रविवार, सितंबर 16, 2018

आँख खुली रखना जागना नहीं है, जागरुक होना जागना है.


जिस तरह हर पर्व की एक अलग पहचान होती है, वैसे ही चुनाव की भी है. यह लोकतंत्र का एक बड़ा पर्व है. बताते हैं इस दौरान पूर्व चयनित नेता नगर वापस लौटता है. उसके भीतर का पिछले चुनाव जीतने के बाद से मर चुका इंसान पुनः अगली जीत तक के लिए जीवित हो जाता है. वह एकाएक जेड सुरक्षा से निकल आम जनता के बीच एकदम सुरक्षित महसूस करने लगता है. वह पुनः संवेदनशील हो जाता है और आम जनता की समस्याओं पर उसकी आँख की अश्रुग्रंथी पुनः झिरने लगती है, मानो पाँच से सूखे पड़े कुँए में एकाएक झिर फिर से खुल गई हो.
जो नेता पिछला चुनाव हार गये थे या जो इस बार गुंडई का राजमार्ग पार कर नेतागीरी में उतरे हैं,वो भी सफेद कुर्ता पायजामा पहन कर बगुलाभगत की तरह सजधज कर आम जनता के बीच हाथ जोड़ कर चले आते हैं. फिर होड़ लगती है कि कौन आमजनता को कितना बेवकूफ बना सकता है?
इस पर्व में हर जाति धर्म को लोग बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. अमीरों और अभिजात्य वर्ग का तो रुपया ही सब कुछ होता है अतः वो धर्म और जाति के बंधन से मुक्त इस पर्व पर वो पिकनिक मनाने निकल जाते हैं. उनकी जगह उनका रुपया इस उत्सव में उनकी हाजिरी लगता है और बढ़चढ़ कर हिस्सा लेता है. जाति धर्म गरीबों के हिस्से की जागीर है जो उन्हें डराने से लेकर बांटने तक के लिए काम आता है. नेता जाति और धर्म के नाम पर क्या खेल खिलाना है और क्या खेल खेलना है, बखूबी जानते हैं. यह चुनावी पर्व इस खेल का पाँच साला ओलम्पिक का सा महत्व रखता है.
जिस तरह भयंकर मधुमेह की बीमारी से पीड़ित व्यक्ति मात्र मिठाई का नाम सुनकर उसके स्वाद को अहसास कर प्रसन्न हो लेता है. वो यह भली प्रकार जानता है कि अब यह मिठाई उसके नसीब में नहीं. वैसे ही गरीब आम जनता के लिए भी चुनाव के वक्त नेताओं के किये वादे कुछ देर को ही सही, एक प्रसन्नता की अनुभूति तो दे ही जाते हैं. अच्छे दिन, बैंक में रुपया, नौकरियों का अंबार, किसानों की सरकार आदि ऐसी ही कुछ मिठाईयों के नाम हैं, जो ये नेता इन्हें चुनाव के दौरान सुनाते हैं. नेता उन गरीबो में आस जगा देता है, जो उनके लिए अगले पाँच सालों के इन्तजार को झेल जाने का संबल बन जाता है.
आस में जिन्दा रखने की ताकत है. आस संजीवनी है. शायद इसीलिए वो माँ बाप जिनके बच्चे विदेशों में जा बसे हैं, लम्बा जीते हैं क्यूँकि उन बुजुर्गों में एक बार उनके वापस आने की आस बाकी रहती है, जो जहाँ एक ओर उनके आँसू गिरवाती है तो दूसरी तरफ उनके जिन्दा बने रहने की वजह बनती है.
अदालतों के फैसले का एक लम्बा सिलसिला भी उन कैदियों में वो ही आस भर देता होगा कि शायद अगली पेशी में छूट जायें और देखते देखते आजीवन कारावास के १४ साल इसी आस और इन्तजार के खेल में बीत जाते होंगे. वरना तो अगर अदालत पहले दिन ही फैसला दे दे और फिर बिना किसी आस के उन चाहरदिवारियों के बीच १४ साल काटने हों तो शायद एक साल में ही वो कैदी दम तोड़ दे. मुझे लगता है अदालतों में लगता एक लम्बा समय, छोटी अदालत से बड़ी अदालत का सफर एक अभिशाप नहीं, ऐसे लोगों के लिए वरदान ही है. इसे जारी रहना चाहिये.
घंसू को चुनाव बहुत पसंद हैं. वह समस्त राजनितिक दलों पर समदृष्टि रखता है. वह दलगत राजनिती से ऊबर चुका है. वह हर दल की रैली और चुनावी सभा में जाता है. वह हर दल के जिन्दाबाद का नारा उठाता है. उसे इस हेतु नोट मिलते है. दारु, गोस्त, पकोड़े, समोसे, पूरी, सब्जी, जलेबी आदि उसका पेट भरते हैं. देने वाला नेता हिन्दु है कि मुसलमान, पाने वाला तो उसका पेट ही है जिसे भरना उसके जिन्दा रहने के लिए जरुरी है.
नोट वोट की तरह ही छुआछूत से परे होता है. हिन्दु दे तो, मुसलमान दे तो,वह नोट ही रहता है. दरगाह वाला नोट घूमते फिरते मंदिर में चढ़ जाता है और मंदिर वाला दरगाह में. घंसु भी नोट के बदले वोट और हर प्रत्याशी के लिए पोस्टर चिपकाने से लेकर बैनर लगाने तक का काम करता है. चुनाव के दौरान ही उसकी कोशिश होती है कि आने वाले समय के लिए भी कुछ रकम सहेज ले.
सहेज कर तो खैर वो बैनर का कपड़ा बचा कर अपने कफन के लिए भी रख लेता है. उसे पता है कि अगर अगले चुनाव के पहले वो मर गया तो ये नेता नहीं लौटने वाले उसके कफन का इन्तजाम करने. इनका अपनापन चुनाव तक ही सीमित है.
इतना समझदार तो खैर हर आमजन है मगर ऐसी समझदारी किस काम की कि आप खुद ही सामने वाले के लिए मखमल की शेरवानी का इन्तजाम करवा कर खुद के लिए कफन सहेजो.
समझ सको तो जागो. आँख खुली रखना जागना नहीं है, जागरुक होना जागना है.  
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे के रविवार सितम्बर १६, २०१८ में:


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7 टिप्‍पणियां:

  1. A tragedy of illiterate polity and in turn of democracy; it is no more 'Collective wisdom' it is more an exploitation of lack of collective wisdom.

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (17-09-2018) को "मौन-निमन्त्रण तो दे दो" (चर्चा अंक-3097) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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  3. क्या बात है समीर जी ! चुटीला कटाक्ष और जनता को जागरूक करने के लिए शाश्वत चुनावी सत्य की इतनी बारीकी से बखिया उधेड़ दी कि अब उसे फिर से सीने के लिए उसे अपने ज्ञान चक्षु खुले रखना अनिवार्य हो जायेगा !

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  4. सोते को तो जगाया जा सकता है, जागते को कैसे और कौन जगाए !

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  5. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन विश्वकर्मा जयंती और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।

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  6. चुनावी दांवपेच औत हथकंडों को उजागर करती धारदार पोस्ट..देखा जाये तो नेता ही सबसे बड़ा अभिनेता होता है..किन्तु नेता के बिना देश की नैया डोलती भी तो नहीं..जनता उनकी और आशा भरी नजर से निहारती है तभी तो वे अपना जादू चलाते हैं

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आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है. बहुत आभार.