रहें कल तक.

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मीडिया वालों ने उस अमरीकन महिला से निवेदन किया कि क्यूँ न वो ही उन महिलाओं का साक्षात्कार कर इस सुखद परिवर्तन के लिए उठाये गये कदमों के बारे में जानकारी ले ताकि विश्व की अन्य महिलायें भी लाभांवित हों एवं विश्वव्यापी महिला सशक्तिकरण आंदोलन को नई दिशा मिले. मीडिया ने उस महिला को आशांवित किया कि इस साक्षात्कार को मीडिया में बढ़ चढ़ कर उछाला जयेगा. इन कदमों की खूब सराहना होगी, पत्रिकाओं में छपेगा. महिलायें ब्लॉग के माध्यम से इसे प्रचारित कर अन्य बहनों को सशक्त करने में साहयता प्रदान करेंगी. विश्व बदलाव का साक्षी बनेगा.

अमरीकन महिला बहुत उत्साहित हुई और अगले दिन ही ऐसे एक काफिले को देख साक्षात्कार के लिए निवेदन किया.

उसने काफिले में सबसे आगे चलती महिला से प्रश्न किया कि आप से पूरे विश्व की महिलायें प्रभावित हुई है. वो महिलाएँ आपको अपना नेता मानने लगी हैं एवं महिला सशक्तिकरण की दिशा में उठाये गये आपके कदमों एवं प्रयासों को जानना चाहती है जिससे कि इतना विस्मयकारी बदलाव इतने कम समय में आपने अफगानिस्तान जैसे देश में कर दिया. कृप्या मार्गदर्शन करें. अपना संदेश दें.

उस महिला ने मात्र एक वाक्य में अपना जबाब दिया और उसका काफिला आगे बढ़ चला.

उसने कहा कि ’लैण्ड माईन्स याने बारुदी सुरंगें इस पू्रे परिवर्तन के लिए जिम्मेदार हैं.’

कहते हैं इसके बाद अफगानिस्तान में महिला सशक्तिकरण के बारे में न तो अखबारों में कुछ ही छपा और न टीवी पर कुछ सुनाई दिया. ब्लॉग तो खैर कुछ पुरानी कविताएँ छापने में व्यस्त हो गये.

यही तो खराब आदत है मीडिया की-स्टोरी पूरी नहीं करती. सनसनी मचाकर भाग जाते हैं.

चलते चलते:

आप तो पहचान लोगे, मैं यही हूँ जानता
बारुद को बारुद से बेहतर नही हूँ जानता.
आप आगे चल रही हैं गर फटी कोई सुरंग
बारुद में मिल जायेगी बारुद के जैसी तरंग.

-समीर लाल ’समीर’

(नोट: ईमेल में एक चुटकुला प्राप्त हुआ था, उसी के आधार पर)