नोट: राजस्थान पत्रिका के १३ मार्च के अंक में कुछ काट-छांट के बाद प्रकाशित मेरा आलेख. यह आलेख सूचनार्थ ’अपनी माटी वेब पत्रिका’ द्वारा भी छापा गया.
नित बहस जारी है साहित्य/ किताब/ पत्रिकायें/चिट्ठा/ अन्तर्जाल. जाने क्या सिद्ध किये जाने की पुरजोर कोशिश. कौन बेहतर, कौन आगे और कौन बाजी जीतेगा.
अभी बहुत समय नहीं बीता है जब आदरणीय श्रीलाल शुक्ल जी की कालजयी पुस्तक ’राग दरबारी’ को नेट पर एक ब्लॉग के माध्यम से लाये जाने का प्रयास किया गया था. इस हेतु आदरणीय़ श्रीलाल शुक्ल जी ने मौखिक स्वीकृति भी दे दी थी. निश्चित ही यह स्वीकृति देते वक्त उनके मन में एक चिट्ठाकार कहलाने का लोभ तो नहीं ही रहा होगा. अगर कोई मंशा होगी तो मात्र इतनी कि इस कालजयी रचना को और अधिक लोग पढ़ें. यूँ भी बिना नेट पर आये उसे पढ़ने वालो की कोई कमी नहीं है फिर भी. उस दौर में मैने भी राग दरबारी को नेट पर लाने के इस अभियान में इसके टंकण में सहयोग कर यथा संभव योगदान किया था और भाई अनूप शुक्ल जी, जो कि इस अभियान के सूत्रधार थे, ने अपनी बात कहते हुए स्पष्ट किया था कि ’किताब नेट पर पूरी उपलब्ध होने पर भी खरीदने वाले इसे खरीदकर पढ़ेंगे ही। इसके नेट पर उपलब्ध होने पर इसकी बिक्री में इजाफ़ा ही होगा, कमी नहीं आयेगी।’
उस दौर में जब हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का ज़ज्बा लिए मात्र मुट्ठीभर १२५ चिट्ठाकार सक्रिय थे और आज भी, जब यह संख्या ३०००० पार कर चुकी है, एक कोशिश हमेशा होती है कि जो साहित्य किताबों में उपलब्ध है या बंद है, उसे अन्तर्जाल पर लाया जाये और एक ऐसे माध्यम पर दर्ज कर दिया जाये जो सर्व सुलभ है और दीर्घजीवी है. विभिन्न आयोजनों के दौरान चाहे फिर वो इलाहाबाद या वर्धा का हिन्दी विश्वविद्यालय का ब्लॉग सम्मेलन रहा हो या अन्य कोई, सभी में प्रख्यात साहित्यकारों को अन्तर्जाल से जोड़ने के प्रयास हुए हैं और यह प्रयास सर्वविदित भी हैं और सर्वमान्य भी. मैने स्वयं भी कितने ही सेमिनारों ,गोष्ठियों और सम्मेलनो के माध्यम से जाने कितने ख्याति लब्ध साहित्यकरों से अन्तर्जाल पर आने का निवेदन किया है और यहाँ तक पेशकश की है कि अगर उम्र के इस पड़ाव में वो नई तकनीक सीखने में असहज महसुस करते हों तो हमें अनुमति दें ताकि हम उनकी रचनायें अन्तर्जाल के माध्यम से सुलभ करायें.
कुछ स्वभाविक उम्रजनित, अक्षमताओं जनित एवं अहमजनित विरोध भी अन्तर्जाल की ओर आने की दिशा में रहा है मगर वह तो हर परिवर्तन का स्वभाव है और वो पीढ़ी विशेष के प्रस्थान के साथ ही प्रस्थित होगा. उसका कोई विशेष प्रभाव भी नहीं होता मात्र चर्चा के अलावा. चर्चा अवश्य आवश्यक एवं आकर्षक होती है क्यूँकि उसमें विशिष्ट व्यक्ति की स्टेटस की विशिष्टता होती है न कि विचारों की.
परिवर्तन सृष्टि का नियम है और यह निरन्तर जारी रहता है. जिन्दगी में अगर आगे बढ़ना है तो परिवर्तन के साथ कदमताल मिला कर इसे आत्मसात करना होगा.जो अपनी झूठी मान प्रतिष्ठा के चलते उपजे अहंकारवश या उम्रजनित अक्षमताओं की दुहाई देते हुए मजबूरीवश ऐसा नहीं कर पाते, उन्हें अपने पीछे छूट जाने का एवं अस्तित्व को बचाये रखने का भय घेर लेता है. अक्सर जीवन के उस पड़ाव में समय भी कम बचा होने का अहसास होता है अतः नई चीज सीखकर उसे आत्मसात करने की रुचि और उत्साह भी नहीं बच रहता. यही पीढ़ा और खीज असहय हो कुंठा का रुप धारण कर विरोध के रुप में चिंघाड़ती है जिसकी बुनियाद खोखली होती है अतः स्वर तीव्र.
किन्तु ऐसे में भी बहुतेरे आत्म संतोषी विरोध का स्वर न उठा अपने आपको अतीत की यादों में कैद कर जीवन गुजार देते हैं. यूँ भी अतीत की यादें स्वभावतः रुमानियत का एक मखमली लिहाफ ओढ़े सुकून देती हैं और निरुद्देश्य जीवन को खुश होने का एक मौका हाथ लग जाता है भले ही और कुछ हासिल हो न हो. ऐसे लोग ही गाहे बगाहे कहते पाये जाते हैं कि हमारा समय गोल्डन समय था, अब तो जमाना को न जाने क्या हो गया है और भविष्य गर्त में जाता नजर आता है. ऐसे स्वभाव के हर कल ने सदियों से भविष्य को गर्त में ही जाते देखा है. उम्र के इस पड़ाव में यह पीढ़ियाँ भूल चुकी होती हैं कि कभी वह भी ऐसे ही किसी परिवर्तन के वाहक थे जिसे उनके पूर्वज गर्त में जाना कहते कह्ते इस धरा से सिधार गये.
इस तरह से अपने अस्तित्व को परिवर्तन की आँधी से बचाने के लिए अतीत रुपी खम्भे को पकड़े रहना या विरोध में चिल्ला उठना मात्र उन्हें आत्म संतुष्टी देता है किन्तु परिवर्तन होकर रहता है. न कभी समय रुका है और न कभी परिवर्तन की बयार- युग बदलते हैं. विरोध पीढ़ियों की विदाई के साथ रुखसत होता जाता है और जन्म लेता रहता है एक नया विरोध, एक नई पीढ़ी का, एक नये परिवर्तन के लिए, जिसका स्वागत कर रही होती है एक नई पीढ़ी, बहुत उम्मीदों के साथ.
परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है जो कभी किसी प्रयास से ठहरा हुआ प्रतीत हो तो सकता है किन्तु सही मायने में वो प्रवाह और परिवर्तन ठहरता नहीं. वह उस रुकन को नेस्तनाबूत करने की तैयारी कर रहा होता है, जिसे हम ठहराव मान भ्रमित होते है. यह भ्रम भी क्षणिक ही होता है और देखते देखते ढह जाता है वह रुकन का कारण और प्रयास, वह खो देता है अपना अस्तित्व और बह निकलता है नदिया का प्रवाह अपनी मंजिल की ओर किसी सागर मे मिल उसका हिस्सा बन जाने के लिए या नये प्रवाह/ परिवर्तन को एक स्पेस प्रदान करने के लिए.
आज अभिव्यक्ति के माध्यमों में होते परिवर्तनों और प्रिन्ट/ अन्तर्जाल के बीच छिड़ी जंग देख बस यूँ ही इन विचारों ने शब्द रुप लिया और आपके विचार हेतु प्रस्तुत हो गये.
अन्तर्जाल पर कविता कोष, अभिव्यक्ति, अनुभूति, साहित्य शिल्पी, हिन्दी विकीपिडिया, गद्यकोष आदि सभी साहित्य को अन्तर्जाल पर सर्व सुलभ कराने के अभियान के उदाहरण है, जो अपने चरम पर हैं. यहाँ तक कि हमारे ब्लॉग बंधुओं के साझा भागीरथी प्रयासों से राम चरित मानस ब्लॉग स्वरुप में ऑन लाईन किया गया और भरसक मुस्कराते हुए वाह वाही भी ली गई. यह साधुवादी प्रयास था भी इस योग्य.
यदि इस पर गहन विचार किया जाये तो यह तय है कि यह सब जो कार्य किया जा रहा है वो एक उज्जवल भविष्य के निर्माण को दृष्टिगत रख कर किया जा रहा है. इसका तात्कालिक लाभ तो मात्र एक छोटा सा वर्ग उठा रहा है.
आंकड़ों पर नजर डालें तो आज विश्व की मात्र १५% आबादी अन्तर्जाल का प्रयोग कर रही है और इन उपयोगकर्ताओं में भारत ७वें स्थान पर है, जहाँ इसका उपयोग करने वालों की संख्या पूरी आबादी का मात्र २.५०% ही है याने ९७.५०% आबादी का हिस्सा अभी भी अन्तर्जाल से कोई सारोकार नहीं रखता. अगर विकास की दर बहुत त्वरित भी रही तो भी आने वाले २० सालों में यह प्रतिशत बहुत बढ़ा तो चार गुना हो जायेगा याने तब भी ९०% आबादी अन्तर्जाल का उपयोग नहीं कर रही होगी. हालांकि प्रतिशत के बदले यदि संख्या के आधार पर आंका जाये तो यही १०% आबादी की संख्या, कई बड़े देशों की आबादी से अधिक ही होगी, जो की एक बहुत संतोष का विषय है और अन्तर्जाल पर हिन्दी को समृद्ध करने के लिए जूझते लोगों के लिए उत्साहित करने वाला तथ्य है. आने वाले समय में यही संख्या अन्तर्जाल पर हिन्दी से संबंधित पृष्ठों से व्यवसायिक लाभ दिलवाने का भी काम करेगी. हिन्दी किताबों का व्यवसायिक पक्ष तो खैर किसी से क्या छिपा है. वैसे यह १०% का आंकड़ा मैं एकदम आशावादी दृष्टिकोण अपना कर कह रहा हूँ.
ऐसे में एक बहुत बड़ा वर्ग निश्चित रुप से ऐसा बच रह जाता है, जिसे साहित्य एवं पठन पाठन में तो रुचि है किन्तु अन्तर्जाल से कोई संबंध नहीं है. इस वर्ग की जरुरतें पूरी करने हेतु किताबें, पत्रिकाएँ, अखबार आदि ही मुख्य भूमिका निभाते रहेंगे, यह भी तय है.
मेरी पुस्तक ’देख लूँ तो चलूँ’ का विमोचन करते हुए प्रख्यात साहित्यकार श्री ज्ञानरंजन नें अपने उदबोधन में कहा भी था कि ’समीर लाल, एक बड़े और निर्माता ब्लॉगर के रुप में जाने जाते हैं. मेरा इस दुनिया से परिचय कम है. रुचि भी कम है. मैं इस नई दुनिया को हूबहू और जस का तस स्वीकार नहीं करता. अगर विचारधारा के अंत को स्वीकार भी कर लें, तो भी विचार कल्पना, अन्वेषण, कविता, सौंदर्य, इतिहास की दुनिया की एक डिज़ाइन हमारे पास है. यह हमारा मानक है, हमारी स्लेट भरी हुई है.
मेरे लिए काबुल के खंडहरों के बीच एक छोटी सी बची हुई किताब की दुकान आज भी रोमांचकारी है. मेरे लिए यह भी एक रोमांचकारी खबर है कि अपना नया काम करने के लिए विख्यात लेखक मारक्वेज़ ने अपना पुराना टाइपराईटर निकाल लिया है. कहना यह है कि समीर लाल ने जब यह उपन्यास लिखा, या अपनी कविताएं तो उन्हें एक ऐसे संसार में आना पड़ा जो न तो समाप्त हुआ है, न खस्ताहाल है, न उसकी विदाई हो रही है. इस किताब का, जो नावलेट की शक्ल में लिखा गया है, इसके शब्दों का, इसकी लिपि के छापे का संसार में कोई विकल्प नहीं है. यहां बतायें कि ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते."
गौर तलब है कि उनका मानना है कि "ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते." मैं इससे भी आगे की बात कहता हूँ कि दोनों ही वर्तमान में एक दूसरे के पूरक हैं.
आज अन्तर्जाल पर हो रहे प्रयासों को आमजन तक पहुँचाने के लिए प्रिन्ट माध्यमों की जरुरत है, वहीं किताबों, पत्रिकाओं, अखबारों आदि को अपनी पहुँच बढ़ाने के लिए अन्तर्जाल की जरुरत है. जो लोग प्रिन्ट माध्यमों में ब्लॉग की खबर छपने पर खुश हो रहे ब्लॉगरों की खुशी देख उनकी खिल्ली उड़ाने में मगन रहते हैं वो यह भूलवश एवं खुद न छप पाने की आत्म कुंठा से उबरने हेतु ही ऐसा कर रहे हैं, ऐसा मेरा मानना है.
निश्चित ही अन्तर्जाल एक त्वरित, तेज, और व्यापक माध्यम है तो इसके प्रारुप का आधार भी वैसा ही है फिलहाल तो. अन्तर्जाल पर छोटी छोटी प्रस्तुतियाँ जो कम समय में त्वरित रुप से पढ़ी जा सकें, ज्यादा लोकप्रियता हासिल कर लेती हैं. लोगों को लुभाती भी हैं और सुहाती भी हैं. बोझिल और लम्बें आलेख हेतु फिलहाल शायद विषय वस्तु विशेष से संबंधित विशिष्ट उत्सुक्ता रखने वाले वर्ग (इन्टरेस्टेड ग्रुप) को छोड़ किसी के पास समय नहीं है. अतः सीमित शब्दों और पैराग्राफों में बँधे छोटे छोटे आलेख लोकप्रियता का मुकाम हासिल कर लेते हैं हालाँकि यह कोई मानक नहीं है किन्तु फिर भी कम से कम आज तो ऐसा ही होता है .
ठीक इसके विपरीत किताबों की दुनिया में, पाठक समय निकाल कर विस्तार ढ़ूँढ़ता है चाहे वो दृष्यांकन का विस्तार हो या कथानक का.
ब्लॉग का पाठक टिप्पणी या प्रतिक्रिया यह जानते हुए और लिखने के लिए लिखता है कि वो पढ़ी जायेगी, न सिर्फ लेखक के द्वारा बल्कि अन्य पाठकों के द्वारा भी, जो उस टिप्पणी के आधार पर ही टिप्पणीकर्ता का व्यक्तित्व आंकलन करेंगे, यह विशिष्टता शायद इस वजह से भी हो कि वर्तमान में चिट्ठे के पाठक खासतौर पर टिप्पणीकर्ता स्वयं भी अधिकतर चिट्ठाकार ही हैं और उन्हें भी अपनी रचनायें एवं कृतियाँ इन्हीं पाठकों को पढ़वाना होता है.
इससे इतर किताब और पत्रिकाओं का पाठक टिप्पणी लिखता नहीं, पठन के साथ मन ही मन बुनता चलता है और फिर पठन समाप्ति पर अपनी इस बुनावट को काल्पनिक तौर पर निहार कर लेखक एवं उसके लेखन के विषय में एक धारणा स्थापित कर भूल जाता है. उसी लेखक की अगली कृति पर जब उसकी नज़र पड़ती हैं और तो वो उस लेखक के प्रति अपनी अतीत में स्थापित अवधारणाओं को खंगालता है.
यह एक बहुत बड़ा अंतर है अन्तर्जाल पर चिट्ठा अवलोकन और वास्तविक जगत के पुस्तकावलोकन में, जिसे निश्चित ही विचार में लिया जाना चाहिये.
इस आधार पर देखें तो एक दूसरे की पूरक होते हुए भी दोनों फिलहाल अलग अलग दुनिया हैं और निश्चित ही उनमें कोई टकराहट नहीं होना चाहिये और अगर अभियानित धारा के विपरीत धारा में कोई प्रयास होता है, जो कि समय की मांग है, जैसे अन्तर्जाल पर उपलब्ध सामग्री का किताबीकरण, तो ऐसे में इस विचारधारा और आधार को ध्यान में लेना ही होगा. साथ ही ऐसी विपरीत धारा का स्वागत भी होना चाहिये.
अतः ब्लॉग पर प्रकाशित पोस्टों को, जो भले ही ब्लॉग के दृष्टिकोण से अपने आप में पूरी तरह मुक्कमल भी नजर आयें, उन्हें अगर अन्तर्जाल से बाहर रह रहे वर्ग तक पहुँचाने का प्रयास हो तो इस विचार को मद्दे नजर रखते हुए उसी प्रारुप में निकालना ज्यादा श्रेयकर होगा जिस रुप में वो किताब पाठक को अधिक आकर्षित करे. ब्लॉग में अलग अलग समय पर प्रकाशित हुई रचनायें आपस में जोड़ जुड़ाव करके एक ही स्थान पर पढ़ी जा सकती हैं, रिफरेन्स दिये जा सकते हैं मगर किताबों की दुनिया के लिए यह उपयुक्त तरीका नहीं कहलायेगा. किताबों में दृष्टांत दिये जाते हैं और अन्तर्जाल पर लिंक.
अंत में तो लेखक, प्रस्तुतकर्ता और साहित्यकार का निर्णय ही अंतिम और सर्वमान्य होगा, सही या गलत, अच्छे या बुरे का निर्णय भी पाठक ही करेगा, इस पर टीका टिप्पणी कैसी?
यह तो सिर्फ एक विचार है जो विमर्श मांगता है.