बुधवार, जुलाई 30, 2008

ये सॉलिड तरीका हाथ लगा!!!

किसी ने कहा है कि अगर ससम्मान जीवन जीना है तो वक्त के साथ कदमताल कर के चलो अर्थात जो प्रचलन में है, उसे अपनाओ वरना पिछड़ जाओगे. अब पार्ट टाईम कवि हैं, तो उसी क्षेत्र में छिद्रान्वेषण प्रारंभ किया. ज्ञात हुआ कि वर्तमान प्रचलन के अनुसार, बड़ा साहित्यकार बनना है तो दूर दराज के विदेशी कवियों की रचनाऐं ठेलो.

पोलिश कवियत्री, रुमानिया का कवि, उजबेकिस्तान का शायर, फ्रेन्च रचनाकार, और साथ में इटेलियन चित्रकार की चित्रकारी ससाभार उसी चित्रकार के, जैसे कि उसे व्यक्तिगत जानते हों. वैसे, बात जितनी सरल लग रही है, उतनी है नहीं. मन में कई संशय उठते हैं. अतः मैने अपने मित्र को किसी के द्वारा प्रेषित एक बड़े साहित्यकार द्वारा छापी एक विदेशी कवि की रचना मय चित्र भेज कर उसके विचार जानने चाहे. त्वरित टिप्पणी में उसे हमसे भी ज्यादा महारथ हासिल है. तुरंत जबाब आ गया. कहते हैं कि कविता तो खैर जैसी भी हो, विदेशी होते हुए भी हिन्दी पर पकड़ सराहनीय है.

मैं माथा पकड़ कर बैठ गया. लेकिन फिर सोचता हूँ कि इसमें उसकी क्या गल्ती है. अव्वल तो ऐसी कविताओं के साथ लिखा ही नहीं होता कि यह अनुवाद है या भावानुवाद या किसने किया है और अगर गल्ती से लिख भी दें तो कहीं कोने कचरे में हल्के से और कवि का नाम और उनका देश बोल्ड में.

मगर फैशन है तो है. सब लगे हैं तो हम क्यूँ पीछे रहें. शायद इसी रास्ते कुछ मुकाम हासिल हो.

मूल चिन्ता यह नहीं की कैसे करें? मूल चिन्ता है कि किसकी कविता का अनुवाद करें? वो बेहतरीन रचना मिले कहाँ से, जो हिन्दी में भी बेहतरीनीयत कायम रख सके? घोर चिन्तन और संकट की इस बेला में हमें याद आया हमारा पुराना संकट मोचन मित्र. उसकी दखल हर क्षेत्र में विशेषज्ञ वाली है और इसी के चलते कालेज के जमाने में उसे संकट मोचन की उपाधि से अलंकृत किया गया था हम मित्रों के द्वारा. संकट कैसा भी हो, उन्हें पता लगने की देर है और वो उसे मोचने चले आयेंगे. अतः हमने खबर कि संकट की घड़ी है, चले आओ और वो हाजिर.

विषय वस्तु समझने, सुनने और अनेकों उदाहरण जो मैने प्रस्तुत किये, देखने के बाद पूरी अथॉरटी से बोले: ’यार, तुम भी तो कविता लिखते हो? एकाध गद्यात्मक कविता निकालो अपनी डायरी से.’ हमने धीरे से अपनी एक कविता बढ़ा दी. एक नजर देखकर बोले, हाँ, यह चल जायेगी क्यूँकि कुछ खास समझ नहीं आ रही कि तुम कहना क्या चाह रहे हो!!’

फिर उन्होंने इन्टरनेट का रुख किया और गुगल सर्च मारी: ’स्विडन के फेमस लोग’. सर्च के जबाब में ओलिन सरनेम चार पाँच बार दिखा, नोट कर लिया. दूसरा सरनेम दो बार दिखा तो वहाँ से फर्स्ट नेम ’पीटर’ निकाल लाये और शीर्षक तैयार ’स्विडन के प्रख्यात जनकवि पीटर ओलिन की कविता’. मेरा तो नहीं मगर इस संकट मोचनवा का दावा है कि बहुतेरे लोग इसी तरह चिपका रहे हैं अपनी रचनाऐं विदेशी नाम से और चल निकले हैं.

आगे के लिए भी सलाह दी है कि अगर कविता तैयार न हो तो किसी भी जगह से ८-१० लाईन का अच्छा गद्य उठा कर कौमा फुलस्टाप की जगह बदलो. शब्दों की प्लेसिंग बदलो, थोड़ा कविता टाईप शेप देकर ठेल दो, तुम तो कवि हो, इतना तो समझते ही हो. एक विदेशी नाम मय देश के चेपों और बस, चल निकलोगे गुरु.

संकट मोचन तो हमारा संकट मोच चले गये, कहीं और मोचने और हम चेंप रहे हैं:

’स्विडन के प्रख्यात जनकवि पीटर ओलिन की कविता’

घुटन

gutana


सुबह सुबह
स्वच्छ, साफ सुथरा
वातावरण
शीतल शुद्ध
मंद बयार
पर झूमती हुई
पक्षियों की चहचहाहट
हरे भरे वृक्ष
मेरा मन
मोहित कर लेते हैं
जब मैं
टहलने निकलता हूँ ...

प्रफुल्ल मना
वहीं पार्क की
कोने वाली बेन्च पर-
सुस्ताने की खातिर
बैठ कर
खोलता हूँ
अखबार का पन्ना
और
मन घुटन से भर जाता है!

भावानुवाद: समीर लाल ’समीर’
(चित्र साभार: इटालियन चित्रकार एन्टोनी डी पॉम्पा, उनका बहुत आभार)


नोट: महज हास्य विनोद वश पोस्ट है. कोई आहत न हो और अपनी आदतानुसार जारी रहें. इस रचना का उद्देश्य उन्हें रोकना नहीं, वरना उसी अखाड़े में अपना हाथ आजमाना है.

रविवार, जुलाई 27, 2008

एक टिप्पणी १२१ पोस्ट

जिस दिन लोकसभा में विश्वास मत के सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ, और सारे सांसदों के कारनामे खुले आम जनता के सामने आये, मैने एक टिप्पणी, इस विषय में पहली पोस्ट पर लिखी:

दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!!

फिर इसे नोट पैड में सुरक्षित भी कर लिया.

आज तक की सबसे ज्यादा चलने वाली टिप्पणी- बहुत खूब!! साधुवाद!! आम जनता की तरह अपने मूँह की खाई किनारे पड़ी रही और ये बिन सिर पैंदी की टिप्पणी अपनी विजय यात्रा पर निकली. हर जगह-जिस पोस्ट पर देखो..संसद, सांसद, उनका चरित्र, सोमनाथ दा का पार्टी निकाला, उन्होंने सही किया, उन्होंने गलत किया. सांसदों को ऐसे नोट नहीं चमकाने थे, सारे २५ करोड़ चमकाने थे आदि आदि...सब पर यह टिप्पणी कट पेस्ट से चमकने लगी: दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!! सौजन्य-उड़न तश्तरी-समीर लाल...

हमने सोचा कि एक दो दिन में मामला शांत हो जायेगा तो यह टिप्पणी वाली फाईल डिलिट कर देंगे मगर फिर बैंगलोर में धमाके: दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!!

कल अहमदाबाद में धमाके: दुर्भाग्यपूर्ण, अफसोसजनक एवं निन्दनीय!!!

अब तक १२१ से ज्यादा पोस्ट हो चुकी है, जिस पर मैं यह चिपकाते आ रहा हूँ. हे मानवता!! जागो!! मुझे मौका दो कि मैं यह टिप्पणी मिटाने दो...मैं अब और इसे करना नहीं चाहता. एक डर और है कि कहीं किसी कविता आदि पर न चिपक जाये जल्द बाजी में. मित्रों, इसे भूल चूक लेनी देने में डाल देना-माहौल के चलते हो गई होगी. :)

खैर!! इसी मसले पर मेरे गुरु गीत सम्राट राकेश खंडेलवाल जी से बातचीत हो रही थी, तो दोनों की बातचीत कुछ कवित्तमय हो ली संसद कांड को लेकर. आप भी देखें:

उठा पटक के इस नाटक में,
किसको क्या क्या याद रहा...
दुर्योधन ने लाज बचाई,
कृष्ण बेचारे भूल गये...!!

बारिश की बूँदों ने रोका.
सूरज की किरणों ने टोका..
रुपयों की बारिश देखी तो,
झोली फ़ैलाना भूल गये!!

कुटिल हुईं कौटिल्य नीतियां
करें राज अब विषकन्या
जिसने पाला पोसा, वे ही
मंतर सारे भूल गये!!

गांधारों के शकुनि आज सब
दिल्ली में आकर बैठे
इन्द्रप्रस्थ का सपना क्या था
हम बेचारे भूल गये!!

सत्ता की रावणी प्यास ने
कैसा खुल कर नॄत्य किया
शर्म- चूनरी शेहरावत की
लाज के मारे भूल गये!!

फिर न जाने क्यूँ मेरे मन में इस कविता ने जन्म लिया, जो आपका आशिर्वाद चाहती है:


नई महाभारत

मदारी का खेल
मसखरों का जमावड़ा
कुछ कुश्ती, कुछ दंगल,
एक सांस्कृतिक मंचन
मंच का नाम 'संसद'!!

लोकतांत्रिक तरीके से
लोकतंत्र का चीरहरण करते
युग पुरुष
लाज बचाना
भूल गये हैं कृष्ण
हँसते हैं
और उनके साथ
ताली बजाते पांडव,

मंद मंद मुस्कराते
भीष्म पितामह,
कलयुग में
क्या नहीं होता
सब हैं
एक नई महाभारत
नित रचने के लिए!!

जनता
अपने ही चमत्कार से
रोज चमत्कृत होती
अपने ही चयन को
मूँह बाये
आश्चर्य से देखती
कुंठा
और खीज
की गठरी
सर पर लादे...

सावनी अमावस्या से भी काली
घुप्प अंधेरी सुरंग मे,
मौन के सम्वेत स्वर के
कर्णभेदी
भयावह अट्टाहस
के बीच
चंद खुली सांसों की
एक ख्वाहिश लिए...

दिशाहीन
अप्राप्य रोशनी
के एक सपने
का पीछा करते
भटकती चली जा रही है..

उफ़!!!

कितनी जटिल है यह चाह
विकासशील
से विकसित होने की!!

--समीर लाल 'समीर'


---कल और आज कोई टिप्पणी नहीं की. दो दिन बाद अभी अमेरीका से लौटा हूँ याने कल सुबह से...फिर शुरु!! :)

सोमवार, जुलाई 21, 2008

हाय रे, ये जी का जंजाल!!

मुन्नू याने पिछले ढाई दशक से भी ज्यादा समय से मेरे जी का जंजाल.

मेरे मित्र शर्मा जी का बेटा है. पारिवारिक मित्र हैं तो सामन्यतः न पसंदगी को भी पसंदगी बता कर झेलना पड़ता है. शायद शर्मा जी का भी यही हाल हो मगर उससे हमें क्या?

मुन्नू क्या पैदा हुए, शर्मा शर्माइन सारी शरम छोड़ कर उसी के इर्द गिर्द अपनी दुनिया सजा बैठे. फिर क्या, मुन्नू ने आज माँ कहा, मुन्नू आज गुलाटी खाना सीख गये, मुन्नू चलने लगे. मुन्नू सलाम करना सीख गये और जाने क्या क्या. हर बात की रिपोर्टिंग बदस्तूर फोन के माध्यम और आ आकर या बुला बुलाकर मय प्रदर्शन के जारी रही.

बेटा, समीर अंकल को सलाम करो..बीस बार बोलने पर मुन्नू भी टुन टान करके एक बार सलाम किये..फिर क्या, सब लगे उसे चूमने..खूब खुश होकर अतः हम भी खुशी से हँसे. वाह, वेरी गुड करते हमारा मूँह दुख गया मगर शर्मा दंपत्ति न थके. नित नये किस्से.

देखते देखते मुन्नू चार साल के हो गये. दीवार से लेकर फ्रिज तक पर पेन्टिंग ड्राईंग में महारत हासिल कर ली. मूंछ वाली रेलगाड़ी, कुत्ते से बदत्तर सेहत वाला पंखधारी शेर, गमले में उगता आधा कटा पपीते के आकार का सेब, नीला केला..सब बनाना सीख गया. शर्मा दंपत्ति का सीना गर्व से फूला न समाता और हम एक चाय की एवज में वाह वाह करते रह जाते.

वाह वाही से बालक मुन्नू इतना उत्साहित हुए कि एक दिन हमारे ड्राईंग रुम की दीवार पर उड़ती हुई मछली के सर पर गुलाब का फूल उगा गये. अब हमें काटो तो खून नहीं, मगर क्या करते. खुद ही तो वाह वाह करके उत्साहित किये थे. मिटा भी नहीं सकते, शर्माइन के बुरा मान जाने का खतरा. वो तो इस चक्कर में साल भर बाद एक पैच मिटाने के लिए पूरे घर को पेन्ट करवा कर बहाना बनाया कि पेन्ट छूटने लगा था, तब बच पाये.

आप भी देखें मुन्नू की कला का एक नमूना:

kid draw

अब तक मुन्नू स्कूल जाने लगे. हमारे लिए नई जहमत रोज साथ लाने लगे. अब जब भी वो लोग बुलायें या हमारे यहाँ आयें तो कभी गिनती, कभी ए बी सी, कभी पहाड़ा और कभी कविता. दोनों हाथ एक के उपर एक चिपका कर दोनों अंगूठे उड़ा उड़ा कर नचाते हुए..

मछली जल की रानी है..(पीछे पीछे शर्माइन बैकअप में..हाथ लगाओ...!!!)
हाथ लगाओ, डर जाती है (शर्माइन की देखादेखी डरने का अभिनय करते हुए और फिर दोनों हाथ समेट कर बाजू में उस पर गाल टिकाते हुए)
बाहर निकालो...(आँख बंद करके मरने का अभिनय) मर जाती है....

शर्मा शर्माइन की तालियाँ..मैं सोचने लगा कि कितनी खुश किस्मत है यह मछली जो मर गई, मुन्नू की जमाने से सुनी जा रही घिसी पिटी कविता से निजात पा गई और हम अटके हैं जब मुन्नू पुनः मनुहार पर जैक एण्ड जिल सुनाने की ऐंठते हुए तैयारी कर रहे हैं. दिखाने के लिए हम भी ताली बजाते रहे और मुन्नू सुनाना शुरु हुए...


जैक एण्ड जिल....और अंतिम पंक्ति में...

जिल केम टंम्बलिंग आफ्टर...

और मुन्नू जी पूरी तन्मन्यता से धड़धड़ा कर गिरे. सबने ताली बजाई, मुन्नू हँसे, हम दिल दिल में रोये.चेहरे पर मुस्कान चिपकाये ताली बजाने लगे., समझिये कि भयंकर झेले. सर पकड़ लिया. घर पर सेरीडॉन की सर दर्द गोली का पत्ता हफ्तावारी लिस्ट में शामिल हो गया. लगने लगा जैसे सेरीडॉन ने शर्मा जी को अपना ब्रॉण्ड एम्बेसडर बना दिया हो. उन्हें देखते ही इसकी याद आ जाये.

अच्छा या बुरा, कहते हैं कैसा भी वक्त हो, गुजर ही जाता है. सो यह भी गुजरा. झेलते झिलाते मुन्नू २६ साल के हो लिये. दो महिने पहले उनका भारत में ब्याह भी कर दिया गया. तब से आज तक बुल्लवे पर उनके घर चार बार हम जा चुके है और वो हमारे घर प्रेशर क्रियेट कर बुल्लवे पर तीन बार आ चुके हैं. हर बार शादी के चार फोटो एलबम, जिसमें हल्दी, मेंहदी, शादी, रिसेप्शन और फिर हनीमून की तस्वीरें हैं और इन्हीं विभिन्न समारोहों का विडियो देख देख कर पक चुके हैं. ये बुआ जी, ये चाची, ये दादी, ये साला, ये दूर की साली-इन्फोसिस में, ये गुलाबी साड़ी में नौकरानी छल्लो, ये भूरा ड्राईवर..ये ये...वो वो...हाय, मेरे कान क्यूँ न फट गये, आँख क्यूँ न फूट गई. कहो उनकी बहू जिन रिश्तेदारों को न पहचाने, उन्हें हम बिना मिले अंधेरे में पहचान जायें, बिना किसी गफलत के. एक बार फिर घर में सेरीडॉन चल निकली है.

कल रात आये थे..इस बार शादी का विडियो बर्न करके दे गये हैं क्यूँकि हमें बहुत पसंद आया था. :) अगली बार लेड़ीज संगीत वाला भी बना कर दे जायेंगे, यह बात उन्होंने समय की कमी के कारण क्षमा मांगते हुए बता दी है. अब तो जब उस विडियो पर नजर जाती है, बस मन से एक ही उदगार निकलता है-

धन्य हो तुम..मेरे मुन्नू.

हम आगे के लिए भी तैयार हैं, जब अगले बरस तुमको बच्चा होगा. हमें तो मानो परम पिता परमेश्वर ने किसी पुराने जन्म का बदला लेकर सिर्फ झेलने को रचा है.

शायद, पिछले जनम में कवि रहा होऊँगा और लोगों को खूब झिलवाया होगा.


डिस्क्लेमर:
जिनके बच्चे छोटे हों या अभी अभी शादी हुई हो, वो कृप्या इस पोस्ट को दिल से न लें. बदस्तूर जारी रहें. ऐसे ही दुनिया चल रही है. जब हमने झेला है तो हम किसी और को क्यूँ बचवायें.

सूचना:

मेरी पिछली पोस्ट उड़ी उड़ी रे पतंग देखो उड़ी रे ने मुझे आजतक एक पोस्ट पर प्राप्त अधिकतम टिप्पणियों का रिकार्ड ८४ को ब्रेक करते हुए नया मुकाम हासिल किया है, आप सबके स्नेह का बहुत आभारी हूँ. ऐसा ही स्नेह और आशीष बनाये रखें, संबल मिलता है.

गुरुवार, जुलाई 17, 2008

उड़ी उड़ी रे पतंग देखो उड़ी रे!!!

सबको सुबह की चाय देने से आंगन लीपने तक सब काम निपटा कर वह अब नहा कर बाल सुखाने छत पर चली आई थी. पूरा आसमान रंग बिरंगी पतंगों से पटा पड़ा था और एकदम रंगीन हो उठा था. उसने एक नजर आसमान पर डाली और अटक गई उस दूर उड़ती आधे पीले और आधे नीले रंग वाली पतंग में.

patang

मानो वो उसके सपने हों जिसे वो बचपन से देखती आई थी. कुछ नीले, कुछ पीले और कुछ नीले पीले मिले हुए धानी सपने.

नीले सपने, हाँ एकदम नीले! देखती थी बचपन से. देखती कि वो भईया हो गई. स्वच्छंद गली के लड़कों के साथ सारा सारा दिन खेल पा रही है, न कोई रोक न कोई टोक. बस, भईया होते ही वो साईकिल लेकर दोस्तों के साथ पूरे गांव में घूम रही है. घर का कोई साथ नहीं. न कोई पूछने वाला कि कहाँ जा रही हो और कब लौट कर आओगी. बड़े होने तक वो नीले सपने देखती चली गई. भईया बन पास के गांव में ८ वीं से आगे पढ़ने जा रही है. पिता जी के साथ दुकान में हाथ बटा रही है और न जाने क्या क्या!! बस, एक स्वच्छंद एवं बेरोक टोक जीवन जीने की चाह.

कभी पीले सपने देखने लग जाती. किताबों में विदेश की तस्वीरें देखती थी. सपने में वहीं पहुँच जाती. गोरे गोरे उजले साफ सुथरे लोग. रुई के फुओं से, बादलों की तरह बिखरे बरफ के मैदान और उनमें गिर गिर के बल खाती, इठलाती, खेलती वो. बड़ा सा गोला बना कर अपने सपनों के राजकुमार पर उछाल कर खिलखिलाती वो. फिर पीले नीले मिले जुले धानी सपने. वो भईया की तरह पतलूम कमीज पहने अपने सपनों के राजकुमार पति की बाहों में झूलती रोशन विदेशी संसार में खोती जाती, डूबती जाती. पाश्चात संगीत की स्वर लहरी पर झूमती वो. अपने सपनों में सपनों को सच होता देखती वो.

बस उलझी रही एकटक उस पीली नीली पतंग में. दूर बहुत दूर, ऊँचे आसमान में खूब उपर. इतनी ऊँचाई कि धुंधली होती दिखती पतंग. बड़ी लेकिन एकदम छोटी सी दिखती पतंग. सोचने लगी, शायद, उतनी उपर से पतंग को उस पार विदेश भी दिखता होगा. एक मुस्कराहट सी तैर गई उसके चेहरे पर.

एकाएक काली पतंग ने आकर उस पीले नीले रंग वाली पतंग को काट दिया और वो पीली नीली पतंग अपने अस्तित्व को नाकारती हवाओं के थपेड़ों संग बह चली, जहाँ तक हवा उसे उड़ा कर ले गई और फिर कटीली झाड़ियों में उलझ कर हो गई छिन्न भिन्न. जैसे उसके सपनों का ढहता महल.

आँसू बस गिरने को ही थे कि एकाएक राजू उसकी साड़ी का पल्लू पकड़ कर बोला "माँ" मानो उसको यथार्थ की दुनिया में वापस ले आया हो.

वो उसके साथ नीचे उतर आई. माँ की पूजा भी खतम होने को है. वो सर पर पल्लू रख लेती है. पति, जो कि स्कूल में बाबू हैं, उनके खाने पर आने का वक्त भी हो चला है.

जल्दी से वो खाना बनाने में जुट जाती है. खिचड़ी, चोखा और तिल के लड्डू.

उसे याद है, आज मकर संक्राति है.

रविवार, जुलाई 13, 2008

हाय!! ये बदलता नज़रिया

यह रचना आज की सामाजिक परिस्थितियों पर मेरे खराब स्वास्थय के दौरान कुनैन की गोलियों की कड़वाहट मूँह में लिए, बदलते नज़रिये पर लिखी गई है. निवेदन है कि कृप्या उन्हीं स्थितियों का आभास करते हुए पढ़ें, शायद ज्यादा मजा आये.

हाय!! ये बदलता नज़रिया

Change

मैं
मलेरिया ग्रसित हूँ!!
सिगार के धुऐं से भी कड़वी
कुनैन की कड़वाहट
स्वाद ग्रन्थियों पर अपना कब्जा जमाये
पूरे मानस पटल पर आच्छादित
हो चुकी है..

अतीत की कड़वी स्मृतियाँ
हर खाँसी के संग उठते
पसलियों के दर्द के साथ
ताजी हो उठती हैं..
मैं
वेदना से कराहता
पूरे वातावरण में
कड़वाहट ही कड़वाहट
महसूस कर रहा हूँ!

कल तक
जो मुझे लुभाते थे
मुस्कराते फूल
गीत सुनाती चिड़िया
बेहतर मानवियता का परिचय देते
मुस्कराते खुश लोग..
आज न जाने क्यूँ
मेरा परिहास करते
नज़र आते हैं..

यों तो कुछ नहीं बदला
जानता हूँ मैं
वे सब
बिल्कुल वैसे ही हैं, जस के तस..
बदला हूँ मैं..बस मैं.

मैं--जो
मलेरिया ग्रसित हूँ!!
सिगार के धुऐं से भी कड़वी
कुनैन की कड़वाहट
स्वाद ग्रन्थियों पर अपना कब्जा किये
पूरे मानस पटल पर आच्छादित
हो चुकी है..

हाँ
इतनी कड़वाहट के बावजूद भी
दिल से बस यही
भाव उठते हैं..
आस लिये
शायद
कल जब मैं
मलेरिया के
प्रकोप से मुक्त हो जाऊँ
और दुनिया की उस खुशनुमा असलियत में लौटूँ.
मुझे जो दुनिया पसंद है…..

लेकिन
पता नहीं क्यों
हावी होने लगी है
यही कड़वाहट
सिगार के धुँये से भी कड़वी
मेरी आंखों पर
और दिखता है मुझे
पूरे का पूरा
मलेरिया ग्रस्त
समाज....
दुनिया....
लोग.....
और फिर
न जाने क्यों
और भी कड़वाहट
घुल जाती है
मेरे मुँह में.....

-समीर लाल ’समीर’

स्वास्थय अपडेट: बुखार अब बिल्कुल नहीं है. बदन दर्द से भी लगभग निजात मिल गई है. खाँसी जारी है अपनी पूरी ताकत से. जल्द राहत की उम्मीद है. टिप्पणियाँ देना और ब्लॉग पढ़ना काफी कम है मगर जल्द लौटने की उम्मीद है. इस बीच आप सबका साथ सराहनीय है. आज राजस्थान पत्रिका में छपे आलेख का जिक्र भी जरुरी है. जरुर देखें: यहाँ क्लिक करें.

गुरुवार, जुलाई 10, 2008

एक सूचना, फिर हाले दिल और फिर लघु कथा

सूचना

'महावीर' ब्लॉग पर मुशायरा (कवि-सम्मेलन)

वरिष्ठ लेखक, समीक्षक, ग़ज़लकार श्री प्राण शर्मा जी की प्रेरणा से जुलाई १५, २००८ एवं जुलाई २२,२००८ को 'महावीर' ब्लॉग पर मुशायरे का आयोजन किया जा रहा है।

इस ब्लाग पर मुशायरे में शिरकत के लिए कवियों और कवियों की बड़ी तादाद होने की वजह से मुशायरे को दो भागों में दिया जा रहा है। पहला भाग १५ जुलाई और दूसरा भाग २२ जुलाई २००८ को दिया जायेगा।
देश-वदेश से शायरों और कवियों में प्राण शर्मा, लावण्या शाह, तेजेन्द्र शर्मा, देवमणि पांडेय, राकेश खण्डेलवाल, सुरेश चन्द्र "शौक़",कवि कुलवंत सिंह, समीर लाल "समीर",नीरज गोस्वामी, चाँद शुक्ला "हदियाबादी",देवी नागरानी, रंजना भाटिया, डॉ. मंजुलता, कंचन चौहान,डॉ. महक, रज़िया अकबरमिर्ज़ा, हेमज्योत्सना "दीप" आदि पधार रहे हैं।
आप से निवेदन है कि उनकी रचनाओं का रसास्वादन करते हुए ज़ोरदार तालियों (टिप्पणियों) से मुशायरे की शान बढ़ाएं।

महावीर शर्मा
प्राण शर्मा

पत्र-व्यवहार इस ईमेल पर कीजिए :
mahavirpsharma@yahoo.co.uk
'महावीर' - http://mahavir.wordpress.com

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आगे,

हाले दिल

तबियत अभी भी गले की खराश और शरीर की टूटन की वजह से खराब ही की केटेगरी में है. इतना बड़ा इन्जन, दुरुस्त होने में समय तो लगता ही है बस यही तस्सली है. हमसे आधे से भी कम साईज वाले ऑफिस में एक महिने में पूरी तरह ठीक हो पाये हैं तो हमारे तो अब क्या बतायें? बस, एक टिमटिमता सा दिया उम्मीद रोशन किये है. :)

ऐसे में नया क्या लिखें, फिर एक पुरानी कहानी, जो ब्लॉग पर नहीं है मगर तरकश और साहित्य कुंज पर प्रकाशित हो चुकी है, वो ही सुनाते हैं.
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लघु कथा

अपराध बोध



अगस्त की उमस भरी शाम। पीछे रेलवे क्वार्टर की सिगड़ियों से उठते कोयले के धुएँ की खुशबू पूरे माहौल मे भरी हुई थी। ये महक मुझे शुरू से बहुत भाती है।

हवा खाने के लिये मैं अपने दूसरी मंजिल के फ्लैट की पीछे वाली बालकनी में निकल आता हूँ। सिगरेट जलाते ही मेरी नज़र उन दो आँखों से टकरा जाती है, जो पिछवाड़े के क्वार्टर के आँगन से मुझे ही ताक रहीं थी। मैं चाह कर भी उसकी नज़रों से अपनी नजरें नही हटा पाया और एकटक उसे देखने लगा।

कितनी गहरी और बोलती हुई आँखें हैं। माथे पर अल्हड़ता से बिखरी जुल्फ़ें और पसीने से बेतरतीब हो गई वो सिंदुरी बिंदिया। एक पुरानी सी धानी रंग की सूती साड़ी मे लिपटी वो बला की खुबसूरत लग रही थी।

ऐसा नहीं कि मैंने पहले कभी उसे नहीं देखा मगर आज पहिली बार नज़रें चार हुईं थी। उसकी आँखों मे एक अजब सा प्रश्न चिन्ह और चेहरे पर आंतरिक वेदना की एक परत।

वो शायद सिगड़ी उठाने ही बाहर निकली थी। नज़रों के मिलते ही वो जड़वत जहाँ की तहाँ खड़ी रह गई। काँपते होंठ जैसे कुछ कह देने को आतुर और आँखें अपने भीतर छिपी असंख्य वेदनाओं का इज़हार करने को बेकरार।

एकाएक उँगलियों के बीच जलन से बिना पिये सिगरेट खत्म होने की तरफ जैसे ही ध्यान गया, हाथ जोर से झटक कर सिगरेट फेंकी। मेरी हालात देख वो बस धीरे से मुस्कराई। हमारी नज़रें फिर भी एक दूसरे को ही देखती रहीं। कब शाम ढल गई और अंधियारा घिर आया, पता ही नही लगा।

एकाएक उसके घर के दरवाजे पर उसके पति की दस्तक सुनते ही घबड़ा कर वो अंदर भाग गई। मै वहीं बालकनी मे कुर्सी खींच कर बैठ गया। मन अभी भी उसके आँगन में ही विचर रहा था।

उसके घर से चिल्लाने की आवाज आ रही थी। शायद उसका पति पीकर नशे मे घर लौटा था।
वो चिल्ला रहा था.. स्स्साआली, दिन भर पड़ी पड़ी आराम करती रहती है और अब कह रही है अभी खाना बनने में समय लगेगा... वो बुरी बुरी गालियाँ बकता जाये और उसे बुरी कदर मारता जाये। उसके रोने की आवाज़ भी मेरे कानों को भेद रही थी।

न जाने वो कब तक उसे मारता और चिल्लाता रहा। मुझसे सहा ना गया। मैं उठकर भीतर चला आया, एक आत्मग्लानि का एहसास लिये कि मेरी वजह से बेचारी की क्या हालत हो रही है। न मैं बालकनी में निकलता, न उससे नज़रें टकराती और न ही खाना बनाने में उसे देर होती... मैं अपराधबोध से घिरता चला गया।

इस वाकये को दो हफ़्ते बीत गये हैं। आज फिर बहुत उमस है। शाम हो रही है, अभी अभी दफ़्तर से लौटा हूँ। कुछ ताजी हवा खाने का मन है लेकिन आज मैं घर की सामने वाली बालकनी मे आकर बैठ जाता हूँ।

उस रोज का सिगरेट से जलने का घाव तो भर गया है, मगर उसकी जलन और अपराधबोध, दोनों अब तक ताज़े हैं।

रविवार, जुलाई 06, 2008

मैं गाँधी से मिला हूँ!!

उस रात कुछ मित्र परिवारों के साथ जुआघर गया. सभी मित्र हिन्दुस्तानी थे. दरवाजे पर पहुँचते ही हम ठिठक गये. मेरे मित्र के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा-वो देखो गाँधी जी! एकाएक धक्का लगा-कहाँ ये जुआघर और यहाँ कहाँ गाँधी जी!






फिर भी हम पलटे तो देखा लॉबी के दाँयी ओर एक मंचनुमा पत्थर पर मेनीकुइन - आदमी जो पुतला बना खड़ा रहता है, गाँधी जी के रुप में खड़ा था. कभी ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी तमाशा में गाँधी के मेनीकुइन के बारे में पढ़ा था आज साक्षात देख रहा हूँ वैसा ही माज़रा. गाँधी-जुआघर में. गाँधी-लोगों को जुआघर में आने का निमंत्रण देता, गाँधी-एक जिंदा पुतला, न हिलता न डुलता, बस तटस्थ भाव से सबको ताकता गाँधी.

जिन अंग्रेजों को कभी अपनी चुप्पी से डरा देने वाला गाँधी- आज उनके मनोरंजन का साधन बना बेबस खड़ा गाँधी. मेरे इन्हीं कानों ने सुना पास से गुजरती उस अंग्रेज महिला की फुसफुसाहट को-लुक, हाऊ क्यूट इज दिस गाँधी!! कोई कहता-पुअर गाँधी, लुकिंग सो स्वीट!! वेरी सेक्सी! इन बातों को सुनकर भी बिना हिले डुले खड़ा लाचार गाँधी-सेक्सी गाँधी-क्यूट गाँधी. मैने यह नायाब नजारा देखा. जिस गाँधी की पाँच सौ रुपये के नोट पर तस्वीर अंकित है. लगभग उतने रुपये घंटा अर्जित करने के लिये खड़ा मजबूर गाँधी.

लॉबी मे हालांकि हीटींग रहती है मगर फिर भी दरवाजा बार बार खुलते बंद होते रहते के कारण काफी ठंडा रहता है वहाँ का माहौल. उस माहौल मे जैकेट और कनटोपों से ढके लोगों को लुभाता सिर्फ एक धोती पहने अर्धनग्न खड़ा गाँधी. पेट की भूख मिटाने के लिये हर कष्ट सहता गाँधी-बेचारा गाँधी.

शराबियों और जुआरियों का आकर्षण का केन्द्र बना गाँधी शायद सबसे पापुलर आदम पुतला है. ऐसा मैने सुना वहाँ पर. मोस्ट सेलेबल एंड इन डिमांड गाँधी. लोग उसे देख कर हँसते हैं, चुटकुला बना गाँधी. लोग आते जाते थे, थोड़ी देर खड़े होकर गाँधी जी को निहारते थे और उनके कँधे पर टंगे झोले में कुछ लोग चंद रुपये भी डाल जाते थे. चार घंटे की ड्यूटी के बाद खुशी खुशी उन पैसों को गिनता गाँधी. छद्म मगर बिल्कुल असली सा दिखता गाँधी वरना मेरा दोस्त कैसे पहचान जाता. बनावटी, पुतला मगर सांस लेता पुतला और अपनी पलकें झपकाता पुतला-बिना हिले डुले खड़ा- अविचलित गाँधी. न कोई नेम प्लेट, न ही वो कुछ बोलता फिर भी सब जान जाते हैं वो गाँधी है-मौन खड़ा गाँधी. गाँधी की नुमाईश लगता गाँधी.

मैने पहले भी देखा है नव-धनाढ्यों को पार्टियों में आर्केस्ट्रा की धुन पर थिरकती नर्तकियों पर पाँच सौ के नोट पर सजे गाँधी को लूटता. गाँधी हवा में उड़ाया जाता है, फिर जमीन पर गिरता है और फिर उठकर उन नर्तकियों के ब्लाउज में कहीं खो जाता है. मैने यह भी देखा है कि हर बड़ी दो नम्बर डील में गाँधी ही प्रचलन में है, छोटे नोट किसी को गिनने और संजोने का समय नहीं. उन छोटे नोटों पर गाँधी भी नहीं है, वो इस प्रचलन से बाहर हैं.उन्हें गाँधी का आशिर्वाद नहीं है. मैने लिफाफों पर थूक से गाँधी को चिपकते देखा है, भारतीय डाक विभाग की टिकटों के माध्यम से. उसी गाँधी को जो बापू के नाम से जाना जाता है. उसी गाँधी की तस्वीर के नीचे बैठकर नेताओं को देश का सौदा करते देखा है.

किंतु आज यह जिंदा गाँधी. विदेश में नौकरी करता गाँधी-बिना हिले-डुले-एकदम सीधे खड़ा लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना-पुरातन गाँधी सबको जुआधर में खेलने को लुभाता गाँधी.

मैं दोस्तों के साथ जुआ खेलने जुआघर के भीतर चला जाता हूँ और यह पुतला गाँधी- मेरे मानस पटल से होता हुआ मेरे भीतर समा जाता है. मैं अपने लिये स्कॉच का एक गिलास आर्डर करता हूँ. सिगरेट के धुऐं का छल्ला बना कर उस गाँधी की याद को उड़ा देने की असफल कोशिश करता हूँ. सिगरेट के धुऐं के छल्ले में गाँधी. मगर यह गाँधी मुझ पर छाया है. कुछ असहज सा महसूस कर रहा हूँ. घुटन से बचने को मैं वापस बाहर लॉबी में आ जाता हूँ. गाँधी की तरफ निगाह जाती है. उसकी ड्यूटी खत्म हो गई है.

वो मंच से उतर रहा है, उसकी जगह अब सद्दाम हुसैन खड़ा है. उसके पहले उसी मंच पर चार्ली चेपलीन खड़ा था. चार्ली चेपलीन से लिया मंच सद्दाम हुसैन को सौंप कर गाँधी मंच से उतर जाता है.

लोग ताली बजा रहे हैं और गाँधी मुस्करा रहा है. फिर नम्बर आता है उन लोगों का जो गाँधी के साथ फोटो खिंचवा रहे हैं. हर फोटो के लिये चंद रुपये जेब में ठूंसता गाँधी. महिलाओं के साथ चिपक कर फोटो खिंचाता गाँधी, बेबस मगर मुस्कराता गाँधी. दस मिनट फोटो सेशन के बाद गाँधी पीछे एक कमरे में चला गया. पाँच मिनट बाद निकला. अब वो जींस टीशर्ट पहने था-एक नये रुप में गाँधी. जींस टीशर्ट पहने गाँधी.

मैं उसके नजदीक जाता हूँ और उससे उसका नाम पूछता हूँ. वो कहता है, जावेद खान! गुजरात, भारत. और पूछता है कि क्या आप भी भारत से हैं. मैं हामी में सर हिला देता हूँ और उसके साथ साथ बाहर आ जाता हूँ. वो जेब से सिगरेट निकाल कर जला लेता है. पाँच मिनट पहले का गाँधी अब सिगरेट पी रहा है. मैं उसे गौर से देखता हूँ. मुझमे कोतुहल है. मैं उससे पूछता हूँ कि यार, यह सब क्यूँ करते हो, बड़े मेहनत का काम है और तिस पर से गाँधी. वो बोला कि भईया, पेट का सवाल है, क्या करुँ.

पाँच साल पहले आया था. कोई काम नहीं मिला. एक दोस्त ने यह नौकरी लगवा दी. पहले नेहरु बना, नहीं चला. लोगों को मैं पसंद नहीं आया. फिर सुभाष, उसमें भी फेल हो गया, कोई पहचान ही नहीं पाता था. तब जाकर गाँधी बना और भाई, मैं हिट हो गया. यहाँ गाँधी बिकता है, सब उसे जानते हैं. खूब पैसा मिल जाता है. परिवार भारत में है. उनको पैसा भेजना होता है हर महिने. अगर गाँधी न बनूँ तो मैं भी भूखा मरुँ और भारत में परिवार भी. ऐसा गाँधी जो चार घंटे बिना हिला डुले खड़े रह कर फिरंगियों और सैलानियों का मनोरंजन करके पैसे कमाता है ताकि एक मुसलमान जावेद का पेट भर सके और भारत में उसका परिवार जी सके.

वो गाँधी, जो जावेद को पाल रहा है, जावेद से गाँधी और फिर गाँधी से जावेद...और फिर घर जाने के लिये बस का इंतजार करता जावेद जो तीन दोस्तों के साथ कमरा शेयर करता है. जिस दिन जावेद थक जाता है या बीमार होता है, उस दिन गाँधी नहीं बन पाता और भूखा सोना पड़ता है. गाँधी को आराम नहीं. वो फिरंगियों की नौकरी करता है. नहीं करेगा तो यह मुसलमान जावेद विदेश में भूखा मर जायेगा और परिवार भारत में.

मैं इस गाँधी से मिला हूँ!!

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मेरी यह कहानी तरकश में मार्च, २००७ में प्रकाशित हो चुकी है. तबियत की खराबी की वजह से कुछ नया लिखा नहीं जा रहा है, अतः आज मौका था कि आपको इसे यहाँ पढ़वा दिया जाये.

क्षमा चाहता हूँ कि वायरल फीवर की वजह से ब्लॉग से कटा हुआ हूँ, न पढ़ना, न टिप्पणी करना. सब बंद है. शायद कल से कुछ बेहतर हो जायें हालात.