गुरुवार, जुलाई 30, 2009

हे प्रभु, ये तेरी माया...

रंग, रुप और ये काया,

हे प्रभु, ये तेरी माया.

इधर कुछ दिनों से हमारा रक्तचाप अरहर हो गया है. कहाँ तक बढ़ेगा, कुछ कहना ही मुश्किल. अगर अपने डॉक्टर को आम जनता मान लूँ तो उसकी पहुँच के बाहर. वैसे भी इस बिमारी को राजसी बिमारी का नाम दिया गया है तो ऐसी लक्ज़री उठाते लगभग हफ्ता बीतने जा रहा है. कभी लगता है कि अरहर नहीं सेन्सेक्स सा हो गया है. इस क्षण उपर, उस क्षण नीचे. नीचे आने लगता है, एक आशा बनती है कि खटाक से उपर. नमक न खाओ, टेंशन में न आओ, आराम करो, कम्प्यूटर पर न बैठो और इतने निवेश का नतीजा? फिर ढ़ाक के तीन पात..शाम तक बाजार बंद और सारा निवेश मिट्टी और कल सब ठीक हो जायेगा, इस आशा में फिर सोकर एक रात और गुजार ली.

मित्र मिलने आये. किसी तरह दरवाजा खोला. उनको बताया कि यार!! बड़ी कमजोरी लग रही है. वो ठहाका लगाते लगाते रह गये. बोले, देखकर तो नहीं लगता.

मोटे लोगों के साथ यही खराबी है कि कितनी भी कमजोरी लगे, कोई मानने ही तैयार नहीं. कोई दुबला पतला हो तो जरा सा मूँह लटका ले और सबकी सहानुभूति बटोर ले और हम सच्ची के कमजोर, बीबी तक नहीं मान रही. कहती है कि चाय बनाने से बचने का अच्छा बहाना निकाला है, अब बताओ!

ये मोटापा एक बार नहीं, न जाने कितनी बार फजिहत कराता है.

एक तो जिसे देखो, सलाह का बस्ता टांगे सामने आ खड़ा होता है कि भाई साहब, कुछ करिये. बढ़िया जगह रहते हैं, सामने झील है. फर्स्ट क्लास टहलते हुए निकल जाया करिये. दो घंटे टहलिए और फिर देखिये. अब क्या कहें, दो घंटा टहलें तो सोच कर ही लगता है कि फिर देखेंगे क्या? क्या बच रहेगा कुछ भी. दो घंटा तो क्या, दो मिनट में हफाई छूट जाती है, दो घंटे होने के पहले तो निश्चित ही खुद ही छूट लेंगे. फिर तुम देखना, हम तो उपलब्ध न होंगे.

दुकान में पैन्ट देखने जाओ तो कहता है कि इस साईज की तो न मिल पायेगी. कमर नप जाये तो लम्बाई ऐसी कि मानों सर से फुल पैन्ट पहनेंगे और लम्बाई नप जाये तो एक ही पैर में पूरे फुल पैन्ट की कमर समाप्त. वो ही हाल कमीज का है. जो मिलती है, पहन लेते हैं तो भारत में मित्र कहते हैं कि हाफ शर्ट पहने हो कि तीन चौथाई? इतनी लम्बी रहती है क्या कहीं हाफ स्लीव? अब क्या बतायें, कि वाकई वाली हाफ स्लीव में तो पेट खुला देख और भी खराब लगेगा, उससे बेहतर कि स्लीव ही लम्बी दिखे.

ट्रेन में रिजर्वेशन न हो तो किसी से कह कर बैठ भी नहीं सकते कि भाई जी, जरा खिसकना तो..जरा क्या पूरा खिसके तो शायद बाजू वाली सीट वाले को जरा खिसकना पड़े.

एक शायर कह गये:

करेला और उस पर से नीम चढ़ा.

अब हमारे साथ यह नीम ईश्वर की महान देन - हमारा रंग.

बचपन में नजर न लगे (क्यूट तो थे ही :)) तो अम्मा ठिठोना लगा देती थी काजल का.. फिर भी मोहल्ले वाले कहें कि इसे ठिठोना लगा दिया करो, कहीं नजर न खा जाये. अब क्या बतायें, ठिठोना तो लगाये घूम रहे हैं मगर हमारे रंग में ऐसा ब्लैंड हुआ कि दिख तक नहीं रहा.

कार्यालय का हमारा साथी, साथ में एक ही प्रोजेक्ट पर काम चल रहा है. करते करते थक गये. रात में दो दो बजे तक काम करें और फिर सुबह ५ बजे से. उसकी आँख के नीचे काले गढ्ढे देखकर बॉस घबरा गया और उसे छुट्टी देकर घर भेज दिया. पड़े हमें भी रहे होंगे काले गढ्ढे, मगर दिखें तब न बॉस छुट्टी दे तो जुटे रहे प्रोजेक्ट निपटाने में. कौन मानें कि हम भी थक गये हैं. सब सोचते होंगे कि मौका निकाल कर नींद मार लेता होगा. ये भी रुप की ही उपज होगी कि कोई सीधा सादा मानने तैयार ही नहीं.

हर तरफ से चोट खाये आपको कविता सुनाने चले आये हैं कि कम से कम आप लोग तो मुझे समझोगे. यूँ ही ख्याल आया कि मेरा जीवन तो खुली किताब है, फिर क्यूँ लोग मुझे नहीं समझ पा रहे (कविता जरा दूसरे मूड की कभी किसी मोड़ पर लिखी होगी, बस सुनाने का मन हो आया) :



पांडुलिपि




मेरी जिन्दगी

छोटी छोटी

खट्टी मीठी

कहानियों की

एक किताब

...

बस, बिकाऊ नहीं है

एक ही कॉपी है

वो भी

हस्त लिखित.

...
अपनी

किताबों के

मामले में

मैं थोड़ा पजेसिव हूँ.

...
मेरी लायब्रेरी

के

कायदे

तो

जानती हो न?

...

ले जाओ

जतन से पढ़ना

फिर

वापस करने की

जिम्मेदारी

भी तुम्हारी है.

..

-समीर लाल ’समीर’





नोट:

१. इसी बल्ड प्रेशर के चलते बहुत नेट पर भी आना नहीं हो रहा अतः अधिकतर जगह टिप्पणी न कर पाने के लिए क्षमाप्रार्थी.

२. जन्म दिवस पर आप सबकी बधाई और शुभकामनाओं का हृदय से आभार.

रविवार, जुलाई 26, 2009

पुरुष सत्ता-हाय हाय!!



हाय हाय!! हाय हाय!!
पुरुष सत्ता-हाय हाय!!

हाय हाय!! हाय हाय!!
पुरुष सत्ता-हाय हाय!!

नारी सशक्तिकरण- जिन्दाबाद!!
नारी सशक्तिकरण- जिन्दाबाद!!

नारी शोषण-बंद करो!!
नारी शोषण-बंद करो!!

पुरुषों का अत्याचार-नही चलेगा!!
पुरुषों का अत्याचार-नही चलेगा!!

नारी तुम संघर्ष करो-हम तुम्हारे साथ हैं!!
नारी तुम संघर्ष करो-हम तुम्हारे साथ हैं!!

नारी शक्ति-जाग उठी है!!
जाग ठीक है-जाग उठी है!!

हाय हाय!! हाय हाय!!
पुरुष सत्ता-हाय हाय!!

हाय हाय!! हाय हाय!!
पुरुष सत्ता-हाय हाय!!

दरवाजे पर नारे सुन शर्मा जी भागे भागे आये. दरवाजा खोला तो देखा बहुत सारी महिलायें दरवाजे पर झंडा लिए नारे लगा रही थी. शर्मा जी बेचारे बुजुर्ग और उस पर से भाग कर दरवाजा खोला और सामने इतनी महिलाओं को नारी सशक्तिकरण का झंडा उठाये और नारे लगाता देखकर हाँफने लगे.

उन्हें घबराया देख नारी सशक्तिकरण की नेत्री ने तुरंत मोर्चा संभाला और बोली-क्यूँ शर्मा जी, घबरा गये. अकेली नारी को प्रताडित करते हो और अब घबरा रहे हो.

शर्मा जी ने अपने आप को संभालते हुए कहा कि मैने क्या किया है? आप खामखाँ मुझ पर आरोप लगा रही है.

नेत्री आदतानुसार चिल्लाकर बोली: क्या किया है? अब ये भी हमें बताना पड़ेगा?

हम सब जानतीं हैं, हमसे कुछ भी नहीं छुपा. जब भी महिला पर अत्याचार होता है, हमें खुद ब खुद खबर मिल जाती है.

अरे, कैसा अत्याचार? मैने तो कुछ भी नहीं किया. आपको शायाद किसी ने यूँ ही गलतफहमी में शिकायत भिजवा दी होगी.

ज्यादा बनने की जरुरत नहीं है. कल शाम हमारी एक सक्रिय सदस्या यहाँ से गुजर रही थी, उसने देखा है.

देखा है?? शर्मा जी ने आश्चर्य से पूछा..

नहीं नहीं, देखा नहीं, सुना है..एक दूसरी उपनेत्री ने आगे बढ़ते हुए कहा.

क्या सुना है? शर्मा जी अचंभित से पूछने लगे.

आप अपनी पत्नी को प्रताड़ित कर रहे थे. उनसे ऊँची आवाज में उन्हें जानवरों की तरह मान कर चिल्ला रहे थे.

नहीं जी, मैने तो ऐसा कुछ नहीं किया.

अच्छा, कल शाम आपने उनसे चिल्ला चिल्ला कर खाना देने को नहीं कहा.

अब शर्मा जी को कुछ कुछ समझ में आया और उन्होंने अपनी पत्नी को बुलवाया.

तब जा कर खुलासा हुआ कि वो ऊँचा सुनती हैं और इसलिए उन्हें चिल्ला कर ही बोलना पड़ता है, तब सुन पाती हैं.

अब महिला सशक्तिकरण वाली क्या करें. बिना सोचे समझे हमेशा की तरह चले तो आये ही हैं. तो ये कहते हुये कि अभी अगर नहीं भी हुआ है तो भी आगे ध्यान रखिये, हमारी सदस्यायें हर तरफ हैं. आगे भी ऐसा करने की सोचना भी मत, वरना धरना दिया जायेगा, नारे लगाये जायेंगे. हम बरदास्त करने वालों में से नहीं.

शर्मा जी, बेचारे बुजुर्ग क्या करते. हाथ जोड़ कर वादा किया कि कभी भी कोई अत्याचार नहीं करेंगे.

और पूरा महिला सशक्तिकरण मोर्चा आगे बढ़ गया अगले केस की तलाश में, नारे लगाते हुए!!


हाय हाय!! हाय हाय!!
पुरुष सत्ता-हाय हाय!!

हाय हाय!! हाय हाय!!
पुरुष सत्ता-हाय हाय!!

नारी सशक्तिकरण- जिन्दाबाद!!
नारी सशक्तिकरण- जिन्दाबाद!!

देखो, कौन जाने, अगला कौन अटकता है. हम तो बस शुभकामनाऐं ही दे सकते हैं. सोचता हूँ अत्याचार करो न करो, उनकी पैनी नजर तो अत्याचार खोज ही लेगी. उन्हें सामान्य बात में भी दमन नजर आ ही जायेगा. शोषण हो न हो, उभर कर सामने आ ही जायेगा. फिर क्या विचारना, जो होगा देखा जायेगा.

अब समय आ गया है जब पुरुषों को भी अपनी रक्षा हेतु पुरुष सशक्तिकरण न सही, तो भी अस्तित्व रक्षण समिति तो बना ही लेना चाहिये.

नारे तो इसी तर्ज पर गढ़ जायेंगे-पूरी बहर का निर्वहन करते हुए.


नारी शक्ति को नमन

माफीनामा:
----------------------------------
बहर:
२२ २२ २२ २२
फालुन फालुन फालुन फालुन
----------------------------------

ममता भरी कहानी नारी
मिष्टी सी है वाणी नारी.

पावन झरने से जो बहता
शीतल ऐसा पानी नारी.

बहना, पत्नी, दादी, काकी
बिटिया, अम्मा, नानी नारी

सबकी किस्मत अपनी अपनी
राजा की है रानी नारी.

हुई खता गर पुरुषों से तब
जेवर से ही मानी नारी.

पुरुषों को अब नाच नचाये
करे नहीं नादानी नारी.

कालिज में जाकर के देखो
फैशन की दीवानी नारी.

जीवन मेरा उसके हाथों
लगती हमें भवानी नारी.

यह सब पढ़कर बक्श दिया जो
कहलाओगी दानी नारी.

-समीर लाल ’समीर’

नोट: इस आलेख का उस आलेख से कुछ लेना देना नहीं है. यह अलग से है.

बुधवार, जुलाई 22, 2009

यादों की डोर- ले चली किस ओर!!!

यादों का विज्ञान-शायद कुछ ऐसा-


काश!!

तुम

तुम न होती

तुम्हारी याद होतीं...

हर वक्त

मेरे साथ होतीं...


ये यादें भी मुई ऐसी होती हैं, कब किस बात के संग डोर बाँधे चले आयें, कुछ कहा नहीं जा सकता.

मंच से कभी कविता सुनाता हूँ, कोई वाह वाह कहता है और मैं सिहर जाता हूँ. याद आ जाती है जैन मास्साब के द्वारा की गई पिटाई, जब हिन्दी की कक्षा में मैथली शारण गुप्त की ’पंचवटी’ पढ़ाते समय उन्होंने सुनाया:

चारु चन्द्र की चंचल किरणें,
खेल रही थीं जल थल में...


और हमारे मूँह से बेसाख्ता निकल पड़ा...वाह वाह!! बहुत खूब!! एक बार और..फिर क्या होना था. रोते रोते घर लौटे और चुपचाप सो गये. उस जमाने में मास्साब की शिकायत घर में करने का मतलब आज के अभिभावकों जैसा मास्साब से जाबाब तलब करना नहीं था, बल्कि उल्टा बिना कुछ जाने पुनः उससे भी ज्यादा पीटा जाता था कि जरुर बदमाशी की होगी, तभी मास्साब ने मारा. दो बार पिटने से बेहतर -चुपचाप सो जाओ. मगर उस पिटाई की सिहरन आज भी है.

ऐसा ही एक वाकया याद आता है जब बहुत मूसलाधार बारिश होती है. हमारे पड़ोस में रहने वाले अंकल बिजली विभाग में ही थे. मैं बी कॉम कर रहा था. बहुत डरा करते थे हम मोहल्ले के लड़के उनसे. उन्हें और मुहल्ले के अन्य बुजुर्गों को पिता जी की तरह डांटने, मारने के सारे अधिकार प्राप्त थे.

एक शाम भीगते हुए खेल कर लौटा तो वो घर के बरामदे में बैठे थे. तुरंत रोक लिया. बहुत तेज मूसलाधार बारिश हो रही थी और वो पूछने लगे, इसे अंग्रेजी में क्या कहेंगे. अंग्रेजी में हाथ ऐसा तंग कि क्या बताते. बस, बोल दिये कि ’ईट ईज रेनिंग वेरी मच’. फिर पिटाई..और वहीं बैठा दिया गया कि १०० बार कहो, ’इट्स रेनिंग कैट्स एण्ड डॉग्स’-खैर सीख गये मगर आज तक जीवन में यह वाक्य बोलने की जरुरत नहीं पड़ी. जाने क्यूँ पिटे. मगर हर मूसलाधार वर्षा वो दिन याद दिला जाती है.

खैर पिटाई और हमारे बचपन का चोली दामन का साथ था. आज अगर पिट जायें तो पिटाई के दर्द से ज्यादा बचपन की यादों का दर्द उठ पड़ेगा, यह मेरा दावा है.

चलिये, ये सब फिर कभी, अब गंभीर नोड पर ऐसी ही एक यादों की डोर स्मरण में आ गई:


हाय!! ये गंध!!


मेरे पूजा के कमरे में

अंगड़ाई लेता हुआ

अगरबत्ती का धुँआ

गुजरता है मेरे पहलु से

अपनी खास गंध के साथ


तो याद आता है मुझे

वो संकट मोचन मंदिर

जहाँ गुजारी थी मैने

इलाहाबाद की

अनगिनत शामें.....


याद आता है मुझे

अपनी भूख समेटे

प्रसाद की आस में

मंदिर की सीढ़ी पर बैठा

वो बच्चा

जिसकी उदास आँखों में

पलती थी बस एक चाहत

पत्थर होने की

ताकि वो भी पूजा जाता

भक्त भोग चढ़ाते

और

कभी न भूखा सोता....


याद आता है मुझे

अपना मौन रह जाना

उसे कैसे समझाता

इंसानो की तरह ही

हर पत्थर के

अलग अलग नसीब होते हैं

कोई मंदिर में जड़ता है

कोई गहनों में,

तो कोई कब्र पर

मुर्दों के करीब होते हैं...


और


याद आती है मुझे



माँ!!

जिसके पार्थिव शरीर के करीब भी

यही खास अगरबत्ती जलती थी

और उस कमरे में भी

बिखरती थी यही गंध...

जो बसी है मेरे रग रग में

और रहती है मेरे संग!!


-समीर लाल ’समीर’

रविवार, जुलाई 19, 2009

हम तो थक गये अब!!!!

थक गये भाई पूछ पूछ कर.

जिसको देखो बस एक लाईन बोल कर भाग जाता है कि साहित्य नहीं रचा जा रहा है ब्लॉग पर.

मगर कोई ये बताने तैयार ही नहीं कि आखिर साहित्य होता क्या है, क्या है इसकी परिभाषा और हमें क्या करना होगा कि साहित्य रच पायें. बहुत बार और बहुत जगह जाकर पूछा, रिरिया कर पूछा, गिड़गिड़ा कर पूछा मगर जैसे ही पूछो कि आखिर साहित्य है क्या, भाग जाते हैं. बताते ही नहीं..मानो सरकार बता रही हो कि भारत का विकास हो रहा है. पूछो कहाँ, तो भाग जाते हैं? आप खुद खोजो.

अरे, हम खुद ही खोज या जान पाते तो आपको इतना कहने की तकलीफ भी न देते कि साहित्य नहीं रचा जा रहा है. रच ही रहे होते और तब आप इतना बोलने के पहले ही भाग लिये होते. प्रेम चन्द के गुजर जाने का दुख आज से पहले कभी इतना ज्यादा नहीं हुआ. वो होते तो उनसे पूछ लेते.

बहुत शोध किया. यहाँ वहाँ पढ़ा. एक दो वीरों ने इसे परिभाषित करने की नाकाम कोशिश भी की. पिछले वाक्य में नाकाम अंडरलाईन मानें. कर नहीं रहे बस आप मानें. जब वो बिना ’साहित्य क्या है’ बताये बता सकते हैं कि ’यह साहित्य नहीं है’ तो हम भी बिना अंडर लाईन लगाये बता दे रहे हैं कि नाकाम शाब्द अंडारलाईन है. इस पर भी मन न भरा हो तो और लो, बोल्ड भी है.

भारत के विकास को लेकर सोचता हूँ कई बार इसी तरह. किसको विकास मानूँ: बढ़्ती मँहगाई को, अवय्वस्था में आये इजाफे को, बिजली पानी की अनुपलब्धता की बढ़ती दर को, गिरते सेन्सेक्स को, एकता कपूर के सीरियलस में बढ़ते एक्स्ट्रा मेरिटल अफेयरर्स को, बढ़ती किसानों की खुदकुशी को या फिर बढ़ती नेताओं की ढिटाई और उनके बढ़ते भ्रष्टाचार को.

जैसे साहित्य की परिभाषा हो वैसे ही कोई ज्ञानी बता जाता है कि भारत भी विकास की राह पर है. विनती बस इतनी सी है कि बम्बई, दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास और बैंगलोर को ही भारत मानें और उसकी भी पाँच प्रतिशत आबादी को. विकास के आंकलन में कृप्या ट्रेफिक जाम, बिजली, पानी आदि को रोड़ा न बनायें, वह इस आंकलन में शामिल नहीं है. यह सब सामन्य परिस्थियाँ हैं जिसके आप सब आदी हैं. इसमें सिर्फ मॉल, कॉल सेन्टर (प्राफिट वाले) अंबानी लेवल के उद्योगपति, अमर सिंग लेवल के नेता, लीलावति अस्पताल का वी आई पी एरिया, बिना गिरा हुआ दिल्ली मेट्रो का भाग, अम्बे वेली पूणे का रहवासी इलाका, बिग सिनेमा, नेता घराने के नव नेता, मल्लिका सेहरावत, मुटुकनाथ जूली कथा, कानून की धारा ३७७, ब्रेन मैपिंग, चन्द्र यान के साथ चाँद और फिज़ा कथा, मकाओ में अंग्रेजी में हुआ भारतीय हिन्दी सिनेमा का समारोह, चीयर बालायें (२०-२० कुछ दिन इस लिस्ट से अलग किया गया है), पेज ३ पार्टियाँ एवं विजय मलैय्या, आदि आदि को शामिल माना जाये. देखिये, भारत कितना विकास कर गया है.

कहते हैं जल्दी ही विकसित भारत में व्यक्ति को नाम की बजाय यूनिक नम्बर आईडेन्टिटी से जाना जायेगा. अरे, जहाँ इंसान परेशान हो कर चन्द रुपये में किडनी बेच दे रहा है, वहाँ नम्बर कब तक सहेजे रहेगा? पुलिस की गोली से मरेगा कोई और जेब से प्राप्त आई डी से मृत दर्ज होगा कोई. खैर, उम्मीद तो अच्छे की ही होना चाहिये, तब अच्छा ही होगा.

तो ऐसे ही मानने न मानने के चक्कर में, पत्रिकाओं के गरिष्ट ओह नो!! वरिष्ट साहित्यिक संपादकों से संबंधो के आभाव में, आलोचकों और अनेक साहित्यकारों के कम्प्यूटर ज्ञान के आभाव में, ब्लॉग पर साहित्य नहीं रचा जा रहा है विषय पर सारे ब्लॉगर चिंतित हैं.

चिंता है तो कभी न कभी निवारण भी होगा ही, यही एक आशा की किरण है जो जिन्दा रखे है इस अफलातूनी लेखन को.

खैर, जो अब तक प्राप्त जानकारी के आधार पर एक बुद्धु ब्लॉगर (साहित्यकारों के नज़रिये से) की परिकल्पना है साहित्य के बारे में, उसे देखें:

साहित्य

अब जो है, जैसा है. वैसा है.

हमने अपनी तरफ से कोशिश की है यह बता पाने की कि कविता क्या है. कुछ हद तक तो बता ही पाये होंगे, आप देखिये.


कविता क्या है ?

कविता है,

शब्दों मे व्यक्त
भावों की अभिव्यक्ति
जीने की शक्ति
समाज की संरचना
मानवियता की रचना
ईश्वर की अर्चना
कुरितियों पर वार
आशा का संचार

कविता है
मन के भाव
कड़ी धूप में
पेड़ की छांव
संजोये हुए अहसास
और गहरे अँधेरे में
चमकती हुई आस

कविता है
संस्कृति की वाहक
भ्रांतियों की निवारक
और क्षुब्ध ह्रदय में
चेतना की कारक

कविता है
एक समर्पण
दिल का सच्चा दर्पण
निस्सीम ऊँचाई
अंतहीन गहराई

कविता
मिटाती है संशय
बढ़ाती है
आदि से अंत का परिचय
जगाती है निश्चय
और
अमावस में
लाती है सूर्योदय

कविता है
पूर्ण सॄष्टि
लौकिक और
अलौकिक दृष्टि

इसका रचयिता कवि

कभी हँसाता
कभी गुदगुदाता
तो
कभी रुलाता
सूरज की सीमा
के पार ले जाता
फिर भी
अक्सर
भूखा ही सो जाता

-समीर लाल ’समीर’

नोट:
१. कोई भी प्रोफेशनल कार्टूनिस्ट इसे हमारे द्वारा किया गया उनके क्षेत्र का अतिक्रमण न मानें, ये कोशिश तो हम साहित्य के क्षेत्र में करेंगे. :)

२. यह आलेख कल के लावण्या जी के आलेख के पहले ही लिख गया था और इसलिये उसकी विषय वस्तु यह यह कतई प्रभावित नहीं है.

गुरुवार, जुलाई 16, 2009

इत्ते सारे..बाप रे!!

ये स्कैचिंग वाले भी-इनका तो क्या कहें. ये जो न करवा दें, कम ही है.

कितने ही आतंकवादियों की, कितने हत्यारों की, कितने चोरों की स्कैच बना चुके. क्या कोई जानकारी रखता है कि इस आधार पर कितनों को पकड़ पाये आज तक?



इस डिपार्टमेन्ट का औचित्य ही समझ के परे है और इनकी कला का नमूना तो क्या कहा जाये, आप ही देखिये इस उदाहरण से.

अब देखिये, एक प्रदेश की मुखिया. मुखिया हैं तो व्यस्त तो होंगी ही, काहे क्यूँ पूछते हो-बहुत प्रश्न करते हो यार-कथा सुनों न बस!! हाँ तो इतना बड़ा प्रदेश, सो ताकतवर भी होंगी ही और ताकतवर हैं तो गुस्सवर भी होंगी. दुबला पतला कोई क्या दम दिखायेगा, उल्टा मार ही खा जायेगा.

अब व्यस्त है और उस पर भी फोटो खिंचवाई ताकि उसके आधार पर मूर्तियाँ बन जाये तो उसे पार्क में लगवा दें और दलितों का उसके दर्शन प्राप्त कर उत्थान हो जाये. टोटल फंडा पत्थर पूजन वाला. जब केसरिया पत्थर पूज पूज कर लोगों का भला हुआ जा रहा है, सारे संकट मूँच जाते हैं तो यह तो संगमरमरी बनना है. इत्ता मंहगा कि भला तो होना तय ही है, कम से कम तब तक, जब तक की मूर्तियाँ लगी रहती हैं. शायद मुखिया बदले तो मूर्तियाँ बदलें.

चेले फोटो मूर्तिकारों के सरगना को दे आये कि ऐसी ६० संगमरमर की मूर्तियाँ बना कर पार्क में लगनी है. मामला मुखिया का है इसलिये टाईम सेन्सेटिव है और ताकतवर मुखिया है इसलिये कोई मुर्रुव्वत नहीं. सबसे जरुरी बात यह है मामला सीधे दलितों के उत्थान से संबंधित है अतः टॉप प्रियारिटी पर किया जाना स्वभाविक प्रक्रिया है, इसे समझाया जाना आवश्यक नहीं, यह तो खुद ही समझ आ जाना चाहिये.

बड़ा ठेका वो भी सीधे मुखिया के दरबार से. ठेकेदार प्रसन्न हो लिया और इसके इजहार की जैसी सामान्य प्रक्रिया है-मित्रों और अधिकारियों के साथ जम कर पार्टी चली और खूब पी पिलाई गई.

शराब का नशा और उस पर से ऐसे विकट ठेके की मस्ती याने तीन गुना नशा और इस चक्कर में सेंपल में आई फोटो न जाने कहाँ गुम गई?

इतनी बड़ी भूल..कैसे सुधारें. मुखिया से तो कह नहीं सकते कि फिर एक हाथ उठा कर टाटा बाय बाय वाली नजाकत में फोटो खिंचवाओ और कम से कम ऐसी मुखिया से जो ताकतवर भी हो अतः गुस्सवर भी.
साथ पीने पिलाने का फायदा कुछ तो मिलना ही था. नये मित्र अधिकारियों से बात की गई. उस रात पार्टी में सभी ने कनखियों से उस फोटू को निहारा था. एकजुट मिल तय पाया गया कि पुलिस स्कैचिंग डिपार्टमेन्ट से मदद ले फिर से वैसा ही स्कैच बनवा लेते है और मूर्तियाँ तैयार करा लेंगे.

सबने अपने अपने ब्यौरे स्कैचिंग अधिकारियों को दिये और मुखिया की सेवा सुसुर्शा में व्यस्त भये.

स्कैच तैयार हो गया. वैसा ही जैसा हर बार तैयार होता है और पुलिस उस स्कैच के आधार पर मशक्कत करके हार जाती है. मूर्तियाँ निश्चित तिथि पर तैयार हो पार्क में पहुँच गईं, आप भी देखें कि क्या तैयार हुआ इन स्कैचिंग वालों की कला के चलते, अब भई जैसा डिस्क्रिप्शन दिया था वैसा बना दिया. मुस्कराने की जरुरत नहीं है, खुद ही जुबानी संरचना देकर स्कैच बनवा कर देख लो, करो जरा जुबानी विवेचना कि क्या बताओगे:




और आप तो जानते ही हैं कि टाईम बॉड में प्रोग्राम में उतना समय तो होता नहीं कि त्रुटियाँ सुधारी जा सके, वो तो बस सनातन सरकारी परंपरा का पालन करते हुए आदतन ढाकीं जा सकती हैं और वो भी एक दो नहीं जब पूरी साठ हों.

अब या तो पूरा प्रोजेक्ट पुनः जारी किया जाये या इनको ही एडजस्ट करें किसी तरह, जिस एडजस्टमेन्ट में तो पूरा मोहकमा सिद्ध हस्त है ही. छः दिन बचे हैं तो उसमें तो एक प्रति दिन के हिसाब से भी लगायें तो छः ही मूर्ति बन पायेगी सो वो फिर से बनाई गईं फोटो खींच कर.

अब ठेकेदार का क्या हुआ और उन अधिकारियों पर क्या गाज गिरी, यह इस आलेख की विषय वस्तु नहीं है और बँधा हुआ लिखना भी तो टाईम बॉउंड प्रोग्राम है, वरना तो लिखते ही रह जायें. स्कैचिंग वाला भी कहाँ बाजू में खड़े आदमी की फोटू स्कैच करता है मात्र मुख्य पात्र के- तो हम क्यूँ लिखें उन ठेकेदारों और अधिकारियों के बारे में.

अब समझे इत्ते सारे कहाँ से आ गये?



सुरक्षा कवच (डिसक्लेमर):
यह पोस्ट मात्र स्कैचिंग में हो रही भूल का नमूना प्रदर्शीत करने के लिए है. अन्य किसी आत्मा या परमात्मा से इस पोस्ट का कुछ लेना देना नहीं. अगर कोई फिर भी आहत हो ही जाता है तो सूचित करें, हटाने का प्रयास किया जायेगा.

मंगलवार, जुलाई 14, 2009

न जाने क्यूँ-एक घुटन!!!

न जाने क्यूँ?

अब एक घुटन का अहसास होता है जब अपने आसपास की दुनिया देखता हूँ.

अपने बिल्कुल करीब, अपने ही लोगों के बीच.

किस तरह से इन्सान ही इन्सान के साथ व्यवहार कर रहा है. पहले मुझे यह एहसास शायद नहीं होता था. शायद मैं भी ऐसा ही करता रहा हूँ, याद नहीं. किन्तु मुझे यह तो जरुर याद है कि मैने हमेशा ही अपने आप को दूसरे की जगह भी रख कर देखा है. इतनी क्षमता मुझमें हमेशा ही रही है और मुझे इस बात का गर्व है.

हर बात पर अपने मातहतों और नौकरों को डाँटना, फटकारना और चार लोगों के बीच उनकी बेईज्जती करके खुद को बेहतर साबित करना, यह कैसी मानसिकता है? मैं समझ नहीं पाता. बस, मैं उस निरिह मजबूर इन्सान की आँखों को पढ़ने का प्रयास करता हूँ, जो तुम्हारा घरेलु नौकर है.

कितनी वेदना दिखती है और कितनी मजबूरी. शायद वो प्रतिकार करने की क्षमता भी खो चुका है और इस फटकार को उसने अपनी नियति मान लिया है. तभी तो वह क्षण भर में पूर्ववत हो जाता है और काम में तल्लीन और मैं उदासी और घुटन के माहौल से घंटों जूझ कर उबर पाता हूँ. ऐसा मुझे लगता है कि उबर गया मगर शायद यह सच नहीं..मैं खुद को झुठलाता भी तो हूँ.

तुम खुद की भूल को उसके मत्थे मढ़कर कितना खुश हो लेते हो. देखता हूँ तबियत तुम्हारी खराब है, दूध तुमको पीना है और समय पर न देने के लिये वह डाँट खाता है कि तुम्हें कुछ याद नहीं रहता. माना कि सत्तर आदेशों के बीच उसके दिमाग से यह और कोई अन्य बात उतर गई होगी मगर तुम्हारी तो खुद की तबीयत है, तुम कैसे भूल गये? और जिस वक्त वो भूला तब भी वह तुम्हारे ही किसी अन्य आदेश का पालन कर रहा होता है. एक बार फिर से कह कर तो देखो. जब भूले तो बस याद दिला दो. उसका तो काम ही सेवा करना है. फिर डांट कैसी और फटकार कैसी?

मगर इससे तुम्हारा अहम सम्मानित होता है. तुम अपने आप को कुछ उँचा समझने लगते हो इस पतनशील व्यवहार को अपनाकर. जब तुम और तुम्हारा परिवार सारा दिन बैठे बैठे आदेश पारित कर रहे होते हैं तब वह दो पांवों पर दौड़ दौड़ कर उन्हें निष्पादित कर रहा होता है मगर फिर भी उसके आराम करने की घड़ियाँ तुम्हारे आराम करने के समय से मेल खाना चाहिये अन्यथा वो आलसी एवं कामचोर कहलायेगा. घबरा जाता हूँ ऐसे माहौल से.

india

मगर यही तो माहौल है सब तरफ.फिर कहाँ जाऊँ? क्या बार बार लोगों को याद दिलाऊँ कि जिसे तुम बैल की तरह खदेड़ रहे हो वो भी तुम्हारी ही तरह एक इन्सान है. माना कि तुम उसे पैसा देते हो, खाना देते हो तो क्या तुमने उसे खरीद लिया है? क्या उसे पशु मानने का अधिकार प्राप्त कर लिया है? क्या उसे अपमानित कर तुम सम्मानित हो जाते हो वो भी बीच भीड़ में.

एक जवान लड़का-नाम बहादुर हो या रम्मू या कि धनिया, क्या फरक पड़ता है, मजबूरी में तुम्हारा नौकर या चपरासी और तुम २४ घंटे मय परिवार उसे पेर रहे हो. फिर भी कोई साहनभूति नहीं. तुम बैठे बैठे थक गये इसलिये वो पैर दबाये और वो दिन भर का खड़ा?? खैर, वो तो तुम्हारी नजरों में इन्सान है ही नहीं मगर तुम कैसे इन्सान हो? हो भी या इन्सानियत पूरे से मर गई है?

क्या तुम अपने इसी उम्र के बेटे से ऐसा ही व्यवहार करोगे? उसे तो तुम शाम को खेलने भेजते हो, आऊटिंग के लिये ले जाते हो. दो घंटे पढ़ क्या ले, नौकर को आदेश देते हो कि उसके सर में तेल लगा दे. दोपहर में सो जाने को कहते हो तो यह भी तो ऐसे ही किसी माँ बाप का बेटा है. वैसा ही तन, वैसा ही मन. सब कुछ एक. बस, परिस्थियों की मार से इतना अंतर-वो भी तब, जब वह स्वयं इन परिस्थियों के लिये जिम्मेदार नहीं.

मत उसके अभिमान को चार लोगों के सामने चकनाचूर करो सिर्फ इसलिये कि तुम्हारा झूठा स्वाभिमान बना रहे!!

मत अपनी भूलों को उस पर टालो!!! क्या पा लोगे तुम इससे? क्यूँ खुद को धोखा देते हो?

क्यूँ उसे इन्सान नहीं समझते!! क्यूँ खुद की नजरों में गिरने का काम करते हो? कभी अकेले में खुद से ईमानदारी से मिल कर देखना और पूछना.

थोड़ा एक अंश अपने बेटे का उसमे भी देखो...!! मदद लो, अहसानमंद हो- क्या चला जायेगा तुम्हारा इसमें? बेटा तो यूँ भी तुम्हारे साथ नहीं. उसे अब आगे भी कभी तुम्हारे लिए समय न होगा. वो तुमसे अपने हिस्से का समय लेकर निकल गया है. ऐसा ही होता है पुश्त दर पुश्त. कभी तुम निकले थे ऐसे ही.

बस, मन थका है. बहुत उदास!! क्या करुँ? शायद मेरे बस में कुछ भी बदल पाना नहीं..

हे गरीब बालक!! तेरी यही किस्मत है..तू इसे झेल. बस, मेरे सामने वो उदास आँखें लेकर मत आना. मुझसे नहीं देखी जाती. मैं परेशान हो जाता हूँ.

कल को मैं तो चला जाऊँगा मगर तू और तेरी बिरादरी का प्रस्थान मुझे तो कहीं नजर नहीं आता....दूर दूर तक!!!!! बस कोहरा ही कोहरा है...एक उदास धुंध!!!

दोस्त, मुझे दोष न देना-तुम ही नहीं-मैं भी मजबूर हूँ. वक्त और रिवायतों के हाथों!!

चन्द पंक्तियों के साथ अपनी बात खत्म करता हूँ:

देख कर हालत जहां की
संवेदनायें सब
सो गई हैं
और मेरे दिल से उठती
कवितायें अब
खो गई हैं.

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, जुलाई 12, 2009

२ जुलाई की वो मोहक शाम..

२ जुलाई की मोहक शाम, मैं, मेरा कम्प्यूटर और सामने एग्रीगेटर धाम!!

एकाएक ब्लॉगवाणी से गुजरते ’कनाडा से’ शीर्षक पर नजर गई. स्वाभाविक था क्लिक करना. पता चला अंतर्मंथन वाले डॉ टी एस दराल साहब कनाडा पधारे हैं. तुरंत उन्हें ईमेल कर मिलने की जिज्ञासा प्रकट की. जबाबी पोस्ट से फोन नम्बर आ गया. बातचीत हुई और तय हुआ कि ९ तारीख को शाम को हमारे घर खाने पर पधारेंगे.

निश्चित समय पर डॉ दराल अपने मित्र डॉ विनोद वर्मा के साथ आये. मिलकर लगा ही नहीं कि पहली बार मुलाकात हो रही है. ४-५ घंटे गप्प सटाके में यूँ गुजरे कि कब रात के १ बज गये, पता ही नहीं लगा. डॉ दराल दिल्ली हास्य हुल्लड़ २००७ के चैम्पियन रहे हैं तो उत्सुकता थी, कुछ सुनने की. उत्सुकता कुछ यूँ भी बन जाती है कि जब हम कहेंगे कि कुछ सुनाईये तो सामने वाले का भी फर्ज बन जायेगा कि कहे, आप भी कुछ सुनाईये. अंधा क्या चाहे, दो आँखे. बस, जैसे ही उन्होंने सुना कर खत्म किया और हम से निवेदन किया कि आप भी कुछ सुनाऐं, हम शुरु. हम तो बैठे ही इसी इन्तजार में थे. :)


डॉ टी एस दराल


और

डॉ दराल, समीर, डॉ वर्मा


खैर, खूब सुना-सुनाया गया. हमें तो आप सब सुनते ही रहते हैं, इसलिए आज आपको डॉ दराल को सुनवाते हैं:



आज शाम डॉक्टर साहब अपने बीस दिवसीय प्रवास के बाद भारत लौट जायेंगे और हम यहाँ बैठे उनसे हुई मुलाकात की याद सहेजे फिर कभी मुलाकात की बाट जोहते रहेंगे. यही सिलसिला है.


संशोधन: जब यह आलेख पोस्ट किया गया तो एक भीषण भूल हुई जो कि क्षमनीय तो नहीं फिर भी भूल सुधार की गई है: दरअसल डॉ टी एस दराल का नाम भूलवश डॉ टी एस दरल टंकित हो गया था, क्षमाप्रार्थी हूँ. भूल सुधार कर ली गई है.

बुधवार, जुलाई 08, 2009

बाज़ार से गुजरा था, खरीदार नहीं था -विल्स कार्ड भाग ४

पिछले दिनों विल्स कार्ड भाग १ , भाग २ और भाग ३ को सभी पाठकों का बहुत स्नेह मिला और बहुतों की फरमाईश पर यह श्रृंख्ला आगे बढ़ा रहा हूँ.

(जिन्होंने पिछले भाग न पढ़े हों उनके लिए: याद है मुझे सालों पहले, जब मैं बम्बई में रहा करता था, तब मैं विल्स नेवीकट सिगरेट पीता था. जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता......)

आज उन्हीं विल्स कार्डों में से कुछ और, एक साथ एक पुराने रबर बैण्ड से बँधे निकाले. शायद एक ही मूड के होंगे इसलिये एक साथ बाँध दिया होगा.

हमारी यादों की दराज भी तो ऐसी ही होती है, एक मूड की यादें एक बस्ते में बंद एक दराज के अंदर.

मैं मुम्बई में गिरगांव रोड, ओपेरा हाऊस के सामने चर्नी रोड पर रहा करता था एक हॉस्टल में. दक्षिण मुम्बई का व्यापारिक इलाका, मुख्य चौपाटी से लगा हुआ. जो लोग बम्बई के भूगोल से वाकिफ हैं वो समझ जायेंगे कि मैं किस इलाके में रहता था और कुछ ही दूर पर बम्बई का नजारा क्या हैं. फॉकलैण्ड रोड, पीला हाऊस, कांग्रेस हाऊस का मुज़रा, ग्राण्ट रोड़, नाज़ सिनेमा के पास लेमिंग्टन रोड का बदनाम इलाका..सब मानो मेरे हॉस्टल को घेरे ले रहे हो. टहलने निकलो तो गाड़ियों की चिल्ल पौं के बीच तबलों की थाप और घुंघरुओं की छनक.

एकदम नजदीक से देखा है -द कांग्रेस हाऊस-कैनेडी ब्रिज से लगे कोठे और उस ब्रिज पर पर घूमते दलाल, आपको आपकी हैसियत से उपर का अहसास दिलाते- क्या साहब!! एन्जॉय करना मांगता क्या? ए क्लास गर्ल!! एक अजब सा अहसास होता...गिजगिजा सा..गर्ल-ए क्लास..ये कैसी डेफिनिशन..ईश्वर ने तो ऐसे नहीं गढ़ा था.हम मानव अपनी सुविधा से कैसा वर्गीकरण कर देते हैं और सब समझने भी लगते हैं..

अब जब सब आस पास है तो कैसे न सामना हो..कभी कुछ और कभी कुछ वजह मगर काफी करीब से जाना. एक पूरा अलग सा फलसफा है इस तरह की जिन्दगी का, गर समझो तो.

हॉस्टल के करीब जो कोठा था, उसकी मालकिन से तो उस राह से आते जाते एक पहचान सी हो गई..एक अपनापन सा..उसकी ढ्योरी चढ़ने की हम हॉस्टल में रहने वालों को इजाजत न थी. वो हम हॉस्टल के लड़कों को अपना बेटा मानती. इन्सान ही तो थी, दिल रखती थी एक अलग सा..धंधे से जुदा. जाने क्यूँ और कब सब अड़ोसियों पड़ोसियों की तरह उसे मौसी बुलाने भी लगा-गंगा मौसी. मेरी नजर में तो वो बस मौसी थी और बस मौसी..एक आदरणीया..जो प्यार देना जानती थी अपने बच्चों को!!

आज भी याद करता हूँ अक्सर उस गंगा मौसी को..जाने कहाँ होगी वो. उस बाजार में अस्तित्व की उम्र बहुत थोड़ी होती है.

उसी दौरान बहुत कुछ अहसासा-कभी यूँ ही गुजरते, कभी यूँ ही सोचते और अहसास शब्द बन उतरे विल्स कार्ड पर जबकि मौसी तो हमेशा रोकती थी सिगरेट पीने को. मगर वो यादें उन्हीं विल्स कार्डों पर सहेजी गईं, शायद मौसी भी ये न जानती थी वरना कभी मना न करती.

उसी माहौल और वातावरण को मद्दे नजर रख उस दौरान लिखे गये कुछ कार्ड, चौंकियेगा मत इस अँधेरे को देख कर!! अक्सर ही उजाले में खड़े हो लोग इस अँधेरे की तरफ देखने से कतराते हैं.

अहसास करिये पाक आत्मा की भावनाओं की उसी तह को जिनसे ये उभरी हैं:

आत्मा तो हमेशा पाक होती है..
ये मुए कर्म हैं
जो परिभाषित होते हैं -
सतकर्म और दुष्कर्म में.


खिड़कियों से झांकती आँखें

और

एक जिन्दगी यह भी

*१*

कारों के चलने की आवाज
बसों की घरघराहट
उनके भोपूंओं का चिल्लाना
समुन्दर की लहरों की हुंकार
और उनके बीच
गुम होती
उस लड़की की चीख...
इस शहर में एक अजब
दम घोटूं
सन्नाटा है!!


*२*

वो
कातर निगाहें
जाने किस आशा से
खिड़की पर खड़ी
मुझे देखती रहीं ..
और
मैं
पूर्ण स्वस्थ
युवा
एकाएक
कर पाया
अपनी नपुंसकता का अहसास!!

*३*

कुछ सपने
वहाँ भी दिखते होंगे
कुछ अरमान
वहाँ भी जगते होंगे
जो दम तोड़ते होंगे
उस ६ बाई ६ के कमरे में
हर नये ग्राहक के
बोझ तले दब कर!!

हाय! कितनी छोटी उम्र है...

उन सपनों की
उन अरमानों की
बिल्कुल
उस ६ बाई ६ के
कमरे की तरह!!


*४*

वो
तबलों
और
हारमोनियम के साथ
थिरकते घुंघरुओं की आवाज..

वो फूलों की महक
और
इत्र की तीखी खुशबू..

वो खामोश उदासी..

वो मजबूरी की सड़ांध...

-बाज़ार से गुजरा हूँ आज!!


*५*

मजबूरियों की बेडियाँ

लोहे की बेडियों से

मजबूत देखी है मैने..

खिड़कियों से झांकती

कितनी ही आँखें

मजबूर देखी हैं मैने..

*६*

सोचती है

कहीं कुछ

रियाज़ में कमी होगी..

वरना

उसकी अदाओं से रीझे

सब चले आते हैं..

नहीं आती तो बस

मुई!! मौत नहीं आती...

रियाज़ कुछ बढ़ाना होगा!!


*७*


वो नाम बताती है

शमा!!

दूसरी वाली

शन्नो!!

तीसरी

लाजो!!

ये वो बाज़ार है

जहाँ तन बिकता है...

नाम में क्या रखा है?

शेक्सपीअर याद आते हैं!!

*

चित्र साभार: गुगल

रविवार, जुलाई 05, 2009

मैं नॉन प्रेक्टिकल कहलाया..निहायत फालतू!!

पिछले हफ्ते किसी परिवारिक प्रयोजन में मॉन्ट्रियल जाना हुआ.

६०० किमी की यात्रा और ड्राईविंग लगभग ५ से सवा ५ घंटे की.

पत्नी बाजू में बैठे बतियाती हुई पूरे ५ से सवा ५ घंटे जागृत रखने में सक्षम फिर भी कॉफी साथ में रख ही ली कि आराम रहेगा.

हाईवे घर से बाजू में ही है तो ५ मिनट में पहुँच गये और स्पीड पूरे १२० किमी प्रति घंटे की रफ्तार से मिलाकर सामने और पीछे वाली गाड़ी से एक समदूरी बना कर जाँच लिया कि वो भी १२० पर हैं और क्रूज लगा कर गाना सुनने में मग्न हो गये. पत्नी की समझ से उसकी बात सुनने में, जिसमें मात्र हां हूं करना ही एकमात्र उपाय है. बहस या तू तकड़ की गुँजाईश ही नहीं. (डिटेल न पूछना)

क्रूज यह सुविधा दे देता है कि जिस स्पीड पर आपने क्रूज लगा दिया, गाड़ी उसी पर चलती रहेगी. अब आपको एक्सीलेटर या ब्रेक पर पाँव धरे रहने की जरुरत नहीं. सड़कें भी अधिकतर एकदम सिधाई में चलती हैं तो स्टेरिंग पर भी एक उँगली धरे रहना पर्याप्त है.

बीच बीच में पीछे वाली गाड़ी को बैक मिरर में देख ले रहे थे और सामने वाली तो दिख ही रही थी.

सामने ट्रक था, जिसमें ढेरों सुअर लदे चले जा रहे थे और पीछे नीले रंग की पोन्टियक. एक भद्र महिला उसे चला रही थी लगभग ३५ से ४० साल के बीच की. यह उम्र यूँ हीं नहीं लिख दी है. एक लम्बा अनुभव है इसे आँकने का, कम से कम महिलाओं के मामले में. अब तक तो ९९% सही ही गया है. यह बालों की सफेदी जो आप मेरे फोटो में देखते हैं वो घूप की वजह से नहीं है. अनुभव है मित्र. धूप ने तो सिर्फ चेहरे के रंग पर कहर बरपाया है.

सुअरों से लदा ट्रक

जब बैक मिरर में नज़र डालूँ वो देखती मिले. मैं मुस्कराऊँ ( अरे, संस्कार का तकाजा है और कुछ नहीं) और वो मुस्कराये. बस, और क्या?

सामने का ट्रक- सुअर लादे, सुअर की तरह घूँ घूँ की आवाज के साथ चला जा रहा है. हालांकि खिड़कियाँ बंद होने के कारण घूँ घूँ की आवाज डिस्टर्ब नहीं कर रही थी. उसके साईड मिरर में ड्राईवर नजर आ रहा है. उम्र न जाने क्या हो, पुरुष की उम्र, मैं आँकने में सक्षम नहीं क्यूँकि पुरुष तो किसी भी उम्र में कब क्या कर गुजरे, कहना मुश्किल है. विकट मानसिकता होती है उसकी और अजब फितरत.

कुछ ही समय में एक सबंध सा स्थापित हो गया. हमसफरों को रिश्ता. कुछ दूर ही सही, तुम मेरे साथ चलो..टाईप. सामने ट्रक देखने की आदत पड़ गई और पीछे उस महिला को. अरे, उसने तो सिगरेट जला ली. मन किया कि उसे मना करुँ, यह अच्छी आदत नहीं. मगर कैसे और किस अधिकार से? फिर भी एक जुड़ाव की भावना, मात्र कुछ देर कदम से कदम मिला कर चलने पर. लगता है कि डांटूं उसे. मगर सोचता हूँ कि बड़ी हो गई है. अच्छा बुरा समझती है, क्या कहना उससे. कहते हैं कि जब बेटे के पैर में अपने जूते आने लगे तो अधिकार छोड़ उसे दोस्त मान लेने में ही भलाई है. बुढ़ापा ठीक कटेगा. यही कुछ सोच कर जाने देता हूँ.

सामने ट्र्क को देखता हूँ. सुअर लदे हैं. एक छेद से मूँह निकाले ठंडी हवा की मौज लेने की फिराक में दिखा. उसे क्या पता कि गंतव्य पर पहुँचते ही मशीन उसे फाइनल नमस्ते कहने का इन्तजार कर रही है. उस पर गुलाबी निशान है और बहुतों की तरह. शायद गुलाबी मतलब, पहला स्टॉप. तो वहीं कटेगा और फैक्टरी में से दूसरी तरफ पैकेट में पैक निकलेगा पीसेस में बिकने को.

छेद से झाँकता सुअर

वैसे ये तो हमें भी पता नहीं कि कौन सा निशान हम पर लगा है, तभी तो गाना सुनते, कॉफी पीते, पत्नी की चैं चैं (सॉरी, बातचीत) सुनते, पिछली कार में महिला को ताकते, कोई बुरी नजर से नहीं, चले जा रहे हैं खुशी खुशी.

अगर निशान कब मिटेगा पता चल जाये तो आज जीना दुभर हो जाये एक पल को भी. सही है सुअर महाराज, लूटो मजे ठंडी हवा के. मस्त है यह पावन पवन और बहती समीर!!

३०० किमी पर ऑटवा को मुड़ने का एक्जिट आता है और ट्रक निकल लेता है उस पर. हमें सीधे जाना है मांट्रियाल की तरफ. मन में एक खालीपन सा आ जाता है कि कहाँ चला गया मेरा हमसफर. जाने किस हाल में चले जा रहा होगा. खैर, मिलना, बिछुड़ना जीवन का क्रम है, यह सोच मन को मना लेता हूँ और पीछे बैक मिरर पर नजर डालता हूँ.

वो मुस्कराती है, मैं मुस्कराता हूँ. वो सिगरेट पी रही है और मैं कॉफी. उसे शायद कॉफी के खतरे मालूम होंगे और वो भी मुझे रोकना चाहती हो. कौन जाने?

१०० किमी और बीते. इस बीच चार पाँच बार झूटमूठ मुस्कराये. फिर कोबर्ग आया और वो भी निकल गई उस राह और मै अकेला..मांट्रियल गंत्वय के लिए..आगे बढ़ता..और मन गुनगुना रहा है फुरसतिया जी के मित्र ’प्रमोद तिवारी’ का गीत:

राहों में भी रिश्ते बन जाते हैं
ये रिश्ते भी मंजिल तक जाते हैं
आओ तुमको एक गीत सुनाते हैं
अपने संग थोड़ी सैर कराते हैं।..... (बाकी लिंक पर पढ़ें, सुन्दर गीत हैं)


-कहाँ जा पाये मंजिल तक..राह में ही साथ छोड़ गये. मगर यह तय है कि एक रिश्ता कायम कर गये. उन्हें तव्वजो देना या न देना, यही सारी बात तो हमारा खुद का स्वभाव निर्धारित करता है. शायद साथ की मंजिल वही रही हो.

चाहें तो उसे भूल जाये, मगर मैं नहीं भूल पाता...भूल जाना बेहतर माना जाता है...कुछ लोग इसे प्रेक्टिकल होना कहते हैं.

-मैं नॉन प्रेक्टिकल कहलाया..निहायत फालतू विचारधारा का पालक!!



रिश्तों और नातों के
बीच कुछ
इस तरह से
बंट गया हूँ मैं..
कि
खुद से..
कट गया हूँ मैं....

-समीर लाल ’समीर’