बचपन से नुक्कड़ वाले तिवारी साहब के घर के बाहर टंगी नेम प्लेट आकर्षित करती रही:
सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए.,एल एल बी(इला.)
आकर्षण का कारण उनका नाम 'सुन्दर' होना नहीं था बल्कि साथ में नाम के बाद लगी हुई डिग्रियाँ थी.
बी.ए., एल एल बी डिग्रियाँ होती हैं, जो पढ़कर मिलती हैं, यह तो मैं समझदार होते ही जान गया था किन्तु एल एल बी के साथ (इला.) क्या होता है, यह मैं जब कुछ और ज्यादा समझदार होने के बाद भी नहीं समझ सका तो अपनी मूर्खता प्रदर्शित हो जाने की शर्म एवं हिचक को दरकिनार करते हुए एक दिन मेरे मित्र याने उनके बेटे से पूछ ही लिया. आश्चर्यजनक रुप से उसे भी ज्ञात न था. अन्तर बस इतना था कि इसका अर्थ जानने की उसमें कभी जिज्ञासा भी नहीं जागी. अपना अपना स्वभाव होता है. कुछ जिज्ञासु तो जो नहीं लिखा होता, उसके प्रति भी सुनी सुनाई बात के आधार पर जिज्ञासा पाल लेते हैं.
वैसे उसमें जिज्ञासा न जागने का कारण मात्र इतना ही था कि उसकी अज्ञानता को लेकर उसकी घर पर साप्ताहिक पिटाई शुरु से होती रही थी, इस वजह से अपनी अज्ञानता स्व-जाहिर कर वो पिटाई का एक और मौका देने का जोखिम उठाने की ताकत खो बैठा था. न जाने कितनी जिज्ञासायें और विषय उसके बालमन में जन्म लेने के पहले ही इस पिटाई के डर से दम तोड़ देते थे. खैर, पहले तो यह घर घर की कहानी थी. वो तो भला हो कि जमाना बदला तो बच्चों की मार कुटाई रुकी. बालमन अब अनुभवीमन से बात करने की हिम्मत रखता है, समझने समझाने की कोशिश करता है. उसे हिचक नहीं होती. यह एक सकारात्मक परिवर्तन है. बच्चों को हर बात पर मारना बुरी बात है, इस बात को तो जैसे हमारे समय के माँ बाप ने सीखा ही नहीं था.
हालात ये थे कि कई बार तो सुबह सुबह पिता जी पीट चुके होते और अम्मा पूछती कि क्यूँ मारा उसे? उसने तो कुछ किया ही नहीं था. पिता जी बोलते कि नहीं किया तो क्या हुआ.दिन में तो कुछ न कुछ करेगा ही.
फिर सोचता हूँ कि मार कुटाई बुरी बात तो थी लेकिन बुरी बात समझ बहुत जल्द आ जाती है और याद भी लम्बे समय तक रहती है. कोई गाली बकने के लिए आधा शब्द भी बोले तो तुरंत समझ आ जाता है. लिख कर गाली बकने के लिए अब तो ....@#%%&#@.......आदि प्रयोग होने लगा है समझदार तो समझ ही लेते है और फिर कूद पड़ते हैं कि गाली बक रहा है. वहीं अच्छी बात में कोई यदि एक साहित्यिक पंक्ति कह जाये तो दस लोग दस तरह का मतलब लगाते रहते हैं घंटो और वो भी सही नहीं निकलता....
खैर, एक दिन उस मित्र ने जब भाँप लिया कि आज घर में कुटाई होना तय है तो उसने यह अज्ञानता भी प्रदर्शित कर ही दी. पिटना तो उतना ही था. पिटाई के बावजूद भी यह सुनते हुए कि इतना भी नहीं जानते, वो मेरे प्रश्न का जबाब ले ही आया. पता चला कि एल एल बी (इला) का मतलब एल एल बी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किये हैं. इतना भी नहीं जानते???फ़ैशन है ये-इस तरह लिखना... अव्वल तो मैं इला लिखने का उद्देश्य ही नहीं समझ पाया कि जरुरत क्या थी. एल एल बी तो एल एल बी है, चाहे इलाहाबाद से करो या जबलपुर से, काम तो ज्ञान और सेटिंग ही आना है. और फिर अगर बताने का इतना ही शौक हो आया था तो पूरा लिखने को किसने मना किया. कम से कम सब समझ तो जाते.
जाने कैसा फैशन है? मगर फैशन तो फैशन होता है इसमें जाने कैसा कब किसने माना है. वरना कौन लड़का कमर से ६ इंच नीचे खिसकी जिन्स पहनता या कौन लड़की कमर से ६ इंच उपर खिसकी टॉप पहनती. बस, फैशन है तो है!!!
फिर एक रोज एक और नेम प्लेट पर श्याम प्रसाद त्रिपाठी, बी. कॉम. (आ) देख कर मैं खुद ही समझ गया कि हो न हो, बंदे ने बी. कॉम. आजमगढ़ से किया होगा. मेरा यही ज्ञान मैने अपने उस दोस्त को भी दिया और उसने अपना ज्ञान घर में बघारा और पिता श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से फिर एक बार मरम्म्त करवा आया. ज्ञात हुआ कि (आ) मतलब आजमगढ़ नहीं आनर्स होता है. न जाने क्यूँ सब एक सा फैशन क्यूँ नहीं करते? जिसकी जो मर्जी हो, फैशन का नाम दिये करे जा रहा है. कोई सर मुड़ा लेता है, तो कोई जैल लगा कर बाल खड़े कर लेता है तो कोई पोनी बाँध कर मटकता है- शोभा देता है क्या भला यह सब, हें? मगर फैशन है तो है!!!
इसी आकर्षंण के चलते मैं बचपन से ही अपने जीवन के हर माइल स्टोन को नोट करता आया और ५ वीं पास के बाद अपनी कॉपी पर लिखता रहा: समीर लाल, ५वीं पास. फिर समीर लाल, ८वीं पास, फिर समीर लाल, ११वीं पास(ग)- यहाँ ग= गणित. फैशन समझा करो, मियाँ. हम तो शुरु से ही फैशनेबल रहे हैं. कोई यह नया चस्का नहीं है.
फिर समीर लाल, बी.कॉम. (जब) याने जबलपुर और कालान्तर में समीर लाल, बी.कॉम., सी.ए. पर आकर यह सिलसिला थम सा गया. तब तो विजिटिंग कार्ड भी बनने लगे और नेम प्लेट भी. समीर लाल, बी.कॉम., सी.ए. लिखा देख कर मन ही मन प्रसन्न होता रहा.
समय को बीतना था सो बीता. कनाडा चले आये. फिर नेम प्लेट तो गायब हो गई मगर कार्ड छपते रहे बदल बदल कर हर नई उपलब्धि के साथ. बी. कॉम, ने अपना रंग खो दिया. फिर हुए समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.) यहाँ इं=इंडिया और यू एस तो खैर अमरीका है ही, वो तो क्या बतलाना-नहीं समझोगे तो भुगतोगे. फिर बदला समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस). फिर देखते देखते समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस), पी एफ पी(क) अब यह क=कनाडा. खैर, यह सब जोड़ घटाव चलता रहेगा, यही सोच कर निश्चिंत बैठा था.
वक्त भी क्या क्या गुल खिलाता है- कहानी, कविता लिखने लग गये. तो इससे जुड़े लोगों से संपर्क बनना शुरु हुआ. लोग ईमेल भेजा करते हैं. मंचो पर जाना शुरु हुआ तो लोग कार्ड दिया करते हैं हमारे कार्ड में तो वही: समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस), पी एफ पी(क) मगर उनके कार्ड पर जाने क्या क्या? जिस कार्ड ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया वो था:
आचार्य फलाना फलाना, बी.ए.(हि), लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार. अब इतना तो समझने ही लगे हैं कि हि मतलब हिसार नहीं, हिन्दी ही होगा मगर नाम के पहले आचार्य और बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार, यह कहाँ से और कैसे मिलेगा? वही पुरानी जिज्ञासु प्रवृति-अंगड़ाई ले उठ खड़ी हुई.
पता किया गया तो पता चला कि आचार्य के लिए कोई संस्कृत का लंबा चौड़ा कोर्स करना पड़ता है. और फिर संस्कृत, इसका तो दो पन्ने का भी कोर्स हो तो फेल हो जायें, तो बड़े बेमन से आचार्य लगाने की बात दिल से निकाल दी मगर बाकी लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार -इसका मोह बना रहा. बस, पता चल जाये किसी तरह कि इसको कैसे अपने नाम के साथ लिख सकते हैं. सबूत रहे, तो आत्म विश्वास बना रहता है. चमड़ी अभी उतनी मोटी नहीं हो पाई है वरना बहुत से मंचीय कवियों और दीगर लेखकों के संपर्क में रहा हूँ जिन्होंने नाम के आगे डॉक्टर सगर्व लगा रखा है और पीछे पी एच डी. न कोई पूछने वाला, न वो बताने को खाली हैं. पी एच डी की हो तो बतायें न!! असल पी एच डी जिसने की होती है, उससे पूछना नहीं पड़ता, वो तो खुद ही किसी न किसी बहाने बताने की फिराक में रहता है कि मैने फलाने टॉपिक पर शोध किया है. पी एच डी करते हुए वो इतनी योग्यता तो हासिल कर ही लेता कि बहाना खोज पाये अपने टॉपिक को बताने का. इसके सिवाय उस बेचारे के पास अपनी जवानी का बेरहमी से कत्ल करने की और कोई दास्तान भी तो नहीं होती.
अब तो वो मेरा प्यारा दोस्त भी जाने कहाँ गुम हो गया है वरना वो बेचारा एक कुटाई और झेल मेरे लिए अपने पिता जी श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से पूछ कर बता ही देता.
आपमें से कोई जानता है क्या कि यह नाम के बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखने के लिए कौन से कोर्स और परीक्षायें पास करनी पड़ेंगी ताकि कोई इन योग्यताओं पर प्रश्न चिन्ह न लगा पाये. कोई पूछे तो प्रमाण पत्र दिखा सकूँ वरना लिखी किताब की तो जिसकी मर्जी होती है, वो ही धज्जी उड़ा जाता है. अपनी और कईयों की पिछली छीछालेदर देखकर, किताब छपने के आधार पर नाम के बाद कवि या लेखक लिखने की ताकत मुझमें बची नहीं है. किसी के लेखन की छीछालेदर करने के लिए तो किसी प्रमाण पत्र की भी आवश्यक्ता नहीं, वो तो कोई भी कर सकता है. उसमें छीछालेदरकर्ता की योग्यता पर कोई प्रश्न नहीं करता. किसी की छीछालेदर हो, तो मजा तो आता ही है, इसमें योग्यता पर प्रश्न क्या करना?
पढ़ने से मैं नहीं डरता, यह तो आप मेरा कार्ड देख कर समझ ही गये होंगे. मगर पढ़ूँ क्या? ताकि अपने नाम के बाद लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखकर अपना जीवन धन्य करुँ. काश, कोई बता देता.
आप तो जानते होगे, बता दो, प्लीज़!!!
कुछ
स्व प्रचार
कुछ शब्द
निराधार...
फिर ऊँची
जान पहचान....
मिल गये
बस इसी वजह से
जाने कितने
सम्मान...
वो बेवजह
दाद पाता रहा
और
मैं
जुगनुओं की टिमटिमाहट से
अँधेरा
भगाता रहा!!
मैं
अज्ञानी!!!
कितनी
छोटी छोटी
तरकीबें हैं
वो भी न जानी!!
-समीर लाल ’समीर’