भाई समीर लाल ’समीर’ की पुस्तक ’देख लूँ तो चलूँ’ पर बात करने के पूर्व उनके बारे में बताना भी आवश्यक है क्योंकि कृति और कृतिकार एक तरह से संतान और जनक जैसे होते हैं. जनक का प्रभाव अपनी संतान पर स्पष्ट रूप से देखा जाता है. अड़तालीस वर्षीय भाई समीर जी पैदा तो हुए थे रतलाम में, परन्तु अध्ययन एवं संस्कार उन्होंने संस्कारधानी में प्राप्त किये. आप म.प्र. विद्युत मंडल के पूर्व कार्यपालक निदेशक इंजी पी.के.लाल जी के सुपुत्र हैं. चार्टर्ड एकाउंटेंसी भारत में एवं मेनेजमेंट एकाउंटेंसी अमेरीका से की. सन १९९९ के बाद आप कनाडा के ओंटारियो में निवास करने लगे. कनाडा के एक प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाहकार होने के साथ साथ आप टेक्नोलाजी पर नियमित लेखन करते हैं.
आपका एक लघुकथा संग्रह ’मोहे बेटवा न कीजो’ के साथ ही वर्ष २००९ में चर्चित एवं लोकप्रिय काव्य संग्रह ’बिखरे मोती’ भी हिन्दी साहित्य धरोहर में शामिल हो चुके है. इसमें गीत, छंदमुक्त कविताएँ, गज़लें, मुक्तक एवं क्षणिकाएँ समाहित हैं. एक ही पुस्तक में पाँच विधाओं की ये अनूठी पुस्तक भाई समीर के चिन्तन का प्रमाणिक दस्तावेज की तरह है.
हिन्दी और हिन्दुस्तान से दूर समन्दर पार कनाडा में अपनों की कमी का अहसास आज भी समीर जी को कचोटता है. इसी कसक ने समीर जी को पहले ई-कविता के याहू ग्रुप से जोड़ा और बाद में ब्लाग्स के आने पर आप अपने हिन्दी ब्लॉग ’उड़न तश्तरी’ के माध्यम से संपूर्ण विश्व के चहेते बने हुए हैं. ब्लागरों के बादशाह समीर भाई के ब्लॉग को विश्व का सर्वश्रेष्ठ हिन्दी ब्लॉग सम्मान भी प्राप्त हो चुका है. आप विश्व के शीर्षस्थ ब्लागर हैं. ब्लॉग पर आपकी जादुई कलम की पूरी दुनिया कायल है. इसके साथ ही टोरंटो कनाडा एवं अमेरीका से निकलने वाली पत्रिका ’हिन्दी चेतना’ के आप नियमित व्यंग्यकार हैं. आप कनाडा में हिन्दी रायटर्स गिल्ड एवं अन्य संस्थाओं के शताधिक सदस्यों के साथ
अब हम बात करते हैं ’देख लूँ तो चलूँ’ कृति की. वरिष्ठ साहित्यकार एवं ब्लागर श्री पंकज सुबीर जी के शिवना प्रकाशन सीहोर, मध्य प्रदेश, भारत से प्रकाशित यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’ चौदह उपखण्डों में लिखी संस्मरणात्मक, वैचारिक, तात्कालिक अन्तर्द्वन्द्व की अभिव्यक्तियों का संग्रह है. लेखक ने विवरणात्मक शैली को अपनाकर सामाजिक सरोकार, विषमताएँ, सामाजिक, धार्मिक, व्यक्तिगत, प्रशासनिक कठनाईयों का चित्रण करते हुए पाठकों के साथ तादात्म्य बैठाने में सफलता प्राप्त की है.
मित्र के गृह-प्रवेश की पूजा में अपने घर से ११० किलोमीटर दूर कनाडा की ओंटारियो झील के किनारे बसे गाँव ब्राईटन तक कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला ही ’देख लूँ तो चलूँ’ है. यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल-पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है. अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि इस किताब के माध्यम से मानव मानव से, पाठक पाठक से सीधा वैचारिक सेतु बनाने की कोशिश है क्योंकि कहीं न कहीं कोशिशें कामयाब होती ही हैं.
कृति का पहला उपखण्ड मांट्रियल की पूर्वयात्रा से प्रारम्भ होता है जिसमें उनकी सहधर्मिणी साथ होती हैं परन्तु यह यात्रा उन्हें अकेले ही करना पड़ रही है. बस यहीं से उनकी विचार यात्रा भी शुरु होती है. यात्रा के दौरान आये विचारों को श्रृंखलाबद्ध कर समीर जी ने पाठकों के साथ सीधा सम्बन्ध बनाया है. कहीं वे सिगरेट पीती महिला को सिगरेट पीने से रोकना चाहते हैं तो कहीं कनाडा में बसे पुरोहित के तौर तरीके बताते हैं. गाँव का चित्रण, फर्राटे भरती गाडियाँ अथवा ट्रेफिक नियमों की बातें जो भी सामने आया, उसको पाठकों के समक्ष चिन्तन हेतु रखा गया है. अप्रवासी भारतीयों के एकत्र होते ही बस भारत की बातें करना और जड़ से जुड़े रहने की लालसा प्रमुख मुद्दा होता है. परन्तु समीर जी इसे घड़ियाली आँसू करार देते हुए कहते हैं कि इसके लिए बहुत बड़ा जिगरा चाहिये.
अगले क्रम में लेखक की बाल सुलभ संवेदनायें जागृत होती हैं और हाई-वे पर बच्चों द्वारा कॉफी सर्व करने पर भारत और कनाडा में बेतुका फर्क पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं. भारतीय बच्चों का काम करना बालशोषण और कनेडियन बच्चों का काम करना पर्सनालिटी डेवेलपमेंट कहा जाता है. उनका मानना है कि बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात भला कैसे पर्सनालिटी डेवेलपमेंट हो सकती है. आगे आप महिलाओं के तथाकथित फिगर कान्सियसनेस को महत्व नहीं देते तो कहीं वे अमेरीका को देश के बजाय कन्सल्टेंट कहना ज्यादा उपयुक्त मानते हैं क्योंकि वह अपनी छोड़ दूसरों को सलाह देता है. इसके पश्चात ’देख लूँ तो चलूँ’ का ऐसा उपखण्ड आता है जिसमें समीर जी पर हरिशंकर परसाई जी की छाप प्रतीत होती है क्योंकि उन्हीं ने कहीं बताया है कि बचपन में अध्ययन के दौरान उनके हाथों पुरस्कार ग्रहण किया था और उनका स्पर्श आज भी वे महसूस करते हैं.
भारत से कनाडा की यात्रा के वक्त फ्रेंकफर्ट, जर्मनी में एक दिन सपत्नीक रुकने पर भाषाई अनभिज्ञता के चलते अन्तरराष्ट्रीय समलैंगिक महोत्सव में शामिल होने का व्यंग्यात्मक वृतांत बड़ा रोचक बन पड़ा है. आपका ध्यान साधू संतो के ढोंग पर भी जाता है. धन की जीवन में कोई महत्ता न बतलाने वाले यही साधु इसी सलाह या प्रवचन के लाखों रुपये स्वयं बतौर फीस ले लेते हैं. आगे अप्रवासी भारतीयों के माँ बाप की भौतिक एवं मानसिक परिस्थितियों का मार्मिक चित्रण है जो माँ-बाप अपने बेटों को अपना पेट काट कर विदेश भेजते हैं उन बेटों की मानसिकता किस कदर गिर जाती है. ऐसा अक्सर देखने मिलता है.
’देख लूँ तो चलूँ’ का दसवाँ उपखण्ड तो आध्यात्मिक चिन्तन जैसा है जिसमें आर्ट ऑफ लिविंग के स्थान पर आर्ट ऑफ डायिंग की सिफारिश की गई है क्योंकि अधेड़ावस्था के पश्चात जीने की कला अधिकांश लोग सीख ही लेते हैं. यह उम्र तो आर्ट ऑफ डायिंग सीखने की होती है कि हम अपनी जवाबदारियों को पूरा करते हुए खुशी खुशी किस तरह इस दुनिया से कूच करें. महात्माओं द्वारा मुक्ति के लिए ’चाहविहीन’ होने की बात भी समीर जी की समझ के परे है क्योंकि मुक्ति का मार्ग पाना भी तो चाह ही है फिर कोई चाह विहीन कैसे हो सकता है? आगे फिर दिल को छू जाने वाला मार्मिक प्रसंग है, जब घर के पेड़ पर टाँगे गए ’बर्ड फीडर’ से पक्षियों को दाने खिलाकर समीर जी आत्म संतुष्टि को प्राप्त करते हैं परन्तु जब एक दिन बिल्ली द्वारा एक पक्षी को अपना शिकार बना लेने वाली मनहूस घड़ी आती है तो इसके लिए लेखक कहीं न कहीं स्वयं को दोषी मानता है और अपराध बोध से ग्रसित जाता है. ड्रायविंग में हार जीत को लेखक महत्व नहीं देता क्योंकि यदि एक जीतता है तो दूसरा उसके भी आगे होता है या पीछे वाले के पीछे भी कोई होता है. स्तरहीन राजनीति और नेताओं की तुलना कुत्तों से करने पर भी समीर जी नहीं चूकते. तेरहवें खंड में लेखक के अनुसार मित्र के घर पर गृहप्रवेश की पूजा के दौरान अंग्रेजी अनुवाद और अंग्रेज परिवारों की उपस्थिति, पुरोहित और यजमान के लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं होती. लंच के दौरान अंग्रेज परिवारों को भारतीय रेसिपी बनाने का तरीका बताना प्रवासी अपनी प्रतिष्ठा मानते हैं. अंग्रेज के माथे पर तिलक लगाना या उनके द्वारा नमस्ते कहना हमें फक्र महसूस कराता है परन्तु क्या हमने कभी सोचा कि क्या वे भी ऐसा ही सोचते हैं? समीर जी के ऐसे कई तर्क दिल के अंतिम छोर तक उद्द्वेलित करते हैं.
अंत में लेखक अपने साहित्य लेखन की वर्तनी की त्रुटियाँ खोजने वाली, वाक्य विन्यास की गल्तियों को सुधार कर ईमेल करने वाली किसी मित्र के बारे में बताते हैं कि वह मुझे नहीं, मेरी लेखनी को पसंद करती है. वह मुझसे कभी रू-ब-रू मिल नहीं सकी किन्तु मुझे आज भी याद आई.
इस तरह हम देखते हैं कि समीर जी अपनी बात कहीं से भी शुरू करें, बखूबी अपना संदेश पाठकों तक पहुँचाने में सक्षम हैं. ‘देख लूँ तो चलूँ’ उनके बहुआयामी लेखन का नमूना कहा जा सकता है. दस्तावेजों की उनसे सदा अपेक्षा रहेगी. इन्सानियत, प्रेम, भाईचारा, संवेदनशीलता के साथ-साथ एक विराट दायरे वाली सख्शियत का प्रतिनिधित्व करते हुए भाई समीर अपने लेखन से स्वयं आकाशीय नक्षत्रों जैसे शीर्षस्थ एवं प्रकाशवान बनें.
आप संस्कारधानी जबलपुर का नाम भी दुनिया में रौशन करेंगे, इसी आशा एवं विश्वास के साथ ...
पुस्तक विवरण:
एकदम सटीक समीक्षा है। पुन: बधाई।
जवाब देंहटाएंभाई जी!
जवाब देंहटाएंसमीर जी की पुस्तक "देख लूं तो चलूँ" पर आपकी समीक्षा सुन्दर है, पुस्तक का सारांश पढकर प्रसन्नता हुई, पुस्तक पढने की लालसा भी बढ़ गयी है. आभार!
समीर जी को बहुत बहुत बधाई!
बहुत खूब...
जवाब देंहटाएंRespected Sir, Please check your email.
जवाब देंहटाएं-Saleem
9838659380
पंकज सुबीर तथा आपको शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएं@ विजय जी , 'देख लूँ तो चलूँ ' मैं अब तक चार बार पढ़ चुकी हूँ और हर बार उतना ही आनंद आता है जितना पहली बार आया था .मैं उन भाग्यशाली लोगों मैं से हूँ जिन्हें समीर जी कि हस्ताक्षरित प्रति उनके ही द्वारा भेजी गयी है ,इसके लिए मैं समीर जी की आभारी हूँ .
जवाब देंहटाएंविजय जी ,आपनेपुस्तक की इतनी प्रभावी समीक्षा की है कि एक बार फिर से पुस्तक पढ़ने कि इच्छा हो रही है .इस पुस्तक में समीर जी ने विदेश में बसे भारतीयों के बारे में जो भी अनुभव बांटे हैं उनमें से कुछ मैंने भी अपने मात्र १५ दिन कनाडा की यात्रा में अपने रिश्तेदारों और पुराने मित्रों के साथ में अनुभव किये हैं.जब भी पढ़ती हूँ तो बरबस ही एक मुस्कान आ ही जाती है और हैरानी होती है कि यह घटना तो मेरे जीवन की है ,फिर समीर जी को कैसे मालूम पड़ी ?
समीर जी की लेखनी का ही कमाल है कि जो भी पुस्तक पढता है उसे लगता है मानों सारी घटनायें उसके सामने ही चलचित्र की तरह चल रही हों .समीर जी कि अगली पुस्तक का इंतज़ार रहेगा एवम इसके लिए उन्हें बहुत बहुत शुभकामनायें ...
report!!!!
जवाब देंहटाएंभाई साब .प्रणाम !
जवाब देंहटाएंआप को '' देख लू तो चालू '' के लिए हार्दिक बधाई ! भाई साब आप का लघु कथा संग्रह पढना चाहता हूँ , आप निरंतर साहित्य को अपना अनमोल योगदान प्रदान करते रहेगे , कनाडा में हिंदी कि अलख जगाते रहेगे यूही ये कामना करते है
सादर
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सही कहा है किसलय जी ने ....
जवाब देंहटाएंसमीर भाई दिल के राजा हैं ...
बड़ी विस्तृत और ईमानदार समीक्षा की है किसलय जी ने... मैंने भी बस अभी खत्म किया है पढ़ना... इस समीक्षा को पढते हुए उस स्वाद को दुबारा अनुभव किया... किताब के बारे में अपने ब्लॉग पर ही कुछ लिखूंगा...
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा!
जवाब देंहटाएंवाकई... हर अगली समीक्षा के साथ समीक्षक की नजरों से देख लूं... को पढने की चाह फिर एक बार उत्पन्न हो ही जाती है । समीरजी के द्वारा स्वहस्ताक्षरित ये प्रति प्राप्त करने वाले सौभाग्यशालियों में मैं स्वयं को भी पाकर कहीं न कहीं गौरवान्तित महसूस करता हूँ ।
जवाब देंहटाएंइस सारगर्भित समीक्षा के लिये बधाई...
"देख लू तो चलूँ" के लिए हार्दिक बधाई !
जवाब देंहटाएंबहुत सधी हुई समीक्षा, लेखक, समीक्षक और प्रकाशक को इस उतकृष्ट क्रुति के लिये शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंरामराम.
सुन्दर समीक्षा!
जवाब देंहटाएंअच्छी समीक्षा पर इस उपन्यासिका में अभी और अंदर तक जाने की जरूरत है।
जवाब देंहटाएंआपको बधाई ओर शुभकामनाएं!!
जवाब देंहटाएंसमीक्षा अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंभाई समीर जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार.
आपने अपनी उपन्यासिका 'देख लूँ तो चलूँ' की समीक्षा "उड़न तस्तरी " पर प्रकाशित कर मेरा मान बढ़ाया.
हम आभारी हैं आपके.
इस समीक्षा पर सभी अभिमत दाताओं को भी
मैं साधुवाद देता हूँ.
- विजय तिवारी "किसलय"
ये भी खूब रही। समीक्षा भी एक ठो पोस्ट बन गई :)
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर समीक्षा। समीर भाई की लेखनी दिलचस्प है। देख लूँ तो चलूँ हमारे पास पहुँच चुकी है, मगर उसे देख ही पाया हूँ, उसके साथ चल पड़ने का वक्त अभी नहीं मिल पाया है। बहुत अधिक व्यस्तता है। जल्दबाजी इसलिए नहीं करना चाहता, कहीं समीर भाई के साथ नाइंसाफ़ी न हो जाए।
जवाब देंहटाएंसमीर भाई की किताब पर अपनी बात भी पहुँचाना चाहूँगा, कुछ रुक कर।
मुझे तो डांस वाला वाकया हर समय हंसाता रहता है...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी समीक्षा की है विजय जी ने ..
जवाब देंहटाएंपुस्तक के प्रकाशन पर बधाई.
जवाब देंहटाएंबहुत सधी हुई समीक्षा, लेखक, समीक्षक और प्रकाशक को इस उतकृष्ट क्रुति के लिये शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंआप को देख लू तो चालू के लिए हार्दिक बधाई . सुन्दर समीक्षा ....
जवाब देंहटाएंसमीक्षा के नाम पर प्राय: ही केवल प्रशंसा की जाती है। इससे अलग हट कर है यह।
जवाब देंहटाएंsundar samiksha ki hai kislaya ji ne-abhar
जवाब देंहटाएंसर्व प्रथम अद्भुत समीक्षा क लिए साधुवाद
फुर्सत से लिखी निर्भीक और गहन अभिव्यक्ति से
यह स्पष्ट हुआ कि सही मित्र गुड़-पगी ही नहीं
खरी-खरी लिख सकता है."v.k kislay"
ye tippani jahan se li gaee hai....uska bhi link is blog par hota to 'meri samajha me' achha hota......
'kavi kamal-sameer lal' ek vyakti se upar uthakar ek sansthan ka roop le chuke hain.....apne byvhar sarlta-kushalta se tathakathit virodhiyon(jisa ki hai nahi) ko jagah dekar apni lokpriyata me kuch aur hasil-jama kar sakte the/hain....na jane kis karan se apni abhar tip bhi nahi diye...ye ek pathak ki hasiyat se hame samjh nahi aaya.......
pranam.
sameer ji ko meri taraf se badhai....aur aapko shukriya...mauka mila to ye pustak zarur padhungi
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक समीक्षा, किताब पढने की इच्छा प्रबल हो गई है.
जवाब देंहटाएंसमीर जी को इस उपन्यासिका के लिये हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई और शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक समीक्षा की गई है. पुस्तक पढ चुका हूं इस आधार पर इसे बेहतरीन समीक्षा मानता हूं.
जवाब देंहटाएंहपी ब्लागिंग
समीक्षा के लिये धन्यवाद और समीर अंकल को बधाई
जवाब देंहटाएंपुस्तक के लिए समीर जी को बधाई.समीक्षा भी जोर दार है. कुछ अलग लगी ये पोस्ट. बधाई
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक और सार्थक समीक्षा
जवाब देंहटाएंसमीर जी का विस्तार से परिचय भी अच्छा लगा...
बहुत खूब
जवाब देंहटाएंसुन्दर समीक्षा!
इतनी सारी जानकारी...???
जवाब देंहटाएंइतना सबकुछ हमें तो नहीं पता था... इसीलिए हार्दिक धन्यवाद इस समीक्षा के लिए...
ये सरे कार्य हमारे जैसे लोगों के लिए प्रेरणा है...
सही कह रहे हैं.
जवाब देंहटाएंमैंने भी पढ़ी और कल अपना पढ़ा कहूँगा।
जवाब देंहटाएंसटीक समीक्षा है.....विजय जी का आभार .... आपको बधाई
जवाब देंहटाएंBahut badhai sir..........desh aur duniya me hindi ki alakh jagaye rakhane ke liye
जवाब देंहटाएंआदरणीय समीर जी
जवाब देंहटाएंसादर सस्नेहाभिवादन !
देख लूं तो चलूं की सर्वत्र चर्चा है ।
… और समीक्षा तो अच्छी होनी ही है … आप लिखते भी तो कितना बेहतरीन हैं !
पुस्तक के प्रकाशन पर हार्दिक बधाई !
♥ प्यारो न्यारो ये बसंत है !♥
बसंत ॠतु की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं !
- राजेन्द्र स्वर्णकार
सटीक समीक्षा |बधाई
जवाब देंहटाएंआशा
बेहतरीन समीक्षा एवं 'देख लूँ तो चलूँ' जैसी अनमोल कृति साहित्यप्रेमियों के लिये उपलब्ध करा कर समीर जी ने जो उपकार किया है उसके लिये उनका हार्दिक आभार ! इसे पढने की लालसा और तीव्र होती जा रही है ! कब सुयोग मिल पायेगा इसकी प्रतीक्षा है ! समीरजी अपनी कैप में यह नया फैदर लगाने के लिये आपको अनेकानेक हार्दिक बधाइयाँ !
जवाब देंहटाएंसर्वश्रेष्ठ ब्लॉगर की कृति "देख लूं तो चलूँ " की समीक्षा पढ़कर उसे पढने की लालसा बढ़ गई है. लेकिन उससे पहले समीर जी को उनकी पुस्तक के लिए बहुत बधाई. प्रवास के दौरान भी अपनी भाषा में साहित्य सृजन करना निश्चित रूप से आपके मानसिक सौंदर्य और देशप्रेम को दर्शाता है. आपका प्रयास हमारे लिए अनुकरणीय है. शुभकामना.
जवाब देंहटाएंसमीर जी, बहुत बहुत बधाई!
जवाब देंहटाएं"देख लूं तो चलूँ" पर सुन्दर समीक्षा ... पुस्तक पढने की लालसा भी बढ़ गयी है. शुभकामनाएं !
समीक्षा पढकर पुस्तक पढने की उत्सुकता बढ गयी है।
जवाब देंहटाएं---------
ब्लॉगवाणी: ब्लॉग समीक्षा का एक विनम्र प्रयास।
समीर जी को बधाई, क्या खूब है.
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के माध्यम से समीर जी की पृष्ठभूमि के बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त हुई। मैं इस पुस्तक को अवश्य पढना चाहूँगा।
जवाब देंहटाएंमैं बहुत बहुत खुश हूँ. आज(22-Feb -2011) ये रिपोर्ट पढ़.
जवाब देंहटाएंएकदम सटीक समीक्षा प्रस्तुत की . पूरी पुस्तक एक सांस में पढ़ने वाली ही है. परदेश में बसे हुए लोगों की मानसिकता और उसको उजागर करने के तरीके या फिर सिर्फ दिखाने के लिए किये गए प्रदर्शन पर अच्छा व्यंग्य किया है. सिर्फ व्यंग ही क्यों बाल मजदूरी पर किये गए वर्णन ने भी हमें बताया है कि गरीब का बच्चा अगर कम करता है तो पेट भरने के लिए और वहाँ अमीर के बच्चे काम करते हैं अपने शौक पूरे करने के लिए. मेरी तो एक भेजी हुई पुस्तक रास्ते में ही किसी ने चुरा ली और फिर मुझे दुबारा भेजने पर प्राप्त हुई. वैसे मैं किस्मत वाली हूँ कि समीर भाई ने दुबारा भेजने में जरा सी भी देर नहीं की. इसके लिए मैं उनको धन्यवाद देती हूँ.
जवाब देंहटाएंये सच है के इस पुस्तक के अधिकांश अंश उनके ब्लॉग पर हम पढ़ चुके हैं लेकिन इस पुस्तक को पढ़ते हुए कभी नहीं लगता के इसे दुबारा पढ़ रहे हैं...कथा का तारतम्य इस तरह से बनाये रखा है के पाठक बिना इसे ख़तम किये उठने की कोशिश भी नहीं कर पाता...मानव मन की गुत्थियों को जिस तरह वो खोलते चलते हैं उसे देख कर उनकी लेखनी पर रश्क होता है...कमाल के इंसान हैं तभी कमाल का लिख पाते हैं...
जवाब देंहटाएंनीरज