--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
सोमवार, मई 29, 2006
कदम निशां: हवाई जहाज से
हमेशा की तरह, पहले मूल कविता अंग्रेजी मे और फ़िर मै:
Footprints in the Sand
One night I dreamed
I was walking along the beach with the Lord.
Many scenes from my life flashed across the sky.
In each scene I noticed footprints in the sand.
Sometimes there were two sets of footprints,
other times there were one set of footprints.
This bothered me because I noticed
that during the low periods of my life,
when I was suffering from
anguish, sorrow or defeat,
I could see only one set of footprints.
So I said to the Lord,
You promised me Lord,
that if I followed you,
you would walk with me always.
But I have noticed that during the most trying periods of my life
there have only been one set of footprints in the sand.
Why, when I needed you most, you have not been there for me?
The Lord replied,
The times when you have seen only one set of footprints in the sand,
is when I carried you.
Written By: Unknown
वो कदमों के निशां
एक रात मै स्वपन लोक मे,सागर तट पर टहल रहा था
गिरधर मेरे साथ साथ मे, चर्चा से मन बहल रहा था.
जीवन भर की ढेरों बातें, कुछ मीठी कुछ खट्टी यादें
सबका ब्योरा नील गगन पर,चलचित्र सा चल रहा था.
हैरत से मै देख रहा हूँ, जीवन पथ पर कदम निशां
कहीं पे दो और कहीं अकेले, जीवन ऎसे चल रहा था.
सोचा जब तब रुठ के बोला, इंसानों से निकले तुम भी
साथ निभाने का वादा कर, तू भी मुझको छल रहा था.
सुख मे मेरे साथ चले तुम, दुख मे कसा किनारा हमसे
बात सुनी गिरधर मुस्काये, मेरा मन तो मचल रहा था.
तुझको इस जीवन मे जब भी, गम ने आकर घेर लिया
तुझको अपनी गोद उठाये,वो मै ही तो चल रहा था.
--नज़रिया: द्वारा समीर लाल 'समीर'
अब आगे कहीं और लिखा जायेगा, तब तक के लिये नमस्कार.
गुरुवार, मई 25, 2006
गुलमोहर के दो चित्र
गुलमोहर के दो चित्र: रुबाईयां
//चित्र १//
गुलमोहर के फ़ूल से मुझे रुसवाई है
बिखर जाता है जब भी हवा आई है
हमारे नातों मे इसका कोई वज़ूद नही
जुदा ना कभी होने की कसम खाई है.
//चित्र २//
गुलमोहर की रंगीन छटा घिर आई है
कोयल इक गीत नया फ़िर लायी है
चलो हम संग मे गुनगुनायें इसको
जिन्दगी बन कर इक बहार आई है.
--समीर लाल 'समीर'
बुधवार, मई 24, 2006
मौत से दिल्लगी
जिन्दगी फ़िर अज़नबी हो गई.
दोस्तों से करता रहा शिकवा
दुश्मनों से यूँ दोस्ती हो गई.
गैर का हाथ थाम कर निकला
वफ़ा की क्यूँ उम्मीद खो गई.
रेहन मे हर इक साँस दे आया
जिन्दगी भी यूँ उधार हो गई.
रात भर आसमान तकता रहा
चांदनी भी थक कर सो गई.
--समीर लाल 'समीर'
रविवार, मई 21, 2006
टोने टोटके: नया ब्लाग: बाप रे बाप
चलो, एक टोटका मै दे देता हूँ:
ता जिंदगी, जब तक ब्लागी रहो, हर बुधवार, शाम अंधेरा घिरने के बाद, स्नान कर, ढूँढ ढूँढ कर, सबके ब्लाग पर १०८ टिप्पणियाँ करो. फ़िर कुछ भी लिखो, मज़बुरी वश लोग आपको टिप्पणियां भेजते रहेंगे.
अब समझ तो नही आ रहा, मगर पता नही कहाँ ले जा रहे हैं अपने ये टोने टोटके वाले साहिब....मगर मुझ पर ना कर देना कोई टोटका, नाराज़ हो कर, इसलिये क्षमा मांगता हूँ...वैसे कुछ सालिड उपाय बताओ यार, जैसे:
- पत्नी को कैसे समझायें कि ब्लागिंग करना अच्छी बात है.
- बास को कैसे सेट करें, कि वो ब्लाग लिखना/पढना आफ़िस का काम माने.
बाकि तो आपकी इच्छा, आप तो अंतर्यामी हैं, सब जानते हैं, तो आप से क्या कहें मगर भईया इस युग मे, जब और भी बहुत सी नौटंकी चल रही है, इसे रहने ही दें, अगर इसमे दम है तो यहाँ अजमायें:
- अर्जुन सिंग का दिमाग दुरुस्त हो.
- पाकिस्तान बाज़ आये.
- हिन्दुस्तान अपनी ताकत पहचाने.
- मल्लिका और राखी सावंत कपडे पहनना सिखॆं.
और सबसे जरुरी:
- हमारी कविताओं की गहराई लोग पहचाने, और टिप्पणियां करें.
चलते चलते:
"टोने टोटके देख के, दिया समिरा रोय...
इन बातों को रोकने, क्या बाकी बचा न कोय."
बकिया बाद मे....(जीतू भाई स्टाईल)
(टीप: यह पोस्ट मात्र मनोरंजन के लिये है, किसी की टोने टोटके मे आस्था को ठेस पहुँचाने के लिये नही, उनके लिये तो टोटके वाले भाई साहब लिखते ही रहेंगे.मै तो सिर्फ़ ब्लागरर्स के लिये और अन्य कार्यों के लिये अतिरिक्त टोटकों का नारा लगा रहा हूँ)
--समीर लाल
ख्वाबों से भरी आँख
जामों के बाद जाम हर इक नापता रहा.
ऎसा कहाँ कि तुमसे मुझे आशिकी नही
इक बेवफ़ा से वहमे वफ़ा पालता रहा.
कब दोस्तों से थी मुझे उम्मीद साथ की
अपना ही साथ देने से मै भागता रहा.
बेबात हुई बात पर यह बात क्या कही
बातों मे छुपी बात भी मै मानता रहा.
बिखरे नही समीर की दुनिया सजी हुई
ख्वाबों से भरी आँख लिये जागता रहा.
--समीर लाल 'समीर'
शनिवार, मई 20, 2006
अनुगूँज १९ : संस्कृतियाँ दो और आदमी एक
फ़िर एक बार अनुगूँज मे हिस्से लेने की कोशिश कर रहा हूँ, वही अपने तरीके से. मेरी समझ से संस्कृतियों की अच्छाई बुराई के प्रति लोगों का नजरिया वक्त के हिसाब से बदलता रहता है, इन्ही को दर्शाती मेरी प्रस्तुति, कबीर दास के दोहे के साथ:
चलती चक्की देख के,दिया कबीरा रोय,
दुई पाटन के बीच मे,साबुत बचा ना कोय
साबुत बचा ना कोय, आ कनाडा मे बस गये
जवानी के सब दिन, बडी ऎश मे कट गये
कह समीर अब क्यूँ, वही सब बातें हैं खलती
बिटिया भई सयानी, उस पर एक ना चलती.
जब उम्र बढी तब, यह बात समझ मे आई
अपने कल्चर की कहें, हर बात अलग है भाई
दिल करता है चलो, अब भारत मे बस जायें,
बिटिया कहिन, जाना है तो आप अकेले जायें.
--समीर लाल 'समीर'
रविवार, मई 14, 2006
आरक्षण की आग
मक्कारों की आँख लगी है, तूफ़ानों की बारी है.
दुनिया भर मे साख जमा कर, ज्ञान पताका लहराई
सत्ता की लालच मे उनकी, बुद्धि की बलिहारी है.
दलितों का उद्धार जरुरी, कब ये बात नही मानी
आरक्षण की रीत गलत है, इसमे गरज़ तुम्हारी है.
रोक लगानी है समीर,अब और न हो ये मनमानी
आने वाली नस्लों के संग, यह केवल गद्दारी है.
--समीर लाल 'समीर'
गुरुवार, मई 11, 2006
'लेकिन' का बम या.....
इधर काफ़ी दिनों से, जबसे, लिखने का शौक जाग उठा है, अपनी रचनाओं पर काफ़ी समीक्षायें होती देख रहा हूँ:
- आपकी कविता बहुत अच्छी लगी लेकिन वर्तनी की त्रुटियों पर ध्यान दें, इस वजह से, आप क्या कहना चाह रहे हैं, समझ नही आ पाया.बधाई स्विकारें.
- बहुत ही सुंदर लिखा है, मज़ा आ गया लेकिन लय और तुक का आभाव नज़र आया, शब्दों के चयन मे भी सतर्कता बरतें. लिखते रहें.
- वाह भाई वाह, क्या दोहे और कुण्डलियां लिखी है, लेकिन दोहे के अपने नियम होते है, मात्राओं के और कुण्डलियों के अपने, कृप्या उनका ध्यान रखें अन्यथा बहुत बढिया है. कभी समय मिले तो बताईयेगा, क्या कहना चाह रहे थे.
- क्या हास्य कविता लिखी है लेकिन जरा इस तरह..... जरा बदल कर पढें, आई ना हँसीं. बहुत बधाई
- बहुत अच्छा लिखे हैं, मजा आ गया लेकिन ऎसा लगा फ़ास्ट फ़ूड के स्टाल पर खडे हैं, जरा सोच सोच कर लिखा करें, अन्यथा प्रयास सफ़ल है, बहुत बधाई.
आदि आदि आदि...ये 'लेकिन' शब्द तो बिल्कुल बम है...और हमारी रचनाओं की समीक्षाओं मे सर्वव्यापी. तारीफ़ सुन हम उडते उडते चले और बस 'लेकिन' का बम...धम्म्म्म्म...और गिरे मूँह के बल. सारे ख्याल हवा और जान ली अपनी औकात.कुछ विख्यात कविताओं के समूहों, जिन पर मेरी रचनाओं पर यह समीक्षायें की जाती है , पर सरकार से कार्यवाही करने की गुहार करूँगा. भारत सरकार, कम से कम हल्ला मचाने मे, तो हमारा साथ खुले आम देगी क्योंकि इन विख्यात समूहों मे विदेशी शक्तियों का हाथ है और वो हम भारतीयों को कतई रास नही आता.
अब तो मेरी जिन रचनाओं की समीक्षा मे लेकिन शब्द नही दिखता है तो उसके मात्र तीन कारण नज़र आते हैं:
- या तो समीक्षक ने पढा नही और यूँ ही रिवाज़वश समीक्षा कर दी.
- या तो उसको रचना समझ नही आई.
- या उसका हमसे कोई जरुरी काम अटका है.
कल रात देर तक जाग कर, बल्कि यूँ कहें, रात भर जाग कर, अपनी समझ से गज़ल लिखी, रदीफ़, काफ़िया, माकता और मतला, यहाँ तक कि , जो कि जरुरी नही है, फ़िर भी जैसा कि एक दो नम्बर की कमाई वाले रईस बाप की बेटी की शादी मे होता है, अगर रिवाज़ है तो अदायगी होगी, भले ही जरुरी ना हो, की तर्ज़ पर, तख्खलुस का भी ध्यान रखा. मगर बकौल फ़ुरसतिया जी, जैसा कि होता है, कुछ छूट ही गया. अब देखिये:
सुबह उठते ही याहू देवता पर मेरे खाते मे एक ई मेल चहक उठीं, भविष्य वक्तिनी कवित्री की: अरे, आपकी रचना पढी, भाव अच्छे लगे लेकिन आपकी गज़ल मे मीटर नही है, अरे भई, मीटर कहाँ से लाऊँ, जो कार मे है, वो काम नही करता. जो बिजली के लिये लगा है, वो तेज चलता है और पानी वाला चलता ही नही.किस को पूजों, किस को कोसो. नगर निगम का दफ़्तर तो हूँ नहीं जो सब पर सम दृश्टि बनाये रहूँ. आगे तंद्रा भंग करने के लिये छीटें स्वरुप ज्ञान वर्षा कि कैसे आप मीटर के बारे मे विस्तृत ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, कौन सी किताब पढें, कहाँ मिलेगी, और उदाहरण के लिये शेर भी, मीटर के तार से लिपटा हुआ. साथ मे सम्वेदनशील शब्दों मे छिपी भविष्य वाणी: मैने यह किताब बहुत दिन पहले पूरी पढी थी, फ़िर कई और(उनके नाम नही बताये, ट्रेड सिक्रेट) मगर अब भी गज़ल नही लिख पाती हूँ.( शब्दॊं को पडताला, भविष्य वाणी: जब हम इतना करके कुछ नही कर पा रहे हैं गज़ल मे, तो तुम क्या कर लोगे, जबकि बाकी किताबें तो तुम्हे पता ही नही हैं, कुछ दिन कोशिश कर लो, जोश ठंडा पड जायेगा).अब बडे जोरों से सोच रहा हूँ कि कुछ पढाई लिखाई फ़िर चालू की जाये, तभी इस लेकिन बम से कुछ निजात मिलेगी, शायद.
वैसे तो अब इस बम से अब चोली दामन का साथ हो गया है, कि रचना लिखने की देर है और लेकिन का धमाका...अब तो Send दबाते ही दोनो हाथों से कान बंद कर लेता हूँ.और इतने 'लेकिन' के पदक इस वीर की छाती पर टकें है, कि कई बार मानव बम होने का एहसास होने लगता है.
इस लेकिन से निज़ात पाने के लिये उपाय सोच ही रहा था, मन विरक्ति से भरा हुआ था, सब कुछ अपनी रचनाओं की तरह अर्थहीन सा लग रहा था, वही भाव जो सिद्धार्थ को बाह्य भ्रमण के बाद आये और बाद मे उन्हे बुद्ध बनाने मे सहायक सिद्ध हुये.बस फ़िर क्या था, हमने भी ठान लिया कि बोध प्राप्त करना है.अब घर तो क्या, घर के दस किलोमीटर के दायरे मे भी बरगद का पेड नही था.फ़िर ख्याल आया कि छत पर एक गमले मे बरगद का बोनज़ाई लगा है.अंधेरा और बिजली गायब.टटोलते छत पर पहूँचे, और ले आये गमला ड्रांईग रुम मे. एक रस्सी मे बांध कर सोफ़े के उपर टांगा और बैठ गये सोफ़े पर आंख बन्द कर तपस्या मे.मुश्किल से १५ मिनट मे बिजली आ गई, लट्टू जल उठा और हमे लगा, जैसे बोध टाइप कुछ प्राप्त हो रहा है:
दिल के भीतर से आवाज आने लगी(आत्म-बोध) और ले चला उडा कर हमको हमारे कालेज के जमाने मे:
तभी से ये लेकिन शब्द मेरे साथ साथ है.उस जमाने मे प्रेम निवेदन के हमारे बेबाकीपन की चर्चा पूरे क्षेत्र मे थी( सिर्फ़ कालेज के जमाने मे, बाद मे तो इतना बदल गया, कि अब तो शराफ़त का माईल स्टोन जैसा हो गया हूँ), प्रेम निवेदन तो हाथ मे लिये फ़िरता था, और स्वभाव से इतना उदार कि थोडी भी ठीक ठाक कन्या से परिचय हुआ, और निवेदन हाजिर.मगर जवाब हरदम समीक्षा टाईप के ही मिले, थोडा सा शब्द इधर उधर, अर्थ एक:
'आप बहुत अच्छे लगते हो लेकिन एक तो थोडा हाईट काफ़ी कम है, और उस पर से आप इतने मोटे हो, और रंग भी दबा हुआ है, और...और...इसके आगे हम से नही सुना जाता, बस चलते चलते अंतिम शब्द गूँजते रहते कानो मे...'सोरी, बुरा मत मानियेगा, बट मेरा इस विषय मे प्रसपेक्टिव अलग है' कह कर वो तो चलीं जाती और मै खडा सोचता रहता कि अगर लेकिन के बाद वाली बात सत्य है, जो कि मै जानता था कि सत्य है तो फ़िर पहले वाली क्या है कि 'आप बहुत अच्छे लगते हो'...
वो तो आज बरगद के नीचे आत्मबोध ना करता तो यह बोझ लिये एक दिन नमस्ते हो जाता.आत्मबोध ने इस लेकिन की परिभाषा इस तरह बताई:
' लेकिन शिष्टाचार और सत्यता के बीच का सेतु (पुल) है'. लेकिन शब्द के एक तरफ़ शिष्टाचार और दूसरी तरफ़ सत्यता निवास करती है.
इस ज्ञान प्राप्ति के बाद इस परिभाषा के आधार पर पुन: उपर लिखी समस्त समीक्षाओं को फ़िर पढा और भ्रम टूटा कि यह लेकिन कोई बम नही बल्कि सेतु है.मन से बडा बोझ टाइप का उतर गया कि हम मानव बम नही हैं.
मगर, आपको बता दे रहे हैं कि हम ठहरे जबरी स्वभाव के आदमी.इतने प्रेम निवेदन ठुकराये जाने के बाद भी हार नही मानी, बस लगे रहे और कालान्तर मे हम एक गौर वर्णिय( साथ ही बोनस मे सुशिक्षित एवं सुसंस्कृत) पत्नी की प्राप्ति कर सुखमय जीवन व्यतित करने लगे.
तो अब लेखनी मे भी पीछे नही हटूँगा, किताब पढूँगा, रोज लिखूँगा (बकौल फ़ुरसतिया जी 'हम तो जबरिया लिखबे यार हमार कोई का करिहै?') और एक वो मुकाम हासिल करुँगा जहाँ दोनों तरफ़ शिष्टाचार सत्यता से हाथ मिला रहा होगा और हमारी रचनाओं को समीक्षा के लिये 'लेकिन' सेतु की बैसाखियों की जरुरत ही नही रह जायेगी.
चलते चलते देवी नागरानी जी का शेर याद आ रहा है:
फ़िक्र क्या, बहर क्या, क्या गज़ल गीत ये
मै तो शब्दों के मोती सजाती रही.
--देवी
कथा समाप्त: जल्दी फ़िर लिखता हूँ लेकिन समय मिलने पर. :)
--समीर लाल 'समीर'
रविवार, मई 07, 2006
यह वही वाली पोस्ट है.......
क्या बात है ये जुदा जुदा
-------------------------
चमन सभी का एक, क्यूँ ज़ीनत इनकी जुदा जुदा
बागबां सभी का एक, क्यूँ रंगत इनकी जुदा जुदा.
धर्म ग्रंथ सिखलाते हमको, कैसी हो ये मानवता
सबब सभी का एक, क्यूँ बरकत इनकी जुदा जुदा.
भाई भाई को गोली मारे, किसकी कह दें इसे खता
पालन सभी का एक, क्यूँ हश्मत इनकी जुदा जुदा.
समीर हर पल खोजते, मिल जाये हमको भी खुदा
मुकाम सभी का एक, क्यूँ जन्नत इनकी जुदा जुदा.
--समीर लाल 'समीर'
//बरकत=वरदान
हश्मत-ठाटबाट,मर्यादा//
गुरुवार, मई 04, 2006
अपना ब्लाग बेचो, भाई.........
पोस्ट शुरू होती है:
हालांकि मुझे मेरी पिछली दो पोस्ट पर टिप्पणियॉ नही मिलीं, शायद मेरा लिखने का उत्साह जाता रहता,
फ़िर मुझे लगा:
अरे, छाया जी तो उदास टाइप कुछ हो गये, टिप्प्णी न आने से. इसके कई कारण हो सकते हैं;
एक तो आपका नाम पता नही है, पढने से एहसास तो है कि कोई भाई साहब हैं, बहिन जी नही...मगर अब छाया को कैसे संबोधित करें, यह समझ मे नही आ रहा था..जरा फ़ोटू वगेरह लगाओ और वो भी नाम भी साथ मे.कैसी भी फोटो हो, लगा दो, भाई, आखिर हमने भी तो लगाई ही है ना.
दूसरा, टिप्पणी का स्वभाव थोडा ज्ञान के समान है, जितना बांटोगे, उतना बढेगा. जब आप दूसरों के ब्लाग पर टिप्पणी करेंगे तो वो भी, भले ही शरमा कर, आपके ब्लाग पर भी टिप्पणी करेगा. कई बार अपवाद भी पाये जाते हैं, तब आप भी उनके ब्लाग पर टिप्पणी करना बंद कर सकते हैं, या उन से बहुत नाराज़ हों तो टिप्पणी करते रहिये, नीचा दिखाने के लिये.आपका क्या जाता है, सिर्फ़ थोडा सा समय और उसकी क्या कमी है अगर आप सच्चे भारतीय हैं और झूठ ना बोलना हो तो. वैसे समय बचाने के भी कुछ उपाय हैं, कहीं पहले से ही कुछ टिप्पणी टाईप करके रख लें, उदाहरण के तौर पर:
. बहुत बढियां, लिखते रहें.
.मज़ा आ गया, बहुत सुंदर लिखते है आप.
.क्या बात है, वाह.
.बहुत बढिया कटाक्ष किया है.
.मैं आपसे पूर्णतः सहमत हूँ.
.बहूत ज्ञानवर्धक जानकारी दी है (यह जीतू भाई के हर साप्ताहिक जुगाड लिंक पर निःसंकोच डाल दिया करें)
.क्या लिखते हैं, हंसते हंसते बुरा हाल हो गया. अगली पोस्ट का इंतजार रहेगा ( फ़ुरसतिया जी की पोस्ट पर बिना पढे डाल दें)
.शब्द संचयन को माध्यम बनाकर बडी गहरी बात कह डाली. ( एकदम चल जायेगी मानोशी जी, अनूप भार्गव जी और राकेश जी के ब्लाग पर, पर राकेश जी को ईमेल से भेजना पडेगा क्योंकि उनके ब्लाग पर टिप्पणी का कोई प्रावधान नही है, कुछ तो सिखो उनसे, मगर उसके लिये तो वाकई अच्छा लिख्नना पडेगा (रिस्की फ़िल्ड है) और वो कविता ब्लागियों मे राकेश जी के सिवा कौन जोखिम उठा सकता है)
.बहुत गहरी अभिव्यक्ती है, मज़ा आ गया. ( इसे तो सभी कविता टाईप ब्लागों पर डाल सकते हैं)
.शब्दों के माध्यम से बहुत सुंदर चित्र खींचा है, साधुवाद स्विकार करें. ( इसे भी कविता टाईप ब्लागों पर डाल सकते हैं, पिछली टिप्पणी को बदलने के लिये)
.कहाँ से लाते हो इतनी बढियां फोटो (पंकज भाई के लिये)
.कहाँ थे अब तक, छा गये. ( जोगलिखी पर)
बस कट और पेस्ट. सब अज़माये नुस्खें हैं, मेरी बात मानो, बहुत कारगर हैं.
और तो आप खुद ही समझदार है, साथ ही संवेदनशील भी, जब भी अच्छी और कामन टाईप की टिप्पणी दिखे, बस कट एंड पेस्ट करके रख लो. बहुत काम आती हैं.
और इन सब से ऊपर, पोस्ट कैसी भी हो, टाईटल एकदम धासूँ रखो. वही तो खिंचता है, नारद से नज़र को आपके ब्लाग पर.मैने तो यहाँ तक देखा है, टाईटल के बेस पर लोगों ने क्या क्या बताने के लिये के लिये अपने ब्लाग पर बुला लिया, मसलन:
.अब वो छुट्टी पर जा रहे हैं.
.अब वो छुट्टी से आ गये हैं.
.जल्द ही कुछ पोस्ट करने वाले हैं ( जबकि आज तक नही किया, और उस पर भी टिप्पणियां प्राप्त कर सुशोभित हुये)
.नित्य कर्म कैसे निपटाया.
यहाँ तक कि मै नया चिठ्ठा शुरु कर रहा हूँ, स्वागत करिये( फंस गये ना, करो तो मरो, मालूम है कुछ भी पढवायेगा, और ना करो, तो फिर अपने ब्लाग पर वो भी टिप्पणी नही करेगा..ये तो गज़ब हो जायेगा, ना भई ना)
सबसे मजेदार मुझे लगती है, पलायन की सूचना. मेरी यह दुकान बंद हो रही है, कृप्या अब वर्ड प्रेस पर पधारें. अरे भई, हम कोई तुम्हे एड्रेस से थोडे ही ना जानते हैं, ना ही तुम्हे फ़ेवराइट मे डाले है, हमारा माध्यम तो नारद हैं, तुम जहाँ भी जाओगे, नारद हमें बतायेंगे.
अंतिम सलाह, अगर इतने अति संवेदनशील हो तो ब्लागिंग बंद कर दो और वही पुराना रस्ता अपनाओ, कि दोस्त को चाय नाश्ता कराओ और सुनाओ....ब्लागिंग कि दुनिया वो दुनिया है दोस्त, जहाँ चार पोस्ट तक तो सब संभव है, उसके बाद लौटना संभव नही, अभी भी संभल जाओ.
चलिये, मुझे लग रहा पोस्ट लंबी हो रही है...अब बंद करता हूँ..कबीर दास के इन शब्दों के साथ कि धीरज़ धरो हे छायावादी:
"धीरे धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय
माली सिंचें सौ घड़ा, रितु आये फल होय"
इंतजार करो, छाया भाई, दिल छोटा ना करॊ...सब ठीक होगा, अभी तो यह शुरूवात है.
--समीर लाल 'समीर'
"कृप्या कोई बुरा ना माने, मेरी किसी को आहत करने की कोई मंशा नही है."
तुम ना आये
तुम ना आये
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इज़हार-ए-मुहब्बत करने को
हमने क्या क्या किये उपाय
प्रेम संदेशे लिखकर भेजे
वो भी तुझको मिल ना पाये.
हरकारे खत ले करके पहूँचे
भाई से तेरे पिटकर आये
फ़ोन उठा कर तेरे बापू
शेर की धुन मे दये गुर्राये.
घर से कालेज के रस्ते मे
निकलो हमसे नज़र बचाये
काली कार के काले शीशे
हरदम रहते चढे चढाये.
जब भी फ़ूल खरीदे हमने
धरे धरे हरदम मुरझाये
तेरे गम मे बनी कविता
संपादक ने दई लौटाय.
छत से कुदे हम तो मरने
बैठे अपनी टाँग तुडाये
सारे लोग देखने पहूँचे
ना आये तो तुम ना आये.
--समीर लाल 'समीर'