रविवार, सितंबर 28, 2008

जीरो साईज़ ठानी बाबा!

लड़कियों का दिवस है. बेटियों का दिवस है. कुछ ईमेलों पर इच्छा जाहिर की गई कि बेटियों के इस दिवस पर आप अपनी कलम से कुछ लिखें. इस दिशा में भी उड़न तश्तरी की उड़ान देखने की हार्दिक इच्छा है. अब, क्या करुँ? कईयों से सुझाव मांगे कि इस विषय पर आखिर क्या लिखूँ- कोई भ्रूण हत्या पर लिखने को कहता, कोई दमन पर, कोई कुछ-कोई कुछ.

शाम होने को आई मगर कुछ समझ ही नहीं आया. पत्नी बीमार है, समय भी ज्यादा नहीं मिल पा रहा कि ब्लॉगजगत में ही झांक लूँ और देखूँ, बाकियों ने क्या लिखा है. बस, फिर सोचा कि जो जमाने में देख रहा हूँ वो ही लिख देता हूँ:

जीरो साईज़ के लिए फेमस: करीना
kareena kapoor

कैसी चढ़ी जवानी बाबा
मस्ती भरी कहानी बाबा

भूखी रहकर डायट करती
फीगर की दीवानी बाबा

कमर घटायेगी वो कब तक
जीरो साईज़ ठानी बाबा

सिगरेटी काया को लेकर
सिगरेट खूब जलानी बाबा

डिस्को में वो थिरके झूमे
सबको नाच नचानी बाबा

सड़कों पर चलती है ऐसे
हिरणी हो मस्तानी बाबा

लड़के सारे आहें भरते
सबके दिल की रानी बाबा

गाड़ी लेकर सरसर घूमें
ईंधन है या पानी बाबा

बॉयफ्रेंड सब भाग लिये हैं
खर्चा बहुत करानी बाबा

शादी करके हुई विदा वो
छाई है मुर्दानी बाबा!!

-समीर लाल ’समीर’

बेटियों के इस विशेष दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.

बुधवार, सितंबर 24, 2008

ब्लॉगर्स कैसे कैसे!!

ब्लॉगजगत अब इतनी विविधता से भर गया है और ब्लॉगर याने कि यहाँ की जनता इतना कुछ कर रही है कि क्या कहें. जब विचार आया कि चिट्ठाकारी पर चिट्ठाकार को जनता मानते हुआ कुछ गज़लनुमा आईटम लिखा जाये, तब सोचा कि एक गज़ल में साधारणतः ५ या ७ शेर होते हैं तो इतने में कैसे समायेगी ये मेरी इतनी बड़ी दुनिया. फिर दूसरा विचार आया कि जब मेरी अपनी दुनिया है तो जितना चाहो, पैर पसार लो..कोई बुरा थोड़े न मानेगा..तो शेरों की संख्या बढ़ गई..थोड़ी बहुत नहीं..३० पर जाकर भी रोकना पड़ी, वरना एक गज़ल नुमा चीज़ एक किताब माफिक लिखी जा सकती है. जितना ख्याल और अनुभव ने साथ दिया, उतना लिखा..बाकी आप जोड़ लिजिये...फ्री गज़ल है...क्या फरक पड़ता है जोड़ने घटाने में. (ध्यान दिया जाये कि जनता = ब्लॉगर)


जाने क्या लिख लाती जनता
उस पर यह इठलाती जनता

सुबह सुबह उठते ही पहले
अपनी पोस्ट चढा़ती जनता

टिपटिप टिपटिप जाने कैसे
दूजों पर टिपयाती जनता

जो भी इनकी पीठ खुजाये
उसकी पीठ खुजाती जनता

दिन भर फिर अपने चिट्ठे पर
टिप्पणी गिनने आती जनता

कुछ लोगों को छेड़छाड़ कर
टंकी पर चढ़वाती जनता

नर नारी में भेद बता कर
लोगों को भिड़वाती जनता

हिन्दु मुस्लिम बात चले जब
तेवर बहुत दिखाती जनता.

नये नये आते लोगों को
हिम्मत खूब दिलाती जनता

गाली खाने से बचने को
सम्पादन अपनाती जनता

भारी भरकम शब्दों के संग
साहित्यिक कहलाती जनता

लिखने को जब लाले पड़ते
गाने भी सुनवाती जनता.

गाना जिनको समझ न आये
फोटो ही दिखलाती जनता

सबसे अच्छा तुम लिखते हो
सबको यूँ भरमाती जनता.

मैं आया हूँ तुम भी आना
ऐसे ये बुलवाती जनता.

दुनिया भर के मातम लेकर
आँसू रोज बहाती जनता

मसला कितना भी पेचीदा
हल सबके सुझवाती जनता

भूखा उनको जो दिख जाये
दाल भात खिलवाती जनता

भूत विनाशक संग मे रखकर
भूतों को डरवाती जनता

मन के भाव कलम से लिखकर
लय में उनको गाती जनता

तारीफों के दो शब्दों को
गुटबाजी बतलाती जनता

खबर एक और दर्जन खबरी
कैसी यह मायावी जनता.

खाना कैसे आप बनायें
पाककला सिखलाती जनता

खुल कर जब कुछ कहना चाहे
अपना नाम छुपाती जनता

खुद का मूँह बुरके में ढक कर
सबका राज बताती जनता.

अब तक जिनको सुना नहीं है
उनकी गज़ल सुनाती जनता

जाने किन किन शहरों वाले
रस्तों को समझाती जनता.

आपस में कुछ भिड़ जाते हैं
झगड़ों को सुलझाती जनता.

जाने कैसे लेख बनाने
पन्ने* रोज चुराती जनता. (*डायरी के)

कैसी भी है जैसी भी है
हमको बहुत लुभाती जनता.

--समीर लाल ’समीर’

(अब माड़स्साब पंकज सुबीर छड़ी लेकर आयेंगे और गल्ती बतायेंगे...उनकी सौ मार बरदास्त..आखिर मास्साब हैं हमारे..भले के लिए ही बोलेंगे....माड़स्साब आ जाओ..कुछ तो सिखला जाओ!! ३० शेर तक बहर साधते अच्छे खाँ बोल जायें तो हम तो फुस्सु खाँ भी नहीं.!!)

कुश की खास सलाह पर एक सुन्दर फोटो: :)

बोतल तो खुद से भी बड़ी है, कम तो नहीं पड़ना चाहिये.. :)

slbecardi

रविवार, सितंबर 21, 2008

एक नेता की डायरी का पन्ना!!

कल एक जरुरी काम से नेता जी के घर जाना हुआ. वहीं से उनकी डायरी का पन्ना हाथ लग गया, साहित्यकार बनने की फिराक में लगा शिष्टाचारी लेखक हूँ सो इस मैदान के सामान्य शिष्टाचारवश चुरा लाया. बहुत ही सज्जन पुरुष हैं. सच बोलना चाहते हैं मगर बोल नहीं पाते. देखिये, उनका आत्म मंथन-उन्हीं की लेखनी से (अभी साहित्यकार बनने की फिराक में लगा हूँ अतः ऐसा कहा अन्यथा लिखता मेरी लेखनी से):

झूठ बोलते बोलते तंग आ गया हूँ. कब मुझे इससे छुटकारा मिलेगा. क्या करुँ, प्रोफेशन की मजबूरियाँ हैं.

रोज सोचता हू कि झूठ को तिलांजलि दे दूँ. सच का दामन थाम लूँ. मगर कब कर पाया है मानव अपने मन की.

दो महिने में चुनाव आने वाले हैं और ऐसे वक्त इस तरह के भाव-क्या हो गया है मुझे? लुटिया ही डूब जायेगी चुनाव में अगर एक भी शब्द सच निकल गया तो.

क्या सच कह दूँ जनता से??

-यह कि तुम जैसे गरीब हो वैसे ही रह जाओगे, हमारे बस में नहीं कि तुम्हें अमीर बनवा दें?

-यह कि मँहगाई बढती ही जायेगी. आज तक कुछ भी सस्ता हुआ है जो अब होगा.

-यह कि मैं तुम्हारे बीच ही रहूँगा? ( तो दिल्ली कौन जायेगा, विदेशों में कौन घूमेगा?)

-यह कि तुम्हारी समस्यायों से मुझे कुछ लेना देना नहीं. तुम जानो, तुम्हारा काम जाने.

-यह कि मैं बिना घूस खाये अगर सब काम करता रहा तो चुनाव का खर्चा और विदेशों में पढ़ रहे मेरे बच्चों का खर्चा क्या तुम्हारा बाप उठायेगा.

-यह कि मैँ हिन्दु मुसलमानों के बीच दरार डालूंगा ताकि मैं लगातार चुनाव जीतता रहूँ.

-यह कि ..यह कि..यह कि....

क्या क्या बताऊँ, लोग तो सभी ज्ञानी हैं, सब समझते हैं. मेरी मजबूरी भी समझ ही गये होंगे.

फिर मैं ही क्यूँ अपराध बोध पालूँ?

आज इतना ही, एक पार्टी में जाना है. देश हित में एक सौदे की बात है. (लम्बी डील है, मोटा आसामी है.)


संपादकीय टिप्पणी: ध्यान दिया जाये कि नेता भाषण कितना भी लम्बा दे ले, लिखता जरा सा ही है.

कहाँ चले, बस नेता जी की डायरी पढ़ाने थोड़ी न बुलाये थे, वो तो घेर कर लाने का तरीका था. अब हमारी मुण्डलियाँ भी सुनते जाओ:


1


नेता जी को चाहिये, वोटिंग मे उत्पात
जबहूँ धाँधली न मचे,खा जाते हैं मात.
खा जाते हैँ मात कि उनकी हिम्मत देखो
बनी रही मुस्कान, कितने भी अंडे फेंको
कहे समीर कविराय, जब ये जीत के जाये
रंग बदलते देख इन्हें, सब गिरगिट शरमाये.

2

डूबे कितने गाँव सब, बाढ चढ़ी इतराये
नेता जी इस बार भी, पैसा खूब कमाये.
पैसा खूब कमाये कि इनका किससे है नाता
जो भी रकम दिलाये वही इनको है भाता
कहे समीर कविराय, यही ईमान है इनका
पैसे का सब खेल, वही भगवान है इनका.

3

इनकी क्या हैं नितियाँ, इनका क्या व्यवहार
ये बस उनके साथ हैं, जिनकी हो सरकार
जिनकी हो सरकार वही है काम में आता
मौके की है बात, मंत्री पद मिल जाता
कहत समीर कि इनमें शरम नहीं है शेष
अपने हित के वास्ते, ये बेच रहे हैं देश.

--समीर लाल 'समीर'

मंगलवार, सितंबर 16, 2008

आलसी काया पर कुतर्कों की रजाई

आम शिकायत: समीर जी टिप्पणी में बस इतना सा लिख कर निकल जाते हैं-अच्छा है!! बहुत खूब!! बधाई!! जारी रहें!! शाबास!! बेहतरीन!! सटीक!!

उदाहरण -१

सड़क पर बिखरा

लाल रंग

-कहीं किसी नादान का

खूँ तो नहीं!!


अब इस पर क्या टिप्पणी करें सिवाय यह कहने कि-मार्मिक!!

क्या चाहते हो कि इस कविता पर ऐसी टिप्पणी लिखने लगें-

आपकी कविता पढ़ी. गीता पर हाथ रख कर कसम खाता हूँ कि पढ़ ली है, तब टिप्पणी करने निकला हूँ. उम्मीद है आपने जीवन में खून कई बार देखा होगा और सिन्दुर भी. फिर क्या वजह है कि आप पहचान नहीं पा रहे कि यह रंग जो बिखरा हुआ है, वह खून है कि नहीं. वैसे इसे और अद्भुत काव्य बनाने के लिए आप कह सकते थे कि

इसे किसी का खून न कहो,
यह तो किसी के माथे का
सिन्दुर बिखरा है.


बात गहरी हो जाती. यानि एक आदमी मरा और उसकी बीबी के माथे का सिन्दुर बिखर गया.

कोई खून खराबा हुआ होता तो हादसे की जगह के आसपास भीड़ दिखाई देती. देर से ही सही, पुलिस भी आती. साथ ही खूँ (खून लिखने का साहित्यिक तरीका) देखकर यह पता कर लेना कि यह किसी नादान का है या बदमाश का, माफ करियेगा मित्र-अभी विज्ञान ने इतनी तरक्की नहीं की है. मैं आपकी इस शब्द के इस्तेमाल पर भर्त्सना करता हूँ तथा अपना मतभेद दर्ज कराता हूँ.

साथ ही मुझे तो लगता है आपको दृष्टि दोष है. साथी ब्लॉगिया होने के नाते मैं इसे अपना फर्ज समझता हूँ कि आपको किसी अच्छे नेत्र चिकित्सक को दिखलाने की सलाह दूँ. एक बार दृष्टि पर काबू कर लें, फिर कलम काबू में लेने का पुनः प्रयास करें, सहायता मिलेगी. मेरी बातों को अन्यथा न लें, बस सलाह मात्र है.

आपका पाठक एवं टिप्पणीकर्ता: समीर लाल. साथ ही एक नोट: कृप्या ध्यान दें कि यह टिप्पणी मैने बिना पलट टिप्पणी पाने की चाह से की है. कृप्या इसके बदले में मुझे टिप्पणी न करें और न ही इसे मेरा विज्ञापन माने.

*******************


उदाहरण -२


या फिर किसी ने यू ट्यूब पर गीत पेश किया:

फिल्म परदेश का-जरा तस्वीर से तू, निकल कर सामने आ!!

हम क्या कह सकते हैं सिवाय इसके कि सुन्दर गीत या अच्छा लगा सुनकर!!

आपके कहे पर चलें तो कुछ यूँ शुरु हो जायें:

आपने यह गीत फिल्म परदेश का चुना है, उसे पहले भी मैं कई बार सुन चुका हूँ. तीन बार यह फिल्म देखी है. यह गीत मुझे बहुत पसंद है. हमारी आपकी पसंद कितनी मिलती है, सेम पिन्च!!

वैसे अगर आप गीत के साथ इसके संगीतकार, रचयिता और कोरियोग्राफर का नाम भी देती तो आनन्द दूना हो जाता, जानना तो मैं यह भी चाहता था कि तबला किसने बजाया है और ज्ञान में इजाफा भी होता जिसके लिए हम ब्लॉग पर आते हैं. अगर इसके नोट्स मिल जाते तो मैं की बोर्ड पर बजा कर देख लेता जैसे मैने कोशिश की है:

Notes:
s r2 g2 m1 p d1 n3 S
Kisi Roz Tumse Mulakat Hogi
p.s g r s r p.n.r s n.s
G.C D# D C D G.B.D C B.C
Meri Jaan Us Din Mere Saath Hogi
p.s g r s r p.n. r s n.s
G.C D# D C D G.B. D C B.C

आदि आदि. की बोर्ड सीखने के उत्साही ब्लॉगरों का भी भला हो जाता.

एक बात पर बहुत दुखी हूँ कि आपने संपूर्ण महिला समाज को नजर अंदाज करने वाले इस गीत का चुनाव किया-देखिये बीच गीत में एक जगह गुब्बारे उड़ाये जाते हैं मगर उसमें महिलाओं को प्रतिनिधित्व करता गुलाबी रंग का एक भी गुब्बारा नहीं है. नारियों को इस तरह नजर अंदाज करना कतई भी उचित नहीं है और मैं नारी संगठन की ओर से इसका पुरजोर विरोध करता हूँ एवं गाने में नायिका को घूंघट में दिखाया गया है जो कि इस नरवादी समाज द्वारा नारी की स्वतंत्रता पर सीधा वार है और नारी पर की जा रही पुरुष समाज की प्रतारणा का जीता जागता नमूना. आखिर शाहरुख खान का मूँह क्यूँ नहीं ढका गया सिर्फ इसलिये कि वो पुरुष है और महिमा चौधरी नारी. आपको जबाब देना होगा कि आखिर आपने यह गीत किस उद्देश्य से चुना.

साथ ही आपने हिन्दी का अपमान करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है-गीत के बीचों बीच:

O Blood Dy Dy Dy
O Blood Da Da Da
O Blood Du Du Du
We Love You...

यह आपका विदेशी भाषा प्रेम नहीं तो क्या है. आज आपके इस चयन से हिन्दी अपमानित हुई है. हिन्दी सुबक रही है. हम चुप नहीं बैठेंगे. हम हिन्दी को उसका अधिकार दिलवा कर रहेंगे. आंदोलन करेंगे. मैं आज इस मंच से आपके सामने खुला प्रश्न रखता हूँ कि क्या आपको ऐसा कोई गीत नहीं मिला जो पूरा शुद्ध हिन्दी में हो??

दीगर इन ऐतराजों के, मैं आपको साधुवाद कहने से भी गुरेज नहीं करुँगा कि आज जब हर तरफ संप्रदायिक्ता की आग भड़की हुई है, ऐसे वक्त में शाहरुख खान(मुसलमान) और महिमा चौधरी(हिन्दु) की प्रेम कहानी हिन्दु मुसलमान के परस्पर प्यार का सुन्दर संदेश देती है. उनका प्यार देख आँख नम हुई जाती है. यह गीत सचमुच संप्रदायिक सदभावना के लिए प्रेरित करता है.

और भी अन्य बातें हैं टिप्पणी में लिखने को, वो फिर कभी. न तो यह मेरा विज्ञापन है और न ही इसे पढ़कर आगे से आप मेरे ब्लॉग पर आने वाली हैं. अतः टिप्पणीधर्मिता पर यह टिप्पणी खरी उतरेगी.

*******

अब बताईये क्या करुँ
-रोज सुन सुन कर कान पक गये-समीर जी टिप्पणी में बस इतना सा लिख कर निकल जाते हैं-अच्छा है!! बहुत खूब!! बधाई!! जारी रहें!! शाबास!! बेहतरीन!! सटीक!!

निकल जाते हैं तो ठीक हैं निकल जायें. कम से कम खबर तो दे जाते हैं कि आये थे. आपका तो पता ही नहीं चल पाता कि आये थे. कितना धीरे से निकलते हो यार!! क्या चाल पाई है कि तनिक भी आवाज नहीं!! वाह!! आशिकों के गली के वाशिंदे दिखते हो.

मैं तो ऐसे शिकायतपीरों को भी जानता हूँ-जिनके सामने से चुपचाप निकल जाओ तो कहते हैं बहुत घमंड है, नमस्ते तक नहीं करता. नमस्ते करो तो कहते हैं पैर नहीं छूता. पैर छू लो तो हाल नहीं पूछा. हाल पूछो तो घर वालों का हाल नहीं पूछा-हद है यार!! मन तो करता है कि वहीं खटिया डाल कर बैठ जाऊँ और तब तक बात करता रहूँ, जब तक अगला ही चट कर न चला जाये. फिर दूसरे को साधूं.

खुद कुछ करना नहीं, न हिलना न डुलना और न किसी के यहाँ जाना...दूसरा करे तो परेशानी कि पेड़ की डाली पर टंगे नजर आते हैं, फलानें के साथ गुटुरगूं करते हैं, आँख मींचे हैं, पढ़ते नहीं यूँ ही बिना नजर मिलाये नमस्ते कर गये, काव्य गोष्टी के संस्कार यहाँ ले आये..जबकि यह तो मंदिर है, भजन में वाह वाह थोड़े न होती है, चश्मा लगाये हैं, सफेद शर्ट पहन ली, फुल पेन्ट पहनें हैं-याने कि कुछ न कुछ समस्या निकल ही आयेगी हर बीस पोस्ट के बाद.

कई बार सोचा कि चलो जाने दो-बीमार होगा या किसी हीन भावना से ग्रसित होगा या कोई कुंठा की ग्रन्थि सटपटा रही होगी या नाराज होगा किसी बात पर या टिप्पणी न पा पाने पर उदास(जायज कारण है-इस पर हम आपके साथ हैं) या समयाभाव एवं आलस्यवश टिप्पणी न कर पाने की तिलिमिलाहट और अपने इस व्यस्त दिनचर्या एवं नाकारेपन को सिद्ध करने की कुतर्की कोशिश-कुछ भी हो सकता है, हमें क्या करना. मगर रोज रोज-कुछ ज्यादा ही हो गया.

जरा सोचो, समझो मेरे भाई कुछ भी लिखने पढ़ने के पहले.

न समझ आये तो न सही. मौन धर लो. शायद कोई ज्ञानी ही समझ लेने की गल्ती कर बैठे. बड़े बड़े लिख्खाड़ बैठे ही हैं मौन धरे और हम उन्हें ज्ञानी समझे मौन व्रत तुड़वाने के प्रयास में कलम घिसे जा रहें हैं.

आप भी मौन रख लो और हमें जो समझ आयेगा, लिख देंगे.

कितना मन लगा कर कल लिखा होगा कि पीठ खुजाओ पीठ खुजाओ-लिखने के पहले निवेदन तो ठीक से पढ़ लेते मेरे भाई. हम अपने लिए टिप्पणी नहीं मांग रहे हैं, हम दूसरों को प्रोत्साहित करने की बात कर रहे हैं.

कहना है हम तो खाना(टिप्पणी) मांगते नहीं, फिर काहे प्लेट(टिप्पणी बाक्स) लिए घूम रहे हो भाई कि शायद कोई खाना डाल जाये तो खा लेंगे? बिल्कुल सही, ऐसे ही शर्मीले लोगों के लिए हम निवेदन कर रहे हैं औरों से कि कहीं वो भूखे ही साफ सुथरी प्लेट लिए घूमते ही न रह जायें.

आप सुकून से सोईये अपने आलस्य और मजबूरियों को तर्कों की रजाई से ढककर, कहीं ब्लॉगजगत में बहती ठंडी हवा न लग जाये-जब कभी बीच में नींद टूटे तो एक पोस्ट ठेल देना कि फलाना गलत कर रहा है और साथ में एक कवितानुमा कुछ:

ब्‍लॉगर महाराज की जय
प्‍यारे समीर और शास्‍त्री जी की जय
ब्‍लॉगवाणी और चिठ्ठाजगत की जय
पूरे हिन्‍दी ब्‍लॉगिंग की जय

-फिर से अच्छी नींद आ जायेगी.

शुभ स्लीप!!

नोट: उपर वाली कविता (स्वरचित) एवं गाना, मात्र अपनी बात स्पष्ट करने को ली गई है. इसे ब्लॉग पर पेश करने वाले कृप्या आहत न हों. मैं तो नहीं हुआ. आशा करता हूँ आप भी नहीं होंगी. :)

रविवार, सितंबर 14, 2008

रुज़ वैली अस्पताल के कमरा नं. ४००९ से...

पत्नी स्त्रियों की बीमारी से ग्रसित आज शल्य चिकित्सा के तहत अस्पताल में भरती कर ली गई. सुबह ६.३० बजे से बुला लिया था चिकित्सक महोदय ने. कागजी कार्यवाही एवं अन्य आवश्यक खानापूर्ति करते ८ बज गये और शल्य चिकित्सा प्रारंभ हुई. पूरे दो घंटे चली.

हम बाहर बैठे रहे और वहीं अस्पताल की लायब्रेरी से उठाकर फिलिस्तीन की क्रान्ति पर लिखी एक किताब का अध्ययन करते रहे. घर से ही थर्मोकप में ले जायी गई चाय के गरमागरम चुस्कियों के साथ. बरसों चली इस क्रांति का सार दो घंटों में निपटाकर संतुष्टी को प्राप्त हुए-क्या फरक पड़ता है जब बरतन दूसरे घर के फूटे. बल्कि मजा ही आता है और च च च!! जैसा अफसोस भी पूरे सुर ताल में रहता है. लगता है कि आपसे ज्यादा कोई दुखी नहीं..भले ही वो इस क्रान्ति में अपना सर्वस्व लुटा बैठा हो.

डॉक्टर ऑपरेशन करके बाहर आ चुका है. मुझसे बात कर ली है. पत्नी की हालत सामान्य है. एनेस्थिसिया का असर है, अतः होश नहीं है और शायद अगले ४ घंटे लगें जब होश आ पाये. हद है, जिसे होश नहीं है, उसकी हालत सामान्य?? भारत की जनता याद आई, मन मान गया. डॉक्टर में विश्वास जागा मात्र इसलिए कि अविश्वास से कोई फायदा नहीं. वो डॉक्टर ही रहेगा और मैं बीमार या बीमार का परीजन..पुनः मेरा भारतीय होना काम आया. मैं निश्चिंत हो गया. स्थिती से तुरंत समझौता कर लिया.

अगले ३ से ४ घंटे फिर इन्तजार करना था, जब वो कुछ होश में आये और उसे कमरे में स्थानान्तरित किया जाये. मैं अपने लिए एक कॉफी खरीद लेता हूँ-एकदम ब्लैक कॉफी. मूँह मे कड़वहाट भर दे मगर अंतरआत्मा को जगा कर रख दे. सब ऐसे ही जागे हैं मेरे देश में..कितने ही हैं जो मूँह में कड़वाहट भरे पूर्ण जागृत अवस्था का नाटक रचे घूम रहे हैं. मैं भी उनमें से एक हो गया तो क्या?? कौन नोटिस करेगा-और कर भी लेगा तो मेरा क्या हो जाने वाला है, जब लगभग सौ करोड़ का कुछ नहीं हुआ.

खैर, अब चार घंटे काटने के लिए मैने फिर अस्पताल की लायब्रेरी में किताब तलाशी. जहाँ फिलिस्तीन की क्रान्ति वाली किताब वापस रखी (जहाँ से उठाई थी), उसी के बाजू से ’इजराईल का अपना पक्ष’ वाली उठा ली. न जाने क्यूँ, लायब्रेरी हो या किताब की दुकान..दो विरोधी पक्ष आसपास ही क्यूँ जमाती है-क्या झगड़ा लगवाना इनका उद्देश्य है या कुछ और?? दुकान और लायब्रेरी हो या हमारे भारतीय नेता?

निश्चित ही इज़रायली का अपना पक्ष पर लिखी किताब फिलिस्तीन की क्रान्ति पर लिखी किताब से ज्यादा मोटी थी. हो भी क्यूँ न, पैसे वालों का पक्ष, जिन्हें बड़े बड़े गुण्डों का समर्थन हासिल हो, हमेशा़ भारी ही रहता है. फिर यहाँ तो अमरीका का समर्थन हासिल है. उससे बड़ा....कौन?? ज्यादा दस्तावेजी प्रमाणों से लैस. और उसे पढ़ने को मेरे पास समय भी ज्यादा ही था..रहना भी चाहिय..यही प्रभावी और पैसे वालों के प्रति आम शिष्टाचार की मांग भी है.

मेरे पास समय इतना कि लगभग दुगना. शल्य चिकित्सा, मुख्य भाग, में दो घंटे लगे..और रिकवरी में ४ घंटे लगने थे.आप समझ रहे होंगे क्यूँकि सामान्यतः यही होता है हमेशा!!! रिकवरी प्रोसेस हमेशा अपना समय लेती है, पूर्ववत स्थिती में आने को..पूर्ववत स्थिती की अहमियत का अहसास दिलाने.

इजराईल का पक्ष पढ़ा. अन्तरसात किया. जी मतलाया..वोमिट फीलिंग हुई थ्रो आउट वाली-बहुत समय पहले रशियन वोदका बिना जिन्जरेल के पीने पर ऐसा ही महसूस किया था ..मगर इम्प्रेस हुआ..इम्प्रेशन-अच्छा या बुरा..यह कहने वाला मैं कौन..मात्र एक पाठक की मामूली सी हैसियत.कोई आलोचक तो हूँ नहीं...आमतौर पर, पैसे वालों का और पॉवरफुल लोगों का पक्ष इम्प्रेस करता ही है. वो लिखा इसी उद्देश्य से जाता है.

यूँ अगर अलग नजरिये से आप देखना चाहें तो आपकी मरजी. मैं तो बस एक वृतांत पेश कर रहा हूँ पत्नी की ऑपरेशन के दौरान जो दिन गुजरा उसका.

एक नजरिया यूँ ही सही कि ऐसी क्रांति में झेलन पक्ष ( जो आम नजरों में झेल रहा है मगर सही मायनों में झिलवा रहा है) ज्यादा संवेदनशील प्रमाणपत्रों और पक्षों से लैस रहता है. मेरा लड़का है, इसका मेरे पास क्या प्रमाण पत्र होगा मगर अगर और कोई क्लेम करेगा तो वो डी ऎन ए रिपोर्ट से लेकर न जाने कितने फोटोग्राफ्स से लैस होगा कि चक्कर ही आ जायें. पाकिस्तान का हाल नहीं देख रहे हैं कश्मीर के मामले पर?? अब भी कोई प्रश्न है क्या?

क्या सही, क्या गलत!!! किस किस को रोईये..रो ही लेंगे तो खुद ही अपने आंसू पोछिये... छोडिये सब..बस, पत्नी की तबीयत देखिये, वो ही अपनी है..उसी से फरक पड़ता है, बाकि तो बस टाईम पास...चाहे प्रलय आ जाये..किसे बचाने भागियेगा... सोचो कुछई..भागोगे बीबी को बचाने ही न!!

खैर, वो कमरे में आ गई है. वेस्ट विंग का कमरा नं. ४००९. आलीशान कमरा..समृद्ध देश का समृद्ध अस्पताल...और मरीजों के लिए पेश किया खाना..मानो कोई अंतर्राष्ट्रीय अधिवेशन अटेंड कर रहे हों. मरीज के साथ वालों के लिए हाई फाई स्नैक, ज्यूस..और न जाने का क्या क्या विथ डिजर्ट.

उपरी मंजिल पर कमरा. अस्पताल जो एक बहुत विशाल प्रांगण में बना हुआ है..उत्तर में दो मील तक सिर्फ घास का करीने से कटा मैदान..दक्षिण में भी दो न सही डेढ़ मील का तो कम से कम...कमरे से खिडकी से दिखता दक्षिणी छोर...बीच मैदान में एक हैलीपैड..हैलीकाफ्टर से लाये गये मरीजों के लिये-लोहे की जाली से घिरा अहातानुमा... कुछ दूर पर इलेक्ट्रीक रुम और एक अन्य कोने में लगा प्रोपेन टैंक..अस्पताल की गैस सप्लाई के लिए... मैदान के दोनों ओर सड़क.

देखता हूँ सामने वाली सड़क से एक कन्या को मैदान में आते. सोचने लगता हूँ इतनी लम्बी दूरी और पैदल..दूसरी तरफ भी याने उत्तर में दो मील और, तब अगली सड़क पर पहूँचेगी. मैं सोच ही रहा हूँ और वो चलते चलते हैलीपैड का मुआयना करती, हेलिकाफ्टर को निहारती (सोचता हूँ मैं अकेला नहीं हूँ जो हेलिकाफ्टर और हवाई जहाज देखकर आनन्दित हो उठता है), इलेक्ट्रीक हाउस को पार कर, प्रोपेन सिलेंडर से किनारा कर गुम हो गई उत्तर मे..जल्द ही सड़क पा लेगी जो उसकी रफ्तार दिखी. मैं बस सोच ही रहा हूँ तभी उल्टी दिशा में जाता आदमी भी दिख गया..और जल्द ही दक्षिणी सड़क पर पहूँच भी गया. शायद पहला कदम जरुरी रहा होगा और फिर सब फासला तय हो गया.

मैं आल्स्यवश बैठा अस्पताल में, बस सोच रहा हूँ कि कैसे चल लेते हैं यह इतना.

एक स्वास्थ्य के प्रति जागरुक श्रेणी के लोग और एक हम आलसी..बस, सोच की दुनिया में जीते.

शायद यही कारण होगा कि वो दक्षिणी छोर से घुसी और उत्तरी छोर से निकल गई..आस्पताल को पार करती हुई-अस्पताल में रुकने की कोई जरुरत नहीं और हम अस्पताल में बैठे हैं बीमार या बीमार के साथ. जल्दी कुछ इस तरीके का टहलना न शुरु किया तो यहीं लेटे नजर आयेंगे.

कितना अंतर है किसी कथा को लिख देने में और उसे जीने में. टहलना एक आलसी के लिए मनभावन बात नहीं है अतः सरल साहित्य के तहत राही मासूम रज़ा की किताब ’टोपी शुक्ला’ पढ़ने लगता हूँ. कुछ आनन्द का अनुभव होता है टोपी की बातें सुन "तुम मुसलमान हो क्या इफ्फन?- हाँ- और तुम्हारे अब्बू, क्या वो भी मुसलमान हैं?? :)).. बालमन, नादान गहरी बातें और हम सोच की उथली सतह पर ही टहल रहे हैं.


नोट: शायद आप समझ गये होंगे कि मेरी टिप्पणियाँ क्यूँ नहीं दिख रही हैं. कम से कम यह राजशाही की तरफ बढ़ता कदम तो कतई नहीं है, बस एक पारिवारिक जिम्मेदारी है.


solntour

मंगलवार, सितंबर 09, 2008

रजिया का बाप मरा, आसिफ की ऐश

रजिया का बाप मरा, आसिफ की ऐश

यह मुहावरा हमारे कालेज के दिनों में हमारे मोहल्ले से ही हमारी कोख से जन्मा था. आसिफ, हमारे बाल सखा और रजिया उनके पड़ोस में रहने वाली सुन्दर कन्या. यूँ तो आसिफ का पड़ोसी होने के कारण उनके घर आना जाना था मगर उनके मन में उपजे रजिया के प्रति प्रेम को वो मात्र हम दोस्तों के बीच ही बखान कर पाते थे. रजिया को छूना तो दूर, कभी सीधे नजर मिला कर बात भी न कर पाते, मन में चोर जो था. मगर अरमान ऐसे कि रजिया के नाम पर किसी से भी लड़ जायें. रजिया रोजा रखे, दुबले ये हों टाईप.

एक रोज रजिया के अब्बू गुजर गये. वो क्या गुजरे मानो आसिफ की लाटरी ही लग गई. खूब गले लगा लगा कर चुप कराया रजिया को. जितनी बार उसकी सिसकी फूटे वो आसिफ का कँधा सेवा में हाजिर पाये. आँसू पोछे गये, बालों को सहला कर ढाढस बंधाया गया गोया कि जितना संभव था, उससे भी ज्यादा आसिफ मियाँ ने मौके का फायदा उठाया. वहाँ साथ में रोयें और दोस्तों के बीच आँख दबा दबा कर हंसते हुए किस्से सुनाये. हालात ये हो गये कि दिन गुजरने के साथ उनके परिवार का मय रजिया के रोना बंद हो गया तो भी आसिफ मियाँ उनके घर जाकर अब्बू का किस्सा छेड याद में स्वयं रोने लगें. रजिया और उसकी अम्मा को भी मजबूरी में रोना पड़े और फिर आसिफ मियाँ को चुप कराने का मौका मिले.

कुल कथा का सार कि जब लोगों को मौका मिलता है, वो अपने मन की कर ही लेते हैं.

दो दिन पहले हमने पोस्ट लिखी कि हम थके हैं, दुखी हैं और कुछ पढ़कर अपने लेखन में कुछ सु्धार लाने के आकांक्षी. बस, मानो कि मौका हाथ लगा लोगों के. बहुतो ने क्या अधिकतर ने तो वाकई बहुत दुख जताया, मान मनोहार किया. सो तो खैर रजिया के यहाँ भी बहुतों नें किया था वाकई दुख व्यक्त.

मगर कुछ ऐसे दुख व्यक्त किये कि समझ ही नहीं आया कि मना रहे हैं, समझा रहे हैं, कविता लिख रहे हैं, धमका रहे हैं, डांट रहे हैं कि लतिया रहे हैं. कुछ की टोन तो ऐसी भी रही कि ठीक है, ठीक है-रो गा के जल्दी फुरसत हो लो. हम आते हैं अभी तुम्हारे लिए ड्रिक बनाकर (वो भी हमारी पसंदीदा-स्क्रू ड्राइवर- ऐसा प्रलोभन कि ज्यादा देर रोना भी भारी लगने लगा).

मास्साब पंकज भाई भी मौका ताड़े और इतने दिनों से जज्ब दिल की बात कह गये कि हमारे यहाँ का सबसे होशियार (शरारत में) छात्र और उधर हमारी छोटी बहना विनिता मनाते हुए कह रही हैं कि बुरा मत मानना मगर आप सत्या फिल्म के कल्लू मामा के जैसे दिखते हो-लो, एक तो हम पहले ही बुरा माने बैठे हैं तो सोचा होगा कि मान भी जायें तो क्या-एक दिन और नहीं लिखेंगे. मुर्दे पे क्या नौ मन माटी और क्या दस मन माटी. इतना हक तो बनता ही है छोटी बहन का. सही है, तुम्हें तो हक हईये है.

प्रिय ई-गुरु राजीव ने एक ही बार में मनुहार, अपना ब्लॉग खोलने का एजेंडा, फ्यूचर प्लान, शिकायत कि आपने आज तक हमें टिप्पणी नहीं दी, धमकी, सौगंध सब एक ही टिप्पणी में: अपनी टिप्पणी का समापन कुछ इस हृदय स्पर्शी अंदाज में किया-आप एक भीषण योद्धा की तलवार ( लेखनी ) छीन रहे हैं और कुछ नहीं. अब जब तक आप की टिपण्णी के दर्शन मैं अपने ब्लॉग पर नहीं कर लूँगा, महादेव की सौगंध मैं एक शब्द भी नहीं लिखूंगा.

अलग सा भाई टिप्पणी किये और फिर उसे पोस्ट बना कर लाये-मनुहार जैसा कि बहुतों ने किया घुड़की के अंदाज में-आप ऐसा कैसा कर सकते हैं? यही तो स्नेह है.

बालक आदित्य यानि हमारा प्यारा सा बबुआ, उसने तो रुला ही दिया कि मैं आपको बहुत मिस करुँगा. वहीं बेजी ने ऐसा लताड़ा कि हमारी तो घिघ्घी ही बंध गई.

पुराने योद्धा निश्चिंत थे तो ज्यादा इन्टरेस्ट नहीं लिये. इस टंकी पर उतरते चढ़ते हमारे संग संग उन्होंने कईयों को देखा है. इसे फैशन में लाने का और बाद में अपने नाम कॉपी राइट करा ले जाने का सेहरा अनुज सागर चन्द्र नहार के सर है.

एक जमाने में वो हर छठे छः मासे टंकी पर चढ़ा करते थे. फिर हम सब चिट्ठाकार फुरसतिया जी समेत जाकर उनकी मान मनुव्वल करके उतारा करते थे. बाद में तो उनका ऐसा रियाज बना कि जब तब दौड़ कर टंकी पर चढ़ जाते और जब कोई न भी मनाता तो भी खुद ही उतर आते कि मैं जानता हूँ, आप लोग आने ही वाले थे. कुछ ऐसे ही रास्तों पर महाशक्ति ने भी अपने जोहर दिखाये थे. फिर धीरे धीरे यह टंकी चढन कार्यक्रम फैशन से जाता रहा और आज हमारा कृत्य पुराने दिनों को याद बस करा गया.

अभ्यस्त फुरसतिया जी अमिताभ स्टाईल बैठे चाय पीते रहे, कहे बबुआ का मनोना चल रहा है, परसों चिट्ठाचर्चा करेंगे, वो बिल्कुल निश्चिंत थे कि परसों तक तो हम टंकी से उतर ही आयेंगे वरना वो लेपटॉप टंकी पर भिजवा देते कि पहले चिट्ठाचर्चा लिख लो फिर जो मन आये सो करो, गुरुदेव राकेश खंडेलवाल भी पुराने हैं, कहे कि मुझे पता है लौट कर फिर आओगे, तो पंकज बैंगाणी ’नो कमेन्ट’ कह कर अकर्मण्यता की पूर्व स्थिति को प्राप्त भये. सब अनुभव के सीखे हैं.

नवांगतुक वीनस केसरी बेचारे भागते रहे हमारे और मास्साब पंकज सुबीर जी के चिट्ठे के बीच, टिप्पणियां गिनते और कहते कि अब तक नहीं माने. सोच रहे होंगे कि कितना बड़ा पेट है., आखिर कब भरेगा.

किसी ने वीर कहा तो किसी ने हाथी- हाथी अपनी मस्त चाल चलता है, भले ही... कितना भी भौंके. अतः आप चलते रहें. सेकेंड हाफ से हमारा साबका नहीं किन्तु पहला हिस्सा तो हमारे लिये ही कहा है न!!

पंगेबाज ईमेल के जरिये सारी दुनिया से पंगा लेने तैयार खड़े नजर आये और कहने लगे, बस दुख का कारण बता दो बाकि हम देख लेंगे. बहुत स्नेही जीव हैं!!! धार्मिक तो खैर हैं ही!!

एक दो तो इतने भावुक हो उठे लिखते लिखते ऐसा लिख गये कि हमें लगा अपना ही शोक संदेश पढ़ रहा हूँ. घबरा सा गया मैं.

भाई अरविन्द मिश्रा तो ऐसा सटपिटियाये कि कहने लगे आगे से जितनी कविता सुनाओगे, बिना कुछ बोले सुना करुँगा, बस वापस आ जाओ. हमें लगा ये तो एक उपलब्धि ही कहलाई.

अनेकों ईमेल मिले, कोशिश की कि जितना बन पाये, जबाब दे दूँ, फिर भी कितने अब भी पेन्डिंग है. सभी का आभार.

वैसे दो एक ईमेल ऐसे भी रहे कि क्या कहें. कहते हैं अच्छा ही हुआ कि आप खुद ही हट गये वरना तो हटाने के क्रेन बुलवाना पड़ती. यह आभास आपकी फोटो देख कर हो रहा है.

इन सबके साथ आज जब मां भवानी ने फटकारा, पुचकारा, प्यार जताया तब तो कुछ सोचने को शेष रहा ही नहीं. मां भवानी, क्षमा करना, आपको दुखी किया बेवजह.

कल मेरे अनुज शिव मिश्र जी के ससुर साहब का निधन हो गया. ऐसी दुखद घड़ी में भी वो समय निकाल कर मनुहार करने आये ईमेल द्वारा, कैसे रुकता वापस आने से भाई.

ऐसा अपार स्नेह, ऐसा प्रेम, ऐसा मनुहार-आँख भर भर आती है, गला रुँध जाता है, शब्द अटक जाते हैं-क्या कहूँ.

सभी तो आये-सच कहूँ तो भले ही एक वाकया पृष्ट भूमि बन गया मगर वाकई एक दो दिन का आराम चाहता था, अनुराग भाई और अन्य मित्र समझ भी रहे थे, सो हो गया. किसी से भी कोई शिकायत नहीं, कोई गुस्सा नहीं. सभी तो अपने हैं.

ऐसा ही स्नेह बनाये रखिये. सफर पर पुनः हाजिर होता हूँ आप सबके साथ.

सभी का बहुत आभार.

बेहतरीन मुक्तक भी मिले मान मुन्नव्वल में:

रवि कान्त ने मास्साब की पोस्ट पर कहा:

उड़न तश्तरी के उड़ने का हुआ है क्या असर देखो
चरागें लेके ढूँढे हर गली औ हर शहर देखो
गजल की रूह व्याकुल है रदीफ़ो काफ़िया हैरां
गुरू मायूस बैठे हैं हुई है नम नजर देखो


मास्साब पंकज जी ने कहा:

हमें आवाज देकर के चले हो तुम कहां साहिब
चलो हम साथ चलते हैं चले हो तुम जहां साहिब
यहां तनहाई सूनापन अकेलापन बहुत होगा,
करेगा कौन मेहफिल को हमारी अब जवां साहिब.

राकेश खंडेलवाल जी मेरी पोस्ट पर :

जानता हू लौट कर वापिस पुन: आ जाओगे तुम
क्योंकि यह विश्वास मेरा है, तुम्हें लौटा सकेगा
चाह कर भी राम क्या पथ मोड़ पाये थे शिला से
है पठन संकल्प मेरा जो तुम्हें प्रेरित करेगा

छोड़ सकती लेखनी क्या उंगलियों का साथ बोलो
या जुदा परछाई होती है कभी अपने बदन से
शब्द चाहे बोलिये कुछ और जो चाहे लिखें भी
धार इक बहती रहेगी, नित तुम्हारी इस कलम से

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एक और ग्रेंड केनियन की फोटो:


रविवार, सितंबर 07, 2008

मुझे याद रखना-वापस आऊँगा, दोस्तों!!!

कुछ थक सा गया हूँ. कुछ दुखी सा भी हूँ मगर खुद से. कुछ जरुरत से ज्यादा ही आप लोगों का सम्मान, स्नेह, लाड़-प्यार पाकर लेखन के मुख्य कार्य से विचलित हो चला हूँ. सही शब्दों में-बिगड़ सा गया हूँ.

यूँ ही कभी शौकिया लेखन शुरु किया था. आम हल्की फुल्की भाषा में लिखता गया. जब जो मन में आया, लिख दिया. सबने बहुत उत्साहित किया, सम्मानित किया, स्नेह दिया और मैं अपनी ही रौ में बहता लिखता चला गया.

सही मायनों में न तो मैं साहित्य का ज्ञाता हूँ और न ही कोई मंझा हुआ लेखक या कवि न ही ब्लॉगलेखन का महारथी. बस, हल्का फुल्का मन बहलावी लेखन. पाठक को मजा आये, मेरे संदेश उन तक पहूँच जायें, किसी को मेरे लिखे से ठेस या तकलीफ न पहुँचें-बस, यही मात्र उद्देश्य रहा मेरे लेखन का.

मेरे लेखन में कहीं कुछ बहुत बड़ी कमी आ रही है आजकल. आ क्या रही है, है ही. जो कहना चाहता हूँ वो भाव न जाने कैसे मतलब बदल कर पहुँच रहे हैं. निश्चित ही लेखन की कमजोरी है, जो अपनी बात सही तरीके से नहीं रख पा रहा.

कल रात टिप्पणियों के माध्यम से साथी चिट्ठाकारों से निवेदन किया:

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निवेदन
आप लिखते हैं, अपने ब्लॉग पर छापते हैं. आप चाहते हैं लोग आपको पढ़ें और आपको बतायें कि उनकी प्रतिक्रिया क्या है.
ऐसा ही सब चाहते हैं.
कृप्या दूसरों को पढ़ने और टिप्पणी कर अपनी प्रतिक्रिया देने में संकोच न करें.
हिन्दी चिट्ठाकारी को सुदृण बनाने एवं उसके प्रसार-प्रचार के लिए यह कदम अति महत्वपूर्ण है, इसमें अपना भरसक योगदान करें.
-समीर लाल
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उद्देश्य और मंतव्य था कि हिन्दी चिट्ठाकारों को प्रोत्साहन मिले. हिन्दी चिट्ठाकारी का विकास हो और शनैः शनैः, परिणाम स्वरुप हिन्दी का विकास हो.

किन्तु शायद कुछ लोगों तक बात ठीक से पहुँची नहीं और उन्होंने इसे उन पर टिप्पणी न करने का आक्षेप माना या मेरे ब्लॉग पर टिप्पणी करने का निवेदन. किसी ने साफ साफ लिख कर मुझे अनुग्रहित किया तो किसी ने मेरी टिप्पणी मॉडरेट कर अपना क्षोभ जताया.

इस तरह सोच लेने एवं अर्थ लगा लेने में मैं उनकी कतई गल्ती नहीं मानता. मेरा ही लेखन कमजोर रहा और शायद मैं ही अपनी बात ठीक तरीके से नहीं रख पाया.

आज देखा तो शास्त्री जे सी फिलिप भी इसी बात को बेहतर तरीके से अपनी सिग्नेचर लाईन बना कर सब तरफ टिप्पणियों में कह रहे थे. निश्चित ही वह सक्षम लेखक हैं, अतः अपनी बात बेहतर ढ़ंग से रख पाये, उनका साधुवाद.

प्रोत्साहन के आभाव में, अपने पिछले दो वर्ष और छः माह के चिट्ठाकारी जीवन में न जाने कितने चिट्ठों को दम तोड़ते देखा है. कुछ बंद हो गये, कुछ बंद होने की कागार पर हैं.

मैं अपनी तरफ से जितना बन पड़ता है, उतना प्रोत्साहित करने का प्रयास करता हूँ. अनेकों लोग इसी तरह के प्रोत्साहन देने के प्रयास में सक्रिय हैं. यह एक मिशन है, अतः समय और श्रम दोनों देना होता है मगर साथ ही हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार प्रसार देख कर आत्म संतुष्टी भी होती है कि हमारा यह छोटा सा प्रोत्साहन देने का योगदान बेकार नहीं गया.

खैर, किसी विद्वान को कभी पढ़ा था कि जितना लिखते हो, उससे कई गुना ज्यादा पढ़ो. इससे न सिर्फ ज्ञान बढ़ेगा अपितु लिखने का स्तर भी सुधरेगा.

मुझे लगता है कि मुझे अब पढ़ने में कुछ ज्यादा समय लगाना चाहिये इससे पहले की मैं कुछ लिखने का अधिकारी बनूँ. अतः विचार है कि लेखन को कुछ समय के लिए स्थगित कर मात्र पठन की ओर अग्रसर हुआ जाये ताकि अपने कमजोर लेखन के चलते बार बार लोगों को ठेस न पहुँचाऊँ. शायद पढ़ते रहने से लेखन को कुछ ताकत मिले भले ही थोड़ी सी सही.

पुनः मिलूँगा इसी मोड़ पर जैसे ही कुछ लिख सकने का आत्मविश्वास वापस आता है.

मेरे मन में न तो किसी से द्वेष है और न ही गुस्सा. मैं तो बल्कि उनका आभार व्यक्त करता हूँ जिन्होंने मुझे इस कमजोरी को पहचानने का मौका दिया. वरना तो मैं मदमस्त चलता ही जा रहा था.

आशा करता हूँ जब भी लौटूँ, आप सबका स्नेह ऐसे ही प्राप्त हो.

तब तक के लिए आप सबको बहुत शुभकामनाऐं और आजतक प्राप्त समस्त स्नेह और हौसला देते रहने के लिए आभार.

भारी मन से विदा लेता हूँ...

चाहता हूँ आज हर इक शब्द को मैं भूल जाऊँ
चाहता हूँ लेखनी को उंगलियों से दूर कर दूँ

--मेरे गुरु राकेश खण्डेलवाल जी की ताजा रचना से...

सादर

आपका
समीर लाल ’समीर’

गुरुवार, सितंबर 04, 2008

विरह अगन सी तपन!!

पिछली पॉडकास्ट पर मित्र एवं पथप्रदर्शक माननीय फुरसतिया जी के कथनानुसार श्रृंगार रस का हमारा गीत वीर रस के मार्ग से होता हुआ रोद्र रस के मैदान में टहलता हुआ पाया गया. आज फिर वैसी ही एक कोशिश की है, इच्छा मात्र इतनी है कि टहले-चाहे जिस रस में भी. हम भी अभी टहल कर लौटे हैं ग्रेन्ड कैनियन-एक तस्वीर देखिये:

grandc

अब गीत पढ़ें और फिर सुनते हुए पढ़ें:


विरह अगन सी तपन कहाँ है, दुनिया भर की आगों में,
पिरो लिए कंचन से मोती, प्यार के पक्के धागों में,
भीग रही है धरती सारी, छलक रही इन बूँदों से,
तुम कहती हो आँख के आंसू, सूख गये सब यादों में.

या तो इस मौसम से कह दो, इतना मत हैरान करो,
या कि तुम खुद ही आ जाओ, इस दिल पर अहसान करो,
अब तक मैने जीवन काटा, निविड़ मावसी रातों सा,
मेरी राहें रोशन कर दो, जीना कुछ आसान करो.

सोच रहा हूँ आखिर कब तक, तन्हाई को सहना है
मेरी आँखें सब कहती हैं, मुझे नहीं कुछ कहना है,
साँस मेरी है चलती जाती, केवल इक इस आशा में,
एक दिवस पत्थर पिघलेगा, मुझको जिन्दा रहना है.




फिर मिलते हैं जल्दी ही!!!

आप सबका साथ बहुत सुहाना है..बनाये रखिये.