शुक्रवार, अगस्त 31, 2007

जरा हट के: भाग-१

जरा हट के में सोचता हूँ ऐसी कुछ बातें लिखूँ जो हमारी स्थापित सोच, संस्कृति और समाज से जरा परे हटकर हों.

आज देखिये न!! पड़ोस में दो घर छोड़ कर नये लोग आये हैं. अभी सामान का आना लगा ही है. आदतानुसार पहुँच लिये हम हाय हैलो करते. बातचीत के दौरान पता चला भरा पुरा परिवार है.

घर में एक महिला, एक पुरुष और पाँच बच्चे हैं ७ वर्ष से लेकर १८ बरस तक के. इनमें से तीन महिला के बच्चे हैं और २ पुरुष के. तीन महिला के बच्चों में दो उसके पहले पति से हैं और एक दूसरे पति से. अब तीसरे यह साहब हैं जिनकी दूसरी पत्नी से इन्हें दो बच्चे हैं. पहली वाली से भी एक लड़की थी, जो अब अपने बॉय फ्रेंड के साथ रहने लग गई है. बड़ी हो गई है-पूरे २० साल की. यह साहब बहुत खुश हैं कि अगले साल जून में वह इस महिला के साथ शादी करने वाले हैं. रह तो अभी भी वैसे ही एक साथ हैं. मगर तब पति पत्नी हो जायेंगे. फिर इनके भी बच्चे होंगे.






कुछ हैं मेरे और कुछ हैं ये तुम्‍हारे

आएंगे जो कल को वो होंगे हमारे.


है तो खुशी की बात मगर हमारे लिये जरा हट के.

नोट: अगर आपके पास भी ऐसे किस्से हों तो आप मुझे ईमेल करें. मुझे अगर उचित लगा तो आपके साभार से उसे इस श्रृंखला में छापने का प्रयास करुँगा.

मंगलवार, अगस्त 28, 2007

और भईया जी नहीं रहे…

जब हमारे व्यंग्यकार मित्र ने कुछ समय पूर्व अपने जीते जी अपनी मरणोपरांत खोले जाने वाली वसीयत सार्वजनिक कर दी, तो हम भी जरा संभल गये. उनका इस दुनिया से रुखसती का विचार कर ही जाने मन कैसा कैसा हो गया. ठीक वैसा ही जैसा कि कभी कभी बहुत दुखी हो जाने पर होता है. पता नहीं क्यूँ ऐसी फीलिंग आई. जबकि उतनी दुखी होने जैसी बात भी नहीं थी.

इनकी वसीयत भी ऐसी कि क्या कहा जाये. आज तक जितनी वसीयत देखी उसमें सब पीछे छूटे को कुछ न कुछ देकर जाते हैं. इस वसीयत में पहली बार देखा कि देना देवाना तो कुछ नहीं बल्कि फलाने की इतनी उधार लौटा देना. फलाने का इतना बाकी है. उसे ब्याज का यह भाव देना है. तुम मेरे खास हो और मैं तुम्हें चाहता हूँ इसलिये तुम फलाने को लौटाना क्योंकि वो किश्तों में ले लेगा और ब्याज भी कम है.

धन्य है यह वसीयत. संग्रहालय में रखने लायक.

इतने खास मित्र हैं कि यह तो तय ही समझा जाये कि उनके जाने पर राजू भाई का रोल हमें ही अदा करना होगा. बाँस मंगवाने से लेकर उनको राख बनाने तक का सारा जिम्मा इन नाजूक काँधों पर गिरा ही समझिये. फिर आखिर में पेड़ के नीचे खड़े होकर वो भाषाण, जिसमें उनके महान होने से लेकर उनके जाने के अफसोस तक को कवर करना, कोई हँसी खेल तो है नहीं. इसीलिये हमने सोचा कि जब वो वसीयत सार्वजनिक कर गये पूरी उधार आदि के हिसाब के साथ तो हम भी वो भाषाण अभी से तैयार कर लें. फिक्स डेट मालूम रहती तो ट्रक और तैरहवीं के भोज के लिये हलवाई आदि की बुकिंग भी अभी से कर देते. ऐन टाईम पर बिना बुक किये सभी कुछ तो महंगा पड़ता है. कहाँ तक उस समय मोल भाव करेंगे. एक ही काम तो है नहीं.

अब जितना हो सकता है, उतना कर लिया है अभी से. जैसे कि यह भाषाण. कोई सुधार करना हो तो बताईयेगा. अभी तो लगता है कि कुछ समय है:

कृप्या ध्यान दें, नीचे दिये भाषण में () के बीच के वाक्य भाव भंगिमा बनाने और वाक्यों का अर्थ समझाने के लिये हैं, वो भाषाण के दौरान बोले नहीं जायेंगे.


उधारदाता

भाषण:

“ भईया जी नहीं रहे. (विराम-चेहरे पर घोर उदासी)

कल रात तक थे. खाना भी खूब खाया. (उनको खाता देख कोई भी समझदार जान लेता कि ऐसे खा रहे हैं जैसे कि आगे कभी नहीं मिलेगा. मगर कोई समझ ही नहीं पाया. सबने समझा ऐसा वो आदतन कर रहे हैं.) फिर वो सो गये. (सोये भी तो ऐसा कि फिर उठे ही नहीं.) हमेशा के लिये सो गये. चिर निद्रा में लीन.(अब तो जला भी दिया है तो उठने की कोई उम्मीद भी नहीं.)

बहुत दुख हो रहा है. (दुख इस बात का नहीं कि वो नहीं रहे. इन्सान का जीवन है सभी को एक दिन नहीं रहना है, सभी को चले जाना है. दुख तो इस बात का है कि बस थोड़ा जल्दी चले गये.) कुछ (दो-तीन) साल और रुक जाते. (तो हम स्टेब्लिश हो जाते.- दो बूँद आंसू) वे बहुत याद आयेंगे. उन्होंने मेरा बहुत साथ दिया. आज व्यंग्यकारी की दुनिया में मेरा जो भी नाम है वो उनकी ही देन है. उन्हीं के कारण मेरा लिखा अच्छा माना जाता था. (ऐसा नहीं कि वो मुझे लिखना सिखाते थे. मगर उन्हीं की लेखनी का जादू था कि मैं कुछ भी लिख दूँ उनसे बेहतर ही होता था और लोग मुझे पढ़ लेते थे.)

उनके और मेरे संबंधों पर इस मौके पर एक शेर कहना चाहूँगा:

आज मेरा इस जहाँ में, जो जरा सा नाम है
मान ले इस बात को तू, वो तेरा ही काम है.


उनके जाने से जो स्थान रिक्त हुआ है, वो कभी नहीं भरा जा सकेगा. (भर तो सकता है मगर कौन भरना चाहेगा. कोई क्यूँ अपनी लेखनी का स्तर गिरा कर खाई को भरेगा. बेहतर है वो रिक्त ही रहे. सभी तो चैन चाहते हैं.)

भईया जी सिर्फ भईया जी नहीं थे वरन एक युग थे. (युग तो क्या कहिये, घोर कलयुग थे. हर बड़े नेता से लेकर धर्म गुरुओं, भगवानों, शासन तंत्र, बाजार, सामाजिक व्यवस्था को उन्होंने लेखनी के माध्यम से अपना निशाना बनाया. लगा कि नहीं यह अलग बात है, मगर बनाया.) आज सब मौन हैं (सुख चैन में हैं, अब हाहाकार की आवश्यक्ता नहीं रही), सब यहाँ उपस्थित हैं (देखने आये हैं कि सच में चले गये गये या वापस न लौट आयें). आज उनके साथ उस युग की समाप्ति हो गई.

भविष्य उनको याद रखेगा. उनका बताया मार्ग सभी नव व्यंग्यकारों का मार्ग दर्शन करेगा. (इस मार्ग से बच कर चलो).

आज उनके परिवार का रुदन देखा नहीं जा रहा. सब रो रहे हैं. (कमाया धमाया तो कुछ नहीं, इतनी उधार छोड़ गया है कि कैसे चुका पायेंगे सोच सोच कर). आने वाली पीढ़ी भी उन्हें याद करेगी.(इतनी उधार चुकाना इस पीढ़ी के बस में नहीं-अगली पीढ़ी तक ही चूक पायेगा मय ब्याज) .

उनकी व्यंग्य-भारती किताब सदैव उनकी याद ताजा रखेगी. (बिकी तो एक कॉपी नहीं, सारी प्रतियाँ घर पर लदी हैं और प्रिन्टर के पैसे जो बकाया सो अलग ब्याज का मीटर चला रहे हैं). भईया जी रोज एक व्यंग्य कम से कम लिखा करते थे और तीस व्यंग्य की मासिक पत्रिका निकाला करते थे, जिसे वो घूम घूम कर, इस तकादे के साथ कि इस बार फ्री दे रहा हूँ अगले माह से पैसे लगेंगे, सबको बाँटा करते थे. (यह बाँटने का क्रम और तकादे का क्रम सतत चला और हर माह उधार में वृद्धि भी सतत होती गई)

अब वो पत्रिका नहीं निकला करेगी. अब से वो इतिहास हो गई.(व्यंग्य तो खैर कभी भी नहीं थी, कम से कम कुछ तो हुई)

भईया जी के अहसानों को याद कर उन्हें नमन करता हूँ और अब हम दो मिनट का मौन रख यहाँ से विदा लेंगे.(मौन तो खैर सब यूँ भी हैं, बस दो मिनट बाद विदा ले लिजिये).”
नोट: यह पोस्ट मौज मजे के लिये है फिर भी कोई सिरियस हो जाये या बुरा मान जाये तो यहाँ टिप्पणी करने की बजाये भईया जी से उपर जाकर शिकायत करे. वो हमसे कहेंगे तो हम आपसे माफी माँग लेंगे आखिर उनके बहुत अहसान हैं हम पर, कैसे उनकी बात टाल पायेंगे. :)

गुरुवार, अगस्त 23, 2007

दिन का सूरज उगा




तेरी सूरत दिखी आज फिर याद में,
दिन का सूरज उगा यूँ लगा रात में.

फल से लदने लगे पेड़ अंगनाई के
तुम लिए ही रहे बीज बस हाथ में.

उसकी आदत बुरी है वो रोता रहा
जिसने पाई है दौलत भी खैरात में

बेवफा इश्क के जो भी किस्से उठे
जिक्र तेरा ही आया है हर बात में.

तुम मिलोगे उसी मोड़ पर, इसलिये
भीगते ही गये हम तो बरसात में.

प्यार से जो तुम्हारी नजर पड़ गई
आग जैसे लगी मेरे जज्बात में.

घर तुम्हारा यहीं पर कहीं है समीर
देर क्यूँ लग रही फिर मुलाकात में.

--समीर लाल 'समीर'

बुधवार, अगस्त 22, 2007

चूं चूं चीं चीं और हम लोग!!

इस कविता के वास्ते मैने अपने पाठकों, जो कि अधिकतर चिट्ठाकार भी हैं, तीन वर्गों में बाँट दिया है.

पहला वर्ग जो कि 'अ' कहलायेगा कि उम्र सीमा १२ एवं नीचे.
दूसरा वर्ग जो कि 'ब' कहलायेगा कि उम्र सीमा १२ से ६५ वर्ष
तीसरा वर्ग जो कि 'स' कहलायेगा कि उम्र सीमा ६५ वर्ष एवं उपर...?? (उपर का अर्थ सिधार चुकों से न लगाये. इसका मतलब है 65+)


यह कविता 'अ' वर्ग के लिये रची गयी है, वो इसे पूर्णतः रोचक, मनोरंजक ओर ज्ञानवर्धक पायेंगे.

यह कविता 'ब' वर्ग के उन लोगों के लिये भी है जो 'अ' वर्ग की मातायें हैं. 'अ' वर्ग के पिता इसे बेतुका, वाहियात और बकवास मानेंगे अन्य नापसंद करने वाले वर्ग के साथ. इसमें इस कविता का दोष नहीं है. इसमें उनका दर्शन दोष है. उन्हें हर चीज में दोष नजर आता है.राजनेता दोषी-जबकि हैं उनके द्वारा चुने गये. अर्थ व्यवस्थता दोषी, राजनीति दोषी..जब पूछो-क्या आप चुनाव लड़ेंगे इसे सुधारने के लिये? तब उनसे सुनिये कि हम इस लफड़े में नहीं पड़ना चाहते, हमें यह पसंद नहीं. खुद कुछ करना नहीं बाकि सब दोषी. उन्हें स्वभावतः यह कविता पसंद नही आयेगी. जबकि इसका स्टेन्डर्ड साहित्यिक है-बाल साहित्य.

मगर 'ब' और 'स' वर्ग में भी ऐसे लोग हैं जो प्रोफाईल उम्र के हिसाब से इस वर्ग में आ गये हैं मगर हरकत अभी भी वर्ग 'अ' की है, उनकी प्रतिक्रिया का मुझे इंतजार है. हाल यह है कि तुमने मुझे क्यूँ छेड़ा भले ही मैने तुम्हें छेड़ा हो..मैं तो विवाद करुँगा. जो कह लो वो रुठ ही जायेंगे. हर बात में बच्चों की तरह झगड़ना. उस दिन तुमने मुझको परेशान किया था न...आज मैं करुँगा. सारे दोस्तों को बताऊँगा कि तुम गंदे हो. फसाद करवाऊँगा. फिर हसूंगा. शायद उनको भी यह रचना हरकतों के हिसाब से आंकी गई उम्र के कारण उपयुक्त लगे. कोई कह तो दे कि कौआ तुम्हारे कान ले गया, बस दौड़ पड़े कौए के पीछे. अरे भाई, एक बार कान तो चैक कर लो कि ले भी गया है कि नहीं?

यह उनके लिये भी राम बाण सिद्ध हो सकती है जो अपने दोस्तों के बच्चों के पोयेट्रिक काम्पिटेन्स (बेटा, अंकल को पोयेट्री सुनाओ के जबाब में) में जैक एण्ड जिल सालों से झेलते चले आ रहे हैं या फिर मछली जल की रानी है सुन सुन कर पक गये हैं. कम से कम एक नई कविता स्टॉक में आयेगी. आप उन बच्चों को यह कविता प्रिंट करके गिफ्ट स्वरुप दे सकते हैं. यह जनहित का कार्य कहलायेगा. बाकि के लोग भी जैक एण्ड जिल से बच जायेंगे.

वर्ग 'स' इसे नाती पोतों के लिये पसंद करेगा और हमारा अहसान भरेगा. साथ ही उम्र रिवर्सल ऑफ्टर ६५ के सिद्धांत पर उन्हें खुद भी यह पसंद आयेगी.

पाठ्य पुस्तक निगम वाले अगर चाहें तो मुझसे संपर्क करें, उन्हें मैं दे दूँगा इस कविता के सारे अधिकार बहुते सस्ते में.

अब कारण मत पूछिये कि हमने यह कविता क्यूँ रची? ठीक है नहीं मानते हैं तो आगे कभी पोस्ट में बताते हैं कि क्या कारण बना कि हम बाल कविता रच गये. चिट्ठा साहित्य का इतिहास इसका गवाह रहेगा.. इंतजार करिये न!!!

इन्तजार तो खैर करते रहियेगा... पहले के भी बहुत सारे वादों को पूरा करने का इन्तजार हमारे भारत के प्रधान मंत्री बनने की पूर्ण योग्यता की गवाही देते हुए सतत पेन्डिंग हैं.

अभी कविता सुनिये जो कतई अनुराग के महा पकाऊ अभियान का हिस्सा नहीं है.




एक है चिड़िया-
चूं चूं करती
चूं चूं करती
चीं चीं करती
नाम है उसका बोलू
इस डंडी से उस डंडी पर
उड़ती फिरती
कभी न गिरती
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र

फिर दूजी चिड़िया भी आई
चूं चूं करती
चीं चीं करती
उड़ती फिरती
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
नाम बताया मोलू
झूले में वो झूल रही है
खुशी खुशी से बोल रही है
मेरी यार बनोगी, बोलू?
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं
दोनों ने यह गाना गाया
कूद कूद के खाना खाया

तब तक तीजा दोस्त भी आया
नाम जरा था अलग सा पाया
हिन्दु मुस्लिम सिख इसाई
चिड़ियों ने यह जात न पाई
जिसने पाला उसकी होती
उसी धर्म का बोझ ये ढोती
मुस्लिम के घर रह कर आई
एक नहीं पूरे दो साल
ऐसा ही तो नाम भी उसका
सबने कहा उसे खुशाल
वो भी झूला उस झूले पर
इस झूले पर, उस झूले पर
हन हन हन हन
घंटी वो भी खूब बजाता
ट्न टन टन टन
फिर सबके संग खाना खाता
मिल मिल करके गाना गाता
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं

तीनों सबको खुश रखते हैं
ठुमक ठुमक के वो चलते हैं
खुशी में होते सभी निहाल
बोलू, मोलू और खुशाल!!

हम भी मिलकर
गाना गाते
चूं चूं, चीं चीं
चूं चूं, चीं चीं
उड़ते जाते
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र
फुर्र फुर्र फुर्र फुर्र


रविवार, अगस्त 19, 2007

क्या आप मल्लन चाचा को जानते हैं??


भटक गई है जो हवा, उनको दिखाने रास्ते
जल रहा बनकर दिया मैं, रोशनी के वास्ते.


एक बड़े शायर का शेर है. नाम है समीर लाल और तख़ल्लुस 'समीर' लिखते हैं. क्या बलिदान की भावना है शायर की. जानता है कि जब भी हवा सही राह पर आ गई, सबसे पहले वही बूझेगा मगर जज़बा है. सलाम करती हूँ शायर को. यह तो हो गई उड़न तश्तरी की बात. अब हमारी सुनो.

आज पढ़ता था भाई फुरसतिया जी को. स्वतंत्रता की ६०वीं वर्षगांठ पर झूठी आजादी के विषय में सेंटिया रहे थे . कहते हैं 'यह मत पूछो कि देश तुम्हारे लिये क्या कर सकता है बल्कि यह देखो तुम देश के लिये क्या कर सकते हो'.

फिर कलाम साहब के वचन सुनाने लगे कि क्या आपके पास देश के लिये पन्द्रह मिनट हैं? पढ़कर एक बंदे का ख्याल आ गया. उनकी तो पूरी पूँजी ही समय है और जी भर कर है. मगर देश के लिये नहीं, बकबकाने के लिये.

चलिये उनसे परिचय करवाता हूँ, नाम है मल्लन चाचा:




मल्लन चाचा ने जीवन भर कुछ नहीं किया. पिता जी तीन मकान बनवा कर मर गये. दो मकान किराये पर चलते थे और एक में मल्लन चाचा खुद रहते थे. किराये की आमदनी से ठीक ठाक गुजर बसर हो जाती है.

मल्लन चाचा को बात करने का बहुत शौक है और हर बात के लिये वो सामने वाले को ही दोषी मानते हैं. यह उनका स्वभाव था कि कभी किसी बात पर खुश नहीं होना और मीन मेख निकाल कर सामने वाले पर मढ़ देना.




मल्लन चाचा से मिलने उनके घर पहुँचा तो वहीं अहाते में लूंगी लपेटे पेड़ के नीचे चबूतरे पर पालथी मारे बैठे थे.





‘पाय लागूँ, चाचा’

‘खुश रह बचुआ. जरा वो सामने आले से बटुआ तो उठा ले और वहीं चूना भी रखा है. थोड़ा तम्बाखू मल दे.’

मैं तम्बाखू मलता उनके पास ही में बैठ जाता हूँ.

‘का बात है, बचुआ. बहुत दिन बाद दिखे.’

‘चाचा, वो तबियत खराब थी न इसी से.’

‘वो तो होना ही थी. न कसरत, न सैर सपाटा. तो का होगा. यहिये न!!’

‘नहीं चाचा, बस जुकाम पकड़ लिये था.’

‘काहे गरम कपड़ा नहीं पहनते.’

‘चाचा, इतनी गरमी में? वो तो जरा ठंडा गरम हो गया था बस.’

‘तब काहे इतनी शराब पीते हो?’

‘कहाँ चाचा, हम शराब नहीं पीते.’

‘तो फिर कौन ठंडा चीज पिया जा रहा है? बीयर..हा हा!! शहरी का नाती नाही तो! खैर, जाये दो. इ बताओ कि क्या समाचार है शहर का.’

‘चाचा, देश बहुत तरक्की कर रहा है. ढेरन विकास हो रहा है. GDP बहुते बढ़ गया है और मुद्रा स्फिती की दर भी एकदम्मे नियंत्रण में है. विदेशी मुद्रा का भंडार भी लबालब है.’

‘बचुआ, इ सब चोचलेबाजी हमसे न बतियाया करो. हम सब समझते हैं. ई GDP को तो तुम मानो घी, रोटी पर मलने के लिये और मुद्रा स्फिती नियंत्रण को जानो दाल का तड़का. अब रह गये विदेशी मुद्रा भंडार तो वो हैं सलाद और ये तुम्हारे मॉल और कॉल सेन्टरवे सब हइन केक और पेस्ट्री. जब रोटिये, दाल का जुगाड़ नहीं तो इनका का करीं. यह सब तो उनकी सुभीता के लिये हैं जिनके पास रोटी, दाल पहलवें से है. हमार तुहार के लिये नाही. समझे बचुआ.’

‘चाचा, हम तो जो सुनें है वो बताये दिये. बाकि हम तो कुछ किये नहीं हैं. हम पर काहे बिगड़ रहे हैं.’

‘तुम तो यूँ भी किसी कारज के हो नहीं, हें हें हे…’

‘अच्छा, अब चलता हूँ,चाचा. पाय लागी.’

‘ठीक है बचुआ. फिर आना.’

मैं उठता हूँ. चबूतरे के नीचे की जमीन ऊबड़ खाबड़ है पाँव डगमगा जाता है.

‘का बचुआ. जरा संभल कर. कुछ वजन कम करो. बेडौल हुये जा रहे हो. अपना ही वजन तक तो संभल नहीं रहा.’

मैं भी ‘जी’ कह कर चल पड़ता हूँ.

सोचता हूँ कि अगर वो चबूतरे के नीचे दो तसला भी बालू पुरवा दें तो जमीन समतल हो जाये. मगर उन्हें दोष तो दूसरे में ही दिखता है कि तुम वजन कम करो.

अरे चाचा, खुद भी तो कुछ करो कि बस दूसरे की गल्ती देखते रहोगे और हर बात के लिये सबको कोसते रहोगे. फलाना रोटी वालों के लिये है. फलाना हमारे लिये कुछ नहीं करता.

आज हर गली, मोहल्ले में न जाने कितने ही मल्लन चाचा हैं. क्या आप मिले हैं मल्लन चाचा से?

ऐसे में हम विकास की बात करें भी तो कैसे?

गुरुवार, अगस्त 16, 2007

हज़ारों ख्वाईशें ऐसी,कि हर ख्वाईश पे दम निकले

आज तो कुछ लिखने का मन ही नहीं है. रात हो गई है.अँधेरा घिर आया है. मैं घर के पिछवाड़े में निकल कर लॉन में बैठ जाता हूँ. शीतल मनोहारी हवा मद्धम मद्धम बह रही है. बिल्कुल सन्नाटा. अड़ोस पड़ोस सब सो गया है, ऐसा जान पड़ता है.



मैं आकाश में देखते हुये वहीं लॉन पर लेट जाता हूँ. विस्तृत आकाश. बिल्कुल साफ मौसम. एक कोने में खड़ा चाँद. ऐसा लगता मुझे बेमकसद ताकते देखकर मुस्करा रहा है. पूरा आसमान टिमटिमाते तारों से भरा अदभूत नजर आ रहा है. मानो किसी बड़े से ताल में दोने में तैरते असंख्य दीपक. मेरे मन में हरकी पौड़ी, हरिद्वार की याद सहसा जीवंत हो जाती है. गंगा में तैरते असंख्य प्रज्वलित दीप. यह याद भी क्या चीज है, शिद्दत से याद करो तो सब नजारा जैसे एकदम जीवित हो जाता है. मुझे हवा में घी और अगरबत्ती की मिली जुली खूशबू आने लगती है और कान में घंटों और घड़ियालों के संग बजती गंगा आरती साफ सुनाई देने लगती है:

ओम जय गंगा माता......

मैं डूब जाता हूँ. एकाएक एक कार की आवाज से तंद्रा भंग होती है. शायद पड़ोसी देर से लौटा है आज. मैं भी हरिद्वार से वापस कनाड़ा की लॉन में लौट आता हूँ.



फिर एक टक आकाश में दृष्टि विचरण. बचपन में जब छत पर सोया करते थे तब दादी उत्तर में ध्रुव तारा और फिर सप्तऋषि मंडल दिखाया करती थी और उनकी कहानी न जाने कितनी बार सुनाती थीं. मैं आज फिर उसी ध्रुव तारे को खोजने लगता हूँ और फिर वो सप्तऋषि मंडल दिखाई देता है. दादी की कहानी याद आती है कि कहाँ चंद्रशिला शिखर के नीचे, तुंगनाथ स्थित है. निकटवर्ती स्थलों से सर्वोच्च स्थल पर अवस्थित होने के कारण इसे तुंगनाथ कहा जाता है. केदारखंड पुराण में इसे तुंगोच्च शिखर कहा गया है. यहाँ पूर्वकाल में तारागणों यानि सप्तऋषि ने उच्च पद की प्राप्ति हेतु घोर तप किया था. सप्तऋषियों के तप से प्रफुल्लित हो भगवान शिव ने उन्हें आकाश गंगा में स्थान प्रदान करवाया था. बचपन फिर जीवित हो उठता है.

वापस लौटता हूँ आज में तो इस अथाह आकाश गंगा को देख यूँ ही टिटहरी चिड़िया की याद आ जाती है. सुनते हैं वो आकाश की ओर पैर उठा कर सोती है. सोचती है कि अगर आकाश गिरा तो पैर पर उठा लेगी और खुद बच जायेगी. अनायास ही अनजाने में मेरे पैर आकाश की तरफ उठ जाते हैं. तब ख्याल आता है टिटहरी की इस हरकत को लोग उसकी मुर्खता से जोड़ते हैं और मेरे चेहरे पर अपनी मुर्खतापूर्ण हरकत के लिये मुस्कान फैल जाती है और मैं पैर सीधे कर अपने आपको विद्वान अहसासने लगता हूँ. स्वयं को विद्वान अहसासने का भी एक विचित्र आनन्द है, जो इस पल मैं महसूस कर रहा हूँ. इस आनन्द को शब्दों में बाँधना शायद संभव नहीं.

तब तक अचानक ही एक तारा टूट कर गिरता है बड़ी तेजी से. दादी कहा करती थी कि जब तारा टूटे तो उसके बुझने के पहले जो भी वर मांग लो, वो पूरा हो जाता है. जाने क्या मान्यता रही होगी या शायद अंधविश्वास रहा होगा मगर मेरी दादी ने कहा था तो आज भी मेरा मन इस पर विश्वास करने का होता है. कारण मैं नहीं जानता. कभी कोशिश भी नहीं की जानने की.

मैं एकाएक सोचने लगता हूँ क्या मांगू?
हज़ारों ख्वाईशें ऐसी,कि हर ख्वाईश पे दम निकले,.......

मैं सोचता ही रह जाता हूँ और तारा बूझ जाता है.

सोचता हूँ कि हमारी कितनी सारी चाहतें हैं कि अक्सर ईश्वर कुछ पूरा करने का मौका भी प्रदत्त करता है मगर हम ही नहीं तय कर पाते कि कौन सी चाहत पूरी कर लें. हर वक्त बस एक उहापोह. शायद सभी के साथ ऐसा होता हो और फिर कोसते हैं अपनी किस्मत को कि हमारी तो कोई इच्छा ही नहीं पूरी हो पाती.
क्या हम कभी भी तुरंत तय कर पायेंगे, तारे के टूटने और बूझने के अंतराल में कि खुश रहने के लिये हम आखिर चाहते क्या हैं या यूँ ही हर आये मौके गंवाते रहेंगे?

असीमित चाह और सीमित समय और संसाधन. काश, हम सामन्जस्य बैठा पाते तो कितना खुशनुमा होता यह मानव जीवन.

मैं अनिर्णय की अवस्था में लॉन से उठकर घर के भीतर आ जाता हूँ.

टीप : 'गुरुदेव, इस 'हज़ारों ख्वाईशें ऐसी,कि हर ख्वाईश पे दम निकले ' का हल क्या है? यह प्रश्न एक भक्त पूछ रहा है.
हल बताने के लिये स्वामी समीरानन्द जल्द ही प्रवचन देंगे, तब तक आते रहिये और पढ़ते रहिये.

सोमवार, अगस्त 13, 2007

गाँव पुकारता है...



ऐसा नहीं है कि सिर्फ गाँव में रहने वालों को शहर अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं.

मुझे लगता है कि शहर में रहने वालों को गाँव पुकाराता है. थोड़ा अजीब सा लगता है यह विचार. मगर यह सत्य है.

हर बड़े शहर में ढाबेनुमा ग्रमीण परिवेश का अहसास कराते रेस्टॉरेन्ट खुल गये हैं और सारे शहरी गॉव का अहसास पाने वहाँ टूटे रहते हैं. वहाँ नकली लालटेन की रोशनी में, खटिया पर बैठकर पत्तल में खाना खाना स्टेटस सिंबॉल सा बन गया है. लोक नृत्य, मदारी का खेल आदि भी साथ साथ हो, क्या कहने.

यह सिर्फ भारत में नहीं. दुनिया में हर जगह है. कनाडा में भी यह रईसी की निशानी है कि आपके पास एक कॉटेज (कुटिया) शहर से कुछ दूर आबादी के बाहर तालाब के किनारे हो. जहाँ आप वीक एंड में जाकर समय बितायें. जिनके पास खुद के है वो रईस और जिनके पास खुद के नहीं, वो रईसी जताने या यूँ कहें गाँव अहसासने किराये पर लेकर हो आते हैं. मैं दूसरी श्रेणी वाला हूँ. कोशिश होती है कुछ मित्र साथ में हो. इसके दो-तीन फायदे हैं. एक तो खर्चा बँट जाता है. साथ साथ ग्रुप का मजा तो रहता ही है और सब एक दूसरे को जता पाते हैं कि उन्हें गाँव के माहौल से कितना लगाव है. अच्छा लगता है.

सर्दियों में तो बर्फ के कारण उतना संभव नहीं हो पाता मगर गर्मी में जरुर दो एक बार हो आते हैं.

ऐसी ही एक यात्रा पर मै मित्रों के साथ गया.

मुझे यूँ भी नदी, पहाड़, झरने, नौका विहार, बत्तख, पेड़ों के बीच शान्त वन में विचरण करना, सूर्योदय, सूर्यास्त, चाँद, तारे, फूल, कलियाँ बाई डिफॉल्ट पसंद आते है कवि होने के कारण. और वही माहौल वहाँ मिला. नौका विहार करके सब थक गये. शाम होने को थी. सभी ने तय किया कि कॉटेज में कुछ देर लेटा जाये फिर शाम को कैम्प फायर और पीने पिलाने नाचने नचाने और बार बेक्यू का सिलसिला चले. सब आराम करने निकल गये और मैं जंगल के बीच से बनी पगडंडी पर अकेला बढ़ चला.

प्रकृति की छटा देखते बनती थी. हर कदम फिजा की बदलती महक, तरह तरह के फूल, पत्ते, पेड़. बहती हवा. तरह तरह की चिड़ियां, छोटे छोटे जानवर. मैं न जाने किन विचारों में खोया बस चलता चला गया. न जाने कितनी दूर आ गया कॉटेज से. थकान घेरने लगी और प्रकृति के साथ चलने की उत्सुकता उसे पीछे ढकेलती रही. एकाएक जंगल के बीच बने एक मकान पर नजर पड़ी. बाहर बोर्ड लगा था जिसका माईने था, यहाँ घोड़े किराये पर मिलते हैं. बोर्ड देखते ही थकान ने आ घेरा. कदम मानो उठने का नाम ही न ले रहे हों. यही होता है सुविधा की उपलब्धता के साथ.

मैं उस घर के अहाते में प्रवेश कर गया. एक आदमी बगीचे को सजाते मिलता है जिसका नाम रेन्डी है. वो मालिक है इस मकान का या यूँ कहें सेठ है. देखता हूँ उसके पास एक घोड़ा है. उसकी गर्भवती पत्नी घोड़ी और एक छोटा बेटा घोड़ा भी है. छोटा बेटा अभी वजन ढोने लायक नहीं हुआ है, अतः अम्मा के इर्द गिर्द दिन भर धमा चौकड़ी मचाता रहता है. ले देकर काम करने अभी सिर्फ यही घोड़ा है.

वापस कॉटेज तक जाने की बात तय होती हैं. घोड़े पर जीन वगैरह बाँधी जाती है.

आह्ह!!

यह आह मेरी नहीं है. यह उस घोड़े की कराह है जिस पर चढ़ कर मैं बैठ गया हूँ. घोड़े ने मूँह खोल कर कुछ नहीं कहा, मगर मेरे संवेदनशील भावुक दिल ने सुन लिया. मेरे भीतर दया उमड़ती है किन्तु आलस्य और थकान के घने बादल मेरे करुणामयी हृदय पर आच्छादित होकर उसे ढांक देते हैं. घोड़ा भी अपनी क्षमता से अधिक वजन उठाये, बिना किसी खिलाफत के भाव के सर झुकाये, चल पड़ता है. मुझे अहसास हुआ उसकी वेदना उसकी पारिवारिक जिम्मेदारियों के समक्ष मूँह नहीं उठा पाई.

मुझे लगता है कि वो सोचता होगा, अगर वो भी काम करने से मना कर दे तो सेठ उसे निकाल देगा. वो तो उसके किसी काम का रहेगा नहीं. फिर गर्भवती बीबी और छोटे बच्चे को लेकर कहाँ जायेगा? भूखो मरने की नौबत आ जायेगी. हर तरफ बेरोजगारी फैली है. नई नौकरी और आसरा तो मिलने से रहा. फिर सारा जीवन तो जंगल के कच्चे रास्तों पर चला है. ग्रमीण परिवेश में रहा. शहर तो उसे नहीं सुहायेगा और न ही उसे वहाँ रहने और चलने का सुहूर है. जवानी में चला जाता तो ठीक था, अब तो नई बातें सीखना भी मुश्किल है. सुना तो है शहर में नौकरियाँ हैं. मगर उसे उनसे क्या? वो तो किसी को जानता भी नहीं वहाँ. कहाँ जायेगा? यहाँ थोड़ा ज्यादा मेहनत सही, थोड़ी कम सुविधायें ही सही, मगर है तो अपनी जगह. खुली खुली ताजा आबो हवा. प्रदुषण से दूर. ताजगी का अहसास. गाँव के सारे घोड़े एक दूसरे को जानते हैं. एक दूसरे को देखकर सुख दुख कह लेते हैं. सुना है शहर में ऐसा प्रचलन नहीं है. अपने अपने में रहो. वो तो नहीं रह सकता ऐसे घुटन भरे माहौल में.

यही सोचते वो चला जा रहा होगा और मैं उसकी पीठ पर बैठा अपने गंतव्य के आने का इन्तजार कर रहा हूँ. सामने उसकी लगाम थामें खुशी खुशी रेन्डी कोई गीत गाते चल रहा है. लम्बी दूरी है.आज ठीक ठाक कमाई हुई है, लौट कर बीयर पियेगा.

क्या पता घोड़ा वही सोच रहा था कि नहीं जैसा मैने सोचा कि वो सोच रहा होगा या यह मेरा मानवाधारित अनुभव सोच रहा था.

शुक्रवार, अगस्त 10, 2007

ये देश है वीर जवानों का...




स्वतंत्रता संग्राम की १५० वीं और स्वतंत्रता प्राप्ति की ६० वीं वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में हर तरह उत्सव भरा माहौल है. सरकारी विभागों में भी खुशी मनाने की तैयारी है. बच्चे परेड, नृत्य और गीत की तैयारी कर रहे हैं. स्कूलों में एक बालूशाही, एक समोसा, एक लड्डू और एक केला के पैकेट तैयार होने की तैयारी में हैं, जो बच्चों को स्कूल की परेड में आने के लिये ललचायेंगे.

नेता सारे भाषणबाजी के लिये तैयारी में जुटे हैं. लेखक धड़ाधड़ लेख लिखे चले जा रहे हैं और कवि कवितायें. जगह जगह कवि सम्मेलनों का आयोजन भी किया जा रहा है. सफेद खद्दर के कुर्ते पायजामे की बहार आई है. गाँधी जी की तस्वीर से झाड़ पोंछ कर धूल हटा दी गई है और तिरंगा कलफमय फहरने को तैयार है. विभिन्न प्रदेशों के विकास को दर्शाती प्रदर्शनी के ट्रक परेड शुरु होने की बाट जोह रहे हैं. फूल पौधों से अलग हो नेता जी के गले और गाँधी जी की तस्वीर पर चढ़ने को बेताब हैं.

पुलिस महकमा मुस्तैदी से अपने बिल्ले और बक्कल ब्रासो से चमका रहा है एवं एन सी सी के बालक अपनी यूनिफार्म पर आरारोट चढ़ाये बैठे हैं. स्टेडियम और अन्य झंडा स्थलों के करीब सफाई लगभग पूरी हो चुकी है. चुना और गेरु पुतने को तैयार बैठे हैं. गमले लगाकर हरियाली का माहौल बनाया जा रहा है.

अति जागरुक एवं घाग नेताओं के शहीदों के नाम पर बहाये जाने वाले दो बूँद आँसू आँख की पाईप लाईन की यात्रा लगभग पूर्ण कर चुके हैं और वो काला चश्मा उतार कर आँसू पोंछने के लिये उसे पहनने की तैयारी में हैं. इस हेतु एक जोड़ी रुमाल जेब में रख लिया गया है. पुरुस्कार और मैडल मय प्रशस्ति पत्र अपने जुगाडू साथियों के हाथ में जाने को तड़पड़ा रहे हैं. सब जुगाड़ सेट हो चुका है.

शिल्पा शेट्टी का भी देश पर अतुल्य अहसान राजीव गाँधी पुरुस्कार देकर उतारा जा रहा है. इस तरह से हमने अपने सठियाने का प्रमाण पत्र भी तैयार कर लिया है.

'ये देश है वीर जवानों का
अलबेलों का मस्तानों का'


और

'जो शहीद हुये हैं उनकी,
जरा करो कुर्बानी'


के सी डी हिट सेल रिकार्ड कर रहे हैं. दुकानदार खुश हैं. बच्चे पिकनिकनुमा उत्सव मनाने के लिये तैयार हैं. बस उत्सव ही उत्सव. बहुत खुशनुमा महौल हो उठा है.

ऐसे में हमें भी न्यौता आता है कि इन ६० वर्षों की उपलब्धियों पर एक बड़ी सी कविता रच लाईये और आकर कवि सम्मेलन में सुनाईये. अब हमारी हालत देखिये:


आजादी की वर्षगाँठ पर
६० वर्षों की उपलब्धियाँ गिनाते
कविता लिख कर बुलाया है
अथक प्रयासों के बाद भी
यह कवि सिर्फ
एक क्षणिका लिख पाया है.

वो पूछते हैं-
बस इतनी सी?
कवि हृदय कब चुप रहा
उसने बस इतना सा कहा-
अजी, महा काव्य रच कर लाते
अगर आप
भ्रष्टाचारी, बेरोजगारी,
घोटालों और गरीबी के
विस्तार से ब्यौरे मंगवाते.

-समीर लाल 'समीर'

बुधवार, अगस्त 08, 2007

और फिर रात गुजर गई

old

'जागे हो अभी तक, संजू के बाबू' लेटे लेटे कांति पूछ रही है.

'हूँ, नींद नहीं आ रही. तुम भी तो जागी हो?' अंधेरे में ही बिस्तर पर करवट बदलते शिवदत्त जी बोले.

'हाँ, नींद नहीं आ रही. पता नहीं क्यूँ. दिन में भी नहीं सोई थी, तब पर भी.'

'कोशिश करो, आ जायेगी नींद. वरना सुबह उठने में देरी होयेगी.'

'अब करना भी क्या है जल्दी उठकर. कहीं जाना आना भी तो नहीं रहता.'

''फिर भी, देर तक सोते रहने से तबियत खराब होती है.'

फिर कुछ देर चुप्पी. सन्नाटा अपने पाँव पसारे है.

'क्यों जी, सो गये क्या?'

'नहीं'

'अभी अमरीका में क्या बजा होगा?'

'अभी घड़ी कितना बजा रही है?'

'यहाँ तो १ बजा है रात का.'

'हाँ, तो वहाँ दोपहर का १ बजा होगा.समय १२ घंटे पीछे कर लिया करो.'

'अच्छा, संजू दफ्तर में होगा अभी तो'

'हाँ, बहु साक्षी भी दफ्तर गई होगी.'

'ह्म्म!! पिछली बार फोन पर कह रहा था कि क्रिस को किसी आया के पास छोड़ कर जाते हैं.'

'हाँ, बहुत दिन हुये, संजू का फोन नहीं आया.'

'शायद व्यस्त होगा. अमरीका में सब लोग बहुत व्यस्त रहते हैं, ऐसा सुना है.'

'देखिये न, चार साल बीत गये संजू को देखे. पिछली बार भी आया था तो भी सिर्फ हफ्ते भर के लिये. हड़बड़ी में शादी की. न कोई नाते रिश्तेदार आ पाये, न दोस्त अहबाब और साक्षी को लेकर चला गया था.'

'कहते हैं अमरीका में ज्यादा छुट्टी नहीं मिलती. फिर आने जाने में भी कितना समय लगता है और कितने पैसे.'

'हाँ, सो तो है. तीन बरस पहले किसी तरह मौका निकाल कर बहु को यूरोप घूमा लाया था. फिर दो बरस पहले तो क्रिस ही हो गये.उसी में व्यस्त हो गये होंगे दोनों. पता नहीं कैसा दिखता होगा. उसे तो हिन्दी भी नहीं आती. कैसे बात कर पायेगा हमसे जब आयेगा तो.'

'संजू तो होगा ही न साथ. वो ही बता देगा कि क्रिस क्या बोल रहा है.'

दोनों अंधेरे में मुस्करा देते हैं.

'पिछली बार कब आया था उसका फोन?'

'दो महिने पहले आया था.कह रहा था कि १०-१५ दिन में फिर करेगा. और फिर कहने लगा कि अपना ख्याल रखियेगा, बहुत चिन्ता होती है. कहीं जा रहा था तो कार में से फोन कर रहा था. बहुत जल्दी में था.'

'हाँ, बेचारा अपने भरसक तो ख्याल रखता है.'

'आज फोन उठा कर देखा था, चालू तो है.'

'हाँ, शायद लगाने का समय न मिल पा रहा हो.'

'कल जरा शर्मा जी के यहाँ से फोन करवा कर देखियेगा कि घंटी तो ठीक है कि नहीं.'

'ठीक है, कल शर्मा जी साथ ही जाऊँगा पेंशन लेने. तभी कहूँगा उनसे कि फोन करके टेस्ट करवा दें.'

'कह रहा था फोन पर पिछली बार कि कोई बड़ा काम किया है कम्पनी में. तब सालाना जलसे में सबसे अच्छे कर्मचारी का पुरुस्कार मिला है. जलसे में उनके कम्पनी के सबसे बड़े साहब अपने हाथ से इनाम दिये हैं और एक हफ्ते कहीं समुन्द्र के किनारे होटल में पूरे परिवार के साथ घूमने भी भेज रहे हैं.'

'हाँ, वहाँ सब कहे होंगे कि शिव दत्त जी का बेटा बड़ा नाम किये है. तुम्हारा नाम भी हुआ होगा अमरीका में.'

'हूँ, अब बेटवा ही नाम करेगा न! हम तो हो गये बुढ़ पुरनिया. जरा चार कदम चले शाम को, तो अब तक घुटना पिरा रहा है. हें हें.' वो अंधेरे में ही हँस देते हैं.

कांति भी हँसती है फिर कहती है,' कल कड़वा तेल गरम करके घुटना में लगा दूँगी, आराम लग जायेगा. और आप जरा चना और एकाध गुड़ की भेली रोज खा लिया करिये. हड्डी को ताकत मिलती है.'

'ठीक है' फिर कुछ देर चुप्पी.

'इस साल भी तो नहीं आ पायेगा. दफ्तर की इनाम वाली छुट्टी के वहीं से क्रिस को लेकर पहली बार दो हफ्ते को कहीं जाने वाले हैं.'

'हाँ, शायद आस्ट्रेलिया बता रहा था क्रिस की मौसी के घर. कह रहे थे कि आधे रस्ते तो पहुंच ही जायेंगे तो साथ ही वो भी निपटा देंगे. शायद थोड़ी किफायत हो जायेगी.'

'देखो, शायद अगले बरस भारत आये.'

'तब उसके आने के पहले ही घर की सफेदी करवा लेंगे, इस साल भी रहने ही देते हैं.'

'हूँ'

'काफी समय हो गया. अब कोशिश करो शायद नींद आ जाये.'

'हाँ, तुम भी सो जाओ.'

सुबह का सूरज निकलने की तैयारी कर रहा है. आज एक रात फिर गुजर गई.

न जाने कितने घरों में यही कहानी कल रात अलग अलग नामों से दोहराई गई होगी और न जाने कब तक दोहराई जाती रहेगी.

रविवार, अगस्त 05, 2007

एक थी रुक्मणी माई

कनाडा में ट्रेन में ऑफिस जाते आते वक्त आमूमन रोज वही कोच, वही सीट और वही आमने सामने के सहयात्री. मेरे सामने की सीट पर दो लड़कियाँ बैठती हैं. बहुत बातूनी. दोनों के घर नजदीक ही हैं शायद. अक्सर उनकी बातचीत पर अनजाने में ही कान चले जाते हैं.

इतने दिनों से रोज आते जाते ऐसा लगने लगा है कि न जाने कितने दिनों से मैं उन्हें जानता हूँ. वो भूरे बाल वाली का नाम स्टेफनी है और दूसरी वाली सेन्ड्रा. वो मेरा नाम नहीं जानती. मैं जानता हूँ क्योंकि मैने उन्हें एक दूसरे से बात करते सुना है. मैं चुप रहता हूँ, किसी से ट्रेन में ज्यादा बात नहीं करता.

उम्र का अंदाज लगाना मेरे लिये वैसा ही दुश्कर कार्य है जैसा कि किसी तथाकथित जमीनी नेता की अघोषित संपत्ति का अनुमान लगाना आपके लिये. फिर भी जैसे आप कुछ तथ्यों के आधार पर, कुछ उसकी जीवन शैली के आधार पर और कुछ अपनी क्षमता के अनुरुप जोड़ घटा कर उसकी अघोषित संपत्ति का खाँका खींच कर अंदाज लगा ही लेते हैं, वैसे ही आधार पर दोनों ३० से ३५ वर्ष के बीच की उम्र की लगती हैं.

अक्सर इसी यात्रा के दौरान खाली बैठे कहानी और कविताओं का प्लाट तैयार करता हूँ. कोशिश होती है कि मस्तिष्क में उस स्थल को जिऊँ. उस घटना क्रम में लौट चलूँ, जिस पर लिखना है.

भारत के एक गाँव का दृष्य जीने का प्रयास करता हूँ. कच्ची सड़कों पर धूल उड़ाती बस, नंगे पैर खेलते बच्चे, सर पर गगरी रखे पनघट से लौटती पल्ले से सर ढ़ांपे लजाती स्त्रियाँ, खेत में हल चलाते पसीने में सारोबार किसान, तालाब में नहाती भैंसे, गर्मी की धूप में पेड़ की छांव में अलसाते मजदूर, चौपाल पर बैठे न जाने किस सोच और परेशानी में डूबे बीड़ी पीते बुजुर्ग, गोबर की महक, कच्ची झोपड़ियों में जलती ढिबरियाँ, शाम को पेड़ के किनारे गोल बना कर लोकगीत गाते ग्रमीण- सब बिम्ब की तरह उभरते हैं, बनते हैं, मिटते हैं.

ट्रेन अपनी रफ्तार से भागी जा रही है. शीशे के बाहर नज़र पड़ती है. हजारों कारें अपनी धुन में हाईवे पर दौड़ रही हैं. हाईवे के उस पार मॉल में रोशनी में चमचमाती दुकानें, नये नये फैशन में सजे स्त्री पुरुष. ट्रेन के भीतर परफ्यूम से दमकते ऑफिस जाने के लिये सजे संवरे हुये लोग, एक दूसरे से सटे लिपटे बेपरवाह युगल, आधुनिक लिबास में कॉलेजे जाती लगभग अर्ध नग्न स्वछंद युवतियाँ, एयर कंडीशनिंग में खिले स्फूर्त चेहरे, ट्रेन में बजता कोई पाश्चयात संगीत की धुन और सामने खिलखिलाती अपनी बात में मशगुल स्टेफनी और सेन्ड्रा.

सेन्ड्रा स्टेफनी को बता रही है कि कैसे हाई स्कूल के बाद वो इन्डेपेन्डेन्ट हो गई और अलग अपार्टमेन्ट लेकर रहने लगी. तब से एक कॉल सेन्टर में नौकरी करती रही. आगे पढ़ नहीं पाई पैसों की कमी के चलते. बस लोन लेकर कुछ पार्ट टाईम कोर्स किये. पिता जी के पास बहुत पैसा है मगर वो हाई स्कूल के बाद बच्चों को इन्डिपेन्डेन्ट हो जाने वाली सभ्यता में विश्वास रखते हैं. खुद भी वो हाई स्कूल के बाद से दादा जी से अलग हो गये थे. सेन्ड्रा के अलग हो जाने के बाद उसके माँ बाप में भी साल भर के भीतर ही सेपरेशन हो गया था.

मैं आँख बन्द कर लेता हूँ. फिर से लौटता हूँ गाँव की तरफ. बहुत मुश्किल से और तमाम कोशिशों के बाद कुछ धुंधले धुंधले बिम्ब उभर पाते हैं.

आज मन है रुक्मणी माई की दारुण कथा लिखूँ. वही रुक्मणी माई जो मेरे दोस्त कैलाश की अम्मा है. कैलाश हमारे शहर का कलेक्टर था. अक्सर अपनी अम्मा के किस्से सुनाया करता था कि कैसे उसकी दो वर्ष छोटी बहन के जन्म के साथ ही पिता जी की मृत्यु हो गई. गाँव के कच्चे मकान में वो, उसकी बहन और रुक्मणी माई रह गई. छोटी से एक जमीन का टुकड़ा था उनके पास. बताता था, कैसे रुक्मणी माई ने दूसरों के खेतों में मजूरी कर कर के उन्हें पाला पोसा, पढ़ाया लिखाया और कैलाश को कलेक्टर बनाया. वो जब पढ़ ही रहा था तभी उस जमीन के टुकड़े को बेच कर बहन की शादी भी अच्छे घर में कर दी. उसके कलेक्टर बनने के कुछ समय बाद रुक्मणी माई गुजर गई. वो उनके आभावों और कष्टों के दिनों के ढ़ेरों किस्से सुनाता. मैं याद करने की कोशिश कर रहा हूँ.

सामने सेन्ड्रा स्टेफनी को बता रही है कि कल नये किराये के घर मूव में किया है शाम को. माँ अपने बॉय फ्रेन्ड के साथ आई थी सामान शिफ्ट कराने. फिर इस अहसान के बदले वो अपनी माँ और उनके बॉय फ्रेन्ड को डिनर कराने रेस्टारेन्ट में ले गई थी. अब सामान तो शिफ्ट हो गया है. अनपैक करके जमाना है. कुछ अलमारियाँ और लाईटें भी लगनी है. पिता जी से हेल्प माँगी है. उनकी वाईफ की तबियत ठीक नहीं है, इसलिये अगले हफ्ते आ पायेंगे. उनके लिये भी कुछ गिफ्ट खरीदना होगी. वो बहुत रिच आदमी हैं, कोई मंहगी गिफ्ट खरीदना होगी. अकाउन्ट में तो पैसे बचे नहीं है, क्रेडिट कार्ड पर कुछ लिमिट बची है, उसे ही इस्तेमाल करके खरीदूँगी. आखिर हेल्प करने जो आ रहे हैं. मैं उनकी बात न चाहते हुये भी सुन रहा हूँ.

रुक्मणी माई के किस्से याद करने की कोशिश कर रहा हूँ. बिम्ब नहीं खींच रहे. कथा सूत्र याद ही नहीं आ रहे. थोड़ा असहज होने लगता हूँ.

सामने सेन्ड्रा और स्टेफनी किसी बात पर हँस रही हैं.

स्टेशन आने वाला है. अब दफ्तर से लौटते समय कोशिश करुँगा रुक्मणी माई के आभाव और कष्टकारी दिनों की कहानी याद करने की.

गुरुवार, अगस्त 02, 2007

अनुगूँज: हिन्दुस्तान अमरीका बन जाये तो कैसा होगा!!

अनुगूँज 24: हिन्दुस्तान अमरीका बन जाए तो कैसा होगा - पाँच बातें





अगर भारत अमरीका हो जाये तब तो क्या कहने? ऐसी ऐसी उठा पटक मचेगी, कम से कम शुरु के दिनों में, कि लोग दाँतों तले ऊंगलियाँ दबा लेंगे. बड़ी बड़ी विचित्र सी तस्वीरें उभर रहीं है यह सोचते ही.

१. सबसे बड़ा अंतर जो सूरदासी आँखें भी देख सकेंगी कि जो आज किसी काम के नहीं, वो एकाएक सबसे जरुरी हो जायेंगे और जो आज अपनी पोजिशन की शेखी में ईठलाये घूमते हैं, उनकी पूछ शून्य याने कि काया पलट और इसका उच्चतम उदाहरण होगा कि राष्ट्रपति और राज्यपालों की तूती बोलेगी और प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों का तो आप समझ ही गये. कहो, घर वाले भगा दें कि नाक कटवा दी, निक्कमे. दिन भर खाली घर में बैठा रहता है. मैडम मैडम करने की आदत से बाज आ जा. अभी भी समय है, कहीं नौकरी तलाश ले.

मुझे लगता है कि हमारा राष्ट्रपति भी तो मैचिंग ही होता. लालू जी कैसे रहेंगे? और करना भी क्या है. कुछ उल-जलुल काम. कुछ बम पटाखे फोड़ने वाले आदेश और बाकी समय किसी कन्ट्री साईड में छुट्टी पर. आधे से ज्यादा कार्यकाल तो छुट्टी छुट्टी में ही बीत जायेगा.

हमारे राष्ट्रपति २४ घंटे टीवी पर जनता से माफी मांग रहे होंगे क्योंकि अमरीका में जब थोड़ा लम्बी बिजली चली जाती है तो राष्ट्रपति टीवी पर जनता को हुई परेशानी के लिये माफी मांगते हैं. याद है जब अगस्त १४, २००३ को नार्थ अमरीका में पावर फेलूयर हो गया था.

२. कश्मीर का टंटा तो एकदम ही खत्म हो जाता. मुशर्रफ घुटना टिकाये आते और हमारे राष्ट्रपति जी को जन्म दिन के तोहफे में कश्मीर दे जाते. उपर से निवेदन करते कि मालिक, कृपा बनाये रखना. हम लोग भी याचक भाव देखकर कुछ लोन वोन माफ कर देते और कुछ मिसाईलें पकडा देते कि जाओ, खेलो. अब बदमाशी मत करना. अभी हम व्यस्त हैं अपने यहाँ आ रही बाढ़ों के नामकरण में-कटरीना, रीता और न जाने क्या क्या.

३.बिन लादेन का दुश्मन भारत हो जायेगा. बिन लादेन पलायन करके सुदूर देश अमरीका में छिप जायेगा. काहे से की वो अपने सबसे कट्टर दुश्मन से कम से कम सात समन्दर पार रहने का आदी है. भारत की सेनायें कनाडा में जगह जगह छितराई समय समय पर बेमतलब बम पटाखा फोड़ फोड़ कर खुश होती रहेंगी कि लादेन पकड़ में आने वाला है. जैसा कि अभी सुनते हैं, वो छिपा पाकिस्तान में है और अमरीकी फौजें उसे खोजती हैं अफगानिस्तान में.

इसी कड़ी में एक और घटना होगी कि लादेन लाख कोशिश कर लें, उसके जवान बिना स्टाईल बदले शहीद नहीं हो पायेंगे. वो हवाई जहाज हाई जैक करके बिल्डींग में घूसने की तैयारी करेंगे तो अव्वल तो उतनी ऊँची बिल्डींग मिलेगी ही नहीं, जिसमें हवाई जहाज घूस जाये. और गर मिल भी जाये, तो सुबह सुबह ९-१० बजे दफ्तर में होगा कौन? गिरा लो बिल्डींग. कोई मरा ही नहीं.
कई बार तो मुझे लगता है कि बिल्डींग में हवाई जहाज घुसे, उसके पहले ही हवाई जहाज की इत्ती तेज आवाज से ही बिल्डींग गिर जायेगी और हवाई जहाज उड़ते हुये दूसरी तरफ निकल जायेगा. लो फिर हवाई जहाज का भी कोई नहीं मरा. मैंने देखा है, चर्नी रोड़ मुम्बई में लोकल लाईन के बाजू की जवान बिल्डींग ट्रेनों के आवाजाही से उठे कंपन को नहीं झेल पायी थी और एक रात १:४० की लास्ट लोकल को गुड़ नाईट करते खुद धडधडा कर गुड बाय हो गई थी.शायद १९८३-८४ की बात है.

४. आज सद्दाम हुसैन जिन्दा होते भले ही जेल में होते. उन्हें फाँसी की सजा सुनाई जाती. वो राष्ट्रपति से गुहार लगाते. फाँसी रोक दी जाती. और फिर उनका गुनाह तो अफजल टाईप भी नहीं. वो तो अपने घर के अंदर ही हुडदंग मचाये थे. पक्का माफ हो जाती फाँसी. अब तो उसकी किस्मत ही खराब कही जा सकती है कि भारत के अमरीका होने के पहले ही वो टांग दिये गये. फिर भी हमारी फोजें इराक में मुश्तैदी से तैनात रह कर शांति स्थापित कर रही होती. कई सैनिकों के ट्रान्सफर आर्डर आते कि अब आपका ट्रान्सफर इराक से कुवैत हो गया है. भारत फौंजो के खर्च के नाम पर आराम से कुवैत और इराक का तेल लूट रहा होता.

५. विचार उठता है कि तब शाहरुख खान एड्स उन्मुलन के लिये अमरीका आते और एनजिलिना जोली को मंच पर चुम्बन ही चुम्बन जड़ देते. सी एन एन टाईप न्यूज चैनल ढ़ोल पीट पीट कर बार बार चुम्बन प्रकरण पूरे अमरीका में दिखा रहे होते. लोग हाय हाय करते रह जाते और शाहरुख वापस भारत में ऑस्कर अवार्ड लेने और ऑस्कर अवार्ड का इस बार संचालन करेंगे आपके अपने करन जौहर.

ऐसे में जाने क्या क्या हो जाये,
अगर भारत ही अमरीका हो जाये
हम भी आज लाईन में लगे होते
काश! भारत का वीसा मिल जाये.

गंभीर नोट: यह रचना विषय के आधार पर उड़न तश्तरी की एक काल्पनिक उडान मात्र है. इसके माध्यम से किसी पद या व्यक्ति की गरिमा को कोई ठेस पहुँचाने इरादा नहीं है फिर भी यदि किसी को ठेस पहुँची हो तो अमरीकन स्टाईल दाँत चियारे हमारी सॉरी. :)

बुधवार, अगस्त 01, 2007

ग़ुरबत की ठंडी छाँव में

रविवार की वो सुबहें रह रह कर याद आ ही जाती हैं. तब मैं भारत में रहा करता था.

गुलाबी ठंड का मौसम. अलसाया सूरज धीरे धीरे जाग रहा है. शनिवार की रात की खुमारी लिये मैं बाहर दलान में सुबह का अखबार, चाय की गर्मागरम प्याली के साथ पलटना शुरु करता हूँ. दलान में तखत पर गाँव तकिया से टिक कर बैठ ठंड की सुबह धूप खाना मुझे बहुत भाता है. अखबार में कुछ भी खास नहीं. बस यूँ ही रोजमर्रा के समाचार. पढ़ते पढ़ते में वहीं लेट जाता हूँ. सूरज भी तब तक पूरा जाग गया है. अखबार से मुँह ढ़ककर लेटे लेटे कब आँख लग गई, पता ही नहीं चला.

आँख खुली बीड़ी के धुँये के भभके से. देखा, पैताने रामजस नाई उकडूं मारे बैठे बीड़ी पी रहे हैं. देखते ही बीड़ी बुझा दी और दांत निकालते हुये दो ठो पान आगे बढ़ाकर-जय राम जी की, साहेब. यह उसका हर रविवार का काम था. मेरे पास आते वक्त चौक से शिवराज की दुकान से मेरे लिये दो पान लगवा कर लाना. साथ ही खुद के लिये भी एक पान लगवा लेता था.सारे पान मेरे खाते में.

रामजस को देखते ही हफ्ते भर की थकान हाथ गोड़ में उतर आती और मेरे पान दबाते ही शुरु होता उसका मालिश का सिलसिला. मैं लेटा रहता. रामजस कड़वे तेल से हाथ गोड़ पीठ रगड़ रगड़ कर मालिश करता और पूरे मुहल्ले के हफ्ते भर के खुफिया किस्से सुनाता. मैं हाँ हूँ करता रहता. उसके पास ऐसे अनगिनत खुफिया किस्से होते थे जिन पर सहजता से विश्वास करना जरा कठिन ही होता था. मगर जब वो उजागर होते और सच निकलते, तो उस पर विश्वास सा होने लगता.

एक बार कहने लगा, साहेब, वे तिवारी जी हैं न बैंक वाले. उनकी बड़की बिटिया के लछ्छन ठीक नहीं है. वो जल्दिये भाग जायेगी.

दो हफ्ते बाद किसी ने बताया कि तिवारी जी की लड़की भाग गई. अब मैं तो यह भी नहीं कह सकता था कि मुझे तो पहले से मालूम था. रामजस अगले इतवार को फिर हाजिर हुआ. चेहरे पर विजयी मुस्कान धारण किये, का कहे थे साहेब, भाग गई तिबारी जी की बिटिया. मैं हां हूं करके पड़े पड़े देह रगड़वाता रहता. वो कहता जाता, मैं सुनता रहता. मौहल्ले की खुफिया खबरों का कभी न खत्म होने वाला भंडार लिये फिरता था साथ में.

आज सोचता हूँ तो लगता है कि यहाँ की मसाज थेरेपी क्लिनिक में वो मजा कहां.

एक घंटे से ज्यादा मालिश करने के बाद कहता, साहेब, अब बैठ जाईये. फिर वो १५ मिनट चंपी करता. तब तक भीतर रसोई से कुकर की सीटी की आवाज आती और साथ लाती बेहतरीन पकते खाने की खुशबु. भूख जाग उठती. रामजस जाने की तैयारी करता और बाल्टी में बम्बे से गरम पानी भरकर बाथरुम में रख आता मेरे नहाने के लिये.

अपनी मजूरी लेने के बाद भी वो हाथ जोड़े सामने ही खड़ा रहता. मैं पूछता, अब का है? वो दाँत चियारे कहता; साहेब, दिबाली का इनाम. मै उससे कहता; अरे, अभी दो महिना ही हुआ है दिवाली गुजरी है, तब तो दिये थे. तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती. शरम नहीं आती हमेशा दिबाली का ईनाम, दिबाली का ईनाम करते हो.

वो फिर से दाँत चियार देता और नमस्ते करके चला जाता. मैं नहाने चला जाता.

उसका दिबाली ईनाम माँगना साल के ५२ रविवारों में से ५१ रविवार खाली जाता बस दिवाली वाला रविवार छोड़कर जब मैं वाकई उसे नये कपडे और मिठाई देता.

बाकी ५१ रविवार वो दाँत चियारे कहता; साहेब, दिबाली का इनाम.मैं कह्ता;तुम्हारी यही बात अच्छी नहीं लगती. शरम नहीं आती हमेशा दिबाली का ईनाम, दिबाली का ईनाम करते हो.

वो फिर से दाँत चियार देता मानो पूछ रहा हो; चलो हम तो आभाव में है किसी आशा में मांग लेते हैं मगर आपको बार बार मना करते शरम नहीं आती क्या?

पता नहीं क्यूँ, यह संस्मरण लिखते हुये शायर कैफ़ी आज़मी की एक गजल के दो शेर अनायास ही याद आ गया:

वो भी सराहने लगे अरबाबे-फ़न के बाद
दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-वतन के बाद

ग़ुरबत की ठंडी छाँव में याद आई उसकी धूप
क़द्रे-वतन हुई हमें तर्के-वतन के बाद

*अरबाब= मित्रों, दादे-सुख़न= कविता की प्रशंसा, ग़ुरबत= परदेस, तर्के-वतन=वतन छोड़ना,