बुधवार, जनवरी 31, 2007

भागो भागो, डाकू आये

सुबह से बाजार में हल्ला मचने लगा था, 'भागो भागो, डाकू आये". और जीतु भाई, ई-पंडित , संजय बैंगाणी जी सब ने अपनी कलमी तलवार उठा ली और चालू हो गई डाकू भगाने की प्रक्रिया. तुरत फुरत पुलिस चौकी खोल दी गई, यहाँ रिपोर्ट दर्ज करवायें (क्या मैं आपकी मदद कर सकता हूँ?). जैसा पुलिस चौकी पर लिखा रहता है "सत्यमेव जयते", उसी तरह का स्लोगन टांगा गया, " भरी दोपहरिया, बीच बजरिया, लुट गयी गगरिया। "

जो सबसे जोर से चिल्लाये, " भागो ताऊ भागो अपने अपने चिट्ठों को जल्दी से छिपा दो… डकैतीयाँ शुरू हो गई है। ". हमने देखा, उनके यहाँ डकैती हुई ही नहीं है. वो दुसरे की तरफ से चिल्ला रहे हैं. लोग भाग रहे हैं. कुछ को बहुत मजा आ रहा है. कुछ ऐसे भी हैं, जिनके यहाँ डकैती हुई है, मगर वो अब भी मौन धरे बाकियों की प्रतिक्रिया का नजारा ले रहे हैं. बाद में बोलेंगे, हमेशा की तरह.

कर्नाटक सरकार और विरप्पन टाईप कहानी बनने लगी. एक पत्रकार बंधु ( चिट्ठाकार बंधु) को जंगल भेजा गया, दस्यु राज से बातचीत चलाने को. तब कई राज परत दर परत खुलने लगे. यह पूरी तरह डकैती नहीं थी. कई लोगों ने अपने घर से सामान उठाकर ले जाने को सहमती भी दी थी और कुछ लोगों से पूछने पर उन्होंने सामान उठाने को मना तो नहीं किया मगर चुप रहे. जब बात बढ़ने लगी, तब जंगल से एक सीधा और एक बीचउपुर वाले चिट्ठाकार बंधु के माध्यम से दस्युराज की विज्ञप्ति जारी की गई. अब सब विचार कर रहे हैं कि क्या सही और क्या गलत. हमें तो पता नहीं.

मुझे तो बस रह रह कर आज दूसरी बार जीवन में तन्हाई घेर ले रही है. एक बार तब जब जबलपुर में व्यापार करता था. दनादन सब व्यापारियों के यहाँ आयकर के छापे पड़े. हम इंतजार ही करते रहे, हमारे यहाँ नहीं पड़ा. बड़ा स्टेटस गिरा. आयकर वालों ने हमें इस लायक ही नहीं समझा. झूठे नाम से खुद ही के खिलाफ आयकर वालों को शिकायत भी लिख भेजी मगर छापा नहीं पड़ा, उन्होंने उस शिकायत को मजाक माना.बड़ी मुश्किल से शाम की दावतों में अपने छापा खाये दोस्तों से नजर मिला पाता था. कई दिन डिप्रेशन का शिकार रहा, तब जाकर स्वामी रामदेव के प्रणायाम से आराम लगा.

आज फिर वही, हल्ला सुनकर हम भी भागे रिपोर्ट लिखवाने. सिपाही ने बहुत डांटा कि कहाँ हुई डकैती आपके यहाँ? हम तो अपना सा मुँह लिये खडे रह गये. हमने उनसे कहा कि भईया, कहीं अब न डाका पड़ जाये, इसी से पहले ही एतिहातन रिपोर्ट नहीं लिखवा सकते क्या? बहुत समझाया कि भईया, कुछ ले दे कर रिपोर्ट लिख लो वरना बहुत बदनामी हो जायेगी. मगर बड़ा कर्तव्य निष्ट प्राणी था, नहीं माना तो नहिये माना. अब सब बता रहे हैं कि उनके यहाँ चोरी हुई और हम मुँह छुपाये घूम रहे हैं. अब क्या करें वो द्स्युराज की लूट टीम में एक भी ऐसा पारखी नहीं जो हीरे की परख कर सके तो हम क्या करें. अब हम जीतु तो हो नहीं जायेंगे कि डाका भी नही पड़ा और सबसे जोर नाचे:

हाय! हाय! जे कैसा कलजुग! भरी दोपहरिया, बीच बजरिया, लुट गयी गगरिया। दिन दहाड़े डकैती।

या फिर पंकज, ऐसा चिल्लाये; " भागो ताऊ भागो अपने अपने चिट्ठों को जल्दी से छिपा दो… डकैतीयाँ शुरू हो गई है। ". ऐसा चिल्ला चिल्ला कर भागे कि हमें लगा कि बन्दे की पोस्टों के साथ इन्हें खुद को भी लूट ले गये दिखता है. बाद में पता चला कि यह सिर्फ जन जागृति के लिये मशाल लिये भाग रहे थे, इनका कुछ भी लूटा नहीं गया है.

वैसे, एक बात तो है, ऐसे वक्त में जीतु भाई का बहुत सहारा रहा, वरना तो हम बिल्कुल ही अकेले पड़ जाते. साधुवाद, जीतु भाई को.


इस भरी दुनिया में कोई भी हमारा न हुआ,
एक जीतु न हो तो कोई भी सहारा न हुआ.


चलते चलते: हम तो दस्युराज जी से यही निवेदन करेंगे कि भईया, जब मामला सुलट जाये और फिर भी आपकी साईट चालु रहे तो कभी हमारे दरवाजे आकर भी अनुग्रहित करना. जहाँ आपने पूछा और बस समझो....कि हो ही गया.


नोट: दस्युराज शब्द का उपयोग मात्र बाकी पोस्टों की हैडिंग देखकर किया गया है, कृप्या अन्यथा न लें. सब मौज मजे के लिये है न कि किसी के चरित्र हनन के लिये.

सोमवार, जनवरी 29, 2007

हरि से बड़ा हरि का नाम

हमारे मित्र अब विधायक हो गये थे. हमेशा पूछते-' कोई काम हो तो बताना ' . हम शरीफ आदमी ठहरे. कुछ ऐसा काम ही नहीं सोच पाये, जो कि उनसे कराया जाये. एक बार एकाएक बम्बई जाना था. एक दिन का समय था. शादी ब्याह का समय चल रहा था. ट्रेन में भारी भीड़ भाड़. आरक्षण मिल पाना संभव नहीं था. किसी ने कहा विधायक जी से चिट्ठी लिखवाकर डी.आर. एम. कोटा में आरक्षण मिल जायेगा. हम भागे विधायक जी के घर की तरफ. रास्ते में ही वो जीप से आते दिख गये. हमें देखकर रुक गये. हमने अपनी परेशानी बतायी. उनके पास लेटर पैड तो गाड़ी में था नहीं. रेल्वे का दफ्तर पास ही था. हमने कहा, भाई, चल कर बोल दो. वो तैयार हो गये. हम उन्हीं की जीप में बैठ कर रेल्वे के दफ्तर पहुँच गये. सुबह का समय था. डी आर एम साहब तो आये नहीं थे. बड़े बाबू, जो कोटा ईश्यू करते थे, बैठे थे. हम लोग उन्हीं के पास जाकर बैठ गये. हम विधायक जी का परिचय दिये और विधायक जी बोले-'बडे बाबू, यह बम्बई जा रहे हैं, इनका डी.आर.एम. कोटा मे आरक्षण दे दिजियेगा.' बड़े बाबू बोले-'आप विधायक वाले लेटर पैड पर लिखकर आवेदन करवा दें और साथ मे मोहर लगवा दें, मै कर दूँगा'. विधायक जी बोले-'अरे भाई, मैं खुद साक्षात बोल रहा हूँ और तुम चिट्ठी की बात करते हो.' बहुत जद्दोजेहद के बाद भी बात नहीं बनीं. तब हम विधायक जी के साथ उनके घर आये, उनके लेटर पैड पर आवेदन बनाया, उनकी मोहर लगाई, दस्तखत लिये और जाकर जमा कर आये, आरक्षण मिल गया. --वाह वाह, हरि से बड़ा हरि का नाम!!!


देश की वर्तमान राजनीति के हालातों पर नजर डालती एक रचना:

//१//

जीवन की अंतिम संध्या पर, कहते हैं अब काम करुँगा
लूट मचाते थे जो कल तक, कहते हैं अब दान करुँगा.
वोट जुटाने की लालच में, ये क्या क्या कुछ कर सकते हैं
दलितों के मन को बहलाने, कहते है उत्थान करुँगा.

//२//

कभी उसका कभी इसका, ये दामन थाम लेते हैं
हवा किस ओर बहती है, उसे यह जान लेते है
जिसे कल तक हिकारत की नजर से देखते आये
सभी कुछ भूल कर अपना, ये उसको मान लेते हैं.

//३//

सियासत एक मंडी है, यहाँ इमान बिकता है
वही इंसान को ढ़ूँढो, अगर हैवान दिखता है
यहाँ वो ही सिंकन्दर है न जिसमें लाज हो बाकी
नहीं डरता गुनाहों से, भले नजरों से गिरता है.

--समीर लाल ‘समीर’

गुरुवार, जनवरी 25, 2007

कृष्णा विरेन्द्र ट्रस्ट और जयप्रकाश जी : आभार

तरकश द्वारा आयोजित सम्मान 'सर्वश्रेष्ट उदीयमान चिट्ठाकार, २००६' में स्वर्ण कलम से सम्मानित होने पर
कृष्णा विरेन्द्र ट्रस्ट के द्वारा घोषित पुरुस्कार स्वरुप मुझे कल ही यह तीन पुस्तकें, ए.एच.व्हिलर द्वारा प्रेषित, प्राप्त हुई है. मैं कृष्णा विरेन्द्र ट्रस्ट और जयप्रकाश जी का एवं साथ ही हिन्दी चिट्ठाजगत के साथियों का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ और जैसा कि जयप्रकाश जी ने आदेश दिया है कि हम चाहेंगे कि श्री समीर लाल इन पुस्तकों को पढ़ कर, इनकी समीक्षा भी करें, पर अमल करने का अपनी क्षमताओं अनुरुप शीघ्र ही पूरा प्रयास करुँगा.

आवारा मसीहा-विष्णुप्रभाकर






अर्धनारिश्वर -विष्णुप्रभाकर






प्रथम प्रतिश्रुति-आशापूर्णा देवी





पुनः सबका आभार और गणतंत्र दिवस के शुभ अवसर पर आप सबका हार्दिक अभिनन्दन.

बुधवार, जनवरी 24, 2007

अतुल्य भारत या भारत उदय

अभी दो दिन पहले ही फुरसतिया जी के प्रश्न पर अपनी एक जबाबी पोस्ट लिखी थी, खुलासा-ए-मुहब्बत: आग का दरिया. यह पोस्ट जैसे ही नारद पर आई वैसे ही एकाएक भाई रवि रतलामी जी का पर्यावरण प्रेम ऐसा जागा कि दनादन एक दो नहीं, अट्ठारह पोस्ट आ गईं. हमेशा हमारी पोस्ट सीढ़ी दर सीढ़ी नारद से उतरा करती थी और धीरे धीरे महासागर में विलुप्त हो जाती थी मगर उस दिन पर्यावरण की ऐसी आँधी आई कि हमारी पोस्ट मात्र तीन मिनट में ही विलुप्त प्रायः हो गई और नारद के दूसरे पन्ने पर, उसमें भी सबसे नीचे जाकर बैठ गई. बाकि अन्य चिट्ठों को जैसे आना था आये मगर बस दो चार ही और आये और हम तीसरे पन्ने पर याने कि विलुप्त. कई बार मन किया कि इसे मिटाकर फिर से पोस्ट कर दें नई के समान, किसिको क्या पता चलेगा मगर एक तो अति सज्जनता का चक्कर और उस पर से घोर प्रेमियों द्वारा उसी तीन मिनटों के आधार पर या बिना नारद के निर्देश पर पधार कर जो टिप्पणियां आ गई, उस वजह से वो हथियार भी जाता रहा.

खैर, मै धार्मिक आदमी हूँ. मान कर चलता हूँ दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, वैसे ही हर पोस्ट पोस्ट पर लिखा है टिप्पणी करने वाले का नाम. बस, थोड़ा दुख इस बात का रह गया कि कितने लोग इसके चलते हमारा बहुप्रतिक्षित खुलासा हो जाने के बाद भी खुलासे का इंतजार ही करते रह गये और सोच रहे हैं कि हम अब खुलासा करेंगे या तब. वैसे भी दूसरों की झंझट देख मजा भी ज्यादा आता है. यह ईमेल से प्राप्त खबरों के आधार पर बता रहा हूँ. न जाने और कितनों की पोस्टों का इस तरह का हश्र होता होगा.

यह तो वैसा ही हुआ जैसा हमें लगा भारत उदय होने वाला है, और अब होगा कि तब होगा और टीवी देखते हैं तो पता चला कि वो तो उदय हो गया.बम्बई दिखाया, बैंगलूर दिखाया, दिल्ली, गुड़गांव, काल सेंटर, डिस्को...वाह. खुब रहा. खुब उगा.

ना जाने कितनी बात हुई, कितने चिट्ठे लिखे गये...भारत उदय...अतुल्य भारत...उदीयमान भारत.....चमकता सूरज. वाह वाह, बकौल डॉ कुमार...वाह वाह करनी है, दाद देनी है खाज नहीं...वाकई अब तो इतना ज्यादा खींचा जा रहा है कि लगता है खाज दी जा रही है. क्या भारत सिर्फ़ महानगरों में बसता है या उसके बाहर भी उसका असतित्व है. क्या सिर्फ़ तड़क भड़क, महानगरीय सभ्यता और अंग्रेजी गटर पटर भारत को अतुल्य भारत बना देगी... ९९% प्रतिशत भारत अभी भी बिना सड़कों (टूटी सड़कों की हालत ऐसी है कि बिना कहना ही उचित है), बिना बिजली( ३ घंटे आ भी जाये तो क्या) और बिन पानी(रात २ से ४ बजे आता है, भर लो जितना भर पाओ) के जिंदा है मौसम के सहारे, जिसका कोई ठिकाना नहीं.

मुझे लगता है अभी आवश्यक्ता है इन आधारभूत सुविधाओं की तरफ ध्यान देने की. छोटे शहरों में युवाओं को रोजगार के अवसर प्रदान करने की. जड़ों में दीमक के तरह लगे भ्रष्टाचार को खतम करने की. हालांकि अनेकों स्थानों पर परिवर्तन होते देखे जा रहे हैं, मानसिकता बदल रही है मगर अभी बहुत कुछ होना होगा सही मायने मे अतुल्य भारत बनने में या भारत उदय के सपने को सच्चाई में परिवर्तित होने में.

इसी पर आधारित यह कुछ मुक्तक सुनें:




भारत उदय



दिन भर आज सुना टीवी पर, भारत उदय कहानी को
डिस्को में जो रही थिरकती, उस मदमस्त जवानी को,
कितने लोग गिनें हैं तुमने, कितना भारत छूट गया,
तरस रही है कितनी जनता, बिजली को औ’ पानी को.

हालातों से कर समझौता, जीना उसने सीख लिया
अधिकारों को उसने अपने, जैसे मानो भीख लिया
कल फिर एक चलेगी आँधी, और फिर युवा जागेगा,
सहते सहते बिन शब्दों के, उसने कितना चीख लिया.





--समीर लाल 'समीर'

रविवार, जनवरी 21, 2007

खुलासा-ए-मुहब्बत: आग का दरिया

उस दिन जब फुरसतिया जी ने अपने चिर परिचित अंदाज में अपना लेख “आग का दरिया, बसंती की अम्मा और कुछ हाईकु “ पेश किया और हमसे हमारी इश्क मुहब्बत की ताजा तरीन उधाड़ी गई खबरों पर स्थिती स्पष्ट करने की आशा की, तब यह हमारा नैतिक दायित्व बन गया कि हम स्थितियों को झाड़ पोंछ के, साफ सुथरा करें. इसी श्रृंखला में पहले हमने अपनी फुरसतिया जी के द्वारा उधाड़ी गई दास्तान में गीत का पैबन्द लगाने की कोशिश की. लोग आये, सहानुभूति भी दिखायी. कुछ ने तो राग मे राग मिला कर गाया भी, नये नये शेर गढ़े, एक पर एक शेर जुड़ते गये, हमारे शेर बाहर होते गये और नये शेरों से एक नई गज़ल बनने को तैयार है, मगर सब शायर हमें दर्द में अटका देखकर संवेदनावश बस यही कह रहे हैं:

हमने तो बस शेर लिखे हैं, बाकी गज़ल तुम्हारी है….
इतना भी है क्या घबराना, आनी सबकी बारी है….


एक दिन यह वाला गीत पू्रा सुनाऊँगा, आज तो बस सफाई वाली बात करनी है. वैसे सफाई तो होती रहेगी, एक बात ध्यान देने योग्य है. संजय भाई तरकश जब हमारे दरवाजे आये तो साथ मे बैठ दुख जताया और मैने ध्यान से देखा था कनखियों से, इनकी आँख में आँसूं भी थे और गले में भर्राहट भी, बोले:

कविता के वियोग में बिताई तन्हा रात के लिए हमारी संवेदनाएं. :(

और जब फुरसतिया जी के दरवाजे पहूँचे- तब अति प्रसन्न, पूरे दाँत लगभग बाहर और एक आँख दबी हुई, उनसे कहे:

एक बार फिर समीरलालजी को फँसा देख आनन्द की अनुभूति हो रही है.

सोचे होंगे कि अब तो समीर लाल यहाँ आने से रहे, टिपिया गये हैं, क्या पता चलेगा. लेकिन हम भी कम नहीं हूँ, जब तक किसी की नई पोस्ट न आ जाये, रोज रोज चेक करता हूँ कि कौन क्या कर रहा है. हा हा…कृप्या अन्यथा न लें मगर यदि आप हमारे गाँव में होते, तो आपको

“२००६-२००७ संयुक्त का सर्वश्रेष्ट उदीयमान व्यवहारिक पुरुष”

का खिताब मिलता. तो अब सफाई के लिये झाडू-पौंछा उठाकर चलें:

इश्क में क्या बतायें कि यारों, किस कदर चोट खाये हुये हैं
आज ही हमने बदले हैं कपडे, और आज ही हम नहाये हुये हैं.........


हमारे मित्र फुरसतिया जी, एकदम सही पहचान गये. इनकी सक्षमताओं और काबिलियत को देख मैं कई बार सोचने लगता हूँ कि यह बंदा गलत फंसा है कानपुर में, इन्हें तो बुश की सलाहकार समीति का अध्यक्ष होना चाहिये था. उधर सद्दाम जुकाम से परेशान नांक पोछता और इधर यह बता देते कि उनके यहां कुछ गैस स्त्राव है उन डिब्बों में से जो उसने अमेरिका के सबवे सिस्टम में हमला करवाने के लिये खरीदे हैं. अभी मारो उसको , नहीं तो बड़ा गजब हो जायेगा. और साथ ही बिन लादेन और न जाने एक दो और देशों को भी लपेटवा देते.

आपकी लिखी एक लाईन भी तो यहाँ से वहाँ होकर देखें और फुरसतिया जी पूरे एक पन्ने का लेख उस लाईन की बखिया उधेड़ने में लगायेंगे, और ऐसी उधेड़ेंगे कि सब के साथ साथ आप खुद भी और साथ में बाकी उधड़े लोग भी, जो साथ में लपेटे गये होंगे, आह वाह करने लगेगो. शतरंज के घोड़े याद आते हैं जो एक बार में ढ़ाई घर चलते हैं. चल तो गये, फिर यहाँ वहाँ ताकते हैं कि हमारी चाल में कौन कौन घायल हुआ और हम कहाँ टिके हैं . कई बार एक घर चल लें तो भी काम हो जायेगा, मगर नहीं साहब, जब चलेंगे तो चलेंगे ढ़ाई घर ही. यही नियम है और ऐसा ही होगा.

हम तो क्या कहें . बिल्कुल चुप रहते मगर लेख में कह गये कि आशा है कि समीरलाल जी जल्द ही इसका खुलासा करेंगे और जो बतायेंगे वह सच से इतनी ही दूर होगा जितना कि भारतीय नौकरशाही से ईमानदारी! अब फुरसतिया जी की शान में गुस्ताखी करना भी हमारे बुते की बात नहीं, तो बताये देते हैं खुलासा वरना हम तो वैसे भी चुप रहने वाले आदमी है, इस बात का पुख्ता सबूत श्रीश भाई, जो कि आजकल खुद ही चुप हैं, दे सकते हैं , वो तो हमारा स्वभाव जानते हैं. लेकिन भाई जी पहचाने सही हैं. उन्होंने न सिर्फ़ शेर पूरा किया:

यह इश्क नहीं आसां , बस इतना समझ लिजिये ,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है.


बल्कि माननीय राकेश जी को उकसाया कि यह दोष उन पर आयेगा और कुछ मेरे और फुरसतिया जी के साझा (कॉमन) दोस्तों, जो कि यूँ भी मौके की तलाश में रहते हैं, को भी चुगली के लिये उकसाया है .

माना कि हम दो जवान बेटों के बाप हैं मगर दोनों को मैं अपना चलता फिरता विज्ञापन (प्रोडक्ट सेंपल) मानता हूँ, याद करता हूँ अपना प्रिय गीत, फिल्म ‘सावन को आने दो’ से जिसे इंदीवर ने लिखा और येशुदास ने सिर्फ़ एक बार गाया था और हम बार बार आज तक हमेशा गाते हैं:

तुझे देख कर जग वाले पर यकीन नहीं क्यूं कर होगा
जिसकी रचना इतनी सुंदर, वो कितना सुंदर होगा.


कितना गहरा गीत है, क्या भाव हैं. लगता है जैसे मेरे ही लिख गये. इसे कहते हैं गीत. मन श्रद्धा से भर उठता है. आजकल के गीत तो क्या बतायें जैसे ”कितने आड़्मा, आड़्मा, आड़्मा----“ मानो कहीं फिट ही नहीं होते. हमें इससे क्या, हमारे लिये तो इंदीवर जी लिख गये, बस!! उन्हें देखकर ही लोगों का दिल उनके रचनाकार को देखने के लिये मचल उठता है.

इसके पहले कि कोई भी उकसे, हम खुद ही बताये देते हैं .

अगर यही बात किसी फिल्म के लिये कहानी/डायलग लिखने जैसी होती तब हम कहते,


"हाँ हाँ, हमें इश्क हो गया है, हम मुहब्बत के भंवर में फंस चुके हैं, अगर प्यार करना गुनाह है तो हम गुनाहगार हैं....सुबुक सुबुक....लेकिन हमने वैसा ही प्यार किया है, जैसा कभी मीरा ने कृष्ण से किया था, हीर ने रांझा से किया था, रेखा ने अमिताभ से किया था..सुबुक सुबुक..हम आज भी पाक (पाकिस्तान वाला नहीं-साफ वाला) और पवित्र एवं स्वच्छ हैं- गंगा की तरह (ऋषिकेश से अप नार्थ वाली-उससे साउथ तो अभी कुंभ के कारण हालत और पतली है)---

सामने सीन में मि. फुरसतिया खड़े हैं, उनकी दोनों आँखों से दो दो बूंद आंसू टपकते हैं और वो कह रहे हैं, “मुझे माफ कर दो, मैने तुम्हें गलत समझा, तुम पर झूठे लांछन लगाये—अभी हम उनके पाश्चातापी भाव से प्रभावित उनके कंधे पर सर टिकाने बढ़े ही थे कि”

कट कट-डायरेक्टर गुस्से में आता है-मि. फुरसतिया, यह क्या है, माना आपकी पहली फिल्म है और आप खुश हैं, मगर इस सीन में आपके चेहरे पर आत्मग्लानि, खेद और पाश्चाताप के भाव होने चाहिये अपने लगाये इन लांछनों की वजह से और आप मुस्करा रहे हैं. यही हाल रहा तो इस पहली फिल्म को ही अपनी आखिरी समझो.

डायरेक्टर फुरसतिया जी को डांट रहा है, लताड़ रहा है. फुरसतिया जी हाथ जोड़े घिघियाये से खड़े हैं कि कहीं फिल्म से निकाल ही न दे, हम दिल ही दिल में मुस्करा रहे हैं, खुश हो रहे हैं. “



मगर यहाँ कोई फिल्म-विल्म तो बन नहीं रही, यहाँ तो साफ साफ बताना है.

क्या बतायें, ऐसी मुहब्बत हुई है कि सुबह से ही किसी काम में मन नहीं लगता, यह यार इश्क मुश्क का चक्कर है ही बड़ा अजीब. बस उठे, समय बेसमय और खिड़की पर. शायद नजर आ जाये. पता नहीं जो कल लिख कर खिड़की से फेंका था , उसका क्या हुआ. कहीं किसी और के हाथ लगकर जग जाहिर तो नहीं हो गई बात. पता नहीं लोगों ने क्या क्या बात बनायी...फिर भी बस हर वक्त यही, बकौल गालिब:

खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक हैं तुम्हारे नाम के.


न खाने में मन लगे, न पीने में . खाना खाते खाते भी दो बार खिड़की में झाँक लेते हैं कि क्या गतिविधियां चल रही हैं. न ऑफिस के काम में दिल लगता है न घर के काम में. पत्नि तो खिड़की को अपनी सौतन मान बैठी है ....हर वक्त हमारी नज़र खिड़की पर ही रहती है और मन भी. उसका क्या दोष , वो तो कोई भी यही सोचेगा. आखिर, जब इतनी दूर से फुरसतिया जी एक लाईन पढ़कर भाँप गये तो वो तो यहीं है, साथ में.रात में कुछ लिख कर खिड़की में से डाल आये और बस अब लो, सपने में भी वही,,,, सुबह उठते ही..खिड़की पर.. क्या हुआ देखें जरा .

यही जिंन्दगी हो गई है..हर वक्त खिड़की और हर वक्त इंतजार ....अब तो इसकी लत हो गई है और कुमार विश्वास की कविता याद आती है:

जब बार बार दोहराने से, सारी यादें चुभ जाती हैं,
जब ऊंच नीच समझाने में, माथे की नस दुख जाती हैं
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
तब इक पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है


फिर फिल्मी स्टाईल, "मै दीवाना हो गया हूँ, मै पागल हो गया हूँ ...."

"खैर मैं जो भी हो गया हूँ मैं गलत नहीं हूँ...."

आपको बता दूँ यह पागलपन, यह दीवानापन, यह इश्क सब चिट्ठे और चिट्ठाकारी से है, खिड़की बिल्लू की विंडोज और जबाब -टिप्पणियां...वो चिट्ठी जो हम खिड़की से गिराते हैं, वो हमारी पोस्ट...क्या यही हालत आपकी भी नही है..अरे, २०० से ज्यादा लोग इस लफड़े में फंसे हैं.तो फिर हम पर सच बोलने का इतना बड़ा इल्जाम क्यूँ ........ओबेद उल्लाह अलीम साहब को फिर सुनिये:

तेरे प्यार में रुसवा हो कर, जायें कहाँ दीवाने लोग,
जाने क्या क्या पूछ रहे हैं, ये जाने अनजाने लोग.


बस इससे ज्यादा हमें कुछ नहीं कहना, हम तो ज्यादा बोलते ही नही, चाहे तो श्रीश से पूछ लो. श्रीश, इनको बताओ, यार!! वाकई, यह सब बयान सच्चाई से उतना ही करीब है जितना जीतू से कोई भी चिट्ठाकार-बस एक ईमेल की दूरी. अब चला जाये और इसे खिड़की से गिराया जाये.

--समीर लाल ‘समीर’

रविवार, जनवरी 14, 2007

अह्हा, आन्नदम, आन्नदम!!

चलो, नया साल शुरू हो गया, बड़ी अच्छी बात है. मगर मन का क्या करें? हर समय ही विचलित सा रहता है. आंतरिक शांति तो हमारे लिये मानो अमरीकन सपना हो गई है ज्यों नसीब में ही न हो चाहे सद्दाम को फाँसी ही काहे न चढ़ा दो. मन विचलित है तो है. छोटे प्यार दे रहे हैं, बड़े आशिष दे रहे हैं..बराबर वाले गाली बककर अपनत्व का प्रमाण दे रहे हैं मगर ये मन है, विचलित है.

परेशान हूँ, भाई. आज आफिस से वापस आने लगा तो ट्रेन में पढ़ने के लिये एक किताब, मैगजीननुमा, उठा ली. फोटू में डॉ. फिल चमक रहे थे. सोचे कि देखो आज क्या ज्ञान बांट रहे हैं, यही पढ़ा जायेगा.

ट्रेन शुरु हूई गंतत्वय के लिये और हम डूब गये किताब में.

अच्छा लिखा था, पहला ही विचार पढ़ा और हम तो प्रभावित होकर सो गये. कह रहे हैं:

"आंतरिक शांति प्राप्ति का एक मात्र रास्ता है कि अपने अधुरे छूटे कार्य और चींजें पूरी कर लो"

हमें लगा, वाह क्या बात कह गये.

वैसे जमे जमाये लोग गाली भी बकें तो वो ब्रह्म वाक्य होता है और सब उसे मान्यता देते हैं, तो हम काहे पीछॆ रहें.

हमने उनके इस वाक्य को एक भाई जी से पैन उधार माँगकर अंडरलाईन किया और घर चले आये.

दरवाजे से घुसते ही पत्नी को इस विषय में संपूर्ण जानकारी दी. आखिर हमारी अर्धांगिनी है, सब कुछ आधा आधा. तो जो छूटे कार्य हैं वो भी आधे आधे.

मैने तुरंत मन ही मन घर के भीतर नज़र दौड़ाई-क्या क्या कार्य ऐसे हैं जो मैने शुरु किये और पूरे नहीं किये? आज उन्हें करके मानूँगा और आत्मिक शांति को प्राप्त करुँगा. पूरा करने में पत्नी की मदद भी लूँगा, अरे भाई, मेरा अधिकार क्षेत्र है.

सोचा और देखा, मेरा टेबल और दराज बिखरा पड़ा है, तुरंत पत्नी को कहा कि तुम उसे साफ और व्यस्थित करो तब तक मैं बाकी छूटे काम निपटाता हूँ.

पत्नी समझदार है, मेरा भला चाहती है सो जुट गई और हम नजर दौडाने लगे बाकी छूटे काम पर!

अब हम सीधे बेसमेंट में जा पहुँचे. अरे रे, यह क्या, पिछले हफ्ते जानी वाकर स्काच की आधी बोतल छूट गई..न ना, यह नहीं चलेगा, हर छूटे काम निपटाने हैं, आखिर आंतरिक शांति की तलाश है, उसे मिलना ही होगा. अभी खत्म करता हूँ इस काम को. अह्हा, आनन्दम, आनन्दम!! खत्म हो गया. वाह, काफी शांति मिली. मगर इस वोदका क क्या करुँ जो लगभग चौथाई छूट गई है. हर छूटा काम पूरा करना है, यह हमारा प्रण है, तो खत्म तो करना ही होगा, तो अब उसे निपटाया फिर बचा पान पराग का डिब्बा छूटी तम्बाखु १२० के साथ. सब खत्म....अह्हा, आनन्दम, आनन्दम!! अनुराग स्टाईल....

अभी भी चार सिगरेट पड़ी है न जाने कब की छूटी उन्हें, कोई नौकर तो लगा नहीं है जो निपटायेगा, तो खुद ही निपटाये...... अह्हा, आनन्दम, आनन्दम!!

मानो न मानो, बहुत आंतरिक सुख मिल रहा है, ऐसी शांति कि क्या बताऊँ. आप भी सलाह मानो, सब बचे और छूटे काम निपटाओ और आन्तरिक सुख पाओ और कहो अह्हा, आनन्दम, आनन्दम!!

वाकई यार, कारगर नुस्खा है, हर हफ्ते अजमाऊँगा..आप भी अजमाओ....

फिर बताना कैसा आनन्द आया...अब हम चले सोने बस एक बात कहते: अह्हा, आनन्दम, आनन्दम!!

:)

मंगलवार, जनवरी 09, 2007

शतकीय एहसाह

अभी तक कभी क्रिकेट मन लगा कर खेला नहीं और न ही स्वयं शतकीय आन्नद कभी उठाया. सबका कुतूहल देखकर लगता तो था कि जो शतक मारता होगा, उसको जरुर कोई न कोई बेहतरीन एहसास होता होगा. उससे भी ज्यादा मजा आता होगा जब लोग शतक की तारीफ में तालियां बजा रहे होते होंगे. जैसा कि मैने बताया, शौक के दायरे के बाहर जाकर कभी क्रिकेट खेला नहीं तो इसका आन्नद विचारों के माध्यम से ही उठाया.

मैने तो क्रिकेट को टीवी और रेडियो के माध्यम से ही ज्यादा जाना और यदा कदा मोहल्ले की टीम के साथ. यह भी देखा कि जैसे जैसे खिलाड़ी शतक की तरफ बढ़ रहा होता है, उस पर मानसिक दबाव बढ़ता जाता है और प्रशंसको की तालियों की संख्या उसी अनुपात में बढ़ती जाती है. कैसा लगता होगा, उस खिलाडी को, बस मन में सोचा करता था.

बहुत सी घटनायें गुजरी, बहुत सी बातों के बारे में ऐसा ही सोचा कि कैसे लगता होगा. समय के साथ साथ कविता के क्षेत्र में कदम रखा. सोचा करता था कैसा लगता होगा कवि को अपनी रचना मंच से सुना कर और लोगों की तालियाँ सुनकर. कविता के क्षेत्र में कदम रखते ही बहुत जल्द इस अहसास को जीवंत करने का मौका भी आ गया और अच्छा भी लगा. अब वो कुतूहल नहीं है मगर अभी तो शुरुवात है, अभी और अनेकों जिज्ञासायें शांत करना है और अनेकों अहसास हैं जिन्हें जीवंत करना है. फिर चिट्ठाजगत में कदम रखा, लोगों को अच्छा लिखते देखा, ढ़ेरों टिप्पणियां मिलते देखा, उनका जिक्र दूसरों की पोस्टों पर देखा. फिर वही प्रश्न, कैसा लगता होगा. यह सब एहसास भी जल्द ही जीवंत होते देखे, अच्छा लगा. मित्र चिठ्ठाकारों ने खुब टिपियाया, खुब लिखा गया, जगह जगह खुब लपेटा गया. कुतूहल कुछ कम हुआ. मगर जब लोगों को देखता था कि मेरी १०० वीं पोस्ट-बस वही, बाप रे, १०० पोस्ट. कैसा लगता होगा १०० वीं पोस्ट लिखते समय. और अभी जब मैं यह सब लिख रहा हूँ उसी एहसास को जीवंत जी रहा हूँ. वाकई, बड़ा अच्छा लगता है शतकीय पारी पूरी करने में. सुना है क्रिकेट में १०० रन बना लेने के बाद खिलाडी खुल कर खेलने लगता है. अब देखिये, यहाँ क्या होता है, खेलेंगे तो खुल कर, ऐसा लगता है.

खैर, १०० वीं पोस्ट तक के आँकडे:

कुल पोस्ट : १००

कुल हिन्दी चिट्ठे:

लेखन दिवस उपलब्ध (छुट्टियाँ काट कर-भारत यात्रा में दुकान पर ताला टंगा था): २४४ दिवस

कुल टिप्पणियों की आवाजाही:

आवा : ९१२

जाही : २१४८

टिप्पणियों की आवाजाही का अनुपात : १ : २.३६

(उपरोक्त में चिट्ठाचर्चा, तरकश इत्यादि के आलेख और टिप्पणियाँ शामिल नहीं हैं, क्योंकि वो साझा प्रयास हैं और हिस्सा बांट की नौबत अभी नहीं आई है)


अब जब बात उखड़ ही गई है तो अगले एक बरस का बजट/ टारगेट भी लिजिये ( ३१ दिसम्बर, २००७ तक):

कुल पोस्ट : १०० ( हर तीन दिन में एक-छुट्टी काट के)

कुल हिन्दी चिट्ठे:

लेखन दिवस उपलब्ध : ३०० अनुमानित (छुट्टी काट के)

कुल टिप्पणियों की आवाजाही:

आवा : भगवान भरोसे (आप सब भगवान हैं)

जाही : २५०० +

टिप्पणियों की आवाजाही का अनुपात (मानक) : १:२ ( ज्ञात रहे वर्तमान में हम मानक से काफी उपर चल रहे हैं)

(उपरोक्त बजट में चिट्ठाचर्चा, तरकश इत्यादि के आलेख और टिप्पणियाँ शामिल नहीं हैं, क्योंकि वो साझा प्रयास हैं और हिस्सा बांट की नौबत आने की कोई संभावना नजर नहीं आती)


अगर पढ़ा बहुत भारी लग रहा हो, तो फोटो में ग्राफ देखें (जिस उम्मीद से कभी ग्राफ का अविष्कार किया गया होगा):

बीती सौ पोस्ट का चिट्ठाजीवन:






१०० पोस्टों में न जाने कितने अलंकरण मिले, जैसे, अगर पीछे से शुरु करें तो, तरकश सम्मान जो अभी मिला, गुरुदेव, कुंडली किंग, लाला जी, द्रोंणाचार्य, स्वामी समीरानन्द (स्वयंभू), महाराज, प्रभु और भी बहुत सारे...बाकी तो और भी अलंकरण हैं जो इस वक्त गैरजरुरी से हो गये हैं- सभी ने स्नेहवश कुछ न कुछ तो दे ही डाला..अच्छा या बुरा, वो तराजू मेरे पास नहीं है, एक ही पलड़ा है, अच्छा :) .

बहुत बेहतरीन सफर रहा, हरियाली लिये हुये सुंदर बागीचा, यह हिन्दी छिट्ठाजगत, यूँ ही लहराता रहे और अमर रहे. हम अपने हिस्से से ज्यादा इसे सिंचते रहेंगे यह वादा रहा.

खैर हमने शतक लगा दिया है और उस पर बज रही तालियों का क्या एहसास होता है, उसे जीवंत करने का इंतजार है. हर पल यही सोच कर लिख रहे हैं:

"जिंदगी मानिंद चिडिया शाख की,
दो पल बैठी, चहचहायी, और उठ चली."


किसने लिखा है क्या पता मगर लिखा बेहतरीन है हमारे लिये. धन्यवाद अनजान जी.


-समीर लाल 'समीर'

सोमवार, जनवरी 08, 2007

वो इक पागल सी..

इधर वर्षांत में दफ्तर का काम भी कुछ बढ़ गया था और फिर चिट्ठाजगत की हलचल और नव वर्ष के स्वागत में आयोजित पार्टियां. इन सब व्यस्तताओं के बीच भी दिल को किसी कोने में किसी वजह एक गीत गुँजता रहा. मैने अक्सर पाया है कि अति व्यस्तताओं के दौर में भी दिल व्यस्त नहीं होता, भले ही दिमाग और शरीर व्यस्त रहें- दिल फिर फिर उड़ कर जाता है अपनों के पास.


वो इक पागल सी चिड़िया

घने घनघोर जंगल में, बहारें खिलखिलाती हैं
लहर की देख चंचलता, नदी भी मुस्कराती है
वहीं कुछ दूर पेड़ों की पनाहों में सिमट करके
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.

कभी वो डाल पर बैठे, कभी वो उड़ भी जाती है
जुटा लाई है कुछ तिनके, उन्हीं से घर बनाती है
शाम ढलने को आई है, जरा आराम भी कर ले
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.

अभी कुछ रोज बीते हैं, मिला इक और साथी है
नीड़ में अब बहारें हैं, चहकती बात आती है
लाई है चोंच में भरके, उन्हें अब कुछ खिलाने को
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.

बड़े नाजों से पाला है, उन्हें उड़ना सिखाती है
बचाना खुद को कैसे है, यही वो गुर बताती है
उड़े आकाश में प्यारे, अकेली आज फिर बैठी
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.

--समीर लाल 'समीर'

शनिवार, जनवरी 06, 2007

किस विधी कहूँ आभार तुम्हारा...

आप सबने, अपने स्नेह और आशिष से मुझे तरकश स्वर्ण कलम से सम्मानित किया है. मैं आप सबका बहुत आभारी हूँ. हालांकि मुझे लगता है कि अभी ही तो मैने कलम पकडना सीखा है, आप सबके बीच आया हूँ और कुछ थोडा ही पेश कर पाया हूँ. अभी तो सफ़र की शुरुवात है और न जाने कितना सीखना है. जैसी कि मित्रों ने संभावनायें व्यक्त कीं कि अक्सर इस तरह के किसी भी सम्मान के बाद लोगों ने लिखना कम कर दिया, ऐसा देखा गया है. तब ऐसे वक्त में इस तरह का सम्मान शायद प्रगती मे बाधक न बनें वरन मुझे आगे और बेहतर करने के लिये, बेहतर लेखन की ओर प्रेरित करे, यही कामना करता हूँ. सन २००६ के उदयीमान चिट्ठाकारों में सर्वश्रेष्ट की घोषणा सुन लगता है कि किस बुलंदी पर पहुँचा दिया है आप सबने अपने प्यार और आशिर्वाद से.

---बस मुन्नवर राना जी की यह पंक्तियां डरा रहीं हैं और कुछ सिखा भी रहीं हैं.


बुलंदी देर तक किस शख्स के हिस्से में रहती है
बहुत ऊंची इमारत हर घडी खतरे में रहती है


तब मै अपनी तरफ से सिर्फ इतना ही कहना चाहूँगा कि,


मैं नहीं मानता कि मैने कुछ किया है,
ये आपका स्नेह है जो मैने जिया है.


और भविष्य के लिये भी आपसे निवेदन करता हूँ:


बस यूँ ही मुझको आप सिखाते रहना
गर भूलूँ जो औकात,याद दिलाते रहना.


आज ज्यादा न कह कर बस इतना ही. हसरत जयपुरी की कुछ पंक्तियां बरबस ही याद आ रहीं हैं:


एहसान मेरे दिल पे तुम्हारा है दोस्तों
ये दिल तुम्हारे प्यार का मारा है दोस्तों
यारों ने मेरे वास्ते क्या कुछ नहीं किया
सौ बार शुक्रिया अरे सौ बार शुक्रिया.....


मन भाव विभोर है आप सबका स्नेह पाकर. कृप्या मुझे यूँ ही आशीष देते रहें.
आप सबका का आभार और हार्दिक अभिनन्दन.

बाकी फिर.................
सादर

समीर लाल 'समीर'

बुधवार, जनवरी 03, 2007

संगत कीजे साधु की...

स्थान: तरकश चुनाव मैदान

शहर: अहमदाबाद

मौका: तीन सर्वश्रेष्ट उदयीमान चिट्ठाकारों का चुनाव २००६

प्रवचनकर्ता: स्वामी समीरानन्द उर्फ़ उडन तश्तरी उर्फ़ समीर लाल 'समीर' उर्फ़ समाजसेवी......

दृश्य: मैदान हिन्दी चिट्ठाकरों से खचाखच भरा हुआ है, पैर रखने तक की जगह नहीं. एक किनारे ११ स्टाल लगे हैं और सभी स्टालप्रभारी चिट्ठाकारों की आवाभगत में लगें हैं. चाय बांटीं जा रही है, समोसे खिलाये जा रहे हैं. पान और पान पराग की सामने ही व्यवस्था है तथा, स्टाल के पीछे शराब बांटी जा रही है और इनको इससे कोई मतलब नहीं कि गुजरात में शराबबंदी है, वैसे भी गुजरात में जब कोई बताये, तभी इसका एहसास होता है.

जगह जगह बैनर टंगे हैं. स्वामी जी की तस्वीर के साथ लिखा है "आप अपने मताधिकार का प्रयोग करें. उसका प्रयोग ही सही तीन सर्वश्रेष्ठ चुनने में मदद करेगा."

स्वामी समीरानन्द निर्धारित समय से मात्र ३ घंटे विलम्ब से एयरपोर्ट से सीधे, सर्किट हाउस ( वो मुन्ना भाई वाले सर्किट के घर से नहीं जो जगदीश भाई के सौजन्य से प्राप्त है, बल्कि डाक बंगले से) होते हुये अभी अभी मैदान में घुस रहे हैं, हर तरफ स्वामी जी का जयकारा लगाया जा रहा है. स्वामी जी के चेहरे पर मुस्कान और माथे पर चिंता की लकीरें और दिल मे भय व्याप्त है.

स्वामी जी ने मंच पर पुष्प सज्जित शैय्या नुमा कुर्सी पर अपनी आसनी धंसा दी है और लोग ताली बजा चुके हैं और स्वामी जी ताली के जवाब में अपना हाथ उठा कर आशिष प्रेषित कर चुके हैं. यहाँ तक का कार्यक्रम सम्पन्न हो चुका है. सभी निर्णायक मंडल के सदस्य अग्रिम पंक्ति में सोफे पर बैठे हैं और प्रायोजक संजय तरकश का साईन बोर्ड लिये मंच पर स्वामी जी आठ फुट की दूरी पर गद्दे पर अपने चेहरे पर चिर परिचीत मुस्कान चिपकाये और हाथ मे काफी का मग लिये बैठे हैं और तरकश के इंतजामअली पंकज व्यस्त दिखने के प्रयास में मैदान के चक्कर लगा रहे हैं. उनके सिर में दर्द है, इसलिये वह सफाई कर्मचारी को डांट रहे हैं.

चिट्ठाकार चुनाव को ले कर चितिंत नजर आ रहे हैं, समझ नहीं आ रहा कि बारह मे से किसे चुनें किसे छोडें. आपस में सब अपनी चिंता अंग्रेजी में व्यक्त कर रहे हैं कि वेरी कन्फ्युजिंग. स्वभाविक है, हिन्दी चिट्ठाकरों का सम्मेलन है तो अंग्रजी मे बात होना ही है.

प्रवचन शुरु होता है, स्वामी समीरानन्द बोलना शुरु करते हैं, और इस चुनाव की लंबावधी महत्ता पर भी प्रकाश डालते हुये एक घंटे का बखान करते हैं जिसमें गीता के भी काफी अंश हैं जो कि हर झगड़े झंझट मे होते हैं.

अंत में प्रश्नोत्तर काल शुरू होता है. सारे चिट्ठाकार हालाकान हैं कि इतनी लम्बी १२ लोगों की जमात, जिसमे सभी उदयीमान हैं और सभी श्रेष्ठ हैं, किसे वोट दें किसे ना दें. एकाध तो पहचान का है उसे देना ही है, बाकि?? बड़ी परेशानी है.

पहला, दुसरा, तीसरा और..अनेकों मे अंतिम मात्र एक ही प्रश्न कि किसे और कैसे चुनें?? पूरा मैदान बस एक ही कौतुहल से गुंजायमान है- किसे और कैसे?? और फिर स्वामी समीरानन्द जी की जय हो, स्वामी जी हमें ज्ञान दो!! के नारे सुनाई दे रहे हैं.

स्वामी जी ने आँख बंद कर ली है और गहन सोच में डूबे हैं और धीरे से मुस्कराते हुये आँख खोलते हैं- और पहला ब्रह्म वाक्य:

"भक्तों, आप सबका सवाल और कौतुहल जायज है. बहुत मुश्किल है इन सभी श्रेष्ठों में श्रेष्ठतम का चुनाव करना. मगर जब मानव जीवन पाया है तो यह तो करना ही होगा. इसके बिना कोई गुजारा नहीं."

सारा मैदान फिर नारों से गुँज रहा है-स्वामी समीरानन्द जी की जय हो.

शिष्य गिरिराज हाथ उठाकर सभी से चुप रहने का संकेत कर रहे हैं. स्वामी जी मंद मंद मुस्करा रहे हैं. अब मंच के पीछे परदे के उस पार का टेबल लैंप भी जल गया है जो कि स्वामी समीरानन्द के सर के चारों ओर आभामंडल का निर्माण कर रहा है.

पुनः स्वामी समीरानन्द जी ने बोलने के लिये मुद्रा बना ली है. मैदान मे सुई पटक सन्नाटा छा गया है.(हिन्दी चिट्ठाकरों के लिये-सुई पटक सन्नाटा मतलब पिन ड्राप सायलेन्स, यह वैसी ही बात है जैसे हिन्दी फिल्मों में नायक नायिकाओं को डायलॉग रोमन में लिख कर दिये जाते हैं और आपेक्षित भाव निर्देशक अंग्रेजी में समझाता है)

स्वामी समीरानन्द बोलने की मुद्रा को बदलते हुये, अपने काबिल शिष्य गिरिराज की तरफ मुड़े और इशारे में कुछ आदेश दिया. शिष्य गिरिराज ने सहमति में सिर हिलाया और स्वामी जी का आदेश का पालन अपने शिष्यों के हवाले कर दिया. अब जब तक आदेश का पालन चल रहा है, तब तक शिष्य गिरिराज स्वामी समीरानन्द जी की अन्य सभाओं का स्लाईड शो लेपटाप और प्रोजेक्टर के माध्यम से परदे पर दिखा रहे हैं. स्वामी जी आँख बंद किये धीमे धीमे मुस्करा रहे हैं.

आदेश का पालन हो चुका है. शिष्य गिरिराज ने भी स्लाईड शो बंद कर दिया है. स्वामी जी ने आँखे खोल दी हैं. मंद मंद मुस्कान के बीच बोलने की मुद्रा स्पष्ट झलक रही है. मैदान मे पुनः सुई पटक सन्नाटा छा गया है.

स्वामी जी बोले, "भक्त चिठ्ठाकारों, अब आपको जो ग्यारह परचियां अभी अभी बांटी गई हैं, उन्हें हमारा प्रसाद मानें. आपका चिंतन देख मैं खुद भी चिंतित हो गया था. अब उसी के हल स्वरुप यह पर्चियां बांटी गई हैं. इनमें ग्यारह चिट्ठाकरों की अलग अलग परची है, उन्हें पुडिया बना लें, फिर उसमें से एक खींचें, जो नाम आये, उसे कास्य कलम पर लगा दें. अब वो पुडिया फेंक दें. फिर एक और पुडिया खींचें, और उसे रजत कलम पर जड़ दे"

एकाएक भक्त चिट्ठाकरों में हलचल मच गई है. स्वामी समीरानन्द की जय हो से सारा महौल गुंजाय मान है. भक्त चिट्ठाकरों की आंखे इस दिव्य ज्ञान की प्राप्ति से नम हैं. गले रौंधे हुये हैं.

एकाएक माईक पर तरकशी आयोजक संजय अपनी मधुर आवाज में घोषणा कर रहे हैं. लगा कि कोई गीत गाया जा रहा है. मगर वो कह रहे हैं कि जरुरी सूचना है जो कि उन तक भक्त चिट्ठाकरों के हुजूम ने पहुँचाई है. संजय कॉफी का मग हाथ में लिये बोल रहे हैं, "मित्रों, अप लोगों का उत्साह देखकर मन भर आया है. अभी अभी कई भक्त चिट्ठाकरों ने मुझ तक यह सूचना पहुंचाई है कि कनाडा के चिट्ठाकार समीर लाल 'उडन तश्तरी' का नाम इन पर्चियों में नहीं है. मै स्वामी समीरानन्द जी आग्रह करता हूँ कि वो इस भूल सुधार का मार्ग सुझायें."

इतना कह संजय बैठ गये हैं. निर्णायक मंडल के सदस्य एक दूसरे का चेहरा देख रहे हैं. पंकज अभी भी मैदान का चक्कर लगा रहे हैं. उनके सर में अभी भी दर्द है इसलिये अब वो पर्ची बनाने वाले दल को डांट रहे हैं.

स्वामी समीरानन्द जी मंद मंद मुस्कराये और बोले," कोई भी गल्ती ऐसी नहीं कि उसे सुधारा न जा सके." भक्त चिट्ठाकरों के सर श्रृद्धा से झुक गये हैं, वो स्वामी समीरानन्द का जयकारा लगा रहे हैं. शिष्य गिरिराज सभी को सांकेतिक भाषा में शांत रहने को कह रहे हैं.

स्वामी समीरानन्द आगे बोले, " अब जो गल्ती हो गई, हो गई. आप रजत और कास्य कलम पर तो वोट लगा ही चुके. अब आप सारी परचियां फेंक दें, और समीर लाल को स्वर्ण कलम के लिये वोट लगा दें. यही सच्चा प्रयाश्चित होगा और आपकी जीवन नैया को चिट्ठाजगत से पार लगवायेगा."

भक्त चिट्ठाकरों के सर पुनः श्रृद्धा से झुक गये हैं, वो स्वामी समीरानन्द का पुनः जयकारा लगा रहे हैं. निर्णायक मंडल के चहेरे पर खुशी लौट आई है. वो सब एक दूसरे से हाथ मिला रहे हैं. संजय भी अति प्रसन्न मुद्रा में स्वामी जी की दिव्य वाणी से प्रभावित हो स्वामी जी की तरफ ताक रहे हैं. पंकज एक कुर्सी पर बैठ गये हैं. उनके सिर का दर्द खत्म हो गया है. शिष्य गिरिराज लेपटप और प्रोजेक्टर नारंगी चादर में लपेट कर चलने की तैयारी कर रहे हैं. सब तरफ हर्ष का महौल है.

स्वामी समीरानन्द मंद मंद मुस्करा रहे हैं.

सोमवार, जनवरी 01, 2007

जब भी लिखो

अब जबकि नया वर्ष आ चुका है. कितने संकल्पों की बात की गई. क्या पता कौन से संकल्प पूरे होते हैं और कितने अगले साल को हासिल जाते हैं. अच्छा है, जितने पूरे हो जायें, वो ही अच्छा. कुछ तो हो. मैने कोई विशेष संकल्प नहीं लिया मगर आप सब लेखक हैं और बेहतरीन लेखन की मिसाल हरदम कायम करते रहते हैं. आप सबसे नव वर्ष निवेदन के रुप में एक रचना पेश करता हूँ (इस रचना में कविता और कवि को लेखन और लेखक पढ़ें, कविता और कवि शब्दों का यहाँ इस्तेमाल सिर्फ प्रवाह को समर्पित है, कृप्या अंतर्निहित भावना के दर्शन करें :) ):



जब भी लिखो
जी भर के लिखना
जुबान की नहीं
बस दिल की बात लिखना.

हमने देखा है
दिल की बात जब
दिमाग से होकर
जुबान पर आती है तो
बात बिल्कुल बदल जाती है
यह अलग बात है
जमाने को वही पसंद आती है.

कविता तो कवि का
है शाश्वत धरम
सत्य प्रदर्शीत करने में
फिर कैसी शरम

एक बार फिर
दिल के ख्यालों को
कविता के आईने में दिखा दो
इस बदलती दुनिया को
जीने के कुछ ढ़ंग सिखा दो.

एक ख्याल कुछ ऐसा
आज फिर से लिखना
जैसी अंधेरी राहों में
चाँद का हो दिखना.

जब भी लिखो
जी भर के लिखना
जुबान की नहीं
बस दिल की बात लिखना.


--समीर लाल 'समीर'