सबके अपने अपने शौक होते हैं। उसे सम्मान समारोह देखने का शौक था।
मौका लगा तो व्यक्तिगत तौर पर हाजिर हो कर अन्यथा टीवी पर। यहाँ तक कि अखबार में भी सम्मान समारोहों की रिपोर्ट देख कर वो गदगद हो
जाता। फिर वो चाहे उसके
मोहल्ले का कोई आशु कवि सम्मानित किया जा रहा हो या किसी को भारत रत्न से नवाजा जा
रहा हो। जब भी किसी को सम्मानित किया जाता, वह बहुत प्रसन्न होता। तालियाँ बजाता। संभव
होता तो सम्मानित को बधाई देता और साथ में तस्वीर भी खिंचवाता।
सम्मानित व्यक्ति भी सम्मानित होने से अधिक सम्मान की बधाई और चर्चा
से ही प्रसन्न होता है। ऐसा सम्मान दो कौड़ी का होता है, जिसकी न तो बधाई मिले और न
समाचारों में चर्चा हो। अखबार में छपी सम्मान की खबर की कटिंग जब तक फेस बुक,
व्हाट्स एप्प, ट्विटर आदि पर लगाकर भरपूर बधाई न ले लो, तब तक कैसा सम्मान?
सम्मानित का सम्मान करना वो अपना परम कर्तव्य मानता था। उसे न कभी
स्वयं सम्मान प्राप्ति का कोई लोभ हुआ और न ही किसी सम्मानित से ईर्ष्या और न ही
किसी प्रकार की प्रतिस्पर्धा का भाव। सम्मानित से ईर्ष्या और प्रतिस्पर्धा न करने
का यह दुर्लभ स्वभाव ही उसे सम्मान समारोह में पधारे अन्य गणमान्यों से अलग बनाता
था।
इस दुर्लभ एवं विलक्षण स्वभाव के चलते सभी सम्मानित उसे बड़े सम्मान
से देखते। हालत यह हो गई कि अब जब किसी को सम्मान मिलना होता, वो उसे समारोह में
आने जाने रहने का खर्चा देकर बुलाने लगे। सारी तालियाँ बज कर जब रुक जाएं तो भी एक
ताली की आवाज जो सबसे आखिरी में
रुकती, वो उसकी ही होती।
ख्याति और उम्र में एक समानता होती है कि अगर चलती रहे तो सदा आगे ही
बढ़ती है। अतः उसकी भी ख्याति सम्मानितों के बीच बढ़ती चली गई और उसका यह अद्भुत शौक
व्यवसाय में परिवर्तित हो गया। अब वह आने जाने रहने के खर्च के साथ साथ मानदेय भी
लेने लग गया था। अब व्यस्तता के साथ साथ उसे पैसे की भी कोई कमी न रही। कहते हैं
पैसे से पैसा आता है। तभी ये नेता चुनाव में इतना पैसा खर्च करते हैं। सम्मानितों
के बुलावे पर आते जाते सम्मान समारोहों के आयोजकों के बीच भी उसका याराना हो गया।
अब उसका बिजनेस मोडेल त्रिकोणिय हो गया था। पहला सम्मानितों से सम्मान समारोहों में
आने का मानदेय लेना। दूसरा सम्मान
प्राप्ति के इच्छुक सम्मानलोलुपों से महचाही रकम लेकर आयोजकों की मिलीभगत से उन्हें
सम्मानित कराना। तीसरा फिर इन पेड सम्मानितों के सम्मान समारोह में आने का मानदेय।
जैसा कि बड़े लोगों के साथ अक्सर होता है वैसे ही उसके ही कुछ खास लोगों ने नाम न
जाहिर करने के आश्वासन पर उसके व्यापार का एक चौथा सबसे दुधारू कोण भी बताया कि वह
आजकल कई सम्मान समोरोह खुद ही छद्म नामों से आयोजित कर रहा है।
सम्मान समारोहों के इस स्वर्णिम युग
में सम्मान समारोहों और सम्मानितों की बाढ़ आई हुई
है। महानगरों से लेकर शहर, कस्बे, गली मोहल्ले सब इस बाढ़ की चपेट में हैं और इस
स्वर्ण काल का असली स्वर्ण उसके आँगन में बरस रहा है। इस बाढ़ में बहे सम्मानित सम्मान
से भीगे शरीर को सम्मान में मिले दुशाले से घिस घिस के सुखा रहे हैं और वो अपने आँगन
में बरसते स्वर्ण कणों को सोने की ईटों में तब्दील कर रहा है। उसे आज समझ में आ
रहा है कि हमारे नेता बाढ़ आने पर इतना खुश क्यूँ होते हैं।
वक्त हरदम एक सा कहाँ रहता
है। एकाएक वो दौर भी आया जब लोग बात बात पर सम्मान वापस करने लगे। सम्मान वापसी का
वो दौर भी अजब था। एक ओर सम्मान समारोहों और सम्मानितों की बाढ़ सुनामी का रूप ले
रही थी वहीं दूसरी तरफ सम्मान वापसी की नहर भी खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी। तकलीफ
मात्र इतनी सी थी कि सम्मानित सम्मान वापस कर लौटते हुए उसके दरवाजे पर रकम वापसी
के लिए दस्तक देते।
व्यापार में एक बार सफलता लग
जाये तो बुद्धि स्वतः कुशाग्र हो जाती है। स्कूल में बामुश्किल पास हो पाने वाला
व्यक्ति भी जब बड़ा व्यापारी बन जाता है तो बड़े बड़े इंजीनियरिंग कॉलेजों के
दीक्षांत समोरह में मुख्य अथिति बना ज्ञान की वर्षा करता है। वो भी अब कुशाग्र
बुद्धि का मालिक हो गया था। अतः रकम वापसी को तुरन्त तैयार हो गया। उसके इस रकम
वापसी वाले स्वभाव के चलते वो अब सम्मान वापसी कर सम्मानित से असम्मानित में
तब्दील हुए लोगों के भी सम्मान का पात्र हो गया।
उसे मालूम है कि एक बार सम्मानित
होने की लत लग जाये तो आसानी से नहीं छूटती। आज सम्मान वापस करके लौटने वाले कल
फिर सम्मानित होने की कतार में खड़े होंगे और वो आज लौटाई रकम को मय ब्याज पुनः वसूल
कर लेगा।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे के रविवार अकतूबर ११, २०२० के अंक में:
http://epaper.subahsavere.news/c/55575204
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