शुक्रवार, मार्च 31, 2006

खुदा बनाया है...

खामोशी की इस ज़ुबां मे तूने
आज ये कैसा गीत सुनाया है.

अब दर्द का लावा आँसू बनकर
क्यूँ दिल मे जा समाया है.

हर साँस मे जो रहता था कल
अब पास ना उसका साया है.

कितने गहरे ज़ख्म लगे हैं
मरहम ना अब तक पाया है.

फ़िर क्यूँ जिससे ठोकर खाई
अब उसको ही खुदा बताया है.

जब जब भी यादों मे आया
तब तुमने शीश नवाया है.

--समीर लाल 'समीर'

<<गज़ल की देवी-देवी नागरानी जी का विशेष आर्शीवाद मेरे इस गीत को प्राप्त है, देवी जी को शत शत नमन>>

गुरुवार, मार्च 30, 2006

महाकवि Robert Frost भाग ३: एक नज़रिया-क्षणभंगुर बचपन

जैसा कि मैने पहिले भी कहा था कि Robert Frost हमेशा से मेरे अंग्रेजी के सबसे पसंदीदा कवि रहे है.आज़ फिर एक कविता जो कब से डायरी मे थी, पर नज़र पड गई और भईया को पढते पढते हिन्दी जोर मारने लगी. मात्र मेरे विचार हैं, देखें:

Nothing Gold Can Stay

Nature's first green is gold,
Her hardest hue to hold.
Her early leaf's a flower;
But only so an hour.
Then leaf subsides to leaf.
So Eden sank to grief,
So dawn goes down to day.
Nothing gold can stay.

--Robert Frost

मेरा नज़रिया: क्षणभंगुर बचपन

इस चमन मे एक बालक
फ़ूल सा आकर खिला
निष्कपट, निःस्वार्थ, निश्छल
ह्रदय साथ उसको मिला.

कुछ पलों के बाद ही
ज़माने की हवा चलने लगी
गर्म उन थपेडों से
कोमल त्वचा जलने लगी.

बालक मन ने घबडा कर
कर लिया किनारा बचपन से
छल और कपट का साथ पकड
कर लिया सामना जीवन से.

अब फ़िर चमन उदास है
फ़िर एक बालक की आस है
यही जीवन का यर्थाथ है
यह हर चमन का इतिहास है.

--समीर लाल

शनिवार, मार्च 25, 2006

जब जब भी वो आये

जब जब भी वो आये

एक अरसा किया इंतज़ार हमने
ना खत आया ना संदेशे आये.
वो जब कभी सपनों मे आये
सितम दर सितम बन के आये.

ख्वाबों मे भी एहसास इस कदर
वो दूरियों का लेकर आये.
नींद के उजाले मे भी
धुआं धुआं ही नज़र आये.

ऎसे मै जान लेता हूँ हरदम
कि यादों मे उनके ही थे साये.
जब आँसू आंख भिगा जाये
और नींद कहीं दूर सो जाये.

--समीर लाल

गुरुवार, मार्च 23, 2006

आफिस कुण्डलियाँ और दोहा: एक प्रयास

आफिस कुण्डलियाँ और दोहा मात्र एक प्रयास है, अनुभूति की साईट पर दिये सारे नियमों का पालन किया है. कुण्डलियाँ और दोहा पर काफ़ी विस्तार से समझाया गया है यहाँ देखें: http://www.anubhuti-hindi.org/kavyacharcha/Chhand.htm

मगर मेरे प्रयास को यहाँ देखें:

आफिस कुण्डलियाँ
॥१॥

काम जरुरी ना करो, देर शाम को जाये
न माना पछतायेगा, हानि बहुत कराये.
हानि बहुत कराये कि जब सूरज ढल जाये.
भर लो रम का ज़ाम, साथ सोडा मिलवाये.
बीच बीच मे चुनगे फिर खाना तुम पान
सोकर उठो जब चैन से, तबहि करना काम.

॥२॥

आफिस मे बस कीजिये,उतना सा ही काम
नौकरी चलती रहे, शरीर करे आराम.
शरीर करे आराम जब भी मूड बना लो
कागज़ कलम निकाल और कविता लिख डालो.
कह समीर कविराय खेचो जेब से माचिस
सिगरेट लो जलाय भाड मे जाये आफिस.

आफिस दोहा

नौकरी वहां चाहिये, काम न हो अधिकाय.
मै बैठा कविता रचूँ,बौस समझ ना पाय.

सोमवार, मार्च 20, 2006

कुछ बूंदें बारिश की:विवादित "वाटर" फिल्म

अभी विवादित "वाटर" फिल्म देखी, मन दुखी हो गया.दिल को मेरे रुला दिया और मै अब तक दुखी हूँ. दीपा जी से गुजारिश, नया भारत देखिये और दिखाईये. जो आप दिखायेंगी वही बाहरी दूनिया समझेगी...खैर, जो भी हो, इस बाबत कुछ पंक्तियाँ उतर आयीं कागज पर.....चुहिया को देख:

कुछ बूंदें बारिश की

छाजन से मैने
हाथ अपने बढा के
बारिश की बूंदो को
अंजूरी मे सजा के

क्या पाया है मैने
यूँ सपने जगा के
अपंग समाज है इसे
अपना बना के.

--समीर लाल

बुधवार, मार्च 15, 2006

महाकवि Robert Frost भाग २: एक नज़रिया-अंधियारे उजियारे

फ़िर सुना और पढा, भईया की एक और कविता. वैसे तो ढेरों पढ चुका हूँ, मगर इसकी गहराई नापने मे पसीने छूट गये. जब जब पढा, एक नया अर्थ. फिर अपने अंदाज़ मे अर्थ लिखा और अब विडंबना यह कि अर्थ भी पदता हूँ तो हालाँकि खुद का लिखा है, फ़िर भी नया मतलब निकलता है. बहुत गज़ब बात है भईया की लेखनी मे, कोई तोड नही. कहाँ जंगल मे तफ़रीह ले रहे थे और कहाँ इतनी गहरी बात "Stopping by Woods on a Snowy Evening ".तो अब फ़िर सुनो, पहले फ़िर से अग्रज और तब मेरी समझ....अनुवाद नही, बस मेरा नज़रिया, भईया Robert की सोच पर....मैने नाम दिया "अंधियारे उजियारे"..कैसा लगा?...भईया भी शीर्षक देखें तो घबरा जायें...

तो पहले भईया:(श्रीमान Robert Frost जी):

Stopping by Woods on a Snowy Evening

Whose woods these are I think I know,
His house is in the village though.
He will not see me stopping here,
To watch his woods fill up with snow.

My little horse must think it queer,
To stop without a farmhouse near,
Between the woods and frozen lake,
The darkest evening of the year.

He gives his harness bells a shake,
To ask if there is some mistake.
The only other sound's the sweep,
Of easy wind and downy flake.

The woods are lovely, dark and deep,
But I have promises to keep,
And miles to go before I sleep,
And miles to go before I sleep.

-- Robert Frost

अब मुझे सुनिये...जब भईया को सुना, जो आपको समझ मे भी नही आई, तो मुझे क्यों नही.....

एक नज़रिया: अंधियारे उजियारे

भाग आया ज़िंदगी से
इस कदर परेशान था
हर तरफ़ घनघोर अंधेरा
जानकर हैरान था.

गमों के थे स्याह जंगल
आसूओं की झील थी
मै ही अपने साथ था
बस मौत ही तामील थी.

तब उठी झंकार मन से
आत्मा की आवाज है
क्या तू करता है रे पगले
ज़िदगी नायाब है.

पहचान तुझको खुद बनानी
होगी इस संसार मे
खुशीयाँ ही है हर तरफ़
बस देखने का अंदाज़ है.

ध्यान रख कि इस धरा को
तुझसे अनंत अरमान हैं
अंतिम पडाव के पहले
अभी बाकी बहुत मुकाम हैं
अंतिम पडाव के पहले
अभी बाकी बहुत मुकाम हैं.........

--हिन्दी मे एक नज़रिया: समीर लाल

यह मात्र मेरा नज़रिया है इस कविता को देखने का. आपका क्या नज़रिया है इसका इंतजार रहेगा.

सोमवार, मार्च 13, 2006

महाकवि Robert Frost: एक नज़रिया..अनजान राहें

Robert Frost हमेशा से मेरे अंग्रेजी के सबसे पसंदीदा कवि रहे है. उनकी कविताओं को जितनी बार पढता हूँ, एक अलग ही अर्थ पाता हूँ, ऎसा इसलिये नही कि अंग्रेजी मे मेरा हाथ बहुत ज्यादा तंग है या दिन पर दिन मेरी अंग्रेजी सुधर रही है.बस उनकी कविताऎं हैं ही इतनी गहरी कि पूर्ण थाह पाना सिर्फ़ तथाकथित विद्वानों के बस की बात है. मै जानता हूँ कुछ ऎसे विद्वानों को. खैर, उनको मेरा साधुवाद. अब फ़िर से रोर्बट बाबू की बात करें. जाने कहाँ कहाँ अकेले घूमते रहते थे और वो भी कलम ले कर. बिन बात की बात पर, बस कहीं भी किनारे बैठ गये और कविता दाग दी. अब आप हम भी तो कितने तिराहों से गुज़रे हैं, बल्कि रोज़ ही कहीं ना कहीं तिगड्डा ( ये जबलपुरीया वर्जन है तिराहे का) पडता है, कितनी बार शार्ट कट के चक्कर मे दूसरे वाले रोड से निकल गये...क्या कभी कविता लिखी इस पर..नहीं..क्या कभी इससे कोई जीवन मे अंतर आया, नहीं..ब्लकि कई बार वन वे वगैरह के चक्कर मे जरुर फ़सें. मगर, भईया(रोर्बट भाई) ने तो ऎसी सटीक कविता लिख डाली कि अच्छे अच्छे हिल गये..The Road Not Taken...जब सब हिले तो हम क्यों ना हिलें. अब हिलें तो पता भी तो लगे कि हिले..तो पेश है हमारा भईया की कविता का हिन्दी रुपांतरण. आशा है, आपको इसका भावनात्मक पहलू पसंद आयेगा. पहले आप रोर्बट भाई को पढें, फ़िर मुझे. भईया अग्रज हैं, हक बनता है.

The Road Not Taken

TWO roads diverged in a yellow wood,
And sorry I could not travel both
And be one traveler, long I stood
And looked down one as far as I could
To where it bent in the undergrowth;
Then took the other, as just as fair,
And having perhaps the better claim,
Because it was grassy and wanted wear;
Though as for that the passing there
Had worn them really about the same,
And both that morning equally lay
In leaves no step had trodden black.
Oh, I kept the first for another day!
Yet knowing how way leads on to way,
I doubted if I should ever come back.
I shall be telling this with a sigh
Somewhere ages and ages hence:
Two roads diverged in a wood, and I—
I took the one less traveled by,
And that has made all the difference.

--Robert Frost

अब मेरी बारी, सुनना ही पडेगा:

अनजान राहें.........

राह पकड मैं चल रहा था, मंज़िल थी बस ध्यान मे
देखा तब दॊ राह को बनते, उस पर्ण वन उद्यान मे.

एक मैं और सीमा मेरी है, दोनो पर कैसे चल पाऊँगा
किस पर चलूँ उलझन बस इतनी, मंज़िल किस पर पा पाऊँगा.

एक वो जो अल्लहड बाला सी, बना ना सकी कोई पहचान
दूसरी जिस पर थे अंकित, असंख्य कदमों के निशां.

मैने चुनी वो राह जिस पर, घाँस थी बस हरी हरी
शायद अब तक बहुत थोडे, जिसने इसकी थाह धरी.

सोचता था फ़िर कभी, यह दूसरी मै राह लूँगा
अंर्तमन मे जानता था, कहाँ कभी ये अंज़ाम दूँगा.

चल पडा बिन पद चिन्ह की, उस राह का दामन मै थाम
शायद वो ही फ़ैसला था, जिससे पाया अभिनव मुकाम.

--हिन्दी नज़रिया एवं रुपांतरण: समीर लाल

अपनी प्रतिक्रिया बतायें, तब तक मै मेरी दूसरी कविता जो फ़िर से भईया की सोच पर आधारित है, को तैयार करता हूँ.

रविवार, मार्च 12, 2006

तेरी बहुत याद आती है.....

हिन्दी नेस्ट कार्यशाला #१६ मे चयनित मेरी रचना:













यादें

जब भी उस तस्वीर की तरफ
मेरी नजर जाती है
मॉ
मुझको तेरी बहुत याद आती है

वो तेरी ऊँगली पकड कर के चलना
समुंदर की लहरों पर गिरना मचलना
वो तेरा मुझको अपनी बाहों मे भरना
माथे पे चुबंन का टीका वो जडना
जब भी हवा अपने संग
समुंदर की खुशबु लाती है
मॉ
मुझको तेरी बहुत याद आती है

वो मेरी चोट पर तेरा आसूँ बहाना
मेरी बात सुन कर तेरा खिलखिलाना
मेरी शरारतों पर वो झिडकी लगाना
फिर प्यारी सी लोरी गा कर सुलाना
जब भी रातों मे हवा
कोइ गीत गुनगुनाती है
मॉ
मुझको तेरी बहुत याद आती है

शुक्रवार, मार्च 10, 2006

ऎसा क्यूँ हो जाता है......

ऎसा क्यूँ हो जाता है
जब रात चाँदनी आती हैं
दिल की धडकन बड जाती है
तेरी यादें बहुत सताती हैं.

ऎसा क्यूँ हो जाता है
जब कोयल कूह कूह गाती है
पैरों मे थिरकन होती है
तेरे गीत हवा सुनाती है

ऎसा क्यूँ हो जाता है
जब हवा चमन महकाती है
आँखॊं मे आँसूं होते हैं
तेरे बदन की खुशबू आती है.

ऎसा क्यूँ हो जाता है
जब मॊसम मे बदली छाती है
दिन मे अंधियारा होता है
जगे स्वपन तेरे दिखलाती है.

मंगलवार, मार्च 07, 2006

सुना है आज होली है

सुना है आज होली है
हम बेवतन-
आज फ़िर आँख अपनी हमने
आंसुओं से धो ली है.

हर तरफ़ बस रंग होंगे
साथी सारे संग होंगे
गुलाल और अबीर माथे पे मल
नाच गानों मे मगन होंगे.

सुना है आज होली है
हम बेवतन-
आज फ़िर आँख अपनी हमने
आंसुओं से धो ली है.

बच्चों की टोली मे हूड़दंग होंगे
अभिवादन मिठाईयों के संग होंगे
पिचकारियों की बौछारों से
भीगे सारे चमन होंगे.

सुना है आज होली है
हम बेवतन-
आज फ़िर आँख अपनी हमने
आंसुओं से धो ली है.

सोमवार, मार्च 06, 2006

घबरा गया हूँ


परछाई

से अपनी

घबरा गया हूँ

लगे है कि

घर से

दूर

आ गया हूँ.


शनिवार, मार्च 04, 2006

मै नेता बन जाऊँ

बचपन मे कभी एक कविता पढी थी, अब प्रथम दो पंक्तियों के सिवा कुछ याद ही नही आ रहा है.
प्रथम दो पंक्तियों कुछ इस प्रकार थीं (बच्चा अपनी माँ से कह रहा है):

माँ मुझको एक लाठी दे दो
मै गांधी बन जाऊँ.........

बस, इतना ही याद आ रहा है. आप मे से किसी को याद हो तो कृप्या लिखें और यदि किसने लिखी थी पता चल जाये तो और भी अच्छा.
वैसे वर्तमान परिपेक्ष मे इस तरह की पंक्तियों का याद रह पाना भी संभव नही है.जब जब दिमाग पर जोर अजमाया, चंद नई पंक्तियाँ कागज पर उतरती गईं.पेश है, गौर फ़रमायें:


मै नेता बन जाऊँ


बाबू मुझको बम दिलवा दो
मै नेता बन जाऊँ

बूथ लुट कर सारे वोट
अपने नाम कराऊँ
संसद मे जब पहचुँ मै
तब बोली अपनी लगाऊँ
साथ निभाने का वादा कर
लाखों रुपये कमाऊँ

बाबू मुझको बम दिलवा दो
मै नेता बन जाऊँ

प्रश्न उठाने को संसद मे
मोटी रकम बनाऊँ
अबला की इज्जत मै लूटूँ
दंगे खूब कराऊँ
गुंडे मुझसे थर थर काँपें
जेलों मे पूजा जाऊँ

बाबू मुझको बम दिलवा दो
मै नेता बन जाऊँ

विपदा और त्रासदी पर मै
मंद मंद मुस्काऊँ
हर्जाने का माल हज़म कर
घडियाली आँसू बहाऊँ
जन सभाओं मे जब पहचुँ
युग पुरुष कहलाऊँ

बाबू मुझको बम दिलवा दो
मै नेता बन जाऊँ

शुक्रवार, मार्च 03, 2006

कभी जी भर पीने का ख्वाब लिये...

इस रचना मे सुरा शब्द का इस्तेमाल प्रवासी अरमानों को ईंगित करने के लिये किया गया है, यह जानते हुये भी कि सुरा का उपयोग हानिकारक है. शब्दों के अंदर दबी भावनाओं पर ध्यान दें....अन्यथा......आपकी मरज़ी......


कभी जी भर पीने का ख्वाब लिये
बेवतन हो दरदर भटक रहा हूँ मै
सुरा ना जाने वो मिलती है किस ज़हां
जिसकी हर पल तलाश कर रहा हूँ मै ।

प्यास बुझाने को है काफी घर मे मगर
नशे मे मद मस्त होने मचल रहा हूँ मै
जानता हूँ ये है एक मरीचिका मगर
नशे का गुलाम प्यासा मर रहा हूँ मै ।

-समीर लाल
टोरंटो, कनाडा

मेरा कविता लिखने का प्रयास

अग्रज ने सलाह दी थी कि कविता मन के भाव हैं, जो मन को अच्छा लगे वो लिखो और पढने वालों को पसन्द आ जाये तो बोनस. बस हमने भी ठान ली कि अब कविता लिखेंगे. उस रोज़ शाम को स्नान ध्यान करके माँ सरस्वती की आगे दो अगरबत्ती जलाई और कविता लिखने बैठ गये. तीन घंटे मशक्कत की, ढेरों कविताओं की साईट पर जा जा कर कठिन कठिन शब्द बटोरे, आपस मे उनके ताने बाने बुने और बस कविता तैयार. भेज दी एक पत्रिका मे छपने.
संपादक या तो बिल्कुल फ़ुरसतिया थे या एकदम प्राम्पट. तुरंत जवाब आ गया और साथ ही रचना भी, संपादक जी की टिप्पणीं के साथ. लिखा था, " आपकी कहानी पढी, मगर ऎसा प्रतीत होता है कि कहानी का अंत पृष्ठ भूमि से भटक गया है. लघु कथाओं की सारगर्भिता लेखक की सजगता पर आधारित होती है. सजगता के साथ लिखने का प्रयास करें. शुभकामनाओं सहित-"
सर्वप्रथम तो मुझे यह नही समझ आया कि मैने तो कविता लिखी थी उसे संपादक जी ने कहानी कैसे मान लिया और वो भी लघु कथा. दूसरा, मैने तो लिखते वक्त कोई पृष्ठ भूमि ही नही बनाई तो मै भटका काहे से.

बस मै समझ गया कविता अपने बस मे नही. अब सोचा है गीत और गज़लों पर हाथ आज़माऊँगा, और हाँ, कभी मौका लगा और गीत गज़ल लिखते समय सुर ताल ना बैठी तो हायकू पर भी. ऎसा पता चला है कि हायकू छोटी क्षणिकाओं के जापानी माडल का नाम है, ध्यान दें- क्षणिकाओं मे भी छोटी क्षणिकाएं. कुछ नियमों का पालन भी करना होता है जैसे कि यह तीन लाइन की होती है तथा इसमे १७ वर्ण होते हैं, पहली लाइन मे ५, दूसरी मे ७ और तीसरी मे ५. संयुक्त अक्षर को एक अक्षर गिना जाता है. तीनों पंक्तियां पूर्ण होना चाहिये. इसे हाइकु भी कहा जाता है. (हाइकु पर विस्तार से जानने के लिए http://www.anubhuti-hindi.org पर जा कर हाइकु पर क्लिक करें एवं डा. व्योम का लेख पढें.). खैर आपको समझाने के लिये कि हायकू कैसी होती है, वर्तमान आपबीती घटना पर मेरी प्रथम हायकू:
----------------------
कविता लिखी
उनकी नासमझी
कहानी लगी.
-----------------------
सारे नियमों का पालन करते हुये लिखी है, चाहें तो गिन लें.
अपनी यह प्रथम हायकू, मै उन्ही संपादक महोदय को समर्पित कर रहा हूँ.

बुधवार, मार्च 01, 2006

पंडित काली भीषण शर्मा उर्फ काली बाबू- एक परिचय

पंडित काली भीषण शर्मा, प्रधान संपादक-हमारे शहर के सबसे लोकप्रिय दैनिक के. ज़ाहिर सी बात है जितना लोकप्रिय दैनिक अखबार है उतना ही लोकप्रिय और रौबदार काली बाबू.
हाँ, वो काली बाबू के नाम से ही शहर भर मे जाने जाते हैं. जैसा नाम, वैसा ही उनका रंग और काया. मज़ाल है कि कभी धूप भी उनके रंग को और दबा पायॆ. पूरा ऊँचा कद और तिस पर से हौदे जैसा निकला पेट. उनकी कुर्सी कभी हत्थे वाली नही होती थी, शायद उसमे वो अट भी ना पाते. कभी हाथों को आराम देना हो तो वो उन्हे आपस मे बाँध कर तोंद पर रख लिया करते, या यूँ कहिये कि जब कभी भूले से कुछ काम करना हो तो हटा लिया करते थे.
वैसे वो बहुत बातूनी व्यक्ति थे किन्तु मज़बूरीवश अधिकतर चुप ही रहते थे. मज़बूरी भी ऎसी, कि बस आदत की गुलामी. उन्हे पान खाने की आदत थी और उसमे बाबा ६०० खुशबू के लिये और रगडा तम्बाखू नशे के लिये. मुन्ना पानवाला, जो शहर का सबसे नामी पानवाला था, उसके यहाँ से उनके लिये एक बार मे १२ पान आते थे और ऎसा काली बाबू के घर लौटने के पहले चार या पाँच बार होता था. हर वक्त उनका मुँह पीकदान की तरह भरा रहता था. जब तक बहुत ही आवश्यक ना हो तब तक वो बोलने के लिये पान थूक कर उसका मज़ा बिगाडना नहीं चाहते थे. या तो इशारों से काम चला लेते या फ़िर आकाश मे मुँह उठाकर अपनी बात किसी तरह बिना पान का ज़ायका बिगाडे कह लेते थे. पिछले कुछ दिनों से पान के साथ साथ पान पराग की पुडिया भी आने लगी थी. उसके आने से उनका सरोता जिससे वो पहले सुपारी काट काट कर बीच बीच मे फ़ाकते रहते थे, वो बिचारा टेबल पर किनारे पडा पडा धूल फ़ांकता रहता है. अब वो पुडिया से दो चार दाने पान पराग के बीच बीच मे फ़ाकते जाते, मगर पान का पीक उनके मुँह से कभी जरा भी ना चुआ- बहुत ही सधा हुआ व्यक्तित्व था उनका.
वैसे तो कुछ काया की मेहरबानी और उस पर से प्रधान संपादक होने की जिम्मेदारी ( हालाँकि यह आज तक कोई नही जनता कि वो जिम्मेदारियाँ कौन सी हैं), उन्हे पान थूकने के लिये कुर्सी से ना उठने के लिये बाध्य कर देती थी. वो वहीं बैठे बैठे जो प्लास्टिक की बाल्टी कचरा फेंकने के लिये टेबल के नीचे रखी होती थी, उसी को थोडा उठा कर और मुँह लगभग उसके अंदर, थूक लिया करते. तीन चार थूक के बाद उनकी टेबल पर रखी घंटी बज उठती और रामदीन जो वहीं नज़दीक मे स्टूल पर बैठा ऊँघ रहा होता, तुरंत चौक्कना हो उनकी तरफ़ देखता और काली बाबू उसे इशारे से पानी लाने कहते. फ़िर उसी बाल्टी मे कुल्ला और नया पान शुरु. ये बात मुझे आज़ तक समझ मे नही आई कि जब तुरंत ही पान फ़िर से ठूँस लेना है तो फ़िर कुल्ला किया ही क्यूँ. खैर वो उनकी आदत थी और इससे किसी की सेहत को क्या. बल्कि रामदीन की ही थोडी कसरत हो जाती है वरना तो वो कब का गठियावाद का मरीज़ हो चुका होता.
रामदीन प्रधान संपादक महोदय काली बाबू का चपरासी था और उनके सिवा किसी और की घंटी नहीं सुनता था. कई बार अन्य कर्मचारियों ने काली बाबू से इस बात की शिकायत भी दर्ज की मगर काली बाबू झट सबकॊ रामदीन जैसी छोटी जात वालों से मुँह ना लगने की सलाह दे डालते और रामदीन पर कार्यवाही करने का आश्वासन दे मामला रफ़ा दफ़ा कर देते. वो रामदीन से कभी कुछ ना कहते. रामदीन सिर्फ़ दफ़्तर मे ही नही, उनके घर मे भी काम करता था. वैसे तो वो उन्ही के गांव से घर पर काम करने के लिये लाया गया था जिसे काली बाबू ने अपने प्रभाव से अखबार मे लगवा लिया था. कई ज्ञानी कर्मचारियों का मानना था कि रामदीन के पास ऎसे कई राज हैं जिसके चलते काली बाबू उससे कभी कुछ ना कहते. यूँ भी कई समझदार कर्मचारी उसके रोब दाब को देख उसे प्रधान सम्पादक सा ही मान सम्मान देते.
काली बाबू जब अपनी कुर्सी पर शाम को चार बजे आकर स्थापित होते तो उनकी आँखें हमेशा लगभग तीन चौथाई बन्द रहती. अगर ध्यान से ना देखें तो लगता था जैसे सो रहे हैं मगर यही उनकी स्टाईल थी. अखबार सामने खुला, मुँह मे पान, बिल्कुल स्थिर अवस्था उस पर से मोटापे के कारण साँस की हलचल भी पेट के उपर तक नहीं आ पाती थी. मै सोचा करता था, ईश्वर ना करे, यदि किसी दिन बैठे बैठे काली बाबू स्वर्ग सिधार जायें, तो बाकी लोगों को तो देर रात ही पता चल पायेगा कि काली बाबू नही रहे क्योंकि उनके रहने और न रहने के अवस्था मे भेद कर पाना बडे बडे ज्ञानियों की समझ शक्ति के बाहर था. वह रात एक बजे प्रथम प्रिंट तैयार होने तक अधिकतर इसी अवस्था मे रहते.
बहुत बरसों पूर्व, जब वो मात्र संपादक हुआ करते थे तब कभी कभी संपादकीय लिख भी दिया करते थे अन्यथा तो यह नेक कार्य कोई जूनियर पत्रकार कर देता और आप मात्र कुछ फ़ेर बदल कर अपनी कलम ऊँची रखते हुये छपवा देते थे. जबसे प्रधान संपादक हुये हैं तो कलम का यह साथ भी जाता रहा. काली बाबू निर्भीक, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष पत्रकारिता के पक्षधर और अन्य पत्रकारों को भी यही सीख दिया करते थे. बस इतना ख्याल रखते थे कि जिस पार्टी के बारे मे समाचार छप रहा है उससे यदि काली बाबू ने कोई समझौता कर लिया है तो समचार ना छप जाये.झूठ बोलना उन्हे सख्त नापसंद था. मगर सच बोल कर ही रहेंगे ऎसा भी नही था. बस चुप रह जाते थे.एक चुप हज़ार चुप में ना जाने कितने राज़ और समाचार दफ़न हो गये.
उनके परीचितों की तादाद में कोई कमीं नही थी. अक्सर लोग उनसे मिलने आते रहते मगर वो हाँ हूँ में ही ज्यादा ज़वाब देते और अधिकतर मुस्करा कर काम चला लेते. मित्रों के काम को कभी मना ना करते.प्रशासन और अधिकारी उनके नाम से काँपते थे कि कब ना कलम चला दें. इस बात से काली बाबू भली भाँति परिचित थे और सरकारी लोगों से फोन पर बात करते समय जरुर पीक थूक कर बात करते. पूरी दबंगता से. शब्दों से ज्यादा गालियों का प्रयोग. उनकी गाली बकने की अदा भी निराली थी. लगभग गाते हुये. कार्य की विशिष्टता के आधार पर वो गालियों का प्रवाह और राग का निर्धारण करते थे. उनके द्वारा कहे कामों के लिये मज़ाल है उन्हे कभी भी दूसरी बार फोन करना पडे, ऎसा मैने तो कभी नही सुना. वो पहली बार मे ही इस तरह बात करते कि लगता था ना जाने कितनी पुरानी बात का तकादा कर रहे हों और उस पर से गाली भरे विष्लेषण.कौन अधिकारी काम ना करने की जुर्रत कर सकता है. सभी की कमीज़ मे तो पैबंद लगे हैं, कौन शामत बुलाये.
रोजमर्रा मे अधिकतर परिचित उनके पास, या तो अपने बच्चों के स्कूल मे एडमिशन या फ़िर रेल्वे आरक्षण के वी आई पी कोटा के लिये आया करते थे. काली बाबू झट अपनी टेबल पर ४ ईंच x ३ ईंच के पैड पर, जिस पर पंडित काली भीषण शर्मा, प्रधान संपादक, दैनिक दिशा. छपा था, एक लाइन का संदेश लिख देते.संदेश हमेशा एक सा- "धारक उचित कार्यवाही का आकांक्षी" और फिर काली बाबू के हस्ताक्षर और दिनाँक, जो कि आदतन वो हस्ताक्षर के नीचे डालते थे. अब ये चिठ्ठी और धारक, मज़ाल है काम ना हो. रिजर्व बैंक के गवर्नर के हस्ताक्षर वाली चिठ्ठी चाहे १०० की हो या ५०० की, को पीछे छोडने की क्षमता होती थी उसमे. मै आज़ भी सोचा करता हूँ कि जब पैड छपवाये तो नाम के साथ साथ यह भी छपवा देते- "धारक उचित कार्यवाही का आकांक्षी" तो प्रधान संपादक महोदय का कितना समय बच जाता.
मेरे काली बाबू के साथ काफ़ी घनिष्ट संबंध थे. मेरी कोई भी बात वो नही टाला करते. शायद मुझसे ही वो सबसे ज्यादा बात भी किया करते थे. हमेशा चाय जरुर पिलवाते और अक्सर पत्रकारिता के गिरते स्तर पर चिंता व्यक्त किया करते थे. मुझे सफ़ेद कमीज़ पहनना बहुत पसंद था.एक दिन उनके पास से उठकर सीधा एक मित्र के घर डिनर पर पहुँचा तो भाभी जी ने बडे व्यंगात्मक तरीके से मुस्कराते हुये कहा कि भाई साहब आज़ बडी डिज़ाईनदार छींट की शर्ट पहने हैं, कोई खास बात है क्या.मैने झुक कर शर्ट पर नज़र डाली तो काली बाबू के मुँह से छूटे कारतूसनुमा पान पराग के टुकडे पान का पीक साथ मे ला कर मेरी शर्ट के ऊपरी हिस्से को रंग गये थे. बडी शर्मींदगी हुई मगर एक ज्ञान की प्राप्ति भी हुई. अब मै जब भी काली बाबू से मिलने जाता हूँ तो एक तो गाढे रंग की शर्ट पहन कर और दूसरा, यह सुनिश्चित कर लेता हूँ कि मुँह की सीध से हट कर बैठूँ.
काली बाबू के पास एक बहुत पुरानी सी फिएट कार थी जिस पर सवार हो कर वो आँफ़िस आया जाया करते थे. रामदीन जी पीछे की सीट पर आसीन रहते. उनकी फिएट को मैने कभी बिना धक्के के चालू होते नही देखा. अब तो काली बाबू प्रयास भी नही करते थे. बस कार मे बैठे, चाबी लगाई और रामदीन का धक्का शुरु. कार स्टार्ट और रामदीन आसीन. वैसे वो थोडी ढलान पर ही खडा करते ताकि श्रीमान रामदीन जी को ज्यादा तकलीफ़ ना हो. सुना है कि ये कार उन्हे शहर के एक ठेकेदार ने एक नादान पत्रकार की, जिसने काफ़ी भंडाफ़ोडू समाचार बना दिया था ठेकेदार साहब के विषय मे, नादानी पर सफ़लतापूर्वक लगाम लगाने की खुशी मे तोहफ़े स्वरुप दी थी. काली बाबू, स्वभाव से शर्मीले एवं आग्रह के कच्चे, मना ना कर पाये.
दफ़्तर के नीचे ही कल्लू का ठेला है जहाँ से रोज़ रात मे घर जाते वक्त दो उबले अंडे नमक मिर्च डाल कर और एक दोना उबले चने चाट मसाला और प्याज़ हरी मिर्च के साथ काली बाबू के साथ हो लेते थे. काली बाबू से कल्लू कभी पैसे ना लेता. एक तो रंग भाई और उस पर से दफ़्तर के नीचे ठेला लगाने की छूट और दफ़्तर मे दिन भर चाय नाश्ते की सप्लाई. कल्लू ने अपने ठेले पे लट्टू भी दफ़्तर की पहली मंजिल से डोरी खींच कर जलाता है. कल्लू जितना जुगाडू, उतना ही टेक्नेलाज़ी मे आगे, आज़कल उसी डोरी मे से एक तार और खींच कर टेप भी बजाता है. कभी कोई एग्रीमेंट नही बस एक मूक समझौता काली बाबू और कल्लू के बीच. दोनों खुश.
सुना है कि घर पहुँच कर काली बाबू पहले स्नान करते फिर ईतमिनान से बैठ कर एक पूरी क्वाटर XXX रम, जो कि मन्थली बेसिस पर मिलेटरी केंटीन से उनके कुछ भक्त पहुँचा जाते थे, धीरे धीरे अंडे और चने के साथ उदरस्त होती है. इतनी देर मे रामदीन नहा धो कर गरम गरम परांठे और कोई सब्ज़ी या गोश्त बना देता, वही खा कर बस सो रहते. बडा सादगी पूर्ण जीवन है. बस दो लोगों का भरा पूरा परिवार, काली बाबू और रामदीन. रामदीन बताता है कि बहुत पहले काली बाबू की एक अदद पत्नी थी जो असमय शादी के कुछ माह बाद ही स्वर्ग सिधार गई थीं. फ़िर काली बाबू ने कभी शादी नही की और यूँ ही पत्रकारिता करते हुये साहित्य की सेवा मे जीवन गुज़ार दिया. किन्हीं कारणोंवश बहुतों की तरह काली बाबू को भी पत्रकारिता साहित्य सेवा ही लगती थी, वज़ह मुझे आज़ तक ज्ञात नहीं हो पाई.
इसी संदर्भ मे ये भी बताता चलूँ कि काली बाबू का रंग तो पक्का काला था मगर दोनों गालों पर थोडा बैगनी. कई बार वज़ह जानने की कोशिश की कि आखिर गालों से क्या खता हो गई. कुछ लोगों का मानना था कि ये एक्ज़िमा के लक्षण हैं और अगर वो गोमूत्र को गालों पर मालिश के लिए ईस्तेमाल करें, तो आराम लग सकता है. मगर किसी की हिम्मत नही थी कि उनको सलाह देता. काफ़ी बाद मे जब उनके दैनिक रम के सेवन के बारे मे ज्ञात हुआ तब मै समझ पाया. जो लोग गोरे होते हैं उनके गालों पर रम पीने से अक्सर लाली आ जाती है. बस ये वही लाली है मगर चूँकि काले रंग पर उभरी है इसलिए बैगनी दिखती है. कई बार अपने इस तरह के शोध कार्यों पर खुद की पीठ ठोकनें का मन करता है.
एक जरुरी बात तो बताना भूल ही गया, पंडित काली भीषण शर्मा जी के बारे मे. इस नाम की कहानी भी बहुत रोचक है. माँ बाप ने तो नाम काली भीषण ही रखा था वो भी इसलिए नही कि उनका रंग काला था या वो कोई भीषण काया लिए ही पैदा हुये थे बल्कि जब वो पैदा हुये थे वो अमावस्या की अंधेरी रात थी. दाई ने काली बाबू के पैदा होने की सूचना देते हूये कहा कि इतनी काली और भीषण रात है और आपके खानदान मे चिराग आया है. बस पिता जी ने नामकरण कर दिया- काली भीषण. वैसे तो जात से वो कुम्हार थे और उनके पिता जी करते भी कुम्हारी ही थे मगर काली बाबू शुरु से ही पढाई मे तेज थे एवं उस गांव के कुम्हार समाज के पहले सदस्य जो ११ वीं पास कर शहर जा रहे हो आगे पढने. बी ए मे दाखिला मिला था और जब दाखिले के समय बडे बाबू ने रसीद मे लिखने के लिए नाम पूछा तो आपने काली भीषण बताया और भीड की वज़ह ही सरनेम बताने मे सकपका गये. तभी उनका दोस्त बोल उठा कि शरमा रहे हैं, बस बडे बाबू ने क्या सुना यह तो नही मालूम मगर जब रसीद देखी तो उसमे काली भीषण शर्मा लिखा था और बस आप उस दिन से काली भीषण शर्मा हो गये. बिना किसी अनुपूरक परिक्षा के निर्विघ्न तीन साल का बी ए तीन साल मे ही तीसरी श्रेणी मे पास कर लिया. यह अलग बात है कि प्रथम और अंतिम वर्ष मे क्रमशः २ और ३ अनुकम्पा अंक काफ़ी मददगार साबित हुये. जब बी ए करके गांव वापस आये तो समुदाय के लोग कोई ज्ञानी और कोई पंडित जी कहने लगा और आप हो गये पंडित काली भीषण शर्मा.
फ़िर गांव से, हर पढे लिखे व्यक्ति की तरह, आपने भी शहर पलायन किया और पत्रकारिता को जीवन समर्पित कर दिया. अब तो उन्हे खुद भी याद नही कि वो कभी कुम्हार थे बल्कि सुना है कि वो एक ब्राहम्ण सभा के स्वयंभू संस्थापक अध्यक्ष हैं.
आगे कभी उनके महिलाओं के प्रति विशेष सहानभूतिपूर्ण व्यवहार और इस बहुआयामीं व्यक्तित्व के अन्य आयामों पर चर्चा करेंगे.

शुरुवात: एक प्रयास

कई ब्लाग हिंदी मे देख कर मन किया कि मेरा भी एक ब्लाग होना चाहिये. अब लिखूँ क्या...सोचा जहाँ तक मन की उडान जायेगी, वहाँ तक लिखता जाऊँगा और नाम रखा उडन तश्तरी. बस लिखने लगा अपने एक मित्र के बारे मे और लिख रहा था लिख रहा था... मगर ज्यादा ही लम्बा लिख गया, अब तो मेरी लेखनी आपको पढना ही पडेगी.