पहले की तरह ही, पिछले दिनों विल्स कार्ड भाग १ , भाग २ , भाग ३ ,भाग ४ , भाग ५ और भाग ६ को सभी पाठकों का बहुत स्नेह मिला और बहुतों की फरमाईश पर यह श्रृंख्ला आगे बढ़ा रहा हूँ. (जिन्होंने पिछले भाग न पढ़े हों उनके लिए: याद है मुझे सालों पहले, जब मैं बम्बई में रहा करता था, तब मैं विल्स नेवीकट सिगरेट पीता था. जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता......) |
आज फिर छुआ कुछ और विल्स कार्डों को...जाने कब कब और क्या क्या दर्ज किया था. क्या सोच रहा था उस वक्त. अब तो चित्र भी नहीं खींच पाता.
लेकिन मेरे जीवन में भी तो जाने कितनी घटनायें ऐसी हैं जिनका चित्र अगर कोशिश भी करुँ तो नहीं बना सकता. सोचते ही असहज हो जता हूँ.
कुछ ऐसे वाकिये जिन पर अब तक सहज विश्वास नहीं होता, गुजर गये और मैं देखता रहा चुपचाप. क्या कहता? विरोध करता? करता तो अपनों को ही बदनाम करता और सुनता कि आपके वो...ऐसा कर गये...जुड़ता तो मुझसे ही आकर. मौन सिद्ध रहा. बदनामी बची. पहले मेरी और फिर उनकी.
उन्होंने भी पहचाना. बस, स्वीकारा नहीं. उससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता. मुझे इतना काफी है कि पहचाना. मगर मेरे काफी को दुनिया नहीं समझती. वो उसे समझती है जो दिखता है. मेरे बस में नहीं ऐसा कुछ दिखाना...
तुम्हारे बस में है. गुजारिश है कि गर अपमानित न महसूस करो तो दिखा देना कुछ ऐसा करके जो सिद्ध करे वरना मैं तो यूँ भी जी लूँगा...सच में..संतुष्ट..जानता हूँ कि तुम इस बात को पहचानते हो!! है न!!
कोई अपराध बोध तुम पालो-यह मेरे लिए बर्दाश्त नहीं. प्लीज, ऐसा मत करना!!
मुझे तकलीफ होगी. तुम कहोगे नहीं मगर इससे तुम्हें भी तकलीफ होगी..मैं जानता हूँ.. रिश्ते टूटते है तो बिखरे किरचें दिखते नहीं मगर होते हैं जो कांच से गहरे चुभते हैं.
काँच मे अच्छाई है, टूटता है तो आवाज करता है और टूटन सी उपजी किरचें हैं वो दिख जाती हैं तो निकाली जा सकती हैं और वक्त घाव भर देता है..
रिश्तों की टूटन तो आवाज भी नहीं करती और इसकी किरचें तो बस सालती हैं जीवन भर....कोई तरीका नहीं इन्हें निकालने का सिवाय झेल कर इनके साथ जीने की आदत बना लेने के.
नासूर लिए भी तो लोग जीवन जी ही लेते हैं..मैने क्या खास किया!!!
-१-
रिश्तों पर जमीं गर्द को
खुरच कर नहीं उधाड़ा करते..
खुरचने से जख्म छूट जाता है
और बस
एक आहत रिश्ता
सामने आ जाता है..
उन्हें आँसूओं की नमी से
भीगो कर
फुलाओ
और फिर
स्नेह रुपी मलमल से
साफ कर उबारो...
जो बिगड़ा था उसे भूल
सिर्फ भविष्य को सुधारो.
-२-
प्रेम
जैसे
पिंजड़े के भीतर कैद
पंछियों की आजादी..
कोई बेडियाँ नहीं...
बस, सामाजिक मर्यादाओं
के
दायरे हैं...
और उनके भीतर रहते
एक उन्मुक्त उड़ान का अहसास!!
-३-
सफेद गुलाब
मुझे लुभाते हैं..
और
लाल गुलाब
न जाने क्यूँ
विचलित कर जाते हैं...
देखी थी एक रोज मैने
लाल सूर्ख खून से लथपथ
उस बच्ची की लाश
टीवी पर..
जिसे बलात्कार कर
मार दिया गया....
-४-
आजाद सोच की
ये कैसी गिरफ्त है...
जो
आजाद ही नहीं होने देती ...
इतना आसान तो नहीं
इस जिन्दगी को
जी जाना!!
-५-
वो आया था
दिन भर की मशक्कत के बाद
पसीने में लथपथ
कुछ देर ठहरा
फिर चला गया!!
उसके पसीने की बू
अब भी ठहरी है
अपनी ललकार लिए!!
सफलता यूँ ही तो
हासिल नहीं होती!!
-६-
ओह!!
कितना विस्तार
है इस सागर का...
सौम्य और शान्त
जाने कितना गहरा होगा...
उतरूँ
तो जानूँ...
-समीर लाल ’समीर’