बुधवार, जून 29, 2011

माई.......

एक चार लाईन की कथा कहीं पढ़ता था, उसी से प्रेरित हो इस गीत का मुखड़ा उभरा और फिर ढल गया एक पूरे गीत में:

sunami

माँ को उसकी निगल गया था, सुनामी का ज्वार उबल कर
खड़ा किनारे वो दरिया के, लहरें छूती उछल उछल कर
कहता वो नादान सा बच्चा, कितना भी तुम पाँव को छू लो
मुआफी तुमको तभी मिलेगी, जब आयेगी माई निकल कर.

माँ मर कर भी जिंदा रहती, हर बच्चे के अहसासों मे
खुशबू बन कर महका करती, आती जाती हर सांसों में.
जीवन के इस कठिन सफर मे, यूँ चलना आसान नहीं है
माँ रहती है साया बन कर, मर कर भी आराम नहीं है...

हर बच्चे का सारा बचपन, उसके संग ही जाये फिसल कर
मुआफी तुमको तभी मिलेगी, जब आयेगी माई निकल कर.

हर मौसम माँ से होता था, माँ गर्मी की रातें थीं
माँ सर्दी की धूप सुनहरी, माँ रिमझिम बरसातें थीं
होली और दीवाली भी तो, माँ के संग आबाद रही
बच्चे की सारी खुशियाँ भी, उसके संग में साथ बही..

कोमल मन है कोमल तन है, क्या बीती है उसके दिल पर
मुआफी तुमको तभी मिलेगी, जब आयेगी माई निकल कर

माँ थी सुबह, माँ ही दुपहरी, माँ ही उसकी शामें थीं
अँधियारी रातों मे रोशन, माँ की ही मुस्कानें थी
सन्नाटा घर में पसरा है, माँ जब से उस पार गई
बाबू जी की हालत भी अब, बेबस और लाचार हुई

बच्चा एक उम्मीद को थामें, नित आता है दूर से चल कर
मुआफी तुमको तभी मिलेगी, जब आयेगी माई निकल कर.


-समीर लाल ’समीर’

इसे सुनना चाहें, तो यहाँ सुनें:



विडिओ यहाँ देखें:

रविवार, जून 26, 2011

बचपन के दिन भुला न देना....

ठीक ठीक तो याद नहीं किन्तु शायद दूसरी या तीसरी कक्षा में रहा हूँगा. सरकारी कॉलोनी का माहोल. सब अड़ोस पड़ोस के घर एक दूसरे के जानने वाले.

हमारे एकदम पड़ोस के घर में एक मेरी ही हमउम्र लड़की रहती थी. नाम था डॉली. सभी दोस्त दिन भर साथ खेलते, वो भी हमारे साथ खेलती थी. एकदम गोरी थी और सुन्दर भी. मुझे डॉली बहुत भाती थी. मैं उसके साथ अकेले में भी बहुत बात करता और खेलता.

उसकी तरफ मेरा खास रुझान और आकर्षण देख कर सब बड़े भी मेरा खूब मजाक बनाते.

सब बड़े पूछते कि तुम बड़े होकर किससे शादी करोगे और मैं नन्हा बालक सहज ही कहता कि डॉली से.

बड़ो का क्या है- बिना बालमन पर हो रहे आघात को विचारे वो कहते कि डॉली तो इतनी गोरी है, वो क्यूँ तुझ जैसे कल्लू राम से शादी करेगी?

मुझे बड़ा बुरा लगता और मैं परेशान हो उठता कि मेरा रंग काला क्यूँ हुआ. बच्चों की सोच ही कितनी होती है आखिर. दिन दिन भर इसी उधेड़ बून में रहता.

इसी सोच और परेशानी में एक दिन मैने डॉली से पूछ ही लिया कि वो आखिर इतनी गोरी कैसे है? क्या करती है अपने आपको इतना गोरा बनाने के लिए?

डॉली के घर का माहौल थोड़ा हाई स्टेन्डर्ड का था. उस जमाने में भी उसके घर में लोग चम्मच से चावल दाल खाते थे. वो खुद भी अंग्रेजी माध्यम में पढ़ती थी और घर में भी अंग्रेजों का सा माहौल था. उसके घर में जब सब सोने जाते थे तो एक दूसरे को गुड नाईट कहते थे और सुबह उठकर गुड मार्निंग. अपनी मम्मी से बाय करके डॉली स्कूल निकलती थी. यह सब बातें उस जमाने के मध्यम वर्गीय परिवारों के लिए एक अजूबा सी थी.

मेरे प्रश्न पर उसने बताया कि वो रोज क्रीम खाती है, इसलिए गोरी है.

हम सरकारी स्कूल के हिन्दी माध्यम से पढ़ने वाले नादान बालक. अपनी बुद्धि भर का समझ कर अपने घर लौट आये और शाम को ड्रेसिंग टेबल से उठाकर एक चम्मच अफगान स्नो क्रीम (उस जमाने में चेहरे पर लगाने के लिए यही क्रीम चला करती थी) गोरा होने की फिराक में खा गये. फिर तो बेहिसाब उल्टियाँ हुई. दीदी ने पूछा कि क्या हुआ? कैसे हुआ? तो उसको पूरा किस्सा बताया.

वो हँस हँस कर पागल हो गई और उसने घर भर में सबको बता दिया. इधर हम उल्टी पर उल्टी किये जा रहे थे और घर वाले सब हँसते रहे. गरम दूध वगैरह पिलाया गया, तो तबीयत संभली और फिर दीदी ने बताया कि डॉली क्रीम खाती है का मतलब मलाई खाती है, ऐसा कहा होगा उसने और तुम अफगान स्नो खा गये.

किसी बडे के द्वारा अनजाने में भी  की गई मजाक कोमल मन पर कितना गहरा असर कर सकती है और आहत बालमन अपने भोलेपन में क्या से क्या कर बैठता है. बच्चों से बात करते समय बड़े और समझदार इतना सा ख्याल रखें....काश!!!

खैर, बचपन बीता, कौन जाने वो कहाँ गई? पिता जी की ट्रांसफर वाली नौकरी थी. शहर बदलते गये, दोस्त बदलते गये.

मगर मेरे बहुत बड़े हो जाने तक याने यहाँ तक कि मेरी शादी हो गई, उसके बाद तक भी गाहे बगाहे यह बात निकाल कर कि ये गोरा होने के लिए एक बार अफगान स्नो खा गया था, खूब हँसी उड़ाई जाती रही और हम अपना सा मूँह लिये आजतक उसी रंग के हैं, जिससे भला कौन डॉली शादी करती. 

बालमन कहाँ जानता था कि पूछ सीरत की होती है, सूरत की नहीं. बीबी तो हमको भी गोरी ही मिली और सुन्दर भी.

डॉली की रीसेन्ट तस्वीर तो है नहीं सो अपनी सांट दे रहे हैं. यू के में हैं और तस्वीर भी यॉर्क मे ही कल खींची - अपनी पत्नी के साथ.

sl6

मंगलवार, जून 21, 2011

न्यू अन्ना कन्सलटेन्सी सर्विसेस

पिछले दिनों भारत में प्रकाशित डॉ प्रेम जन्मजेय की पत्रिका ’व्यंग्य यात्रा’ का जनवरी-जून, २०११ अंक प्रकाशित हुआ इस अंक में मेरा यह व्यंग्य भी प्रकाशित हुआ, सम्मानित महसूस कर रहा हूँ.

vyatra

-न्य़ू अन्ना कन्सलटेन्सी सर्विसेस-

आज के बाद जब भी कोई अनशन होगा तो अन्ना को याद किया जायेगा. एक विशाल अनशन के साथ यह बात स्थापित हो चुकी है. ध्यान दिजिये स्थापित हुई है, अमर नहीं. आगे बदल भी सकती है मगर निकट भविष्य में संभावनाएँ अति क्षीण हैं. अन्ना की स्टाईल कॉपी की जा रही है.

अन्ना अब मात्र अन्ना न होकर बिगुल हो गये हैं. कहते हैं क्रान्ति का बिगुल. जब भी किसी अनशन की बात उठती है, अन्ना का नाम बज उठता है. अन्ना इन अनशनों को देख सकते हैं, मुस्करा सकते हैं मगर कर कुछ नहीं सकते. स्टाईल पर कॉपी राईट नहीं होता. क्षेत्रिय, शहर स्तरीय, प्रदेश स्तरीय नये नये अन्ना तेजी से ऊग रहे हैं, ऊगते ही लहलहा रहे हैं. जबलपुरिया अन्ना, मध्य प्रदेशी अन्ना, फेस बुकिया अन्ना सब आंदोलन के आकार, व्यापकता और भूमिका के आधार पर अपने आप तय होता जा रहा है.

जल्द समय आयेगा जब किंग जार्ज वन, किंग जार्ज टू आदि की तर्ज पर जबलपुरिया अन्ना प्रथम, जबलपुरिया अन्ना द्वितीय, जबलपुरिया अन्ना जूनियर, जबलपुरिया अन्ना सीनियर का प्रचलन शुरु हो जायेगा.  मेन वाले अन्ना अपना अस्तित्व तलाशते नजर आयेंगे और ये डुप्लिकेट अन्ना नानकराम हलवाई की तरह अपने नाम के साथ जबलपुरिया अन्ना असली वाले, असली जबलपुरिया अन्ना प्रथम, न्यू जबलपुरिया अन्ना, ऑथेन्टिक साऊथ वाला जबलपुरिया अन्ना आदि आदि लिखते नजर आयेंगे.

ऐसे लेटेस्ट ट्रेन्ड अनशनकारी माहौल में यदि आपको शहर में जगह जगह निम्नलिखीत होर्डिंग नजर आने लगें तो आश्चर्य मत करियेगा:

  1. मात्र ६ माह में बनें: सर्टिफाईड अनशनकारी- अन्ना सर की क्लासेस- १ माह की इन्टर्नशिप की नेशनल लेवल अनशन में व्यवस्था ऑन लाईव प्रोजेक्ट.
  2. असली अन्ना इवेन्ट मैनेजमेन्ट कार्पोरेशन- हमारे यहाँ सस्ती दरों पर पूरे अनशन का इवेन्ट मैनेजमेन्ट किया जाता है. पैकेज डील में मीडिया का अरेन्जमेन्ट हमारी गारंन्टी है. (मिनिमम दो चैनल) (प्रति एक्स्ट्रा चैनेल अलग से चार्ज लिया जायेगा). ’१५ अगस्त तक विशेष: डायमन्ड डील में एक ए केटेगरी के फिल्म अभिनेता को अनशन स्थल तक १५ मिनट के लिए समर्थन जाहिर करने हेतु लाया जायेगा.’
  3. अनशन के लिए खादी के कुर्ते पायजामे, गाँधी टोपी एवं गद्दे तकिया किराये पर उपलब्ध हैं. फ्रेम जड़ित चरखा चलाते गाँधी जी की तस्वीर भी किराये पर दी जाती है. ’साऊथ वाले अन्ना टेन्ट हाऊस’
  4. नई दिल्ली स्टेशन, निजामुद्दीन, चाँदनी चौक आदि प्रमुख स्थलों से अनशन स्थल के लिए शटल बस सुविधा- ग्रुप बुकिंग के लिए संपर्क करें. जबलपुरिया अन्ना प्रथम ट्रेवेल्स- ’हमारे यहाँ 2X 2 वातानुकुलित विडियो कोच की व्यवस्था है’
  5. जबलपुरिया अन्ना रचित ’२१ दिन में सफल अनशनकारी कैसे बनें’ -हार्ड बाऊन्ड. मात्र १५० रुपये में. स्टेप बाई स्टेप २१ चेप्टर में विभाजित. एक्स्ट्रा बोल्ड फॉन्ट.
  6. न्यू अन्ना फ्रेश फ्रूट ज्यूस कार्नर- अनशन तुड़वाने के लिए ठंडा एवं फ्रेश संतरे का रस सस्ते दामों पर- असली नागपुरी संतरे का. अनशन स्थल तक पहुँचाने की व्यवस्था.

और भी न जाने क्या क्या!! सोचो तो कितनी बड़ी अर्थ व्यवस्था, रोजगार के अवसर और कितनी बातें जुड़ी है इस अनशन दर्शन के साथ.

ऐसे में जब पिछले दिनों एक व्यंग्यकार ने अनशनकारियों के लिए कुछ नायाब उपाय सुझाये तो लगा कि बड़ा स्कोप है इस फील्ड में कन्सलटेन्सी का. भारतीय हैं तो सलाहकारी तो खून में है यानि कि अपना तो खूनी पेशा की कहलाया. इसी उद्देश्य को मद्देनजर रख कुछ उपाय अनशनकारियों के सफल अनशन के लिए ताकि मीडिया कवरेज मिले और अनशन सफल भवे!!! प्रस्तुत कर रहा हूँ. बाकी विस्तृत विवरण के लिए समय एवं रुपया लेकर मिलें. 

१. अपना अनशन स्थल बोरवेल में कम से कम ५० फीट उतर कर बनायें. मीडिया की चिन्ता न करें, उन्हें वहाँ तक माईक पहुँचाने की पुरानी प्रेक्टिस है. आप वहीं से बैठे मीडिया द्वारा प्रद्दत माईक से अपनी मांगे उठा सकते हैं. मीडिया के लिए यह सर्वाधिक प्रिय स्थल है.

२. यदि आप हिन्दु हैं तो मस्जिद की छत पर और मुसलमान हैं तो मंदिर के कंगूरे पर चढ़कर अनशन पर बैठ जायें. अपनी मांगों के साथ यह धमकी देना कतई न भूलें कि यदि आपने मांग न माने जाने पर कूद कर आत्म हत्या कर ली तो इसकी सारी जिम्मेदारी सरकार के साथ साथ उस कौम की भी होगी, जिसकी पावन स्थली के उपर से आप छलांग लगाने वाले हैं. अनशन का मजहबी रंग मीडिया के घोर आकर्षण का कारण बनेगा, आप निश्चिंत रहें.

३. अनशन की सफलता पर अनशनकारियों के समक्ष मॉडल पूनम पाण्डे के निर्वस्त्र होकर दर्शनार्थ उपलब्ध होने की घोषणा करवा दें. मीडिया कवरेज के साथ साथ अनशनकारियों की उमड़ती भीड़ अन्ना वाले अनशन का रिकार्ड ब्रेक करती नजर आयेगी, इस बात की गारंटी है. भीड़ मीडिया को बुलाने और सरकार को डराने के लिए काफी है.

४. अनशन स्थल पर प्रत्येक बीस नारों के बाद चीयर बालाओं के डांस का इन्तजाम किया जाये जैसे कि धोनी ने छक्का मारा हो. इससे एक तरफ अनशनकारियों में नये उत्साह और स्फूर्ति का संचार होगा, वहीं दूसरी ओर मीडिया को भड़कीला शो भी मिल जायेगा.

५. अनशन शुरु करने के पहले कुछ सपेरों को सेट किया जाये ताकि वो एकाएक अनशन मंच पर सांपों के निकल कर नाचने का प्रबंध कर सकें. ऐसे घटनाक्रम मीडिया को बेहद लुभाते हैं. और फिर जैसे ही मीडिया की कृपा बरपेगी, जनता को मीडिया सुना लेगी और सरकार को तो सुनना ही पड़ेगा.

६. चका जाम, रेल रोको आदि अब पुराने पड़ चुके तरीके हैं. अनशन को नया रंग देने के लिए एयरपोर्ट की हवाई पट्टी पर अपना आसन जमायें और हवाई जहाज रोको की घोषणा के साथ अनशन पर बैठ जायें. रेल रोकने से नेताओं को  कोई फरक नहीं पड़ता. न तो उनको, न उनके परिवार के किसी को रेल से चलना है मगर हवाई जहाज रुकते ही सारे नेता सकते में आ जायेंगे और मीडिया खुद दौड़ती भागती आयेगी.

७.यदि अनशन लम्बा चलाना है तो पानी का जहाज रोको आंदोलन बीच समुन्द्र में डेरा डाल कर चलायें. सालों साल अनशन चलता रहेगा और कोई सुनने वाला भी नहीं मिलेगा. वैसे हवाई जहाज रोको की तरह ही यह मौलिक तरीका शायद मीडिया का ध्यान आकर्षित कर जाये और आपका काम बन जाये.

अंत में अनशन की सफलता का पूरा राज न तो मुद्दे में है. न इस बात पर कि अनशन पर कौन और कैसे बैठा है, यदि आप मीडिया को आकर्षित नहीं कर पाये तो लाख सर पटक लें या आकाश गंगा में चारपाई लगाकर अनशन पर बैठ हवाई मार्ग अवरुद्ध कर लें, कोई नहीं सुनेगा.

 

नोट: जब यह आलेख छपेगा तो मैं टोरंटो से लन्दन के मार्ग में हूँगा. अतः मोडरेशन में हुए विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी.

शुक्रवार, जून 17, 2011

दो शब्द चित्र

-१-

दमन की मुखालफत
और
सहानुभूति की दरकार ने
बाँट दिया
हजारों
महिला, माता, बहनों, बच्चों, बूढ़ों
और स्वयं सेवकों में!!!!
वरना
लाख से ज्यादा आंदोलनकारी
खड़े थे एकजुट!!!

rdblog

-२-

पुश्त दर पुश्त
देखते सहते
हो गई आदत...
बन गई
एक जीवन शैली..

स्वीकार्य
मानिंद
प्रारब्द्ध अपना..

नई पीढ़ी
खुद बदली..
जुनून में
एक ब एक
सब कुछ
बदल देने की चाहत...

इन्तजार
नहीं होता अब
एक पीढ़ी के
गुजर जाने का....
थामते थे जो
बढ़ते कदम!!!!

नई भोर की आस
रक्तिम आकाश!

-समीर लाल ’समीर’

नोट: अब अगली पोस्ट लंदन पहुँच कर २२ तारीख को.

रविवार, जून 12, 2011

झैन कथाओं की चपेट में....

इधर कुछ झैन कथायें पढ़ने का संयोग बना. तीन लाईन की कहानी, २५ लाईन के विचार देती. जो पढ़े, वो पढ़े कम, समझे ज्यादा और फिर अलग अलग मतलब लगाये अपनी बुद्धि के अनुरुप और खुश रहे. भीषण दर्शन. बस, मन किया कि कुछ उसी स्टाइल में कोशिश की जाये. देखें और अगर अपने हिसाब से व्याख्या करने का मन करे तो टिप्पणी में दर्ज करें. यदि आपको पसंद आयेगी, तो और कोशिश की जायेगी आगे:

अर्धरात्रि के बाद का उनिंदा हाईवे.
पीछे बायें बाजू की लेन में हाईवे पर अधिकतम गति सीमा १०० किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चलती एक और कार.
एक ही रफ्तार होने की वजह से सम दूरी बनी हुई है दोनों के बीच.
एकाएक कुछ आलस्य, कुछ मन का भटकाव, कुछ निद्रा का भाव. मेरी रफ्तार कुछ कम होती है...और
बाजू वाली कार पूर्ववत रफ्तार में मुझसे आगे निकल जाती है.
(इति)

 

running-race

ये 
आलस/ भटकन/उदासीनता
ये
उमंग/ लगन/ अनुशासन
ये
हार/नाकामी/विफलता
ये
जीत/कामयाबी/सफलता

उफ्फ़ !!!
-ये जीवन!!

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, जून 08, 2011

द सर्टीफाइड साहित्यकार- (हि)!!!

बचपन से नुक्कड़ वाले तिवारी साहब के घर के बाहर टंगी नेम प्लेट आकर्षित करती रही:

सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए.,एल एल बी(इला.)

आकर्षण का कारण उनका नाम 'सुन्दर' होना नहीं था बल्कि साथ में नाम के बाद लगी हुई डिग्रियाँ थी.

बी.ए., एल एल बी डिग्रियाँ होती हैं, जो पढ़कर मिलती हैं, यह तो मैं समझदार होते ही जान गया था किन्तु एल एल बी के साथ (इला.) क्या होता है, यह मैं जब कुछ और ज्यादा समझदार होने के बाद भी नहीं समझ सका तो अपनी मूर्खता प्रदर्शित हो जाने की शर्म एवं हिचक को दरकिनार करते हुए एक दिन मेरे मित्र याने उनके बेटे से पूछ ही लिया. आश्चर्यजनक रुप से उसे भी ज्ञात न था. अन्तर बस इतना था कि इसका अर्थ जानने की उसमें कभी जिज्ञासा भी नहीं जागी. अपना अपना स्वभाव होता है. कुछ जिज्ञासु तो जो नहीं लिखा होता, उसके प्रति भी सुनी सुनाई बात के आधार पर जिज्ञासा पाल लेते हैं.

वैसे उसमें जिज्ञासा न जागने का कारण मात्र इतना ही था कि उसकी अज्ञानता को लेकर उसकी घर पर साप्ताहिक पिटाई शुरु से होती रही थी, इस वजह से अपनी अज्ञानता स्व-जाहिर कर वो पिटाई का एक और मौका देने का जोखिम उठाने की ताकत खो बैठा था. न जाने कितनी जिज्ञासायें और विषय उसके बालमन में जन्म लेने के पहले ही इस पिटाई के डर से दम तोड़ देते थे. खैर, पहले तो यह घर घर की कहानी थी. वो तो भला हो कि जमाना बदला तो बच्चों की मार कुटाई रुकी. बालमन अब अनुभवीमन से बात करने की हिम्मत रखता है, समझने समझाने की कोशिश करता है. उसे हिचक नहीं होती. यह एक सकारात्मक परिवर्तन है. बच्चों को हर बात पर मारना बुरी बात है, इस बात को तो जैसे हमारे समय के माँ बाप ने सीखा ही नहीं था.

हालात ये थे कि कई बार तो सुबह सुबह पिता जी पीट चुके होते और अम्मा पूछती कि क्यूँ मारा उसे? उसने तो कुछ किया ही नहीं था. पिता जी बोलते कि नहीं किया तो क्या हुआ.दिन में तो कुछ न कुछ करेगा ही.

फिर सोचता हूँ कि मार कुटाई बुरी बात तो थी लेकिन बुरी बात समझ बहुत जल्द आ जाती है और याद भी लम्बे समय तक रहती है. कोई गाली बकने के लिए आधा शब्द भी बोले तो तुरंत समझ आ जाता है.  लिख कर गाली बकने के लिए अब तो ....@#%%&#@.......आदि प्रयोग होने लगा है समझदार तो समझ ही लेते है और फिर कूद पड़ते हैं कि गाली बक रहा है. वहीं अच्छी बात में कोई यदि एक साहित्यिक पंक्ति कह जाये तो दस लोग दस तरह का मतलब लगाते रहते हैं घंटो और वो भी सही नहीं निकलता....

खैर, एक दिन उस मित्र ने जब भाँप लिया कि आज घर में कुटाई होना तय है तो उसने यह अज्ञानता भी प्रदर्शित कर ही दी. पिटना तो उतना ही था. पिटाई के बावजूद भी यह सुनते हुए कि इतना भी नहीं जानते, वो मेरे प्रश्न का जबाब ले ही आया. पता चला कि एल एल बी (इला) का मतलब एल एल बी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किये हैं. इतना भी नहीं जानते???फ़ैशन है ये-इस तरह लिखना... अव्वल तो मैं इला लिखने का उद्देश्य ही नहीं समझ पाया कि जरुरत क्या थी. एल एल बी तो एल एल बी है, चाहे इलाहाबाद से करो या जबलपुर से, काम तो ज्ञान और सेटिंग ही आना है. और फिर अगर बताने का इतना ही शौक हो आया था तो पूरा लिखने को किसने मना किया. कम से कम सब समझ तो जाते.

जाने कैसा फैशन है? मगर फैशन तो फैशन होता है इसमें जाने कैसा कब किसने माना है. वरना कौन लड़का कमर से ६ इंच नीचे खिसकी जिन्स पहनता या कौन लड़की कमर से ६ इंच उपर खिसकी टॉप पहनती. बस, फैशन है तो है!!!

फिर एक रोज एक और नेम प्लेट पर श्याम प्रसाद त्रिपाठी, बी. कॉम. (आ) देख कर मैं खुद ही समझ गया कि हो न हो, बंदे ने बी. कॉम. आजमगढ़ से किया होगा. मेरा यही ज्ञान मैने अपने उस दोस्त को भी दिया और उसने अपना ज्ञान घर में बघारा और पिता श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से फिर एक बार मरम्म्त करवा आया. ज्ञात हुआ कि (आ) मतलब आजमगढ़ नहीं आनर्स होता है. न जाने क्यूँ सब एक सा फैशन क्यूँ नहीं करते? जिसकी जो मर्जी हो, फैशन का नाम दिये करे जा रहा है. कोई सर मुड़ा लेता है, तो कोई जैल लगा कर बाल खड़े कर लेता है तो कोई पोनी बाँध कर मटकता है- शोभा देता है क्या भला यह सब, हें? मगर फैशन है तो है!!!

इसी आकर्षंण के चलते मैं बचपन से ही अपने जीवन के हर माइल स्टोन को नोट करता आया और ५ वीं पास के बाद अपनी कॉपी पर लिखता रहा: समीर लाल, ५वीं पास. फिर समीर लाल, ८वीं पास, फिर समीर लाल, ११वीं पास(ग)- यहाँ ग= गणित. फैशन समझा करो, मियाँ. हम तो शुरु से ही फैशनेबल रहे हैं. कोई यह नया चस्का नहीं है.

फिर समीर लाल, बी.कॉम. (जब) याने जबलपुर और कालान्तर में समीर लाल, बी.कॉम., सी.ए. पर आकर यह सिलसिला थम सा गया. तब तो विजिटिंग कार्ड भी बनने लगे और नेम प्लेट भी. समीर लाल, बी.कॉम., सी.ए. लिखा देख कर मन ही मन प्रसन्न होता रहा.

समय को बीतना था सो बीता. कनाडा चले आये. फिर नेम प्लेट तो गायब हो गई मगर कार्ड छपते रहे बदल बदल कर हर नई उपलब्धि के साथ. बी. कॉम, ने अपना रंग खो दिया. फिर हुए समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.) यहाँ इं=इंडिया और यू एस तो खैर अमरीका है ही, वो तो क्या बतलाना-नहीं समझोगे तो भुगतोगे. फिर बदला समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस). फिर देखते देखते समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस), पी एफ पी(क) अब यह क=कनाडा.  खैर, यह सब जोड़ घटाव चलता रहेगा, यही सोच कर निश्चिंत बैठा था.

वक्त भी क्या क्या गुल खिलाता है- कहानी, कविता लिखने लग गये. तो इससे जुड़े लोगों से संपर्क बनना शुरु हुआ. लोग ईमेल भेजा करते हैं. मंचो पर जाना शुरु हुआ तो लोग कार्ड दिया करते हैं हमारे कार्ड में तो वही: समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस), पी एफ पी(क) मगर उनके कार्ड पर जाने क्या क्या? जिस कार्ड ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया वो था:

आचार्य फलाना फलाना, बी.ए.(हि), लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार. अब इतना तो समझने ही लगे हैं कि हि मतलब हिसार नहीं, हिन्दी ही होगा मगर नाम के पहले आचार्य और बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार, यह कहाँ से और कैसे मिलेगा? वही पुरानी जिज्ञासु प्रवृति-अंगड़ाई ले उठ खड़ी हुई.

पता किया गया तो पता चला कि आचार्य के लिए कोई संस्कृत का लंबा चौड़ा कोर्स करना पड़ता है. और फिर संस्कृत, इसका तो दो पन्ने का भी कोर्स हो तो फेल हो जायें, तो बड़े बेमन से आचार्य लगाने की बात दिल से निकाल दी मगर बाकी लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार -इसका मोह बना रहा. बस, पता चल जाये किसी तरह कि इसको कैसे अपने नाम के साथ लिख सकते हैं. सबूत रहे, तो आत्म विश्वास बना रहता है. चमड़ी अभी उतनी मोटी नहीं हो पाई है वरना बहुत से मंचीय कवियों और दीगर लेखकों के संपर्क में रहा हूँ जिन्होंने नाम के आगे डॉक्टर सगर्व लगा रखा है और पीछे पी एच डी. न कोई पूछने वाला, न वो बताने को खाली हैं. पी एच डी की हो तो बतायें न!! असल पी एच डी जिसने की होती है, उससे पूछना नहीं पड़ता, वो तो खुद ही किसी न किसी बहाने बताने की फिराक में रहता है कि मैने फलाने टॉपिक पर शोध किया है. पी एच डी करते हुए वो इतनी योग्यता तो हासिल कर ही लेता कि बहाना खोज पाये अपने टॉपिक को बताने का. इसके सिवाय उस बेचारे के पास अपनी जवानी का बेरहमी से कत्ल करने की और कोई दास्तान भी तो नहीं होती.

अब तो वो मेरा प्यारा दोस्त भी जाने कहाँ गुम हो गया है वरना वो बेचारा एक कुटाई और झेल मेरे लिए अपने पिता जी श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से पूछ कर बता ही देता.

आपमें से कोई जानता है क्या कि यह नाम के बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखने के लिए कौन से कोर्स और परीक्षायें पास करनी पड़ेंगी ताकि कोई इन योग्यताओं पर प्रश्न चिन्ह न लगा पाये. कोई पूछे तो प्रमाण पत्र दिखा सकूँ वरना लिखी किताब की तो जिसकी मर्जी होती है, वो ही धज्जी उड़ा जाता है. अपनी और कईयों की पिछली छीछालेदर देखकर, किताब छपने के आधार पर नाम के बाद कवि या लेखक लिखने की ताकत मुझमें बची नहीं है. किसी के लेखन की छीछालेदर करने के लिए तो किसी प्रमाण पत्र की भी आवश्यक्ता नहीं, वो तो कोई भी कर सकता है. उसमें छीछालेदरकर्ता की योग्यता पर कोई प्रश्न नहीं करता. किसी की छीछालेदर हो, तो मजा तो आता ही है, इसमें योग्यता पर प्रश्न क्या करना?

पढ़ने से मैं नहीं डरता, यह तो आप मेरा कार्ड देख कर समझ ही गये होंगे. मगर पढ़ूँ क्या? ताकि अपने नाम के बाद लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखकर अपना जीवन धन्य करुँ. काश, कोई बता देता.

आप तो जानते होगे, बता दो, प्लीज़!!!

 

writer

कुछ
स्व प्रचार
कुछ शब्द
निराधार...
फिर ऊँची
जान पहचान....

मिल गये
बस इसी वजह से
जाने कितने
सम्मान...

वो बेवजह
दाद पाता रहा
और
मैं
जुगनुओं की टिमटिमाहट से
अँधेरा
भगाता रहा!!

मैं
अज्ञानी!!!
कितनी
छोटी छोटी
तरकीबें हैं
वो भी न जानी!!

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, जून 05, 2011

निर्लज्ज संगीत..और...

-१-

उस रात

गहरी तनहाई

में

शहनाईयों के शोर से

टूट

ऐसे

बेसुध पड़ा रहा

बिस्तर पर मैं...

जैसे

MRI मशीन में जाता

मौत से जूझता

एक निशक्त शरीर

अहसासता हो

गहन शांति को भंग करती

निर्लज्ज संगीत की

धुन!!

 

moon1

-२-

उम्र के इस पड़ाव पर आ
निकलता हूँ जिस शाम
मैं घर से अपने
सात समुन्दर पार आने को,

देखता हूँ रेलगाड़ी के डिब्बे की
खिड़की से झाँक
घर लौटते
सूरज को
साईकिल पर सवार
कारखाने के वापस आते मजदूर
अपने बसेरों की तरफ जाते पंछी
धूल में सने
दिन भर खेल कर
लौटते गांव के बच्चे

और फिर नज़र आता है
खिड़की के उस किनारे से
आसमान में आता
चाँद...

पूछना चाहता हूँ
उससे मैं
सबके घर लौटते वक्त
उसके आने का सबब

खुद को कुछ
समझा सकूँ
शायद!!!

कुछ राहत पा सकूँ
शायद!!

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, जून 01, 2011

एक कविता, बताना कैसी लगी???? और एक आशीष

 

paper-bowl 

जमा किये हैं
थाली भर शब्द
छाँट बीन कर
करीने से लगा
चढ़ा देता हूँ
विरह की मंदी आँच पर भूनने
मिला के दो चुटकी
मन के भाव....
आधा कप
सम सामायिक समस्या के
छोटे छोटे बारीक कटे टुकड़े....
एक कटोरी
पुरानी गांव की यादें...
कुछ बूँद ताजा निचोड़ा
प्रेम रस...
एक चम्मच सामाजिक सारोकार...
और फिर
साहित्यिकता का
तड़का लगाकर...

एक लज़ीज
कविता
परोसता हूँ...
सजाकर
कागज के कटोरे में
आपको......

बताना कैसी लगी????

-समीर लाल ’समीर’

 

अब एक आशीर्वाद

पुस्तक- देख लूँ तो चलूँ; लेखक: समीर लाल ’समीर’ प्र.संस्करण-२०११

श्री समीर लाल ’समीर’ ने इस पुस्तक में जबलपुर-भारत से कनाडा तक की यात्रा पाठकों को तो करवा दी प्रारम्भ से अन्त तक उनकी आत्मा भारत में ही रची बसी दिखाई देती रही. भारत की माटी की सुगन्ध से वे सुवासित हैं और देश की संस्कृति तथा परम्परा से पूर्ण रुप से जुड़े हुए. भारत और कनाडा की समस्याओं को बड़े ही व्यंग्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया गया है. मित्र के गृह प्रवेश की पूजा में सम्मलित होने के लिए अकेले कार में निकलते हैं और रास्ते भर विचार श्रृंखला में कनाडा और भारत घूमते रहते हैं. देश छोड़ने की व्यथा, अमरीकी नीतियाँ, चाइल्ड लेबर, समलैंगिगकता, पश्चिमी प्रेम-प्रदरन चुम्बन प्रक्रिया, भारतीय माता पिता का कनाडा में सदुपयोग और मृत्यु तथा जीवन की दार्शनिकता के चित्र, उसके मन-मस्तिष्क में घूमते रहते हैं.

प्रवासी भारतीय गृहप्रवेश की पूजा भारत की तरह ही करते हैं. ’विदेश में घर खरीदा है तो क्या हुआ, हैं तो भारतीय ही. भगवान की तस्वीरों से लेकर, समस्त पूजन सामग्री इकट्ठी की जाती है, आरती होती है, हवन भी होता है, उसमें बस रुपये की जगह डालर डाले जाते हैं जिसे पंडित जी उसी उत्साह के साथ कलटी कर ले जाते हैं जैसे कि भारत में.’ (पृष्ठ १५)

चाइल्ड लेबर को लेकर बड़ा तीखा व्यंग्य समीर जी ने किया है. ’टिम हार्टिन्स’ और ’मैक डोनल्डस’ में ८ वीं ९ वीं के बच्चे स्कूल के बाद पार्ट टाइम काम करते हैं. बरतन धोने, काफी बनाने, टोस्ट बनाने के लिए उन्हें ६ से ७ डालर प्रति घन्टा मिल जाता है. भारत में जब बच्चे काम करते है तो ’यही मुल्क उसे एक्सप्लोइटेशन का नाम देते हैं. बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात करते हैं.’ अमरीकी नीतियाँ केवल दूसरे देशों को शिक्षा देती हैं.’ शान्ति स्थापना के लिए बमबारी कर रहे हैं, तेल के कुओं पर कब्जा कर रहे हैं और पैसा कमा कमा कर भरे जा रहे हैं.’ (पृष्ठ ३४) प्रवासी भारतीय सब कुछ देख कर भी कुछ भी कर सकने में असमर्थ, असहाय महसूस करते हैं क्योंकि अमरीका में रहकर अमरीका से पंगा लेना न समझी होगी. लेखक को लगता है कि ’अमरीका को देश की बजाय कन्सलटेन्ट होना चाहिये. खुद की व्यवस्था हो या अर्थव्यवस्था, वो तो संभलती नहीं परन्तु दूसरों की व्यवस्था या अर्थव्यवस्था सम्भालने तुरन्त निकल पड़ते हैं. खुद के यहाँ तेल बह गया, वो समेटा नहीं जा रहा और चल पड़े दूर खाड़ी देशों में तेल समेटने" (पृष्ठ ३४)

जीवन तो जीवन,  अमरीका में मृत्यु भी उपहास का विषय बन चुकी है. भारत में ’मुंडा सिर’ शोक का संदेश देता है और अमरीका में ’ग्रेट कूल ड्यूड’ कहलाता है. अंतिम संस्कार का बीमा ५००० या ६००० डालर, अगर स्टेण्डर्ड का करना हो तो १०००० डालर तक का अमरीका में खर्चा आता है जिसमें मन पसंद ताबूत, ड्रेस, मेकअप, प्लाट, उसकी खुदाई, रेस्ट इन पीस का बोर्ड, ले जाने के लिए ब्लैक लिमोज़ीन और धर्म के अनुसार फूलों का चुनाव भी आप जीवित रहकर ही कर सकते हैं. जैसी पसंद वैसा बीमा. बाल बच्चों को न कुछ खर्च करना न परेशानी. लेखक का व्यंग्य बड़ा सटीक है-’ भाई अमरीका/कनाडा वालों, आप लोगों की हर बात की तरह यह बात भी है तो जरा हट के.’

प्रिय समीर जी, आपकी यह पुस्तक एक छोटा उपन्यास या एक लम्बी कहानी है पर जरा औरों से हट के. पुनः बधाई स्वीकार करें.

प्रेषिका
डॉक्टर मंजुलता सिंह