शाम को जब जिम जाता हूँ तो
चैक इन करते वक्त वो दो तौलिया देते हैं.
एक तौलिये का इस्तेमाल तो
वर्क आऊट करते वक्त पसीना पौछने के लिए और दूसरा, जब वर्क आउट पूरा हो जाये तो लपेट कर सौना (९० डिग्री सेल्सियस पर तपते कमरे में बैठ कर पसीना निकालने
की विधी) में जाकर पसीना बहाने और
फिर शॉवर में नहा कर बदन सुखाने के लिए.
सौना में जाना मुझे वैसा ही
लगता है जैसे हर वक्त एसी कमरों
में रहने वाले नेताओं का किसी गरीब दलित के घर जाकर एक रात बिता कर उनकी समस्याओं
को अहसासना. उनका वो खाना साथ में खा लेना
जो कि नेताओं के उपभोग के लिए लैब से स्वीकृति प्राप्त हो. जेड सिक्यूरीटी वाले कुछ भी थोड़े न खा सकते हैं. ऐसे परिवेश में जहाँ आपका दिन भर का काम और माहौल आपको एक
रत्ती पसीना न बहाने दे, तब श्वेद ग्रंथी पड़े पड़े बंद न हो जाये इस हेतु आप सौना
में जाकर पसीना बहाते हैं. कुछ तो फायदा होता ही होगा
और उससे ज्यादा मानसिक संतोष की प्राप्ति होती है. सौना में बैठा हर व्यक्ति चेहरे पर ऐसे भाव रखता है मानो वो
जाने कहाँ की मेहनत कर रहा हो और पसीना बहा रहा हो. ठीक वैसा ही भाव जो इन नेताओं के चेहरे पर होता है किसी दलित
के घर रात बिता कर निकलते हुए मीडिया के सामने आते हुए.
अक्सर अचरज में पड़ जाता हूँ
जिम द्वारा प्रद्दत इन तौलियों का साईज देख कर. लम्बाई टोटल ३८ से ४० इन्च. अब जब कोई बंदा जिम आ रहा है तो ठीक ठाक साईज का या ज्यादा
साईज का ही होगा जो अपना साईज कम करने में लगा होगा. जिम किसी टी बी का मरीज के लिए टी बी रीहेबीलिटेशन सेन्टर तो
है नहीं कि जो आयेगा २२ -२६ कमर वाला दुबला पतला ही
होगा. ऐसे में ये तौलिये, न बाँधने में न सम्भालने में. हम जैसे लोगों के लिए, जो
जिम की आबादी का ८०% है...उनकी हालत इन तौलियों को लेकर यूँ समझें कि सामने ढ़ाकें
तो पिछवाड़ा खुला और पिछवाड़ा ढ़ाके तो सामने खुला. पिक एन्ड चूज़...तो कोशिश होती है
कि ऐसा कुछ हो जाये कि साईड खुली रहे. थोड़ा खुला थोड़ा ढका..मानो मल्लिका शेहरावत
कपड़े से कह रही हो कि थोडा और छोड़ो न..कितना ढँक देगो..कुछ तो दिखने दो और कपड़ा है
कि अपने सामर्थ के अनुरुप ढंक देने को बेताब!!
फिर सोचता हूँ कि ये कोई
सरकारी योजना है क्या? दे भी दी और मिली भी नहीं. मिली भी तो पूरी नहीं.
मगर तब सौना में देखा कि
कुछ रईसजादे अपनी अलग ही सोच रखते हैं...वो वाकई इन तौलियों को रुमाल समझ कर गले
में टांग लेते हैं और मात्र पसीना पौंछने को इस्तेमाल करते हैं..शरीर ढ़ंकने को
उनके पास अपनी मँहगी बाथ रोब होती है लम्बे तौलिये नुमा...उनके लिए जिम का तौलिया
मात्र एक शिगुफा है..पसीना पौंछो और धुलने फैंको!! पसीना बहाने आये हैं या बाथ रोब
का रौब दिखाने, समझ ही नहीं आता.
इन्हें देख कर लगता है मानो
साहेब सूट बूट पहन कर अपनी बी एम डब्लु से उतरे हों... और लगे झाडू उठा कर स्वच्छता
अभियान चलाने... उन्हें देख कर, कचरा खुद घबरा कर दौड़ पड़ता है कचरा दान की तरफ..कि
हे प्रभु..आप यहां कैसे?..शर्मिन्दा करेंगे क्या? हम खुद ही चले जाते हैं कचरा पेटी
में..
मगर सौना में ज्यादा आबादी
उन लोगों की होती है जो इन तौलियों को कंधे पर टांगे यूँ ही बिना कुछ पहने आ बैठते
हैं..मानों देश की आम जनता की हालत इस कहावत से बयाँ कर रहे हों:
’नंगा क्या नहाये और क्या
निचोड़े’
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के दैनिक सुबह सवेरे में प्रकाशित: http://epaper.subahsavere.news/c/15447150
बहुत खूब :)
जवाब देंहटाएंमज़ेदार !
जवाब देंहटाएंबढ़िया सामयिक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंWaah !
जवाब देंहटाएंवाह , क्या बात है । बढ़िया व्यंग्य ।
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