बचपन में परीक्षा की तैयारी करते थे. मास्साब सफलता का पाठ पढ़ाते थे ट्यूशन में. गुर दिया गया कि जैसे ही परचा हाथ में आये, सबसे पहले एक नजर पूरा परचा देख लो. फिर एक एक दो दो नम्बर वाले प्रश्न, जिसमें सिर्फ हाँ नहीं, छोटे छोटे जबाब देने हैं, उन्हे फटाफट कर डालो. फिर वो प्रश्न उठाओ, जिसका उत्तर तुम बखूबी से जानते हो. उन्हें फटाफट हल कर दो. अब बाकि के धीरे धीरे सोच समझ के जबाब देते जाओ. अगर किसी में फंस रहे हो, हल नहीं निकल रहा, तो जहाँ तक किया है वहीं छोड़ कर आगे अगले प्रश्न पर चले जाओ. बाद में समय बचे तो आकर फिर कोशिश करना. ध्यान रहे, जितने ज्यादा हल करोगे, उतना अच्छा परिणाम आयेगा. छूटे प्रश्न पर अंक भी शून्य मिला करते हैं. कुछ भी कोशिश की होगी तो शायद कुछ हिस्सा सही निकल जाये और परीक्षक उतने हिस्से के अंक दे दे.
उनका कहना था कि परीक्षा भी मेनेज्मेंट की बात है. टाईम मेनेज्मेंट, एक्साईटमेन्ट मेनेज्मेंट, कन्टेन्ट मेनेज्मेंट सभी लागू होते हैं. कहीं भी चूके और गये. उनके गुर हर परीक्षा में काम आये.
ऊँचे दर्जे के साथ जब कोर्स की किताबें मोटी होने लग गई तो समय तो वही २४ घंटे रहा उल्टे कॉलेज में ज्यादा समय लगने लगा. दोस्त बढ़ गये. घूमने फिरने का दायरा बढ़ गया. दीगर शौकों में समय जाने लगा. तब एक दिन उन्होंने हमें समस्या से जूझते देख एक नया गुर सिखाया-स्पीड रिडिंग-शीघ्र पठन जो रियाज के साथ साथ अतिशीघ्र पठन यानि रेपिड रिडिंग को प्राप्त हुआ. वही ध्यान तेज लेखन याने फास्ट राईटिंग की तरफ भी दिलवाया गया.
उनके शीघ्र पठन वाले गुर का भरपूर फायदा हमने उस समय नावेल पढ़ने में उठाया. वो सिखाते थे कि अगर मटेरियल सिर्फ जानकारी और मनोरंजन के लिये पढ़ा जा रहा और याद रखने की महती आवश्यक्ता नहीं है तो उसे पढ़ते वक्त शब्द शब्द नहीं, लाईन लाईन पढ़ो. पैराग्राफ नजर से स्कैन करो और आगे बढ़ो. किस विषय में है वो प्रस्तावना थोड़ा अधिक ध्यान से, व्याख्या स्कैनिंग मोड में और फिर निष्कर्ष पुनः थोड़ा ध्यान से. बस. इस तरह आप पूरा जान भी लेंगे और शब्द शब्द पढ़ने की अपेक्षाकृत १० प्रतिशत समय में आपका काम हो जायेगा. कभी कोई चीज विशेष पसंद आ जाये तो जितना चाहे लुत्फ लेकर पढ़ो. समय तुम्हारा है कौन रोक सकता है.ऐसे ही कुछ पठन, उसकी प्रस्तावना, शीर्षक और विषय देखकर भी छोड़ सकते हो कि वो आपके पसंद का नहीं हो सकता. समय बचता है. कितनी नावेल बस प्रस्तावना पढ़कर आगे नहीं पढ़ीं. कई उपन्यासकारों की शैली देखकर आपको रुचिकर नहीं लगता तो आप फिर उसका नाम देखकर दूसरी किताब पर चले जायें. ९५% आपका निर्णय सही ही होगा.
इस परीक्षा देने के, अतिशीघ्र पठन और तेज लेखन के गुरों की गठरी बना कर मैने इसका ब्लॉगजगत में पिछले एक वर्ष से खूब इस्तेमाल किया.
आज की स्थितियों में मान लिजिये, दिन की ५० पोस्ट आ रही हैं. मुझे इन ५० पोस्टों को पढ़ने और टिप्पणी करने में मात्र १ से १.३० घंटे का समय देना होता है बस!! क्या आप विश्वास करेंगे? इतना समय तो सभी चिट्ठाकार बिताते होंगे नेट पर बल्कि ज्यादा ही.
मेरा नियम होता है कि पहले मैं छोटी छोटी पोस्ट, कविता आदि निपटाऊँ. फिर समाचार, फोटो आदि और फिर बड़े गद्य. उन बड़े गद्यों में अधिकतर स्कैन मोड़ में. कुछ जो पसंद आये, उन्हें अपना समय है के अंदाज में. मगर जो भी पढ़ूँ, देखूँ या सरियायूँ (स्कैन रिडिंग का हिन्दीकरण), उस पर शीघ्र लेखन (टाईपिंग और अब तो कट पेस्ट की सुविधा हमेशा हाजिर रहती है, कुछ वाक्य वर्ड पैड में लिखकर रख लें न, क्या बार टाईप करना जब दो की स्ट्रोक में १० की स्ट्रोक निपट सकते हैं) का फायदा उठाते हुए टिप्पणी अवश्य दर्ज करुँ ताकि अगला जान सके कि उसकी मेहनत पर हमारी नजर गई है. वो आगे भी मेहनत करने का उत्साह प्राप्त करेगा और आप जब मेहनत करेंगे, तब वह भी आपको उत्साहित करने आयेगा.
२० मिनट में फ्रस्ट फेज (छोटी छोटी पोस्ट, कविता) १५ मिनट में सेकेन्ड फेज (समाचार, फोटो आदि ), १५ मिनट में बाकी स्कैनिंग (बड़े गद्यों में अधिकतर स्कैन मोड़) बाकि का समय अपना पसंदीदा इस स्कैनिंग मोड से उपलब्ध लेखन. अब यदि आप १.३० घंटा दे रहे हैं तो पसंदीदा देखने के लिये आपके पास ४० मिनट बच रहे याने कम से कम १२० लाईन...अधिकतर गद्य २० से ४० लाईन के भीतर ही होते हैं ब्लॉग पर.(अपवाद माननीय फुरसतिया जी, उस दिन अलग से समय देना होता है खुशी खुशी) तो कम से कम ४ से ५ आराम से. चलो, कम भी करो तो ३. बहुत है गहराई से एक दिन में पढने के लिये. (कुछ इस श्रेणी में भी निकल जाते हैं - कुछ पठन की प्रस्तावना, शीर्षक और विषय देखकर भी आप उसे छोड़ सकते हैं कि वो आपके पसंद का नहीं हो सकता.)
अब यदि आपके मन में प्रश्न है कि १ मिनट में दो लाईन कैसे पढ़ पायेंगे (इस स्पीड में तो लाईन याद हो जायेगी, मेरे भाई)- तो भाई मेरे, आप इस लाईन में ही गलत आ गये हो. यहाँ से तो नमस्ते कर लो और राजनीति में किस्मत आजमाओ, सफलता आपके कदम चूमेगी, यह मैं विश्वास के साथ कह सकता हूँ और मेरी शुभकामनायें तो हैं ही.
अंत में निष्कर्ष कि जितना अपने लेखन को समय दो उससे चार गुना समय पठन को दो. कोई आवश्यक नहीं कि रोज लिखें. नये लोगों को नाम देख देख कर अहसास होने लगता है कि मैं खूब लिखता हूँ मगर विश्वास जानिये मेरी एक माह में मात्र १० से ११ पोस्ट होती हैं अर्थात हफ्ते में दो से तीन का औसत. अक्सर दो ही. मगर समय वही रोज १.३० से २ घंटे औसत. किया जा सकता है इतना शौक के लिये, हिन्दी की सेवा के लिये, खुद के मन की शांति के लिये और नाम कमाने के लिये. क्या पता कल को यह भी जुड़ जाये कि कुछ कमाई के लिये.
(आशा है शास्त्री जी, ज्ञान जी और अनूप शुक्ल जी को मेरे इतना समय चिट्ठाकारी को देने का रहस्य उजागर कर मैं संतुष्ट कर पाया और यह नये लोगों के लिये भी उपयोगी सिद्ध होगा)
तो शुरु करें अपनी टिप्पणी यात्रा इसी पोस्ट से.
--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
सोमवार, अक्तूबर 29, 2007
रविवार, अक्तूबर 28, 2007
राम की चिट्ठी सीता जी के नाम
अभी २ दिन बाद वाशिंग्टन कवि सम्मेलन से लौटा १५ मिनट पहले. चिट्ठों में तो दमादम मची है. चलो, अच्छा है अच्छी परंपरा है सब खुल कर बात करते हैं. यही तो अपनापन है. आज इतनी जल्दी में कुछ लिखने को नहीं है-न ही कवि सम्मेलन की रिपोर्ट. इतने बड़े कवि सम्मेलन जिसमें मेरे अलावा (वो तो लिख जाता) अनूप भार्गव, उनकी पत्नी रजनी भार्गव (सुना है वो ही अनूप जी के लिये भी लिखती है-बकौल मानोशी-वाया फुरसतिया), राकेश खंडेलवाल, घनश्य़ाम गुप्त जी जैसे २५ लोग शिरकत कर रहे हों, वो कैसे संभव हैं...
तो आज के लिये मात्र एक आर्कुट खुदाई की रिपोर्ट पेश कर देता हूँ देवनागरी में. कल पेश कर दूँगा जो मुझसे जमाने से पूछा जा रहा है कि मैं कैसे मैनेज करता हूँ इतनी टिप्पणियां और सारे ब्लॉग पढ़ना....भई, बहुत सरल है, बस एक से ढेढ घंटा चाहिये....अजब लगा न!!! कल पढ़ना मुझे...बताता हूँ कैसे संभव है...५० ब्लॉग १.३० घंटे में निपटाना मय टिप्पणी.....तब तक यह महज मनोरंजन को पढ़ें.:
राम की चिट्ठी सीता जी के नाम पंजाबी में और कलयुग में:
प्यारी सित्ता,
मैं इत्थे राजी खुशी से हां एंड होप के तु वी ठिक ठाक होवेंगी.
लक्ष्मण तेन्नु भोत याद करदा सी.
मैं इस बंदर दे हात्थ तन्नु चिट्ठी भेज रेहा हां.
तु बिल्कुल टेन्शन न लेई मैं भोत जल्दी तेनु रावण कोलो छुड़ा लावांगा.
मैं एअरटेल दा पोस्टपेड ले लिया सी, रावण नु मैं मोबाईल ते भोत गालियाँ काड़िया ते साले ने कट दित्ता.
चल कोई नी मैने आना ता है ही. तान कुटुँगा साले कंजर नु.
मैं तेरे नाल भी एक एअरटेल का प्रीपेड भेज रिया व उस विच १५०० एस एम एस फ्री वाली स्किम हा, तु रोज मेनु एस एम एस करी.
चिन्ता न करी, जद वी गल करने नु जी करे, एक मिस काल मार दियो, मैं वापस फोन्न कर लेवागा.
तु मेरे बिल दी चिन्ता न करी, सुग्रिवा नु पेमेन्ट दा जिम्मा दे दित्ता वै.
अच्छा ओके
सी य्य्यू
विथ लव
दशरथ दा वड्डा पुत्तर ’राम
तो आज के लिये मात्र एक आर्कुट खुदाई की रिपोर्ट पेश कर देता हूँ देवनागरी में. कल पेश कर दूँगा जो मुझसे जमाने से पूछा जा रहा है कि मैं कैसे मैनेज करता हूँ इतनी टिप्पणियां और सारे ब्लॉग पढ़ना....भई, बहुत सरल है, बस एक से ढेढ घंटा चाहिये....अजब लगा न!!! कल पढ़ना मुझे...बताता हूँ कैसे संभव है...५० ब्लॉग १.३० घंटे में निपटाना मय टिप्पणी.....तब तक यह महज मनोरंजन को पढ़ें.:
राम की चिट्ठी सीता जी के नाम पंजाबी में और कलयुग में:
प्यारी सित्ता,
मैं इत्थे राजी खुशी से हां एंड होप के तु वी ठिक ठाक होवेंगी.
लक्ष्मण तेन्नु भोत याद करदा सी.
मैं इस बंदर दे हात्थ तन्नु चिट्ठी भेज रेहा हां.
तु बिल्कुल टेन्शन न लेई मैं भोत जल्दी तेनु रावण कोलो छुड़ा लावांगा.
मैं एअरटेल दा पोस्टपेड ले लिया सी, रावण नु मैं मोबाईल ते भोत गालियाँ काड़िया ते साले ने कट दित्ता.
चल कोई नी मैने आना ता है ही. तान कुटुँगा साले कंजर नु.
मैं तेरे नाल भी एक एअरटेल का प्रीपेड भेज रिया व उस विच १५०० एस एम एस फ्री वाली स्किम हा, तु रोज मेनु एस एम एस करी.
चिन्ता न करी, जद वी गल करने नु जी करे, एक मिस काल मार दियो, मैं वापस फोन्न कर लेवागा.
तु मेरे बिल दी चिन्ता न करी, सुग्रिवा नु पेमेन्ट दा जिम्मा दे दित्ता वै.
अच्छा ओके
सी य्य्यू
विथ लव
दशरथ दा वड्डा पुत्तर ’राम
बुधवार, अक्तूबर 24, 2007
हद करती हैं ये लड़कियाँ भी...
(यह संस्मरणात्मक आलेख मेरे पिछले आलेख ’दो जूतों की सुरक्षित दूरी’ वाले आलेख पर आये कई जिज्ञासु पाठकों की उस जिज्ञासा निवारण के लिये लिखा जा रहा है जिसमें पूछा गया है कि हे गुरुवर, सुकन्या के पीछे चलते वक्त दो जूते की सुरक्षित दूरी का ज्ञान तो आपने दे दिया किन्तु उनके बाजू में चलने/बैठने के विषय में भी हमारा कुछ ज्ञानवर्धन करें. )
आज दफ्तर जाते समय थोड़ा सजने (यहाँ की भाषा में-ड्रेस अप) का मन हो लिया. होता है कभी कभी. युवा मन है, मचल उठता है. मैं भी बुरा नहीं मानता, मेरा ही तो है.
टॉमी की सफेद कमीज, कालर से झांकती लाल पट्टी वाली, जिसे मैं खास मौकों पर पहनता हूँ. लोगों ने बताया है कि इसमें मैं बहुत स्मार्ट नजर आता हूँ.
साथ में काली फुल पेन्ट, काले मोजे, सॉलिड पॉलिश किये लगभग नये से पिछले साल कानपुर से खरीदे जूते. थोड़ा पाउडर भी लगा लिया चेहरे पर और फिर फाईनल टच-अज़ारो का परफ्यूम-वाह. कभी उसका विज्ञापन देखना. उसमे बताया है कि महक ऐसी कि रुप खिंचा खिंचा चला आये. जब भी लगाता हूँ लोग पूछते हैं कि आज कौन सा परफ्यूम लगाया है. बड़े इम्प्रेस होते हैं. मुझे तो मालूम नहीं था, विज्ञापन में देखा था और लोगों ने बताया है.
निकलते निकलते वो काला चश्मा, वाह!! कितने ही लोग कह चुके हैं कि बहुत फबता है मेरे उपर. तभी तो अपना फोटो उसी चश्में को पहन कर खिंचाई है.
आकर ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गया हूँ. बाजू की सीट खाली है. बैग से परसाई जी की किताब ‘माटी कहे कुम्हार से’ निकाल कर पढ़ने लगता हूँ.
अगले ही स्टेशन मेरे बाजू वाली सीट एक सुपात्र को प्राप्त हुई. एक सुन्दर युवती, उम्र तो जरुर रही होगी गुजरते योवन वाली ३७-३८ वर्ष, मगर वह उसे ३० पार न होने देने के लिये सफलतापूर्वक संघर्षरत थी. उसके जज्बे और सफलता को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ. यह सजगता और यह संघर्ष का जज्बा हर स्त्री पुरुष में रहना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है.
उसने अपने आप को व्यवस्थित किया. मैने कनखियों से देखा था. मैं किताब पढ़ता रहा.
तब तक एकाएक बोली-’हैलो, कैसे हैं आप?"
आह्हा!! परफ्यूम का कमाल- रुप खिंचा खिंचा चला आये. मगर वह पूछते समय भी अपनी नजर सामने अखबार में गड़ाई रही. मैं समझ गया, संस्कारी कन्या है, नहीं चाहती कि किसी और को पता चले कि मुझसे बात कर रही है.
मैने भी किताब में ही झूठमूठ मन लगाये सकुचाते हुये कहा, "जी, मैं ठीक हूँ और आप?"
वो कहने लगी, "कब से सोच रही थी मगर आज बात हो पाई."
ह्म्म!! जरुर सफेद शर्ट लाल पट्टी के साथ कमाल दिखा रही है. लोग सही ही कह रहे थे. मैने धीरे से फुसफुसाते लहजे में ही कहा, "जी, चलिये कम से कम आज सिलसिला तो शुरु हुआ." मैं भी संस्कारी हूँ इसलिये फुसफुसा कर कहा.
वो हंसी. मैं मुस्कराया.
उसने कहा, "लंच पर मिलोगे?"
मैने कहा, ’जरुर, कहाँ मिलना है?" मुझे लगा कि जरुर चश्मे ने भी गजब ढ़हाया होगा. बाकी तो लंच पर मिलने पर उसका क्या हाल होगा जब मैं बताऊँगा कि मैं चिट्ठाकार हूँ और सन २००६-०७ का तरकश स्वर्ण कमल और इंडी ब्लॉगीज पुरुस्कार से नवाजा गया हूँ. यू ट्यूब के कवि सम्मेलन के विडियो लिंक जो दूँगा तो फूली न समायेगी कि किस सेलेब्रेटी से मुलाकात हो ली है.
वो बोली, "ठीक है, वहीं मिलते हैं जहाँ पिछली बार मिले थे. ठीक दो बजे."
अब मुझे लगा कि कुछ क्न्फ्यूजन है. मैं कब मिला इन मोहतरमा से. मैने उनकी तरफ पहली बार मूँह फिराया तो देखा वो कान में फंसाने वाले मोबाईल (अरे, ब्लू टूथ) पर किसी से बात करती हुई हंस रही थी. हद हो गई और मैं समझता रहा कि मुझसे बात चल रही है. एकाएक उसने मेरी तरफ मुखातिब होकर पूछा-"आपने कुछ कहा?"
मैने कहा,"नहीं तो."
अरे, मैं क्यूँ कुछ कहूँगा किसी अजनबी औरत से-अच्छा खासा शादीशुदा दो जवान बेटों का बाप-ऐसा सालिड एक्सक्यूज होते हुए भी. बस, समझो. किसी तरह बच निकले.वो तो लफड़ा मचा नहीं वरना तो सुरक्षाकवच ऐसे ऐसे थे कि जबाब न देते बनता उनसे. मैं तो तैयार ही था कहने को कि हम भारतीय है. हमारी संस्कृति में विवाहित महिलाये ऐसी नहीं होती कि पूछती फिरें –आपने कुछ कहा? अरे, हमारे यहाँ तो सही में भी अपरिचित महिला से कुछ पूछ लो तो कट के सर झुका के लज्जावश निकल लेती है. लज्जा को नारी के गहने का दर्जा दिया गया है. उस संस्कृति से आते हैं हम. तुम क्या जानो.
हद है भाई!! अफसोस होता है.
मैं तो खुश नहीं हूँ इन छोटे छोटे मोबाईल फोनों के आने से. ससूरे, साफ साफ दिखते भी नहीं हैं और कन्फ्यूजन क्रियेट करते हैं. आग लगे ऐसे छोटे मोबाईल के फैशन में.
सीख (ध्यान से पढ़ें): यदि कोई अजनबी सुन्दर कन्या, जो जन्म से अंधी नहीं है, आपकी काया, रंगरुप और उम्र की गवाही देते खिचड़ी बालों की प्रदर्शनी को देखते हुये भी, खुद से बढ़कर, आपसे अनायास अकारण आकर्षित होते हुये बात प्रारंभ करे (इस बात के होने की संभावना से कहीं ज्यादा प्रबल संभावना इस बात की है कि आप पर आकाश से बिजली गिर गई और आप सदगति को प्राप्त हुए (इस तरह की सदगति की संभावना करोंड़ों में एक आंकी गई है ज्ञानियों के द्वारा)), तब आप कम से कम दो बार उसे देखें और न हो तो बिना शरमाये पूछ लें कि क्या वो आप से मुखातिब हैं? कोई बुराई नहीं है पहले पूछ लेने में बनिस्पत कि बात में बेवकूफ बन इधर उधर बगलें ताकने के)
(प्रिय जिज्ञासु पाठक, यही ज्ञान आगे आगे चलने में भी काम आयेगा. जब आपको लगे कि पीछे से उसने आपको आवाज लगाई है. :))
पुनश्चः: मेरी व्यक्तिगत सुरक्षा की दृष्टी से इस कथा को काल्पनिक ही माना जाये.
आज दफ्तर जाते समय थोड़ा सजने (यहाँ की भाषा में-ड्रेस अप) का मन हो लिया. होता है कभी कभी. युवा मन है, मचल उठता है. मैं भी बुरा नहीं मानता, मेरा ही तो है.
टॉमी की सफेद कमीज, कालर से झांकती लाल पट्टी वाली, जिसे मैं खास मौकों पर पहनता हूँ. लोगों ने बताया है कि इसमें मैं बहुत स्मार्ट नजर आता हूँ.
साथ में काली फुल पेन्ट, काले मोजे, सॉलिड पॉलिश किये लगभग नये से पिछले साल कानपुर से खरीदे जूते. थोड़ा पाउडर भी लगा लिया चेहरे पर और फिर फाईनल टच-अज़ारो का परफ्यूम-वाह. कभी उसका विज्ञापन देखना. उसमे बताया है कि महक ऐसी कि रुप खिंचा खिंचा चला आये. जब भी लगाता हूँ लोग पूछते हैं कि आज कौन सा परफ्यूम लगाया है. बड़े इम्प्रेस होते हैं. मुझे तो मालूम नहीं था, विज्ञापन में देखा था और लोगों ने बताया है.
निकलते निकलते वो काला चश्मा, वाह!! कितने ही लोग कह चुके हैं कि बहुत फबता है मेरे उपर. तभी तो अपना फोटो उसी चश्में को पहन कर खिंचाई है.
आकर ट्रेन में खिड़की के पास वाली सीट पर बैठ गया हूँ. बाजू की सीट खाली है. बैग से परसाई जी की किताब ‘माटी कहे कुम्हार से’ निकाल कर पढ़ने लगता हूँ.
अगले ही स्टेशन मेरे बाजू वाली सीट एक सुपात्र को प्राप्त हुई. एक सुन्दर युवती, उम्र तो जरुर रही होगी गुजरते योवन वाली ३७-३८ वर्ष, मगर वह उसे ३० पार न होने देने के लिये सफलतापूर्वक संघर्षरत थी. उसके जज्बे और सफलता को देखकर मैं बहुत प्रसन्न हुआ. यह सजगता और यह संघर्ष का जज्बा हर स्त्री पुरुष में रहना चाहिये, ऐसा मेरा मानना है.
उसने अपने आप को व्यवस्थित किया. मैने कनखियों से देखा था. मैं किताब पढ़ता रहा.
तब तक एकाएक बोली-’हैलो, कैसे हैं आप?"
आह्हा!! परफ्यूम का कमाल- रुप खिंचा खिंचा चला आये. मगर वह पूछते समय भी अपनी नजर सामने अखबार में गड़ाई रही. मैं समझ गया, संस्कारी कन्या है, नहीं चाहती कि किसी और को पता चले कि मुझसे बात कर रही है.
मैने भी किताब में ही झूठमूठ मन लगाये सकुचाते हुये कहा, "जी, मैं ठीक हूँ और आप?"
वो कहने लगी, "कब से सोच रही थी मगर आज बात हो पाई."
ह्म्म!! जरुर सफेद शर्ट लाल पट्टी के साथ कमाल दिखा रही है. लोग सही ही कह रहे थे. मैने धीरे से फुसफुसाते लहजे में ही कहा, "जी, चलिये कम से कम आज सिलसिला तो शुरु हुआ." मैं भी संस्कारी हूँ इसलिये फुसफुसा कर कहा.
वो हंसी. मैं मुस्कराया.
उसने कहा, "लंच पर मिलोगे?"
मैने कहा, ’जरुर, कहाँ मिलना है?" मुझे लगा कि जरुर चश्मे ने भी गजब ढ़हाया होगा. बाकी तो लंच पर मिलने पर उसका क्या हाल होगा जब मैं बताऊँगा कि मैं चिट्ठाकार हूँ और सन २००६-०७ का तरकश स्वर्ण कमल और इंडी ब्लॉगीज पुरुस्कार से नवाजा गया हूँ. यू ट्यूब के कवि सम्मेलन के विडियो लिंक जो दूँगा तो फूली न समायेगी कि किस सेलेब्रेटी से मुलाकात हो ली है.
वो बोली, "ठीक है, वहीं मिलते हैं जहाँ पिछली बार मिले थे. ठीक दो बजे."
अब मुझे लगा कि कुछ क्न्फ्यूजन है. मैं कब मिला इन मोहतरमा से. मैने उनकी तरफ पहली बार मूँह फिराया तो देखा वो कान में फंसाने वाले मोबाईल (अरे, ब्लू टूथ) पर किसी से बात करती हुई हंस रही थी. हद हो गई और मैं समझता रहा कि मुझसे बात चल रही है. एकाएक उसने मेरी तरफ मुखातिब होकर पूछा-"आपने कुछ कहा?"
मैने कहा,"नहीं तो."
अरे, मैं क्यूँ कुछ कहूँगा किसी अजनबी औरत से-अच्छा खासा शादीशुदा दो जवान बेटों का बाप-ऐसा सालिड एक्सक्यूज होते हुए भी. बस, समझो. किसी तरह बच निकले.वो तो लफड़ा मचा नहीं वरना तो सुरक्षाकवच ऐसे ऐसे थे कि जबाब न देते बनता उनसे. मैं तो तैयार ही था कहने को कि हम भारतीय है. हमारी संस्कृति में विवाहित महिलाये ऐसी नहीं होती कि पूछती फिरें –आपने कुछ कहा? अरे, हमारे यहाँ तो सही में भी अपरिचित महिला से कुछ पूछ लो तो कट के सर झुका के लज्जावश निकल लेती है. लज्जा को नारी के गहने का दर्जा दिया गया है. उस संस्कृति से आते हैं हम. तुम क्या जानो.
हद है भाई!! अफसोस होता है.
मैं तो खुश नहीं हूँ इन छोटे छोटे मोबाईल फोनों के आने से. ससूरे, साफ साफ दिखते भी नहीं हैं और कन्फ्यूजन क्रियेट करते हैं. आग लगे ऐसे छोटे मोबाईल के फैशन में.
सीख (ध्यान से पढ़ें): यदि कोई अजनबी सुन्दर कन्या, जो जन्म से अंधी नहीं है, आपकी काया, रंगरुप और उम्र की गवाही देते खिचड़ी बालों की प्रदर्शनी को देखते हुये भी, खुद से बढ़कर, आपसे अनायास अकारण आकर्षित होते हुये बात प्रारंभ करे (इस बात के होने की संभावना से कहीं ज्यादा प्रबल संभावना इस बात की है कि आप पर आकाश से बिजली गिर गई और आप सदगति को प्राप्त हुए (इस तरह की सदगति की संभावना करोंड़ों में एक आंकी गई है ज्ञानियों के द्वारा)), तब आप कम से कम दो बार उसे देखें और न हो तो बिना शरमाये पूछ लें कि क्या वो आप से मुखातिब हैं? कोई बुराई नहीं है पहले पूछ लेने में बनिस्पत कि बात में बेवकूफ बन इधर उधर बगलें ताकने के)
(प्रिय जिज्ञासु पाठक, यही ज्ञान आगे आगे चलने में भी काम आयेगा. जब आपको लगे कि पीछे से उसने आपको आवाज लगाई है. :))
पुनश्चः: मेरी व्यक्तिगत सुरक्षा की दृष्टी से इस कथा को काल्पनिक ही माना जाये.
रविवार, अक्तूबर 21, 2007
कृप्या दो जूते की सुरक्षित दूरी बनाये रखें...
बुजुर्ग कहते हैं जीवन एक पाठशाला है जहाँ व्यक्ति रोज कुछ नया सीखता है.
सच कहते हैं. बुजुर्ग वैसे भी जो कुछ कह गये वो सच ही कह गये हैं. उनको तो कुछ झेलना था नहीं. कहा और निकल लिये और अब आप उनका कहा पालन करिये और झेलिये.
बड़ी मुश्किल यह है कि जो भी कह गये आधा कह गये हमेशा. सेफ प्ले किया.
देखिये, एक दिन आलोक पुराणिक ज्ञान बीड़ी जलाये बैठे थे कि बुजुर्ग कह गये-’झूठ बोले कौव्वा काटे’ . आगे कुछ नहीं कह गये और चले गये. सच बोले तो?? कहते हैं कि झूठ बोलने पर सिर्फ कौव्वा काटता है और सच बोलने पर सांप, जैसे कि सत्यवादी हरीश चन्द्र जी के लड़के को काट गया.
कह गये ’नेकी कर दरिया में डाल’-कहा और चले गये. बताया ही नही कि चालबाजी कर और तिजोरी भर. वो तो भला हो बिगडैल औलादों का, जिन्हें हम नेता के नाम से जानते हैं, जिन्हें सिद्धान्तः बड़े बुजुर्गों की बात के विपरीत ही जाना है. उन्होंने बाकी आधे को ईजाद कर दिखाया. चालबाजी कर और तिजोरी भर. नेताओं का समाज पर यह उपकार कभी नहीं भुलाया जा सकेगा.
भुलाया तो गुण्डों का भी नहीं जा सकेगा जिन्होंने इस अधूरी दास्तान को पूरा किया. कहा गया कि ’इज्जत दो इज्जत मिलेगी’.आगे भाई लोगों ने पूरा किया कि दम दो, धमकाओ, बंदा पैर पर गिर पड़ेगा और पैसा मिलेगा सो बोनस.
खैर वापस आते हैं ’जीवन एक पाठशाला है जहाँ व्यक्ति रोज कुछ नया सीखता है.’
हम तो उपर की दोनों श्रेणी, नेता और गुण्डा में नहीं आ पाये हैं अभी तक. हालांकि कोशिश जारी है और मन भी बहुत करता है. इसलिये जैसा बताया गया, मान लिया. आज नया सीख कर लौटे हैं जीवन की पाठशाला से, तो बाँटे दे रहे हैं.
हुआ यह कि स्टेशन की सीढ़ियां चढ़ रहा था. सामने एक सुकन्या-तीन इंच की पैन्सिल हील पहने बड़ी ही अदा से चढ़ रही थी. वो एक सीढ़ी पर और हम अगली पर-एकदम पीछे. अदाकारी न चाहते हुये भी दिख ही जा रही थी. एकाएक न जाने क्या हुआ कि मोहतरमा का एक पैर हल्का सा गलत पड़ा और जूता पैर का साथ छोड़ हवा में होता हुआ हमारे मुँह पर. हद हो गई. बिना छेड़े पिट लिये. एक सुन्दर पत्नी के पति और दो जवान लड़कों के बाप के मुँह पर एक विदेशी सुकन्या का तीन इंच हील का जूता सीधे तड़ाक से. हम सन्न. कन्या सन्न. फिर न जाने क्या हुआ-उसने बिना अपनी गल्ती के भी माफी मांगी, हमने पिटने के बाद भी, उन्हें रिवाज के मुताबिक सुकन्या होने का फायदा देते हुये मुस्कराते हुए माफ कर दिया. बस, जीवन की इस पाठशाला में एक नया अध्याय पढ़ लिया, सीख लिया, कंठस्थ कर लिया.
’जब भी किसी सुकन्या के पीछे चलिये, कृप्या दो जूते की सुरक्षित दूरी बनाये रखें’ अर्थात कम से कम दो सीढ़ी पीछे चढ़ो.
बरफ से नाँक सेकते हुए सोचा कि आपको भी बताता चलूँ ताकि सनद रहे और वक्त पर आपके काम आये. यह सीख मेरे उन नौजवान साथियों को ज्यादा काम आयेगी जो कुछ ज्यादा ही नजदीक चलते हैं सुकन्याओं के पीछे. :)
सच कहते हैं. बुजुर्ग वैसे भी जो कुछ कह गये वो सच ही कह गये हैं. उनको तो कुछ झेलना था नहीं. कहा और निकल लिये और अब आप उनका कहा पालन करिये और झेलिये.
बड़ी मुश्किल यह है कि जो भी कह गये आधा कह गये हमेशा. सेफ प्ले किया.
देखिये, एक दिन आलोक पुराणिक ज्ञान बीड़ी जलाये बैठे थे कि बुजुर्ग कह गये-’झूठ बोले कौव्वा काटे’ . आगे कुछ नहीं कह गये और चले गये. सच बोले तो?? कहते हैं कि झूठ बोलने पर सिर्फ कौव्वा काटता है और सच बोलने पर सांप, जैसे कि सत्यवादी हरीश चन्द्र जी के लड़के को काट गया.
कह गये ’नेकी कर दरिया में डाल’-कहा और चले गये. बताया ही नही कि चालबाजी कर और तिजोरी भर. वो तो भला हो बिगडैल औलादों का, जिन्हें हम नेता के नाम से जानते हैं, जिन्हें सिद्धान्तः बड़े बुजुर्गों की बात के विपरीत ही जाना है. उन्होंने बाकी आधे को ईजाद कर दिखाया. चालबाजी कर और तिजोरी भर. नेताओं का समाज पर यह उपकार कभी नहीं भुलाया जा सकेगा.
भुलाया तो गुण्डों का भी नहीं जा सकेगा जिन्होंने इस अधूरी दास्तान को पूरा किया. कहा गया कि ’इज्जत दो इज्जत मिलेगी’.आगे भाई लोगों ने पूरा किया कि दम दो, धमकाओ, बंदा पैर पर गिर पड़ेगा और पैसा मिलेगा सो बोनस.
खैर वापस आते हैं ’जीवन एक पाठशाला है जहाँ व्यक्ति रोज कुछ नया सीखता है.’
हम तो उपर की दोनों श्रेणी, नेता और गुण्डा में नहीं आ पाये हैं अभी तक. हालांकि कोशिश जारी है और मन भी बहुत करता है. इसलिये जैसा बताया गया, मान लिया. आज नया सीख कर लौटे हैं जीवन की पाठशाला से, तो बाँटे दे रहे हैं.
हुआ यह कि स्टेशन की सीढ़ियां चढ़ रहा था. सामने एक सुकन्या-तीन इंच की पैन्सिल हील पहने बड़ी ही अदा से चढ़ रही थी. वो एक सीढ़ी पर और हम अगली पर-एकदम पीछे. अदाकारी न चाहते हुये भी दिख ही जा रही थी. एकाएक न जाने क्या हुआ कि मोहतरमा का एक पैर हल्का सा गलत पड़ा और जूता पैर का साथ छोड़ हवा में होता हुआ हमारे मुँह पर. हद हो गई. बिना छेड़े पिट लिये. एक सुन्दर पत्नी के पति और दो जवान लड़कों के बाप के मुँह पर एक विदेशी सुकन्या का तीन इंच हील का जूता सीधे तड़ाक से. हम सन्न. कन्या सन्न. फिर न जाने क्या हुआ-उसने बिना अपनी गल्ती के भी माफी मांगी, हमने पिटने के बाद भी, उन्हें रिवाज के मुताबिक सुकन्या होने का फायदा देते हुये मुस्कराते हुए माफ कर दिया. बस, जीवन की इस पाठशाला में एक नया अध्याय पढ़ लिया, सीख लिया, कंठस्थ कर लिया.
’जब भी किसी सुकन्या के पीछे चलिये, कृप्या दो जूते की सुरक्षित दूरी बनाये रखें’ अर्थात कम से कम दो सीढ़ी पीछे चढ़ो.
बरफ से नाँक सेकते हुए सोचा कि आपको भी बताता चलूँ ताकि सनद रहे और वक्त पर आपके काम आये. यह सीख मेरे उन नौजवान साथियों को ज्यादा काम आयेगी जो कुछ ज्यादा ही नजदीक चलते हैं सुकन्याओं के पीछे. :)
गुरुवार, अक्तूबर 18, 2007
मीर की गज़ल सा.......
आज कुछ ऐसे ही लिख देने का मन हुआ. देखिये, आपको कैसा लगा!!!
मीर की गज़ल सा.......
गांव की
गली के उस नुक्कड पर
बरगद की छांव तले
माई बेरी की ढ़ेरी लगाती थी
हम सब उसे नानी कहते थे.
सड़क पार कोठरी मे रहती थी
कम पैसे रहने पर भी
बेर न कम करती....
हमेशा मुस्कराती.
पिछली बार जब भारत गया
तब कहानियां हवा में थी..
सुना है वो पेड़ कट गया
उसी शाम
माई नही रही.....
अब वहाँ पेड़ की जगह मॉल बनेगा
और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शोचालय कहलाती है.
-मेरा बचपन खत्म हुआ!!!!!!
कुछ बुढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!
मीर की गज़ल सा................
--समीर लाल ’समीर’
मीर की गज़ल सा.......
गांव की
गली के उस नुक्कड पर
बरगद की छांव तले
माई बेरी की ढ़ेरी लगाती थी
हम सब उसे नानी कहते थे.
सड़क पार कोठरी मे रहती थी
कम पैसे रहने पर भी
बेर न कम करती....
हमेशा मुस्कराती.
पिछली बार जब भारत गया
तब कहानियां हवा में थी..
सुना है वो पेड़ कट गया
उसी शाम
माई नही रही.....
अब वहाँ पेड़ की जगह मॉल बनेगा
और सड़क पार माई की कोठरी
अब सुलभ शोचालय कहलाती है.
-मेरा बचपन खत्म हुआ!!!!!!
कुछ बुढ़ा सा लग रहा हूँ मैं!!
मीर की गज़ल सा................
--समीर लाल ’समीर’
मंगलवार, अक्तूबर 16, 2007
हे कुत्ता जी महाराज, विधायक को आ जाने दो!!!
हे कुता जी महाराज, आज न काटना. विधायक जी शहर के बाहर हैं. यह आम पुकार आपको शीघ्र गली मुहल्ले नुक्कड़ पर जल्द ही सुनाई देने लगेगी.
सुना था कुता काट खाये तो चौदह मोटे मोटे इंजेक्शन पेट में लगवाना पड़ते हैं और उस कुत्ते को, जिसने काटा है, खोज करके उस पर नजर रखनी होती है. अगर चौदह दिन में वो मर गया तब मामला मोटा हो गया समझो. तब लोग जिस कुत्ते ने काटा उस पर और उसके चारों ओर नजर दौड़ाते थे उसके हाव भाव देखने के लिये.
आज मामला बदल गया है. कुत्ता काट ले तो कुत्ते पर तो बाद में नजर रखी जायेगी और क्षेत्र के विधायक पर पहले. अगर विधायक नहीं मिला तो मरना तय ही समझो. कुत्ता न मिले चल जायेगा. आज कुत्ते के काटने पर उससे ज्यादा इम्पोर्टेन्ट विधायक जी हो गये हैं. और कुत्ते से उपर उन्हें सम्मान नवाजने का कार्य किया है झारखण्ड सरकार ने. अभी अभी समचार सुनता था जिसमें झारखण्ड सरकार ने नया निर्णय लिया है:
अगर किसी को कुत्ता काट ले तो उसे इन्जेक्शन लगाने के पहले क्षेत्रिय विधायक की मंजूरी की आवश्यक्ता होगी.
हद है. कुत्ता काट ले और विधायक महोदय विधान सभा का सत्र अटेन्ड करने राजधानी में हों, तब तो फिर भी पकड़ सकते हैं मगर यदि वो अपनी उन के साथ सिंगापुर घूम रहे हों या किसी अज्ञात स्थली के भ्रमण पर हों, तब??
बस एक ही रास्ता बचेगा कि कुत्ते की पूजा की जाये कि हे प्रभु, विधायक महोदय के आने तक न काटना या मरना. एक बार जब वो तुम्हारा स्थान ले लें फिर चाहे तुम मरो या जिओ, कोई अंतर नहीं पड़ता.
किसी ने पूछ ही लिया कि जैसे ही कुत्ते ने आपको काटा, आपके मन में क्या आया? आपको किसकी याद आई?
अनायास ही मेरे मुँह से निकल पड़ा-मुझे विधायक महोदय की याद आई!!
क्या बात है कि काटे कुत्ता और गाली निकले विधायक के लिये कि इस समय कहाँ निकल गये.
यूँ तो सही है कि दोनों ही ढ़ूँढ़े नहीं मिलते वक्त पर.
वैसे तो यह भी शास्वत सत्य है कि नेता मौके पर नहीं मिलते. सिद्ध करना चाहते हैं तो कुत्ते से कटवा कर देख लिजिये. विधायक जी शहर में नहीं मिलेंगे.
फिर भी महा-मृत्युंजय जाप की तरह, इस दोहे को गुनगुनाते हुए गलियों में घूमने में कोई बुराई नहीं है:
कुता जब भी काट ले, बस इतना रखना ध्यान
एमएलए हो शहर में और फोन रखा हो ऑन.
या ऐसा कुछ शेर पढ़ना:
विधायक जी जबसे गये हैं,
मैं कुत्ते से डरने लगा हूँ.......
--अभी सोचता हूँ कि सरकार को किस बात ने प्रेरित किया होगा ऐसा विधेयक लाने के लिये. और कोई भी तो काम का काम होगा करने को. आप कुछ सोच सकते हैं क्या??
सुना था कुता काट खाये तो चौदह मोटे मोटे इंजेक्शन पेट में लगवाना पड़ते हैं और उस कुत्ते को, जिसने काटा है, खोज करके उस पर नजर रखनी होती है. अगर चौदह दिन में वो मर गया तब मामला मोटा हो गया समझो. तब लोग जिस कुत्ते ने काटा उस पर और उसके चारों ओर नजर दौड़ाते थे उसके हाव भाव देखने के लिये.
आज मामला बदल गया है. कुत्ता काट ले तो कुत्ते पर तो बाद में नजर रखी जायेगी और क्षेत्र के विधायक पर पहले. अगर विधायक नहीं मिला तो मरना तय ही समझो. कुत्ता न मिले चल जायेगा. आज कुत्ते के काटने पर उससे ज्यादा इम्पोर्टेन्ट विधायक जी हो गये हैं. और कुत्ते से उपर उन्हें सम्मान नवाजने का कार्य किया है झारखण्ड सरकार ने. अभी अभी समचार सुनता था जिसमें झारखण्ड सरकार ने नया निर्णय लिया है:
अगर किसी को कुत्ता काट ले तो उसे इन्जेक्शन लगाने के पहले क्षेत्रिय विधायक की मंजूरी की आवश्यक्ता होगी.
हद है. कुत्ता काट ले और विधायक महोदय विधान सभा का सत्र अटेन्ड करने राजधानी में हों, तब तो फिर भी पकड़ सकते हैं मगर यदि वो अपनी उन के साथ सिंगापुर घूम रहे हों या किसी अज्ञात स्थली के भ्रमण पर हों, तब??
बस एक ही रास्ता बचेगा कि कुत्ते की पूजा की जाये कि हे प्रभु, विधायक महोदय के आने तक न काटना या मरना. एक बार जब वो तुम्हारा स्थान ले लें फिर चाहे तुम मरो या जिओ, कोई अंतर नहीं पड़ता.
किसी ने पूछ ही लिया कि जैसे ही कुत्ते ने आपको काटा, आपके मन में क्या आया? आपको किसकी याद आई?
अनायास ही मेरे मुँह से निकल पड़ा-मुझे विधायक महोदय की याद आई!!
क्या बात है कि काटे कुत्ता और गाली निकले विधायक के लिये कि इस समय कहाँ निकल गये.
यूँ तो सही है कि दोनों ही ढ़ूँढ़े नहीं मिलते वक्त पर.
वैसे तो यह भी शास्वत सत्य है कि नेता मौके पर नहीं मिलते. सिद्ध करना चाहते हैं तो कुत्ते से कटवा कर देख लिजिये. विधायक जी शहर में नहीं मिलेंगे.
फिर भी महा-मृत्युंजय जाप की तरह, इस दोहे को गुनगुनाते हुए गलियों में घूमने में कोई बुराई नहीं है:
कुता जब भी काट ले, बस इतना रखना ध्यान
एमएलए हो शहर में और फोन रखा हो ऑन.
या ऐसा कुछ शेर पढ़ना:
विधायक जी जबसे गये हैं,
मैं कुत्ते से डरने लगा हूँ.......
--अभी सोचता हूँ कि सरकार को किस बात ने प्रेरित किया होगा ऐसा विधेयक लाने के लिये. और कोई भी तो काम का काम होगा करने को. आप कुछ सोच सकते हैं क्या??
रविवार, अक्तूबर 14, 2007
वो जो लिखता है न!! वो मैं नहीं हूँ.
वो जो है न!! वो ख्वाबों की रहस्यमयी दुनिया में भटकने वाला, यथार्थ से दूर चाँद तारों में अपनी माशूका को तलाशता, हवाओं मे संगीत लहरी खोजता. उसे बासंती झूलों में प्रेयसी के संग प्रेम गीत गुनगुनाते हुए पैंग मारना पसंद है. उसे सागर की लहरें भाती हैं, फूलों की खुशबू लुभाती है.वो हरियाली को निहारता है- वो कवि है, शायद गीतकार या सिर्फ एक लेखक.वो अपने लेखन सृजन से मुदित मुस्कराता है. खुश होता है.
वो जो है न!! वो लिखता है-संभल संभल कर, शब्द चुन चुन कर ताकि लोग उसे पढ़े, पसंद करें. वो अपनी बातों को न जाने कितनी कसौटियों में कसता है, तब कहता है, बिल्कुल बनावटी. हर वक्त एक ही चाह, उसकी वाह वाही हो. वो और लिखे. उसे वो लिखना होता है जो औरों के मन को भाये.
वो जो है न!! वो समाज पर पैनी नजर रखता है. दिन में सोता और रातों को जागता है. उसे रह रह कर अपने गुजरे वक्त की सुनहरी यादें सालती हैं और वो उन्हें सहेज सहेज कर सजाता है कभी कविता के माध्यम से तो कभी लेखों में परोसने के लिये.
मैं एक जिंदा आदमी हूँ और जिन्दा रहने की मशक्कत वो क्या जानेगा.
मेरा परिवार मेरी धूरी है, जिसके इर्द गिर्द मैं कोल्हू के बैल की तरह सारा दिन घूमता हूँ. गोल गोल. कोल्हू से उठती आवाज ही मेरा संगीत है और चक्करों की संख्या मेरा लक्ष्य. जितने चक्कर काटूँगा, जितनी देर इन आवाजों को सुनता रहूँगा, उतनी देर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहूँगा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना ही तो मेरा कर्तव्य है:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
कोल्हू से उठती यही ध्वनि मेरा संगीत है. मुझे जिन्दगी की आपा धापी में इतना समय ही कहाँ कि मैं उन पलों को सोच भी सकूँ जिनको मैं इतना पीछे छोड़ आया हूँ. उनकी सुहानी यादों में खो जाऊँ. हवाओं के गीत सुनूँ. हरियाली को निहारुँ. लिखने-परोसने का तो प्रश्न ही नहीं. कभी यादें आ भी जाती हैं तो इतनी क्षणिक कि झटक देता हूँ उन्हें. मेरा हर कदम इसी उद्देश्य से उठता है जो मेरे परिवार से जुड़ा है मैं तो बस:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
का संगीत सुन चल चल के दिन भर में थक जाता हूँ. मैं सावन के झूले से गिरने का भय पाले अपने इस कमरे में दुबका बैठा, दिन भर की थकन से टूटा कुछ पल विश्राम के तलाशता.हार कर रात को बिस्तर पर जो गिरा कि सुबह उसी करवट उठता हूँ अगले दिन फिर से उसी कोल्हू में पिर जाने को. मुझे रातों को यादें नहीं घेरतीं, न कोई स्वपन जगाता है.
यह सब उसके साथ ही होता है जो वो है-वो कवि है, शायद गीतकार या सिर्फ एक लेखक.वो मैं नहीं हूँ.
मगर मुझे वो अच्छा लगता है. लगता है कि वो मैं हूँ. वो जिन्दा रहे, यही मेरी चाहत है.
उसे जिन्दा रखने के लिये कुछ देर को और सही, मैं सुन लूँगा:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
वो मेरा प्रिय है. वो बना रहेगा तो मैं बना रहूँगा.
मगर वो जो लिखता है न!! वो मैं नहीं हूँ.
वो जो है न!! वो लिखता है-संभल संभल कर, शब्द चुन चुन कर ताकि लोग उसे पढ़े, पसंद करें. वो अपनी बातों को न जाने कितनी कसौटियों में कसता है, तब कहता है, बिल्कुल बनावटी. हर वक्त एक ही चाह, उसकी वाह वाही हो. वो और लिखे. उसे वो लिखना होता है जो औरों के मन को भाये.
वो जो है न!! वो समाज पर पैनी नजर रखता है. दिन में सोता और रातों को जागता है. उसे रह रह कर अपने गुजरे वक्त की सुनहरी यादें सालती हैं और वो उन्हें सहेज सहेज कर सजाता है कभी कविता के माध्यम से तो कभी लेखों में परोसने के लिये.
मैं एक जिंदा आदमी हूँ और जिन्दा रहने की मशक्कत वो क्या जानेगा.
मेरा परिवार मेरी धूरी है, जिसके इर्द गिर्द मैं कोल्हू के बैल की तरह सारा दिन घूमता हूँ. गोल गोल. कोल्हू से उठती आवाज ही मेरा संगीत है और चक्करों की संख्या मेरा लक्ष्य. जितने चक्कर काटूँगा, जितनी देर इन आवाजों को सुनता रहूँगा, उतनी देर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहूँगा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना ही तो मेरा कर्तव्य है:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
कोल्हू से उठती यही ध्वनि मेरा संगीत है. मुझे जिन्दगी की आपा धापी में इतना समय ही कहाँ कि मैं उन पलों को सोच भी सकूँ जिनको मैं इतना पीछे छोड़ आया हूँ. उनकी सुहानी यादों में खो जाऊँ. हवाओं के गीत सुनूँ. हरियाली को निहारुँ. लिखने-परोसने का तो प्रश्न ही नहीं. कभी यादें आ भी जाती हैं तो इतनी क्षणिक कि झटक देता हूँ उन्हें. मेरा हर कदम इसी उद्देश्य से उठता है जो मेरे परिवार से जुड़ा है मैं तो बस:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
का संगीत सुन चल चल के दिन भर में थक जाता हूँ. मैं सावन के झूले से गिरने का भय पाले अपने इस कमरे में दुबका बैठा, दिन भर की थकन से टूटा कुछ पल विश्राम के तलाशता.हार कर रात को बिस्तर पर जो गिरा कि सुबह उसी करवट उठता हूँ अगले दिन फिर से उसी कोल्हू में पिर जाने को. मुझे रातों को यादें नहीं घेरतीं, न कोई स्वपन जगाता है.
यह सब उसके साथ ही होता है जो वो है-वो कवि है, शायद गीतकार या सिर्फ एक लेखक.वो मैं नहीं हूँ.
मगर मुझे वो अच्छा लगता है. लगता है कि वो मैं हूँ. वो जिन्दा रहे, यही मेरी चाहत है.
उसे जिन्दा रखने के लिये कुछ देर को और सही, मैं सुन लूँगा:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
वो मेरा प्रिय है. वो बना रहेगा तो मैं बना रहूँगा.
मगर वो जो लिखता है न!! वो मैं नहीं हूँ.
मंगलवार, अक्तूबर 09, 2007
ताज्जुब न करो!!
गाँधी जयन्ती पर पढ़ता था गाँधी जी का खत, जो उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के अपने अभिन्न मित्र कालेनबाख को लिखा. उस खत में उन्होंने हवा में आ रही सनसनाहट और पेड़ों का जिक्र किया. कम ही बात की है गाँधी जी ने पर्यावरण पर अपने जीवन काल में. शायद समय न मिल पाया हो या प्रासंगिक न रहा हो, उस वक्त.
हमारे एक मित्र अनायास ही कह उठे उनका खत पढ़ कर:
पौधे लगाने होंगे ताकि पेडों की सनसनाहट सुन सकें। नहीं तो कंकरीट के जंगल ही देखने को मिलेंगे। ऐसा जारी रहा तो जीवन जीवन नहीं रहेगा।
मैं हतप्रभ सा विचार में डूब गया. उड़ चला मन पखेरु मुम्बई प्रवास के दौर में. गिरगाम रोड, मुम्बई के उस कमरे में, जहाँ मैं रहा करता था. कहाँ लगाऊँ पेड़ इस महानगर में? काश, मैं भी हवा में तैरती पेड़ों की सनसनाहट भरी संगीत लहरी सुन पाता.
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
बिल्डिंग से सटी बिल्डिंगें. ७ वीं मंजिल से जिधर नजर दौड़ाओ, बिल्डिंगें ही बिल्डिंगें. एक सघन कांक्रीट का विशालकाय जंगल. आवाजें तो उठती हैं. कहीं से किसी के बच्चे के चिल्लाने की, रसोई मे आपस में टकराते-गिरते बर्तनों की, टीवी पर चीख चीख कर पढ़े जाते समाचारों की, कहीं पर बेढ़ब तरीके से बजते री-मिक्स की तेज कर्कश धुन और भी न जाने कितने प्रकार की अजीब अजीब आवाजें. सुप्त संवेदनाओं की तलहटी से उठती ऊँची ऊँची आवाजें, शायद चित्कार ज्यादा बेहतर शब्दावली हो इसे जाहिर करने के लिये. शहरी रिवाज़ को उजागर करती आवाजें. एक दूसरे से सटे छोटे छोटे फ्लैटों में सिवाय आवाजों के और है ही क्या?
नीचे झांकता हूँ तो लोगों की भीड़ से पटी पड़ी पतली पतली सड़कें. सड़को के दोनों ओर अतिक्रमण किये सब्जी वालों के ठेले, टेक्सी वालों की भीड़. हैरत होती है जब सड़क नजर नहीं आती. किस स्तर पर यह सब तैर रहे हैं.
न कोई पेड़, न हरियाली. कहाँ से आये हवा में पेड़ों की सनसनाहट. वो संगीत लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
फ्लेट के बरामदे के गमले में बोनसाई लगा लिया है. कोई सनसनाहट नहीं बस, एक पेड़ होने का अहसास मात्र. पेड़ होकर भी पेड़ नहीं. ठीक वैसे ही, जैसे संवेदनाहीन मानव..जो आज हर जगह मिल जाते हैं..मानव होकर भी मानव नहीं. संवेदना शुन्य..आत्मलिप्त..लिजलिजे मानव आकृत.
और बड़ी बड़ी हाईवे के किनारे हरे पेड़ लगा दिये गये हैं. शायद उनसे उठती होगी सनसनाहट...कोई संगीत लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
मगर तेज रफ्तार भागती कारें, ट्रकों की धों धों में उसकी क्या बिसात. कब उठी, कब लुप्त हो गई, कोई जान ही नहीं सका. कौन जान सका है सुप्त संवेदनाओं की करवट बदलने की प्रक्रिया को...क्षणिक..अनजान..अनकही..अहसास विहीन.
अब तो हवा में बसती पेड़ों की सनसनाहट की स्वर लहरियों को सुनने पहाड़ों पर छुट्टियों में जाना पड़ेगा, एक कोशिश करके. तभी सुनाई देगा जीवन का असली संगीत...पेड़ों से उठती..हवा में समाहित स्वर लहरी..
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
ठीक वैसे ही जैसे हर तरफ छाये रीमिक्स संगीत के कान फोडू संगीत से हट कर कभी किसी पाँच सितारा हॉल में जाकर शास्त्रीय संगीत का आनन्द लेना. वो भी तो अब यूँ ही सहज सुनाई नहीं पड़ता.
क्यूँ ऐसा सोचते हो कि फिर जीवन जीवन नहीं रहेगा, मित्र!! जरुर रहेगा-अंतर बस स्वर्ग और नरक के जीवन का होगा और फिर दोनों ही तो जीवन हैं.
जीना तो पड़ेगा-चाहे वो कितना भी अभिशप्त क्यूँ न हो. सब जी ही रहे हैं न!!
बस भूल जाओ, हवा में बसती पेड़ों की सनसनाहट की स्वर लहरियाँ...
सा रे गा मा..गा गा पम ..ध नी..सां...सां!!!
लगा लो मन रीमिक्स में!! उसके अपने सुर हैं. जैसे ट्रक और कारों की धों धों!
ताज्जुब न करो!!
(नोट: अभी भी वक्त है कि जितना बच सके उतना पर्यावरण और पहाड़ बचा लिये जायें. पाँच सितारा ही सही, कभी जा तो पायेंगे. :) वरना तो गुलाम अली को सुनते ही रह जायेंगे:
-दिल में इक लहर सी उठी है अभी,
कोई ताजा हवा चली है अभी.)
सोमवार, अक्तूबर 08, 2007
पुनः वापसी : एक विचार
५ तारीख की शाम एक कवि सम्मेलन में शिरकत करने मांट्रियल जाना पड़ा. उम्मीद थी कि ६ को लौट आयेंगे. मगर वाह रे मित्र!! ऐसे कैसे लौट आते जबकि सोमवार को भी दफ्तर बंद है थैक्स गिविंग के लॉग वीक एंड के लिये. बस रुकना पड़ गया. न लेपटॉप साथ में और इतने मित्र. बस एक कमरे में, ढ़ेरों बातें, दिन भर चाय के दौर, पुरानी पुरानी यादें. शाम बीतते तक ताश की गड्डियां और कुछ हल्के फुल्के शौकिन जाम के दौर.वाह. खूब सोये, खूब गपियाये..और चार दिन लगा मानो सारा जीवन जी लिया हो स्वर्ग में. एक नैसर्गीक आनन्द.
लगा कि एक दुनिया इन्टरनेट के बाहर अभी भी बसती है और वो भी कितनी सुन्दर है. वाह!! बस देर है, उसे जीने की.
बार बार मन ब्लॉग की तरफ भागे मगर इन्तेजामात ऐसे किये गये कि उस तक हम न पहुँच पायें. न ईमेल और न इन्टरनेट.
मुझे आज लगा कि ऐसा कभी कभी हो जाना चाहिये. सब कुछ दूसरा.एकदम रोज से अलग.
माफी चाहूँगा उन सभी मित्रों से, जिन के ब्लॉग पर मैं इस दौरान पहुँच नहीं पाया और अपने कमेंट नहीं दे पाया.
पढ़ जरुर लूँगा और अगर बहुत आवश्यक हुआ तो कमेंट भी कर दूँगा. मगर नया एकाऊन्ट आज से शुरु समझा जाये. :)
कल से मेरी पोस्ट भी पूर्ववत आने लगेंगी. और आपकी पोस्टें भी पूर्ववत पढ़ी जाने लगेंगी.
मेरी गल्ती कि मुझे बता कर जाना था, मगर मैने इसे उतना गंभीरता से नहीं लिया,
लगता है विश्वकर्मा जी की गल्ती है. :)
लगा कि एक दुनिया इन्टरनेट के बाहर अभी भी बसती है और वो भी कितनी सुन्दर है. वाह!! बस देर है, उसे जीने की.
बार बार मन ब्लॉग की तरफ भागे मगर इन्तेजामात ऐसे किये गये कि उस तक हम न पहुँच पायें. न ईमेल और न इन्टरनेट.
मुझे आज लगा कि ऐसा कभी कभी हो जाना चाहिये. सब कुछ दूसरा.एकदम रोज से अलग.
माफी चाहूँगा उन सभी मित्रों से, जिन के ब्लॉग पर मैं इस दौरान पहुँच नहीं पाया और अपने कमेंट नहीं दे पाया.
पढ़ जरुर लूँगा और अगर बहुत आवश्यक हुआ तो कमेंट भी कर दूँगा. मगर नया एकाऊन्ट आज से शुरु समझा जाये. :)
कल से मेरी पोस्ट भी पूर्ववत आने लगेंगी. और आपकी पोस्टें भी पूर्ववत पढ़ी जाने लगेंगी.
मेरी गल्ती कि मुझे बता कर जाना था, मगर मैने इसे उतना गंभीरता से नहीं लिया,
लगता है विश्वकर्मा जी की गल्ती है. :)
बुधवार, अक्तूबर 03, 2007
अपराध बोध से मुक्ति
घर के सामने ही एक छोटा सा किन्तु लम्बाई के हिसाब से अपेक्षाकृत घना पेड़ है. सुबह शाम को जब चाय पीने बरामदे में बैठो तो उसे निहारना बड़ा अच्छा लगता है. मगर जिस तरह बिन बच्चों के घर में सब कुछ होते हुए भी एक सूनेपन का साम्राज्य हो जाता है वैसे ही बिन पंछियों के पेड़.
बस इसी उम्मीद से एक बर्ड फीडर (जिसमें चिड़ियों के लिये खाना भरा जाता है) खरीद कर ले आये और उसमें पंछियों के लिये दाने भर कर पेड़ पर टांग दिया. पता नहीं कैसे सबको खबर लगी. मगर दिन भर में पूरा डब्बा खाली. पचासों चिड़ियों से जैसे लहलहा उठा पूरा माहौल. एक दम बच्चों से भरे चहकते घर सा. मैं, पापा, मेरी पत्नी सब खूब खुश होते रोज सुबह शाम उसमें दाने भर कर. दिन भर चिड़ियाँ चहकती मानों आशीर्वाद दे रही हों भोजन कराने का. जबकि आभारी तो हम उनके थे जो इतनी रौनक लगा दी थी उन्होंने सूने बरामदे में. रोज का नियम हो गया. बहुत अच्छा लगता था उनको खाते देखना. उनको गाते देखना. खाना खत्म हो जाये तो भी थोड़ी थोड़ी देर में आकर देख जाती थीं कि वापस भरा कि नहीं.
उनका आपसी भाईचारा ऐसा कि देखते ही बनता था. हम इन्सानों से बिल्कुल भिन्न. काश, हम उनसे कुछ सीख पाते. दरअसल, उस बर्ड फीडर पर एक बार में चार चिड़ियों के बैठने की ही जगह थी. तो चार की ड्यूटी लगती, वो खाती जातीं और नीचे गिराती जाती. बाकी सारी चिड़ियाँ जमीन पर पेड़ के नीचे भीड़ लगा कर उस नीचे गिराये गये दानों में से खातीं. उपर की चारों पारी पारी बदलती जातीं. खाना खत्म. सब उड़ जाती. खाना भरा, उनमें से जो आकर देख जाये, वो सबको खबर कर देती और मिनट भर में सब पचासों की तादाद में फिर इक्कठा.
मगर खुशियाँ कब अकेले आईं हैं.एक दिन देखा तो मुहल्ले की एक बिल्ली ने उनमें से एक चिड़िया को पकड़ कर अपना ग्रास बना लिया. आह्ह!! यह मैने क्या किया. आत्मग्लानी से भर उठा मैं. मेरी ही गल्ती है. लगने लगा मानो मैं ही उन बेचारी चिड़ियों को घेर कर ले आया इस बिल्ली के लिये. मैं ही जिम्मेदार हूँ. मुझे एक अपराध बोध ने आ घेरा. न मैं खाना रखता, न वो निश्चिंत होकर जमीन पर से भोजन कर रही होतीं और न ही ये बिल्ली उसे अपना शिकार बना पाती. अभी आराम से उन्मुक्त गगन में उड़ रही होती.
मन खराब हो गया. विषाद के उन्हीं लम्हों में मैनें तुरन्त बर्ड फीडर हटा लिया. अरे, खाना तो बेचारी कहीं भी पा लेंगी. पहले भी पा ही रहीं थीं. मगर कम से कम मेरे कारण इस तरह से काल का ग्रास बनने से तो बच जायेंगी. मैं सह लूँगा उस पेड़ का सूनापन, ठीक उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर. उन बुजुर्गों को बस यही तसल्ली है कि जहाँ भी हैं, बच्चे खुश हैं और इसी बच्चों की खुशी के लिये तो वे घर के सूनेपन को अपनी जीवनशैली बना बैठे हैं.
हो सकता है कि जंगल में या दीगर जगहों पर भी बिल्लियाँ और अन्य शिकारी पक्षी इन चिड़ियों को अपना शिकार बना रहे हों किन्तु जब यह सब मेरे सामने नहीं होगा तो कम से कम मैं अपराध बोध से मुक्त रहूँगा.
इसी तरह से तो आस पास घटित हो रहे अत्याचारों और कारनामों से नजर फिरा कर हम सभी एक अपराध बोध मुक्त जीवन जी रहे हैं, वरना तो जीना दूभर हो जाये.
बस इसी उम्मीद से एक बर्ड फीडर (जिसमें चिड़ियों के लिये खाना भरा जाता है) खरीद कर ले आये और उसमें पंछियों के लिये दाने भर कर पेड़ पर टांग दिया. पता नहीं कैसे सबको खबर लगी. मगर दिन भर में पूरा डब्बा खाली. पचासों चिड़ियों से जैसे लहलहा उठा पूरा माहौल. एक दम बच्चों से भरे चहकते घर सा. मैं, पापा, मेरी पत्नी सब खूब खुश होते रोज सुबह शाम उसमें दाने भर कर. दिन भर चिड़ियाँ चहकती मानों आशीर्वाद दे रही हों भोजन कराने का. जबकि आभारी तो हम उनके थे जो इतनी रौनक लगा दी थी उन्होंने सूने बरामदे में. रोज का नियम हो गया. बहुत अच्छा लगता था उनको खाते देखना. उनको गाते देखना. खाना खत्म हो जाये तो भी थोड़ी थोड़ी देर में आकर देख जाती थीं कि वापस भरा कि नहीं.
उनका आपसी भाईचारा ऐसा कि देखते ही बनता था. हम इन्सानों से बिल्कुल भिन्न. काश, हम उनसे कुछ सीख पाते. दरअसल, उस बर्ड फीडर पर एक बार में चार चिड़ियों के बैठने की ही जगह थी. तो चार की ड्यूटी लगती, वो खाती जातीं और नीचे गिराती जाती. बाकी सारी चिड़ियाँ जमीन पर पेड़ के नीचे भीड़ लगा कर उस नीचे गिराये गये दानों में से खातीं. उपर की चारों पारी पारी बदलती जातीं. खाना खत्म. सब उड़ जाती. खाना भरा, उनमें से जो आकर देख जाये, वो सबको खबर कर देती और मिनट भर में सब पचासों की तादाद में फिर इक्कठा.
मगर खुशियाँ कब अकेले आईं हैं.एक दिन देखा तो मुहल्ले की एक बिल्ली ने उनमें से एक चिड़िया को पकड़ कर अपना ग्रास बना लिया. आह्ह!! यह मैने क्या किया. आत्मग्लानी से भर उठा मैं. मेरी ही गल्ती है. लगने लगा मानो मैं ही उन बेचारी चिड़ियों को घेर कर ले आया इस बिल्ली के लिये. मैं ही जिम्मेदार हूँ. मुझे एक अपराध बोध ने आ घेरा. न मैं खाना रखता, न वो निश्चिंत होकर जमीन पर से भोजन कर रही होतीं और न ही ये बिल्ली उसे अपना शिकार बना पाती. अभी आराम से उन्मुक्त गगन में उड़ रही होती.
मन खराब हो गया. विषाद के उन्हीं लम्हों में मैनें तुरन्त बर्ड फीडर हटा लिया. अरे, खाना तो बेचारी कहीं भी पा लेंगी. पहले भी पा ही रहीं थीं. मगर कम से कम मेरे कारण इस तरह से काल का ग्रास बनने से तो बच जायेंगी. मैं सह लूँगा उस पेड़ का सूनापन, ठीक उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर. उन बुजुर्गों को बस यही तसल्ली है कि जहाँ भी हैं, बच्चे खुश हैं और इसी बच्चों की खुशी के लिये तो वे घर के सूनेपन को अपनी जीवनशैली बना बैठे हैं.
हो सकता है कि जंगल में या दीगर जगहों पर भी बिल्लियाँ और अन्य शिकारी पक्षी इन चिड़ियों को अपना शिकार बना रहे हों किन्तु जब यह सब मेरे सामने नहीं होगा तो कम से कम मैं अपराध बोध से मुक्त रहूँगा.
इसी तरह से तो आस पास घटित हो रहे अत्याचारों और कारनामों से नजर फिरा कर हम सभी एक अपराध बोध मुक्त जीवन जी रहे हैं, वरना तो जीना दूभर हो जाये.