--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
रविवार, अगस्त 19, 2007
क्या आप मल्लन चाचा को जानते हैं??
भटक गई है जो हवा, उनको दिखाने रास्ते
जल रहा बनकर दिया मैं, रोशनी के वास्ते.
एक बड़े शायर का शेर है. नाम है समीर लाल और तख़ल्लुस 'समीर' लिखते हैं. क्या बलिदान की भावना है शायर की. जानता है कि जब भी हवा सही राह पर आ गई, सबसे पहले वही बूझेगा मगर जज़बा है. सलाम करती हूँ शायर को. यह तो हो गई उड़न तश्तरी की बात. अब हमारी सुनो.
आज पढ़ता था भाई फुरसतिया जी को. स्वतंत्रता की ६०वीं वर्षगांठ पर झूठी आजादी के विषय में सेंटिया रहे थे . कहते हैं 'यह मत पूछो कि देश तुम्हारे लिये क्या कर सकता है बल्कि यह देखो तुम देश के लिये क्या कर सकते हो'.
फिर कलाम साहब के वचन सुनाने लगे कि क्या आपके पास देश के लिये पन्द्रह मिनट हैं? पढ़कर एक बंदे का ख्याल आ गया. उनकी तो पूरी पूँजी ही समय है और जी भर कर है. मगर देश के लिये नहीं, बकबकाने के लिये.
चलिये उनसे परिचय करवाता हूँ, नाम है मल्लन चाचा:
मल्लन चाचा ने जीवन भर कुछ नहीं किया. पिता जी तीन मकान बनवा कर मर गये. दो मकान किराये पर चलते थे और एक में मल्लन चाचा खुद रहते थे. किराये की आमदनी से ठीक ठाक गुजर बसर हो जाती है.
मल्लन चाचा को बात करने का बहुत शौक है और हर बात के लिये वो सामने वाले को ही दोषी मानते हैं. यह उनका स्वभाव था कि कभी किसी बात पर खुश नहीं होना और मीन मेख निकाल कर सामने वाले पर मढ़ देना.
मल्लन चाचा से मिलने उनके घर पहुँचा तो वहीं अहाते में लूंगी लपेटे पेड़ के नीचे चबूतरे पर पालथी मारे बैठे थे.
‘पाय लागूँ, चाचा’
‘खुश रह बचुआ. जरा वो सामने आले से बटुआ तो उठा ले और वहीं चूना भी रखा है. थोड़ा तम्बाखू मल दे.’
मैं तम्बाखू मलता उनके पास ही में बैठ जाता हूँ.
‘का बात है, बचुआ. बहुत दिन बाद दिखे.’
‘चाचा, वो तबियत खराब थी न इसी से.’
‘वो तो होना ही थी. न कसरत, न सैर सपाटा. तो का होगा. यहिये न!!’
‘नहीं चाचा, बस जुकाम पकड़ लिये था.’
‘काहे गरम कपड़ा नहीं पहनते.’
‘चाचा, इतनी गरमी में? वो तो जरा ठंडा गरम हो गया था बस.’
‘तब काहे इतनी शराब पीते हो?’
‘कहाँ चाचा, हम शराब नहीं पीते.’
‘तो फिर कौन ठंडा चीज पिया जा रहा है? बीयर..हा हा!! शहरी का नाती नाही तो! खैर, जाये दो. इ बताओ कि क्या समाचार है शहर का.’
‘चाचा, देश बहुत तरक्की कर रहा है. ढेरन विकास हो रहा है. GDP बहुते बढ़ गया है और मुद्रा स्फिती की दर भी एकदम्मे नियंत्रण में है. विदेशी मुद्रा का भंडार भी लबालब है.’
‘बचुआ, इ सब चोचलेबाजी हमसे न बतियाया करो. हम सब समझते हैं. ई GDP को तो तुम मानो घी, रोटी पर मलने के लिये और मुद्रा स्फिती नियंत्रण को जानो दाल का तड़का. अब रह गये विदेशी मुद्रा भंडार तो वो हैं सलाद और ये तुम्हारे मॉल और कॉल सेन्टरवे सब हइन केक और पेस्ट्री. जब रोटिये, दाल का जुगाड़ नहीं तो इनका का करीं. यह सब तो उनकी सुभीता के लिये हैं जिनके पास रोटी, दाल पहलवें से है. हमार तुहार के लिये नाही. समझे बचुआ.’
‘चाचा, हम तो जो सुनें है वो बताये दिये. बाकि हम तो कुछ किये नहीं हैं. हम पर काहे बिगड़ रहे हैं.’
‘तुम तो यूँ भी किसी कारज के हो नहीं, हें हें हे…’
‘अच्छा, अब चलता हूँ,चाचा. पाय लागी.’
‘ठीक है बचुआ. फिर आना.’
मैं उठता हूँ. चबूतरे के नीचे की जमीन ऊबड़ खाबड़ है पाँव डगमगा जाता है.
‘का बचुआ. जरा संभल कर. कुछ वजन कम करो. बेडौल हुये जा रहे हो. अपना ही वजन तक तो संभल नहीं रहा.’
मैं भी ‘जी’ कह कर चल पड़ता हूँ.
सोचता हूँ कि अगर वो चबूतरे के नीचे दो तसला भी बालू पुरवा दें तो जमीन समतल हो जाये. मगर उन्हें दोष तो दूसरे में ही दिखता है कि तुम वजन कम करो.
अरे चाचा, खुद भी तो कुछ करो कि बस दूसरे की गल्ती देखते रहोगे और हर बात के लिये सबको कोसते रहोगे. फलाना रोटी वालों के लिये है. फलाना हमारे लिये कुछ नहीं करता.
आज हर गली, मोहल्ले में न जाने कितने ही मल्लन चाचा हैं. क्या आप मिले हैं मल्लन चाचा से?
ऐसे में हम विकास की बात करें भी तो कैसे?
जी हा कई सारे तो आजकल ब्लोग लेखन मे जुटे है,काहे आजकल कोई हाक मारने से सुनता नही नही है ना..
जवाब देंहटाएंबढ़िया है। मल्लन चाचा कहां नहीं हैं। हर जगह हैं।देखने के लिये आंखे चाहिये। काजल लगाया करो भाई!
जवाब देंहटाएं‘का बचुआ. जरा संभल कर. कुछ वजन कम करो. बेडौल हुये जा रहे हो. अपना ही वजन तक तो संभल नहीं रहा.’
जवाब देंहटाएंअब सही बात कही तो कितनी चुभी , अरे ऐसे ही मल्लन चाचाओं की देश को जररुत है :), वैसे हम भी आप की ही लाइन मे शामिल हो रहे है , अब यह वजन है कि कम होता ही नहीं :)
लगता है ये किसी मल्लन चाचा ने ही लिखा है भैया
जवाब देंहटाएंयीशु क्रिस्त प्रभु ने कहा न था कि, 'पहला पत्थर वही फेँके ,जिसने खुद कोयी पाप न किया हो '
जवाब देंहटाएंतब , सब खिसक लिये थे --- २,००० वर्ष पहले..तो ये माजरा आज भी मौजूद है -
दूसरोँ के दोश देखना पास टाइम है, अपने दोष देखकर , सुधारना टेढी खीर !;-)
है ना समीर भाई ?
स स्नेह,
--लावण्या
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मल्लन चच्चा के घर के बगल में प्लॉट खाली है? वहीं घर बना लें. पढ़ा है न - निन्दक नियरे राखिये...
जवाब देंहटाएंया फिर ब्लॉगिंग में धार दिखाइये - ढ़ेरों मल्लन चाचा चिपटने को तैयार होगे! :)
सत्यवचन! :)
जवाब देंहटाएंअच्छे हैं मल्लन चाचा
जवाब देंहटाएंबधाई
आप तो गजबै चुटकी लेते हैं भाई..मस्त है..
जवाब देंहटाएंसही पकड़ा, मल्लन चाचा ही मल्लन चाचा हैं,सब तरफ मिल तो लें।
जवाब देंहटाएंमल्लन चाचा तो हर कहीं भरे पड़े है. उनको क्या देखना? उनकी अनदेखी करो भाई.
जवाब देंहटाएंसमीर जी,मल्लन चाचा को नही मल्लन चाचाओं को मै जानता हूँ और अक्सर उन का लिखा पढता भी रहता हूँ।बहुत गजब का लिखते हैं और बतियाते भी बहुत गजब का हैं ।उसी मल्लन चाचा के बारे में किसी ने कहा है-
जवाब देंहटाएं"मो को क्या ढूंढे बंदे मै तो तेरे पास में":(
मल्लन चाचा को यूँ ही घुमा दिया कि शराब नहीं पीते, वैसे पीते हम भी कहाँ हैं :-)
जवाब देंहटाएंमल्लन चाचा की वजन वाली बात का जरा ख्याल रखियेगा, बुजुर्ग लोग सोच समझकर ही सलाह देते हैं । हमें तो मल्लन चाचा जैसे कई शिक्षक भी मिले हैं, उनके बारे में कभी विस्तार से बतायेंगे ।
आप ऐसे ही लिखते रहें ।
लेकिन मल्लन चच्चा फरमाए तो सही है। उनकर बतिया में जान है। और महान शायर समीर लाल का तो जवाब नहीं।
जवाब देंहटाएंबिल्कुल ऐसे मल्लन चाचा तो पहले और आज भी हर जगह मिल जाते है।:)
जवाब देंहटाएंअरे मल्लन चच्चा, बड़े दिन बाद दिखे, अब ये ना कह्यो कि आजकल के बच्चों को फ़ुरसतै नाहीं हैं!
जवाब देंहटाएंशायर समीर लाल जी ने शेर तो धांसू च फ़ांसू लिखा है!!
जवाब देंहटाएंहमरे गाँव में भी हैं एक लल्लन चाचा...चेहरा एक दम्मई मल्लन चाचा से मिलता हैं...
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने..मल्लन चाचाओ की कमी नही है..हर मुहल्ले, गली कूचे मे एक आध तो दिख ही जाते है... बढिया वर्णन ..
जवाब देंहटाएंजब भी शीशे के सामने जाती हूँ, स्त्री रूप में मल्लन चाचा को ही देखती हूँ । वे मुझे भी पसन्द नहीं ,इसीलिए तो आजकल शीशे के सामने जाना बहुत कम हो गया है ।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
भटक गई है जो हवा, उनको दिखाने रास्ते
जवाब देंहटाएंजल रहा बनकर दिया मैं, रोशनी के वास्ते.
इस तरह अशआर लिखना, हमको भी आता अगर
सच कहें हम तब खुशी से रास्तों पर नाचते
समीर जी आपका लिखा शेर बहुत पंसद आया और चाचा जी का वर्णन भी खूब लिखा है बहुत-बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंमल्लन चाचा का क्या है, उनसे तो मै मिलती हूँ और बस पा लगी कर के चलते बनती हूँ। उनकी बातों पर क्या ध्यान देना।
जवाब देंहटाएंलेकिन समीर जी के शेर पर ध्यान दिये बिना आगे चलते नही बन रहा ! बहुत खूब !
भटक गई है जो हवा, उनको दिखाने रास्ते
जवाब देंहटाएंजल रहा बनकर दिया मैं, रोशनी के वास्ते.
हमे आपका यह शेर बहुत पसंद आया
बाक़ी आपका लिखा कभी अच्छा ना लगे हो ही नही सकता
कुछ ना कुछ दिमाग़ और दिल पर असर कर ही जाता है
लिखते रहे आप यूँ ही यही दुआ है !!
मल्लन चाचा को हमारी पाय लागी कहिएगा।
जवाब देंहटाएंऔर महान शायर समीरलाल जी को सलाम, क्या आप उनसे मिले हैं? सुना है बहुत 'महान' आदमी हैं। :)
मल्लन चाचा को हमारा नमस्कार…
जवाब देंहटाएंसमीर भाई बहुत बढ़िया संदेश दे दिया…
चाचा भी कुछ दे गये और आप भी बहुत गहरा गये…।
बिलकुल सही बात मल्लन चाचा तो हर गली नुक्कड़ पर नजर आते है...
जवाब देंहटाएंशानू
सभी मित्रों का हौसला बढ़ाने के लिये बहुत बहुत आभार. इसी तरह स्नेह बनाये रखें.
जवाब देंहटाएंउड़न तश्तरी पर पहली बार आया. बेहद दिलचस्प है. खास तौर पर आपकी लेखनी का तो जवाब नहीं. इंडियन बाइस्कोप से संपर्क बनाए रखें मैं एक और ब्लाग चलाता हूं खिड़कियां.... पर अभी उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दे सका. उम्मीद है आगे हमारा-आपका संवाद जारी रहेगा.
जवाब देंहटाएंमल्लन चाचा खासे रोचक लगे ।
जवाब देंहटाएंऐसी भारी देह ही रखनी थी तो चचा से हमारी मुलाक़ात करवाते. चचा गुड़, हम चीनी होते, कितना अच्छा रहता.
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