सोमवार, अप्रैल 09, 2018

बहारों नमक छितराओ कि मेरा महबूब आया है..


आज सुबह ५:३० बजे उठ गया था.:३० बजे से ऑफिस में मीटिंग थी. रात में ही मौसम समाचार ने बता दिया था कि रात भर में २५ से ३० सेन्टीमीटर बरफ गिरेगी. भारतीय होने के कारण हमारा डीएनए ऐसा है कि सुने पर भरोसा होता नहीं है. सदियों से इन नेताओं ने झूठ सुना सुना कर बिगाड़ डाला है हमारा डीएनए. जो भी बोला उसका उल्टा ही किया. खिड़की से झांक कर देखा. ड्राईव वे पर गाड़ी बरफ से दबी हमारे हाथ से साफ होने का इन्तजार करती सी नजर आई. मानो आम जनता टकटकी लगाये बैठी हो कि अच्छे दिन आयेंगे. फिर ड्राईव वे भी साफ करना था और वॉक वे भी. अतः तुरंत गरम कपड़े, जैकेट, दस्ताने, टोपी पहन कर बाहर आ गये और सफाई में लग गये. अड़ोसी पड़ोसी भी सफाई में जुटे हुए थे तो भारतीय मन को प्रसन्नता हुई कि हम अकेले नहीं, सभी परेशान हैं. पूरे ४५ मिनट तक भरपूर मेहनत. -१५ डिग्री सेल्सियस तापमान पर पसीना निकल रहा था. आज जिम जाने की जरुरत नहीं रहेगी अब. पूरा कार्डियो यहीं हो गया. इस बात को सोच कर बड़ी राहत मिली. हर परेशानी में इंसान कुछ न कुछ ऐसा जरुर सोच लेता है ताकि दिल को तसल्ली मिल जाये, वरना बरफ बिना साफ किये तो गुजारा भी नहीं है. न तो यह सड़क पर फैला कूड़ा है और न ही दिल्ली में यमुना का किनारा कि मत साफ करो तो भी काम चलता ही जा रहा है. होने दो इक्कठा कूड़ा.
मुझे वॉक वे साफ करते वक्त एकदम से खुद के जनसेवक होने जैसी फीलिंग आने लगती है. मुझे तो कार लेकर स्टेशन निकल लेना है. अगर मेरा ड्राईव वे बस साफ कर लूँ तो मेरे लिए काफी है. वॉक वे पर वो चलेंगे जो पैदल बस पकड़ने या स्कूल इत्यादि जा रहे होंगे. अगर अपने घर के सामने का वॉक वे मैं न साफ करुँ तो बरफ में फिसल कर मैं नहीं, कोई इस वॉक वे से गुजरता पैदल राही होगा, वो गिरेगा. फिर भी जनसेवा में साफ कर रहा हूँ, यह सोच कर अच्छा महसूस होता है. इस जनसेवा की फीलिंग में भी वो ही दिल को तसल्ली देने वाला झोल है. असली बात तो यह है कि अगर कोई आपके वॉक वे पर फिसल कर गिर गया और हड्ड़ी वगैरह तुड़ा बैठा, तो सबसे पहला मुकदमा आप पर होगा उस हानि का जो हड्डी टूटने के कारण उसे हुई है. वो काम पर नहीं जा पा रहा है. उसका कुत्ता अब कोई प्रोफेशनल कुत्ता घुमाने वाला घुमायेगा. उसे खाना बनाने के लिए और घरेलु कार्य के लिये किसी को हायर करना पड़ेगा जो भले यहाँ के मंत्री भी अफोर्ड न कर पाते हों. हर बार अस्पताल जाने के लिए टेक्सी और ऐसे वक्त में वो सारी ऐसी इच्छायें जो आज तक पूरी न कर पाया हो, मुकदमे में बतौर हर्जाने के डिमांड कर ही लेता है. ऐसे मौके जीवन में भले आते ही कितनी बार हैं. मानो हमारे दरवाजे पर न गिरा हो, भारत में चुनाव जीत कर मंत्री हो लिया हो. हालात वो ही अपने यहाँ जैसे ही हो जाते हैं कि मान दौ कौड़ी का नहीं मगर मानहानि १० करोड़ की. भले पहले से लंगड़ा कर चलते हों मगर हमारे दर पर ठोकर खाई है तो अब सब जिम्मेदारी हमारी. हालांकि हम इन्श्यूरेन्स लेकर रखते हैं ऐसे दर पर गिर पड़ने वालों के लिए मगर उसकी भरपाई की भी एक छोटी सी सीमा रेखा है. उसके आगे की लंका खुद की लगती है. आज ही किसी ने किसी नेता के लिए लिखा कि उनकी तो लंका लग गई..जब उस नेता ने अपनी ही पार्टी वालों के प्रति यह आशंका जतलाई कि वे मेरा एनकाऊन्टर करा देंगे. उसी से प्रेरित हो कर यह पंक्ति लिखी.
इसी से जुड़ा एक और संदर्भ बताता चलूँ कि भारत में जब घर पर मेहमान आने वाले होते थे तो घर के बाहर दीप जलाने, रंगोली रचाने और फूल बिछा कर स्वागत करने का प्रचलन होता था. यहाँ अगर सर्दी में मेहमान आ रहा है तो सबसे पहले बरफ साफ करके उसके चलने का रास्ता बनाओ और फिर उस पर नमक का छिड़काव करके उसका चलना सुरक्षित करो ताकि फिसलन न रहे जमीन पर. अगर यहाँ वो बहारों फूल बरसाओवाला गीत लिखा जाता सर्दियों में तो होता कि बहारों नमक छितराओ कि मेरा महबूब आया है..
यहाँ सड़कों से बरफ साफ करने की जिम्मेदारी सरकार की है. अच्छी बात यह है कि वह जिम्मेदारी पूरी जिम्मेदारी के साथ के निभाई भी जाती है. जब बरफ गिरती है तो शहर भर में हजारों की तादाद में ट्रक सड़क से बरफ हटा रहे होते है और उनके पीछे दूसरे ट्रक नमक छितराते चल रहे होते हैं..मगर सड़कें सभी साफ रहती है. अभी तक तो नहीं सुना कि ५० ट्रक नमक गिरा कर ५०० ट्रक बता दिया हो..ऑडिट तो क्या पकड़ पायेगा..बिखरा देने के बाद उस नमक को भी गल ही जाना है. मगर शायद ये इत्ते ज्ञानी नहीं हुए हैं. कम से कम अभी तक.
अब यहाँ कनाडा की सियासत में भी हम देशी काफी तादाद में बढ़ते जा रहे हैं. इस दफा तो चार केन्द्रीय मंत्री देशी हैं. हम तो खुद ही इस चक्कर में हैं कि वहाँ जो न कर पाये वो यहाँ कर लें. ट्राई करेंगे एकाध चुनाव. कविता और व्यंग्य लेखन भी वहाँ कहाँ कुछ कर पाये थे? यहीं आकर फला और कुछ नाम मिला. शिफ़त तो है इस धरती में. कौन जाने इसी के चलते शायद चुनाव जीत ही जायें.
हो सकता है हम देशी लोगों के आशीर्वाद से ...यहाँ भी सड़कों पर बरफ की सफाई फाईलों तक सिमट जाये. फिर कुछ सालों में यहाँ भी सड़क पर गिरी बरफ के खिलाफ हो रहे आंदोलन को देखकर कोई नेता यह स्टेटमेन्ट देता मिल जाये कि हमारे पास कोई जादू की छड़ी तो है नहीं कि हम उसे घुमायें और बरफ गल जाये.
भविष्य की सोच रहा हूँ तो एक सलाह कि ऐसे व्यक्तव्य देने के पहले मंत्री महोदय को उस समय सोचना होगा कि बरफ हो या मंहगाई, दोनों की ही जादू की छड़ी भले आपके पास न हो मगर इतना ख्याल रखियेगा कि मंहगाई से सिर्फ गरीब मरता है और बरफ पर गाड़ियाँ फिसलती हैं और गाड़ी की सवारियाँ मरती हैं.. ..हो सकता है उसमें से एक गाड़ी आपकी या आपके परिजन की हो. 
प्रभु ऐसे दिन न दिखाये. इसी उम्मीद के साथ जब स्टेशन से निकल कर १ फुट बरफ में पैर धंसाया तो एक विश्वास था कि इसके नीचे जहाँ कल जमीन थी, आज भी जमीन ही होगी..बारिश के पानी में डूबी मुंबई की सड़क का खुल गया कोई पॉट होल नहीं.
-समीर लाल समीर

व्यंग्य यात्रा त्रैमासिक के जनवरी- मार्च २०१८ के अंक में प्रकाशित:


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4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सटीक व्यंग है भारतीय और कनेडियन व्यवस्था पर

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  2. बहुत सटीक व्यंग है भारतीय और कनेडियन व्यवस्था पर

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  3. बहुत ही उम्दा लेख प्रस्तुत किया.
    Ajabgajabjankari

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (02-08-2018) को "गमे-पिन्हाँ में मैं हस्ती मिटा के बैठा हूँ" (चर्चा अंक-3051) पर भी है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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