लेकिन फिर भी ऐसी लत पड़ी है कुछ न कुछ लिखते रहने की कि कितना भी दूर रहने का प्रयास करुँ भाग भाग कर वापस. लिखना, फिर पढ़वाना और फिर अगले के पढ़ने की पावती का इंतजार और वो ही दूसरे अखाड़े में पढ़ना और पावती पहुँचाना, यह सब दैनिक आदतों में शुमार हो गया है. चिट्ठाकारी का मायने शौक और खाली समय के उपयोग की बजाय जरुरत सा बन गया है. बिना इसके कुछ खालीपन सा लगने लगता है.अब मुझे नशाखोरों से कोई शिकायत नहीं है जिनकी बिना शराब मिले हालात बिगड़ने लगती है, जबकि मालूम है पी कर और बिगड़ेगी. उनके लिये तो दवाईयां है, पुनरुद्धार केन्द्र भी हैं. हमारे लिये तो वो भी नहीं.
इतने प्यारे प्यारे दोस्त बन गये हैं, सब कुछ एक बड़े परिवार के अहम हिस्से. सभी का इंतजार रहता है. कोई बातूनी है, तो कोई फुरसत में बैठा है. कोई तुनक मिजाजी, बात बात में बुरा मान जाता है, तो कोई ऐसा मसखरा कि हर समय मजाक. कुछ कह लो, बुरा ही नहीं मानता. कई बार तो उसके बुरा न मानने का बुरा लगने लगता है. कोई गाता है, कोई कविता सुनाता है, कोई प्रवचन पर प्रवचन, तो कोई अपना तकनिकी ज्ञान हासिल से ज्यादा बांटे दे रहा है और कोई संपूर्ण व्यवसायी . कोई धर्म की बात करता है तो कोई अंतरीक्ष के नीचे की बात करना ही नहीं चाहता. हर मजहब के एक छत के नीचे, यहाँ कांग्रेसी हैं, भाजापाई हैं, एक दो तो इतना ज्यादा वामपंथी विचारधारा के हो गये हैं कि चाहे कुछ हो, कुछ कह लो, कुछ कर लो, मगर वो विरोध करेंगे ही, यह तय है. ऐसा ही तो होता है एक भरा पूरा परिवार. सभी प्यारे होते हैं, हर एक की कमी खलती है. सबका अपना स्थान है-कोई चंचल तो कोई बचपन में ही बड़ा हो गया है, मगर परिवार है, हर तरह के सदस्य होते हैं. अरे, भारतीय हैं भाई हम लोग. हमारे यहाँ तो घर में रहने वाला जानवर भी परिवार का सदस्य होता है, उसी का इंतजार है परिवार पूरा करने को, उनकी कमी बहुत अखरती है.
परिवार के बीच घूमते घूमते भी कभी कभी एकांत की आवश्यता भी महसूस होती है, जो सबको ही होती है और स्वभाविक भी है. तब भरे पूरे परिवार की मनभावन हाहाकार के बीच ही किताब लेकर आंतरिक एकांत में खो जाता हूँ और बहुत कुछ पढ़ता हूँ-मगर जिन दो पुस्तकों की तरफ सबसे पहले हाथ बढ़ता है और बार बार बढ़ता है, वो है हरिशंकर परसाई के व्यंग्य संकलन और फिर अंग्रेजी में रिच डैड पूअर डैड. व्यंग्य तो मुझे शुरु से ही बहुत पसंद हैं और उस पर से जब व्यंग्य, व्यंग्य शिरोमणी हरि शंकर परसाई का तो क्या कहना. उनको पढ़ना मुझे बार बार मेरे शहर ले जाता है. वही जबलपुर जो मेरे मानस पटल पर इस तरह छाया रहता है कि नियाग्रा फाल्स जैसा विहंगम प्रपात भी मुझे धुंआधार, भेड़ाघाट जबलपुर के जल प्रपात की ही याद दिलाता है. मुझे ऐसा लगता है जिन्दगी के किसी भी राजपथ पर आप चलें, बचपन की पगडंडियाँ उन पर हमेशा काबिज ही रहती हैं और उनका महत्व आपके जीवन में हर राजपथ से ज्यादा होता है. फिर रिच डैड पूअर डैड मुझे एक तरह की जीवन शैली लगती है और अपने कैरियर शुरु कर रहे हर युवा को मैं इस पुस्तक को पढ़ने की सिफारिश करता हूँ. (Rich Dad, Poor Dad by Robert T. Kiyosaki). वैसे एक दिन जरुर आप लोगों को इस पुस्तक की कमेंट्रि पेश करुँगा, ऐसी मेरी हार्दिक इच्छा है. मेरी कई और हार्दिक इच्छायें थीं जो वक्त की मौत मारी गयीं मगर इसे मैं न मरने देने की कसम खा कर बैठा हूँ. फिर भी मर ही गई तो क्षमा मांग लूँगा कोई प्रापर्टी तो लिख नहीं दी है.
जब पुस्तक पढ़कर फुरसत पाऊँ तो फिर यही परिवार और कुछ अपने व्यक्तिगत दायित्यवों का निर्वहन, नौकरी, तकनीकि लेखन, तकनीकि और व्यवसायिक सलाहकारी, कविता, मित्रों से मेल मिलाप-बातचीत और फिर नये मित्रों से व्यक्तिगत मेल-मिलाप की इच्छा. चिट्ठाकारी में बहुत से नये मित्र बनें जिनसे मेरी व्यक्तिगत तौर पर मुलाकत भी हुई और अब तो लगता है, बरसों के मित्र हैं, सखा हैं, रिश्तेदार हैं. मैं जब भी मौका लगेगा, हर हिन्दी चिट्ठाकार से मिलना चाहूँगा, जब जब जैसे जैसे मौका आयेगा. बहुतों से फोन पर बात, चैट पर बात करते करते ही अब ऐसा लगता ही नहीं कि उनसे मैं कभी मिला ही नहीं हूँ. इतना सम्मान, उन सबके व्यक्तिगत परिवार में स्थान- सब इसी हिन्दी चिट्ठाकारी की देन है. बहुत कम समय में ऐसा विस्तार, ऐसी आत्मियता शायद और किसी भी तरह से संभव नहीं थी. बस सब ऐसे ही हँसते-खेलते, लड़ते-झगड़ते और फिर गले मिलते रहें, यही सफल और सुखी संयुक्त परिवार की निशानी है. ऐसा ज्ञान मुझे टी वी पर सिरियल देख देख कर प्राप्त हुआ है. साधुवाद!!
कोशिश हर वक्त रहती है कि शायद किसी को प्रेरित कर पाऊँ हिन्दी चिट्ठाकारी शुरु करने को, शायद कोई प्रेरित भी हुआ हो. मगर हमेशा आव्हान रहेगा कि आओ, लिखो, अच्छा लिखो और बहुत अच्छा लिखो. कौन पढ़ेगा, यह मत सोचो. मैं हूँ न!! पढ़ूँगा भी और शाबासी भी दूँगा. :) यह भी मेरी आदात का हिस्सा है. फिर भी नहीं लिखना तो यह तुम्हारी इच्छा है, तुम्हारी जगह लिखूँ भी मैं, यह नहीं हो पायेगा. भारत सरकार होता तो कर भी देता कि तुम कमरे में बैठो , सोचो और बाकि सारा ठीकरा अपने सर फुड़वाने के लिये मैं सरदार तो बैठा ही हूँ. आँ हा, यह यहाँ का नियम नहीं है.
मैं हर विषय पर लिखता हूँ. हल्के फुल्के माहौल में अपने दिल की बात कहता हूँ. कोशिश रहती है कि कोई मेरी लेखनी से आहत न हो और कोशिश करता हूँ कि कितनी भी संजीदा बात क्यूँ न हो, माहौल हल्का फुल्का बना रहे. बात बहते हुये कहूँ, लोग बहें और वैसे ही सुनें-बस, कोई डूबे न!! मैं हमेशा विवादित मुद्दों से बच कर चलना चाहता हूँ. न तो मैं ऐसे मुद्दों पर लिखता हूँ जिस पर मुझे ज्ञात है कि विवाद होगा और न ही ऐसे मुद्दों पर चल रही किसी बहस का हिस्सा बनना मुझे पसंद है. मैं इस तरह की पोस्टों पर टिप्पणी करना भी पसंद नहीं करता मगर आदतानुसार कभी एकाध बार कर ही देता हूँ, उसे सब लोग कृप्या मेरी भूल ही मानें. मेरा ज्ञान कम है, मैं ऐसे विषयों पर ज्ञान हाँसिल करने का आकांक्षी भी नहीं, तो आप को ही मुबारक!! बहुत बधाई!!
मेरे अधिक टिप्पणी, जिसके लिये में बदनाम हूँ, करने के पीछे भी यही उद्देश्य होता है कि लिखने वालों को प्रोत्साहन मिले. हर चिट्ठाकार अपनी नजर में अपना बेहतरीन ही परोसने की कोशिश करता है. जब वो इतनी मेहनत करता है तो उसकी लेखनी ही नहीं वरन प्रयास भी उसे तारीफ का हकदार बनाते हैं. बिना तारीफ के तो बड़ा से बड़ा शायर और साहित्यकार भी थक कर कट ले. मुझे लगता है कि तारीफ करके मैं जो प्रोत्साहन देता हूँ और जो औरों द्वारा की गई तारीफ से मुझे मिलता है, वही इस विकास की दर को बढ़ा रहा है, जिस दिशा में हम सब अग्रसर हैं. यही तो हम सबका उद्देश्य भी है. यहाँ की घूस यही है, तारीफ करो, तारीफ पाओ. वरना तो इमानदारी की ही बात करते रहोगे तो भारत का विकास ही रुक जायेगा.
हमेशा से और आज भी सबके सहयोग से और प्रोत्साहन से ही हम लिख रहे हैं और अन्य भी यही कर रहे हैं. सबका आभार व्यक्त करने को दिल करता है, वरना एक साल में तस्वीर मे इतना बदलाव और सदस्यों की संख्या में दो गुने से ज्यादा का इजाफा- यह सब यूँ ही संभव नहीं था. उम्मीद करता हूँ कि आगे भी सब यूँ ही समृद्ध होता रहे. नये लोग आयेंगे, कोई एम बी ए होगा, कोई पी एच डी...सबका सम्मान करना हमारा फ़र्ज है, न कि बराबरी करना कि उसकी कमीज हमारी कमीज से ज्यादा सफेद क्यूँ?
अपनी या किसी और की अच्छी खराब पोस्ट का तो क्या जिक्र करना. अच्छा खराब तो पढ़ने वाली नजरों का कमाल है, जैसे कि सुंदरता देखने वाले की आँखों मे होती है, वरना तो प्रयास हमारा और सबका अच्छे से अच्छा पेश करने का ही होता है. तकलीफ किसी की किसी बात से नहीं होती. बस थोड़ी कोफ्त होती है जब भाषा ज्ञानी कठीन शब्दों का इस्तेमाल कर नये आये कम भाषा ज्ञानियों पर अपनी सोच थोपने का प्रयास करते हैं और विवाद खड़े करते हैं. अरे समझो भाई उद्देश्य को, न कि आदर्श को. वो भी वहीं पहुँचने का प्रयास कर रहा है, जिस राह में तुम थोड़ा आगे हो. रास्ता दिखाओ- न कि आँख!!
मेरी नजर में अंतरजाल पर हिन्दी का विकास सामान्य बोलचाल की भाषा के इस्तेमाल से ही हो जायेगा, तो क्लिष्टता क्यूँ कर. यह महज विकास की राह में रोड़े का काम करेगा और आम लोगों को आने से रोकेगा. मुझे नहीं लगता कि अभी तीर्थंकरों और पीठाधीशों की आवश्यकता है. वह सब समृद्ध समाज में शोभित होते हैं तो पहले समृद्धता तो आ जाने दो. भूखे-नंगे को अध्यातम और योग सिखाओगे तो सिवाय फजियत के कुछ न मिलेगा. हाँ, अपना अनुभव बांटते रहो, भटको को राह दिखाओ, समाज को समृद्ध बनाने में योगदान करो, तो बात बनें. सिर्फ़ तुम्हारे मुगदर भाँजते रहने से पूरा मुहल्ला पहलवान नहीं हो जाता.
मुझे लगता है कि यह सब लिखते लिखते मैंने जाने आनजाने रचना जी और जीतू भाई के द्वारा उठाये गये सभी प्रश्नों के उत्तर अपनी तरह से दे दिये हैं, अब वो भी थोड़ी मेहनत करें और प्रश्न के जवाब उपर खोंजे, सभी मिल जायेंगे. प्रश्न दर प्रश्न जवाब देने में मुझे लगता है कि मैं किसी परीक्षा को दे रहा हूँ और उसमें तो अक्सर फेल हो जाता हूँ, सो नहीं दिया.
रही बात नये पाँच चिट्ठे, जिनसे मैं कुछ बताने को कहूँ तो बस परंपरा का निर्वहन कर रहा हूँ, वैसे तो लगभग सभी अटक चुके हैं, मगर मैं जीतू और रचना जी के प्रश्नों के कॉमन प्रश्न ही पूछ रहा हूँ:
१.आपके लिये चिट्ठाकारी के क्या मायने हैं?
२.क्या चिट्ठाकारी ने आपके जीवन/व्यक्तित्व को प्रभावित किया है?
३.आप किन विषयों पर लिखना पसन्द/झिझकते है?
४.यदि आप किसी साथी चिट्ठाकार से प्रत्यक्ष में मिलना चाहते हैं तो वो कौन है?
जगदीश भाई ने इस प्रश्न के दो बार पूछे जाने की ध्यान दिलवाया, आभार.
५.आपकी पसँद की कोई दो पुस्तकें जो आप बार बार पढते हैं.
और जिन्हें मैं इसमे फंसाना चाहता हूँ कि जवाब दें वो हैं:
आशीष श्रीवास्तव: अंतरीक्ष वाले
लक्ष्मी गुप्ता जी
रंजू जी
प्रमेन्द्र प्रताप सिंह
डॉ भावना कुँवर
अब चला जाये.
चलते चलते: आज कुछ नहीं, सिर्फ़ इंडी ब्लागिज में मेरा समर्थन करने के लिये पुनः आभार!!