मंगलवार, दिसंबर 20, 2011

ये कौन मसीहा निकसा है….

anhasketch

 

एक कोशिश करता रहता हूँ
मैं बस.. मैं.. नहीं
कुछ और हो जाऊँ

उलझन उलझन तैर रहा हूँ
जाने क्या से क्या हो जाऊँ

कभी सोचता धूप बनूँ मैं
या पेड़ों की छाया हो जाऊँ..

कभी लगा कि बनूँ आसमां
या फिर धरा हरी हो जाऊँ..

लू के मैं बनूँ गरम थपेड़े
या सौंधी सौंधी नमीं माटी की हो जाऊँ...

नदिया बन झर झर बहूँ
या पहाड़ एक बुलन्द हो जाऊँ

कहानी लिखूँ, कविता रचूँ
या तुकबंदी कर कवि हो जाऊँ...

सोचा कि कोयल हो जाऊँ
या कोयल की धुन में खो जाऊँ

सीना मानिंद फौलाद रखूँ
या मोम सरीखा दिल रख कर
पर पीड़ा पर रो आऊँ...

कुछ राज दफन कर लूँ दिल में
या बिगुल बजा आह्वान करुँ

या बदलूँ इन हालातों को
और नैतिकता का सम्मान करुँ

कि भीड़ अकेला बन जाऊँ..
अनशन कर अभिमान करुँ...

फिर तुम आना और कह देना
ये कौन मसीहा निकसा है

जब दमित करें आवाज मेरी
हो मौन-फकीरा फिरता है...

यूँ याद रखेगा जग मुझको
कि आने वाली नस्लों को
मैं याद बना भयभीत करुँ
समझौता करना जीवन है..
ऐसा कानों में गीत भरुँ...

फिर कौन मसीहा जागेगा..
षड़यंत्रों के इस जाले में..
घिर करके यूँ डर जाने को....
यूँ मौन धरे मर जाने को...

-समीर लाल ’समीर’



चित्र साभार: गुगल

सोमवार, दिसंबर 12, 2011

पत्थर दिल इंसान....

झील के किनारे टहलते टहलते...तुम उठाकर थाम लेती हाथ में एक पत्थर और कुछ अलग से अंदाज में फेंकती झील के ठहरे पानी में...

पत्थर झील के पानी की सतह टकराता और डूबने की बजाये फिर उछलता...

कभी तीन तो कभी चार बार सतह पर टकराते हुए उछलते हुए अंततः डूब जाता वो पत्थर उस झील की गहराई में निराश हो कर.

तुम्हें देखकर मैं भी कोशिश करता पत्थर फेंकने की, तो ऐसा लगता कि मानो पत्थर ही खुश हो गया हो मेरा हाथ छुड़ा कर..मेरा साथ छोड़ कर...दूर जाकर गिरता पानी में...और डूब जाता गहराई में फिर कभी न दिखने को. उसमें कोई उत्साह नहीं मुझे फिर से उछलकर देखने का और न डूबने से बचने की कोशिश ,न कोई अभिलाषा कि फिर से थाम लूँ मैं शायद उसे.

तुम खिलखिला कर हँस पड़ती और मैं अपनी झेंप में एक और पत्थर उछालता पानी में- मगर होना क्या था. हर बार वही- उसका दूर जाकर पानी में डूब जाना बिना उछले.

StonesThrow (1)

सोचता हूँ वैसे ही जब साथ छोड़ा तुमने मेरा और उछाल फेंका मुझे गम और तनहाई के इस अथाह सागर में..आज तक एक अनजान उम्मीद को थामें..सतह से टकराता और उछलता बस चला जा रहा हूँ मैं..डूब नहीं पाया निराश हो कर....यादों की धड़कन की धुन आशा बन कर एक सुर लहरी सी सुनाई देती है..और एक बार फिर सतह से कुछ ऊपर उछल कर आगे बढ़ जाता हूँ मैं...एक अभिलाषा बाकी है अभी कि शायद फिर साथ मिलेगा तुम्हारा और तुम फिर थाम लोगी हाथों में अपने मेरा हाथ.

याद करता हूँ अपनी ही लिखी बात:

पत्थरों में
नहीं होता है दिल...
हाँ!!
पत्थर दिल इंसान
और
उनका वजूद
दिख जाता है अक्सर ही
आस पास
अपने!!

-समीर लाल 'समीर'

मंगलवार, दिसंबर 06, 2011

जिंदा कविता!!

एक गुलाब भेजता हूँ तुमको.

मैं तो हो नहीं सकता तुम्हारे आस पास. न तो ऐसा दस्तूर है जमाने का और न हीं मौका. कौन इसे सही मानेगा- तुम भी नहीं मानोगी कि मैं तुम्हारे आस पास आऊँ भी.

ये गुलाब देखेगा तुमको.

अभी तो खुशबू है इसमें बाकी- फिर सूख जायेगा जल्दी ही मगर मेरी कविता.... जो भेज रहा हूँ साथ...पढ़ लेना वक्त निकाल कर... तब...ये भर देगी हर बार एक ताज़गी भरी खुशबू उस गुलाब में- हर बार- तुम्हारा दिन एक खुशबूदार दिन बनाने के लिए...

इतना हक तो है मुझे कि तुम्हें खुश देख सकूँ और अहसासूँ तुम्हारी खुशिया!..कुछ पल को ही सही- खुश हो जाने के लिए!!!

मै खुद टूटा हुआ हूँ- न जाने कब तक- कितनी देर में- मुरझा जाऊँगा..मगर यह कविता- यह सनद रहेगी और हर वक्त काम आयेगी...तुम्हारे!!

इसलिए तो नाम दिया है इसे: ’जिंदा कविता’

बस शीर्षक ही तो लिखा है कविता के नाम पर- बाकी तो मौन की भाषा- इसे हर मोहब्बत करने वाला पढ़ पायेगा- तुमने भी तो एक दफा की थी बेइंतिहा मोहब्बत मुझसे...तुम पक्का पढ़ लोगी-

बताना कैसी लगी यह कविता!!!

जो न पढ़ पाये- उसे तुम वैसा ही मूँह बना कर चिढ़ाना- जैसा मुझे कहते वक्त बनाती थी-’दीवाने, इतना भी नहीं जानते??’

मोह लेती थी मुझे तुम्हारी वो अदा!!

sam

कविता:

’जिंदा कविता’

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( कि मैं जब कुछ नहीं लिखता
और सोचता हूँ तुमको...
तो लिख जाती है
ऐसी न जाने कितनी
कवितायें...
जिनमें शब्द नहीं होते
मगर
जो मैं लिखता हूँ अनलिखी ईबारत
बस तुम
पढ़ पाती हो उन्हें...

गुनगुनाते हैं उसे...
हर वो लब....

जो जानते हैं...

मोहब्बत तो बस एक...
अहसासों की कहानी हैं....

किसी दीवाने के लिए
ये नई है....
तो किसी के लिए...
ये पुरानी है....

-समीर लाल ’समीर’

रविवार, दिसंबर 04, 2011

स्नेह का दूसरा नाम- महावीर शर्मा

महावीर शर्मा जी, एक युग पुरुष, की पुण्य तिथि पर उनके ब्लॉग पर प्रकाशित मेरा संस्मरण (मात्र एक जगह संकलित करने के प्रयास में पुनर्प्रकाशित):

mahaveer

’आपके भाव बहुत प्रभावित करते हैं किन्तु यदि आप गज़ल के व्याकरण पर थोड़ा सा काम कर लें तो आपकी रचनायें गज़ल के रुप और बेहतर प्रभाव छोड़ेंगी. कृप्या अन्यथा न लें. आपसे मिला तो कभी नहीं किन्तु न जाने क्यूँ आपसे एक अपनापन सा लगता है, इसलिए कह गया.’

यह था महावीर जी से पहला परिचय सन २००५ में याहू ग्रुप के ईकविता मंच के द्वारा. नया नया शौक जागा था कविता कहने का. हर विधा में बिना व्याकरण जाने कुछ प्रायस करते रहने का नया शौक. ऐसे वक्त में गज़ल के महाज्ञाता और वरिष्ट का ऐसा आशीष पाकर धन्य हुआ. तुरंत ही जबाब दिया, आभार प्रदर्शन किया और निवेदन किया कि आप अपना फोन नम्बर दें तो चर्चा हो.

हालांकि उन दिनों वो कुछ अस्वस्थ थे किन्तु तुरंत ही जबाब आ गया. न सिर्फ फोन नम्बर बल्कि मेरी एक रचना को गज़ल में परिवर्तित कर उस पर तख्ति कैसे की और सरल शब्दों में उसके व्याकरण का ज्ञान देते हुए. मैं धन्य महसूस कर रहा था और बस, फोन पर चर्चाओं का सिलसिला शुरु हुआ.

पितृतुल्य स्नेह मिला. बात करने में इतने सहज, सौम्य और सरल कि कभी यह अहसास ही नहीं हुआ कि उनसे कभी मुलाकात नहीं है. शीघ्र ही उन्होंने अपने स्नेह से मुझे उस अधिकार का पात्र बना दिया कि जब कुछ ख्याल आते, उन्हें गज़ल की शक्ल में लिख उनके पास भेज देता. कभी इन्तजार नहीं करना पड़ा. तुरंत जबाब आता कि इस पंक्ति को ऐसा कह कर देखो और उस पर मात्राओं का ज्ञान, तख्ति निकालना आदि लगातार चलता रहा.

इस पूरी प्रक्रिया में उन्होंने न तो कभी अपने लगातार गिरते स्वास्थय का अहसास होने दिया और न ही कभी इसके चलते जबाब और सलाह देने में देर की. लगता जैसे ऊँगली पकड़ कर चलना सिखा रहे हैं. उन्हीं के माध्यम से प्राण शर्मा जी जैसे महारथी और गज़ल के सिद्धहस्त से परिचय प्राप्त हुआ और उनसे भी वही अपार स्नेह पा रहा हूँ. कई बार खुद के इतने भाग्यशाली होने पर घमंड में भी आ जाता हूँ और आज प्राण जी हमेशा मेरे पक्ष में ढाल बन कर खड़े नजर आते हैं.

बीच में लन्दन जाना भी हुआ मात्र एक दिन के लिए. महावीर जी से फोन पर चर्चा हुई. उनकी तबीयत कुछ ज्यादा खराब थी उस वक्त और वह अस्पताल ही जा रहे थे. समयाभाव में उस दिन मिलना नहीं हो पाया और उसी दिन मुझे टोरंटो वापस आना था.

वापस आकर जब उनसे फोन पर बात हुई तो जिस तरह से वह भावुक हो उठे कि मैं भी अपने आंसू न रोक पाया. सोचने लगा कि यदि एक दिन और रुक जाता तो शायद मुलाकात हो जाती. मन बना लिया था कि अगली यात्रा में और कुछ हो न हो, महावीर जी से जरुर मुलाकात करुँगा.

इस बीच उनके कहानी वाले ब्लॉग पर मेरी लघुकथा छापी. बिखरे मोती की रिपोर्टों और मेरे अभियान ’धरा बचाओ, पेड़ लगाओ’ के लिंक भी उन्होंने अपने ब्लॉग पर लगा कर सम्मान दिया. फिर एक दिन उनका ही फोन आया कि अपनी गज़लें भेजो, महावीर ब्लॉग पर छापना है. अच्छा लगेगा.

मैं क्या जानता था कि यह अंतिम वार्तालाप है. उन्होंने मेरी दो गज़लें छापी और वही उनके जीते जी उनके महावीर ब्लॉग की आखिरी प्रविष्टियाँ बन गई.

’वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है’ - एक दिन खबर आई कि महावीर जी नहीं रहे. मैं स्तब्ध!! बार बार महावीर ब्लॉग खोलता और सामने होती उनकी अंतिम प्रविष्टी- मेरी दो गज़ले जिन्हें उनके साथ साथ प्राण जी आशीष भी प्राप्त था. जब भी नजर पड़ती, महावीर जी के स्वर कानों में पड़ते कि बहुत बढ़िया लिख रहे हो, लिखते रहो.

आज महावीर जी नहीं है. इस दफा जब लंदन पहुँचा तो याद आया कि बिना महावीर जी मिले न जाने का वादा था, अब वो कैसे पूरा होगा. एक कशिश लिए भारी मन से लंदन से वापस लौट गया.

आज भी जब कुछ लिखता हूँ तो महावीर जी बरबस साथ होने का अहसास जगाते नजर आते हैं सुधरवाते हुए- व्याकरण सिखाते हुए.

दीपक ने जब इस ब्लॉग को पुनः आरम्भ करने का बीड़ा उठाया तो दिल भर आया. इस पुण्य कार्य के लिए दीपक को साधुवाद. प्राण जी भी इस अभियान में अपना वरद हस्त बनाये हैं, उनको भी प्रणाम एवं साधुवाद.

महावीर जी अश्रुपूरित श्रद्धांजलि. मुझे मालूम है कि आज भी जब भी कुछ लिखता हूँ, वो उस पर अपनी नजर बनाये हैं. आप बहुत याद आते हैं महावीर जी.  

-समीर लाल ’समीर’