शनिवार, जनवरी 28, 2017

लारीलप्पा बजट


किसी भी देश, संस्था, प्रोजेक्ट या यहाँ तक कि एक घर को भी सुचारु रुप से चलाने के लिए बजट अत्याधिक उपयोगी साबित होता है. इसके इस्तेमाल से भविष्य की योजना बनाई जाती है कि आने वाली एक अवधि में क्या क्या खर्च करना है और इसके लिए आय के क्या क्या साधन होंगे. क्या सारे सोचे गये खर्च उपलब्ध आय से करना संभव हैं या आय के स्त्रोत बढ़ाने होंगे या किसी पूँजीगत व्यय, घरेलु स्तर पर देखें तो कार खरीदने या मकान बनाने के लिए लोन लेना होगा तो उस पर आये ब्याज और वापसी का क्या इन्तजाम रहेगा आदि आदि.
मगर सब कुछ इतना सीधा सीधा और सरल सरल होता तो हमारी व्यवस्था से यह कब का गायब हो चुका होता. हमारी व्यवस्था में सीधा इन्सान अपनी हैसियत नहीं बचा पाता तो इस बजट की क्या औकात?
हमारी सरकार का बजट घोषणा दिवस जहाँ एक तरफ तो हमारे उत्सवधर्मी देश में उत्सव सा माहौल लाता है मानो पूरा देश इसी दिन का इन्तजार कर रहा हो. वहीं दूसरी तरफ इसकी घोषणा के दौरान इस्तेमाल की गई शब्दावली पूरे देश की १% से भी कम आबादी सही मायने में समझ पाती होगी, यह मेरा अनुमान है. सच सच कोई कहता नहीं मगर कितने लोग जीडीपी, बैलेन्स बजट, बजट डेफिसिट, बैलेस ऑफ पेमेन्ट, करन्ट एकाउन्ट डॆफिसिट, फिसिकल डेफिसिट जैसे बड़े बड़े कान्सेप्ट समझते हैं?
यही नासमझी सरकार को एक बहुत बड़ा मौका लगता है कि जब जनता पूछेगी तो उसे पूछने वाले के हिसाब से समझा देंगे कि नोट बंदी की वजह से भले करंट डिफिसिट बढ़ा हो मगर लॉगटर्म जीडीपी में इजाफा होगा. अब समझने वाला हाँ न करे तो क्या करे, खुद को बेवकूफ घोषित करवाये?
मैने नेता जी से कहा कि आप इसका सही मायने आमजन से छिपा कर उन्हें भ्रमित कर रहे हैं- वो एकदम से उखड़ पड़े कि अव्वल तो हमें खुद ही ज्यादा नहीं समझ आया, फिर भी किसी तरह से समझा तो रहे हैं. अब एक दो तथ्य गायब भी हो जायें तो क्या फरक पड़ता है, जबकि यह बजट की स्पेलिंग में पढ़ते समय पढ़ा गया डी ही बोलते समय गायब है..कल को कहोगे कि बडगट(Budget) क्यूं नहीं बुलाते हैं इसे?
 मगर बजट का बेजा इस्तेमाल करना कोई हमारी सरकारों से सीख ले और मीडिया भी उसे तरह तरह के फ्लेवर दे कर नये नये नाम दे कर टी आर पी बटोरता रहा है..कभी लॉलीपॉप बजट, कभी लोकलुभावन बजट, कभी रॉबिन हुड बजट और हाल ही सुना कि चुनाव के मद्दे नजर बजट ही जल्दी घोषित करके वोट बटोरने की जुगत जुटाते बजट को लारीलप्पा बजट बताया गया..
और जल्दी बजट घोषित करके सत्तासीन सरकार जाने क्या साबित करने की जुगत में लगी है? नोटबन्दी, कैशलेस सोसायटी, भीम, पेटीएम सब पर लाईट मंदी कर अब बजट पर रोशनी फेकने की तैयारी है चुनाव में. वैसे मेरी हैसियत अगर प्रशान्त किशोर, राजनीति विशेषज्ञ की सी होती तो मैं सरकार समझाता कि बजट जल्दी घोषित करने की बजाये बजट में क्या आने वाल है उसको लीक करते तो ज्यादा फायदा मिलता शायद..फायदा से यहाँ मतलब दुर्गति की कम दुर्गति..वरना तो आप नोटबन्दी से अपना भविष्त तय कर ही चुके हैं. इश्वर करे मेरी सोच गलत साबित हो भक्तों..मगर लगता तो यही है..
बोलना और समझाना तो हमेशा की तरह मन मर्जी का ही है, जनता तो बजट समझने से रही. बजट जल्दी घोषित करने का एक भी जायज कारण सरकार बता दे तो उस बजट को समझाने के सारे झूठ शिरोधार्य होंगे. मगर ये एकतरफा संवादी सरकार...रेडियों से मन की बात बोलने वाली सरकार..ऐसे कैसे कारण बतायेगी.. जब आज तक यह भी नहीं बताया कि हमें चुहिया चाहिये थी तो पहाड़ क्यूं खोदा नोटबंदी करके.
जैसे रहनुमा करेंगे वैसे ही उन्हें फॉलो करने वाले करेंगे...एक दिन देखा कि भिखारी भीख माँग रहा है और साहेब ने दुत्कार दिया..अभी बजट नहीं है..अगले बरस आना...
स्कीम पसंद आई..बीबी का फोन आया कि एक सोने का हार बहुत पसंद आ रहा है, ले लूँ? हमने भी कह दिया कि अगले साल ले लेना..इस साल बजट नहीं है. सीए की बीबी, भला ऐसा तर्क सुनती क्या? वो खरीद लाई और हमसे कह दिया कि बजट डिफिसिट में डाल देना यह खरीदी...
हम भला बनाये भी तो क्या बनायें घर का बजट..हमारे घर में आम जनता नहीं..सीए की बीबी और बच्चे रहते हैं!!
इनके वोट की चिन्ता न करें..ये भारत के वो संभ्रान्त वर्गीय हैं जो वोटिंग के दिन पिकनिक पर चले जाते हैं.

समीर लाल समीर
#Jugalbandi #जुगलबन्दी

सोमवार, जनवरी 23, 2017

जल्लीकट्टू और यू पी के चुनाव: दांव पर जनता


जल्लीकट्टू, तामिलनाडु में मनाया जाना वाला स्पेन जैसा बुल फाईटिंग का उत्सव, पर लगी रोक को लेकर इस मान्यता के लाखों समर्थक एकजुट होकर एक आंदोलन की शक्ल में सड़क पर उतर आये हैं. उनको एकजुट होकर उतरता देखना कई लोगों को सुनहरा अवसर सा नजर आया. श्री श्री रविशंकर और अन्य धर्म गुरुओं ने आव देखा न ताव, बस समर्थन उछाल दिया..शायद भक्तों की संख्या में वृद्धि ही उद्देश्य रहा होगा या ऊँचे लोग ऊँची पसंद की तर्ज पर कोई दूर की कौड़ी खेली हो, कौन जाने. बच रहे नेता जिन्हें इनके साथ खड़े होने में राजनितिक माईलेज मिलेगा, वो इनके साथ तुरंत खड़े हो गये और विरोध में नारा बुलंद किये हुये हैं.
समर्थक बता रहे हैं कि धार्मिक मान्यता है, इसे कोई कोर्ट कैसे रोक सकती है? भले ही ढ़ेरों लोग मर जायें इस प्रथा को जिन्दा रखने की जुगत में मगर कोर्ट की दखलन्दाजी नहीं चलेगी. जितने मूँह, उतने तर्क. कोई कहता है कि बैल को कंट्रोल कर लो तो स्वर्ग मिलता है. कोई कहता है कि कितनों की रोटी इसके इनाम से चलती है तो कोई कहता है कि बैल की विलुप्त होती खास प्रजाति के प्रति जागरुकता जगाने का यह एक महत्वपूर्ण प्रयास है ..एक ने तो हद ही कर दी जब उसने बताया कि देख्र रहे हैं न विपदायें आप?..अम्मा गुजर गईं, बाढ़ ने आ घेरा, चक्रवात ने कितनी जानें ले ली, सुनामी आया और जाने क्या क्या आ रहा होगा?
यह उत्सव होता रहेगा तो इन विपदाओं से हुये जान माल के सामने तो नगण्य सी संख्या में लोग मरेंगे और धन माल नुकसान भी न होगा. ऐसे ऐसे तर्क कि माथा पकड़ कर बैठ जाये इन्सान.
धार्मिक मान्यातायें अपनी जगह हैं मगर वक्त के साथ रितियों और कुरितियों में फर्क की समझ भी तो विकसित करना जरुरी है वरना तो आज भी सती प्रथा में स्त्रियाँ अपने पति की मृत्यु के साथ उसकी चिता पर जल रही होंती.
वैसे ऐसे नाजुक एवं भाड़काऊ समय का ठीकरा अक्सर प्रिंट और टेलीविजन मीडिया के मथ्थे आ कर फूटता है मगर इस बार ये दोनों ही पहले से सचेत होकर इसका तिलक सोशल मीडिया  में माथे लगा गये. कहा जा रहे है कि इस पूरे आंदोलन में सोशल मीडिया की विशेष भूमिका रही और उसी के चलते इसे रोके जाने के फैसले के विरोध मे इतने लोग इक्कठा हो गये.
हमें तो मालूम ही नहीं कि कैसे सोशल मीडिया पर यह जमावड़ा ऑर्गनाईज हुआ हांलाकि सोशल मीडिया  पर काफी सक्रिय हैं हम भी. मगर हो सकता है कहीं हुआ हो और हम चूक गये हों...ठीक वैसे ही जैसे प्रवासी दिवस पर जब साहेब ने घोषणा की कि मुझे सारे १००% अप्रवासी भारतीयों का समर्थन मिला नोट बंदी के लिए ..इसका मैं हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ.
न जाने किस अप्रवासी से पूछ कर यह दावा किया उन्होंने? न तो मुझे याद है कि मुझसे पूछा गया हो और मैं कम से कम तब से अब तक अपने सौ से अधिक भारतीय अप्रवासी मित्रों को फोन कर कर के पता करने की कोशिश कर चुका हूँ कि क्या तुमसे उन्होंने पूछा? सब कह रहे हैं कि क्या मजाक करते हो, वो हमसे बात करके तो देखें जो जली कटी सुनायेंगे कि पूछना भूल जायेगे? हमारे तो जो नोट हम इंडिया से साथ लाये थे वो ही डुबवा दिये..इतना तक नहीं सोचा कि यहीं एम्बेसी में एक काउन्टर खुलवा देते जमा करवाने के लिए...अब २०,००० रुपये जमा कराने भारत जायें तो १,००,००० रुपये तो आने जाने की टिकिट में लग जावेंगे...
खैर जुमलेबाजी तो उनकी आदत है..उनके हिसाब से सोचें तो सारा भारत ही उनके नोट बन्दी के समर्थन में है..चाहे बंदा एटीएम की लाईन में लगकर मर ही क्यूं न गया हो..
वैसे इस जल्लीकट्टू का तो जो अंजाम होगा सो होगा..मगर अब हमें इन्तजार है उस बुल फाईट का, जो स्पेन की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में खेला जाने वाला है..
एक ओर चौड़े सीने वाला समर्थ बुल याने खालिस सांड...सर्वगुण एवं सर्व सामर्थय संपन्न...और उसके सामने उसे रोकने वाले...एक जुट हुए अनुभवी..गैर अनुभवी..अर्ध अनुभवी योद्धा... बुल फाईटर्स !! अब यह सामर्थ्यवान सांड यूपी की सड़कों पर उतरेगा...रोकने वाले अपने सामर्थय के अनुसार उसे रोकेंगे..मारेंगे...सांड अपने सिंग से निशाना साधता, कभी नोट को अमान्य घोषित करता और कभी योद्धा के खेमे में फूट डाल उनका चुनाव चिन्ह तक सांसत में डालता, जोर जोर से फुफकारता...उन्हें परास्त करने की जुगत में...कहीं तमाशबीनों को रौंदते हुए एक नया बखेडा ही न खड़ा कर दे...
कितने तमाशबीन अबके इस यूपी की बुल फाईट में मारे जायेंगे..और कितना यह योद्धा रोक पायेंगे और कितना ये सांड़ दौड़ पायेगा..जल्द आने वाला समय बतायेगा..
तय मानिये... भारत किस दिशा में जायेगा..इसका यह निर्णायक पल होगा..कोर्ट इस बुल फाईट में दखल नहीं देता...यह धार्मिक नहीं, राजनितिक मान्यता है.
सोशल मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया अपने हिसाब से मीडिया मीडिया खेलेंगे और भुगतेगा यह देश और आमजन!! चाहे बुल जीते या बुल फाईटर!!

-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के सुबह सवेरे में प्रकाशित
http://epaper.subahsavere.news/c/16317390

शनिवार, जनवरी 21, 2017

बदलाव का डीएनए


परिवर्तन संसार का नियम है. जो कल था वो आज नहीं है और जो आज है, वो कल नहीं रहेगा. नित बदलाव ही जीवन है. जो भी इस बदलाव की आँधी से कदमताल नहीं मिला पायेगा वो बहुत पीछे छूट जायेगा और कालांतर में भूला दिया जायेगा.
इसे ऐसे समझिये जैसे कि नवम्बर और दिसम्बर माह में आपने खुद को और लोगों को नोट बदलते देखा था. जिसने इसके साथ वक्त पर कदम ताल नहीं मिलाई वो अब पुराने नोट धरे बैठा है और कालांतर में इनकी रईसी को लोग भूल जायेंगे.
बदलाव की बयार अलग अलग क्षेत्र के हिसाब से अलग अलग होती है मगर होती जरुर है.
नोटों के बदलाव की बयार थमीं भी न थी कि चुनाव के मौसम के आने की दस्तक के साथ आस्था और मित्रता के बदलाव की बयार बह निकली. परिवार टूटने जुड़ने लगे, रिश्ते बदलने लगे, मित्र बदलने लगे. एक दूसरे के प्रति आस्थायें बदलीं. कोई इधर झुका था वो बदल कर उधर झुक गया. कोई उधर झुला था वो इधर झुक गया. उस दल वाले इस दल में चले आये तो इस दल के कुछ बदल कर उस दल में चले गये.
कुछ तो दल बदलने के बजाये दल के दलदल में पूरा दल ही धँसाये चले जा रहे हैं. पूरा का पूरा दल कभी इसके साथ तो कभी उसके साथ दिल्लगी कर रहा है. दल न भी बदला हो तो दिल बदल लिया. जो दल कल तक उस दल के साथ गलबहियाँ कर रहा था वो आज इस दल के साथ कर रहा है. इसे गठबंधन कह कर पुकार रहा है. है तो बदलाव ही. जो अपने दल को कभी दल नहीं जीवन शैली कहते थे वो वोंटों की थैली का वजन तौल रहे हैं और जो इसे विचार धारा मान कर चलते थे, उनके विचार कहीं ताक पर धरे रह गये हैं. सबका उद्देश्य मात्र इतना ही कि सत्ता कबजिया लें किसी भी तरह से. दलबदली, दिलबदली सब जायज है सत्ता के सियासी खेल में.
इसी बीच दिल्लगी का त्यौहार वेलेन्टाईन डे भी पड़ जायेगा. इस मौसम का फायदा उठाते हुए लाखों दिल बदलेंगे, और लाखों दिल लग लेंगे. यूँ तो प्रेम में दिल लगाना, बदलना, टूटना सालों साल फुटकर में यहाँ वहाँ चलता ही रहता है मगर वेलेन्टाईन डे इसी का एक मेला जैसा स्वरुप है जहाँ महा सेल सा होल सेल में दिल लगने, टूटने कौर बदलने का कारोबार होता है, ठीक वैसे ही जैसे दलबदल और दिलबदल की राजनितिक प्रक्रिया यूँ तो नित खुदरा तौर पर चलती रहती है मगर चुनाव के उत्सव के दौरान होल सेल में यही खेला देखना नित नये अनुमानों को जन्म देता है.
जिसका सत्ता में आना कल तक तय माना जा रहा था, आज, इसी दलबदल और दिलबदल के चलते, शंका के दायरे में खड़ा है और शायद कल एक नया दिल लगे, एक नया दलबदल हो और फिर कोई नया अनुमान सत्ता पर काबिज होता दिखे.
सियासी खिलाड़ियों से इतर आम जनता तमाशबीन बनी बदलाव की इन कहानियों को नित बदलता देखती रहेगी बस इस आशा में कि शायद उनकी किस्मत भी बदले..कभी इस बदलाव की बयार में...
मगर आम जनता का डीएनए, विकासशील संसार के डीएनए से कभी मैच करता ही नहीं..और हाय रे उसकी किस्मत, बदलती तो है मगर बस दुर्गति की गति!!
ये वैसा ही बदलता शाईनिंग इंडिया है जो आठ बड़े शहरों की जगमग से निर्धारित होता है वरना तो आज भी न जाने कितने शहर नित सड़कों को गहरे से और गहरे गढ्ढों में परिवर्तित होते देखने के लिए अभिशप्त है.

-समीर लाल समीर’ 
#Jugalbandi #जुगलबन्दी