उन्हीं अहसासों के बीच मुझे कहीं दूर बाजार से उठता लाउड स्पीकरीय संगीत का स्वर सुनाई पड़ता है- संप्रदायिक सदभाव की मिसाल सा. पहले हिन्दी भजन- ओम जय जगदीश..फिर कोई पंजाबी गाना और फिर कुछ देर बाद उर्दू-मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरे महबूब न मांग...ओफ्फ!! इसमें कैसी संप्रदायिकता..ऐसा किसने कह दिया कि हिन्दी गाना हिन्दुओं का और उर्दू गाना मुसलमानों का. ये तो भाषाऐं हैं, इनका क्या मजहब? मजहब तो हम इन्सानों का होता है भाषा में तो बस अपनी मिठास होती है. खैर, ठीक है..कोई संप्रदायिकता की बात नहीं. बस, गीत बज रहे थे, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू...अब ठीक है. बीच में सड़क से गुजरती मोटर साईकिल, ट्रक, टैम्पो की आवाज. गली से निकलते सब्जीवाले की कर्णभेदी गुहार-आलू ले लो, टमाटर ले लो..हरी बूटट्ट्ट!!!! ताजा है. पीछे पीछे मरियल सी आवाज-रद्दी पेपर वाल्ल्ला!! फिर वही संगीत..मुझसे पहली सी मुहब्बत...
सोचता हूँ किसने लिखा होगा यह गीत..नज़्म. खैर, जिसने भी लिखा हो वह मेरे लिए उतना महत्वपूर्ण और विचारणीय नहीं जितना कि क्यूँ लिखा होगा? क्या लफड़ा फंसा होगा जो उसे इतनी शिद्दत और साहस से कहना पड़ा होगा कि मुझसे पहली सी मुहब्बत... मेरे महबूब न मांग...
अपनी सोचता हूँ..पत्नी का चेहरा याद करता हूँ. दूर नहीं है, नीचे ही गृह कार्य में व्यस्त है. संगीत की आवाज से कहीं ज्यादा नजदीक से बीच बीच में नौकरों को हिदायत देती उसकी आवाज आ जाती है. चेहरा याद आता है तो कल्पना करता हूँ कि यदि मैं ऐसा कह दूँ कि मुझसे पहली सी मुहब्बत...मेरे महबूब न मांग... तब?? उसकी जबाबी भाव भंगिमा की कल्पना मात्र से सिहर उठता हूँ. वो तो प्राण ही निकाल ले पूछ पूछ के कि काहे न मांग. ऐसा क्या हो गया कि न मांगे. तुम तो रोज दर रोज वैसा ही खाना मांगते नहीं अघाते. बल्कि रोज नया ही आईटम जुड़ा मिलता है लिस्ट में..अगर मैं कह दूँ कि मुझसे पहले सा खाना न मांग तो भूखे मरोगे. इस उम्र में कोई पूछेगा भी नहीं. बड़े आये हैं कहने वाले कि मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...चुप्पे बैठे रहो वरना पानी के भी लाले पड़ जायेंगे. एक गिलास तक तो खुद से पानी लेकर पी नहीं सकते और बड़ी बड़ी बात करने निकले हो..महबूब न मांग....
मेरा मन करता है कि इस गीत के साहसी रचयीता के बारे में मनन करुँ कि आखिर कैसे और किन परिस्थियों में यह शौर्यपूर्ण कदम उठाया होगा. यह तो तय है कि जिसने भी लिखा हो, वो निश्चित ही अपने जीवन में सावन दर्शन का अर्द्ध शातक तो कम से कम बना ही चुका होगा. वरना, उसके पहले तो कितना भी वीर खिलाड़ी हो, इतना बोल्ड शॉट नहीं लगा सकता.
निश्चित ही उसके पास या तो कुछ स्पष्टीकरण के मुद्दे रहे होंगे कि जब पत्नी ’काहे न मांग’ पूछेगी तो कह सके. मसलन, कि देखो महबूब, आजकल न तो पेड़ के आसपास पहले जैसे मटक कर नाचने के लिए कमर रह गई है और तुम तो देख ही रही हो कि खांसी भी ऐसी आन बैठी है कि मानो अब तन के साथ ही जावेगी तो घूम घूम कर तुम्हारे साथ प्रेम गीत भी फिल्मी स्टाईल में नहीं गा सकते, अतः हे महबूब, मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...बल्कि हो सके तो कमर में जरा मूव मल दो, कल से बड़ा दर्द है.
या फिर शादी के पहले का वाकया याद दिलाता, जब उसकी गली के मोड़ पर उसके भाईयों ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर घेर लिया था और वो साईकिल छोड़ कर सरपट दौड़ता हुआ एक किलोमीटर दूर अपने मौहल्ले में आकर ही रुका था तब जाकर हाथ पैर सलामत रह पाये थे. आज न तो दौड़ने का वो रियाज रहा और न ही दौड़ने लायक घुटने और तिस पर से सामने झूलता पेट-कैसे दौड़ पायेगा. हाथ पैर टूटें मारा पीटी में उससे बेहतर है कि ओ मेरे महबूब.. मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...तुमसे क्या छिपा है.
या उस शाम की बात याद दिलाये जब शादी के पहले उसके कमरे में घुसा था और सीढ़ी पर से आते उसके पिताजी की कदमों की आहट से उसने ही सहम कर उसे पलंग के नीचे छिपा दिया था. अब आजकल वैसे पलंग कहाँ..आजकल तो पलंगे के नीचे झाडू भर जाने की जगह रहती है. और न ही शरीर का विस्तार अलमारी में छिपने की इजाजत देता है तो पिता जी के हाथों पकड़ा जाना तो तय ही मानो..बचना अब संभव नहीं. अतः ऐ महबूब.. मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...कुछ तो रहम खाओ.
और न जाने कितने ही कारण इक्कठे किए होंगे ताकि सनद रहें और वक्त पर काम आयें और तब जाकर ऐसा साहसिक गीत लिखा होगा- मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...
हममें वो साहस नहीं. हमें इस गीत से कोई शिक्षा नहीं चाहिये. हम तो ऐसा न लिख पायेंगे. अरे, लिखना तो दूर, गुनगुना भी न पायेंगे. हमें हमारे हाल पर छोड़ दो. अरे, ये क्या, लाउड स्पीकर भी यही कहने लगा...मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिये..मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो...मुझे मेरे हाल...!!
जाने कब नींद लग गई. टेबल पर खाना लगा है...आ जाओ..क्या दिन भर सोते ही रहोगे. पत्नी की आवाज सुनाई दे रही है.