रविवार, दिसंबर 02, 2018

ठेके पर तलाक और आईनों का सरकारी हो जाना...



आज सड़क के किनारे लगे नए विज्ञापन के बोर्ड को देखकर चौंक गया. फ्लैट १००० डॉलर + जीएसटी में डाइवोर्स और उस पर से विज्ञापन भी एकदम ज़िंदा- बोर्ड जिस तार से गाड़ा गया था वो हवा के थपेड़े न झेल पाया और एक टांग से उखड़ा टेड़ा टंगा था.
सही मायने में देखा जाए तो तलाक भी तो इसी तरह का होता है. परिवार उखड़ जाता है जिंदगी की झंझावातों के थपेड़े खाकर. फिर न वो खुश और न ये खुश . एक तिरछा जीवन मात्र इसलिए कि जब आंधी आई तो दोनों अपने अहम् में खुद को साबित करने में अकेले ही भिड़ पड़े बिना एक दूसरे का हाथ थामें और बिना एक दूजे की साथ की ताकत को समझे. मैं भला क्यूँ हाथ थामूं तुम्हारा? क्या मैं सक्षम नहीं? दिखा ही दूंगा कि मैं अकेला ही काफी हूँ.
पहले लोगों को समाज की नजर की चिंता होती थी तो बड़ी से बड़ी बात हो जाए मगर निभा जाते थे यह सोच कर कि समाज क्या कहेगा? तलाकशुदा व्यक्ति समाज की नज़रों में गिर जाते थे अतः लाख खटपट और असामंजस्य के बावजूद भी संबंध निभा ले जाते थे.
अब समाज की चिंता तो छोड़ो, माँ बाप तक से तो नजर की शर्म बची नहीं है. कॉमन लॉ, सेम सेक्स मैरेज जैसे वक्त में क्या समाज की नजर और क्या माँ बाप की? खुद की नजर की तो परवाह रही नहीं. जाने इनके घरों में आईने हैं भी या नहीं? या आईने होंगे भी तो सिर्फ मेकअप के लिए, असली चेहरा दिखाने को नहीं. आईने भी तो सरकारी हो गए हैं अब ..झूठ बोलना सीख चुके हैं. सेल्फी और आईने की शक्ल एक सी हुई जाती है ..फिल्टर लगा कर जैसी चाहो वैसी तस्वीर देखो!
ऐसे वक्त में अहम की टकराहट में तलाक को रोकने और टालने के लिए मात्र अर्थ (रुपया हो या डॉलर) ही बचा था जिसके डर से नई पीढ़ी इस ओर कदम बढ़ाने से कतराती है. वकीलों की मोटी फीस, वो भी न जाने कब तक भरनी पड़े, जब तक की केस न खत्म हो जाए और फिर भारी भरकम सेटेलमेंट और मेन्टनेन्स का पैसा. इंसान सोचता है कि इससे अच्छा तो बिना तलाक के ही खरी खोटी सुनते सुनाते, लड़ते झगड़ते  ही काट लेते हैं.
आज उस रोक की दीवार को भी जब इस विज्ञापन के माध्यम से आधा गिरते देखा तो लगा की आह! यह रोक भी चल बसी.  कम से कम वकील की फीस की चिंता तो हटी. १००० + जीएसटी. देशी बन्दे हैं हम. इसे इस तरह पढ़ते हैं कि फीस १००० है, नगद दे देंगे. रसीद भी नहीं चाहिये. तब कैसा जीएसटी?
किसी ने कहा की जीएसटी न देना तो नैतिकता के आधार पर धोखा है सरकार के साथ. हमने सिर्फ उसकी आँख से आँख मिलाई और वो सॉरी कह कर चला गया.
जाने क्या समझा होगा नजर मिलाने को इनमें से:
१.     धोखेबाजों से धोखा भी कोई धोखा होता है बुध्धु?
२.     नैतिकता की उम्मीद उससे जो यूं भी नैतिक जिम्मेदारी से मूंह मोड़ने की तैयारी में है?
३.     तुम उस वक्त कहाँ चले जाते हो जब राजनेतिक गठबंधन अपने गठबंधन तोड़ते हैं? उस वक्त जीएसटी का ख्याल आता है क्या तुम्हें?
४.     जीएसटी दे भी दें मगर ऐसे व्यक्ति को जिसका काम ही झूठ को सच साबित करना है? उसे अगर हम जीएसटी दे भी देंगे तो भी वो साबित कर ही देगा कि जीएसटी उसका मेहनताना है.
५.     फिर सरकार लाख सर पटके, अदालत से वो आदेश ले ही आयेगा कि तलाक के केस में वसूले गए जीएसटी पर सरकार का कोई हक नहीं है.
६.     एक रास्ता और है कि जीएसटी का आधा हिस्सा पार्टी फंड में बेनामी जमा करा दो तो कोई पूछताछ न होगी.
खैर, जो भी समझा हो, हमें क्या? चला तो गया.
अब मुझे इंतज़ार है एक ऐसे विज्ञापन का जो ये कहे कि फ्लैट फीस ५००० + जीएसटी. जीरो सेटलमेंट और मेंटेनेंस की गारंटी. जैसे कह रहा हो कि तलाक और ठिकाने लगाने की सुपारी मानो इसे. आज ही संपर्क करें – इमेल: फलाना @ फलाना डॉट कॉम.
वैसे आज कल चल निकला प्री नेपच्युल एग्रीमेंट भी तो इसी दिशा में एक कदम है मानो शादी नहीं हो रही बल्कि पार्टनरशिप में बिजनेस करने जा रहे हों.
ये शादी, तलाक, प्री नेपच्युल को आज न जाने क्यूँ राजनितिक बनते गठबंधंन, टूटते गठबंधंन और मुद्दा आधारित समर्थन से जोड़ कर देखने का मन किया. कोई खास अंतर तो अब बचा नहीं है.
-समीर लाल ‘समीर’

भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में रविवार दिसम्बर ०२, २०१८

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3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-12-2018) को "द्वार पर किसानों की गुहार" (चर्चा अंक-3174) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  2. कॉमन लॉ, सेम सेक्स मैरेज जैसे वक्त में क्या समाज की नजर और क्या माँ बाप की? खुद की नजर की तो परवाह रही नहीं. जाने इनके घरों में आईने हैं भी या नहीं?.....बहुत खूब की रिश्‍तों की पड़ताल आपने

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  3. विवाह अब जीवन का महत्वपूर्ण संस्कार कहाँ रहा है,एक शगल बन गया है-एक सौदेबाज़ी जिसमें दुनिया भर के आडंबर और ऊपरी दिखावे का महत्व है.असली प्रक्रिया पर ध्यान ही कौन देता है.ऐसे ग़ैर जिम्मेदार लोग,शेष जीवन भी संतोष से नहीं बिता सकते.
    पहले ही ठिकाने लग जायें तो अच्छा,नहीं तो बच्चों को भुगतना पड़ता है.

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