रविवार, जुलाई 25, 2010

एक विचार और फिर..

बहुत सारे ऐसे दिन गुजर जाते हैं जब हम लेखक, कवि, ब्लॉगर आदि होकर भी कुछ नहीं लिख पाते. कुछ इन हालातों में आत्म ग्लानि का बोध पाल लेते हैं तो कुछ अपराध बोध से ग्रसित हो जाते हैं.

हालांकि न लिख पाने की बहुतेरी वजह हो जाती हैं. कभी घरेलू जिम्मेदारियाँ तो कभी व्यवसायिक व्यस्तताएँ मगर कभी कभी तो कोई भी कारण नहीं होता. तब बस सब कुछ आलस्य मान कर संतोष कर लेते हैं.

अक्सर जब एक अंतराल के बाद, खासकर ब्लॉग लेखन में, ब्लॉगर लौटता है तो उसकी शुरुवात ही इस आत्म ग्लानि या अपराध बोध को जाहिर करते हुए क्षमायाचना के साथ होती है. उसे महसूस होता है कि सब उसके लिखे का इन्तजार कर रहे होंगे और उसने इतने दिन से कुछ लिखा नहीं. चलो, भ्रम ही सही लेकिन है तो सुखद अहसास. इस हेतु अगर क्षमायाचना के साथ भी पुनर्लेखन की शुरुवात करनी पड़े तो क्या बुराई है.

बस विचार यह आता है कि एक लेखक या कवि या ब्लॉगर होकर न लिख पाने का अहसास हमें हो जाता है और उसके लिए क्षमायाचना को भी तत्पर रहते हैं मगर एक लेखक या कवि या ब्लॉगर होने से भी पहले हम सब एक इन्सान हैं, एक संवेदनशील इन्सान और हममें से बहुतेरे इन्सानियत और संवेदनाओं से इतने समय से किनारा किए हुए भी अपराध बोध से ग्रसित क्यूँ नहीं होते, क्यूँ नहीं होती कोई आत्मग्लानि. क्यूँ नहीं हम इस हेतु क्षमायाचना को तत्पर नहीं होते. क्यूँ नहीं हम सोचते कि लोग एक बार फिर इन्सानियत और संवेदनाओं का इन्तजार कर रहे होंगे. अगर सभी ऐसा सोच लें तो शायद समाज का एक नया चेहरा सामने आये मगर काश!! ऐसा सोचें तो!!

मुझे ज्ञात है कि यह सब पढ़कर आपके मन में मिश्रित विचार तरंगे मार रहे होंगे किन्तु यहाँ जब मैं लेखन से अंतराल की बात कर रहा हूँ तब यह अर्थ नहीं है कि इस अन्तराल में आपने चिट्ठी पर पता या दूध का हिसाब या दफ्तर के नोटस भी नहीं लिखे बल्कि मैं उस लेखन अंतराल की बात कर रहा हूँ जिस सार्थक लेखन को आप सप्रयास समाज के हित में, चिन्तन में, विकास हेतु, अपने मन में उठ रहे विचारों को प्रकट करने, समस्याओं पर प्रकाश डालने एवं हल के सुझाव हेतु करते हैं और चाहते हैं कि समाज इसे समझे और लाभान्वित हो अतः इन्सानियत से अन्तराल की बात भी उसी परिपेक्ष में लिजियेगा.

humanity

खैर, बस ये तो यूँ ही कुछ आस पास की स्थितियाँ देख विचार उठ गये वरना तो आया था आज एक गज़ल लेकर, जिसे स्वर दिया इंदौर के बेहतरीन गायक, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं, भाई दिलीप कवठेकर जी ने. सारे शेर तो नहीं गाये, वजह समय की पाबंदी. अतः पढ़ लें सारे और फिर सुनें उनमें से कुछ उनकी शानदार आवाज में:

 

जिनके छोटे मकान होते हैं
लोग वे भी महान होते हैं

वो ही बचते हैं फूल शाखों में
जिनके काटों में प्राण होते हैं....

जितने हम साथ-साथ चलते हैं
उतने रिश्ते जवान होते हैं

कितनी मोटी करोगे दीवारें
यारो, सबके ही कान होते हैं

कुछ तो पाने का अच्छा मौक़ा है
सुनते हैं, रोज़ दान होते हैं

बुढ़ी माँ को उठाये काँधे पर
कितने बेटे महान होते हैं

छूट जाते हैं ज़ख्म भर के भी
ऐसे भी कुछ निशान होते हैं

क्या बतायें कि दुनिया कैसी है
सबके अपने जहान होते हैं

लब तो चुप हैं "समीर" के लेकिन
आँख के भी बयान होते हैं.

-समीर लाल ’समीर’

यहाँ सुनिये:

 

95 टिप्‍पणियां:

  1. चिंतन योग्य पोस्ट...................और बहुत मधुर गज़ल................आभार......

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  2. इंसानियत की आज बहुत जरूरत है ,क्योकि उसके अभाव में हमसब के वजूद पर प्रश्न चिन्ह लग गया है | humanity first ...

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  3. छूट जाते हैं ज़ख्म भर के भी
    ऐसे भी कुछ निशान होते हैं

    बहुत सुंदर ,सार्थक रचना ।

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  4. ग़जल अच्छी लगी।
    ये बताइए आप किसी 'थिंक टैंक' के सदस्य हैं कि नहीं ?

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  5. आज की पोस्ट बहुत अच्छी लगी समीर भाई !

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  6. इंसानियत ही सबसे बड़ा धर्म है ...कुछ भी होने से पहले हमें इंसान ही होना है ...!

    जिनके छोटे मकान होते हैं.....वे भी इंसान होते हैं
    ये तो हम भी मानते हैं ...इसलिए खुद को महान भी ..:)

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  7. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  8. क्यों नहीं होती आत्मग्लानि ?
    बस इसी अंतर्मंथन की ज़रुरत है । इसी से हम बचते रहते हैं ।
    बहुत अच्छा लिखा है समीर जी ।
    ग़ज़ल पढ़कर और सुनकर मज़ा आ गया ।

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  9. मन की यात्रा का सच्चा चित्रण। उसनी ही सुन्दर गज़ल व गायकी।

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  10. बहुत सुन्दर गजल... और गाया भी बहुत खुब है...

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  11. कारण स्पष्ट है-जीवन का सहज न रह जाना। मगर मुझे लगता है कि चाहे किन्हीं बाध्यताओं के कारण हम सार्वजनिक रूप से भले स्वीकार न करें मगर मन के किसी कोने में अपराध-बोध रहता ही है।

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  12. सोचनीय प्रश्न है भाईसाहब.....

    वो ही बचते हैं फूल शाखों में
    जिनके काटों में प्राण होते हैं....

    जितने हम साथ-साथ चलते हैं
    उतने रिश्ते जवान होते हैं ||

    गजल बहुत सुन्दर है उतनी ही खूबसूरती से आवाज भी दी गयी है....!!

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  13. ग़जल बहुत मधुर और अच्छी लगी।

    regards

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  14. ब्लागिंग , जीवन के बहु आयामों में से केवल एक है , तो उससे सामायिक अनुपस्थिति पर खेद कैसा ?

    गज़ल बढ़िया है !

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  15. कित्ते सारे विचार आते है आपके मन में...

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  16. बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल.... दिल को भा गई, बहुत खूब!

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  17. पैसे की है पहचान यहां पर,
    इनसान की कीमत कोई नहीं,
    बच के निकल जा इस बस्ती से,
    यहां करता मुहब्बत कोई नहीं...

    गुरुदेव, अगर हर कोई इंसानियत के इस मर्म को समझ जाए तो ये दुनिया रहने के लिए जन्नत न बन जाए...

    आपके बोल, दिलीप जी की आवाज़...यानि कमाल की जुगलबंदी...

    जय हिंद...

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  18. ओह! क्या कहूँ ... बेहतरीन ग़ज़ल ...
    पोस्ट में उठाई गई बात विचार योग्य हैं ...

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  19. जी.... मेरे साथ तो ऐसा ही है.... वक़्त कि कमी की वजह से मैं तो लिख नहीं पाता..... फिर ऐसे ही कई दिन गुज़र जाते हैं..... और मन के एक कोने में एक बेचैनी सी चलती रहती है.... मुझे दरअसल हिंदी में लिखने में बहुत प्रॉब्लम होती है.... क्यूंकि मेरी वार्ड पावर स्ट्रोंग नहीं है.... हाँ ! यह है कि इंग्लिश में राह चलते चलते लिख देता हूँ.... इसलिए इंग्लिश में ज्यादा काम किया है..... और रिकॉग्निशन भी वहीँ से मिला है तो उस पर ज्यादा काम हो जाता है.... और इंग्लिश में स्पेलिंग का ध्यान भी नहीं रखना पड़ता है.... और टाइपिंग होती जाती है.... लेकिन हिंदी में मुझे बहुत टाइम लगता है.... इसलिए वो टाइम नहीं निकाल पाता हूँ.... दिलीप कवठेकर जी की आवाज़ में आपकी ग़ज़ल बहुत अच्छी लगी....

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  20. होता है..... विचारों, शब्दों की आँख मिचौली चलती है...... तब ये शेर दिल को सुकून देते है -
    क्या बतायें कि दुनिया कैसी है
    सबके अपने जहान होते हैं

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  21. Upar likha gaya lekh....sochane par majbur kar diya ki wakai ham samay kaise gujar dente hain..!
    aur fir niche likhi har sher apne aap me adbhut..!

    www.ravirajbhar.blogspot.com

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  22. आज आपने एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय बात सामने रखी है....बहुत अच्छा लगा पढ़ कर ..संवेदनाएं खत्म नहीं हुई हैं बस उनके प्रति थोड़ा सजग होने की ज़रूरत है...अपने स्वार्थ से हट कर ...इस पोस्ट के लिए विशेष आभार ....

    गज़ल बहुत अच्छी है ..बहुत से सन्देश देती हुई...मधुर आवाज़ में और भी अच्छी लगी....

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  23. sach kaha sir aapne..........!! jab aap aisa sochte ho, to hamare kalamo me to jung lag gaya.......:D

    gajal to umda hai hi!!

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  24. अति सुन्दर!
    आपका अलग ही अन्दाज़ है.

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  25. समीर जी बहुत अच्छा लिखा है आप ने ,

    वो ही बचते हैं फूल शाखों में
    जिनके काटों में प्राण होते हैं....

    बहुत गहरी बात ..

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  26. Haan...bahut dinon tak na likhen to sach bada apraadhbodh hota hai...isliye ki,lagta hai srujan sheelta khatm ho gayi ho!
    Gazal sunne ja rahi hun!

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  27. मज़ा और ज़्यादह आया।
    बहुत-बहुत बधाई

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  28. इस बार के ( २७-०७-२०१० मंगलवार) साप्ताहिक चर्चा मंच पर आप विशेष रूप से आमंत्रित हैं ....आपकी उपस्थिति नयी उर्जा प्रदान करती है .....मुझे आपका इंतज़ार रहेगा....शुक्रिया

    आपकी चर्चा कल के चर्चा मंच पर है ..

    आभार

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  29. वो ही बचते हैं फूल शाखों में
    जिनके काटों में प्राण होते हैं....

    जबरदस्त!!!! वाह...क्या लिखा है सर..

    कितनी मोटी करोगे दीवारें
    यारो, सबके ही कान होते हैं


    ये भी उतना ही कमाल....

    बुढ़ी माँ को उठाये काँधे पर
    कितने बेटे महान होते हैं


    ये नहीं मानूंगा...महान होने की काबिलियत सिर्फ माँ में होती है, बेटे वहां नहीं पहुँच सकते.. :)

    बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल..

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  30. 'हममें से बहुतेरे इन्सानियत और संवेदनाओं से इतने समय से किनारा किए हुए भी अपराध बोध से ग्रसित क्यूँ नहीं होते, क्यूँ नहीं होती कोई आत्मग्लानि. क्यूँ नहीं हम इस हेतु क्षमायाचना को तत्पर नहीं होते. क्यूँ नहीं हम सोचते कि लोग एक बार फिर इन्सानियत और संवेदनाओं का इन्तजार कर रहे होंगे.'
    -सार्थक सोच.

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  31. विचारशील पोस्ट -
    थोडा विस्तार से समझाएं -
    वो ही बचते हैं फूल शाखों में
    जिनके काटों में प्राण होते हैं...

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  32. सुन्दर विचार और ग़ज़ल भी... दिलीप जी का भी धन्यवाद लेकिन काश वो 'आप जिनके करीब होते हैं' के प्रभाव से बाहर निकल अपने अनुसार कुछ संगीत दे पाते ग़ज़ल को..

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  33. विचारशील पोस्ट -
    थोडा विस्तार से समझाएं -
    वो ही बचते हैं फूल शाखों में
    जिनके काटों में प्राण होते हैं...

    जवाब देंहटाएं
  34. OMG ..क्या गज़ल है ..और क्या आवाज़ ..वाह

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  35. koi to baat hogi bekhabar tujh mein..ki roj yun hi nahi yahan aana hota ...bas sir....kamaal hai!

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  36. "क्या बतायें कि दुनिया कैसी है
    सबके अपने जहान होते हैं लब तो चुप हैं "समीर" के
    लेकिन आँख के भी बयान होते हैं "

    बहुत बढ़िया समीर भाई ! शुभकामनाएं !

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  37. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  38. जितने हम साथ-साथ चलते हैं
    उतने रिश्ते जवान होते हैं

    कितनी मोटी करोगे दीवारें
    यारो, सबके ही कान होते हैं

    समीर भाई ... बहुत दमदार है ये ग़ज़ल .... मज़ा आ गया सुन कर ....

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  39. लेखक या कवि या ब्लॉगर होने से भी पहले हम सब एक इन्सान हैं, एक संवेदनशील इन्सान
    कितनी मोटी करोगे दीवारें
    यारो, सबके ही कान होते हैं
    सार्थक बात ... सार्थक गज़ल
    बेहतरीन

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  40. आपकी पोस्ट पर देर से आने के लिए क्षमा चाहता हूँ :)

    "क्या बतायें कि दुनिया कैसी है
    सबके अपने जहान होते हैं!!"
    लाजवाब गजल! बल्कि सम्पूर्ण पोस्ट ही बेहद उम्दा लगी...

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  41. जिनके छोटे मकान होते हैं
    लोग वे भी महान होते हैं

    वो ही बचते हैं फूल शाखों में
    जिनके काटों में प्राण होते हैं....

    कविता बहुत सुन्दर लगी.... बढ़िया भावाभिव्यक्ति समीर सर जी .....

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  42. अपनी गलती स्वीकार कर लेने में लज्जा की कोई बात नहीं है । इससे दूसरे शब्दों में यही प्रमाणित होता है कि कल की अपेक्षा आज आप अधिक समझदार हैं।

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  43. इस पोस्ट का सबसे बड़ा उपहार यह रहा की आपने दिलीप जी की आवाज से रूबरू करा दिया, इससे पहले उन्हें कभी नहीं सुना था !!

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  44. बहुत अच्छी लगी ग़जल । और आवाज भी बहुत मधुर लगी। आभार

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  45. समीर जी
    बहुत गहरे भाव भर दिये हैं शब्दों में.........

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  46. बुढ़ी माँ को उठाये काँधे पर
    कितने बेटे महान होते हैं

    बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल है समीर भाई.

    - विजय

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  47. विचारणीय पोस्ट लिखी है। सुन्दर गजल है

    क्या बतायें कि दुनिया कैसी है
    सबके अपने जहान होते हैं

    समीर जी इस शेर मे जो बात कही है...वही तो इन्सान को उलझाए रहती है....

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  48. भावों ने अभाव मिटा दिए।

    आभार

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  49. आपके अशआर और दिलीप जी का स्वर...याने...सोने पर सुहागा...
    नीरज

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  50. वाह! क्या बात है! बहुत सुन्दर भाव और अभिव्यक्ति के साथ उम्दा रचना! अच्छी प्रस्तुति !

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  51. एक बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ और शुभकामनाएं!
    आपकी चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है यहां भी आएं!

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  52. लब तो चुप हैं "समीर" के लेकिन
    आँख के भी बयान होते हैं.
    ...क्या कहने आपके...

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  53. अच्छी पोस्ट है .
    ग़ज़ल तो बहुत ही खूब कही है .
    इसे दिलीप जी के स्वर में भी आप ने पोस्ट किया है .अब सुनती हूँ.
    प्रस्तुति यकीनन अच्छी ही होगी.

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  54. अब समझ आया ..पंकज उधास जी की 'आप जिनके करीब होते हैं' -- ग़ज़ल का ट्रेक इसलिए पूछा था दिलीप जी ने..!
    इस की तर्ज़ पर बहुत ही सुन्दर ग़ज़ल गायी है.विडियो क्लिप भी बहुत बढ़िया बनी है.
    बधाई.

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  55. विचारों की सुन्दर कड़ी....शानदार पोस्ट.

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  56. आपकी संवेदनशीलता हमेशा ही मेरे शब्दों को मौन करती आई है तो क्या बोलू बस इतना ही कह सकती हूँ की एक सच्चे कवी मन का आईना हैं आप.

    और जो गजेल पेश की है...हर शेर लाजवाब है..दिल से निकल कर दिल में उतरता हुआ.
    आभार इस गज़ल के लिए.

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  57. सबसे पहले समीरजी का धन्यवाद, जो इतनी भावपूर्ण और हृदय स्पर्षी गज़ल लिखकर मुझे इस लायक समझा कि उसे स्वर दे सकूं.

    आप सभी का भी शुक्रिया, जो आपको ये प्रयास पसंद आया.इन्शा अल्लाह, आगे भी हाज़िर हूं.

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  58. कमाल की भाव लिए..एक उम्दा ग़ज़ल..बधाई

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  59. हां सर बिल्कुल सही कह रहे हैं आप...सचमुच व्यस्त जिंदगी में वक्त निकाल पाना थोड़ा मुश्किल होता जा रहा है...

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  60. जिनके छोटे मकान होते हैं
    लोग वे भी महान होते हैं

    वो ही बचते हैं फूल शाखों में
    जिनके काटों में प्राण होते हैं....

    जितने हम साथ-साथ चलते हैं
    उतने रिश्ते जवान होते हैं
    दोनो ही लाज़वाब ,गजल तो भा गयी मन को .

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  61. बेहतरीन गजल और खूबसूतर आवाज ......मिल कर सोने पर सुहागा। इंसान बनना औऱ क्षमाप्रार्थी होना सबसे कठिन है।

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  62. दिलिप जी की आवाज काफी अच्छी है।

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  63. बढ़िया गजल को सुंदर आवाज मिली और क्या चाहिए !

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  64. jitni tareef ki jaye utni hi kam ha bahut khubsurat gajal har sher bahut khubsurat dil ko chu dene vala or upar se ye aavaj ... inti achi aavaj...bahut 2 badhai

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  65. सार्थक चिंतन बेहतरीन रचना, आप दोनो को बधाइयाँ ।
    -आशुतोष मिश्र

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  66. पढ़कर और सुनकर मजा आ गया.

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  67. अंकल जी, बारिश में खूब अच्छे-अच्छे विचार आते है. आपके कनाडा में बारिश हो रही है क्या.
    ________________________
    'पाखी की दुनिया ' में बारिश और रेनकोट...Rain-Rain go away..

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  68. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  69. जिनके छोटे मकान होते हैं
    लोग वे भी महान होते हैं

    .....madhur gajal.

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  70. कई दिनों से ऐसा ही कुछ लिखना चाहता था ,,, अच्छा हुआ पढ़ने को मिल गया ... जाने क्यों कभी कभी कुछ भी लिखने का मन नहीं होता ... अकारण. लेकिन संवेदनाओं के स्तर पर अपना और लोगों का समाज के प्रति अनदेखी मुझे व्यथित अवश्य करती है ...
    छूट जाते हैं ज़ख्म भर के भी
    ऐसे भी कुछ निशान होते हैं..
    बेहतरीन गज़ल और खूबसूरत गायकी
    बहुत शुक्रिया

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  71. बहुत अच्छी प्रस्तुति समीर जी..

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  72. समीर जी एकदम सटीक. आपने सबकी बात कह दी.

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  73. समीर साहब....क्या बढ़िया ग़ज़ल कही है...वाह वाह....!

    मतले ने झूमने पर विवश कर दिया....

    जिनके छोटे मकान होते हैं
    लोग वे भी महान होते हैं

    और ये शेर तो खैर कहने ही क्या......

    जितने हम साथ-साथ चलते हैं
    उतने रिश्ते जवान होते हैं

    छूट जाते हैं ज़ख्म भर के भी
    ऐसे भी कुछ निशान होते हैं

    क्या बतायें कि दुनिया कैसी है
    सबके अपने जहान होते हैं

    लब तो चुप हैं "समीर" के लेकिन
    आँख के भी बयान होते हैं

    फिर से दाद देने को जी चाह रहा है

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  74. समीर भाई आप बात ही बात में बात कह जाते हैं। बधाई।

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  75. aapka ek-ekakxar hamesha ki tarah sahi hota hai .ham jaisa sochate hai usko aap yatharth me likh dete hain.
    poonam

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  76. Sir..
    मैं तो सोच भी नहीं सकता था की मेरा ब्लॉग मेरे ही शहर जबलपुर के एक प्रसिद्ध लेखक द्वारा पढ़ा और सराहा जायेगा... आपका बहोत बहोत धन्यवाद उसके लिए...
    और हाँ मुझे आपकी रचना बहुत पसंद आई साथ ही साथ ये ग़ज़ल भी... और आगे कुछ कहने हेतु मेरे पास अलफ़ाज़ नहीं हैं...

    - Mahesh Barmate (Maahi)

    http://mymaahi.blogspot.com/

    http://meri-mahfil.blogspot.com/

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  77. कथ्य और ग़ज़ल-दोनो में अनुभव और संवेदना कॉमन हैं।

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  78. समीर जी ,
    जन्म दिवस पर शुभ कामनाएं !
    मंगलकामनाएं !!


    - राजेन्द्र स्वर्णकार
    शस्वरं

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  79. bahut sundar gazal hai sameer ji. Padkar achcha laga. Hindi ki sarwashretha gazalo me se ek hogi aap ki ye gazal.

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  80. एक विचारशील पोस्ट! और ग़ज़ल जो काँटों में प्राण दिखा दे...

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  81. क्या खूब कहा:-
    बुढ़ी माँ को उठाये काँधे पर
    कितने बेटे महान होते हैं

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