गुरुवार, जनवरी 20, 2011

मुझे समीर लाल एक शैलीकार लगते हैं: श्री ज्ञानरंजन जी: ‘देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर

सुप्रसिद्ध साहित्यकार, अग्रणी कथाकार और पहल के यशस्वी संपादक श्री ज्ञानरंजन जी के मुख्य आथित्य एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार डॉ हरि शंकर दुबे की अध्यक्षता में समीर लाल ’समीर’ के उपन्यास ’देख लूँ तो चलूँ’ का विमोचन हुआ. विमोचन समारोह की विस्तृत रपट एवं चित्र यहाँ क्लिक करके देखें.

आज आपके समक्ष इस अवसर पर श्री ज्ञान रंजन का अभिभाषण:

gyanji

भाई समीर लाल और उपस्थित मेरे मित्रों

मुझे खुशी है कि समीर लाल के परिचय और उनकी कृति के बहाने मुझे कुछ टूटी फूटी बातें कहने का अवसर मिला. हमारे पास समय नहीं था. यह आयोजन सपाटे से तय हुआ. आप सब समीर लाल के प्रति अपनी चमकीली आत्मीयता के कारण एकत्र हुए हैं. मैने भी जल्दबाजी में ये बातें इसलिए तैयार कर लीं कि कहीं यह गलत संदेश न जाये कि मैं उम्रदराज, सुस्त और लद्धड़ हूँ. मैं समीर लाल का स्वागत करता हूँ पर अपनी बातें भी उसमें कहूँगा.

मैने उपन्यास या नावलेट को शीघ्रता मे लगभग चलते चलते पढ़ा है. इसलिए कुछ चीजें छूटी होंगी-अगर गंभीर आंकलन न किया जा सके तो यह लेखक के प्रति किंचित अन्याय भी हो सकता है. मेरे पास कुछ थोड़ी सी बातें हैं जो आप सब लोगों की प्रतिक्रिया और टिप्पणियों को जोड़कर मूल्यवान धारणा बन सकती हैं. अन्ततः किसी भी कृति के बारे में समवेत स्वर ही स्वीकृत होता है. हमारी चर्चा एक प्रकार की शुरुआत है. इसलिए इसको मेरा क ख ग घ ही माना जाये.

छोटे उपन्यासों की एक जबरदस्त दुनिया है. द ओल्ड मैन एण्ड द सी, कैचर ऑन द राईड, सेटिंग सन, नो लांगर ह्यूमन, त्यागपत्र, निर्मला, सूरज का सातवां घोड़ा आदि. एक वृहत सूची भी संसार के छोटे उपन्यासों की बन सकती है. छोटे उपन्यासों की शुरुआत भी बड़ी दिलचस्प है. स्माल इज़ ब्यूटीफुल एक ऐसा मुहावरा या जुमला है. विश्व की छोटी वैज्ञानिक कारीगरियों और सृजन के छोटे आकारों को वाणी देता हुआ लेकिन समाज, सौंदर्य और इतिहास के विशाल दौरों में एक कारण यह भी था कि वार एण्ड पीस, यूलिसिस और बाकज़ाक के बड़े उपन्यासों ने जो धूम मचाई उसके आगे बड़े आकार के अनेक उपन्यास सर पटक पटक मरते रहे. ये स्थितियाँ छोटे उपन्यासों की उपज के लिए बहुत सहज थीं. हिन्दी में गोदान, कब तक पुकारुँ, शेखर एक जीवनी, बूँद और समुद्र, मुझे चाँद चाहिये के बाद पिछले एक दशक में ५० से अधिक असफल बड़े उपन्यास लिखे गये. और अब छोटे उपन्यासों की रचने की पृष्टभूमि बन गई है. छोटा हो या बड़ा, सच यह है कि वर्तमान दुनिया में उपन्यासों का वैभव लगातार बढ़ रहा है. यह एक अनिवार्य और जबरदस्त विधा बन गई है.पहले इसे महाकाव्य कहा जाता था. अब उपन्यास जातीय जीवन का एक गंभीर आख्यान बन चुका है. समीर लाल ने इसी उपन्यास का प्रथम स्पर्श किया है, उनकी यात्रा को देखना दिलचस्प होगा.

समीर लाल, एक बड़े और निर्माता ब्लॉगर के रुप में जाने जाते हैं. मेरा इस दुनिया से परिचय कम है. रुचि भी कम है. मैं इस नई दुनिया को हूबहू और जस का तस स्वीकार नहीं करता. अगर विचारधारा के अंत को स्वीकार भी कर लें, तो भी विचार कल्पना, अन्वेषण, कविता, सौंदर्य, इतिहास की दुनिया की एक डिज़ाइन हमारे पास है. यह हमारा मानक है, हमारी स्लेट भरी हुई है.

मेरे लिए काबुल के खंडहरों के बीच एक छोटी सी बची हुई किताब की दुकान आज भी रोमांचकारी है. मेरे लिए यह भी एक रोमांचकारी खबर है कि अपना नया काम करने के लिए विख्यात लेखक मारक्वेज़ ने अपना पुराना टाइपराईटर निकाल लिया है. कहना यह है कि समीर लाल ने जब यह उपन्यास लिखा, या अपनी कविताएं तो उन्हें एक ऐसे संसार में आना पड़ा जो न तो समाप्त हुआ है, न खस्ताहाल है, न उसकी विदाई हो रही है. इस किताब का, जो नावलेट की शक्ल में लिखा गया है, इसके शब्दों का, इसकी लिपि के छापे का संसार में कोई विकल्प नहीं है. यहां बतायें कि ब्लॉग और पुस्तक के बीच कोई टकराहट नहीं है. दोनों भिन्न मार्ग हैं, दोनों एक दूसरे को निगल नहीं सकते. मुझे लगता है कि ब्लॉग एक नया अखबार है जो अखबारों की पतनशील चुप्पी, उसकी विचारहीनता, उसकी स्थानीयता, सनसनी और बाजारु तालमेल के खिलाफ हमारी क्षतिपूर्ति करता है, या कर सकता है. ब्लॉग इसके अलावा तेज है, तत्पर है, नूतन है, सूचनापरक है, निजी तरफदारियों का परिचय देता है पर वह भी कंज्यूम होता है. उसमें लिपि का अंत है, उसको स्पर्श नहीं किया जा सकता. किताबों में एक भार है-मेरा च्वायस एक किताब है, इसलिए मैंने देख लूँ तो चलूँ को उम्मीदों से उठा लिया है. किताब में अमूर्तता नहीं है, उसका कागज बोलता है, फड़फड़ाता है, उसमें चित्रकार का आमुख है, उसमें मशीन है, स्याही है, लेखक का ऐसा श्रम है जो यांत्रिक नहीं है.

आईये यह देखते हैं कि सृजन के छोटे से दायरे में समीर लाल का उपन्यास-देख लूँ तो चलूँ किस तरह एक आधुनिक बिम्ब बनाता है. मुझे समीर लाल एक शैलीकार लगते हैं. यह उपन्यास मुझे उपन्यास और ट्रेवेलॉग का मिलाजुला रुप लगता है. एक तरह की यात्रा हाईवे पर इसमें होती है. छोटी छोटी मोटर यान से यात्रा. और इसी के मध्य उधेड़बुन, मानसिक टीकाएं, विचार और आलोचना, प्रतिक्रियाएं जो गंतव्य तक चलती रहती हैं. साथ साथ स्थानीय चित्र हैं, जीवन की झलकियाँ हैं. गंतव्य में एक लीक पर समाप्त होने वाला धार्मिक पाखंड कर्मकांड है, पारिवारिक भी है या मित्रवती. यह भारत देश में भी आम दृष्य है और परदेस में भी एक सिकुड़ा हुआ खानापूरी करने वाला प्रपंच. अब इसी के इर्द गिर्द यात्रा में उपजते विचार हैं, व्यंग्य हैं- यह एक सर्वसाधारण हिन्दु प्रवासी दृष्य है. प्रवासी भारतीय की, विशेष रुप से जो पश्चिमी संसार में हैं, उनकी यह राम कथा है. वह उथलपुथल होती निर्माण और संघार की नई संस्कृति, सागर में अपनी डोंगी न डालकर, मुख्यधाराओं में न शामिल होकर एक झूठे, समय बहलाऊ, चलताऊ जीवन की रामकथा में शामिल होता रहता है. एक विशाल वैज्ञानिक जगमगाते, स्पंदित फलक के बीच जिन्दगी की सारी ऊष्मा जर्जर वर्णाश्रम धर्म के कर्मकांड में डूब जाती है वर्णाश्रम का व्याकरण और भाषा की शुद्धता भी जहाँ फूहड़ बन गई है.

देख लूँ तो चलूँ में इसको लेकर नायक ऊबा हुआ है. हमारे आधुनिक कवि रघुबीर सहाय ने इसे मुहावरा दिया है, ऊबे हुए सुखी का. इस चलते चलते पन में आगे के भेद, जो बड़े सारे भेद हैं, खोजने का प्रयास होना है. धरती का आधा चन्द्रमा तो सुन्दर है, उसकी तरफ प्रवासी नहीं जाता. देख लूँ तो चलूँ का मतलब ही है चलते चलते. इस ट्रेवलॉग रुपी उपन्यासिका में हमें आधुनिक संसार की कदम कदम पर झलक मिलती है. ५० वर्ष पहले महान ब्रिटिश कवि और एनकाउन्टर के संपादक स्टीफन स्पेंडर ने कहा था कि आधुनिकता धाराशाही हो रही है- माडर्न मूवमेंट हैज़ फेल्ड. भारत में ही देखें, बंगाल, केरल, तामिलनाडु, कर्नाटक, उत्तरपूर्व, महाराष्ट्र और गुजरात में क्लैसिकल और आधुनिकता का एक धीर संतुलन है. जीवन में, कविता में, साहित्य में.यही दृष्य यूरोप में है. समीर लाल भी अपनी जड़ों से प्यार करते हैं पर ऐसा करते हुए लगता है कि जड़ें गांठ की तरह कड़ी और धूसरित हो रही हैं. हमारा देश भी वही हो रहा है धीरे धीरे जैसा प्रवासी का प्रवासी स्थलों पर लगता है. भूमंडल खौफनाक बदलाव से गुजर रहा हो. हममें धर्म, भाषा, शिल्प, विशेष पहचानें सब गर्क हो रही हैं. इसलिए राम कथा, सत्यनारायण कथा का एक व्यंग्यार्थ इस नावलेट में झलकता है.

समीर लाल ने अपनी यात्रा में एक जगह लिखा है- हमसफरों का रिश्ता! भारत में भी अब रिश्ता हमसफरों के रिश्ते में बदल रहा है. फर्क इतना ही है कि कोई आगे है कोई पीछे. मेरा अनुमान है कि प्रवासी भारतीय विदेश में जिन चीजों को बचाते हैं वो दकियानूस और सतही हैं. वो जो सीखते है वो मात्र मेनरिज़्म है,  बलात सीखी हुई दैनिक चीजें. वो संस्कृति प्यार का स्थायी तत्व नहीं है. हमारे देश को पैसा, रोजगार, समृद्धि तो चाहिये पर उससे कहीं ज्यादा दूसरी चीजें चाहिये. इस बात को समीर लाल अच्छी तरह जानते हैं इसलिए वे लिखते हैं हर बार भारत छोड़ने के बाद कुछ दिन असहज रहता हूँ पर फिर मानव हूँ अपनी दुनिया में रम जाता हूँ. इसमें एक ही शब्द पर मुझे आपत्ति है और वह है मानव. मानव को मजबूर मानना इसलिए उसी दुनिया में रम जाना, एक कमजोर घोषणा है और अधूरी भी. प्रवासी की ट्रेजड़ी यह है कि प्रवास को स्थायित्व में नहीं बदल पाता और इस प्रकार अपने देश में भी एक विश्रंख्ल प्राणी ही रह जाता है. इसका कारण यह है कि उसकी वृहत्तर सांसारिक या देशीय चिन्तायें नहीं है. उसकी चिन्ता तालमेल की है यह दो नावों का या कितनी ही नावों का तालमेल है जो अंततः असंभव है. उपन्यास में ऊब और निरर्थकता के पर्याप्त संकेत हैं.  निर्मल वर्मा जो स्वयं कभी काफी समय यूरोप में रहे कहते हैं कि प्रवासी कई बार लम्बा जीवन टूरिस्ट की तरह बिताते हैं. वे दो देशों, अपने और प्रवासित की मुख्यधारा के बीच जबरदस्त द्वंद में तो रहते हैं पर निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर पाते. इसलिए अपनी अधेड़ा अवस्था तक आते आते अपने देश प्रेम, परिवार प्रेम और व्यस्क बच्चों के बीच उखड़े हुए लगते हैं. स्वयं उपन्यास में समीर लाल ने लिखा है कि बहुत जिगरा लगता है जड़ों से जुड़ने में. समीर लाल सत्य के साथ हैं, उन्होंने प्रवास में रहते हुए भी इस सत्य की खोज की है जबकि वहीं अनेक कवि प्रवासी दिवस पर फूहड़, निस्तेज, झूठी कविताएं सुनाते हैं मंच पर. ये दृश्य ही समीर लाल के मजबूत शब्द और वाक्य हैं, इनके आगे एक ऐसी राह है जिसमें अगला उपन्यास लिखा जा सकता है और जिसमें व्यंग्य कम होगा और त्रासदी ज्यादा. उपन्यास का उत्तरार्ध क्रमशः गमगीनी में बदलता है, उसमें शोक आता है, उस पर अभी मैं विचार नहीं कर पा रहा हूँ कभी आगे.

मेरे लिए अभी बहुत संक्षेप में, आग्रह यह है समीर लाल का स्वागत होना चाहिए. उन्होंने मुख्य बिंदु पकड़ लिया है. उनके नैरेशन में एक बेचैनी है जो कला की जरुरी शर्त है.

यह अच्छी बात है कि अनेक देशों में, प्रवासी भारतीय लिखने की तरफ मुड़ रहे हैं. अंग्रेजी के जबरदस्त वर्चस्व के बीच वे अपनी भाषा को बचा रहे हैं, उसे समृद्ध कर रहे हैं, ऐसे अनुभवों से जो सिर्फ प्रवासियों के पास ही है. यह हमारी भाषा के वर्तमान का एक नया पहलू है. प्रवासी शीत के पक्षियों की तरह लौट रहे हैं. उनमें पहचान की तड़प पैदा हुई है लेकिन गंभीर और शानदार वापसी तभी होगी जब वे डूबते हुए भारत के गणतंत्र और संस्कृतिक बहुलता की वृहत्तर चिंताएं करेंगे. रामकथा, वर्णाश्रम धर्म और सिकुड़ते हुए सुरक्षा कवच से उन्हें बाहर आना होगा.

समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं. मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ. यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी. उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना.

अंत में मैं आपको एक सुखद उदाहरण भी देना चाहूँगा. पं. मदन मोहन मालवीय के पोते, मेरे सहपाठी और मित्र लक्ष्मीधर मालवीय ५० साल से जापान में हैं. वे बड़े निबंधकार, आलोचक, कथाकार और फोटोग्राफर हैं. वहां रहते हुए उन्होंने इलाहाबाद की गलियों, उसमें बोली जाने वाली बोली को कभी नहीं भुलाया. वे मुहावरे और बोलियों वाली भाषा का उपयोग करते हैं, लिखते हैं. बड़े लेखक हैं, उनकी किताबें दिल्ली के प्रकाशकों से आई हैं. वे रिसर्चर भी हैं. जापानी पत्नी को हिन्दी सिखाई, अपने बच्चों को हिन्दी सिखाई, और वे धारा प्रवाह बोलते हैं. जापानी, अंग्रेजी, संस्कृत में मर्मज्ञ होने के बावजूद हिन्दी स्वीकार की. आज भी हमारी टेलीफोन पर बातें अवधी में होती हैं. कहने का तात्पर्य यह है कि अपनी भाषा की रक्षा जीवन और संस्कृति की रक्षा होती है.

समीर लाल को दोबारा मैं कोट करना चाहूँगा कि ’बड़ा जिगरा चाहिए जड़ से जुड़े रहने में’.

 

इस अभिभाषण को यहाँ सुनिये:

 

 

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पुस्तक के प्रकाशक:

शिवना प्रकाशन
पी सी लैब, सम्राट काम्पलेक्स बेसमेंट
बस स्टैंड सीहोर --466001 (म प्र)

105 टिप्‍पणियां:

  1. "देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर" के प्रकाशन पर कोटिशः बधाइयाँ भाईसाहब ..!!

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  2. समीर दादा , बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !

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  3. प्रयास निरंतर जारी रहे तो सफ़लता अवश्य मिलती है।
    ज्ञानरंजन जी ने उपन्यासिका के विषय में बहुत कुछ कह दिया।

    आपको ढेर सारी शुभकामनाएं।

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  4. बहुत बहुत बधाई...
    एकदम सटीक लिखा है श्री ज्ञानरंजन जी ने.

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  5. बधाई.
    एक ठो हस्ताक्षरित प्रति कैसे मिलेगी?

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  6. आपको बधाई और दिली सराहना का ट्रक किधर भेजूं और कहां चलूं

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  7. मेरी हार्दिक बधाई...ज्ञानरंजन जी ने कुछ न कहकर बहुत कुछ कह दिया है...आपको मेरी ढेरों शुभकामनाएं,आपकी कलम दिनोंदिन प्रगति करे...

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  8. समीर जी, देख लूँ तो चलूँ उपन्यास के प्रकाशन पर अनेक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ।

    प्रमोद ताम्बट
    भोपाल
    http://vyangya.blog.co.in/
    http://www.vyangyalok.blogspot.com/
    http://www.facebook.com/profile.php?id=1102162444

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  9. बहुत बहुत बधाई आपको ..मेरी प्रति कब मिलेगी?
    ज्ञानरंजन जी की बातें सुनकर तो और मन करने लगा है पढ़ने का.

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  10. पढ़ रहे हैं, आनन्द यात्रा से गुजर रहे हैं।

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  11. बेनामी1/20/2011 11:20:00 am

    बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
    मुझे भी "देख लूँ तो चलूँ" की प्रति मिल गई है!
    आपका आभार!
    अभी पढ़ रहा हूँ!
    जल्दी ही इसकी समीक्षा भी करूँगा!

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  12. 'देख लूं तो चलूँ'के विमोचन पर प्रसन्न हूँ। इस से अधिक इस बात से प्रसन्न हूँ कि इस उपन्यास के विमोचन समारोह में ज्ञानरंजन उपस्थित थे। आधुनिक हिन्दी साहित्य विशेषकर जनोन्मुखी साहित्य की पहचान बनाने में उन की विशिष्ठ भूमिका रही है। इस बात का सबूत इस आयोजन में उन के वक्तव्य से ही मिलता है।
    निश्चय ही यह आप का बड़ा सौभाग्य था। उन के ही स्वरों में मैं भी कहना चाहूंगा कि यह समीरलाल के लेखन का आगाज है। आगे देखते हैं आता है क्या क्या?

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  13. मैं उम्मीद करता हूँ आपकी सुपरिचित सरल शैली में यह उपन्यास, लेखन जीवन में नया मील का पत्थर साबित होगा ! शुभकामनायें आपको!

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  14. क्या बात है! बहुत सुखद लग रहा है..

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  15. ज्ञानरंजन जी को पढना और सुनना दोनो अद्भुत अनुभव हैं । मुझे नहीं लगता कि समीर जी के इस उपन्यास पर ,उनकी शैली और उनके श्रम और उनकी लेखकीय मन:स्थिति पर इससे अच्छी कोई टिप्पणी हो सकती थी । ज्ञान जी का यह उद्बोधन न केवल समीर जी के लिये अपितु विदेश में बसे तमाम भारतीयों के लिये और इस देश के लेखकों के लिये भी बहुत प्रेरणादायक है ।
    इस उद्बोधन में ब्लॉगजगत और साहित्यजगत के भी कुछ अनछुए पहलुओं को छुआ गया है इस दिशा में भी विचार करना आव्श्यक है ।
    समीर जी के काव्यसंग्रह " बिखरे मोती " के पश्चात इस उपन्यास " देख लूँ तो चलूँ " पढ़ने की भी बहुत इच्छा है । ज्ञान जी के इस सार्थक उदबोधन ने यह प्यास और बढ़ा दी है ।

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  16. हुई पुस्तक ये प्रकाशित" देख लूँ तो चलूँ"
    आपके द्वारे कहे ये शब्द-गाथा में ढलूँ
    दूँ बधाई- ये अभी सम्भव नहीं हो पायेगा
    मैं तभी दूँ,पाऊं जब प्रति " देख लूँ तो चलूँ"

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  17. अच्छा लगा ये अभिभाषण। इसे यहाँ प्रस्तुत करने के लिए आभार !

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  18. बधाई और अनवरत सफ़लताओं के लिये शुभकामनाएं।

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  19. आपकी कृति ‘देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर' हमारी अशेष शुभ भावनाएँ.
    - विजय तिवारी ' किसलय '

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  20. बधाई हो! इतनी बारीकी से हर पहलू को छुआ है ज्ञानरंजन जी ने!! दोनों विभूतियों को सलाम!!

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  21. sir , meri haaridik nbadhayiyan aapko. aap yun hi likhte rahe aur ham sab ka maargdarshan karte rahe ..

    namaskar.

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  22. समीर जी! बधाई तो बहुत छोटा शब्द है! जिन शब्दों में आपके व्यक्तित्व की और आपके साहित्यिक पहलुओं की बात की है ज्ञानरंजन जी ने वह निश्चित तौर पर आपको पूर्णता में बयान करता है!!

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  23. इस एक और मील के पत्थर के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएं समीर भाई , और हां बकिया हम तब कहेंगे जब हमारी प्रति हम तक पहुंच जाएगी बाकायदा ...। पुन: बहुत बहुत शुभकामनाएं

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  24. "देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर" आपको बहुत बहुत बधाई समीर जी। ज्ञानरंजन जी के बारे में पढ़ा। बाप रे इतनी हाई हिन्दी तो अपने को समझ ही नहीं आती। आप तो बहुत ग्रेट हो सर। आपने जो लिंक दिए हैं उनपर भी गया था दैनिक भास्कर और गिरीश जी के ब्लॉग पर। सब डिटेल पढ़े। बहुत मजा आया पढ़ने में। अब चलता हूँ वर्क-आउट करने। आप भी कभी हॉंगकाँग आइए ना सर। आपको एकदम स्लिम ट्रिम बनवा दूँगा अपने जिम में। और वो आपके दोस्त क्या नाम है उनका बवाल, उनको भी। हा हा। जस्ट सैड फ़ॉर फ़न। ओ.के. सर बाय।

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  25. आप को बहुत बहुत बधाई इस विमोचन की, ओर पुत्र के विवाह की भी बहुत बहुत वधाई, धन्यवाद

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  26. भाई जी,
    जय राम जी की,
    ’ देख लूँ तो चलूँ ’ कि प्रति आज ही उपलब्ध हुई है..
    बहुत बहुत धन्यवाद एवँ हार्दिक शुभकामनायें ।
    किताब को अभी थोड़ा सूँघ-साँघ कर सहेज लिया है,
    कल के सँभावित रतजगे में पुस्तक से अभिसार के उपराँत अपने तज़ुर्बों का खुलासा करूँगा । वैसे ज्ञानरँजन जी ने सही मार्किंग की है ।

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  27. "देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर"बधाइयाँ

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  28. आपकी पुस्तक का विमोचन होना एक बड़ी घटना तो है ही उससे बड़ी बात विमोचन ज्ञानरंजन जी जैसे महान साहित्यकार, व्यक्ति के हाथों होना रहा है.
    बधाई.

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  29. " DEKH LOON TO CHALUN " KE LOKAARPAN KE SHUBH AVSAR PAR
    PRASIDDH RACHNAKAR GYAN RANJAN
    KEE YAH GHOSHNA - " SAMEER LAL
    EK SHAILEEKAAR LAGTE HAIN "
    SAAWAR RITU KEE PAHLEE -PAHLEE
    SHEETAL BAUCHHAR KEE SEE LAGEE
    HAI . SAMEER JI , AAPKO DHERON
    BADHAAEEYAN AUR SHUBH KAMNAAYEN ,
    ISLIYE BHEE KI CANADA KE AAP
    SHAYAD PAHLE SAHITYAKAR HAIN JINKI
    LEKHNI SE IS UTKRISHT UPNYAAS NE
    JANM LIYAA HAI .

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  30. बहुत बहुत बहुत बधाई और शुभ कामनाएं

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  31. किताब के विमोचन की बधाई।
    ज्ञानरंजनजी हिन्दी के बेहतरीन गद्यकार हैं। इसी बहाने उनका कहा पढ़ने को मिला। अच्छा लगा।

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  32. Dekh loon to Chaloon" ki liye anginat shubhkamnayein v badhayi.
    Sameer ji aapko Padloon to kuch aur kahooN!!

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  33. ज्ञान जी ने रंजन के साथ मानस का मंजन भी कर दिया। यही मंजन इस विधा को बुराईयों से दूर रहने के लिए सचेत करेगा, ऐसा विश्‍वास है। मंजन जन को अपनाना चाहिए, इससे तनिक न घबराना चाहिए - ज्ञान जी की बेबाक टिप्‍पणी ने छुआ और छू रही है, छूती रहेगी, जाएगी नहीं और जानी भी नहीं चाहिए। इस बात पर निश्‍चय ही मंथन के बाद यही निष्‍कर्ष निकल कर आता है कि छपे शब्‍दों का कोई विकल्‍प न है और न कभी होगा। इंटरनेट के शब्‍द छपे भी हैं और छिपे भी शब्‍द ही हैं, इसलिए इनको छिपाहट की छटपटाहट से मुक्ति दिलाने में छपना समन्‍वयक है। यही मेरा भी मानना है। अन्‍य सभी भी इसे ही स्‍वीकारेंगे। हिन्‍दी से करते हैं प्‍यार तो शनिवार को रहें तैयार

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  34. ’बड़ा जिगरा चाहिए जड़ से जुड़े रहने में’ बिल्कुल सही है, समीर जी आपके लिये, ज्ञानरंजनजी के विचार खालिस हिन्दी मॆं पढ़कर तो बस आत्मा ही प्रसन्न हो गई।

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  35. बहुत कुछ ज्ञानपूर्ण कह गए ज्ञानरंजन -
    एक उद्धृत पुस्तक का नाम ओल्ड मैं इन द सी नहीं बल्कि 'द ओल्ड मैंन एंड द सी' है -कृपया सुधार लें !
    इसी तरह एक जगह समुन्द्र लिखा गया है जबकि समुद्र होना चाहिए -
    इसी तरह वर्तनी की कई और अशुद्धियाँ हैं -उचित होता कि एक समादृत साहित्यकार के भाषण को बारीकी से देख लिया गया होता :) ताकि कहीं यह न ध्वनित हो जाय कि गलतियां सीधे श्रीमुख से उद्भूत हुयी हैं !

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  36. bahut bahut badhai bhai samerlal ji gyanranjanji ko dekhana aur aapke novel ka vimochan dono bahut shukhad laga

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  37. bahut bahut badhai bhai samerlal ji gyanranjanji ko dekhana aur aapke novel ka vimochan dono bahut shukhad laga

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  38. bahut bahut badhai bhai samerlal ji gyanranjanji ko dekhana aur aapke novel ka vimochan dono bahut shukhad laga

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  39. bahut bahut badhai bhai samerlal ji gyanranjanji ko dekhana aur aapke novel ka vimochan dono bahut shukhad laga

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  40. bahut bahut badhai bhai samerlal ji gyanranjanji ko dekhana aur aapke novel ka vimochan dono bahut shukhad laga

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  41. bahut bahut badhai bhai samerlal ji gyanranjanji ko dekhana aur aapke novel ka vimochan dono bahut shukhad laga

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  42. bahut bahut badhai bhai samerlal ji gyanranjanji ko dekhana aur aapke novel ka vimochan dono bahut shukhad laga

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  43. बहुत बहुत बधाई देख लूं तो चलूं के लिये . जब कोई शीर्ष आपको कसौटी पर खरा पाता है तो ही सबसे बडा पुरुस्कार होता है और मेहनत का परितोषक भी

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  44. देखना चाहो तो जो भी देख लो ए 'लाल' तुम,
    बात चलने की मगर करना नहीं फिलहाल तुम,
    चाहिए जितना जिगर ,इतना तो है ही आपका,
    Best Seller,कृति के लेखक बनो हर हाल तुम.

    हार्दिक बधाई और शुभ कामनाए.

    ज्ञान रंजित टिप्पणियों ने जिज्ञासा जगा दी है कि शिघ्र ही पुस्तक प्राप्त कर पढ़ ली जाए. ज्ञान जी ने साहित्यिक समीक्षा करने में अत्यंत सतर्कता बरती है.विषय के इतर इन्होने प्रष्ठ भूमि का जायज़ा अधिक लिया है. 'प्रवासियों' की मन: स्थिति पर उनका ये आलेख एक महत्त्वपूर्ण दस्तवेज़ है. ज्ञान दादा को सलाम.

    -मंसूर अली हाशमी
    http://aatm-manthan.com

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  45. मेरी हार्दिक बधाई...
    आपको मेरी ढेरों शुभकामनाएं

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  46. Bahut Bahut Badhai Aapko Sameer Sir,
    mujhe apki prati kab aur kaise mil sakti hai plz bataiyega.

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  47. बधाई. और धन्यवाद.
    किताब पढ़ी. आनंद आया. लगा कि जैसे समीर लाल समीर का ब्लॉग पुस्तकाकार में बांच रहे हों - उसी सरलता, सहजता, व्यंग्य और मार्मिकता से भरपूर.

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  48. @ अरविंद मिश्र भाई

    आपके द्वारा बताया सुधार कर लिया है...



    उचित होता कि एक समादृत साहित्यकार के भाषण को बारीकी से देख लिया गया होता :) ताकि कहीं यह न ध्वनित हो जाय कि गलतियां सीधे श्रीमुख से उद्भूत हुयी हैं !


    इसीलिये साथ में रिकार्डिंग लगा दी गई है ताकि ऐसा ध्वनित न हो.

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  49. dekh lu tho chalu ke vimochan par bahut bahut badhai ho sameer ji.gyanranjan ji ke vichar padhkar behad prasannata huyi.sadar mehek.

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  50. समीर चचा को प्रणाम...
    नए उपन्यास के विमोचन पर बधाई...
    ज्ञानरंजन जी को सुनना बड़ा आनंददायक रहा...

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  51. बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
    नि:संदेह आप हिंदी ब्लोगिंग की जीवित किवदंती बन चुके हैं , हम सभी के लिए यह वेहद गर्व की बात है !

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  52. बहुत-बहुत बधाई समीर जी .बहुत उत्सुक हूँ पर पता नहीं कब संभव होगा मेरे लिए इस पुस्तक को पढ़ना !

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  53. समीर लाल एक शैलीकार लगते हैं.........sach baat he.......
    main to aaj tak aapki wo cactus ...wali rchnaa nhi bhul paayi...aapko tah e dil se bdhaayi.
    take care

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  54. आदरणीय ज्ञानजी को सुनना पढ़ना बेहद सुखद लगा .... उनका कृतित्व व्यक्तित्व प्रेरक है ... क्षमा चाहूँगा की अत्यधिक स्व्सस्ति ख़राब होने के कारण डाक्टरों द्वारा अनफिट घोषित किये जाने के कारण मैं कार्यक्रम में सम्मिलित नहीं हो सका जिसका मुझे अत्यधिक खेद है .... पुटक विमोचन के लिए आपको शुभकामनाएं और बधाई ......

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  55. विमोचन के लिए आपको शुभकामनाएं और बधाई ......

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  56. समीर लाल जी को हार्दिक बधाई.. ज्ञानरंजन जी ने अपने संक्षिप्त अभिभाषण में हिंदी ब्लॉग्गिंग को नई दिशा देने की कोशिश की गई है.. अभी भी ब्लॉग्गिंग के लेखको/ कवियों /टिप्पणीकारों को उतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता जितना छापे के लेखको से.. लेकिन ज्ञान रंजन की टिप्पणी से इस पर नए सिरे से सोचा जायेगा... और समीरलाल जी को हिंदी साहित्य (छापे वाला ) में स्वीकार्यता बढ़ेगी...

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  57. ज्ञान जी द्वारा की गयी समीक्षा से सहमत हूँ...बहुत रोचक ढंग से उन्होंने इस उपन्यासिका के साथ साथ साहित्य जगत की अभूतपूर्व जानकारियां भी दी हैं...मैं तो इतना ही कहूँगा के जब मैंने इस उपन्यासिका को पढने के उठाया तो उसे ख़तम करने के बाद ही छोड़ा...मेरे हिसाब से ये समीर जी के लखन की सबसे बड़ी उपलब्धि है...

    नीरज

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  58. बधाई बधाई बधाई ... भई मस्त लिखा है ... जैसे सामने बैठ कर बात कर रहे हों ...

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  59. बहुत बहुत बधाई भाई जी...

    पुस्तक कब मिलेगी ????? प्रतीक्षारत हूँ...

    पुस्तक पढ़कर एक बार फिर यह समीक्षा padhungi, tab फिर is समीक्षा par tippanii karungi.....

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  60. बधाई तो हम दे ही चुके हैं । अब पढने के लिए टाइम निकालते हैं भाई ।

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  61. हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  62. बधाई और शुभकामनाएं।

    आपके इस उपन्यास को पढना चाहूँगा,
    देखता हूँ अभी सहारनपुर (यू0पी0) तक पहुँचा है नही

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  63. समीर जी ,

    ‘देख लूँ तो चलूँ ’ उपन्यासिका के विमोचन के लिए अशेष हार्दिक मंगलकामनाएँ.....

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  64. पुस्तक के लिए हार्दिक बधाई...

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  65. आप को इस उपन्यास के लिये हार्दिक बधाई और शुभकामनाये .

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  66. बहुत बहुत बधाई ...ज्ञानजी के वक्तव्य से पढ़ने की उत्कंठा तीव्र हो गयी है ...

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  67. बहुते बधाई समीर जी आपको. हम भी जुगाड करके पढ लूंगा.

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  68. देख लूँ तो चलूँ के प्रकाशन पर अनेक बधाइयाँ और शुभकामनाएँ...!!

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  69. ज्ञानरंजन का भाषण सरसरी तौर पर ही पढा है किन्‍तु जितना भी पढा, साफ-साफ लगा कि उन्‍होंने पूरी आत्‍मपरकता से आपके लिए अपनी बात कही है। ज्ञानरंजन का स्‍पर्श मात्र ही किसी भी कृति का महत्‍व बढा देता है। आप सचमुच में सुभागी है कि ज्ञानरंजन की टिप्‍पणियॉं 'देख लूँ तो चलूँ' को मिलीं।

    आपको अकूत बधाइयॉं।

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  70. हार्दिक बधाई समीर जी!

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  71. बहुत बहुत बधाई ! सर जी !
    इस नए विमोचन के लिए !

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  72. सबसे अच्छे वाले अंकल जी को इसके लिए बधाई...आपने पापा को जो किताब भेजी है, वह बहुत अच्छी लग रही है.

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  73. bakiya sari baten to jara oonchi hai......lekin sameer da ek bahut hi
    komal hridya evam ati-samvenshil insan hain.....jo inke krite me spasht jhalkti hai.....

    yse har-ek ko to ek 'prati' milni mushkil hai.....lekin agar blog par
    thora bahut dal diya jai to sarbhara
    varg bhi kuch khuskishmat ho le....

    pranam.

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  74. sameer ji, badhaai.

    और ज्ञान रंजन जी का यह अभिभाषण, अति महत्वपूर्ण है.सचमुच संग्रहणीय.

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  75. बहुत बहुत बधाई !
    बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!

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  76. समीर जी
    "देख लूँ तो चलूँ’ उपन्यास के
    प्रकाशन और विमोचन पर
    आपको बहुत बहुत बधाई
    हार्दिक शुभ कामनाएं
    -
    -
    ज्ञानरंजन जी को पढना-सुनना हमेशा ही सुखद होता है, उन्होंने उपन्यास की समीक्षा भी बेहतरीन की है !
    -
    -
    पढ़-सुनकर बेचेंई तो बढ़ गयी है
    पता नहीं कब पढ़ पाऊंगा इस उपन्यास को !

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  77. आपको ढेर सारी शुभकामनाएं।

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  78. aapki shaili prabhavi hai,yuin hi hum logo ka tanta nahi lagta.aap iske patra hai sir :) shubhkamnayen!!

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  79. हार्दिक शुभकामनाएं... बधाईयां...

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  80. देख लूं तो चलूं,बधाई लेते जाएं।
    *
    मुझे तो आपकी किताब की सबसे बड़ी उपलब्धि यही लगती है कि आप इसके बहाने ज्ञानरंजन जी को यहां ले आए। आपके उपन्‍यास के बहाने उन्‍होंने ब्‍लाग की जिन सीमाओं का जिक्र किया है उन पर हम सबको गंभीरता से विचार करना चाहिए।

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  81. आपका बिल्कुल सही चित्रण किया है वरिष्ठ साहित्यकार जी ने। आपके ब्लॉग पर से जितना आपको जाना है वो उन्होंने कह दिया है। जाहिर है कि द्वंद में फंसे रहना नियती होती कई लोगो की....पर उसमें फंस कर ठहर जाना जीवन नहीं है। आप भी कोशिश में हैं। कोशिश कामयाब होती है पर बात वहीं है कि किस तरह तालमेल बैठाएं, देश विदेश नहीं, विदेश देश नहीं। सारी अच्छी बातें एक साथ एक जगह आसानी से मिलती भी तो नहीं। वैसे भी अब आपके पास निर्णय लेने का समय है। कुछ दिन और ठहर जा मन कह कर बहला सकते हैं आप दिल को। पर मुझे लगता है कि आप दायरों को तोड़ने की कोशिश करेंगे तो बेहतर होगा......आखिर कुछ सुख जो हिंदुस्तान में नहीं मिलता उसे आप जुटा चुकें हैं..उपन्यास के लिए बधाई।

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  82. समीर जी का उपन्यास एक ही बैठक मे पढ गयी। लेकिन ग्यानरंजन जी ने जिस बारीकी से छोटी छोटी बात मे भी गहन चिन्तन और सोच पकडी है उससे आचम्भित हूँ। उन्हों ने सही कहा है समीर जी की अपनी अलग शैली है।उनकी सोच मे कहीं प्रवासी होने की छटपटाहट है, प्रवाह पाठक को बान्धे रखता है । जिसे पढ कर पाठक कभी उकताता नही है। समीर जी को इस उपन्यासिका के प्रकाशन के लिये बहुत बहुत बधाई। आशा है इसका सभी पाठक तहे दिल से स्वागत करेंगे। समीर जी अगले उपन्यास के लिये अग्रिम बधाई स्वीकार कीजिये। शुभकामनायें।

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  83. बधाई हो सर।
    मेरी शुभकामनाएं हैं, आपकी पुस्तक के ढेरों संस्करण छपें।

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  84. समीर सर,
    उपन्यास विमोचन की हार्दिक बधाई। ’एक ऊबा हुआ सुखी’ विशेषण ही बहुत शानदार लगा। तय है कि शानदार लिखा होगा, लेकिन तारीफ़ पढ़ने के बाद ही करेंगे।
    पुन: बधाई स्वीकार करें।

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  85. बहुत बहुत बधाई समीर जी. ज्ञान जी का लिखा भी बहुत दिनों के बाद पढने को मिल रहा है.

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  86. आदरणीय समीर जी "देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाये.
    regards

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  87. आदरणीय समीर जी
    नमस्कार
    आपका उपन्यास " देख लूं तो चलूँ " मुझे परसों मिली और कल दिन भर में उसे पढ़कर ही दम लिया .
    सबसे पहले तो मैं आपको धन्यवाद दूंगा की आपने इतनी अच्छी किताब मुझे भेजी .

    ये एक उपन्यास नहीं है ,बल्कि एक autobiographical collage है , जिसमे आप आज के आम आदमी का भी characterize करते है और उस इंसान का भी जो की तन से इस दुनिया से भागने की कोशिश में लगा हुआ है .. [ like we all are in a rat race ] कहानिया पढ़ते पढ़ते कभी आँखे भीग जाती थी , कभी मन उदास हो जाता था, कभी होंठो पर एक छोटी सी हंसी आ जाती थी , कभी कभी पढना रोककर ,कहीं हवाओ में बात भी करने लगा मैं. यानी की एक जीवन में जितने भी रंग शामिल है वो सब आपने अपने अद्बुत लेखन से live कर दिए है ....आपकी लेखनी अपनी सी लगती है ,ऐसा लगता है , की मैं हूं उस कहानी में कहीं , किसी के भी रूप में .. ये एक बहुत बड़ी बात है की इस तरह से अपने आपको , किसी और की कहानी में देखना , या किसी और के लेखन में देखना , उस लेखक के लिये बहुत बड़ी उपलब्दी मानी जायेंगी .
    मुझे बहुत ख़ुशी है की मैं आपसे मिला हूं और आपके भीतर के लेखक को जानता हूं.

    धन्यवाद.
    आपका

    विजय
    हैदराबाद

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  88. भाई समीर जी
    आपकी पुस्तक के विमोचन के बारे में पढना और कोई छः सात महिने बाद भाई ज्ञान जी की आवाज़ सुनना दो-दो सौभाग्य एक साथ प्राप्त हुए |
    आजकल आपके इलाके में हूँ मतलब कि यू.एस.ए.में | आशा है परिचय और बढ़ेगा | मेरा फोन नंबर है
    ३३०-६८८-४९२७ और आपका ?
    आपका

    रमेश जोशी

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  89. ज्ञानरंजन जी ने समीरलाल के लेखन के सभी पक्षों को गहरी सूझ के साथ उकेरा है.उनके इस वक्तव्य में प्रवासी लेखकों की रचनाओं को विवेचित करने के सिद्धांत भी उभर रहे हैं.

    समीरलाल जी को अनेक बधाइयां और शुभकामना कि ज्ञानरंजन जी ने जो दिशा उद्घाटित की है उनकी कलम उसमें भी यात्रा करे !

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आपकी टिप्पणी से हमें लिखने का हौसला मिलता है. बहुत आभार.