आज तिवारी जी सुबह सुबह चौक से दाढ़ी
मूंछ सेट करवा कर और बाल रंगवा कर जल्दबाजी में घर लौटते दिखे। साथ ही धोबी से प्रेस करवा कर
अपना कुर्ता भी लिए हुए थे। मैंने उन्हें प्रणाम करके जब चाय पीने की पेशकश की तो वो
कहने लगे कि ये चाय वाय के ठेले पर बैठ कर गप्प सटाका करना तुम निट्ठलों का काम है। मुझे समझ नहीं आया कि हरदम खाली
बैठे रहने वाले तिवारी जी जो हमेंशा इसी फिराक में चौक की पान की दुकान पर बैठे
रहते थे कि कोई चाय पिलवा दे, उनको अचानक क्या हुआ? ऐसी कौन सी व्यस्तता आ गई कि
चाय की दुकान पर बैठने वाले सभी निट्ठले नजर आने लगे। व्यस्तता न हुई जैसे कोई
ज्ञान हो गया, जरा सा आ क्या जाये, सारी दुनिया मूर्ख नजर आने लगती है।
दूसरों के बारे में बेवजह जानने की उत्सुकता ही शायद इंसानों को
जानवरों से भिन्न करती हो, अतः मैं भी इंसान होने का कर्तव्य निभाते हुए तिवारी जी
के साथ टहलते हुए उनके घर की तरफ ही चलने लगा। हालांकि उनका घर मेंरे घर से विपरीत
दिशा में है मगर अपने घर जाकर तो उनकी व्यस्तता का पता चलेगा नहीं। रास्ते में मैंने उनसे उनकी व्यस्तता की वजह जाननी चाही।
एकाएक गंभीर भाव से उन्होंने बताया कि आज तीन मंच करना है और अब तो यह लगभग रोज ही
की व्यस्तता हो चली है।
मैं अज्ञानी समझ न पाया कि
मंच करना क्या होता है? मैंने कहा कि चुनाव आने वाले हैं इसलिए मंच बनाने का ठेका
लेने लगे हैँ क्या? वह मेंरी अज्ञानता पर झुंझलाहट भरा ठहाका लगाते हुए कहने लगे
कि ३-३ कवि सम्मेलनों में शिरकत करनी है।
कविताएं पढ़नी हैं। सब अलग अलग शहरों में हैं और एक तो अमरीका में है।
मेंरी तो बुद्धि ही चकरा गई
कि कोई व्यक्ति एक ही दिन में दो अलग अलग
शहरों में और फिर उसी दिन अमरीका में भी कवि सम्मेलन में कैसे शिरकत कर सकता है?
हालांकि मैं यह तो जानता हूँ कि कई कवि एवं विद्वान साहित्यकार बिना अमेंरिका गए
भी अपने बायोडाटा में अमरीका एवं अन्य
अनेकों देशों की यात्रा लिखते लिखते अमरीका हो भी आए।
मैं हँसा और मैंने तिवारी जी
से कहा कि माना आपके मन में आगे चल कर चुनाव लड़ने का विचार है। लेकिन अभी तो आपको
सत्ता मिली भी नहीं है और फेंकने में तो आप सत्ताधीष को भी पछाड़ दे रहे हैं।
उन्होंने सभी बुद्धिजीवियों
द्वारा कहा जाने वाला वाक्य दुहराया कि तुम नहीं समझोगे! अरे, आजकल कवि सम्मेलन के
लिए कहीं जाना नहीं पड़ता, घर से बैठे बैठे कंप्यूटर से हो जाता है। सारी दुनिया
जान गई है ज़ूम, टीम, फेसबुक लाईव और भी न जाने क्या क्या!! मगर तुम निट्ठलों को चाय
की दुकान पर गप्प मारने से फुरसत मिले तब न।
घोटालों के राज की तरह ही कई
चीजें एकाएक खुलती हैं। उसी तर्ज पर एकाएक मेंरे ज्ञानचक्षु खुले। मैंने जाना कि कैसे आजकल सुबह से रात तक कवि सम्मेलन चला करते
हैं। सुनने वाले तारीफ में कमेंट कर करके अपने होने का पता देते हैं ताकि अगले कवि
सम्मेलन में उनको भी बुलाया जावे और जिनको आज बुलाया है वो उस वक्त सुनने आवें। उन्होंने
बताया कि आम कवि सम्मेलन की तरह ही ऑनलाइन कवि सम्मेलन के भी कई गुर एवं हथकंडे
हैं, जो इसे अलग विधा बनाता है। उस पर फिर कभी विस्तार से तुमसे बात करूंगा।
मैंने कहा जी बस एक शंका का
निवारण और कर दें कि आपने कुर्ता प्रेस करा लिया और पायजामा क्यूँ नहीं?
वो बोले इस हेतु प्रशासनिक
समझ की जरूरत होती है। मंत्री जी की जायजा यात्रा के दौरान उतना ही हिस्सा सजाया
जाता है जो उन्हें दिखाया जाना है। पायजामा भला स्क्रीन में कहाँ दिखता है। आजकल
पायजामें की प्रेस का और जूता पालिश का खर्च तो एकदम रुक गया है, यह बड़ा आराम है।
मैंने पूछा मगर कवि सम्मेलन के पैसे भी तो मिलना बंद हो गए होंगे? इस पर वह शरमाते
हुए कहने लगे कि पैसे तो पहले भी नहीं मिलते थे, इस बहाने कम से कम कवि सम्मेलन तो
मिलने लगे।
-समीर लाल ‘समीर’
भोपाल से प्रकाशित सुबह सवेरे में रविवार अक्टूबर ४, २०२०
http://epaper.subahsavere.news/c/55406849
ब्लॉग पर पढ़ें:
बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंकिया ख़ूब लिखा। कवियों की तो मौज है एक दिन में न जाने कितने देशों में उनकी कविता घूम आती है।
जवाब देंहटाएंवर्चुअल ज्ञानचक्षु खोल दिया है ।
जवाब देंहटाएं