मंगलवार, जनवरी 27, 2009

मुझसे पहली सी मुहब्बत..

सर्दी की सुबह-कुनकुनी धूप और छत पर निमाड़ की पलंग पर हाथ से तकिया बनाकर लेटा मैं, आकाश ताक रहा हूँ. यकीन जानिये जनाब, यह एक लक्ज़री है जो सबके नसीब में कहाँ. कभी निमाड़ की पलंग पर लेटना मजबूरी रही होगी जैसे कि बिना डाईनिंग टेबल के जमीन पर पीढे पर बैठ कर खाना. आज उसी पीढे पर बैठ कर लालटेन की रोशनी में खाना खाने के लिए ताज ग्रुप के ढाबे पर हजारों के बिल चुकाता व्यक्ति अपने रईस होने का अहसास करता है. कभी लगता है कि हम तो इस बारे में जानते भी हैं. आने वाली पीढ़ी तो निमाड़ और मूंच की खटिया सिर्फ म्यूजियम और (शायद) प्रेमचन्द्र की किताबों में ही देखेगी.

उन्हीं अहसासों के बीच मुझे कहीं दूर बाजार से उठता लाउड स्पीकरीय संगीत का स्वर सुनाई पड़ता है- संप्रदायिक सदभाव की मिसाल सा. पहले हिन्दी भजन- ओम जय जगदीश..फिर कोई पंजाबी गाना और फिर कुछ देर बाद उर्दू-मुझसे पहली सी मुहब्बत, मेरे महबूब न मांग...ओफ्फ!! इसमें कैसी संप्रदायिकता..ऐसा किसने कह दिया कि हिन्दी गाना हिन्दुओं का और उर्दू गाना मुसलमानों का. ये तो भाषाऐं हैं, इनका क्या मजहब? मजहब तो हम इन्सानों का होता है भाषा में तो बस अपनी मिठास होती है. खैर, ठीक है..कोई संप्रदायिकता की बात नहीं. बस, गीत बज रहे थे, हिन्दी, पंजाबी, उर्दू...अब ठीक है. बीच में सड़क से गुजरती मोटर साईकिल, ट्रक, टैम्पो की आवाज. गली से निकलते सब्जीवाले की कर्णभेदी गुहार-आलू ले लो, टमाटर ले लो..हरी बूटट्ट्ट!!!! ताजा है. पीछे पीछे मरियल सी आवाज-रद्दी पेपर वाल्ल्ला!! फिर वही संगीत..मुझसे पहली सी मुहब्बत...

सोचता हूँ किसने लिखा होगा यह गीत..नज़्म. खैर, जिसने भी लिखा हो वह मेरे लिए उतना महत्वपूर्ण और विचारणीय नहीं जितना कि क्यूँ लिखा होगा? क्या लफड़ा फंसा होगा जो उसे इतनी शिद्दत और साहस से कहना पड़ा होगा कि मुझसे पहली सी मुहब्बत... मेरे महबूब न मांग...

अपनी सोचता हूँ..पत्नी का चेहरा याद करता हूँ. दूर नहीं है, नीचे ही गृह कार्य में व्यस्त है. संगीत की आवाज से कहीं ज्यादा नजदीक से बीच बीच में नौकरों को हिदायत देती उसकी आवाज आ जाती है. चेहरा याद आता है तो कल्पना करता हूँ कि यदि मैं ऐसा कह दूँ कि मुझसे पहली सी मुहब्बत...मेरे महबूब न मांग... तब?? उसकी जबाबी भाव भंगिमा की कल्पना मात्र से सिहर उठता हूँ. वो तो प्राण ही निकाल ले पूछ पूछ के कि काहे न मांग. ऐसा क्या हो गया कि न मांगे. तुम तो रोज दर रोज वैसा ही खाना मांगते नहीं अघाते. बल्कि रोज नया ही आईटम जुड़ा मिलता है लिस्ट में..अगर मैं कह दूँ कि मुझसे पहले सा खाना न मांग तो भूखे मरोगे. इस उम्र में कोई पूछेगा भी नहीं. बड़े आये हैं कहने वाले कि मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...चुप्पे बैठे रहो वरना पानी के भी लाले पड़ जायेंगे. एक गिलास तक तो खुद से पानी लेकर पी नहीं सकते और बड़ी बड़ी बात करने निकले हो..महबूब न मांग....

मुझसे पहली सी मुहब्बत..

मेरा मन करता है कि इस गीत के साहसी रचयीता के बारे में मनन करुँ कि आखिर कैसे और किन परिस्थियों में यह शौर्यपूर्ण कदम उठाया होगा. यह तो तय है कि जिसने भी लिखा हो, वो निश्चित ही अपने जीवन में सावन दर्शन का अर्द्ध शातक तो कम से कम बना ही चुका होगा. वरना, उसके पहले तो कितना भी वीर खिलाड़ी हो, इतना बोल्ड शॉट नहीं लगा सकता.

निश्चित ही उसके पास या तो कुछ स्पष्टीकरण के मुद्दे रहे होंगे कि जब पत्नी ’काहे न मांग’ पूछेगी तो कह सके. मसलन, कि देखो महबूब, आजकल न तो पेड़ के आसपास पहले जैसे मटक कर नाचने के लिए कमर रह गई है और तुम तो देख ही रही हो कि खांसी भी ऐसी आन बैठी है कि मानो अब तन के साथ ही जावेगी तो घूम घूम कर तुम्हारे साथ प्रेम गीत भी फिल्मी स्टाईल में नहीं गा सकते, अतः हे महबूब, मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...बल्कि हो सके तो कमर में जरा मूव मल दो, कल से बड़ा दर्द है.

या फिर शादी के पहले का वाकया याद दिलाता, जब उसकी गली के मोड़ पर उसके भाईयों ने अपने दोस्तों के साथ मिल कर घेर लिया था और वो साईकिल छोड़ कर सरपट दौड़ता हुआ एक किलोमीटर दूर अपने मौहल्ले में आकर ही रुका था तब जाकर हाथ पैर सलामत रह पाये थे. आज न तो दौड़ने का वो रियाज रहा और न ही दौड़ने लायक घुटने और तिस पर से सामने झूलता पेट-कैसे दौड़ पायेगा. हाथ पैर टूटें मारा पीटी में उससे बेहतर है कि ओ मेरे महबूब.. मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...तुमसे क्या छिपा है.

या उस शाम की बात याद दिलाये जब शादी के पहले उसके कमरे में घुसा था और सीढ़ी पर से आते उसके पिताजी की कदमों की आहट से उसने ही सहम कर उसे पलंग के नीचे छिपा दिया था. अब आजकल वैसे पलंग कहाँ..आजकल तो पलंगे के नीचे झाडू भर जाने की जगह रहती है. और न ही शरीर का विस्तार अलमारी में छिपने की इजाजत देता है तो पिता जी के हाथों पकड़ा जाना तो तय ही मानो..बचना अब संभव नहीं. अतः ऐ महबूब.. मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...कुछ तो रहम खाओ.

और न जाने कितने ही कारण इक्कठे किए होंगे ताकि सनद रहें और वक्त पर काम आयें और तब जाकर ऐसा साहसिक गीत लिखा होगा- मुझसे पहली सी मुहब्बत..मेरे महबूब न मांग...

हममें वो साहस नहीं. हमें इस गीत से कोई शिक्षा नहीं चाहिये. हम तो ऐसा न लिख पायेंगे. अरे, लिखना तो दूर, गुनगुना भी न पायेंगे. हमें हमारे हाल पर छोड़ दो. अरे, ये क्या, लाउड स्पीकर भी यही कहने लगा...मुझे तुमसे कुछ भी न चाहिये..मुझे मेरे हाल पे छोड़ दो...मुझे मेरे हाल...!!

जाने कब नींद लग गई. टेबल पर खाना लगा है...आ जाओ..क्या दिन भर सोते ही रहोगे. पत्नी की आवाज सुनाई दे रही है.

सोमवार, जनवरी 19, 2009

पीले पन्नों पर दर्ज हरे हर्फ : एक बुजुर्ग की डायरी

तब समय ही नहीं होता था या मैं समय निकालता नहीं था.

मैं अपने पद प्रतिष्ठा के नशे में चूर, अपने मातहतों से तारीफ सुनता और अपने अधिकारियों से तारीफ पाने की लालसा में १० से १२ घंटे दफ्तर में गुजार लेने के बाद भी फाईलों से लदा घर पहुँचता और रात देर गये तक उनमें खोया रहता. याद है मुझे कि जब मैं सोने की तैयारी करता, तब तक घर में तो क्या शायद पूरे मोहल्ले में ही सब लोग सो चुके होते.

देर सुबह जब नींद खुलती तो बच्चे स्कूल जा चुके होते. पत्नी घरेलु कार्यों में और मेरे ऑफिस जाने के लिए तैयारियों में जुटी होती. मैं उठते ही चाय की प्याली के साथ अखबार में खो जाता और फिर फटाफट नहा धोकर नाश्ता करके दफ्तर के लिए रवाना. लंच भी चपरासी भेज कर दफ्तर ही में ही मंगवा लेता. न कभी रविवार देखा, न कोई छुट्टी. बस, काम काम काम और आगे बढ़ते जाने का अरमान.

मैं अपनी इस मुहिम में काफी हद तक सफल भी रहा और एक सम्मानीय ओहदे तक आकर रिटायर हुआ.

पता ही नहीं चला या बेहतर यह कहना होगा ध्यान ही नहीं दिया कि बच्चे कैसे पढ लिख गये और कब देखते देखते स्कूल पास कर कॉलेज मे पहुँच गये. कभी कभार बात चीत हो जाती. साधारणतः ऐसे मुद्दे कि इन्जिनियरिंग करना है कि डॉक्टरी. मगर बहुत सूक्ष्म चर्चा. सब यंत्रवत होता गया मेरी नजरों में. मगर इसके पीछे पत्नी का क्या योगदान रहा, क्या त्याग रहा, कितनी मेहनत रही-वह न तो मैने उस वक्त देखी और न जानने का प्रयास किया. मेरे लिए मेरा केरियर और मेरा दफ्तर. मेरी पूछ परख, मेरा जयकारा-बस, यही मानो मेरी दुनिया थी.

चिन्तन: बेबसी

ऐसा नहीं कि बच्चों और पत्नी को बिल्कुल भी समय नहीं दिया किन्तु जो दिया वह आपेक्षित से बहुत थोड़ा था. पढ़ाई की किसी भी समस्या के लिए उन्हें ट्य़ूटर के पास भेजने से लेकर अन्य जरुरतों के लिए ड्राइवर और पत्नी के साथ भेज अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली. बच्चे अपने पिता से समय चाहते थे और पत्नी अपने पति से. वो बैठकर गप्प करना चाहते थे. मेरे किस्से सुनना चाहते थे जो वो दूसरों से मेरी तारीफों में सुना करते थे और मेरे पास समय न था.

अपनी उपलब्धियों के तहत एक घर बनवा दिया था. जितने रहने वाले घर में, उससे भी एक अधिक कमरा मेहमानों के वास्ते. कुछ उपर और कुछ नीचे. तब सोचता था कि एक कमरा और बनवा लूँ जिसमें मेरा स्टडी रुम हो. बस मैं, मेरी फाईलें, किताबें और अखबार. कोई व्यवधान न आये.

सरकारी गाड़ी के अलावा एक कार खुद की भी. कुछ बैंक में पैसा और यह सब जमा करते करते एक दिन पाया कि सारे कमरे अब खाली रहते हैं. बच्चे अपनी अपनी दिशा में चले गये हैं नौकरियों पर. बिटिया अपने पति संग और उस बड़े घर के एक कमरे में रिटायर्ड मैं और मेरे साथ मेरी पत्नी.

अभी रिटायर्ड हुए ज्यादा दिन न बीते थे. आदतें वही पुरानी मगर अब कोई काम न था तो सारा सारा दिन अखबार, टीवी और किताबें और शाम को मित्रों और रिश्तेदारों के यहाँ मेल मुलाकात. यह मेल मुलाकात पत्नी के साथ ज्यादा समय बीतने का बहाना भी बन गया वरना तो उसके लिए मेरे पास अब भी सीमित वक्त ही था.

हमारा अपना कमरा छोड़ कर अब सारे कमरे मेहमानों के हो गये और आने वाला कोई नहीं. बच्चे यदा कदा अपनी सहूलियत और छुट्टियों में मय परिवार आते. कुछ दिन मेहमानों से रहते और निकल जाते. एक अघोषित सा कमरों का आवंटन भी था कि ये बड़े का, ये छोटे का और उसी अनुरुप इनके सामान भी उसमें रहते.

कभी कभी बच्चों के पास जाना भी होता किन्तु पहला दिन छोड़ ये पत्नी के साथ अधिक समय बिताना ही साबित होता. बच्चे अपनी दिनचर्या में व्यस्त होते.

जल्द ही हम अपने घरौंदे में वापस आ जाते और मैं अखबार किताबों में एवं पत्नी घर काज अड़ोस पड़ोस रिश्ते नातों में डूब जाती.

एक दिन पत्नी न आँखें मींच ली कभी न खोलने को. वो नहीं रही. पहली बार उसका साथ पाने की प्रबल अभिलाषा जागी. सब इक्कठे हुए थे और देखते देखते वापस हो लिए. उस पूरे घर में बच रहा तो अकेला मैं. बच्चे साथ ले जाना चाहते थे मगर मैं ही कुछ समय खुद के लिए चाहता था सो न गया.

खाली घर. ढ़ेरों कमरे. माँ न रही तो उनका सामान कौन देखेगा, ये सोच बच्चे अपने अपने कमरों में ताला लगा गये थे. हालांकि चाबी मेरे पास ही थी पर न जाने क्यूँ कभी हिम्मत न जुटा पाया कि खोल कर देखूँ क्या है उन कमरों में. क्या पत्नी मेरा आत्म विश्वास, मेरे मुखिया होने का अहसास, मेरी ताकत, मेरा सम्मान सब अपने साथ ले गई थी या कि वो ही मेरी यह सब थी. आज तक इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं पा पाता.

मैं अब भी कभी बच्चों के पास जाता हूँ, पहले से ज्यादा ख्याल रखते हैं पर मुझे वहाँ बस एक मेहमान होने का अहसास होता है. न जाने क्यूँ, मैं कभी भी उनके घर को, उनके सामानों को उस अधिकार से नहीं देख पाया जिस तरह से उन्हों ने मेरे घर को या मेरे सामानों को देखा था या इस्तेमाल किया था. क्या यह एक दिशाई धारा है? क्या उन्हें भी भविष्य में अपने बच्चों के साथ यही अहसास होगा या पहले मेरे गई पुश्तों ने भी यह अहसासा होगा.

बच्चे घर पर आते भी हैं. कुछ देर बातें भी होती हैं. फिर वो अपने पुराने दोस्तों में मशगूल या अपने कमरे में बंद, कुछ फुसफुसाते हुए से अपनी पत्नियों के साथ. खाने के टेबल या शाम को साथ बैठ भी जाते हैं. मगर बहुत सीमित समय के लिए. उनके प्रवास के दौरान, खाना क्या बनना है आदि उनकी पसंद पर ही होता है और न जाने क्यूँ, कभी मुझे इन्तजार भी लग जाता है कि ये जायें तो मैं अपनी पसंद से कुछ बनवाऊँ.

मैं उनसे बात करना चाहता हूँ. अब मेरे पास समय ही समय है. मेरे पास ढ़ेरों किस्से हैं. कितने अनुभवों से मैं गुजरा हूँ. मैने क्या गलत किया और क्या सही-सब जान चुका हूँ मगर अब उनके पास सुनने को समय नहीं. मेरे किस्से उन्हें बोर करते हैं. हैं भी आऊट ऑफ डेट तो रोचक कैसे लगें. बस, मजबूरीवश अगर कुछ सुन लें तो बहुत हुआ वो भी बिना चेहरे पर कोई भाव लाए ताकि मैं अपना किस्सा जल्दी बन्द करुँ और वो अपने दोस्तों, पत्नी और बच्चों के बीच समय बितायें. अनुभव तो है इसलिए मैं समझ जाता हूँ. कई बार भूल जाने का बहाना कर बड़ा किस्सा बीच में बंद किया है मैने उनके चेहरे के भाव को समझते हुए.

आज खाली कमरे हैं. चाहूँ जहाँ स्टडी बना लूँ, कोई व्यवधान डालने वाला भी नहीं पर न जाने क्यूँ, अब पढ़ने लिखने से भी जी उचाट हो गया है. आखिरी नॉवेल दो साल पहले पढ़ी थी. इधर तो अखबार भी जैसा आता है, वैसा ही लिपटा दो तीन महिने में रद्दी में बिक जाता है. सोचता हूँ क्या करुँगा जानकर कि बाहर की दुनिया के क्या रंग हैं जब मेरी खुद की दुनिया बेरंग है.

आज भी इस कथा को यहीं रोक देता हूँ-आभास हो रहा है कि आपके चेहरे पर इसे पढ़ते वो ही भाव हैं जो मेरे बच्चों के चेहरे पर अपने किस्से सुनाते हुए मैं देखता हूँ.

बाकी पन्ने फिर कभी...या अभी के लिए ये मान लें कि मैं उन्हें भूल गया हूँ.

बस इतना जानता हूँ कि भले ही वक्त के थपेड़े खाकर मेरी डायरी के ये पन्ने पीले पड़ जायेंगे लेकिन इसमे दर्ज एक एक हर्फ हरदम हरा रहेगा- शायद किसी और बुजुर्ग की व्यथा कथा कहता.

बुधवार, जनवरी 14, 2009

एक जिज्ञासा का निराकरण!!

एक किस्सा याद आता है जब त्रिलोकी से उसके बाप ने कहा कि बेटा जा, पंसारी के यहाँ से मेरे लिए सौदा ला दे. त्रिलोकी घर से निकल ही रहा था कि सामने से चाचा आता दिख गया. त्रिलोकी को बाजार जाता देख कर चाचा बोले कि बेटा, पहली गली से मत जाना, बहुत गोबर पड़ा है. देख मेरे पूरे जूते खराब हो गये. आगे वाली गली से चला जा.

त्रिलोकी हामी भर के चल पड़ा. मगर बड़ों की बात माने तब न.

वो पहली गली से ही गया. जैसे ही गली में घुसा, सामने ही गोबर जैसा कुछ नजर आ गया. वो उससे बच कर आगे निकल गया. जरा दूर पर उसे ख्याल आया कि क्या पता जिसे चाचा ने गोबर समझा वो गोबर था भी कि नहीं. वो लौट कर उसके पास बैठ कर नजदीक से देखने लगा कि हाँ, है तो गोबर ही. फिर उठ कर चल पड़ा. मगर मन नहीं माना, क्या पता देखने में जो गोबर लग रहा है शायद गोबर न हो. वो फिर लौटा और उसे छूकर देखा. उसे लगभग भरोसा हो गया कि गोबर ही है तो वह चल पड़ा.

मगर हाय रे मन, फिर वही संशय अतः लौट कर उसने उसे हाथ में थोड़ा सा उठाया और महक कर देखा. अब तो उसे विश्वास सा हो गया कि गोबर ही है. फिर चला बाजार मगर क्या कहें. एक बार फिर फाइनली वापस, उठाया और चख कर देखा फिर गंदा सा मूँह बनाते हुए खुद से ही कहा कि चाचा ठीक कह रहे थे. अच्छा हुआ मैं बच कर निकला वरना जूते खामखां खराब हो जाते. इसी सोच में खुद को शाबाशी देते हुए वो खुशी खुशी आगे बढ़ा और मारे अपनी होशियारी पर प्रफुल्लित होते हुए अगले गोबर के ढेर पर नजर न डाल पाया और जूते उसमें सन कर खराब हो गये.

कौन मानता है बड़े बुजुर्गों की सलाह. उनके अनुभव का लाभ उठाना तो दूर, सुनना तक सदियों से कोई पसंद नहीं करता. सब अपने आप में होशियार फन्ने खां हैं जब तक अपना जूता सान नहीं लेंगे मानेंगे थोड़े ही न बिना चखे!!

कोई आसान काम नहीं होता जब आप अपने लिए संकट को खुद तलाशें. विपदा का खुद बुलायें. (पत्नी से सुरक्षा कवच: ये हम नहीं कह रहे, बल्कि इतिहास में लिखा है. हमारा अनुभव इससे इतर है) :) अपनी आजादी को दांव पर लगा दें. हँसते मुस्कराते नाचते गाते जिन्दगी का रुप बदल देने वाले क्षण का आत्मियता के साथ स्वागत करें. ठीक वैसी ही बात हुई कि कोई जानकार बता रहा हो कि भागो, सुनामी की लहर उठ रही है और आप हैं कि समुन्दर की दिशा में ही मुस्कराते और नाचते चल पड़े. फिर तो आप वीर ही कहलाये और आपका ईश्वर ही मालिक है.

जिस मौज मस्ती से अपने मन के मालिक हुए फिरते थे, उसे एक पल में तिलांजलि दे दें. फक्कड़ी का मस्त जीवन त्याग दायित्वों की गंभीरता का लबादा ओढ़ लें.

तिस पर से इस बात पर लोगों को निमंत्रित करें, भोज का आयोजन करें और खुशी खुशी अपने मैं को तुम ही तुम हो में बदल दें.

मित्र, इसीलिए हर शादी में बैण्ड पर यह घुन बजायी जाती है कि

’ये देश है वीर जवानों का
अलबेलों का, मस्तानों का...

इस देश के यारों क्या कहनें...

ऊं ऊं ऊं ऊं...टैं ए ए टैं ए ए....

हो हो....

इस देश का.........

यारों क्या कहना.....’


सारे बुजुर्ग नाचते हैं कि चलो, हमारे समझाये तो नहीं समझे. अब मजा चखो, हमारी बात न मानने का. अब समझ में आयेगी बच्चू कि बुजुर्गों के अनुभव को दो कौड़ी का समझने का अंजाम क्या होता है.

जवान नव शादी शुदा भी नाचते है कि हम फंस ही चुके हैं लो तुम भी अटको.

गैर शादी शुदा इसलिए नाचते हैं कि उन्हें लगता है यह उत्सव का विषय है (गैर अनुभवी होते हैं न!!)

बिना वीर हुए और साथ ही जवान हुए (ऐसी बेवकूफी करने के लिए ) क्या ये संभव है कि ऐसा करे? मगर फिर भी यह हमेशा होता रहा है..एक सतत प्रक्रिया है. जवान शहीद होते जाते हैं और बैण्ड वाले बजाते रहते हैं:

’ये देश है वीर जवानों का
अलबेलों का, मस्तानों का...

इस देश के यारों क्या कहनें...

ऊं ऊं ऊं ऊं...टैं ए ए टैं ए ए....


आशा है आपकी जिज्ञासा कि ’हर शादी में यह विशेष धुन क्यूँ बजाई जाती है” का निराकरण हो गया होगा. ( यह जिज्ञासा अभिषेक ओझा जी ने फुरसतिया जी की पोस्ट पर व्यक्त की थी और फुरसतिया जी को विवरण लिखता व्यस्त देख हम बीड़ा उठाय लिये सुलझाने का)

चलते चलते:

सूक्ति:

शादी वो लड्डू है जो खाये वो पछताये, जो न खाये वो पछताये.... (पुनः किसी और ने कही है, हम नहीं कह रहे)

अतः अविवाहित वीरों, हमारे समझाने से अपना शहीदाना तेवर न छोड़ना और बैण्ड वालों, तुम जारी रहो...

’ये देश है वीर जवानों का
अलबेलों का, मस्तानों का...

इस देश के यारों क्या कहनें...

ऊं ऊं ऊं ऊं...टैं ए ए टैं ए ए....

हम नाच रहे हैं.


ये देखो व्यथा: (खूँटे से टाईप)

एक रात ३ बजे पति के रोने की आवाज सुनकर पत्नी की नींद खुली तो देखा, पति ड्राइंगरुम में बैठा रो रहा है. पत्नी ने कारण पूछा तो कहने लगा कि तुम्हें याद है आज से २० साल पहले, जब हमारी शादी नहीं हुई थी, तुम्हारे पिता ने हमें प्यार करते पकड़ लिया था और कहा था कि या तो मेरी लड़की से विवाह करो या मैं अपने आपको गोली मार लूँगा और हत्या का इल्जाम तुम पर आयेगा. तुमको आजीवन कारावास होगा. तो मैने तुमसे शादी कर ली थी. पत्नी ने कहाः हाँ याद है मगर इसमें रोने की क्या बात है? पति बोला: सोच रहा हूँ, आज मैं छूट गया होता जेल से.

रविवार, जनवरी 11, 2009

फिर सजी एक और महफिल..

जब कभी कोई कदम उठाने जा रहे हो तो बस एक बार, हाँ हाँ सिर्फ एक बार उसका तुम्हारे भविष्य पर अंजाम सोच लो-बस, तुम देखना कि तुम अपने आचरण में कितना बड़ा बदलाव पाओगे. ऐसा गुरु जी कह गये थे. कल एक जेबकतरा मेरी जेब काट रहा था. मैने उसे पकड़ लिया और उसे मारने के लिए हाथ उठाया ही था कि यह सूत्र याद हो आया. विचार आया कि कहीं ये जेबकतरा कल को मंत्री हो गया तब? जेबकतरों का स्वभाविक रुपांतरण वाया चोर, गुण्डा होकर मंत्री ही तो है. बस, हाथ नीचे आ गया. कितना बड़ा परिवर्तन पाया मैने अपने आचरण में वरना तो मेरा हाथ देश के इस भावी कर्णधार पर उठ ही गया था.

खैर, जाने दो. इन सब बातों में क्या रखा है?

मूड दुरुस्त करने बैठक जमीं फिर बवाल के साथ. खूब सुनी और खूब सुनाई गई. देर रात महफिल सजती रही और फिर बैठे हम और बवाल कुछ शेरो शायरी के दौर पर और जो गज़ल निकल कर आई, वो ही पेश कर देते हैं. जरा गहरा उतरियेगा तो मजा आयेगा.

लाल संग बवाल की तस्वीर:




गर दुआ उनकी है, तो असर देखिए
रह गई हो कहीं कुछ, कसर देखिए

इसमें उसमें सभी में नज़र आएँगे
आप अपनी यहाँ पर बसर देखिए

भूल सा ही गया है, वो इस गाँव को
देगा कैसी सज़ा, अब शहर देखिए

आबे-ज़म-ज़म* को पीकर मेरे सामने
मुझपे उगला है, कितना ज़हर देखिए

काटे कटती नहीं थी कभी रात वो
हो रही है उधर, इक सहर देखिए

ये तमाशा सही, फिर भी रखने को दिल,
मेरे दर पे ज़रा सा, ठहर देखिए

कह गया हूँ ग़ज़ल, मैं ज़रा झौंक में
गिरती-पड़ती, सँभलती बहर देखिए

--लाल एण्ड बवाल

* आबे-ज़म-ज़म=मक्का के पवित्र कुँऐं का जल

गुरुवार, जनवरी 08, 2009

हमारा स-सुर होना फ्रॉम बेसुर

भाई विष्णु बैरागी ने एक अति स्वभाविक प्रश्न उछाला:

आपने सूचित किया कि अब आप 'स-सुर' बन गए। अब तक क्‍या थे?

विचारणीय बात है कि इतना बड़ा वाकिया हो गया और कोई स्पष्टीकरण नहीं. विगत २५ दिसम्बर को मेरे ज्येष्ट पुत्र चि. अनुपम का विवाह सौ. प्रगति के साथ जबलपुर में परिजनों एवं देश विदेश से आये ईष्टमित्रों की उपस्थिति में सानन्द सम्पन्न हुआ.

हम स-सुर हो लिए. वैसे इसके पूर्व भी काफी सुर में तो थे ही याने कि बेसुरे तो कभी न थे ( चाहो तो अरविन्द जी से पूछ लो जिनके कान मेरे गाये गीत सुनने को बेताब रहते हैं :) और फुरसतिया जी की बात पर तो बिल्कुल कान मत दिजिये कि वो हम से ज्यादा सुर में हैं, ये उनका गुमान भर है अन्य बातों के समान :)) और असुर भी कभी नहीं रहे. इस जगत में अब तक तो कोई ऐसी हरकत तो पकड़ में आई नहीं है (मय साक्ष्य) जिससे की असुर घोषित किया जा सके तो स-सुर ही कहलाये. अत: यह कह पाना बड़ा मुश्किल है कि अब तक क्या थे मगर अब ससुर का ऑफिशियल दर्जा प्राप्त हो गया है, अतः घोषित किया गया.

ये हैं समधि समधन-बहु बेटा

इस शुभ अवसर पर ब्लॉगजगत से अनूप शुक्ला जी ’फुरसतिया’ और रचना बजाज जी (सपरिवार दीपक जी और बिटिया निशि के साथ) ने कानपुर एवं नासिक से पधार कर अनुग्रहित किया. अरुण अरोरा, मैथली जी , पंकज बैगाणी , संजय बैंगाणी , पल्लवी त्रिवेदी , अजित वडनेकर , गुरु पंकज सुबीर जी भी लगभग आ ही से गये थे मगर अंतिम समय में प्रोग्राम अलग अलग विविध कारणों से केन्सिल हो गया. उनके इन्तजार में और उनके आने के समाचार ने ही काफी उत्साह और उर्जा दी पूरे कार्यक्रम में. दीगर बात है कि वो आ न पाये. वैसे तो मित्रों से प्राप्त न आ पाने के कारण इतने सॉलिड और अकाट्य थे कि कई बार लगा कि मैं ही किसी तरह उन तक चला जाऊँ बेचारे कितनी मुसीबत में हैं. :) न आ पाने के ५१ सॉलिड कारणों पर फुरसतिया जी से विस्तार में चर्चा हुई और इन कारणों का एक संग्रह बनाकर जनहित में प्रकाशित करने का निर्णय लिया जा चुका है. शीघ्र ही फुरसतिया जी के संग मेरा यह संयुक्त प्रयास आपके सामने लाया जायेगा.

From फुरसतिया, दीपक बजाज, समीर लाल ’उड़न तश्तरी


अनेकों अनेक ब्लॉग मित्रों के ईमेल संदेशे, टिप्पणी, फोन, एस एम एस भी शुभकामनाओं के साथ प्राप्त हुए. मित्र ताऊ हरियाणवी ने मेरी ब्लॉगजगत में अनुपस्थिति को स्पष्ट करते हुए पोस्ट लिखी( शायद मैं स्वयं ही स्वयं की अनुपस्थिति के बारे में लिख गया-बशक मित्र विवेक सिंह ) और उस पर भी ढ़ेरों शुभकामनाऐं प्राप्त हुई.

जबलपुर ब्लॉग परिवार से भाई महेन्द्र मिश्रा प्रारंभ से ही मेरी भागादौड़ी में भागीदार बने. निमंत्रण पत्र बाँटने से लेकर हर कार्य में सतत योगदान के लिए लगातार उनकी भागीदारी ने मुझे अभिभूत किया. उनके इस योगदान के लिए बारंबार नमन.

फिर जबलपुर ब्लॉग परिवार से ही मेरे भाई बवाल , मेरे जबलपुर पहुँचने के साथ साथ आज दिन तक हर वक्त साथ बनाये हुए हैं. विवाह समारोह की पूर्व संध्या पर उन्होंने मेरे सभी आमंत्रितों के लिए आयोजित कार्यक्रम में कव्वाली का ऐसा समा बाँधा कि हर व्यक्ति झूम उठा. उसी कार्यक्रम के दौरान रचना बजाज जी ने भी अपनी रचनाओं से सब को मंत्रमुग्ध कर लिया. हालात ये हो गये कि इन दो को सुनते लोगों को हम अपनी सुनाई ही नहीं पाये और कार्यक्रम खतम हो गया. रिश्तेदारों से खचाखच भरे घर में चार दिन से बाथरुम में बंद हो होकर रियाज किये थे, सब धरा रह गया. खैर बदला फिर कभी लिया जायेगा, अभी नोट करके रख लिया है.

जबलपुर ब्लॉग परिवार से भाई डॉ विजय तिवारी ’किसलय’ , विवेक रंजन श्रीवास्तव जी , पंकज स्वामी ’गुलुश’ जी भी पधारे. भाई गिरीश बिल्लोरे , भाई राजेश कुमार दुबे ’डुबे जी’ और आशीष पाठक जी किंचित कारणों से पहुँच नहीं पाये.

अंत करने से पहले यह कहना चाहूँगा कि एक फौजी ही इस देश का हित समझता है और जब देश का समझेगा, तभी न देशवासियों को समझेगा सो हमारा समझ गया, कितनी सुन्दर बात कही है प्रियश्रेष्ट गौतम राजरिशी ने:

"पुत्रवधु तो कितनी खुशनसीब हैं कि ससुर के साथ एक कवि मुफ़्त मिला है"

वाह!!! और पुत्रवधु की तरफ से आपको आह्ह!!! :)

आज आप सभी की शुभकामनाओं और बधाई संदेशों के लिए आभार प्रकट करता हूँ. ऐसा ही स्नेह हमेशा मिलता रहे, यही ईश्वर से प्रार्थना है.

इस पावन मौके पर मेरे प्रिय गीत सम्राट श्री राकेश खण्डेलवाल जी ने नीचे पेश मंगल-गीत रच कर भेजा, जिसे परिजनों और मित्रों ने बहुत सराहा:


पुष्प सुगन्धित मलय समीरं महकाये घर द्वारा
प्रगति और अनुपम हो मंगल, पावन प्रणय तुम्हारा

लगा गूँजने पुण्य साधना के मंत्रों का मृदु स्वर
सुषमा करे कन्हैया की पथ को प्रशस्त मह मह कर
शिखा दीप की ललक ललक कर, फिर फिर शगुन बताये
महिमा आज तुम्हारी राहों को आकर महकाये

शहनाई का उठा गूँजकर स्वर ये आज पुकारा
प्रगति पंथ पर रहे अग्रसर, अनुपम प्रणय तुम्हारा

मधुपूरित सपने सुशील मन, अनुभव नया बातायें
नभ पर आ राजेन्द्र मुदित मन सुरभित सुमन लुटायें
लिये सुनीति, विभा बिखराते हैं राकेश गगन पर
महामहिम के स्वप्न हो रहे शिल्पित आज निरन्तर

वीणा के सितार के संग में गाता है इकतारा
पावन मंगलमय हो अनुपम, परिणय प्रगति तुम्हारा

जो समवेत उठे स्वर वह हो गीता जैसा पावन
मुट्ठी में सिमटे आकर के मल्हारें ले सावन
सहराही जीवन के सारे सपने शिल्पित कर दे
और ईश तुमको बिन मांगे, वांछित हर इक वर दे

दिशा दिशा से दिक्पालों ने आज यही उच्चारा
प्रगति और अनुपम मंगल हो पावन प्रणय तुम्हारा

रविवार, जनवरी 04, 2009

डूबती आँखों के चमकते सपने-बांधवगढ़ यात्रा

दो इनोवा वैनों में भरकर पूरा परिवार बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के लिए रवाना हुआ. दोनों गाड़ी, पूरी पैक, शीशे बंद, मनपसंद का संगीत बजाते, हल्का एसी चालू, परिवारिक गप्प सटाकों और हंसी हल्ले में दौड़ रहीं थीं मंजिल की ओर. न कोई धूल, बेहतर सड़क बन जाने से न कोई उछलन. मात्र ३.३० घंटे से कम समय में हम २०० किमी का फासला तय कर बांधवगढ़ पहुँच गये.

पहले से बुक एक अति सुन्दर रिसोर्ट हमारा इन्तजार कर रहा था. चारों तरफ हरियाली, सुन्दरता से सजे हुये दूर दूर कॉटेज, करीने से लगाया गया बगीचा और बीचों बीच शाम को बॉन फायर करने के लिये बड़ा सा सीमेन्टेड पंडाल.

कमरे के भीतर की साज सजावट और सफाई काफी मनभावन थी. कमरा बंद करने के बाद मैं सोचने लगा कि बंद कमरे में क्या भारत और क्या अमेरीका? पिछले कुछ माह पहले जब लास वेगस में था, तब भी कमरे के भीतर तो यही अहसास थे. बल्कि यहीं ज्यादा आराम और लक्ज़री है कि घंटी बजाओ और बंदा चाय नाश्ता लिए हाजिर. वहाँ तो कॉफी/चाय की मशीन कमरे में लगी थी, खुद बनाओ और तब पिओ.

कुछ देर आराम, फिर सब अपने अपने कमरे से बाहर खुले हरे मैदान में. फुटबाल खेली गई. बच्चे, बड़े सभी बराबरी से अपने उम्दा प्रदर्शन की फिराक में. थक कर सब तैयार हुए और हम चल दिये नजदीक में ही बने बांधवगढ़ म्यूजियम को देखने. छोटा सा म्यूजियम-अब म्यूजियम तो क्या-फोटो और पार्क एवं किले के मिनियेचर मॉडल की प्रदर्शनी ही कहें तो बेहतर कि कल क्या देखेंगे. अच्छा लगा एक घंटा वहाँ गुजारना. पुराने राजे महाराजाओं ने कितने टाईगर मार गिराये, उनका लेखाजोखा भी प्रिंट करके टांगा गया था सो उनको समय की मांग के अनुरुप कोस भी लिया कि हाय, कैसे थे ये? इत्ते निर्दयी. उस कमरे में ऐसा कोसना, एक प्रकार से बोर्ड पढ़ लेने की पावती छोड़ने जैसा लगा. जो पढ़ता था वो कुछ ऐसे ही पावती छोड़ रहा था.

बहरहाल, वहाँ से वापस लौट बॉन फायर के आसपास सारा इन्तजाम पाया गया. फायर को घेरे कुर्सियाँ, कायदे से लगी टेबल.
देर तक महफिल जमीं. जाम छलके, सुर उछले. मौका था तो जी भर के परिवार वालों को अपनी रचनाऐं झिलवाईं. उनकी मजबूरी थी तो जितना बन पड़ा, उन्होंनें वाहवाही का मंजीरा बजाया और नई आई पुत्र वधु ने भी वहाँ जान लिया कि ओह!! तो ऐसे होते हैं कवि और वो भी उसके ससुर. सोचती होगी..ये कहाँ आ गये हम? :) मगर क्या करे, झेलना तो पड़ा ही.

ये रहे टाईगर माहराज

खैर, तय पाया गया कि अगले दिन सुबह ६.१५ बजे सब तैयार मिलेंगे और ६.३० बजे जंगल सफारी की जीपें हमें वन भ्रमण पर ले जायेंगी.

सुबह की कड़कड़ाती ठंड, खुली जीपें, रिसोर्ट वालों द्वारा प्रायोजित कंबल भी मानो सरसराती हवा में पिघले जा रहे हों. कंबल से शरीर गरम हो या शरीर की गरमी से कंबल-समझ पाना मुश्किल था. जंगल के भीतर की सुन्दर मनोहारी यात्रा. पतले पहाड़ी रास्ते. २० किमी की स्पीड़ पर चलती जीप.

पंछियों की चहचहाट, कुछ चीतल, हिरण, मोर आदि दिखे. आनन्द आ गया. इन्तजार था कि कहीं टाइगर दिखे. कहते हैं इस १०५ वर्ग किमी में फैले राष्ट्रीय उद्यान में लगभग २५ टाइगर हैं. जीप धीरे धीरे बिना आवाज के चलती रही और हम चुपचाप आजू बाजू नजर दौड़ाते रहे कि शायद कहीं टाइगर दिखे. एक दो बार बंदर और अन्य जानवारों की आवाज से गाईड ने टाईगर के आसपास होने का अनुमान भी लगाया और जीप रोककर इन्तजार भी किया. उसके पंजे के ताजे निशान भी दिखे मगर महाराज को नहीं दिखना था तो नहीं दिखे. दो घंटे बाद हम पहुँचे सेन्टर पाईंट याने कि भ्रमण के उस स्थल पर, जहाँ से वापसी का ट्रेक शुरु होना था किन्तु रास्ता दूसरा याने अभी भी टाईगर के दर्शन के ५०% चान्सेस बाकी.

सेन्टर पाईंट पर चाय नाश्ते चिप्स केडबरी कुरकुरे की दुकानें, काफी चहल पहल के बीच चिप्स केडबरी की दुकानों से कुछ दूर मेरी मुलाकात हुई गले में टोकनी लटकाये उबले चने को पत्तल में बाँध प्याज मसाला डालकर बेचते बालक मोनू से. चिप्स कुरकुरे की सभ्यता के बीच शायद सुबह से उसे कोई खरीददार नहीं मिल पाया था अतः कुछ उदास सा था उस चहकती अभिजात्य भीड़ के बीच अनसुनी आवाज लगाता-चने ले लो, बाबू जी.

मन नहीं माना तो मैं उससे बात करने लगा. पता लगा वहीं एक नजदीकी गांव में रहता है. रोज २० रुपये के चने खरीद कर लाता है और ३५ से ४० रुपये के बीच बेच कर १० रुपये बना लेता है. बाकी पैसा शायद वहाँ बेच पाने की परमिशन के लिए विभागीय कर्मचारियों के हिस्से जाता हो. कुछ ठीक ठीक उसने नहीं कहा. कम बात करने वाला शर्मीला लड़का था.सैकड़ों की तादाद में आये भ्रमणकारियों में से वो मात्र ७-८ ग्राहक चाहता है अपना पूरा माल खपाने के लिए. फिर १० बजे से गांव के स्कूल में पढ़ने जाता है. स्कूल के कारण शाम का फेरा लगाना संभव नहीं हो पाता. साथ में उसका दोस्त भी था भद्र सिंह. वो साथ सिर्फ खेलने आता है. शायद बेहतर आर्थिक स्थिती वाले परिवार का हो मगर दोस्त के साथ फिर भी घूमने चला आता है.

मोनू एक दिन पढ़ लिखकर वन विभाग में नौकरी करना चाहता है. शायद वही जंगल की दुनिया उसने देखी है तो सपने भी वहीं तक सीमित होकर रह गये हों, बहुत स्वभाविक है. अपनी कमाई का हिस्सा बांटते हुए निश्चित ही उसके मन में आता होगा कि कल जब मैं इसकी जगह हूँगा तो किसी मोनू को कोई तकलीफ नहीं दूँगा और अगली पीढ़ी के मोनू की पूरी की पूरी कमाई उसी मोनू की होगी.

मोनू की आज बोहनी भी नहीं हुई थी.उसकी डूबती आँखों में तैरते सुनहरे सपनों की छटा देखने की किसी को फुरसत नहीं. बच्चे हों या बड़े, सब बस एक कुतहल लिए फिर रहें है कि टाईगर कहाँ दिखेगा? जिसे जो दिशा बता दी जाती है, वह जीप उस ओर मुड़ कर ओझल हो जाती है. और मोनू खड़ा अगली खेप की बाट जोहता है कि शायद कोई उससे उसके उबले चने खरीद ले. उसे किसी टाईगर का इन्तजार नहीं. उसका वन विभाग में नौकरी पाने का सपना ही उसका टाईगर है और वो उसी का पीछा कर रहा है अपने मासूम बचपन को व्यापार की इन चालों के तले रौंदते जिसमें उसे इन १० रुपयों को कमाने के लिए विभाग के लोगों से हिस्सा बांट करते अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए क्या क्या पाठ नहीं सीखने होते.

ये है मासूम मोनू अपने दोस्त भद्र सिंह के साथ

मैं उसका फोटो खींचना चाहता हूँ तो वो अपने साथी भद्र सिंह को साथ खड़ा कर लेता है फोटो खिंचवाने. फोटो खींचकर मैं उसकी ओर ५ रुपये बढ़ा देता हूँ. आत्म सम्मानी मोनू यूँ ही पैसे नहीं लेता-वो भी एक दोना चने मेरी तरफ बढ़ाता है. मैं चने हाथ में लिए जीप में आकर बैठ जाता हूँ उस भीड़ का हिस्सा बन, जिसे तलाश है टाईगर दर्शन की.
टाईगर नहीं दिखा-टाईगर हर रोज नहीं दिखते. टाईगर का पीछा करना इतना आसान नहीं.
हम वापस रिसोर्ट में आकर अपना सामान उठाते हैं और लंच के बाद शुरु होता है मद्धम संगीत के बीच वापसी का सफर.
थकान से मैं आँखे बंद कर लेता हूँ और मेरी आँखों के आगे मोनू का भोला चेहरा आ जाता है-साहब, आज बोहनी नहीं हुई है!!

आज भले ही उसकी बोहनी न हुई हो लेकिन उसके उदास चेहरे पर झलकते आत्मविश्वास से मैं पूर्णतः आशान्वित हूँ कि एक दिन उसे उसका टाईगर जरुर मिलेगा.

मन ही मन मैं बुदबुदा उठता हूँ , अलविदा मोनू!! मेरी शुभकामनाऐं तुम्हारे साथ हैं. एक दिन फिर मिलेंगे शायद इसी मोड पर-तब तुम वन विभाग में होगे. तुम तो शायद मुझे पहचान भी न पाओगे मगर ये वादा रहा, मैं तुम्हारी आँखों से तुम्हे पहचान लूँगा.

निदा फाज़ली साहेब का एक शेर बरबस ही याद आता है न जाने क्यूँ:

कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है


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जबलपुर के साहित्य समाज ने दिवंगत डॉ श्री राम ठाकुर दादा को श्रद्धांजलि अर्पित की