सोमवार, अगस्त 13, 2007

गाँव पुकारता है...



ऐसा नहीं है कि सिर्फ गाँव में रहने वालों को शहर अपनी ओर आकर्षित कर रहे हैं.

मुझे लगता है कि शहर में रहने वालों को गाँव पुकाराता है. थोड़ा अजीब सा लगता है यह विचार. मगर यह सत्य है.

हर बड़े शहर में ढाबेनुमा ग्रमीण परिवेश का अहसास कराते रेस्टॉरेन्ट खुल गये हैं और सारे शहरी गॉव का अहसास पाने वहाँ टूटे रहते हैं. वहाँ नकली लालटेन की रोशनी में, खटिया पर बैठकर पत्तल में खाना खाना स्टेटस सिंबॉल सा बन गया है. लोक नृत्य, मदारी का खेल आदि भी साथ साथ हो, क्या कहने.

यह सिर्फ भारत में नहीं. दुनिया में हर जगह है. कनाडा में भी यह रईसी की निशानी है कि आपके पास एक कॉटेज (कुटिया) शहर से कुछ दूर आबादी के बाहर तालाब के किनारे हो. जहाँ आप वीक एंड में जाकर समय बितायें. जिनके पास खुद के है वो रईस और जिनके पास खुद के नहीं, वो रईसी जताने या यूँ कहें गाँव अहसासने किराये पर लेकर हो आते हैं. मैं दूसरी श्रेणी वाला हूँ. कोशिश होती है कुछ मित्र साथ में हो. इसके दो-तीन फायदे हैं. एक तो खर्चा बँट जाता है. साथ साथ ग्रुप का मजा तो रहता ही है और सब एक दूसरे को जता पाते हैं कि उन्हें गाँव के माहौल से कितना लगाव है. अच्छा लगता है.

सर्दियों में तो बर्फ के कारण उतना संभव नहीं हो पाता मगर गर्मी में जरुर दो एक बार हो आते हैं.

ऐसी ही एक यात्रा पर मै मित्रों के साथ गया.

मुझे यूँ भी नदी, पहाड़, झरने, नौका विहार, बत्तख, पेड़ों के बीच शान्त वन में विचरण करना, सूर्योदय, सूर्यास्त, चाँद, तारे, फूल, कलियाँ बाई डिफॉल्ट पसंद आते है कवि होने के कारण. और वही माहौल वहाँ मिला. नौका विहार करके सब थक गये. शाम होने को थी. सभी ने तय किया कि कॉटेज में कुछ देर लेटा जाये फिर शाम को कैम्प फायर और पीने पिलाने नाचने नचाने और बार बेक्यू का सिलसिला चले. सब आराम करने निकल गये और मैं जंगल के बीच से बनी पगडंडी पर अकेला बढ़ चला.

प्रकृति की छटा देखते बनती थी. हर कदम फिजा की बदलती महक, तरह तरह के फूल, पत्ते, पेड़. बहती हवा. तरह तरह की चिड़ियां, छोटे छोटे जानवर. मैं न जाने किन विचारों में खोया बस चलता चला गया. न जाने कितनी दूर आ गया कॉटेज से. थकान घेरने लगी और प्रकृति के साथ चलने की उत्सुकता उसे पीछे ढकेलती रही. एकाएक जंगल के बीच बने एक मकान पर नजर पड़ी. बाहर बोर्ड लगा था जिसका माईने था, यहाँ घोड़े किराये पर मिलते हैं. बोर्ड देखते ही थकान ने आ घेरा. कदम मानो उठने का नाम ही न ले रहे हों. यही होता है सुविधा की उपलब्धता के साथ.

मैं उस घर के अहाते में प्रवेश कर गया. एक आदमी बगीचे को सजाते मिलता है जिसका नाम रेन्डी है. वो मालिक है इस मकान का या यूँ कहें सेठ है. देखता हूँ उसके पास एक घोड़ा है. उसकी गर्भवती पत्नी घोड़ी और एक छोटा बेटा घोड़ा भी है. छोटा बेटा अभी वजन ढोने लायक नहीं हुआ है, अतः अम्मा के इर्द गिर्द दिन भर धमा चौकड़ी मचाता रहता है. ले देकर काम करने अभी सिर्फ यही घोड़ा है.

वापस कॉटेज तक जाने की बात तय होती हैं. घोड़े पर जीन वगैरह बाँधी जाती है.

आह्ह!!

यह आह मेरी नहीं है. यह उस घोड़े की कराह है जिस पर चढ़ कर मैं बैठ गया हूँ. घोड़े ने मूँह खोल कर कुछ नहीं कहा, मगर मेरे संवेदनशील भावुक दिल ने सुन लिया. मेरे भीतर दया उमड़ती है किन्तु आलस्य और थकान के घने बादल मेरे करुणामयी हृदय पर आच्छादित होकर उसे ढांक देते हैं. घोड़ा भी अपनी क्षमता से अधिक वजन उठाये, बिना किसी खिलाफत के भाव के सर झुकाये, चल पड़ता है. मुझे अहसास हुआ उसकी वेदना उसकी पारिवारिक जिम्मेदारियों के समक्ष मूँह नहीं उठा पाई.

मुझे लगता है कि वो सोचता होगा, अगर वो भी काम करने से मना कर दे तो सेठ उसे निकाल देगा. वो तो उसके किसी काम का रहेगा नहीं. फिर गर्भवती बीबी और छोटे बच्चे को लेकर कहाँ जायेगा? भूखो मरने की नौबत आ जायेगी. हर तरफ बेरोजगारी फैली है. नई नौकरी और आसरा तो मिलने से रहा. फिर सारा जीवन तो जंगल के कच्चे रास्तों पर चला है. ग्रमीण परिवेश में रहा. शहर तो उसे नहीं सुहायेगा और न ही उसे वहाँ रहने और चलने का सुहूर है. जवानी में चला जाता तो ठीक था, अब तो नई बातें सीखना भी मुश्किल है. सुना तो है शहर में नौकरियाँ हैं. मगर उसे उनसे क्या? वो तो किसी को जानता भी नहीं वहाँ. कहाँ जायेगा? यहाँ थोड़ा ज्यादा मेहनत सही, थोड़ी कम सुविधायें ही सही, मगर है तो अपनी जगह. खुली खुली ताजा आबो हवा. प्रदुषण से दूर. ताजगी का अहसास. गाँव के सारे घोड़े एक दूसरे को जानते हैं. एक दूसरे को देखकर सुख दुख कह लेते हैं. सुना है शहर में ऐसा प्रचलन नहीं है. अपने अपने में रहो. वो तो नहीं रह सकता ऐसे घुटन भरे माहौल में.

यही सोचते वो चला जा रहा होगा और मैं उसकी पीठ पर बैठा अपने गंतव्य के आने का इन्तजार कर रहा हूँ. सामने उसकी लगाम थामें खुशी खुशी रेन्डी कोई गीत गाते चल रहा है. लम्बी दूरी है.आज ठीक ठाक कमाई हुई है, लौट कर बीयर पियेगा.

क्या पता घोड़ा वही सोच रहा था कि नहीं जैसा मैने सोचा कि वो सोच रहा होगा या यह मेरा मानवाधारित अनुभव सोच रहा था.

31 टिप्‍पणियां:

  1. आचार्य . . . बहुत ही अच्‍छी अभिव्‍यक्ति । इस दोहरे चिंतन को व्‍यक्‍त करने के लिए धन्‍यवाद, हमने तो घोडे को अपनी जगह रख के पढा ।

    धन्‍यवाद

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  2. बहुत अच्छा लगा मूक स्वर सुन कर. कम ही होता है जब यह सुन पाते हैं. कभी-कभी आपकी पोस्ट जैसा कुछ ट्रिगर मिल जाता है जो वेदना-सम्वेदना के उन नोट्स को झंकृत कर जाता है. वर्ना जिन्दगी तो ढ़र्रे पर ही चलती है.

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  3. संवेदन शील कवि हृदय से निकला संस्मरण मन को प्रसन्न कर गया।
    रही घोड़े की बात, तो वो आपने ने सही ही समझा होगा।

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  4. वाह, समीर जी, आपने तो पूरे सपने की सैर करा दी। ऐसी बाई डिफाल्ट इच्छाएं पूरी होती रहें तो मज़ा ही आ जाए।

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  5. सोच मानवाधारित हो या जंतुआधारित, आया एक उन्नत किस्म के प्राणी के दिमांग से ही है. सुबह सुबह पहला पठन था यह मेरे लिये. बहुत से मधुर स्मरण एक दम से मन मे आ गये -- शास्त्री जे सी फिलिप

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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  6. आपका तो जवाब नही। कितनी सरलता से बात कह जाते है।

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  7. प्रकृति की स्वछन्दता को जीत
    सिन्धु से आकाश तक सब को किए भयभीत

    .....ये तो आज का मानव है. लेकिन जब भी शांति की जरूरत होगी, जायेगा तो वही, प्रकृति की बीच ही...

    एक छोटा सा गांव, जिसमे पीपल की छांव
    छांव मे आशिया था, एक छोटा मका था
    छोडकर गांव को, उस घनी छांव को
    शहर के हो गये है, भीड मे खो गये है.

    आपकी पोस्ट ने याद करा दिया सबकुछ....बहुत ही जीवंत चिंत्रण..

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  8. दो जानकारी अद्यतन हुई. एक आपक बाई डिफाल्ट कवि हैं. और दो चलो गांव की ओर.

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  9. DUE TO TECHNICAL REASONS, COMMENT IS IN ENGLISH, SORRY

    BEAHATRIN RACHNA
    KAVITA, KAHANI, YATRA SANSAMARAN-
    SIRJI KUCH BACHEGA BHI KI NAHIN APKI TASHTARI SE
    UDANTASHTARIJI

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  10. आप तो गदहा लेखक हैं...अब घोड़ों को तो बख्श दो..उसकी भाषा समझ अब क्या इरादा है??

    :))

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  11. समीर जी एक ऐसी सोच जो हमारे अर्न्तमन में कहीं ना कहीं स्थित होती है किन्तु हम किन्हीं कारणों से उसको अनदेखा कर देते हैं...

    बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति है साधुवाद।

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  12. समीर जी,एक संवेदनशील कवि की सोच,एक मूक को स्वर देने में सक्षम रही ।बहुत ही बढिया लिखा है।

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  13. इस बार भारत आये तो गाँव दर्शन हमारी तरफ से। आपके गाँव भी चलेंगे।

    कनाडा मे इतने भारतीय है तो सब मिलकर इक छोटा गाँव क्यो नही बनाते- विशुद्ध भारतीय गाँव ताकि आप सब को भी सुकून मिले और कनाडा वासी भी हमे जान सके।


    क्षमा करे इस रचना की तारीफ तो भूल ही गया। लगातार लिखते रहे। शुभकामनाए।

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  14. बहुत सुन्दर.. बहुत प्यारी पोस्ट..

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  15. बहुत बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना मुझे ..कई पंक्तियों ने तो बहुत ही हंसाया ...आपकी रचनाए सच में दिल में सोए कई जज़्बातो को और यादो को जगा देती हैं :)बाई डिफाल्ट कवि..बहुत सुंदर:):) शुक्रिया

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  16. Mera blog padhne ka time nikalne ke liye.... bahot bahot shukriya! Please keep visiting... abhi to bahot kuch upload hona baki hai!

    Shilpa

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  17. एक सजीव, भावनापूर्ण रचना जो हर जानवरों से प्रेम करने वाले के हृदय को भिगो सकती है ।आपकी सभी रचनाएँ एक से एक बढ़िया होती हैं किन्तु यह मुझे सदा याद रहेगी ।
    घुघूती बासूती

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  18. बेचारा घोड़ा...क्या हाल हुआ होगा उसका...आपको जब मालूम है कि आपका नाजुक बदन उठाकर वो क्या-क्या सोच रहा है तो उतर काहे नही गये गुरूदेव...जानवर भी तो बेचारे...कह नही पाते...मगर अगर वो गुस्से में नीचे पटक देता तो... धाराशाई हो जाते न?
    चलो अच्छा हुआ बच गये...मै घोडे़ का शुक्रिया अदा करती हूँ जो अपना कम वजन होने पर भी चुप-चाप भारी काम भी कर लेते है...

    वैसे एक बात तो है गुरूदेव हास्य तो एसे ही था आप इंसान तो क्या जानवर के मन की व्यथा भी बहुत आसानी से भाँप गये...क्या अद्भुत अभिव्यक्ति है...

    सुनीता(शानू)

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  19. बहुत हृदय स्पर्शी रचना हैं
    दीपक भारतदीप

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  20. ह्म्म, रचना तो बढ़िया है ही, उसकी तारीफ़ तो हो गई समझो। पर मैं कुछ और ही देख रहा हूं। यह कि आपकी पिछली कुछ पोस्ट चिंतन पर ही आधारित रही है। ऐसा क्या होता जा रहा है कि आजकल चिंतन ही चिंतन ज्यादा हो रहा है।
    कृपया उमर के एहसास को दूर ही रखें और चिंतन-फ़्री चिरयुवा ही बने रहें!!

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  21. ऐसा पढ़ने को मिलता रहे तो तबियत पाठन में लगी रहती है...और मातृभाषा की बरकत बनी रहती है.वन्देमातरम.

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  22. साधुवाद आपको। आपकी रचनाओं को पढ़कर पश्चिम के आधुनिकतावाद में भी अपनी जड़ों की याद ताजा हो जाती हैं। बड़ी सरल किंतु प्रभावी अभिव्यक्ति है। घोड़े के बिम्ब का भी आपने अच्छा प्रयोग किया है। हिंदी ही लाएगी असली सूचना क्रांति

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  23. आपकी संवेदनशील लेखनी का एक और आयाम । मूक की व्यथा की कल्पना आपने की और उसे शब्द दिए....अच्छे लेखन के लिए बधाई।

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  24. गुरुदेव आप दिनों दिन सीरियस होते जा रहे हैं, बात क्या है? हमें बहुत चिंता सी हो रही है। :)

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  25. सब बढ़िया है। पैसा कमाने शहर भाग गए। ज्यादा पैसा हो गया तो, पैसे से गांव बनाने की कोशिश। बढ़िया है समीर बाबू

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  26. समीर भाई,
    बहुत खूब ! क्या बात है -
    "मूकँ करिति वचालम्`परिभाषयते सुमधुर चित्रणम्`"
    आशा है कि "रेन्डी " भी हमारे हीरो (अश्व) की अच्छी देखभाल करता होगा
    स स्नेह,
    - लावण्या

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  27. संजीव भाई

    अरे भाई, आप अपने को घोड़े की जगह उस पर लदे संवेदनशील हृदय वाले आदमी की जगह रखें तब सबका दुख समझ पायेंगे अन्यथा सिर्फ अपना दुख तो घोड़ा समझ ही रहा है. हा हा!! बहुत आभार आप कथा को जी पाये. :)


    ज्ञान दत्त जी

    बस आपका स्नेह है कि कुछ प्रयास कर पाते हैं. शायद कभी इन पहलूओं पर नजर चली जाये वर्ना तो आप सत्य कह रहे हैं कि जीवन की आपा धापी में इतना वक्त ही कहाँ मिल पाता है.


    मिश्र जी

    आप प्रसन्न हो गये, हमारा लिखना सफल हो गया. अब घोड़ा तो पता नहीं क्या सोच रहा था. वैसे तो वजन बेचारे पर ज्यादा ही था. हमारी जगह अगर आप बैठते तो खुशी से वाह कहता और ठुमक ठुमक कर चलता. शायद खुशी में कोई कविता भी सुनाता. :)

    अनिल भाई

    बहुत आभार. आप स्नेह कायम रखें बस यूँ ही बाई डिफाल्ट इच्छायें पूरी होने का सफर चलता रहेगा, वादा है.


    शास्त्री जी

    आपका स्नेह है, बस बनाये रखें. आभार.

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  28. ममता जी

    सरलता आपके पठन की है उसका हमेशा आभारी हूँ. पढ़ती रहें और यूँ ही हौसला बढ़ाती चलें.

    शिव भाई

    बहुत आभार. बड़ी जबरदस्त पंक्तियाँ सुना गये:


    एक छोटा सा गांव, जिसमे पीपल की छांव
    छांव मे आशिया था, एक छोटा मका था
    छोडकर गांव को, उस घनी छांव को
    शहर के हो गये है, भीड मे खो गये है.

    वाह!!

    ऐसे ही हौसला बढ़ाते रहें.

    संजय भाई

    अभी अनेकों जानकारियाँ अद्यतन होना बाकी हैं, बस यूँ ही आते रहें तो हौसला बढ़ता रहेगा. आभार.


    आलोक भाई

    सब आपका ही क्षेत्र है, हम तो बस अधिय्या पर खेती कर ले रहे हैं, महाराज. आप तो बस आवाज लगाये रहो.खेत हरे भरे रहेंगे. :) बहुत शुक्रिया.

    बेजी जी

    धोड़े को मैं गदहे का बड़ा और सुन्दर रुप मानकर बस हीरो बनने का प्रयास कर रहा था. अब वापस लौट चलते हैं. खुश?? :) बहुत शुक्रिया आने का.

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  29. भावना जी

    आपने सही पहचाना. बहुत आभार इतना ध्यान से पढ़ने और समझने के लिये. ऐसे ही हौसला बढ़ाती रहें.


    परमजीत जी

    बहुत आभार, बस एक प्रयास था. आपने कह दिया यानि सफल हो गया. आते रहिये.


    पंकज भाई (दर्द हिन्दुस्तानी जी)

    जरुर गाँव दर्शन किया जायेगा आपके साथ. कुछ नये अनछूये आयाम, कुछ बदलाव और समझ आयेंगे. यहाँ भारतीय गाँव तो नहीं मगर मंदिर, सभा गृह, रेस्टॉरेनट, बाजार आदि तो हैं ही. शायद कभी यह परिकल्पना भी रुप ले ले.

    रचना की तारीफ के लिये शुक्रिया. आप हौसला बढ़ाते रहें, हम लिखते रहेंगे.


    अभय भाई

    आपने पसंद की. निश्चित प्यारी होगी. अब हमें भी अच्छी लगने लगी फिर से पढ़ने पर. :) बहुत आभार.

    रंजू जी

    चलिये, कुछ हास्य भी हो ही गया चिन्तन के साथ साथ. वरना इधर हास्य थोड़ा दूर होता सा जा रहा है. :) बहुत आभार-आते रहें.

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  30. शिल्पा जी

    आपका शुक्रिया ले लिया. आदेश भी कि आते रहेंगे. जानकर खुशी हुई कि आपके ब्लॉग पर अभी बहुत कुछ अपलोड होना बाकि है. अब यह नहीं मालूम चल पाया कि आपने यह आलेख पढ़ा कि नहीं. उम्मीद करता हूँ, इतनी दूर तक आप आई थीं, तो पढ़ा जरुर होगा. कैसा लगा? बताईये न, प्लीज!!

    चलिये जाने दिजिये. अगली बार आयेंगी तो हम खुद ही समझ जायेंगे कि अच्छा लगा होगा वरना कोई क्यूँ वापस आयेगा. :)

    घुघूती जी

    बहुत आभार आप आई और रचना को पसंद किया. बस लिखना सफल रहा. बहुत दिनों बाद दिखी हैं आप. आशा है सब ठीक है. आती रहें, हौसला मिलता है.

    सुनीता जी

    आप को घोड़े से साहनभूति हो रही है और हम जो थक गये थे उसका? वैसे आप तो बिजनेस संभाल रही हैं, ऐसे में घोड़े से साहनुभूति दिखाती रहीं, तब तो हो चुका. :)
    अब घोड़ा पटक देता तब भी लिखते उसकी खबर लेने को अस्पताल में पड़े पड़े. शायद कुछ कवितायें भी निकल कर आती. अस्पताल में भरती लोग अक्सर कविता करते हैं: अस्पताल और जेल कविता उभाड़ने के लिये बड़ी मुफ़ीद जगह मानी गई हैं साहित्यिक इतिहास को देखकर. :)

    बहुत आभार रचना पसंद करने का. ऐसे ही पसंद करते रहें. :)


    दीपक भाई

    बहुत आभार पसंद करने का.

    संजीत भाई

    बहुत आभार. चिर युवाई चिरकुटियाई (आलोक भाई से उधार लिया शब्द) करते करते सोचा यह ४५ दिवसीय चिन्तन उत्सव मनाया जाये, बस पूरा हुआ ही समझो. ऐसे उत्सव तो युवा ही मना सकते हैं. जल्द ही उबरते हैं फिर तोड़ फोड़ मचाई जायेगी. आप कसरत जारी रखें साथ देने को. :)

    संजय पटेल भाई

    वन्दे मातरम. आप पढ़ते रहने का वादा देते रहे इसी तरह हम लिखते लते हैं. :) बहुत आभार इस हौसला अफजाई और तारीफ के लिये.

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  31. अप्रवासी अरुण भाई

    बहुत आभार आपको रचना पसंद आई और आपने लेखन के मर्म को समझा. आते रहें, हौसला बढ़ाते रहें.


    अजित भाई

    बहुत आभार. ऐसे ही हौसला देते रहें.


    श्रीश मास्साब

    अरे, चिंतित न हों, जल्द ही लौटते हैं न!! आपकी और संजीत की चिन्ता अब देखी नहीं जा रही. उससे भी वादा कर दिये हैं. दो तीन और झेल जाओ बस्स!! :)


    हर्षवर्धन जी

    बहुत सही कह रहे हैं आप. आप आये, आपने पढ़ा-बहुत आभार. आते रहिये.


    लावण्या दी

    आप आ जाती हैं तो लिखना एकदम सफल हो जाता है. अब आपने कहा है तो अगर रेन्डी नहीं ख्याल रखेगा, उसे डाँटा जायेगा. हीरो की भाषा तो आपने देखा ही कि हम समझ जाते हैं. :)

    बहुत आभार. स्नेह बनाये रखें.

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आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है. बहुत आभार.