रविवार, अगस्त 08, 2010

वो रिश्ते..

आज कोई भूमिका नहीं. बस, कुछ ख्याल दिल से उपजे हुए:

cash

 

कहते हैं

रिश्ते खून के होते हैं..

या बनते है दिल से..

न जाने क्यूँ

कोई उन रिश्तों की बात नहीं करता

जो उपजते हैं मजबूरी में

पेट की भूख से

और विलीन हो जाते

जिस्म में कहीं!!

शायद जमाने की

चकाचौंध की अभ्यस्त आँखें

अँधेरे में देख नहीं पाती!!

या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

ऐसी बातें अब नहीं सताती!!

-समीर लाल 'समीर'

95 टिप्‍पणियां:

  1. कोई उन रिश्तों की बात नहीं करता जो भूख से उपजते हैं और विलीन हो जाते हैं जिस्म में मगर हकीकत तो यही है कि यथार्त की धरातल पर वे रिश्ते ही जीवित दिखते हैं.

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  2. दिल का हो या खून का, रिश्ता झट बन जाय।
    भूखे-नंगों से कोई, रिश्ता नही बनाय।।
    --
    मन को झकझोरती हुई,
    बहुत ही उपयोगी रचना!

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  3. देखते तो हैं जी....पर देख कर अनजाना कर देते हैं जी.....भई बंद भी कैसे होने दे संसार का सबसे पुराना धंधा माना जाता है जी......अब गंदा है तो क्या है धंधा है ये .....

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  4. कहते हैं

    रिश्ते खून के होते हैं..

    या बनते है दिल से..

    @ लेकिन आजकल तो ये रिश्ते नोटों के दम पर भी बनते है

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  5. परिस्थितियां बदली हैं। अब सिर्फ मज़बूरी में ऐसे रिश्ते नहीं बनते। सक्षम भी और ताक़तवर बनने के लिए ऐसे रिश्तों को हवा दे रहे हैं।

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  6. कितने प्रकार के रिश्ते बनते हैं ... खून के, दिल के, मजबूरी के ...
    बहुत सुन्दर रचना !

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  7. पैसों ने हमें बहुत कुछ दिया है मगर हमसे बहुत कुछ छीना भी है। पाश ने कहा था,सब ठीक है मगर सपनों का मर जाना ठीक नहीं। जिन रिश्तों की बात आपने उठाई है,वह इन सपनों के मर जाने से ही उपजी है।

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  8. मजबूरी के ये रिश्ते शायद कोई याद भी नहीं रखना चाहता।

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  9. आजकल ऐसे भी रिश्ते होते है जो भूख के खौफ से नहीं , शौक से बनते हैं ।
    अब उनकी क्या मजबूरी और कैसी संवेदना ।

    वैसे कालों से चलते आए इस नाकाम काम को अंजाम देने वाले भी तो हम ही है । सफेदपोश !

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  10. ईमेल से प्राप्त भाई अमरेन्द्र त्रिपाठी का संदेश:



    '' मजबूरी में उपजने वाले रिश्ते सच हैं हर काल / व्यक्ति के | इनके प्रति एक नए सोच का 'पैटर्न' भी आवश्यक है | मजबूरी के रिश्ते कितने सकारात्मक देखे जायेंगे , यह सवाल अभी भी है ! आभार ! ''

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  11. सही में सर, हमने अपनी संवेदनाओं को मार दिया है।

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  12. मानवीय संवेदनाओं से भरी एक बेहतरीन रचना.

    हम आज की आधुनिकता में इतने व्यस्त हो गए हैं, कि अच्छी से अच्छी रचना को भी पढ़ते हैं, विश्लेषण करते हैं और बस. कभी उनसे सीख लेने की कोशिश आखिर क्यों नहीं करते हैं? उनके सन्देश को ग्रहण क्यों नहीं करते हैं? :-(

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  13. मजबूरी में बने रिश्ते ...
    पेट की भूख से ...
    इनसे ज्यादा तकलीफ या घुटन क्या किसी और रिश्ते में भी होती होगी
    इस पर तो कभी सोचा ही नहीं था ...

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  14. दैनिक जागरण के राष्ट्रिय संस्करण के प्रष्ट न. ९ पर, कॉलम "फिर से" में आपका लेख "उन कदमों की आहट.. " प्रकाशित हुआ है.

    http://in.jagran.yahoo.com/epaper/index.php?location=49&edition=2010-08-09&pageno=9

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  15. संबंधों ,संवेदनाओं और जीवन यथार्थ पर गहरा तंज !

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  16. आपने जो ऊपर फोटो छाप रखी है.. आजकर सारे रिश्ते उसी के आसपास सिमटकर रह गए हैं।
    एक रिश्ता जो मैंने आपसे कायम किया है वह है भाई का... इसके बीच कभी हरी-हरी पत्तियों की जरूरत नहीं आएगी.
    आशा है आप ठीक-ठाक होंगे, मैं भी थोड़ा ठीक हो गया हूं.

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  17. भूख से जाये रिश्ते ! लोग उसे आलोचनाओं के घेरे में कील से घेर देते हैं, बहते खून का कोई रिश्ता नहीं होता

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  18. EAK SAMVEDNA BAHRI KAVITA... BADALTE SAMAY KE MAR RAHI HAI MAANVIYATA... ACHHI RACHNA KE LIYE BADHAI

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  19. DESH SE ITNI DUR BAS KAR BHI BHARAT KEE BHOOKH KE LIYE AAPKE BHITAR BHAV DEKH KAR ACHHA LAGA. SUNDER ABHIVYAKTI

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  20. सभी रिश्ते पूर्व जन्म के
    संस्कारों पर आधारित होते हैं!....
    संवेदनायें और भावनायें इस जन्म के
    संस्कारो पर आधारित होती हैं!..........

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  21. मजबूरी में भूख से उपजे रिश्तों को लोग रिश्ते मानते ही कहाँ हैं, जो उसकी बात करें.
    बहुत अच्छी कविता. विचलित कर देने वाली.

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  22. ...बेहद प्रसंशनीय रचना, बधाई !!!

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  23. पेट की भूख से बनाये जाने वाले रिश्तों का कोई नाम नहीं होता ....यह महज़ एक कारोबार होता है ...और शायद जिंदा रहने के लिए यह एक तरह की मजबूरी भी है ....लेकिन जो महज़ क्षण भर के सुख के लिए ऐसे रिश्तों में लिप्त रहते हैं सच में तो उनकी संवेदनाएं मर चुकी हैं ...
    रचना बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती है ..

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  24. हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू,
    हाथ से छू के इसे रिश्तों का इल्ज़ाम न दो,
    सिर्फ अहसास है ये रूह से महसूस करो,
    प्यार को प्यार ही रहने दो, कोई नाम न दो,
    हमने देखी है...

    जय हिंद...

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  25. सब रिश्‍ते तो पेट से बनते हैं फिर चाहे खून के हों या फिर भूख के।

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  26. या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!
    बिलकुल यही बात है। बहुत भावपूर्ण रचना है धन्यवाद।

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  27. खून और दिल के भावों से अलग एक चीज़ है जो बहती है और बहाती है सम्बन्धों का प्रवाह। सही दिशा में इंगित करती पोस्ट।

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  28. एक अलग एहसास-सा दे गई आपकी यह रचना।

    बहुत सुन्दर!

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  29. बहुत खूब समीर जी!
    देखा जाये तो ये दौड़ हम सब भूखों की दौड़ ही तो है!
    पहले शरीर को लगने वाली भूख
    फिर मन के पागलपन की, महत्वाकांशाओं की भूख.
    अंत में मुमुक्षा की भूख....

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  30. अद्भुत!!!
    एक एक पंक्ति वज़नदार
    .
    अच्ची रचना.
    बधाई

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  31. rishton ke ek anchuye pahlu ko jabardast tarike se ukera hai aapne..
    शायद जमाने की

    चकाचौंध की अभ्यस्त आँखें

    अँधेरे में देख नहीं पाती!!

    या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

    ऐसी बातें अब नहीं सताती

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  32. सच्ची बात ...मन को झकझोरने वाली रचना.

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  33. या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!
    Jaise satane lagtee hain,ham apna dhyaan kaheen aur kheench lete hain...nazarandaaz karna behtar samajhte hain..

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  34. ना जाने आज कल कैसी-कैसी मजबूरियां हैं जो लोगों को इंसान से हैवान बनने की और प्रेरित करती है ,दरअसल सामाजिक ढांचा ही लोभ-लालच का बनता जा रहा है और सरकारी कुव्यवस्था उसको पोषण और संरक्षण दे रही है |

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  35. या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!

    ....रिश्तों की जमीं पर बेहद खूबसूरत भावाभिव्यक्ति...बधाई.

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  36. सुन्दर रचना. फोटू में कोई काला गोरे को रिश्वत दे रहा है?

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  37. sahi baat to yahi hai ki ziyadatar rishte give and take par hi tike hain. ye apne samay ka sach hai.

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  38. संक्षिप्ति ही इस कविता की विशेषता है, स्‍फीति नहीं।
    मार्मिक शब्‍दचित्र इस कविता में है।
    शायद जमाने की चकाचौंध की
    अभ्यस्त आँखें अँधेरे में देख नहीं पाती!!
    या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को
    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!
    आपकी ये बातें हमारे समक्ष यक्षप्रश्‍न के समान खड़ी है। उत्तर देने में सदियां बीत जाएं और शायद तब भी अधूरे ही रह जाएं।

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  39. शायद जमाने की
    चकाचौंध की अभ्यस्त आँखें
    अँधेरे में देख नहीं पाती!!
    या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को
    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!
    .........आजकल रिश्तों का बनाना बिगड़ना आपसी तालमेल और आदमी की प्रकृति पर निर्भर सा हो गया है ..
    भावपूर्ण रचना के लिए बधाई

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  40. कित्ता अच्छा व सच्चा लिखा अंकल जी आपने....बधाई.

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  41. मृत संबेदनाएं नोटों से ही जीवित हो सकती हैं :)

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  42. बेनामी8/09/2010 07:38:00 am

    रिश्तों की खूबसूरत व्याख्या .....के साथ ऐसा भी होता है ।

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  43. बेनामी8/09/2010 08:10:00 am

    kafi samay baad ek achhci kavita padhii thanks

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  44. मजबूरी के ये रिश्ते शायद कोई याद भी नहीं रखना चाहता।

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  45. bahut kuchh kahati hui ..aakpki ye ...chhoti se rachna ...!!!

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  46. शायद जमाने की

    चकाचौंध की अभ्यस्त आँखें

    अँधेरे में देख नहीं पाती!!

    या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!

    दोनों ही बातें है ! सुन्दर भाव !

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  47. शायद जमाने की

    चकाचौंध की अभ्यस्त आँखें

    अँधेरे में देख नहीं पाती!!

    या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!

    बहुत सही कहा.

    रामराम.

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  48. एक कटु यथार्थ को समेटे हुए सार्थक और सटीक रचना ! यह भी एक सच है कि आज के युग में सभी की संवेदनाएं या तो मर चुकी हैं या मूर्छित हो चुकी हैं ! जिनकी थोड़ी होश में हैं शायद वे ही यह अनाचार देख कर कविता कर्म की ओर उन्मुख हो गए हैं ! अपनी एक रचना की लिंक दे रही हूँ ! समय मिले तो अवश्य पढियेगा !
    http://sudhinama.blogspot.com/2009/11/blog-post_22.html
    सुन्दर प्रस्तुति के लिये बधाई !

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  49. bahut sundar kavita ...........aapki kalpanashakti ki koi parisima nahi hai

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  50. 'कोई उन रिश्तों की बात नहीं करता

    जो उपजते हैं मजबूरी में

    पेट की भूख से

    और विलीन हो जाते

    जिस्म में कहीं!!'
    - रिश्तों की एक और परिभाषा.

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  51. दिल से उपजे हुए ख्याल बहुत अच्छे लगे... बहुत अच्छी और संवेदनशील कविता...

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  52. समीर बाबू,
    जेतना घिनौना ई सच है सायद ओतना घिनौना टिप्पनी हम लिखने जा रहे हैं..सब्द हमारा नही6 है.. चक्र फिल्म से नसीर भाई का एगो सम्बाद हैः
    “दुनिया का सारा धंधा पेट के लिए और उसके नीचे वाले हिस्से के लिए ही तो चल रहा है.”
    ई जबाब अश्लील हो सकता है और राही मासूम के सब्दों में ये टिप्पनी अश्लील है ज़िंदगी की तरह. माफ कीजिएगा समीर भाई... एमोसनल फूल हूँ और आपका कबिता एहाँ जाकर लगा है जिसको लोग दिल बोलता है... कम्बख्त इसीलिए पागल कहलाता है!!

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  53. बेनामी8/09/2010 02:20:00 pm

    bahut hi badiya likha hai...

    mere new blog par sawagat hai..
    http://asilentsilence.blogspot.com/

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  54. Sonal ने आपकी पोस्ट " वो रिश्ते.. " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    bahut hi badiya likha hai...

    mere new blog par sawagat hai..
    http://asilentsilence.blogspot.com/

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  55. आज ८०% रिशते ऎसे ही होते है,

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  56. कहते हैं कि गालिब का है अंदाजे बयां और

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  57. बहुत भावपूर्ण रचना |बहुत बहुत बधाई |
    आशा

    जवाब देंहटाएं
  58. एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !

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  59. शिवम् मिश्रा ने आपकी पोस्ट " वो रिश्ते.. " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:

    एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं !

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  60. नहीं सताती वाली बात ही यथार्थ लगती है !

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  61. सच यही है......


    हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!

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  62. सच यही है......


    हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को

    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!

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  63. डा सुभाष राय8/09/2010 11:39:00 pm

    समीर भाई, सच यही है कि कई बार खून के रिश्तों से भी ज्यादा गहरे मजबूरी में बने रिश्ते होते हैं. जब वह मजबूरी खत्म होती है तब ऐसे रिश्ते और गहरे हो जाते हैं और कृतज्ञता का भाव उन्हें एक आधार देता है.ऐसे रिश्तों को जो लोग सहेज कर राखी पाते हैं वे बहुत भाग्यशाली होटल हैं. अच्छी रचना के लिये बधाई.

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  64. बिल्कुल सही कहा है आपने! बहुत ही गहराई के साथ आपने हर एक शब्द लिखा है ! उम्दा रचना!

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  65. मन को झकझोरती हुई, रचना!

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  66. बहुत प्यारी पोस्ट...बधाई अंकल जी.

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  67. रचना विवशतावश जन्मे रिश्तोँ को बखूबी व्यक्त करती है ।
    प्रशंसनीय ।

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  68. दिल और दिमाग को झकझोर गई आपकी रचना समीर जी शुक्रिया।

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  69. bhut sare rishton ke beech ek rishta pathk our lekhk ka bhi hota hai jo in tmam rishton ki babt btata hai .
    thanks .

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  70. शायद जमाने की
    चकाचौंध की अभ्यस्त आँखें
    अँधेरे में देख नहीं पाती!!
    या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को
    ऐसी बातें अब नहीं सताती!!

    मानवी संवेदनाओं और सम्बंधों पर तीव्र प्रहार करती रचना....

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  71. क्या कहें अब ...लोग कहाँ याद रखते हैं बिना मतलब के किसी को ...चिंतनीय अभिव्यक्ति !!

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  72. सारगार्वित प्रस्तुति....आभार

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  73. शायद जमाने की चकाचौंध की अभ्यस्त आँखें अँधेरे में देख नहीं पाती!! या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को ऐसी बातें अब नहीं सताती!!
    क्या ही बड़ी बात कह गए लाला जी। अश अश!!

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  74. Bahut khoob... Par kash ham jitni aasani se rishte bana lete hain, utni hi aasani se unhe nibhate bhi aur thoda jatan karke unhe sambhalte bhi...

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  75. आपकी यह पोस्ट बड़ी अच्छी है .

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  76. या हम मृत संवेदनाओं के वाहकों को ऐसी बातें अब नहीं सताती!! यही सच है ...रिश्तों के रंग तेजी से बदल रहे हैं ...यह मन की संवेदन हीनता ही है ..याद रह जाने लायक पोस्ट ..

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  77. वाह क्या खूब कही सर जी...अच्छी रचना

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  78. बहुत संवेदनशील ... चुप करा गयी ये रचना समीर भाई ....

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  79. बहुत ही सटीक, संक्षिप्त और सोचने को मजबूर करती पंक्तियाँ . आपके ब्लॉग पर आके बहुत अच्छा लगा.

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  80. बहुत ही सटीक, संक्षिप्त और सोचने को मजबूर करती पंक्तियाँ . आपके ब्लॉग पर आके बहुत अच्छा लगा.

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