वह एकाएक एकदम
मौन और गंभीर हो गये थे. डिप्रेशन का शिकार आम आदमी और स्वयं को बुद्धिजीवी मान बैठा साहित्यकार लगभग
ऐसे ही मौन और गंभीर हो जाता है. डिप्रेशन का
शिकार आम आदमी यह सोचकर मौन हो जाता है कि वो बोलेगा तो कोई सुनेगा नहीं और स्वयं
को बुद्धिजीवी मान बैठा साहित्यकार इसलिये नहीं बोलता कि कहीं उसकी मूर्खता
जगजाहिर न हो जाये. ऐसा साहित्यकार
बोलने और मुस्कराने के लिए साहित्यिक विचार विमर्श में उस क्षण का इन्तजार करता है
जब वो अपने सीमित अध्ययन के आधार पर किसी विदेशी साहित्यकार को कोट करते हुए उसी
साहित्यकार की बात को विमर्श में अपनी तरफ से जोड़ दे, लोग वाह वाही
करें और पुन: मौन धारण कर
गंभीर हो जाये.गंभीर होने के
पूर्व उसके चेहरे पर एक क्षणिक कुटिल मुस्कान उभरती है जिसे देखकर लगता है कि वो
अपने सामने सबको मूर्ख समझता है मगर असलियत में वह अपनी मूर्खता छिपा रहा होता है.
हुआ यूँ कि किसी
ने उनसे पान की दुकान पर फ्री का पान खाने की चाह में यह कह दिया था कि आजकल आप
अखबार में खूब छप रहे हैं. हालांकि उनके कुल
जमा तीन ही आलेख अखबार में छपे थे, लेकिन १ से ज्यादा को खूब सारा पुकार कर अपना काम सधवा लेने वालों के लिए काफी
था अतः उसने कहा कि आपका लेखन एक प्रकार से समाज की सेवा है. यह समाज की सोच को एक नई दिशा देता है. दरअसल आप जिस तरह विसंगतियों पर अपनी कलम से
प्रहार करते हैं उससे समाज सुधार की अलख जागती है..आपकी कलम और कागज मानो कि दो चकमक पत्थरों को
किसी ने घिस दिया हो और एक चिंगारी उठी हो जिससे समाज सुधार रुपी सुतली ने आग पकड़
ली हो और वो देखिये सब लोग उससे अपनी सिगरेट सुलगा रहे हैं. उसने पान की दुकान पर सिगरेट जलाने के लिए
सुलगती हुई सुतली की तरफ इशारा किया.
वैसे यह अलग बात
है कि सिगरेट सुलगा कर निकल गये लोग न जाने किस विचार में खोये सिगरेट के धुऐं से
छल्ले बना कर उड़ा रहे हैं..उनकी अपनी
समस्यायें हैं..देश की अपनी..
इन समस्याओं से
इतर उस पान की दुकान पर खड़े इस महान समीक्षक की समस्या फ्री में पान खाने का जुगाड़
करना था अतः उसने इसके आगे
अपना बयान जारी रखा.. भाई साहब, आप अपने इधर उधर फैले अखबारों मे छपे तमाम आलेखों को पुस्तकारुप
देकर एक जगह संकलित कर समाज के लिए संरक्षित करें ताकि आने वाली पुश्तें यह समझ
पायें कि समाज में आये बदलावों के प्रणेता कौन थे..आपके सशक्त लेखन और प्रगतिशील विचारों को
पीढ़ियां याद रखेंगी.
खैर भावविभोर
होकर उस समीक्षक को पान खिला कर विदा किया और बस!! यही वो क्षण था कि वह मौन हो गये और भरी गरमी
में गंभीरता की रजाई ओढ़े घूमने लगे.
उन्हें पता था कि
बड़ा सहित्यकार वह होता है जो कुछ कहता नहीं..बस मौन और गंभीर रहता है..और बहुत बड़ा
साहित्यकार वह होता है जो कुछ लिखता नहीं...उसकी कलम मौन रहती है..और वह मुखर.. बस एक ही तड़प हर
मंच पर घूम घूम कर उजागर करता रहता है कि आजकल साहित्य में कोई स्तरीय नहीं लिख
रहा है. वह हर वक्त यहीं चिन्ता जाहिर करता अपने संपर्क क्षेत्र को विस्तार देता चला
जाता है.
देखते देखते बहुत
बड़ा सहित्यकार बनने की चाह में उन्होंने लिखना बंद कर दिया..और मंचो से आजकल
अच्छा साहित्य न रचे जाने पर चिन्ता जाहिर करते करते अपने बढ़ते संपर्क सूत्रों के
चलते चाहने वालों का हुजूम भी इक्कठा कर लिया. अब तो अनेकों
शिष्यायों और शिष्यों से घिरे रहना ही उनकी दिनचर्या है.
कल किसी ने
बाताया कि कुछ बच्चियाँ उन पर रिसर्च करने का विचार बना रही हैं. मन आता है उन
बच्चियों से पूछने का कि रिसर्च करने के पहले उनका लिखा तो सर्च तो कर लो फिर शायद रिसर्च
करने की आवश्यकता न पड़े. मगर नदी में रहकर मगर से बैर कौन मोल ले, इसलिए मैं भी मौन
रहा.
इतिहास गवाह है
कि बहुतेरे महापुरुष तो महापुरुष हुए ही इसलिए क्यूँकि किसी ने उनके आभामंडल से
उठते प्रकाशपूंज से चौंधिया कर खोज करने की बजाय उन पर शोध करने की
ठान ली थी.
-समीर लाल ’समीर’
पल पल इंडिया
अखबार में तारीख ५ अक्टूबर २०१७ को:
http://palpalindia.com/2017/10/04/kla-sanskriti-Sameer-Lal-Litterateur-Buddhist-news-in-hindi-212651.html
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
सही पकड़े हैं, गुरुजी।
जवाब देंहटाएंसच है मगर नदी में रहकर मगर से बैर कौन मोल लेता है
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
बहुत खूब :)
जवाब देंहटाएंइतिहास की गवाही से सहमत हूँ !!
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं !!
अविस्मरणीय अतिरोचक भावनात्मक रचनात्मक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत खूब। गहन तंज़। फटाफट में दौर की यही समस्या है।
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