गुरुवार, फ़रवरी 02, 2017

डूबते पत्थर की सप्तपदी


उस शाम बड़े तालाब के किनारे शबनम के इन्ताजर में बैठा वो ख्यालों की भीड़ में बहुत दूर निकल गया था. उसे लगने लगा था कि माँ बाप के उलाहने शायद सही ही हैं. उन्होंने पढ़ाया लिखाया है. बड़ा किया है और वो उन्हीं से बगावत किये बैठा है. शबनम से मोहब्बत की बात उनके गले से उतरती नहीं थी और इसके चलते एक कठिन मगर कठोर निर्णय उन्हें सुनाना ही पड़ा था कि या तो वो शबनम को चुने या उन्हें.
वो परेशान तो न था मगर सोच की कसौटी फिर भी सामने थी.
शबनम देर से आई. शायद उसका अपना एक सोच शहर हो. उसका मजहब भी तो जुदा है. मोहब्बत का गांव भले ही एक हो.
मनीष उसे देख कर एक मायूस मुस्कान चेहरे पर बिखरे बोला..पूरे १५६ लहर देर से आई हो?
१५६ लहर?
हाँ, तुम्हारे इन्ताजार में इस किनारे बैठा लहर ही तो गिन रहा था..
तुम भी न!! भला ठहरे तालाब के पानी में लहरें कैसी?
पागल हो तुम, पानी ठहरा है मगर ये सोच मोहब्बत में कब ठहरती है?
उसकी लहरें जब हिलोरें मारती हैं तो गिनती खुद ब खुद फिज़ा में होती है..एक दो तीना.हजार..
मैं तुम्हें शायद ही कभी समझ पाऊँ मनीष..और शायद, यही सोच शहर में झुकते पलड़े का साथ देने का सही वक्त लगा था शबनम को..
सच कह रही हो, शायद कभी नहीं..मनीष की दूर जाती आवाज पानी पर उड़ा कर फेके गये पत्थर की तरह सात टिप्पे खाते हुए तालाब में कहीं खो गई..
सात टिप्पे...मानो कि जैसे उस डूबते पत्थर की सप्तपदी..हर पद पर एक ही संकल्प..मैं तुम्हें शायद ही कभी समझ पाऊँ मनीष..
झुकता पलड़ा झुकते झुकते जमीन से आ लगा था सातवें संकल्प के साथ..
मजहब की खाई में आज फिर एक मोहब्बत खो गई..

-समीर लाल ’समीर’

1 टिप्पणी:

आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है. बहुत आभार.