डुग-डुग-डुग-डुग-डुग!!!!!!
एकाएक सुबह १० बजे घर के भीतर सड़क से ये आवाज सुनाई पड़ी. एक अर्सा बीता इस आवाज को सुने. बचपन में इसे सुन हम सब बच्चे घर से भाग सड़क पर निकल आते थे. यह मदारी का डमरु था और वो बंदर का खेल दिखाया करता था. आज सालों बाद वो ही आवाज सुन अनायास ही मैं दरवाजे के बाहर भागा. भागते भागते पत्नी को आवाज लगाई-आओ, आओ, मदारी आया!! डुग-डुग-डुग-डुग-डुग!!!!!!
वो भी सोच रही होगी कि किस पागल आदमी से पाला पड़ा है. मगर हिन्दी साहित्य में एम.ए. किये होने के बावजूद उसकी इस मनोविज्ञान पर भरपूर पकड़ है कि पागल को पागल कहो, तो वह भड़क उठता है. अतः वो भी मुस्कराते हुए बिना भागे बाहर चली आई.
अब तक मैं मदारी के पास पहुँच चुका था और बन्दरिया "राधा" ने मुझे सलाम भी कर लिया था. न जाने कितनी पुरानी बचपन की वादियों में लौट लिया मैं. कितने ही दोस्त याद आये. सब कुछ बस कुछ ही पलों में.
मदारी डमरु बजा रहा था. डुग-डुग-डुग-डुग-डुग!!!!!! बन्दरिया नाच रही थी. शहरों से विलुप्त होती संस्कृति आज अपने अब तक जीवित होने का प्रमाण लिये खड़ी थी मेरे सामने. शायद, मुझसे कह रही है कि हे उड़न तश्तरी, हमारे पूर्ण विलुप्त होने के पहले एक बार, बस एक बार हमें अपनी लेखनी और चिट्ठे से जन जन तक पहुँचा दो ताकि दर्ज रहे और सदियां हमें याद रखें. मैं यूं भी मौन पढ़ने में विशारद हासिल रखता हूँ, ऐसी मेरी खुशफहमी है सो हाजिर हूं उनकी तस्वीरों के साथ. खुशफहमी तो यह भी कहलाई कि सदियाँ मेरा लिखा पढ़ेंगी.
राधा:
मोहल्ले भर के बच्चे इक्कठे किये, बुजुर्ग एकत्रित किये. पिता जी के लिये कुर्सी लगाई गई. पत्नी स्वतः आ गई. सामने ही स्कूल है, जहाँ आज परीक्षा के परिणाम घोषित हुए, वहाँ के बच्चे इककठे कर लिये. सभी बच्चे आसपास की झुग्गियों से आते हैं. मन था कि सब देखें हमारे समय के मनोरंजन के साधन जो शायद फिर आगे देखने न मिले. सभी बच्चे बहुत खुश हुए. बन्दरिया ’राधा’ भी खूब जी तोड़ कर नाची. जेठ से शरमाई. देवर की बारात में नाची. पनघट से पानी भर कर दिखाया. शाराब के नशे में गुलाटी लगाई और न जाने क्या क्या. धमका के दिखाया. सलाम करके अभिभूत कर दिया. बड़ी प्यारी थी और क्यूट लग रही थी अपने करीने से पहिने टॉप्स और स्कर्टस में (आजकल कहाँ देखने में आता है यह??) और मदारी ’मल्लैय्या’ की लाड़ली तो वो थी ही.
पत्नी साधना हमारे पागलपन को सहर्ष स्विकारते हुए राधा को नजराना दे रही है:
चेहरे से बुश और हरकतों से अपने सरदार जी. जैसा मल्लैय्या कहे, वैसा करे. राधा शायद समझ गई थी कि मैं अमरीका टाईप के देश से आया हूँ तो मल्लैय्या के इशारे पर बार बार सलाम करे. कहीं मेरे हाथ में सिमटे सुबह के अखबार को न्यूक्लियर डील के कागज न समझ रही हो, बार बार दस्तखत करने आगे बढ़ रही थी मगर उदंड बच्चों की भीड़ देख (वाम पंथी टाईप) हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी, बस, सलाम करके काम चला रही थी. सलाम में एक संदेश था कि मौका देखकर साईन कर देंगे.
खैर, आनन्द बहुत आया. सभी बच्चों और बुजुर्गों को खुश देख कर और भी ज्यादा.
मैं, याने उड़न तश्तरी स्कूली बच्चों के बीच:
बाद में मल्लैय्या से कुछ देर बातें हुई. यहीं नजदीक के एक गांव ’घाना’ में रहता है. बंदर का नाच ही उसकी रोटी का सहारा है. एक बेटा है. उसे खूब पढाया लिखाया और काबिल बनाया तो वह बड़े शहर दिल्ली को रुखसत हो लिया. किसी अच्छे ओहदे पर है. गांव आना उसे पसंद नहीं. पिता जी को साथ न रख पाना, आजकल आम तौर पर देखी गयी, उसकी पारिवारिक और पोजिशनजन्य मजबूरी है. पैसे न भेज पाने का कारण पिता जी के दिये संस्कार कि अपने बच्चों को अपने से बेहतर पढ़ाओ, बढ़ाओ और पालो, सो वो वह कर रहा है. इसलिये भेजने लायक पैसे नहीं बचते. आखिर, संस्कारी बच्चा है. गांव की पान की दुकान, जो घर के बाजू में है, पर फोन न कर पाने का कारण समयाभाव को जाता है. और पत्र लिखने का अब फैशन न रहा. अतः माता-पिता से संपर्क सूत्र टूटे ६ से ज्यादा बरस बीत चुके हैं.
पहले वाला बंदर ’रामू’ मर गया आखिरी दिन तक नाचते नाचते, जो उसका और उसकी पत्नी का पेट पालता था. नया बंदर लाये. पढ़ाया लिखाया याने नाचना और अन्य कलायें सिखाई. १० दिन में पढ़ लिख कर रोड शो देने को तैयार हो गया. आखिर मालिक की मजबूरी समझता था. खुद तो फल फूल और पेड़ों पर उपलब्ध चीजों पर जी लेता है मगर माता-पिता तुल्य मालिक को भूखा नहीं सोने देता. उन्हीं के बाजू में वो भी सो रहता है.
मल्लैय्या को भी इन्सानों और औलाद से ज्यादा इस मूक प्राणी पर भरोसा है. वो इसके साथ संतुष्ट है. कहता है, साहेब, ये ही ठीक हैं. कम से कम हम इनके साहरे जी तो ले रहे हैं.
मल्लैय्या और राधा:
कई बच्चों ने उसका खेल देखा आज. काश, एक भी बच्चा उस खेल दिखाने के पीछे छिपे उस राधा बंदरिया के जज्बे को समझे तो आज का खेल दिखाना सफल हो जायेगा. शायद इंसानो पर इंसानों का भरोसा वापस लौटवाने में यही बंदर कामयाब हो जाये.
राधा को सलाम!!
मल्लैय्या और राधा दोनों चले गये..दूर से विलुप्त होती आवाज सुनाई देती रही: डुग-डुग-डुग-डुग-डुग!!!!!!
--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
रविवार, मार्च 30, 2008
शुक्रवार, मार्च 28, 2008
दिल से आवाज आई: विश्व रंगमंच दिवस पर
जबलपुर आये बहुत दिन बीते. रोज इन्तजार करते थे कि कोई निमंत्रित करे. कहीं कुछ बोलने के लिये बुलवाये. कोई कविता सुने. मगर पत्थरों का शहर के नाम से मशहूर जबलपुर अपने को साबित करता रहा. कहते हैं सब टूट जाये, एक आस नहीं टूटना चाहिये. नहीं टूटी साहब और आखिर वो दिन आ ही गया और भाई पंकज स्वामी, अरे वही जबलपुर चौपाल वाले. नहीं जानते, जानेंगे भी कैसे, ब्लॉगवाणी पर अभी जो वो नहीं हैं. जल्द आ जायेंगे, ने निमंत्रित किया. अखबार में समाचार और नाम आया और साथ ही जानने वालों की बधाई. वाह भाई, अखबार में छप लिये और आख्यान देने जा रहे हो, का बोलोगे यार?? जरा हमें भी तो सुनाओ.
अपना मोहल्ला, जहाँ कभी बचपन में हॉफ पेन्ट पहन कर मिट्टी में खेले थे, वो काहे मानने लगे कि आप कुछ ऐसा जान गये हो जो वो नहीं जानते और आप उन्हें बता सकते हैं. हम भी झेंपे से चुपचाप बधाई लेकर शाम, अपने पूर्ण भारतीय होने को सत्यापित करते हुए पूरे ४५ मिनट विलम्ब से आयोजन स्थल पर पहुँचे. आनन्द आ गया. विवेचना रंगमण्डल ने इतना सुन्दर कार्यक्रम प्रस्तुत किया कि शब्दों में बयान करके उसके आकार को बांधने में मैं अपने आपको पूर्णतः अक्षम पा रहा हूँ.
फिर भाई पंकज स्वामी का विश्व रंगमंच दिवस के, प्रगतिशील लेखक संघ के एवं ब्लॉग के विषय में आख्यान हुआ तथा उसके बाद हमें, यानि समीर लाल यानि उड़न तश्तरी को इस विधा के विषय मे बताने के लिये मंच पर निमंत्रित किया गया. कुछ बताया, ज्यादा निवेदन किया और भी ज्यादा आश्वासन दिया कि ब्लॉग खोलने एवं बनाने की हर मदद के लिये हम सब ब्लॉगर हर वक्त हाजिर हैं. अपने कार्ड भी लोगों में बांट दिये. गिरीश बिल्लोरे ’मुकुल’, पंकज स्वामी, महेन्द्र मिश्रा, विकास परिहार, जो सभी जबलपुर से ब्लॉगिंग करते हैं, इन सबको बिना इनकी पूर्वानुमति के सबकी मदद के लिये हाजिर करवा दिया. गिरीश भाई ने तो तुरन्त एक सेमिनार की घोषणा भी कर दी जिसमें विवेचना के एवं साथियों को ब्लॉग के विषय में जानकारी देने हम सब उपस्थित रहेंगे. घोषणा पर त्वरित प्रतिक्रिया करते हुए प्रख्यात हस्ती विवेचना रंगमंडल के निर्देशक श्री अरुण पाण्डे जी ने दिन भर के लिये पूरा का पूरा साईबर कैफे उपलब्ध कराने की घोषणा कर दी. हम उनके हृदय से आभारी हैं. अगले हफ्ते किसी दिन इस सेमिनार का आयोजन किया जायेगा और उस दिन संस्कारों की नगरी संस्कारधानी जबलपुर से नये शुरु हुए चिट्ठों की जानकारी आप तक पहुँचाई जायेगी. यह अपने आप में एक उपलब्धि है.
कार्यक्रम के द्वितीय चरण में विवेचना रंगमण्डल के ही युवा कलाकारों की हृदय की वाणी कविता रुप में सुन कर मन प्रफुल्लित हो गया. कहीं से लगा ही नहीं कि यह नया नया लिखना शुरु कर रहे हैं और कई तो पहली बार पढ़ रहे थे. उनमें से ही, हालांकि कोई भी कमतर नहीं था, एक बालक नें मेरा तथा पूरी सभा का ध्यान विशेष रुप से आकर्षित किया. मैने उसकी तस्वीर भी ली और उसकी वह कविता भी, इस वादे के साथ कि इसे मैं अपने चिट्ठे क माध्यम से लोगों तक पहुँचाऊँगा.
आईये स्वागत करें रंगकर्मी भाई राजेश वर्मा ’बारी’ का, जो कि जबलपुर में ही रहते हैं:
देखिये उनकी कल्पनाशीलता:
"लकीरें"
हरे पत्तों से भरे, नन्हे से पौधों की, पत्तियों पर भी
होती हैं चिंता की लकीरें, के न जाने कब किसके
पैरों तले रौंदा जाऊँगा मैं.
हरे पत्तों से भरे, पेड़ों की पत्तियों पर भी,
होती हैं चिंता की लकीरें, के जाने कब, कौन
छांट डालेगा मेरी टहनियों को,
और काट डालेगा मेरे तनों को.
हरे पत्तों से भरे, वृक्षों के पत्तों पर भी,
होती हैं चिंता की लकीरें, के जाने कब,
मिटा दिया जायेगा मेरा नामों निशां,
किसी आदमी की चिता के लिये.
और न चाह कर भी, लिटाना होगा उसे, अपनी छाती पर मुझे
जिसने रौंदा था, मेरे हंसते खिलखिलाते बचपन को,
जिसने काटा था जवानी में मेरी छोटी छोटी डालियाँ और तनों को
जिसने उजाड़ दिया था मुझको बुढ़ापे में.
आखिर क्या बिगाड़ा था मैने उस इसां का
मैने तो लोगों को फूल दिये, फल दिये, पक्षियों को बसेरा दिया
राहगीरों को छाया दी, जीवन के लिये प्राण वायु दी.
हो सकता है यही मेरा अपराध रहा हो!!
पर फिर भी फक्र है मुझे अपने आप पर
के उस माटी का कर्ज चुका रहा हूँ मैं,
आज किसी इसां की देह जलाने के काम आ रहा हूँ मैं.
इन्हीं शब्दों के साथ इस मातृभूमि को नमन करता हूँ और
प्रार्थना करता हूँ, उस इसां की चिता की राख के वारिसों से
के मुझे अभी अपना अंतिम कर्ज चुकाना है,
इसलिये हो सके तो मेरी राख को गंगा में न बहाना
कर सको तो बस इतना करना, उस माटी में मिला देना तुम मुझे
हुआ था जिस माटी में मेरा जन्म,
हो सकता है मेरी राख से मेरा कोई अंकुर फूटे
जिसका बचपन, जवानी और बुढ़ापा तुम्हारे काम आये.
--राजेश वर्मा ’बारी’
और यह दर्शन करिये वहाँ उपलब्ध जबलपुर के चिट्ठाकार:
बांये से दांये:
गिरिश बिल्लौरे, समीर लाल, पकंज स्वामी, महेन्द्र मिश्रा.
बाकी आयोजन के डिटेल्स तो आप गिरीश बिल्लौरे जी की पोस्ट एवं महेन्द्र मिश्र जी की पोस्ट से सुन ही चुके हैं.
कार्यक्रम की एक झलक देखें:
अपना मोहल्ला, जहाँ कभी बचपन में हॉफ पेन्ट पहन कर मिट्टी में खेले थे, वो काहे मानने लगे कि आप कुछ ऐसा जान गये हो जो वो नहीं जानते और आप उन्हें बता सकते हैं. हम भी झेंपे से चुपचाप बधाई लेकर शाम, अपने पूर्ण भारतीय होने को सत्यापित करते हुए पूरे ४५ मिनट विलम्ब से आयोजन स्थल पर पहुँचे. आनन्द आ गया. विवेचना रंगमण्डल ने इतना सुन्दर कार्यक्रम प्रस्तुत किया कि शब्दों में बयान करके उसके आकार को बांधने में मैं अपने आपको पूर्णतः अक्षम पा रहा हूँ.
फिर भाई पंकज स्वामी का विश्व रंगमंच दिवस के, प्रगतिशील लेखक संघ के एवं ब्लॉग के विषय में आख्यान हुआ तथा उसके बाद हमें, यानि समीर लाल यानि उड़न तश्तरी को इस विधा के विषय मे बताने के लिये मंच पर निमंत्रित किया गया. कुछ बताया, ज्यादा निवेदन किया और भी ज्यादा आश्वासन दिया कि ब्लॉग खोलने एवं बनाने की हर मदद के लिये हम सब ब्लॉगर हर वक्त हाजिर हैं. अपने कार्ड भी लोगों में बांट दिये. गिरीश बिल्लोरे ’मुकुल’, पंकज स्वामी, महेन्द्र मिश्रा, विकास परिहार, जो सभी जबलपुर से ब्लॉगिंग करते हैं, इन सबको बिना इनकी पूर्वानुमति के सबकी मदद के लिये हाजिर करवा दिया. गिरीश भाई ने तो तुरन्त एक सेमिनार की घोषणा भी कर दी जिसमें विवेचना के एवं साथियों को ब्लॉग के विषय में जानकारी देने हम सब उपस्थित रहेंगे. घोषणा पर त्वरित प्रतिक्रिया करते हुए प्रख्यात हस्ती विवेचना रंगमंडल के निर्देशक श्री अरुण पाण्डे जी ने दिन भर के लिये पूरा का पूरा साईबर कैफे उपलब्ध कराने की घोषणा कर दी. हम उनके हृदय से आभारी हैं. अगले हफ्ते किसी दिन इस सेमिनार का आयोजन किया जायेगा और उस दिन संस्कारों की नगरी संस्कारधानी जबलपुर से नये शुरु हुए चिट्ठों की जानकारी आप तक पहुँचाई जायेगी. यह अपने आप में एक उपलब्धि है.
कार्यक्रम के द्वितीय चरण में विवेचना रंगमण्डल के ही युवा कलाकारों की हृदय की वाणी कविता रुप में सुन कर मन प्रफुल्लित हो गया. कहीं से लगा ही नहीं कि यह नया नया लिखना शुरु कर रहे हैं और कई तो पहली बार पढ़ रहे थे. उनमें से ही, हालांकि कोई भी कमतर नहीं था, एक बालक नें मेरा तथा पूरी सभा का ध्यान विशेष रुप से आकर्षित किया. मैने उसकी तस्वीर भी ली और उसकी वह कविता भी, इस वादे के साथ कि इसे मैं अपने चिट्ठे क माध्यम से लोगों तक पहुँचाऊँगा.
आईये स्वागत करें रंगकर्मी भाई राजेश वर्मा ’बारी’ का, जो कि जबलपुर में ही रहते हैं:
देखिये उनकी कल्पनाशीलता:
"लकीरें"
हरे पत्तों से भरे, नन्हे से पौधों की, पत्तियों पर भी
होती हैं चिंता की लकीरें, के न जाने कब किसके
पैरों तले रौंदा जाऊँगा मैं.
हरे पत्तों से भरे, पेड़ों की पत्तियों पर भी,
होती हैं चिंता की लकीरें, के जाने कब, कौन
छांट डालेगा मेरी टहनियों को,
और काट डालेगा मेरे तनों को.
हरे पत्तों से भरे, वृक्षों के पत्तों पर भी,
होती हैं चिंता की लकीरें, के जाने कब,
मिटा दिया जायेगा मेरा नामों निशां,
किसी आदमी की चिता के लिये.
और न चाह कर भी, लिटाना होगा उसे, अपनी छाती पर मुझे
जिसने रौंदा था, मेरे हंसते खिलखिलाते बचपन को,
जिसने काटा था जवानी में मेरी छोटी छोटी डालियाँ और तनों को
जिसने उजाड़ दिया था मुझको बुढ़ापे में.
आखिर क्या बिगाड़ा था मैने उस इसां का
मैने तो लोगों को फूल दिये, फल दिये, पक्षियों को बसेरा दिया
राहगीरों को छाया दी, जीवन के लिये प्राण वायु दी.
हो सकता है यही मेरा अपराध रहा हो!!
पर फिर भी फक्र है मुझे अपने आप पर
के उस माटी का कर्ज चुका रहा हूँ मैं,
आज किसी इसां की देह जलाने के काम आ रहा हूँ मैं.
इन्हीं शब्दों के साथ इस मातृभूमि को नमन करता हूँ और
प्रार्थना करता हूँ, उस इसां की चिता की राख के वारिसों से
के मुझे अभी अपना अंतिम कर्ज चुकाना है,
इसलिये हो सके तो मेरी राख को गंगा में न बहाना
कर सको तो बस इतना करना, उस माटी में मिला देना तुम मुझे
हुआ था जिस माटी में मेरा जन्म,
हो सकता है मेरी राख से मेरा कोई अंकुर फूटे
जिसका बचपन, जवानी और बुढ़ापा तुम्हारे काम आये.
--राजेश वर्मा ’बारी’
और यह दर्शन करिये वहाँ उपलब्ध जबलपुर के चिट्ठाकार:
बांये से दांये:
गिरिश बिल्लौरे, समीर लाल, पकंज स्वामी, महेन्द्र मिश्रा.
बाकी आयोजन के डिटेल्स तो आप गिरीश बिल्लौरे जी की पोस्ट एवं महेन्द्र मिश्र जी की पोस्ट से सुन ही चुके हैं.
कार्यक्रम की एक झलक देखें:
बुधवार, मार्च 26, 2008
माई ब्लॉग, माई वाईफ: मेरी आत्मकथा
सोचता हूँ अब वक्त आ गया है जबकि मैं अपनी आत्मकथा लिख डालूँ.
पिछले कुछ दिनों से इसी विचार में खोया हूँ. चल रहा है एक चिंतन. देखिये न तस्वीर में.
पहले तो मसला उठा कि शीर्षक क्या रखूँ?? मगर वो बड़ी जल्दी हल हो गया. फाइनल भी कर दिया- "माई ब्लॉग, माई वाईफ". कैसा लगा??
नाम से भ्रमित न हों. इस तरह की अन्य आत्मकथाओं की ही भाँति न तो इसमें हमारे ब्लॉग के बारे में कुछ होगा और न ही हमारी वाईफ के बारे में. अगर यह ढ़ूँढ़ा तो बस, ढ़ूँढ़ते रह जाओगे!!!!
तो ऐसा बना कवर पेज:
अब विचार चल रहा है कि क्या क्या जिंदगी के हिस्से में इसमें कवर करुँ. वो पुराने जमाने के चक्कर तो मैं लिखने से रहा और न ही अपने हाई स्कूल के नम्बर. जब बड़े बड़े बदनामी के डर से बड़े बड़े किस्से आत्मकथा से गोल कर गये, जो कि सबको मालूम थे, तो हमारा तो ज्यादा लोगों को मालूम भी नहीं है और हमारे मोहल्ले में ज्यादा ब्लॉग पढ़ने का फैशन भी नहीं है कि कोई हल्ला मचाये कि हम क्या क्या छिपा गये.
रही किसी से मनमुटाव या विवाद की घटना..तो जिनसे ब्लॉगजगत एवं असली जगत में ऐसा है, वो सारे तो अभी बने हुए हैं. रिटायर हो जाते तो जरुर कुछ न कुछ चैंप देते उनके नाम. अभी तो इतना ही लिख दूँगा कि उनको मैं अपना पथप्रदर्शक मानता हूँ. उनके बिना बिल्कुल अकेला महसूस करुँगा. बड़े बुजुर्गों के आशीर्वाद तले एक निश्चिंतता रहती है, सो ही महसूस करता हूँ उनके रहने से. जब भी मैने उन्हें आवाज दी वो मदद के लिये दौड़े चले आये. (हांलाकि उनके घुटने में बहुत दर्द था और ऑपरेशन के बाद डॉक्टर ने दौड़ने को मना किया है) फिर भी स्नेहवश वो दौड़े.
जब वो रिटायर या फायर हो जायेंगे, तब असलियत लिख दूँगा मगर अभी तो बस इतना ही.
अभी तो रेल्वे के गरीब रथ में बैठ कर भारत के कोने कोने की रथ यात्राओं का अनुभव भी इसी में समेटना है. पाकिस्तान जाने का मौका नहीं लगा तो क्या हुआ? विदेशों वाली और जगहें भी तो हैं, जहाँ मैं गया हूँ. वहीं का लिख डालूँगा. कौन वेरीफाई करने जाता है?
कुछ ऐसा भी बीच में लिख दूँगा कि हिन्दी ब्लॉगिंग सन २०१० तक विकसित चिट्ठाकारी का दर्जा प्राप्त कर लेगी और चिट्ठाकारों की संख्या लाखों में होगी. पूरा विश्व हिन्दी की ओर मूँह बाये देखेगा.
किताब मोटी होनी चाहिये, बस यही उद्देश्य है. ऐसी किताबें यूँ भी कौन खरीद कर पढ़ता है और वैसे भी, हमारी वाली तो सरकार भी नहीं खरीदेगी और न ही हमारी पार्टी अर्रर...हमारे ब्लॉगिये ही उसे खरीदने वाले हैं. तो सिर्फ बांटने के काम आयेगी. लोग फार्मेलटी में सधन्यवाद ग्रहण करेंगे और अपने घर ले जाकर बिना पढ़े अलमारी में रख देंगे.
मगर मुझे संतोष रहेगा कि मेरी आत्म कथा ’"माई ब्लॉग, माई वाईफ" छप गई और ५०० कॉपी चली गई. और क्या अपेक्षा करुँ इस छोटे से जीवन से!!! बड़ी संतुष्टी महसूस हो रही है. मुस्करा रहा हूँ और दोनों हाथ आपस में मल रहा हूँ..इस इन्तजार में कि कोई टीवी वाला आता होगा इन्टरव्यू लेने. ऐसा ही फैशन है.
पिछले कुछ दिनों से इसी विचार में खोया हूँ. चल रहा है एक चिंतन. देखिये न तस्वीर में.
पहले तो मसला उठा कि शीर्षक क्या रखूँ?? मगर वो बड़ी जल्दी हल हो गया. फाइनल भी कर दिया- "माई ब्लॉग, माई वाईफ". कैसा लगा??
नाम से भ्रमित न हों. इस तरह की अन्य आत्मकथाओं की ही भाँति न तो इसमें हमारे ब्लॉग के बारे में कुछ होगा और न ही हमारी वाईफ के बारे में. अगर यह ढ़ूँढ़ा तो बस, ढ़ूँढ़ते रह जाओगे!!!!
तो ऐसा बना कवर पेज:
अब विचार चल रहा है कि क्या क्या जिंदगी के हिस्से में इसमें कवर करुँ. वो पुराने जमाने के चक्कर तो मैं लिखने से रहा और न ही अपने हाई स्कूल के नम्बर. जब बड़े बड़े बदनामी के डर से बड़े बड़े किस्से आत्मकथा से गोल कर गये, जो कि सबको मालूम थे, तो हमारा तो ज्यादा लोगों को मालूम भी नहीं है और हमारे मोहल्ले में ज्यादा ब्लॉग पढ़ने का फैशन भी नहीं है कि कोई हल्ला मचाये कि हम क्या क्या छिपा गये.
रही किसी से मनमुटाव या विवाद की घटना..तो जिनसे ब्लॉगजगत एवं असली जगत में ऐसा है, वो सारे तो अभी बने हुए हैं. रिटायर हो जाते तो जरुर कुछ न कुछ चैंप देते उनके नाम. अभी तो इतना ही लिख दूँगा कि उनको मैं अपना पथप्रदर्शक मानता हूँ. उनके बिना बिल्कुल अकेला महसूस करुँगा. बड़े बुजुर्गों के आशीर्वाद तले एक निश्चिंतता रहती है, सो ही महसूस करता हूँ उनके रहने से. जब भी मैने उन्हें आवाज दी वो मदद के लिये दौड़े चले आये. (हांलाकि उनके घुटने में बहुत दर्द था और ऑपरेशन के बाद डॉक्टर ने दौड़ने को मना किया है) फिर भी स्नेहवश वो दौड़े.
जब वो रिटायर या फायर हो जायेंगे, तब असलियत लिख दूँगा मगर अभी तो बस इतना ही.
अभी तो रेल्वे के गरीब रथ में बैठ कर भारत के कोने कोने की रथ यात्राओं का अनुभव भी इसी में समेटना है. पाकिस्तान जाने का मौका नहीं लगा तो क्या हुआ? विदेशों वाली और जगहें भी तो हैं, जहाँ मैं गया हूँ. वहीं का लिख डालूँगा. कौन वेरीफाई करने जाता है?
कुछ ऐसा भी बीच में लिख दूँगा कि हिन्दी ब्लॉगिंग सन २०१० तक विकसित चिट्ठाकारी का दर्जा प्राप्त कर लेगी और चिट्ठाकारों की संख्या लाखों में होगी. पूरा विश्व हिन्दी की ओर मूँह बाये देखेगा.
किताब मोटी होनी चाहिये, बस यही उद्देश्य है. ऐसी किताबें यूँ भी कौन खरीद कर पढ़ता है और वैसे भी, हमारी वाली तो सरकार भी नहीं खरीदेगी और न ही हमारी पार्टी अर्रर...हमारे ब्लॉगिये ही उसे खरीदने वाले हैं. तो सिर्फ बांटने के काम आयेगी. लोग फार्मेलटी में सधन्यवाद ग्रहण करेंगे और अपने घर ले जाकर बिना पढ़े अलमारी में रख देंगे.
मगर मुझे संतोष रहेगा कि मेरी आत्म कथा ’"माई ब्लॉग, माई वाईफ" छप गई और ५०० कॉपी चली गई. और क्या अपेक्षा करुँ इस छोटे से जीवन से!!! बड़ी संतुष्टी महसूस हो रही है. मुस्करा रहा हूँ और दोनों हाथ आपस में मल रहा हूँ..इस इन्तजार में कि कोई टीवी वाला आता होगा इन्टरव्यू लेने. ऐसा ही फैशन है.
रविवार, मार्च 09, 2008
बस, बच ही गये..समझो!!!
मार्च माह का भोर का वातावरण, न जाने क्यूँ मुझे बचपन से ही भाता है.
आज सुबह ६ बजे ही नींद खुल गई. दलान में निकल आया. वहीं झूले पर बैठ कर या यूँ कहें कि आधा लेट कर अधमुंदी आँखों से आज के अखबार की सुर्खियों पर नजर दौड़ाने लगा. सूरज की रोशनी में हल्की गुलाबी तपिश थी किन्तु मधुयामिनि के वृक्ष की आड़ उसे सुखद सुगंधित और मोहक बना दे रही थी.
झूला स्वतः ही हल्की हल्की हिलोरें ले रहा था. सामने टेबल पर चाय परोसी जा चुकी थी. मैं अलसाया सा, चाय पर नाचती एक मख्खी को नजर अंदाज करता हुआ अपने आप में खोया था. मख्खी को शायद उसे मेरा नजर अंदाज करना पसंद नहीं आ रहा था. वो बीच बीच में उड़ कर कभी मेरे कान के पास और कभी नाक के पास उड़ कर परेशान कर रही थी या अपने होने का अहसास करा रही थी, कि कैसे ध्यान नहीं दोगे.. स्वभावतः मैं इस तरह की बेवकूफियों को नजर अंदाज करते हुये उसमें भी कोई खूबी खोजने का प्रयास करता हूँ. एक बार को उसकी चपलता मुझे भाई भी, मन किया कि आदतानुसार कह दूँ: क्या फुर्ती है?? साधुवाद आपकी उड़ान का.. जब आप कान के पास आती हैं तो क्या मधुर संगीत लहरी उठती है..भुन्न्न्न!!! वाह वाह!! गाते रहिये. एकदम मौलिक संगीत..आनन्द आ गया. पर दूसरे ही पल ख्याल आया कि कहीं इससे उसे गलत हौसला न मिल जाये और वो पहले से भी ज्यादा परेशान करने लगे. यह मैने समय के साथ प्राप्त अनुभवों से सीखा है. . अगर भगाता या उसे मारता या गाली देता, तो भी वो और ज्यादा परेशान करती, विवाद करने का उसका यही तरीका है. उसे मजा आता है इस तरह के विवाद में. बस, मैं उसे नजर अंदाज करता रहा.
कुछ ही पल में देखा कि वो मेरी चाय की गरम प्याली में गिर गई और मर गई. उसका यह हश्र तो होना ही था. वो ही हुआ. मगर, मेरी चाय का सत्यानाश हो गया बेवजह. तो क्या नजर अंदाज करना भी उपाय नहीं है?? फिर क्या किया जाये कि मख्खी भी मर जाये और चाय भी खराब न हो. यूँ तो फिर से चाय बन कर आ जायेगी मगर खामखाह, एक तो खराब हुई.
नीचे दिवंगत आत्मा की एक तस्वीर, अगर आप श्रृद्धांजली अर्पित करना चाहें, तो (ध्यान रहे यह मरने के पूर्व की है):
खैर, चाय फिर आ गई. इस बीच रामजस नाई भी आ गया मालिश करने.
मैं अधलेटा सा, रामजस गोड़ में कड़वा तेल रगड़ने लगा और साथ ही शुरु हुआ उसका दुनिया जहान की अनजान खबरों का खुफिया एफ एम बैन्ड रेडियो. तरह तरह के किस्से सुनाता रहा. कानों विश्वास न हो मगर पास्ट परफॉरमेन्स के बेसिस पर उसकी बात को सपाट रिजेक्ट कर देना भी अपनी ही बेवकूफी होती. पहले भी उसकी बताई असंभव खबरों को संभव होते देख चुका हूँ तो अब कान ज्यादा चौक्कने रहते हैं. सब आदमी अनुभव से ही तो सीखता है.
मालिश चलती रही, बीच बीच में चाय की चुस्की और रामजस का नॉनस्टाप ट्रांसमिशन. कह रहा था कि अपनी कोठरी बेच देगा, कहीं और नया कमरा खरीदेगा. बच्चे बड़े हो रहे हैं. मोहल्ले के बच्चे गाली गलोच करते हैं. उनके साथ खेलने को तो मना कर दिया है पर कान में जो पड़ती है, वही न सीखेंगे, माहौल का बहुत अंतर पड़ता है, साहेब. मैं चुपचाप उसकी ज्ञानवार्ता सुन रहा हूँ. उसके विचार मुझे अच्छे लग रहे हैं मगर मैं चुप हूँ हमेशा की तरह. मैं ऐसे मसलों पर नहीं बोला करता.
तब तक एक छोटी सी प्यारी गोरी बच्ची ने मुस्कियाते हुये मेन गेट खोल कर दलान में प्रवेश किया. मैने आज पहली बार उसे देखा था.
रामजस ने बताया कि यह उसकी बेटी है गुलाबो. मेरे कनाडा जाने के बाद पैदा हुई. अब ७ साल की है और दूसरी क्लास में अंग्रजी स्कूल में पढ़ती है. हिसाब में बहुत तेज है. रामजस तो पढ़ा नहीं, न ही उसकी बीबी इसलिये इसे खूब पढ़ायेगे.
मैने गुलाबो से पूछा कि बेटा, पढ़ना कैसा लगता है?
गुलाबो प्यारी सी मुस्कान के साथ बोली कि बहुत अच्छा.
मैने फिर पूछा कि बड़ी होकर क्या बनोगी?
कहने लगी, डॉक्टल (डॉक्टर)!! वो फिर मुस्कराने लगी.
रामजस कहने लगा कि साहेब, यह तो पगलिया है. हमारे भी अरमान हैं.खूब पढ़ा देंगे १२ तक फिर ब्याह रचा देंगे. अपने घर जाये फिर चाहे, हिमालय चढ़े वरना तो बिरादरी में लड़का कहाँ मिलेगा? और बिरादरी के बाहेर शादी करके अपनी नाक कटवानी है क्या?
मैं सन्न!!!! कभी रामजस को देखूँ और कभी गुलाबो की मासूम आँखों में तैरते सपनों को. किसको सही मानूँ..जो होने को है या जो सोच में है. समझाईश का कोई फायदा रामजस पर हो, इसकी मुझे उम्मीद नहीं मगर जब जब मौका लगेगा, समझाऊँगा जरुर.
बस, बात को बदलने के लिये मैने पूछ ही लिया कि यह गुलाबो नाम कैसा रखा है?
रामजस बताने लगा कि साहेब, जब पैदा हुई तो झक गुलाबी रंग की थी तो हम इसका नाम गुलाबो रख दिये.
मैं मुस्करा दिया और मन ही मन भगवान को लाख लाख धन्यवाद दिया कि हमारे पिता जी के दिमाग में यदि १% भी रामजस के दिमाग का साया पड़ गया होता तो आज हमारा नाम कल्लू लाल होता. बहुत बचे!!!
स्पष्टीकरण एवं बचाव कवच (डिसक्लेमर):
आलेख में उल्लेखित मख्खी का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या ब्लॉगर से मेल खाना मात्र एक संयोग एवं दुर्घटना है. यह पूर्णत: मौलिक एवं गंदगी में बैठने वाली सचमुच की मख्खी थी जिसे साफसुथरी जगहों पर उड़ कर सभ्यजनों को चिढ़ाने में मजा आता था. बदमजगी फैलाना ही उसका मजा था. अपनी इसी मजा लुटने की आदात के चलते वह गरम चाय में गिर कर असमय ही काल की ग्रास बनी. ईश्वर उसकी आत्मा को शांति प्रदान करें. कृप्या कोई अन्यथा न ले क्योंकि लिखने के बाद जब मैं इसे पढ़ रहा हूँ तो कहीं कहीं कुछ अन्यों से सामन्जस्य दिख रहा है, मगर कहाँ वो और कहाँ यह एक गंदी सी मख्खी..न न!! बस, एक संयोग ही होगा.
आज सुबह ६ बजे ही नींद खुल गई. दलान में निकल आया. वहीं झूले पर बैठ कर या यूँ कहें कि आधा लेट कर अधमुंदी आँखों से आज के अखबार की सुर्खियों पर नजर दौड़ाने लगा. सूरज की रोशनी में हल्की गुलाबी तपिश थी किन्तु मधुयामिनि के वृक्ष की आड़ उसे सुखद सुगंधित और मोहक बना दे रही थी.
झूला स्वतः ही हल्की हल्की हिलोरें ले रहा था. सामने टेबल पर चाय परोसी जा चुकी थी. मैं अलसाया सा, चाय पर नाचती एक मख्खी को नजर अंदाज करता हुआ अपने आप में खोया था. मख्खी को शायद उसे मेरा नजर अंदाज करना पसंद नहीं आ रहा था. वो बीच बीच में उड़ कर कभी मेरे कान के पास और कभी नाक के पास उड़ कर परेशान कर रही थी या अपने होने का अहसास करा रही थी, कि कैसे ध्यान नहीं दोगे.. स्वभावतः मैं इस तरह की बेवकूफियों को नजर अंदाज करते हुये उसमें भी कोई खूबी खोजने का प्रयास करता हूँ. एक बार को उसकी चपलता मुझे भाई भी, मन किया कि आदतानुसार कह दूँ: क्या फुर्ती है?? साधुवाद आपकी उड़ान का.. जब आप कान के पास आती हैं तो क्या मधुर संगीत लहरी उठती है..भुन्न्न्न!!! वाह वाह!! गाते रहिये. एकदम मौलिक संगीत..आनन्द आ गया. पर दूसरे ही पल ख्याल आया कि कहीं इससे उसे गलत हौसला न मिल जाये और वो पहले से भी ज्यादा परेशान करने लगे. यह मैने समय के साथ प्राप्त अनुभवों से सीखा है. . अगर भगाता या उसे मारता या गाली देता, तो भी वो और ज्यादा परेशान करती, विवाद करने का उसका यही तरीका है. उसे मजा आता है इस तरह के विवाद में. बस, मैं उसे नजर अंदाज करता रहा.
कुछ ही पल में देखा कि वो मेरी चाय की गरम प्याली में गिर गई और मर गई. उसका यह हश्र तो होना ही था. वो ही हुआ. मगर, मेरी चाय का सत्यानाश हो गया बेवजह. तो क्या नजर अंदाज करना भी उपाय नहीं है?? फिर क्या किया जाये कि मख्खी भी मर जाये और चाय भी खराब न हो. यूँ तो फिर से चाय बन कर आ जायेगी मगर खामखाह, एक तो खराब हुई.
नीचे दिवंगत आत्मा की एक तस्वीर, अगर आप श्रृद्धांजली अर्पित करना चाहें, तो (ध्यान रहे यह मरने के पूर्व की है):
खैर, चाय फिर आ गई. इस बीच रामजस नाई भी आ गया मालिश करने.
मैं अधलेटा सा, रामजस गोड़ में कड़वा तेल रगड़ने लगा और साथ ही शुरु हुआ उसका दुनिया जहान की अनजान खबरों का खुफिया एफ एम बैन्ड रेडियो. तरह तरह के किस्से सुनाता रहा. कानों विश्वास न हो मगर पास्ट परफॉरमेन्स के बेसिस पर उसकी बात को सपाट रिजेक्ट कर देना भी अपनी ही बेवकूफी होती. पहले भी उसकी बताई असंभव खबरों को संभव होते देख चुका हूँ तो अब कान ज्यादा चौक्कने रहते हैं. सब आदमी अनुभव से ही तो सीखता है.
मालिश चलती रही, बीच बीच में चाय की चुस्की और रामजस का नॉनस्टाप ट्रांसमिशन. कह रहा था कि अपनी कोठरी बेच देगा, कहीं और नया कमरा खरीदेगा. बच्चे बड़े हो रहे हैं. मोहल्ले के बच्चे गाली गलोच करते हैं. उनके साथ खेलने को तो मना कर दिया है पर कान में जो पड़ती है, वही न सीखेंगे, माहौल का बहुत अंतर पड़ता है, साहेब. मैं चुपचाप उसकी ज्ञानवार्ता सुन रहा हूँ. उसके विचार मुझे अच्छे लग रहे हैं मगर मैं चुप हूँ हमेशा की तरह. मैं ऐसे मसलों पर नहीं बोला करता.
तब तक एक छोटी सी प्यारी गोरी बच्ची ने मुस्कियाते हुये मेन गेट खोल कर दलान में प्रवेश किया. मैने आज पहली बार उसे देखा था.
रामजस ने बताया कि यह उसकी बेटी है गुलाबो. मेरे कनाडा जाने के बाद पैदा हुई. अब ७ साल की है और दूसरी क्लास में अंग्रजी स्कूल में पढ़ती है. हिसाब में बहुत तेज है. रामजस तो पढ़ा नहीं, न ही उसकी बीबी इसलिये इसे खूब पढ़ायेगे.
मैने गुलाबो से पूछा कि बेटा, पढ़ना कैसा लगता है?
गुलाबो प्यारी सी मुस्कान के साथ बोली कि बहुत अच्छा.
मैने फिर पूछा कि बड़ी होकर क्या बनोगी?
कहने लगी, डॉक्टल (डॉक्टर)!! वो फिर मुस्कराने लगी.
रामजस कहने लगा कि साहेब, यह तो पगलिया है. हमारे भी अरमान हैं.खूब पढ़ा देंगे १२ तक फिर ब्याह रचा देंगे. अपने घर जाये फिर चाहे, हिमालय चढ़े वरना तो बिरादरी में लड़का कहाँ मिलेगा? और बिरादरी के बाहेर शादी करके अपनी नाक कटवानी है क्या?
मैं सन्न!!!! कभी रामजस को देखूँ और कभी गुलाबो की मासूम आँखों में तैरते सपनों को. किसको सही मानूँ..जो होने को है या जो सोच में है. समझाईश का कोई फायदा रामजस पर हो, इसकी मुझे उम्मीद नहीं मगर जब जब मौका लगेगा, समझाऊँगा जरुर.
बस, बात को बदलने के लिये मैने पूछ ही लिया कि यह गुलाबो नाम कैसा रखा है?
रामजस बताने लगा कि साहेब, जब पैदा हुई तो झक गुलाबी रंग की थी तो हम इसका नाम गुलाबो रख दिये.
मैं मुस्करा दिया और मन ही मन भगवान को लाख लाख धन्यवाद दिया कि हमारे पिता जी के दिमाग में यदि १% भी रामजस के दिमाग का साया पड़ गया होता तो आज हमारा नाम कल्लू लाल होता. बहुत बचे!!!
स्पष्टीकरण एवं बचाव कवच (डिसक्लेमर):
आलेख में उल्लेखित मख्खी का किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति या ब्लॉगर से मेल खाना मात्र एक संयोग एवं दुर्घटना है. यह पूर्णत: मौलिक एवं गंदगी में बैठने वाली सचमुच की मख्खी थी जिसे साफसुथरी जगहों पर उड़ कर सभ्यजनों को चिढ़ाने में मजा आता था. बदमजगी फैलाना ही उसका मजा था. अपनी इसी मजा लुटने की आदात के चलते वह गरम चाय में गिर कर असमय ही काल की ग्रास बनी. ईश्वर उसकी आत्मा को शांति प्रदान करें. कृप्या कोई अन्यथा न ले क्योंकि लिखने के बाद जब मैं इसे पढ़ रहा हूँ तो कहीं कहीं कुछ अन्यों से सामन्जस्य दिख रहा है, मगर कहाँ वो और कहाँ यह एक गंदी सी मख्खी..न न!! बस, एक संयोग ही होगा.
मंगलवार, मार्च 04, 2008
हाय!! काश! यह धरती फट जाये!!
याद आता है तब अपनी चार्टड एकाउन्टेन्सी की प्रथम पार्ट की परीक्षा दी थी. दो पन्नों में ही पूरे भारत का रेजेल्ट आ गया. मात्र १ या १.५% बच्चे पास हुए. हम भी गये अपना रेजेल्ट देखने. बार बार खोजा, रोल नम्बर/नाम मिल ही नहीं रहा था. मित्र ने पूछा: क्या हुआ भाई!! हमने बड़े भोलेपन से कहा कि यार, नाम ही नहीं मिल रहा, पता नहीं क्या बात है. मित्र जरा अव्यवहारिक से थे, तुरंत बोल उठे: इसमें पता नहीं की क्या बात है. एकदम साफ है कि आप फेल हो गये हैं. बड़ी शर्म आई. हॉस्टल में रुम पर लौट आये. खूब रोये और अगले दिन से सब नार्मल. बाद में भी कहीं कहीं एकाध बार फेल हुए, मगर तब उतना दुख नहीं हुआ. बुरी आदत जल्दी लग जाती है.
आज उकसाया उसने जिन्हें मैं अपने परम मित्रों और अपने शुभचिंतकों में ऊँचें रखता हूँ..मेरे भाई अनिल रघुराज ने.
उनके कहे पर आज देखा पूरे ब्लॉगवीर से ब्लॉगपीर तक सब अपनी अपनी एलेक्सा रेंकिंग को लेकर उत्साहित घूम रहे हैं. कोई पहले नम्बर पर तो कोई २९वें नम्बर पर.
हम भी पहुँच लिये एलेक्सा की साईट पर और लगे खोजने प्रथम २० वीरों में अपना नाम. आखिर एक लम्बा समय गुजारा है इस दुनिया में..जहाँ कभी साधुवाद के परचम गाड़े थे और जिस दुनिया ने अब शैतानवाद के युग तक का सफर सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है, उसमें हमारा नाम तो यहीं कहीं होना चाहिये. नहीं मिला!!!! आँखें सजल सी हो आईं. फिर सोचा कि शायद गल्ती से थोड़ा नीचे लिख दिया होगा. एक पन्ना, दो पन्ना, तीन पन्ना...पढ़ते चले गये. कई पहचाने चेहरे मिले..कोई कोई तो ऐसे जो दो साल से मिले ही नहीं. यहाँ तक की दो साल पहले भी बस इतना कहने आये थे कि आज से हम लिखेंगे फिर गुम..वो भी मिल लिये. एक नहीं मिले तो हम खुद.....उत्साह की चरम देखिये कि ८० पन्ने तक चले गये. और जैसा कि होनी को बदा था..नहीं मिलना था और नहीं मिले...शुष्क उद्यान, चिरकुट कलम, चिलमन कहानियाँ, न छेड़ो मुझे और न जाने कौन कौन.. सब मिले..या खुदा, बस हम न मिले.
आँसूओं की अविरल धारा प्रवाहित हो चली. फेल होने की भी प्रेक्टिस होती है. अब इतने दिन से छुटी हुई थी कि एकाएक यह सदमा फिर से झेलना तो बरदाश्त के बाहर हो गया. ८० पन्ने तक तो नहीं ही है..अब आगे होये भी तो क्या.किसी को आगे दिख जाये तो बता देना. एप्लिकेशन लिख कर हटवा दूँगा. उतने पीछे रेकिंग में(अगर हो तो) एडसेन्स से डॉलर की बरसात तो क्या, ट्प्पर चू का एक बूँद पानी भी न गिरे. एक सच्चा भारतीय हूँ तो सबकी कमाई का जुगाड़ देखकर जलन भी हो रही है कि हम रह गये.
मन में तो आ रहा है कि ब्लॉग ही डिलिट कर दूँ. कम से कम कहने को तो रहेगा कि डिलिट हो गया भूले से, इसलिये एलेक्सा में नहीं है.
काश! हमें भी रेंकिंग मिल जाती. आप सबके बीच उठने बैठने लायक हो जाते. सोचता हूँ, जरुर कोई पाप हो गया है मुझसे, जिसकी यह सजा मिली है. कैसे प्रयाश्चित करुँ उस अनजान पाप का?? जिन्हें अपने पाप मालूम हैं या जिनके पाप जगजाहिर हैं वो तक रेंकिंग पा गये और एक मैं बदनसीब इन टर्मस ऑफ एलेक्सा. ये कैसा न्याय है भगवन!!!
उस पर से पत्नी भी नाराज है. कहती है कि और फोड़ लो आँखें कम्प्यूटर में. कहते थे कि लगी रहने दो, सन २०१० से रवि भईया बताये हैं कि कमाई शुरु हो जायेगी. रेंकिंग तक तो मिली नहीं, क्या खाक कमाई होगी. बड़े टिप्पणीपीर बने घूमते हो..अभी भी वक्त है कि कुछ कायदे का काम करो. दिन भर उड़न तश्तरी-उड़न तश्तरी लगाये रहते हो..देखा, कैसी उड़ी....न जाने कहाँ उड़ गई कि नजर ही नहीं आ रही.
अब क्या जबाब दें उसको. खराब समय में चुप ही रहना बेहतर है.
हाय!! काश! यह धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ!!!
मगर कितनी..पूरा का पूरा समाने के लिये तो तालाब ही खुदना होगा!!!
आज उकसाया उसने जिन्हें मैं अपने परम मित्रों और अपने शुभचिंतकों में ऊँचें रखता हूँ..मेरे भाई अनिल रघुराज ने.
उनके कहे पर आज देखा पूरे ब्लॉगवीर से ब्लॉगपीर तक सब अपनी अपनी एलेक्सा रेंकिंग को लेकर उत्साहित घूम रहे हैं. कोई पहले नम्बर पर तो कोई २९वें नम्बर पर.
हम भी पहुँच लिये एलेक्सा की साईट पर और लगे खोजने प्रथम २० वीरों में अपना नाम. आखिर एक लम्बा समय गुजारा है इस दुनिया में..जहाँ कभी साधुवाद के परचम गाड़े थे और जिस दुनिया ने अब शैतानवाद के युग तक का सफर सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है, उसमें हमारा नाम तो यहीं कहीं होना चाहिये. नहीं मिला!!!! आँखें सजल सी हो आईं. फिर सोचा कि शायद गल्ती से थोड़ा नीचे लिख दिया होगा. एक पन्ना, दो पन्ना, तीन पन्ना...पढ़ते चले गये. कई पहचाने चेहरे मिले..कोई कोई तो ऐसे जो दो साल से मिले ही नहीं. यहाँ तक की दो साल पहले भी बस इतना कहने आये थे कि आज से हम लिखेंगे फिर गुम..वो भी मिल लिये. एक नहीं मिले तो हम खुद.....उत्साह की चरम देखिये कि ८० पन्ने तक चले गये. और जैसा कि होनी को बदा था..नहीं मिलना था और नहीं मिले...शुष्क उद्यान, चिरकुट कलम, चिलमन कहानियाँ, न छेड़ो मुझे और न जाने कौन कौन.. सब मिले..या खुदा, बस हम न मिले.
आँसूओं की अविरल धारा प्रवाहित हो चली. फेल होने की भी प्रेक्टिस होती है. अब इतने दिन से छुटी हुई थी कि एकाएक यह सदमा फिर से झेलना तो बरदाश्त के बाहर हो गया. ८० पन्ने तक तो नहीं ही है..अब आगे होये भी तो क्या.किसी को आगे दिख जाये तो बता देना. एप्लिकेशन लिख कर हटवा दूँगा. उतने पीछे रेकिंग में(अगर हो तो) एडसेन्स से डॉलर की बरसात तो क्या, ट्प्पर चू का एक बूँद पानी भी न गिरे. एक सच्चा भारतीय हूँ तो सबकी कमाई का जुगाड़ देखकर जलन भी हो रही है कि हम रह गये.
मन में तो आ रहा है कि ब्लॉग ही डिलिट कर दूँ. कम से कम कहने को तो रहेगा कि डिलिट हो गया भूले से, इसलिये एलेक्सा में नहीं है.
काश! हमें भी रेंकिंग मिल जाती. आप सबके बीच उठने बैठने लायक हो जाते. सोचता हूँ, जरुर कोई पाप हो गया है मुझसे, जिसकी यह सजा मिली है. कैसे प्रयाश्चित करुँ उस अनजान पाप का?? जिन्हें अपने पाप मालूम हैं या जिनके पाप जगजाहिर हैं वो तक रेंकिंग पा गये और एक मैं बदनसीब इन टर्मस ऑफ एलेक्सा. ये कैसा न्याय है भगवन!!!
उस पर से पत्नी भी नाराज है. कहती है कि और फोड़ लो आँखें कम्प्यूटर में. कहते थे कि लगी रहने दो, सन २०१० से रवि भईया बताये हैं कि कमाई शुरु हो जायेगी. रेंकिंग तक तो मिली नहीं, क्या खाक कमाई होगी. बड़े टिप्पणीपीर बने घूमते हो..अभी भी वक्त है कि कुछ कायदे का काम करो. दिन भर उड़न तश्तरी-उड़न तश्तरी लगाये रहते हो..देखा, कैसी उड़ी....न जाने कहाँ उड़ गई कि नजर ही नहीं आ रही.
अब क्या जबाब दें उसको. खराब समय में चुप ही रहना बेहतर है.
हाय!! काश! यह धरती फट जाये और मैं उसमें समा जाऊँ!!!
मगर कितनी..पूरा का पूरा समाने के लिये तो तालाब ही खुदना होगा!!!
शनिवार, मार्च 01, 2008
क्या बवाल मचा रखा है?? (भड़ास/मोहल्ला विवाद नहीं)
कहते हैं पुरानी यादें जब जरुरत से ज्यादा घेरने लगे तो वह आपकी प्रगती में बाधक होती हैं और यहाँ तो अपनी स्थितियों का आँकलन करता हूँ तो पाता हूँ बाधक तो दूर, हम तो इतना ज्यादा घिरे रहते हैं कि प्रगति का स्थान शायद अब तक पतन ने ले लिया होगा. इसी पतनशीलता के दौर से गुजरते तीन रोज पहले दिल्ली में था. फरीदाबाद से ग्रेटर नोयडा की तरफ जा रहा था. पूरा ट्रेफिक जाम. फरवरी की दोपहर मगर एक तो आपस में सटे वाहन, उस पर से तपता सूरज. गाड़ी का एसी अपने कर्तव्यों को बखूबी निष्पादित कर रहा था फिर भी गाड़ी को बहुत मुश्किल से एक बड़े अंतराल में मात्र कुछ इन्च खिसकता देख खीझ होना स्वभाविक ही था. हालात ऐसे कि लगा फिल्म जोधा अकबर देख रहे हैं. बार बार लगता कि अब खत्म हुई कि तब..मगर खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही थी.
क्या फर्क है?? एक ही बात!!
ऐसा नहीं कि मैं अकेला ही खीझ रहा हूँ या परेशान हो रहा हूँ. मैने उसके चेहरे पर भी परेशानी के भाव देखे. गुलाबी टॉप्स, सर पर चढ़कर आराम करता धूप का चश्मा, शायद काफी देर लगाये लगाये थक गई होगी. खीझ और परेशानी का मिलाजुला असर यह रहा कि थकान ने उसे आ घेरा और उसने सीट पर सर टिका कर आँखें बन्द कर लीं. एकदम चुप, न कुछ बोलना और न कुछ सुनना, खूबसूरत लग रही थी.
आज एक अरसे बाद उसने रीता की याद दिला दी. खूबसूरत तो वो भी थी, इस तरह के माहौल में वो भी परेशान हो उठती और खीझ जाती मगर उसके और इसके स्वभाव में एक बहुत बड़ा व्यवहारिक अन्तर दिखा कि रीता अपनी सारी खीझ मुझ पर निकाल दिया करती. उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.
आज इसे देखता हूँ तो लगता है कितना शांत स्वभाव है. कैसे इतनी परेशानी के बावजूद भी आँखे मूँदें समय काट रही है. मैं एकटक उसे निहारता हूँ. न जाने किन विचारों में खोई वो एकाएक मुस्कराने लगी. उसके करीने से लिपिस्टिक लगे होंठ. मुस्कराते ही ऐसा लगा कि जैसे कोई फूल खिल उठा हो-गुलाब का ताजा खिला फूल.
मुझे खिले गुलाब बहुत पसंद हैं.
न जाने कब खिसकते खिसकते हम जमुना पार उस मुहाने पर आ गये, जहाँ से दिल्ली और ग्रेटर नोयडा का मार्ग अलग हो जाता है. गाड़ी हवा से बात करने लगी. मैं आँखें बंद किये खिले गुलाब के फूल को सोचता रहा. शायद उसकी गाड़ी दिल्ली की तरफ निकल गई थी. न जाने कौन थी, कहाँ से आ रही थी मगर रीता की याद बरबस ही दिला गई. क्या यही पतनशीलता है??
फिर कल टीवी पर एक फैशन शो देख रहा था. रैम्प पर चलती सुन्दरियाँ. लगातार एक के बाद एक. सारे दर्शक टकटकी लगाये देख रहे थे. न जाने किस बात पर बीच बीच में ताली बजाते थे.
सभी मॉडल न जाने किस डिजाईनर के कपडे पहने थीं. कम से कम उन सबके टॉप्स तो मुझे सरकारी नजर आये. अपने कर्तव्यों से बिल्कुल विमुख. ऐसा लगा जैसे जिस डेस्क पर उसे होना चाहिये उससे कहीं दूर कैन्टीन में चाय के साथ ठहाका लगाते. अन्तर मात्र इतना ही कि सरकारी कर्मचारी का इस तरह से अपने कर्तव्यों से विमुख होना जनता से गाली खिलवाता है और यहाँ इनके टॉप्स का अपने कर्तव्यों से विमुख होना ताली बजवा रहा था. कहते हैं यह प्रगति की निशानी है-एडवान्समेन्ट. मैं नहीं समझ पाया, पतनशील जो ठहरा. पुरानी यादों से घिरा रहने वाला.
खैर, मैं गर्त में जाऊँ या पहाड़ पर-क्या फर्क पड़ता है. मगर यदि दिल्ली के यातायात फस्सूवल (ट्रेफिक जाम) की हालत न सुधारी गई तो देश का विकास जरुर प्रभावित हो जायेगा. कुछ करो भाई-और फ्लाई ओवरर्स बना लो फटाफट.
क्या फर्क है?? एक ही बात!!
ऐसा नहीं कि मैं अकेला ही खीझ रहा हूँ या परेशान हो रहा हूँ. मैने उसके चेहरे पर भी परेशानी के भाव देखे. गुलाबी टॉप्स, सर पर चढ़कर आराम करता धूप का चश्मा, शायद काफी देर लगाये लगाये थक गई होगी. खीझ और परेशानी का मिलाजुला असर यह रहा कि थकान ने उसे आ घेरा और उसने सीट पर सर टिका कर आँखें बन्द कर लीं. एकदम चुप, न कुछ बोलना और न कुछ सुनना, खूबसूरत लग रही थी.
आज एक अरसे बाद उसने रीता की याद दिला दी. खूबसूरत तो वो भी थी, इस तरह के माहौल में वो भी परेशान हो उठती और खीझ जाती मगर उसके और इसके स्वभाव में एक बहुत बड़ा व्यवहारिक अन्तर दिखा कि रीता अपनी सारी खीझ मुझ पर निकाल दिया करती. उसे हमेशा अपने बाजू वाली लेन ज्यादा तेजी से क्लियर होती नजर आती. वो मुझ पर नाराज होती, चिल्लाने लगती. मैं उसे समझाता कि न तो बाजू की लेन तेज है और न ही लेन बदलने से कोई फायदा होगा, मगर वो सुने तब न!! ऐसी ही कितनी आदतों के चलते हमारे रास्ते कब अलग हो गये, पता ही नहीं चला. शायद वो वाकई बाजू वाली लेन से बहुत तेजी से आगे निकल गई. खैर!! न जाने कहाँ होगी अब.
आज इसे देखता हूँ तो लगता है कितना शांत स्वभाव है. कैसे इतनी परेशानी के बावजूद भी आँखे मूँदें समय काट रही है. मैं एकटक उसे निहारता हूँ. न जाने किन विचारों में खोई वो एकाएक मुस्कराने लगी. उसके करीने से लिपिस्टिक लगे होंठ. मुस्कराते ही ऐसा लगा कि जैसे कोई फूल खिल उठा हो-गुलाब का ताजा खिला फूल.
मुझे खिले गुलाब बहुत पसंद हैं.
न जाने कब खिसकते खिसकते हम जमुना पार उस मुहाने पर आ गये, जहाँ से दिल्ली और ग्रेटर नोयडा का मार्ग अलग हो जाता है. गाड़ी हवा से बात करने लगी. मैं आँखें बंद किये खिले गुलाब के फूल को सोचता रहा. शायद उसकी गाड़ी दिल्ली की तरफ निकल गई थी. न जाने कौन थी, कहाँ से आ रही थी मगर रीता की याद बरबस ही दिला गई. क्या यही पतनशीलता है??
फिर कल टीवी पर एक फैशन शो देख रहा था. रैम्प पर चलती सुन्दरियाँ. लगातार एक के बाद एक. सारे दर्शक टकटकी लगाये देख रहे थे. न जाने किस बात पर बीच बीच में ताली बजाते थे.
सभी मॉडल न जाने किस डिजाईनर के कपडे पहने थीं. कम से कम उन सबके टॉप्स तो मुझे सरकारी नजर आये. अपने कर्तव्यों से बिल्कुल विमुख. ऐसा लगा जैसे जिस डेस्क पर उसे होना चाहिये उससे कहीं दूर कैन्टीन में चाय के साथ ठहाका लगाते. अन्तर मात्र इतना ही कि सरकारी कर्मचारी का इस तरह से अपने कर्तव्यों से विमुख होना जनता से गाली खिलवाता है और यहाँ इनके टॉप्स का अपने कर्तव्यों से विमुख होना ताली बजवा रहा था. कहते हैं यह प्रगति की निशानी है-एडवान्समेन्ट. मैं नहीं समझ पाया, पतनशील जो ठहरा. पुरानी यादों से घिरा रहने वाला.
खैर, मैं गर्त में जाऊँ या पहाड़ पर-क्या फर्क पड़ता है. मगर यदि दिल्ली के यातायात फस्सूवल (ट्रेफिक जाम) की हालत न सुधारी गई तो देश का विकास जरुर प्रभावित हो जायेगा. कुछ करो भाई-और फ्लाई ओवरर्स बना लो फटाफट.