जाने कितना नुकसान कर बैठा मैं हिन्दी साहित्य का इन पिछले चार दिनों में मात्र. सब माफ कर देंगे, सब मेरे अपने हैं मगर नहीं माफ करेगा मुझे तो हिन्दी साहित्य का इतिहास. वो मुझसे वैसे भी नहीं सध पाता.
न जाने क्या क्या निबंध, आलेख, शोध पत्र, संस्मरण आदि लिखे इन चार दिनों में और मिटा दिये मगर शीर्षक सहेज लिये कि शायद भविष्य में काम आयें.
आजकल यूँ भी पहले शीर्षक और फिर विषय वस्तु लिखी जाती है नये फैशन में. पहले विषय वस्तु के आधार पर शीर्षक निर्धारित होता था मगर वो पुराना जमाना था पुरनियों का.पुरानों की इज्जत करने वाले अब बचे भी नहीं. परसाई जी भी कह गये हैं कि बुजुर्गों को पूजनीय बना कर पूजागृह की शोभा बढ़ाने के लिए बैठा दिया जाता है. इसलिए जरा पुराना कहलाने से बचता हूँ और नये जमाने के साथ कदमताल करने का प्रयास रहता है. बस, और क्या! इसीलिये बचा लिए शीर्षक.
आप भी देखिये न..आगे इन पर एक एक करके फिर से लिखता रहूँगा शीर्षकानुसार:
- निबंध: महाकुंभ के कुंभी
- गंगा में पावन डुबकी-संस्मरण
- दाना चुगते मानस के राजहंस-निबंध
- जी हजूर!
- ठेले पे मेला : किसने किसको झेला (हास्य विनोद)
- दर्जा सभ्यता
- सरकारी मेहमान : हमारे जजमान
- लाईव रिपोर्टिंग : नॉट सो लाईव-समाचार विश्लेषण
- गला मिलन समारोह
- छुक छुक गाड़ी टू परयाग
- बिना तिलक के पण्डे
- तालियों की कराहट
- बिन चहा (चाय) भजन नइ होवै
- रिक्शे की सवारी: यात्रा वृतांत
- रेत में नौका विहार का आनन्द: डूबने का खतरा नहीं
- आस्था के दीपक का प्रवाहित होना: एक चिंतन
- हँसमुख लाल की खिलखिलाहट
- मइया तेरो बिकट प्रताप: एक मौलिक आरती
- कागज के श्रृद्धा सुमन
- शोध पत्र: चमकाऊ भाषण- एक कला या विज्ञान
- विवेचना: मच्छर दंश: प्रेम प्रदर्शन या हमला
- दो दिवस का एक युग: पौराणिक कथा
- जासूसी कथा: कँघी गुमने का रहस्य
- इलाहाबाद के पथ पर, वो तोड़ती थी पत्थर: २००९ में पनुः आंकलन
- संगम- क्या मात्र तीन नदियों का: विमर्श
- इलाहाबाद- राजनैतिक और धार्मिकता के केन्द्र के बाद-सन २००९ में सिंहावलोकन
- गुल्लक कै पैसे: उसके कैसे- एक तुकबन्दी
- घुटना टेक: छात्र जीवन का एक संस्मरण
- शीर्षासन में देखी दुनिया जैसा: एक विचित्र अनुभव वृतांत
- कव्वों की भीड में हंस या हंसों की भीड़ में कव्वा - एक मोरपंखी मुकुटधारी की रिपोर्ट
- मंदिर से अजान: बदलते फैशन पर एक विशेषज्ञ की राय
- साधना का महत्व: ज्ञानवार्ता
- इलाहाबाद से हरिद्वार जाती गंगा में नौका विहार
- शेषनाग की शैय्या के खाली स्थान पर लंबलेट: एक थ्रिलर
- हाशिये पर ढकेलती: उंगली वाली बंदूक - एक कविता
- तुम्ही अब नाथ हमारे हो: एक स्वीकारोक्ति.
इन्तजार करियेगा इनका. आते रहेंगे समय बे समय. मैं लिखूँ या कोई और-क्या फरक पड़ता है. कुछ शीर्षकों के लिए तस्वीरें इक्कठी करने का काम भी शुरु कर दिया है. एक तो रंजना भाटिया जी के यहाँ से चुरा ली है और बाकी गुगल से. बाकी का जुगाड़ भी हो ही जायेगा.
मैं जब भी घर से कहीं किसी और शहर कुछ दिन के लिए जाता हूँ तो मेरी आदत है कि सामान रखने के पहले इत्मिनान से बैठ कर लिस्ट बना लेता हूँ फिर सामान मिलान करके रखता हूँ ताकि कुछ छूट न जाये. हर बार नये अनुभव प्राप्त होते हैं तो लिस्ट बढ़ती घटती रहती है. अभी अभी नये प्राप्त अनुभवों से लिस्ट में कुछ सामान और जोड़ दिये है, शायद आगे काम आये अगर कहीं बुलाये गये. दो दिन के लिए तीन दिन का सामान ले जाना हमेशा ठीक रहता
है उस हिसाब से:
तीन शर्ट, तीन फुल पेण्ट, एक हॉफ पैण्ट (नदी स्नान के लिए), एक तौलिया, एक गमझा (नदी पर ले जाने), एक जोड़ी जूता, एक जोड़ी चप्पल, तीन बनियान, तीन अण्डरवियर, दो पजामा, दो कुर्ता, मंजन, बुरुश, दाढ़ी बनाने का सामान, साबुन, तेल, दो कंघी ( एक गुम जाये तो), शाम के लिए कछुआ छाप अगरबत्ती, रात के लिए ओडोमॉस, क्रीम, इत्र, जूता पॉलिस, जूते का ब्रश, चार रुमाल, धूप का चश्मा, नजर का चश्मा, नहाने का मग्गा, बेड टी का इन्तजाम (एक छोटी सी केतली बिजली वाली, १० डिप डिप चाय, थोड़ी शाक्कर, पावडर मिल्क, दो कप, एक चम्मच), एक मोमबत्ती, माचिस, एक चेन, एक ताला, दो चादर, एक हवा वाला तकिया.
बाकी इलेक्ट्रॉनिक आइटम की सूची अलग से है.
मुझे तो लगता है कि लिस्ट पूरी है, कुछ छूटा हो तो बताना.
खैर, यह सब तो ठीक है लेकिन जाने इसी दौरान यह कविता कलम का सहारा लेकर उतर आई. थोड़ी गंभीर है, अतः निवेदन है कि जरा डूब कर भाव समझने का प्रयास करें. सोचता था कि इस कविता को अलग से प्रस्तुत करुँगा मगर दो मूड और एक पोस्ट की तर्ज पर प्रस्तुत कर ही देता हूँ:
मैं हाशिये पर हूँ
इसलिये नहीं कि
मुझे हाशिये में रहना पसंद है
इसलिये नहीं कि
मुझमें ताकत नहीं
इसलिये नहीं कि
मैं योग्यता
नहीं रखता..
मैं इसलिये हाशिये पर हूँ क्यूँकि
मैं बस मौन रहा और
उनके कृत्यों पर
मंद मंद मुस्कराता रहा!!
-समीर लाल ’समीर’