--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
रविवार, फ़रवरी 27, 2011
फिर एक नाकामी हाथ लगी!!!
बुधवार, फ़रवरी 23, 2011
साहित्य और अन्तर्जाल...परिवर्तन की बयार- भाग १
परिवर्तन सृष्टि का नियम है और यह निरन्तर जारी रहता है. जिन्दगी में अगर आगे बढ़ना है तो परिवर्तन के साथ कदमताल मिला कर इसे आत्मसात करना होगा.जो अपनी झूठी मान प्रतिष्ठा के चलते उपजे अहंकारवश या उम्रजनित अक्षमताओं की दुहाई देते हुए मजबूरीवश ऐसा नहीं कर पाते, उन्हें अपने पीछे छूट जाने का एवं अस्तित्व को बचाये रखने का भय घेर लेता है. अक्सर जीवन के उस पड़ाव में समय भी कम बचा होने का अहसास होता है अतः नई चीज सीखकर उसे आत्मसात करने की रुचि और उत्साह भी नहीं बचा रहता. यही पीड़ा और खीज असह्य हो कुंठा का रुप धारण कर विरोध के रुप में चिंघाड़ती है जिसकी बुनियाद खोखली होती है और स्वर तीव्र.
किन्तु ऐसे में भी बहुतेरे आत्म संतोषी विरोध का स्वर न उठा अपने आपको अतीत की यादों में कैद कर जीवन गुजार देते हैं. यूँ भी अतीत की यादें स्वभावतः रुमानियत का एक मखमली लिहाफ ओढ़े सुकून का अहसास देती हैं और निरुद्देश्य जीवन को खुश होने का एक मौका हाथ लग जाता है भले ही और कुछ हासिल हो न हो. ऐसे लोग ही गाहे बगाहे कहते पाये जाते हैं कि हमारा समय गोल्डन समय था, अब तो जमाने को न जाने क्या हो गया है और भविष्य गर्त में जाता नजर आता है. ऐसे स्वभाव के हर कल ने सदियों से भविष्य को गर्त में ही जाते देखा है. उम्र के इस पड़ाव में यह पीढ़ियाँ भूल चुकी होती हैं कि कभी वह भी ऐसे ही किसी परिवर्तन के वाहक थे जिसे उनके पूर्वज गर्त में जाना कहते कहते इस धरा से सिधार गये.
इस तरह से अपने अस्तित्व को परिवर्तन की आँधी से बचाने के लिए अतीत रुपी खम्भे को पकड़े रहना या विरोध में चिल्ला उठना मात्र उन्हें आत्म संतुष्टी देता है किन्तु परिवर्तन होकर रहता है. न कभी समय रुका है और न कभी परिवर्तन की बयार- युग बदलते हैं. विरोध पीढ़ियों की विदाई के साथ रुखसत होता जाता है और जन्म लेता रहता है एक नया विरोध, एक नई पीढ़ी का, एक नये परिवर्तन के लिए, जिसका स्वागत कर रही होती है एक नई पीढ़ी, बहुत उम्मीदों के साथ.
परिवर्तन को रोकने का विचार मात्र नदी के प्रवाह को रोकने जैसा है जो कभी किसी प्रयास से ठहरा हुआ प्रतीत तो हो सकता है किन्तु सही मायने में वो प्रवाह और परिवर्तन ठहरता नहीं. वह उस रुकन को नेस्तनाबूत करने की तैयारी कर रहा होता है, जिसे हम ठहराव मान भ्रमित होते है. यह भ्रम भी क्षणिक ही होता है और देखते देखते ढह जाता है वह रुकन का कारण और प्रयास, वह खो देता है अपना अस्तित्व और फिर बह निकलता है नदिया का प्रवाह अपनी मंजिल की ओर किसी सागर मे मिल उसका हिस्सा बन जाने के लिए या नये प्रवाह/ परिवर्तन को एक स्पेस/यथोचित प्रदान करने के लिए.आज अभिव्यक्ति के माध्यमों में होते परिवर्तनों और प्रिन्ट/ अन्तर्जाल के बीच छिड़ी जंग देख बस यूँ ही इन विचारों ने शब्द रुप लिया. आज किताबों में उपलब्ध हिन्दी साहित्य को अन्तर्जाल पर लाने का एक भागीरथी प्रयास अपना आगाज़ कर चुका है.नया अन्तर्जाल और किताबों में समानान्तर दर्ज होता चल रहा है.
कुछ स्वभाविक उम्रजनित, अक्षमताओं जनित एवं अहमजनित विरोध भी अन्तर्जाल की ओर आने की दिशा में रहा है मगर जैसा कि पहले कह चुका हूँ कि वही तो हर परिवर्तन का स्वभाव है और वो पीढ़ी विशेष के प्रस्थान के साथ ही प्रस्थित होगा. उसका कोई विशेष प्रभाव भी नहीं होना है मात्र चर्चा के अलावा. चर्चा अवश्य आवश्यक एवं आकर्षक होती है क्यूँकि उसमें विशिष्ट व्यक्ति की स्टेटस की विशिष्टता होती है न कि विचारों की.
मुझे न जाने क्यूँ ऐसा लगता है कि मेरा यह विचार कुछ विमर्श मांगता है.
मैं
अतीत के गलीचों परनृत्य करता
अपने में मगन
न जाने कहाँ खो गया....
जमाना बदला....
और
आज खुद को तलाशता हूँ
मैं!!!
-समीर लाल ’समीर’
सोमवार, फ़रवरी 21, 2011
समीर जी अपनी बात कहीं से भी शुरू करें, बखूबी अपना संदेश पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम हैं: विजय तिवारी ' किसलय '
भाई समीर लाल ’समीर’ की पुस्तक ’देख लूँ तो चलूँ’ पर बात करने के पूर्व उनके बारे में बताना भी आवश्यक है क्योंकि कृति और कृतिकार एक तरह से संतान और जनक जैसे होते हैं. जनक का प्रभाव अपनी संतान पर स्पष्ट रूप से देखा जाता है. अड़तालीस वर्षीय भाई समीर जी पैदा तो हुए थे रतलाम में, परन्तु अध्ययन एवं संस्कार उन्होंने संस्कारधानी में प्राप्त किये. आप म.प्र. विद्युत मंडल के पूर्व कार्यपालक निदेशक इंजी पी.के.लाल जी के सुपुत्र हैं. चार्टर्ड एकाउंटेंसी भारत में एवं मेनेजमेंट एकाउंटेंसी अमेरीका से की. सन १९९९ के बाद आप कनाडा के ओंटारियो में निवास करने लगे. कनाडा के एक प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाहकार होने के साथ साथ आप टेक्नोलाजी पर नियमित लेखन करते हैं.
आपका एक लघुकथा संग्रह ’मोहे बेटवा न कीजो’ के साथ ही वर्ष २००९ में चर्चित एवं लोकप्रिय काव्य संग्रह ’बिखरे मोती’ भी हिन्दी साहित्य धरोहर में शामिल हो चुके है. इसमें गीत, छंदमुक्त कविताएँ, गज़लें, मुक्तक एवं क्षणिकाएँ समाहित हैं. एक ही पुस्तक में पाँच विधाओं की ये अनूठी पुस्तक भाई समीर के चिन्तन का प्रमाणिक दस्तावेज की तरह है.
हिन्दी और हिन्दुस्तान से दूर समन्दर पार कनाडा में अपनों की कमी का अहसास आज भी समीर जी को कचोटता है. इसी कसक ने समीर जी को पहले ई-कविता के याहू ग्रुप से जोड़ा और बाद में ब्लाग्स के आने पर आप अपने हिन्दी ब्लॉग ’उड़न तश्तरी’ के माध्यम से संपूर्ण विश्व के चहेते बने हुए हैं. ब्लागरों के बादशाह समीर भाई के ब्लॉग को विश्व का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग सम्मान भी प्राप्त हो चुका है. आप विश्व के शीर्षस्थ ब्लागर हैं. ब्लॉग पर आपकी जादुई कलम की पूरी दुनिया कायल है. इसके साथ ही टोरंटो कनाडा एवं अमेरीका से निकलने वाली पत्रिका ’हिन्दी चेतना’ के आप नियमित व्यंग्यकार हैं. आप कनाडा में हिन्दी रायटर्स गिल्ड एवं अन्य संस्थाओं के शताधिक सदस्यों के साथ
अब हम बात करते हैं ’देख लूँ तो चलूँ’ कृति की. वरिष्ठ साहित्यकार एवं ब्लागर श्री पंकज सुबीर जी के शिवना प्रकाशन सीहोर, मध्य प्रदेश, भारत से प्रकाशित यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’ चौदह उपखण्डों में लिखी संस्मरणात्मक, वैचारिक, तात्कालिक अन्तर्द्वन्द्व की अभिव्यक्तियों का संग्रह है. लेखक ने विवरणात्मक शैली को अपनाकर सामाजिक सरोकार, विषमताएँ, सामाजिक, धार्मिक, व्यक्तिगत, प्रशासनिक कठनाईयों का चित्रण करते हुए पाठकों के साथ तादात्म्य बैठाने में सफलता प्राप्त की है.
मित्र के गृह-प्रवेश की पूजा में अपने घर से ११० किलोमीटर दूर कनाडा की ओंटारियो झील के किनारे बसे गाँव ब्राईटन तक कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला ही ’देख लूँ तो चलूँ’ है. यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल-पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है. अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि इस किताब के माध्यम से मानव मानव से, पाठक पाठक से सीधा वैचारिक सेतु बनाने की कोशिश है क्योंकि कहीं न कहीं कोशिशें कामयाब होती ही हैं.
कृति का पहला उपखण्ड मांट्रियल की पूर्वयात्रा से प्रारम्भ होता है जिसमें उनकी सहधर्मिणी साथ होती हैं परन्तु यह यात्रा उन्हें अकेले ही करना पड़ रही है. बस यहीं से उनकी विचार यात्रा भी शुरु होती है. यात्रा के दौरान आये विचारों को श्रृंखलाबद्ध कर समीर जी ने पाठकों के साथ सीधा सम्बन्ध बनाया है. कहीं वे सिगरेट पीती महिला को सिगरेट पीने से रोकना चाहते हैं तो कहीं कनाडा में बसे पुरोहित के तौर तरीके बताते हैं. गाँव का चित्रण, फर्राटे भरती गाडियाँ अथवा ट्रेफिक नियमों की बातें जो भी सामने आया, उसको पाठकों के समक्ष चिन्तन हेतु रखा गया है. अप्रवासी भारतीयों के एकत्र होते ही बस भारत की बातें करना और जड़ से जुड़े रहने की लालसा प्रमुख मुद्दा होता है. परन्तु समीर जी इसे घड़ियाली आँसू करार देते हुए कहते हैं कि इसके लिए बहुत बड़ा जिगरा चाहिये.
अगले क्रम में लेखक की बाल सुलभ संवेदनायें जागृत होती हैं और हाई-वे पर बच्चों द्वारा कॉफी सर्व करने पर भारत और कनाडा में बेतुका फर्क पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं. भारतीय बच्चों का काम करना बालशोषण और कनेडियन बच्चों का काम करना पर्सनालिटी डेवेलपमेंट कहा जाता है. उनका मानना है कि बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात भला कैसे पर्सनालिटी डेवेलपमेंट हो सकती है. आगे आप महिलाओं के तथाकथित फिगर कान्सियसनेस को महत्व नहीं देते तो कहीं वे अमेरीका को देश के बजाय कन्सल्टेंट कहना ज्यादा उपयुक्त मानते हैं क्योंकि वह अपनी छोड़ दूसरों को सलाह देता है. इसके पश्चात ’देख लूँ तो चलूँ’ का ऐसा उपखण्ड आता है जिसमें समीर जी पर हरिशंकर परसाई जी की छाप प्रतीत होती है क्योंकि उन्हीं ने कहीं बताया है कि बचपन में अध्ययन के दौरान उनके हाथों पुरस्कार ग्रहण किया था और उनका स्पर्श आज भी वे महसूस करते हैं.
भारत से कनाडा की यात्रा के वक्त फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में एक दिन सपत्नीक रुकने पर भाषाई अनभिज्ञता के चलते अन्तरराष्ट्रीय समलैंगिक महोत्सव में शामिल होने का व्यंग्यात्मक वृतांत बड़ा रोचक बन पड़ा है. आपका ध्यान साधू संतो के ढोंग पर भी जाता है. धन की जीवन में कोई महत्ता न बतलाने वाले यही साधु इसी सलाह या प्रवचन के लाखों रुपये स्वयं बतौर फीस ले लेते हैं. आगे अप्रवासी भारतीयों के माँ बाप की भौतिक एवं मानसिक परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण है जो माँ-बाप अपने बेटों को अपना पेट काट कर विदेश भेजते हैं उन बेटों की मानसिकता किस कदर गिर जाती है. ऐसा अक्सर देखने मिलता है.
’देख लूँ तो चलूँ’ का दसवाँ उपखण्ड तो आध्यात्मिक चिन्तन जैसा है जिसमें आर्ट ऑफ लिविंग के स्थान पर आर्ट ऑफ डायिंग की सिफारिश की गई है क्योंकि अधेड़ावस्था के पश्चात जीने की कला अधिकांश लोग सीख ही लेते हैं. यह उम्र तो आर्ट ऑफ डायिंग सीखने की होती है कि हम अपनी जवाबदारियों को पूरा करते हुए खुशी खुशी किस तरह इस दुनिया से कूच करें. महात्माओं द्वारा मुक्ति के लिए ’चाहविहीन’ होने की बात भी समीर जी की समझ के परे है क्योंकि मुक्ति का मार्ग पाना भी तो चाह ही है फिर कोई चाह विहीन कैसे हो सकता है? आगे फिर दिल को छू जाने वाला मार्मिक प्रसंग है, जब घर के पेड़ पर टाँगे गए ’बर्ड फीडर’ से पक्षियों को दाने खिलाकर समीर जी आत्म संतुष्टि को प्राप्त करते हैं परन्तु जब एक दिन बिल्ली द्वारा एक पक्षी को अपना शिकार बना लेने वाली मनहूस घड़ी आती है तो इसके लिए लेखक कहीं न कहीं स्वयं को दोषी मानता है और अपराध बोध से ग्रसित जाता है. ड्रायविंग में हार जीत को लेखक महत्व नहीं देता क्योंकि यदि एक जीतता है तो दूसरा उसके भी आगे होता है या पीछे वाले के पीछे भी कोई होता है. स्तरहीन राजनीति और नेताओं की तुलना कुत्तों से करने पर भी समीर जी नहीं चूकते. तेरहवें खंड में लेखक के अनुसार मित्र के घर पर गृहप्रवेश की पूजा के दौरान अंग्रेजी अनुवाद और अंग्रेज परिवारों की उपस्थिति, पुरोहित और यजमान के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं होती. लंच के दौरान अंग्रेज परिवारों को भारतीय रेसिपी बनाने का तरीका बताना प्रवासी अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं. अंग्रेज के माथे पर तिलक लगाना या उनके द्वारा नमस्ते कहना हमें फक्र महसूस कराता है परन्तु क्या हमने कभी सोचा कि क्या वे भी ऐसा ही सोचते हैं? समीर जी के ऐसे कई तर्क दिल के अंतिम छोर तक उद्द्वेलित करते हैं.
अंत में लेखक अपने साहित्य लेखन की वर्तनी की त्रुटियाँ खोजने वाली, वाक्य विन्यास की गल्तियों को सुधार कर ईमेल करने वाली किसी मित्र के बारे में बताते हैं कि वह मुझे नहीं, मेरी लेखनी को पसंद करती है. वह मुझसे कभी रू-ब-रू मिल नहीं सकी किन्तु मुझे आज भी याद आई.
इस तरह हम देखते हैं कि समीर जी अपनी बात कहीं से भी शुरू करें, बखूबी अपना संदेश पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम हैं. ‘देख लूँ तो चलूँ’ उनके बहुआयामी लेखन का नमूना कहा जा सकता है. दस्तावेजों की उनसे सदा अपेक्षा रहेगी. इन्सानियत, प्रेम, भाईचारा, संवेदनशीलता के साथ-साथ एक विराट दायरे वाली सख्शियत का प्रतिनिधित्व करते हुए भाई समीर अपने लेखन से स्वयं आकाशीय नक्षत्रों जैसे शीर्षस्थ एवं प्रकाशवान बनें.
आप संस्कारधानी जबलपुर का नाम भी दुनिया में रौशन करेंगे, इसी आशा एवं विश्वास के साथ ...
पुस्तक विवरण:
बुधवार, फ़रवरी 16, 2011
मेरी कहानी....
बहुत कुछ दर्ज किया है इस अन्तर्जाल (इंटरनेट) पर इन बीते वर्षों में और अभी भी करता ही चला जा रहा हूँ. मैं रहूँ, न रहूँ -यह उपस्थित रहेगा सदियों तक. किसी न किसी रुप में. शायद फिर मिटा भी दिया जायें, कौन जानता है.
कभी मनचाहे तो कभी अनचाहे, उभर ही आयेंगे मेरे दर्ज विचार किसी न किसी स्क्रीन पर. तब भी देख सकोगी तुम इसे और वो भी मुझे देख सकेंगे जो मुझे देख खुश होंगे. अनजान और न चाहने वाले नजर अंदाज कर निकल जाने वालों की संख्या तब भी ज्यादा होगी मगर जब आज इस बात की परवाह नहीं की तो तब के लिए क्या करना. मतलब तो अपनों से है, तुम से है.
बस, यही सोचता हूँ अन्तर्जाल पर देख तो लोगी, पढ़ भी लोगी मगर वो अपनेपन का अहसास, वो महक, वो भार और भावुक हो मेरे लिखे को अपने सीने से चिपका मेरे होने को अहसासना और फिर नम आँखों धीरे से मुस्कराना और फिर छाती पर उसे रखे रखे ही सो जाना-जैसा मैं अक्सर करता हूँ अपने दादा जी की किताब को सलीके से सहलाते हुए, वो शायद न कर पाओ!!
इसी उधेड़बून में अन्तर्जाल से अपनी ही कृतियाँ लेकर किताबें छपवा ली हैं कुछ जस की तस तो कुछ एक अलग अंदाज में और कुछ प्रतियाँ रख छोड़ी हैं उस हल्की नीली लोहे की अलमारी में बंद करके ताकि वक्त की दीमक उन्हें चाट न जाये.
तुम्हारी अल्मारी की चाबी जतन से रखने की आदत मुझे तसल्ली देती है!!!!!!!
मेरी
कहानी लिखती नहीं,
ऊग आती है
खुद ब खुद,
एक जंगली झाड़ी सी.
न खाद की दरकार
और
न पानी की जरुरत.
वो
बढ़ चलती है अनगढ़ सी,
दिशा विहिन हवा के साथ,
हवा के रंग में
और
कहानी का नायक,
नायक नहीं महा नायक,
स्वयं एक कहानी
जैसे उसके पात्र,
सब अपने अपने आप में
पूरी एक कहानी.
मेरी
कहानी-
बढ़ती है हवा के साथ,
झूमती है,
लहलहाती है
और
फिर...
चढ़ना शुरु कर
अमरबेल की तरह
न जाने कैसे
एकाएक खत्म हो जाती है
अहसास कराती कि
कोई अमर नहीं होता.
कहानी भी नहीं.
-समीर लाल ’समीर’
यहाँ सुनिये:
रविवार, फ़रवरी 13, 2011
तीरथराम.......
तीरथराम साईकिल रिक्शा चलाता और पत्नी किशोरी घर सम्भालती. दोनो दिन-रात काम करते.
घोर ईश्वर भक्त. ईश्वर भी उसकी निरन्तर भक्ति से प्रसन्न हो एक के बाद एक लगातार आठ बच्चे प्रसाद स्वरूप देता गया.
किशोरी को पूजा पाठ में कोई दिलचस्पी नहीं रही. वह इसे पाखंड मानती थी. पति की थोड़ी सी कमाई में किसी तरह घर सम्भाले कि पूजा पाठ पर खर्च करे.
और तीरथराम..?- कहता था कि ईश्वर तो इस बरस भी फिर प्रसन्न हुआ. सातवां चल रहा था, किशोरी को खून की उल्टी हुई और फिर न तो बच्चा बच सका और न किशोरी.
सारा दोष मूरख किशोरी का है-नास्तिक कहीं की!!!
किशोरी की भूल की माफी मांगने पहाड़ी वाले मंदिर जाना पड़ा था भरी बरसात में.
पैर फिसला. खाई में गिर कर चल बसा!!
अब... आठ अनाथ बच्चे!!
ईश्वर ही पालेगा उन्हें!!.....घोर ईश्वर भक्त जो था तीरथराम.......
(लगता तो है कि पल ही जायेंगे, जब पूरा देश बिना किसी नाथ के उसी के भरोसे पला जा रहा है!!)
कल रात अँधेरे
टकरा कर
फट गया था
माथा उसकी बीबी का
और
उतर आया था
माँग के सिंदूर का निशान
जिस पत्थर पर....
आज गाँव में उसे
बड़ी श्रृद्धा से
पूजा जाते देखा!!!
-समीर लाल ’समीर’
मंगलवार, फ़रवरी 08, 2011
एक रात कुछ यूँ गुजरे....वीरान कविता रचते
पूरे ८५ दिन याने लगभग तीन माह भारत में रह जब कनाडा वापस आने को ट्रेन में बैठा तो लगा कि क्या क्या सोच कर आया था और कितना कम पड़ गया समय. सोचा था कि १० दिनों को केरल भी घूम आयेंगे इस बार, वो भी रह गया. समय ऐसा पंख लगा कर उड़ा कि कुछ पता ही नहीं लगा.
लगता था जैसे कल ही आये हों और आज वापस चल दिये. कितने सारे मित्रों से कितनी सारी बातें करनी थी. कितने ही रिश्ते नातेदारों से मिलने का दिल था.कितने ही शहरों में पहुँचने की नाकाम कोशिश. बस, यूँ ही कुछ कारण बनते गये, दिन बीतते रहे और आज वापसी. सब आधा अधूरा सा, छूटा हुआ.
अब न जाने कब आना हो फिर से? यदि कुछ विशिष्ट कारण न हो जाये तो साल भर के पहले तो क्या आना होगा.
मन उदास होने लगता है. सोचता हूँ, अगली बार ज्यादा दिन के लिए आऊँगा और जरा ज्यादा व्यस्थित कार्यक्रम बना कर. केरल घूमने का कार्यक्रम तो निश्चित ही शामिल रहेगा.
भारी मन से एक नजर रेल की खिड़की के बाहर देखता हूँ. रेल भाग रही है और कितना कुछ पीछे छूटा जा रहा है.
सामने की सीट पर नजर पड़ती है. लगभग ३४/३५ वर्ष का एक दुबला पतला युवक, अपनी पत्नी के साथ बैठा है एकदम शांत. चेहरे पर कोई भाव नहीं. उसकी पत्नी की आँखों के नीचे पड़े काले गोले उसके परेशान होने की गवाही दे रहे हैं.
बात चलती है.
दोनों एक रोज पहले ही बम्बई से लौटे हैं. महैर में रुक माँ शारदा देवी के दर्शन करके अब अपने घर आगरा लौट रहे हैं. टाटा मेमोरियल में पति का ईलाज चल रहा था. केंसर अंतिम स्टेज में है. डॉक्टर कहता है कि ज्यादा से ज्यादा ३० दिन के मेहमान है. घर ले जाओ.
मैं एक गहरी सांस छोड़ता हूँ-बस, ३० दिन. क्या कुछ करने की सोचता होगा इन ३० दिनों में वो. कितने कुछ अरमान साथ लिये जायेगा और फिर उसे तो अगली बार की तसल्ली भी नहीं.....
एक बार फिर भारी मन से खिड़की के बाहर नजर गड़ा देता हूँ. हल्का अँधेरा घिर आया है. वीरान सा पड़ा रेलवे का ’एबेन्डन्ड सिग्नल केबिन’ सामने से गुजर जाता है और जागते है कुछ उजड़े से ख्यालात मेरे जेहन में, बस यूँ ही दम तोड़ देने को.
रात आसमान में
अपनी उजली चादर
बिछाता चाँद...
झाड़ियों की झुरमुट में
अँधेरों को हराने की
नाकाम कोशिश में जुटे
जुगनुओं की जगमगाहट
कहीं दूर से आती
मालगाड़ी की सीटी का
कर्णभेदी हुँकार
नजदीक के खेत की
कच्ची झोपड़ी से उठती
एक बुढिया की
सूखी खाँसी की खंखार..
चूल्हे से
ओस में भीगी लकड़ियों के
जलने से उठते
धुँए की घुटन
और
उस पर
अलमुनियम की ढक्कन वाली केतली
में चढ़ी
काली कॉफी का
कड़वा घूँट भरते हुए
पटरी किनारे
उस निर्जन वीरान रेलवे के
’एबेन्डन्ड सिग्नल केबिन’ में
एक रात गुजारुँ
और
कुछ
अजब सी
बेवजह
वीरान
कविता रचूँ
मैं!!!
-समीर लाल ’समीर’