बुधवार, दिसंबर 30, 2009

कहाँ गया पुराना साल?

 

BOOK

वो कहतें हैं

पुराना वर्ष चला गया...

मैं कहता हूँ

वर्ष कहीं जाता नहीं...

यह सिर्फ भ्रम है

ये दर्ज हो जाता है

इतिहास के सफ्हों में

एक और सफ्हा बन कर

जैसे कि

हमारे कर्म!!!

-समीर लाल ’समीर’

 

निवेदन:

वर्ष २०१० मे हर माह एक नया हिंदी चिट्ठा किसी नए व्यक्ति से भी शुरू करवाएँ और हिंदी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें।

 

नववर्ष की बहुत बधाई एवं अनेक शुभकामनाएँ!

रविवार, दिसंबर 27, 2009

रुक जाना मौत है- विल्स कार्ड ८

पहले की तरह ही, पिछले दिनों विल्स कार्ड भाग १ , भाग २ , भाग ३ ,भाग ४ , भाग ५ भाग और भाग को सभी पाठकों का बहुत स्नेह मिला और बहुतों की फरमाईश पर यह श्रृंख्ला आगे बढ़ा रहा हूँ.


(जिन्होंने पिछले भाग न पढ़े हों उनके लिए: याद है मुझे सालों पहले, जब मैं बम्बई में रहा करता था, तब मैं विल्स नेवीकट सिगरेट पीता था. जब पैकेट खत्म होता तो उसे करीने से खोलकर उसके भीतर के सफेद हिस्से पर कुछ लिखना मुझे बहुत भाता था. उन्हें मैं विल्स कार्ड कह कर पुकारता......)

आज दराज तलाशी का दौर चला और कुछ और विल्स कार्ड हाथ में उठाये. गर्द उड़ाते याद आया कि साल बदलने को है. २००९ विदा लेने वाला है और २०१० आने को है.

गर्द उड़ती है तो एक चित्र खींचती है यादों का. गर्द शायद होती ही इसलिए है. यादें इसी तरह ही सिद्ध है वरना उनकी क्या महत्ता.

 

dust-storm

हम हर नये दिन, हर नये पल, हर नये साल से एक नई उम्मीद पाल लेते हैं. शायद यही जीने की वजह देता हो, मेरा ऐसा सोचना. मगर जब अपने कुछ दशकों पहले लिखे इन कार्डों पर नजर डालता हूँ तो ऐसा लगता है कि अभी भी वहीं खड़ा हूँ, कहीं कुछ नहीं बदला.

महसूस किया है मैने कि बदलता कुछ नहीं. बस बदलती रहती हैं हमारी आशायें, हमारी उम्मीदें और हमारे इर्द गिर्द का माहौल. शायद यही सफल जीवन का रहस्य हो, कौन जाने.

जिन्दगी रुकती नहीं. आगे बढ़ना जीवन है, रुक जाना मौत और पीछे लौटकर जीना, मूर्खता.

अक्सर ही हम बीते समय के लिए सोचते हैं कि वो समय बेहतर था..मगर याद करें तो उस समय भी हमें पीछे ही बेहतर महसूस होता था. आगे तो हमने देखा नहीं, महसूसा नहीं मगर वो आगे आने वाला समय ही फिर जब वर्तमान बनता है, तो जुझने की मशक्कत रास नहीं आती और जब वो भूतकाल बन जाता है तो याद आता है कि बेहतर था. यह विडंबना है, एक उलझन है, जो जीवन के साथ जुड़ी है और इसी का नाम जीवन है.

इन्हीं सब उहापोह के बीच, अब कुछ विल्स कार्ड जो हाथ आये आपकी नजर:

-१-

बरसात

उस रोज

मैं घर आया

बरसात में भीग

भाई ने डॉटा

’क्यूँ छतरी लेकर नहीं जाते?’

बहन ने फटकारा

’क्यूँ कुछ देर कहीं रुक नहीं जाते’

पिता जी गुस्साये

’बीमार पड़कर ही समझोगे’

माँ मेरे बाल सुखाते हुए

धीरे से बोली

’धत्त!! ये मुई बरसात’


-(एक अंग्रेजी वाक्यांश से प्रभावित)-

-२-

मेरे पास
बतलाने को
इतना कुछ है...

और

वो
एक प्रश्न लिए
जाने कहाँ
भटक रहा है!!!

-३-

गुलाब की चाह

और

कांटो से गुरेज...

जरुर, कोई मनचला होगा!!

-४-

चाँद और तुम!!
----------------

कल रात

एकाएक

पूरे चाँद ने

मुझे

मेरे कमरे की खिड़की से

घूरा...

मैने डर कर

तुम्हारी तस्वीर

छिपा दी....

क्या जबाब देता उसे??

बताओ न!!

अब

तुम्हारी

तस्वीर नहीं मिल रही!!

क्या जबाब दूँगा तुम्हें??

चाँद भी कहीं

बादलों की ओट में

जा छुपा!!!

-५-

हम कहे

तो कुछ और...

और

वही बात

तुम कहो..

तो कुछ और!!!

ये कैसी विडंबना है???

-६-

सांप पालने का शौक है

तो

सांप पालने के

गुर भी जानता होगा!!

ये कोई शिगूफा तो नहीं!!!

-७-

अर्थ बदल जाते हैं

शब्दों के

वक्त के साथ..

फिर

इन्सान की क्या बिसात...

मासूम बालक

शीर्षक में

प्रथम आया

उस बच्चे का चित्र...

२५ साल बाद

सबसे खौफनाक आदमी

शीर्षक में भी

प्रथम.....

ये विडंबना नहीं,

कर्मों का परिणाम है...

दुनिया

इसी का नाम है!!!

-समीर लाल ’समीर’

 

नोट: नव वर्ष की बहुत बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.

बुधवार, दिसंबर 23, 2009

अपने प्रिय, जिसने मेरी गोद में दम तोड़ा: एक श्रृद्धांजलि!!

कल रात ही तुम्हारी हालत और हिचकियाँ देख कर मैं समझ गया था कि अब मेरा तुम्हारा साथ अंतिम पड़ाव पर है लेकिन एक उम्मीद, एक आशा और उस तीसरी शक्ति पर भरोसा. कैसी खराश की आवाज आ रही थी तुम्हारे गले से.

मैं रात भर तुम्हें गोदी मे लिए हर संभव इलाज करता रहा. जो जहाँ से पता चला वो दवा की मगर होनी के कौन टाल सकता है. सुबह सुबह तुमने एक लम्बी सिसकी ली और मेरी गोद में ही दम तोड़ दिया. सूरज बस उगने को था.

मैं आवाक देखता रह गया. नियति के आगे भला किसका जोर चला है.

इतने साल तुम्हारा साथ रहा. मेरे हर अच्छे बुरे समय और कर्मों में तुमने मेरा साथ निभाया. जाने कितने ही काम मैने तुम्हारी आड़ में जाने अनजाने में ऐसे किये जो शायद सार्वजनिक रुप से खुल कर करता तो हर तरफ मात्र धिक्कार ही मिलती. मगर तुमने एक सच्चे साथी का धर्म निभाते मेरे हर अच्छे बुरे को अपनी ममतामयी आत्मीय ओट में छिपा लिया. कभी भी, कहीं भी कोई राज नहीं उगला.

मैने जब चाहा, तब तुमने मेरा साथ दिया. दिन का कोई पहर हो या आधी रात. कभी तुम्हारे चेहरे पर शिकन न आई. जब मैं उदास होता तो कोई मन को लुभाने वाला गीत तुम सुनाते, कैसे कैसे किस्से लेकर आते कि उदासी कोसों दूर भाग जाती.

हम भी कितने अजीब होते हैं. सोचा ही नहीं कि कभी न कभी बिछड़ना भी होगा. ऐसा नहीं कि इस बीच तुम कभी बीमार नहीं पड़े मगर हल्की फुल्की बीमारी, बस चलते फिरते इलाज से दूर होती गई और हम एक दूजे को अजर अमर मान बैठे.

मैंने अपना सर्वस्व तुम्हें सौंप निश्चिंतता की चादर ओढ़ ली थी. कब क्या करना है, कहाँ जाना है, क्या कहना है-सब तो तुम बताते थे. किससे कैसे संपर्क होगा किस पते पर, आज फलाने का जन्म दिन, आज उसकी शादी की सालगिरह, बैंक में इतना पैसा, फलाने के घर का पता-मेरी जिन्दगी की तुम धूरी थे. तुम्हारे बिना रहना पड़ेगा, यह कभी सपने में भी नहीं सोचा था.

मैं जहाँ भी जाता-चाहे शहर में या शहर और देश के बाहर, सब कुछ भूल सकता था मगर तुम्हें नहीं. तुम हमेशा मेरे साथ रहे मेरे रहनुमा बन कर.

हालांकि मेरी भरसक कोशिश होती थी कि तुम बीमार न पड़ो. तुम्हें जरुरी टॉनिक और बीमारी के कीटाणुओं से बचाने का टीका इत्यादि का प्रबंध मैं हमेशा करवाता रहा. लेकिन एड्स, स्वाईन फ्लू, आतंकवाद आदि जैसी मारक बीमारियों कब किसे चपेट में ले लें कौन जानता है. इनके तो वैक्सीन इनके आ जाने के बाद ही बनते हैं और तब तक तो यह कितनों की जिन्दगियों को लील चुके होते हैं.

शायद मेरा तुम्हारा साथ यहीं तक था. आज तुम चले गये और साथ ले गये न जाने मेरी कितनी यादे. न जाने कितने विचार, सोच, कथन, कुछ कहे और कुछ अनकहे, कुछ उपजते और कुछ लहलाते..सब कुछ...मेरी जिन्दगी के कितने ही राज तुम्हारे साथ ही विदा हो गये.

उम्र तो तुम्हारी हो रही थी, एक न एक दिन सबको जाना ही होता है लेकिन इस तरह-अपनों के जाने का गम तो हमेशा सालता है वो भी जब आप उस पर इस कदर आश्रित हों.

सूनी हो गई मेरी दुनिया. शमशान वैराग्य में गोते लगा रहा हूँ. साथी तो फिर कोई मिल जायेगा मगर जो कुछ तुमसे जुड़ा था और जो तुम्हारे साथ गया वो...वो शायद कभी वापस न आये..

आज ओबेद उल्लाह अलीम के शेर याद आते है, जो तुम सुनवाया करते थे...

जैसे तुम्हें हमने चाहा था, कौन भला फिर चाहेगा...
माना और बहुत आयेंगे, तुमसे प्यार जताने लोग!!

तेरे प्यार में रुसवा हो कर, जायें कहाँ दीवाने लोग
जाने क्या क्या पूछा रहे हैं, ये जाने पहचाने लोग!!

(नोट: आज सुबह मेरा लेपटॉप एक अनजान वायरस की चपेट में आकर मेरी गोद में दम तोड़ बैठा. साथ गये कई फोटो, विडिओ और एक माह पूर्व लिए बेकअप के बाद के आलेख, कविता, गीत, कुछ पूरे, कुछ अधूरे. उसी लेपटॉप को समर्पित यह श्रृद्धांजलि पोस्ट दो बूँद आंसू के साथ.)

 

laptopdead

 

निवेदन: कृप्या टिप्पणी के माध्यम से अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित करें तो मुझे आपका पता वापस मिले वरना तो वो सब साथ ले ही गया है.

रविवार, दिसंबर 20, 2009

हाय री ये दुनिया?


















मौसम ठंडा है या गरम?
नहीं पता. जहाँ हूँ वहाँ अच्छा लग रहा है.

अभी अभी आँख लगी थी या अभी अभी आँख खुली है, समझ नहीं पा रहा हूँ.

पूरा बदन दर्द से भरा है. दिल नहीं, बस बदन. ज्यादा काम की थकावट. १४ घंटे काम के दिन.

त्यौहारों के दिन आ रहे हैं. बड़ा दिन, नया साल. छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ, आराम के दिन.

आराम के पहले थकान जरुरी है वरना आराम का क्या मजा?

आँख मिचमिचाता हूँ. बस, जागृत होने का प्रयास है सुप्तावस्था में.

कहाँ हूँ मैं?

है तो कोई हवाई अड्डा ही.

बिजिंग?? वेन्कूवर?? टोरंटो??

थकान सोच को बाधित कर रही है. इतना क्यूँ थकाते हैं हम खुद को? कितनी महत्वाकांक्षायें और उनके लिए यह कैसी दौड़?

आस पास देखता हूँ.

चायनीज़ खूब सारे दिख रहे हैं, शायद बिजिंग में ही हूँ मैं. आवाजें सुनता हूँ निढाल आँखे मीचें..बी डू ची..चायनीज़ में एक्सक्यूज मी. बिजिंग ही होगा और मैं अपने जहाज के इन्तजार में नींद के आगोश में चला गया होऊंगा.

अभी सोच ही रहा हूँ कि बाजू से एक ब्रिटिश एकसेन्ट में बात करता युगल निकल गया और उसके पीछे अमरीकन आवाज.

मगर यही सारी आवाजें तो वेन्कूवर और टोरंटो हवाई अड्डे पर भी सुनाई देती हैं.

कहाँ हूँ मैं?

यह क्या? पूछ रहा है कि कितने बजे फ्लाईट है अपने दोस्त से हिन्दी में!! जाने कौन है हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी.

यही दृष्य आये दिन वेन्कूवर और टोरंटो में भी देखता हूँ हवाई अड्डे पर.

आसपास नजर दौड़ाता हूँ. कुछ ड्रेगन आकाश से रस्सी के सहारे झूल हैं. फिर कुछ क्रिसमस ट्री सजे हैं. झालर रोशनी का सामराज्य है हर तरफ. कोई संता बने घूम रहा है.

इससे तो कतई नहीं जान सकते कि यह बिजिंग है या वेन्कूवर या टोरंटो...

कुछ आसपास सजी दुकानों पर नजर डालता हूँ..वही चायनीज़ फूड, फिर पिज्जा पिज्जा, फिर मेकडोनल्ड फिर फिर..सब एक सी ही दुकानें हर जगह..भीड़ भी एक सीमित दायरे में कुछ वैसी ही...

आखिर दिमाग पर जोर डालता हूँ..जेब में हाथ जाता है.. मेरी टिकिट और पासपोर्ट हैं.

टिकिट पर लिखा है बिजिंग से टोरंटो, फ्लाईट एयर कनाडा १०१ दोपहर १२.४७ बजे तारीख १२ दिसम्बर, २००९.

दीवार घड़ी पर नजर जाती है सुबह का १० बजा है तारीख १२ दिसम्बर, २००९.

हाथ घड़ी देखता हूँ रात का ९ बजे का समय तारीख ११ दिसम्बर, २००९.

तब मैं बिजिंग से दोपहर १२.४७ तारीख १२ दिसम्बर पर टोरंटो के लिए उड़ने वाला हूँ और १२ घंटे १० मिनट का सफर कर १२ तरीख की सुबह ही ११.५७ पर टोरंटो पहुँच जाऊंगा.

कैसी अजब दुनिया है. देख कर कुछ अंतर नहीं दिखता!!

ऐसी दुनिया किसने रची..हमने, आपने या उसने?

पूरा विश्व एक गांव हुआ जा रहा है..पहचान नहीं पाते कि यहाँ हैं कि वहाँ. सब वैश्वीकरण के इस दौर में एक दूसरे में इतना घुल मिल गये है. सबकी अपनी योग्यता है, सभी का स्वागत सभी जगहों पर हैं.

और हम हैं कभी मराठियों का जय महाराष्ट्रा तो फिर कभी तैलंगाना और विदर्भ बनाने की जुगत में लगे हैं..

हद है, जाने क्या पा लेंगे!!




वो

जिसे इस कृषि-प्रधान देश की

मासूम जनता ने

अपना रहनुमा जाना था..


सुना है

दीवारों की फसल उगाता है!!!


-समीर लाल 'समीर'


नोट:
बहुतेरी पोस्ट तक पहुँच नहीं पा रहा हूँ. लेपटॉप वायरस से पूरी तरह सत्यानाश हो गया. न जाने कितने आलेख गुम हो गये. नया खरीदना पड़ेगा. बहुत परेशान हूँ कि शायद कुछ डाटा मिल जाये..१५ दिन पहले तक का बेक अप है.

रविवार, दिसंबर 13, 2009

पहेली का निष्कर्ष : स्त्री/पुरुष विमर्श

 

एक पहेली ख्याल आती है:

एक पैकेट में ७ बन(ब्रेड) हैं. मेरी पत्नी रोज आधा खाती है और मैं एक पूरा.

पहेली है कि ५ वें दिन कौन कितना खायेगा?

जबाब हो सकता है:

१. मैं पूरा खाऊँगा और पत्नी भूखी रहेगी.

२. पत्नी आधा खाती है, इसलिये आधा खाकर निकल लेगी (आई डोंट केयर बोलते हुए) और मुझे आधा ही खा कर गुजारा करना होगा.

३. दोनों खुशी खुशी आधा आधा बांट कर खायेंगे.

 

73091678

 

यदि आपको लगता है कि

जबाब १ सही है, तो इसका अर्थ है कि आप पत्नी को बराबरी का दर्जा नहीं देते. आप पुरुष प्रधान समाज के समर्थक हैं एवं समय के साथ साथ अपनी मानसिकता नहीं बदल रहे हैं और उसी दकियानूसी विचारों के बीच पल पुस रहे हैं जिसमें नारी को कोई महत्व नहीं दिया जाता था. ऐसे में आज के जमाने में आपकी गुजर मुश्किल ही है. गुजर अगर हो भी जाये तो कम से कम सुखमय तो नहीं होगी.

यदि आपको लगता है कि

जबाब २ सही है तो आप निश्चित ही पत्नी की समानता एवं समान अधिकारों की नहीं बल्कि नारी पुरुष से कहीं कम नहीं वाली रिसेन्ट मानसिकता के साथ कदम से कदम मिला कर चल रही/रहे हैं. आपका ध्येय नारी को बेहतर, ज्यादा ताकतवर एवं पुरुष को हर हाल में नीचा दिखाना है. आप नारी मुक्ति आंदोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के लिए परफेक्ट पात्रता रखते हैं. सुखमय जीवन से ज्यादा आपके लिए अहम महत्व रखता है.

यदि आपको लगता है कि

जबाब ३ सही है तो आप पति और पत्नी एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं एवं सामंजस्य से ही जीवन गाड़ी भली भांति दौड़ेगी वाले संस्कारों में विश्वास रखते/रखती हैं एवं दोनों के समान अधिकारों के प्रति सतर्क एवं सहमत हैं.

-वैसे तो जबाब २ और ३ का नेट परिणाम एक ही है मगर भाव अलग अलग हैं.

बस, जीवन को सुचारु रुप से सफलतापूर्वक जीने के लिए भाव महत्वपूर्ण है, परिणाम नहीं.

यही सुखद (वैवाहिक) जीवन का सूत्र है.

अतः, कोशिश कर अपना सही जबाब ३ को बनाये यदि आपने अपना जबाब इसके सिवाय १ या २ चुना है तो!!

चलते चलते: (मेरी एक रचना का हिस्सा)

जो प्यार तुमने मुझको दिया था
वो प्यार किस्तों में लौटा रहा हूँ..

मोहब्बत इबादत में ऐसा रहा है
दर्द हो किसी का, किसी ने सहा है
ये बात तुझको पता ही कहाँ थी
कि किसने किससे कब क्यूँ कहा है.

उदासी मिटाना,
और सबको हँसाना
निवेदन मैं सबसे किये जा रहा हूँ...

-समीर लाल ’समीर’

बुधवार, दिसंबर 09, 2009

डर: एक माईक्रो कथा

 

सारा गांव उनसे डरता था.

एक मात्र राजू भईया के पास लाईसेन्सी रिवाल्वर था.

क्या पता गुस्से में मार ही न दें.

मैं भी राजू भईया से डरता था.

इसलिये नहीं कि गुस्से में मुझे न मार दें.

मेरा डर अलग था.

आज खबर आई है

-राजू भईया ने खुद को गोली मार कर आत्महत्या कर ली.

मेरा डर सच निकला.

गांव का डर जाता रहा.

*

चलते चलते:

 

टोरंटो आज सबेरे:

toronto

रविवार, दिसंबर 06, 2009

पहले पढ़ा, अब देखिये..

बिखरे मोती के विमोचन की खबर आपको १२ अक्टूबर, २००९ की पोस्ट से दी थी.

तब से ही उस कार्यक्रम के विडियो की डिमांड लगातार आती रही. आज उसी के विडिओ प्रस्तुत कर रहा हूँ.

’बिखरे मोती’ का दीर्घ प्रतिक्षित विमोचन विगत ४ अक्टूबर, २००९ को गुरुदेव श्री राकेश खण्डेलवाल, वाशिंगटन, यू. एस.ए. के कर कमलों द्वारा गया चौहान बैन्केट हॉल, टोरंटो में समपन्न हुआ. इस अवसर पर श्री अनूप भार्गव एवं रजनी भार्गव जी, न्यू जर्सी, यू एस ए, मानोषी चटर्जी जी, शैलजा सक्सेना जी ने शिरकत की. श्रोताओं से खचाखच भरे हॉल में कार्यक्रम की शुरुवात मानोषी चटर्जी ने की. कार्यक्रम की अध्यक्षता अनूप भार्गव जी एवं संचालन श्री राकेश खण्डेलवाल जी ने किया.

रजनी भार्गव जी, न्यू जर्सी, यू एस ए. का काव्य पाठ:

 

शैलजा सक्सेना जी का काव्य पाठ:

 

मानोषी चटर्जी जी का काव्य पाठ:

 

मानोषी चटर्जी जी का गज़ल गायन:

 

अनूप भार्गव जी न्यू जर्सी, यू एस ए. का काव्य पाठ:

 

श्री राकेश खण्डेलवाल, वाशिंगटन, यू. एस.ए. का काव्य पाठ:

 

समीर लाल ’उड़न तश्तरी’ का काव्य पाठ ::)

 

बिखरे मोती का विमोचन एवं समीर लाल का सम्मान:

 

आशा है विडियों पसंद आया होगा.

बुधवार, दिसंबर 02, 2009

जूता विमर्श के बहाने : पुरुष चिन्तन

कल ही नीलिमा जी को पढ़ता था कि कामकाजी महिलाओं के लिए आरामदायक चप्पल मिलना कितना मुश्किल है. जल्दी मिलती ही नहीं, हर समय तलाश रहती है.

आज बरसों गुजर गये. हजारों बार पत्नी के साथ चप्पलों की दुकान पर सिर्फ इसलिए गया हूँ कि उसे एक कमफर्टेबल चप्पल चाहिये रोजमर्रा के काम पर जाने के लिए और हर बार चप्पल खरीदी भी गई किन्तु उसे याने कमफर्टेबल वाली को छोड़ बाकी कोई सी और क्यूँकि वह कमफर्टेबल वाली मिली ही नहीं.

अब दुकान तक गये थे और दूसरी फेशानेबल वाली दिख गई नीली साड़ी के साथ मैच वाली तो कैसे छोड़ दें? कितना ढ़ूँढा था इसे और आज जाकर दिखी तो छोड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता.

हर बार कोई ऐसी चप्पल उसे जरुर मिल जाती है जिसे उसने कितना ढूंढा था लेकिन अब जाकर मिली.

सब मिली लेकिन एक आरामदायक चप्पल की शाश्वत खोज जारी है. उसे न मिलना था और न मिली. सोचता हूँ अगर उसे कभी वो चप्पल मिल जाये तो एक दर्जन दिलवा दूँगा. जिन्दगी भर का झंझट हटे.

उसकी इसी आदत के चलते चप्पल की दुकान दिखते ही मेरी हृदय की गति बढ़ जाती है. कोशिश करता हूँ कि उसे किसी और बात में फांसे दुकान से आगे निकल जायें और उसे वो दिखाई न दे. लेकिन चप्पल की दुकान तो चप्पल की दुकान न हुई, हलवाई की दुकान हो गई कि तलते पकवान अपने आप आपको मंत्रमुग्ध सा खींच लेते हैं. कितना भी बात में लगाये रहो मगर चप्पल की दुकान मिस नहीं होती.

ऐसी ही किसी चप्पल दुकान यात्रा के दौरान, जब वो कम्फर्टेबल चप्पल की तलाश में थीं, तो एकाएक उनकी नजर कांच जड़ित ऊँची एड़ी, एड़ी तो क्या कहें- डंडी कहना ही उचित होगा, पर पड़ गई.

अरे, यही तो मैं खोज रही थी. वो सफेद सूट के लिए इतने दिनों से खोज रही थी, आज जाकर मिली.

मैने अपनी भरसक समझ से इनको समझाने की कोशिश की कि यह चप्पल पहन कर तो चार कदम भी न चल पाओगी.

बस, कहना काफी था और ऐसी झटकार मिली कि हम तब से चुप ही हैं आज तक.

’आप तो कुछ समझते ही नहीं. यह चप्पल चलने वाली नहीं हैं. यह पार्टी में पहनने के लिए हैं उस सफेद सूट के साथ. एकदम मैचिंग.

पहली बार जाना कि चलने वाली चप्पल के अलावा भी पार्टी में पहनने वाली चप्पल अलग से आती है.

pencil hill

हमारे पास तो टोटल दो जोड़ी जूते हैं. एक पुराना वाला रोज पहनने का और एक थोड़ा नया, पार्टी में पहनने का. जब पुराना फट जायेगा तो ये थोड़ा नया वाला उसकी जगह ले लेगा और पार्टी के लिए फिर नया आयेगा. बस, इतनी सी जूताई दुनिया से परिचय है.

यही हालात उनके पर्सों के साथ है. सामान रखने वाला अलग और पार्टी वाले मैचिंग के अलग. उसमें सामान नहीं रखा जाता, बस हाथ में पकड़ा जाता है मैचिंग बैठा कर.

सामान वाले दो पर्स और पार्टी में जाने के लिए मैचिंग वाले बीस.

मैं आज तक नहीं समझ पाया कि इनको क्या पहले खरीदना चाहिये-पार्टी ड्रेस फिर मैचिंग चप्पल और फिर पर्स या चप्पल, फिर मैचिंग ड्रेस फिर पर्स या या...लेकिन आजतक एक चप्पल को दो ड्रेस के साथ मैच होते नहीं देखा और नही पर्स को.

गनीमत है कि फैशन अभी वो नहीं आया है जब पार्टी के लिए मैचिंग वाला हसबैण्ड अलग से हो.

तब तो हम घर में बरतन मांजते ही नजर आते.

घर वाला एक आरामदायक हसबैण्ड और पार्टी वाले मैचिंग के बीस.

गम भरे प्यालों में,
दिखती है उसी की बन्दगी,

मौत ऐसी मिल सके
जैसी कि उसकी जिन्दगी.

-समीर लाल ’समीर’