मंगलवार, फ़रवरी 21, 2012

साहित्य में संतई की राह...

मेरे मनोभावों का अनवरत अथक प्रवाह बना रहता है. और फ़िर शुरू हो जाती है एक खोज - एक प्रयास - उन्हें बेहतरीन शब्दों का जामा पहनाने की. उन्हें कुछ इस तरह कागज पर उतार देने की चाहत कि पढ़ने वाला हर पाठक खो जाये उसमें- डूब जाये उसमें.

शब्दों की तलाश में एक भटकन, शुद्ध व्याकरण देने की एक चाह और कुछ ऐसा गढ़ जाने की उत्कंठा कि मानो एक ऐसा कुछ लिख और रच जाये, जिसे लोग उत्कृष्ट साहित्य का दर्जा दें.

अंतहीन तलाश-शत-प्रतिशत दे देने की चाह में एक अजीब सी एक कसमसाहट और उठा लेता हूँ एक बीड़ा कि कुछ और पढ़ूँ- कुछ नया पढ़ूँ तो शायद राह मिले.

इसी मशक्कत में कुछ आलेखों से गुजरता हूँ, कुछ गज़लें पढ़ता हूँ, कुछ कवितायें गुनगुनाते हुए बाँचता हूँ, कुछ कहानियों में डूब जाता हूँ और पाता हूँ- अरे, ऐसा ही तो कुछ मैं कहना चाहता था, जिनके लिए मुझे शब्दों की तलाश थी. वही सब तो है यह. शायद मेरी सोच ही विचार तरंगों में बदल हवा में बह निकली होगी और न जाने कितनों ने उसे पकड़ा होगा. कुछ उसे शब्द रुप दे गये और मैं- भटकता रहा उस शत प्रतिशत उम्दा दे जाने की मृगतृष्णा को गले लगाये.

इस दौर में समझ पाया कि जरुरत है कह जाने की. जरुरत है पढ़ जाने की. जरुरत है अपने शब्द कोष को इतना समृद्ध बनाने की कि भटकन सीमित हो. कुछ बेहतर रचा जा सके. कोई जरुरी नहीं कि दुनिया की नजरों में शत प्रतिशत हो. मेरी अपनी नजरों में अपनी काबिलियत के अनुसार जरुर शत प्रतिशत खरा उतरे. कम से कम अपनी काबिलियत का इस्तेमाल करने में काहिलियत को कोई स्थान न दूँ. आलस्य को अपने आस पास न फटकने दूँ.

शब्द कोष भी नित समृद्ध होता जाये ऐसा प्रयास करुँ- यह कोई वस्तु तो है नहीं कि एक दिन में क्रय कर खजाना भर जाए... प्रयास, पठन, कुछ नया सीख लेने की ललक इस दौलत को शनैः शनैः जमा करने की कुँजी है. फिर जितना उपयोग करुँगा, उतना ही समृद्ध होती चलेगी यह दौलत और उतना ही भरता जायेगा यह खजाना.

शायद यही इस खजाने को अर्थ (रुपये-पैसे) से अलग भलाई और मानवता के समकक्ष लाकर खड़ा करता है. जानना होगा मुझे. उठानी होगी पुनः अपनी कलम. थामनी ही होगी कुछ नई पुस्तकें पठन हेतु और नित नया कुछ जोड़ना होगा इस खजाने में. सिर्फ जोड़ देना ही काफी न होकर उसे जाहिर भी करते रहना होगा अपने लेखन के माध्यम से. फिर वो कथा हो, कहानी हो, गज़ल हो या काव्य. विधा कोई सी भी हो, होती तो भावों की अभिव्यक्ति ही.

ऐसा नहीं कि मेरे पास शब्द न थे मगर बेहतर शब्दों की तलाश में भटकता रहा और लोग रचते चले गये. मेरे भाव किसी और की कलम से शब्द पा गये. मेरे विचार, मेरे भाव मेरे न होकर उस कलमकार के हो गये, जो उन्हें शब्द दे गया. वही मौलिक रचयिता कहलायेगा. भाव किसी की जागीर नहीं. एक से भाव एक ही समय में कई दिलों में उगते है. अब कौन उसे उकेर दे- कौन उन्हें अमल में ले आये- बस, उसी की कीमत है. और फिर एक से ही भाव जब अलग अलग तरफ, अलग अलग दिलों में एक साथ उठते और शब्द पाते हैं तब भी जुदा शैलियाँ उन्हें जुदा रखने में सफल रहती है. उनकी मौलिकता बनाये रखती हैं.

मैं डरता हूँ शायद अपनी काबिलियत पर मुझे भरोसा नहीं- ठीक उन्हीं साधु सन्तों सा जो जिन्दगी क्या है-इसकी तलाश में जिन्दगी को सही तरीके से जीने को छोड़- उससे जूझने की कला को तिलांजली दे जंगल जंगल भटकते हैं इस प्रश्न की तलाश में- जिन्दगी क्या है? ये आत्म हत्या जैसा ही प्रयास है- डर कर भाग जाने का. इस बीच न जाने कितनी जिन्दगियाँ अपनी अपनी तरह जिन्दगी जी कर गुजर जाती हैं. शायद पुनर्जन्म में विश्वास करें तो पुनः जीने चली आती हैं और उन साधु सन्तों की भटकन जारी रहती है- एक उथली सी समझाईश भी देने को तत्पर कि जिन्दगी क्या है? कैसे उचित जीवन जिएँ? क्या वो उचित जीवन जी पाये या अंततः वो भी उसी मोह माया के चुँगल में आ जकड़े.

बस रुप बदला- बन गये सन्त बनिस्बत कि एक आम जिन्दगी से जूझता आदमी. क्या अन्तर रह गया उनमें और एक भ्रष्ट्राचारी नेता, एक व्यापारी, और जाने कितने ऐसे आश्रमों में-एक निकृष्ट व्याभिचारी में.

साहित्य के क्षेत्र में भी जाने कितने ही ऐसे सन्त हैं जो अपना अपना मठ खोले बैठे हैं. उनके भीतर के लेखक को तो जाने कब का मार दिया है उन्होंने खुद ही. अब मात्र प्रवचन बच रहा है कि ऐसा लिखा जा रहा है, वैसा लिखा जा रहा है. साहित्य का स्तर गिरता जा रहा है आदि आदि. सन्त का दर्जा जो न बुलवा दे सो कम. बस, लिखना त्याग दिया है कि कोई उनका आंकलन न कर डाले.

ऐसे सन्त तो कायर कहलाये, एक भयभीत व्यक्तित्व, एक भगोड़ा.

नहीं, मैं ऐसा सन्त होना नहीं चाहता. मेरे भीतर का लेखक आत्म हत्या नहीं कर सकता- यह कायरता है. बदलना होगा मुझे. भटकन और तलाश की बजाय एक सजग प्रयास करना होगा अपने शब्दकोष को समृद्ध करने का- अपनी लेखनी को मजबूत करने का- समय रहते.

इसी भटकन में, पंकज सुबीर जी के तरही मुशायरे के लिए लिखी गज़ल जब तक तैयार हुई- मुशायरा खत्म हो चुका था और मैं भटकता हुआ जब तक अपना कलाम हाजिर करता- कुछ शेष न बचा था. अतः सोचा, आज यहीं से सुनाता चलूँ.

old tree

तरही मुशायरे का मिसरा था:

“इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में”

इसी मिसरे को लेकर इस बहर में पूरी गज़ल लिखना था. शायद, अब तैयार है. आदरणीय प्राण शर्मा जी का विशिष्ट आशीष इस गज़ल को प्राप्त हुआ है- अब आप तय करें:

शुक्र है के वो निशानी है अभी तक गाँव में

इक पुराना पेड़ बाकी है अभी तक गाँव में

गाड़ी,बंगला,शान-ओ-शौकत माना के हासिल नहीं

पर बड़ों की हर निशानी है अभी तक गाँव में

भोर,संध्या,सांझ हो, या हो वो रातों का सफ़र

खुल हवायें गुनगुनाती हैं अभी तक गाँव में

हर जवानी भाग निकली है नगर की राह पर

राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में

सादगी ही सादगी है जिस तरफ भी देखिए

सादगी की आबदारी* है अभी तक गाँव में

साथ मेरे जाता तो ए काश तू भी देखता

निष्कपट सी जिंदगानी है अभी तक गाँव में

छोड़ कर तू जा रहा है ए ` समीर ` इतना तो जान

रोटी - सब्ज़ी , दाना - पानी है अभी तक गाँव में

 

*आबदारी – चमक

-समीर लाल ’समीर’

55 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल हमारी बातें कह गयें, हम भी तो यही लिखना चाहते थे बस शब्द नहीं मिल रहे थे, हम भी आजकल शब्दों की तलाश में किताबों में गुम हैं ।

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  2. सुख की बदली कभी न बरसी,
    दुख संताप बहुत झेले हैं।
    जीवन की आपाधापी में,
    झंझावात बहुत फैले हैं।।
    --
    यही तो जीवन है!

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  3. जितनी लिखने की जरूरत होती है उससे कहीं अधिक जरूरत हिती है पहले पढ़ा जाये और समझा जाये. इसके बाद जरूरत पूरी करने के लिये ना लिखकर लिखने की जरूरत को जरूरत मानने की जरूरत होनी चाहिये.

    प्रश्न है ---?

    सुबह हो या दोपहर हो या भले ही शाम हो

    साफ़ - सुथरी वायु बहती है अभी तक गाँव में

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  4. ...शायद बुजुर्ग से आशय रहा हो... ये भी हो सकता है

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  5. आपकी बात से में शत् प्रतिशत् सहमत हूँ ... बेहतर लिखने की चाह में मैं भी शब्द व्याकरण पर सिमित हो जाती हूँ ...कई कई रचनाएं लिखी कहानियां लिखी पर पोस्ट कहीं नहीं की और कविताओं में लिखे वो भाव जो मैंने पोस्ट नहीं किये मेरे ब्लॉग के ड्राफ्ट में पड़े रहे वह भाव बाद में कही और पोस्ट दिखे फिर लगा कि अब इस रचना को पोस्ट करना सही नहीं... ऐसा होता है....किन्तु आप अपनी भावनाओं को कुछ इस तरह लिखते हैं कि पढ़ने वाला पूरा पढता है क्यूंकि रुचिकर होता ही... और आपकी गज़ल वहाँ के लिए नहीं पर यहाँ के लिए ही थी ...बहुत सुन्दर गज़ल और भाव

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  6. शब्दों के असल मायने ,मिल रहे हैं गाँव में ,
    इंसानियत औ रूमानियत भी बची है गाँव में !!

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  7. बेचैनी ही नए क्षितिजों की तलाश का जजबा जगाती है। जिस मन में बेचैनी नहीं, वह मुर्दा है। लिखनेवाला कोई भी हो, कैसा भी हो - बेचैनी ही उसकी पहचान होती है। आप बेचैन हैं - यह जानकर आत्‍मीय प्रसन्‍नता हुई। आपकी बेचैनी मुझ जैसे आपके पाठकों को लाभदायक होगी। अग्रिम धन्‍यवाद।

    गजल तो अच्‍छी है ही। मुझे अपने गॉंव तक ले चली गई।

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  8. समीर जी ;

    एक शानदार और जानदार पोस्ट !!!

    ये मात्र आपकी पोस्ट ही नहीं है , बल्कि हम सभी की पोस्ट है . हम जैसे लाखो करोडो मित्रों की पोस्ट है , जो सोचते रहते है की विचारों को शब्द दे सके. और मैं ये मानता हूँ की , हर संवेदनशीन इंसान के मन में विचार निरंतर प्रावाह होते रहते है , लेकिन बहुत से कम इंसान उसे शब्दों में ढाल पाते है .

    अक्सर वही होता है , जो आपने लिखा है " और पाता हूँ- अरे, ऐसा ही तो कुछ मैं कहना चाहता था, जिनके लिए मुझे शब्दों की तलाश थी. वही सब तो है यह. शायद मेरी सोच ही विचार तरंगों में बदल हवा में बह निकली होगी और न जाने कितनों ने उसे पकड़ा होगा. कुछ उसे शब्द रुप दे गये और मैं- भटकता रहा उस शत प्रतिशत उम्दा दे जाने की मृगतृष्णा को गले लगाये."

    मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ की " इस दौर में समझ पाया कि जरुरत है कह जाने की. जरुरत है पढ़ जाने की. जरुरत है अपने शब्द कोष को इतना समृद्ध बनाने की कि भटकन सीमित हो. कुछ बेहतर रचा जा सके."

    और इसी तरह से अपने मन को शब्दों के रंगों के जरिये दुनिया के विस्तृत कैनवास पर उतार सकते है .

    आपका बहुत बहुत धन्यवाद इस पोस्ट के लिए : क्योंकि मैंने अपने आपको इस पोस्ट से relate किया है .. आपकी पोस्ट ने मुझे मेरे अपने ब्लॉग " ख्वाबो के दामन " के करीब ला दिया है , क्योंकि वो इसी तरह का एक प्रयास है . बस जो मन में आ जाए उसे तुरंत शब्द, गीत और तस्वीर के संग उतार दो.

    और हाँ , आपकी गज़ल की तारीफ के लिए शब्द नहीं है . वो एक amazing creative expression है. just Kudos .

    आपका
    विजय

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  9. जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ।
    मैं बपुरा बूड़न डरा रहा किनारे बैठ॥

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  10. समीर जी आपके लेखन की सबसे खास बात है उसमें झलकती ईमानदारी। और ईमानदारी से कही गई बात दिल को छू लेती है.. ग़ज़ल भी कहीं छूती है.. खासकर हम जैसे लोगों को जो अब भी बदलती दुनिया में पुरानी दुनिया की मासूमियत को मिस करते हैं।

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  11. مشكوور والله يعطيك العافيه




    goood thenkss

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  12. गद्य भी बढ़िया है और इसके बाद फिर जो गजल है उसने चार चाँद लगा दिए. वाह समीर जी..

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  13. आपने मेरे मन को शब्दशः और पूर्णतः व्यक्त कर दिया है, कुछ भी शेष न रहा कहने को...
    कहने और गढ़ने में अन्तर है और वह आप जैसे गढ़ने वाले ही जानते हैं।

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  14. अनुपम भाव लिए ...बेहतरीन प्रस्‍तुति।

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  15. एक से भाव एक ही समय में कई दिलों में उगते है. अब कौन उसे उकेर दे- कौन उन्हें अमल में ले आये- बस, उसी की कीमत है.

    jai baba banaras...

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  16. इसीलिए तो शब्दों का सफ़र दरअसल खुद की तलाश का सफ़र है ।
    बहुत खूब ।

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  17. अब संतै की राह पर चल पड़े हैं तो कुछ शिष्य भी बना ही लीजिएगा ...वैसे अनुगामी तो स्वयं ही बन जाते हैं ....
    गजल बहुत खूबसूरत है

    हर जवानी भाग निकली है नगर की राह पर

    राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में।
    बहुत खूब ॥

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  18. haan....abhi bhi bahut kuch hai gaaon men,bahut suder likhe.

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  19. मगर कही पढ़ा था कि लिखने वालों को बहुत ज्यादा पढना नहीं चाहिए ...दूसरों के विचार अतिक्रमण कर देते हैं !
    ग़ज़ल अच्छी लगी !
    कहते हैं आजकल गाँवों में तंगदिली अधिक हो गयी है शहरों के मुकाबले !

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  20. बहुत बहुत बहुत बहुत खूब!!!

    और गांव की बात है, कुछ तो हम भी कहेंगे,
    बिना कहे नही रहेंगे! :)
    मेरे गांव और मेरे बीच अब बहुत दूरियां हैं,
    क्या करूं! बहुत मजबूरियां हैं!

    यूं कहने को तो हर नया मित्र अच्छा लगता है,
    लेकिन गांव वाला, पीछे रह गया मेरा मित्र ही सच्चा लगता है!

    यूं तो मेरी बीबी ने बनाया हर ’फ़ास्ट फ़ूड’ मुझे भाता है,
    लेकिन गांव वाली भाभी ने बनाया तीखा अचार अब भी याद आता है!

    विकास के नाम पर पिछला छोड़ देना मेरा धर्म है,
    विकसित होते रहना ही मेरा कर्म है!!

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  21. आपकी गजल दिल को छूनेवाली है। इसके लिए बधाई। लेखन के बारे में आपके खयालात सटीक हैं लेकिन इसमें एक बात और है कि जितना आपका सामाजिक सम्‍पर्क होगा उतने ही नए विचार आपको प्राप्‍त होंगे। केवल पुस्‍तके पढ़ने से शब्‍दकोष तो अवश्‍य बढ़ता है लेकिन नवीन सम्‍वेदनाएं जागृत नहीं हो पाती। इसलिए जितना समाज के मध्‍य जाएंगे उतने ही कहानी के नए प्‍लाट मिल सकेंगे। नहीं तो पुराने की नकल भर बनकर रह गया है आज का साहित्‍य।

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  22. प्रातः स्मरणीय मैंने आपकी ग़ज़ल वहां भी पढ़ी थी और अब यहाँ भी पढ़ रहा हूँ...वहां वाह की थी और यहाँ वाह..वाह...कर रहा हूँ...दूसरी वाह आपके आलेख के लिए जिसमें आपने अपना दिल खोल कर रख डाला है...शब्द वहीँ हैं भाव वहीँ हैं जो इंसान सदियों से इस्तेमाल करता आ रहा है लेकिन जो उन्हें सही ढंग से या कहूँ अलग ढंग से प्रस्तुत करता है वाह वाह उसी को मिलती है...

    नीरज

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  23. लेखक हों तो मनोभावों का अनवरत अथक प्रवाह बना ही रहेगा .
    लेकिन पढने का समय निकालना अक्सर मुश्किल होता है . इसीलिए बहुत से लेखक अपना बौधिक विकास नहीं कर पाते . जैसे हम !

    इसलिए बैठे रहते हैं उसकी शीतल छाँव में
    इक पुराना पेड़ जो बाकी है अभी तक गाँव में

    सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आपने .

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  24. गाँव शायद अब तक ऐसा ही हो जैसा आपने कहा..
    क्या बात है. चिंतन मनन कुछ ज्यादा लंबा चल रहा है समीर जी:)..पर शब्द न मिलने की शिकायत में भी काफी कुछ कह गए आप.

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  25. Aapke lekhan me ek aisee tazagee aur sadagee hotee hai jiska mai bayan nahee kar patee!

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  26. और मेरी तरफ़ से भी-
    शहर के उस क़ुतुबख़ाने में ये अफ़साना कहां?
    आओ! नानी की कहानी है अभी तक गांव में।।
    बहुत सुन्दर वाह! बधाई!

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  27. अब आप मुशायरों में जाना शुरू कर दें भाई जान ....
    गज़ब की रचना है !

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  28. "हर जवानी भाग निकली है नगर की राह पर

    राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में"

    बहुत सुंदर

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  29. shat pratishat sach kahta hua lekh ..aur gazal bhi seedhe saade shabdon me asal baat kahti hui si...

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  30. सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आपने ...गुरदेव

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  31. गजल लाजवाब, उसके पूर्व मन की सहज व्यथा सरस अभिव्यक्त की है, शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  32. लेकिन ज्यादा टेंशन नही लेने का, जैसा है अच्छा है.:)

    रामराम.

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  33. साहित्य है ही ऐसी चीज जहां संत-महंत गंजे पड़े हैं। और यही कारण है कि साहित्य बोंसाई हो कर रह गया है।

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  34. समीर जी,..आपके लिए
    गाँव में बचपन बिताकर,आज हम चाहे जहाँ हों
    उन यादों को ताजा करने आना पडता है गाँव में,

    बहुत बढ़िया,बेहतरीन गजल,....बहुत२ बधाई

    MY NEW POST...काव्यान्जलि...आज के नेता...

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  35. आप जिस की बात करते हैं अभी इस ग़ज़ल में
    लोग उस को बस ढूंढते हैं अभी तक गाँव में

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  36. मठाधीशी का ज़माना है...साहित्य इससे अछूता कैसे रह सकता है...उत्कृष्ट लेखन के लिए शब्दकोष सीमित है...व्यक्ति का...निश्चय ही शब्द सामर्थ्य बढ़ा कर ही मनोभावों को सहज रूप से व्यक्त किया जा सकता है...खूबसूरत लेख के साथ...खूबसूरत ग़ज़ल मुफ्त...धन्यवाद...

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  37. मैं तो बस इतना कहूँगी सर जी,कौन कहता है शब्द नहीं मिलते आपको मैं तो आपकी लेखनी की पहले से ही कायल हूँ और आज आपकी यह पोस्ट पढ़ने के बाद तो मेरे और आपके अनुभव भी एक से लगे मुझे और ऐसा लगा जैसे आपने मेरे ही मन के विचारों को पन्ने पर उतार दिया... :) आपकी लिखी हर एक बात से सहमति है मेरी! धन्यवाद

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  38. भोर,संध्या,सांझ हो, या हो वो रातों का सफ़र
    खुल हवायें गुनगुनाती हैं अभी तक गाँव में


    -राकेश खण्डेलवाल जी द्वारा प्रस्तावित शेर - पुराने के बदले...अब काफिया बदस्तूर निभाह में है पूरी गज़ल में...

    आभार गुरुदेव!! नमन!!

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  39. मर्मस्पर्शी भावाभिव्यक्तियाँ (यह नया शब्द आपकी झोली को .... :) )

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  40. मेरी अपनी नजरों में अपनी काबिलियत के अनुसार जरुर शत प्रतिशत खरा उतरे. कम से कम अपनी काबिलियत का इस्तेमाल करने में काहिलियत को कोई स्थान न दूँ. आलस्य को अपने आस पास न फटकने दूँ....
    सलाम इस जज्बे को..
    और अब गज़ल..
    बहुत सुन्दर..
    खेत है खलिहान है अमराई है ..
    प्यार की मीठी छांव, बाकी है अभी तक गाँव में..

    सादर..

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  41. # खूबसूरत गज़ल. सुबीर जी के मंच पर भी पढ़ी.

    लेख के सन्दर्भ में:

    # सहित्य को दृष्टिगत रख कर विचार करे तो हमें अपनी रचनाओं में सहित्य के तकाज़ो को तो पूरा करना ही पड़ेगा.

    # यदि ब्लागिंग के मद्देनज़र सोचा जाए तो : एक आम ब्लॉगर, अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए भाषा की शुद्धता,व्याकरण आदि पर ध्यान कम ही देता है. अन्यथा वह अपने दिल की बात कहने में ही असमर्थ रहे.यह आज़ादी लेने का मौक़ा उसे 'ब्लागिन्ग' के प्लेटफोर्म पर ही मिल सका है.

    # आपका मंथन स्वयं के लिए है तो बहुत ही वाजबी है बल्कि हम सब ब्लागर्स के लिए भी पथ प्रदर्शक है. अगर हम अपना शब्द ज्ञान बढ़ाकर अपने लेखन को सँवारे तो निश्चित ही उसकी आयु अधिक रहेगी और साहित्य का हिस्सा बन जाएगी (अगर साहित्यकार होना अप्रसांगिक नहीं हो गया है तो).

    # मेरे जैसे कुछ अगंभीर प्रकृति के ब्लॉगर को जो शब्दों ही से छेड़-छाड़ कर बैठते है को कुछ बन्दिशो से मुक्त रखा जा सके तो ब्लागिंग भी साहित्य की तरह नीरस (?) होने से बच जायेगी !
    http://aatm-manthan.com

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  42. शब्दों की तलाश तो हर किसी को रहती है ... बहुत ही कमाल की संवेदनाएं लिए है ये गज़ल समीर भाई ... हर शेर जीवन के कितने करीब से उठाया हुवा है ...

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  43. हर जवानी भाग निकली है नगर की राह पर

    राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में

    कटु सत्य है यह...

    चिंतन और ग़ज़ल..दोनों बहुत ही बढ़िया

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  44. महसूस तो हम सब भी यही कर रहे थे पर शब्द नहीं मिल रहे थे कहने के लिए। परफ़ेक्ट होने का रोग बहुत बुरा है। शब्दों ,सही व्याकरण के चक्कर में मेरी तो लेखनी पर ही ताला लग गया है और मैं खोलने की कौशिश कर रही हूँ।
    आप को शब्द ढूंढने की जरूरत नहीं, मुझे लगता है मन की बात शिद्दत से कही जाए तो तकनीकी कमियों के बावजूद पाठकों तक पहुंच ही जाती है।
    बाकी आप ज्यादा अनुभवी है अभिव्यक्ति के सेनापति…:)

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  45. कोई "विजय" भारत में रहे या "समीर" कनाडा में ,
    कई बन्दे अपने जैसे जिंदा हैं अभी तक गाँव में !!

    मुझे शेर या ग़ज़ल लिखना नहीं आता , बस आपके ग़ज़ल की तारीफ में ये शेर लिख दिया है .
    आपके लेख ने बहुत कुछ करने पर फिर से आमादा किया है . दिल से शुक्रिया परम मित्र.

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  46. बहुत ही ज़ोरदार और शानदार पोस्ट और उतनी ही सुन्दर ग़ज़ल। क्या कहना है! वाह वाह!

    लेख का यह भाग बहुत कुछ कहता है और अंतस की पीड़ा बयाँ करता है :-

    “ऐसा नहीं कि मेरे पास शब्द न थे मगर बेहतर शब्दों की तलाश में भटकता रहा और लोग रचते चले गये. मेरे भाव किसी और की कलम से शब्द पा गये. मेरे विचार, मेरे भाव मेरे न होकर उस कलमकार के हो गये, जो उन्हें शब्द दे गया. वही मौलिक रचयिता कहलायेगा. भाव किसी की जागीर नहीं. एक से भाव एक ही समय में कई दिलों में उगते है. अब कौन उसे उकेर दे- कौन उन्हें अमल में ले आये- बस, उसी की कीमत है. और फिर एक से ही भाव जब अलग अलग तरफ, अलग अलग दिलों में एक साथ उठते और शब्द पाते हैं तब भी जुदा शैलियाँ उन्हें जुदा रखने में सफल रहती है. उनकी मौलिकता बनाये रखती हैं.”

    आप का साहित्य अब बुलंदी का रुख़ कर रहा है लाल साहब।
    बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ स्वीकार कीजिए अपने इस बवाल की।

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  47. एक खोज ...एक प्रयास से शुरू हुई ...शब्दों में यात्रा करती हुई घुमते घामते आ पहुंची अपने गाँव ...सुंदर कविता लिए ...ये भटकन जो न करवाए वो थोड़ा है ...!!सम्पूर्णता लिए हुए ...बहुत सुंदर पोस्ट ....

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  48. कल शनिवार , 25/02/2012 को आपकी पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .

    धन्यवाद!

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  49. कुछ उसे शब्द रुप दे गये और मैं- भटकता रहा उस शत प्रतिशत उम्दा दे जाने की मृगतृष्णा को गले लगाये.

    aisi hi sthiti se bahut se log gujratte hai aur dekho na aap hi kah gaye ye baat...

    acha laga padhkar lekh aur gazal bahut khub hai

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  50. सच है आपका भुगता हुआ हर लिखने वाला भुक्त है पर इतने सब्र के बाद कितना मीठा फल निकला है ।

    हर जवानी भाग निकली है शहर की राह पर
    राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में ।

    दर्दनाक सच्चाई ।

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  51. Samir Ji
    तरही में वहां नहीं पढ़ पाए तो यहाँ ही सही........

    हर जवानी भाग निकली है नगर की राह पर

    राह तकती माँ अभागी है अभी तक गाँव में

    वाह क्या शेर रचा है.......

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  52. Lmbi bimari ke baad aap sabko padhne ka avsar mila...Bahut hi umda gazal hai ye bahut2 badhai...

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  53. गाँव में बचपन बिताकर,आज हम चाहे जहाँ हों
    उन यादों को ताजा करने आना पडता है गाँव में,

    बहुत बढ़िया,बेहतरीन गजल,....बहुत२ बधाई

    NEW POST ...काव्यान्जलि ...होली में...

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