बुधवार, फ़रवरी 27, 2008

अफसोस कि दिल्ली नहीं गये

अफसोस कि दिल्ली नहीं गये. दिल्ली जाने के बाद भी दिल्ली नहीं गये. बस, फरीदाबाद गये. खुशी इस बात की कि पंगेबाज भाई अरुण अरोरा मिल गये. खाना उन्हीं के घर दबा कर खाया. भाभी जी एक उम्दा और बेहतरीन व्यक्तित्व की धनी हैं. इतना लज़ीज खाना खिलाया कि लंच के बाद के सारे काम टल गये. अगले हफ्ते फिर जाना पड़ेगा काम निपटाने. काम एक हफ्ते टल जाने का सारा दोष लज़ीज खाने पर डाला जा रहा है. मगर अगले हफ्ते की ट्रिप में दिल्ली जरुर जायेंगे और मित्रों से मिलेंगे, यह अभी से प्लान में है.
arunsameer
लौटते वक्त अपने गुरु राधा स्वामी श्री श्री अनुकुल जी महाराज के आश्रम देवघर, झारखण्ड गये. सारा दिन वहीं बिताया और बैजनाथ धाम के दर्शन का सौभाग्य भी प्राप्त किया. दर्शन करने टांगे से गये. घोडे पर क्या बीती, पता नहीं मगर मुझे मजा आया. बचपन की ढ़ेरों यादें घिर आई इस टांगा यात्रा के साथ. यादों ने साथ छोड़ा, पंडों को स्पेस मिली, उन्होंने घेरा. किसी तरह उन्हें ढ़केला तो समय खत्म हुआ और हम निकल पड़े जबलपुर की ओर. रास्ते में इलाहाबाद पड़ना था. ज्ञानदत्त जी से मुलाकात हुई. जैसा सोचा था उससे कहीं ज्यादा विनम्र और व्यवहारकुशल. अफसोस हुआ कि मुझे कम से कम से एक दिन इलाहाबाद के लिये रखना चाहिये था. हमने तो अपनी खुशी के लिये घोड़े की चिन्ता नहीं की तो ज्ञानजी के लिये क्या सोचें कि क्या वो भी चाहते थे कि हम एक दिन रुकें.

ज्ञानजी आये. पूरे ट्रेन में हमारी पूछ हो ली. सबने समझा कि या तो हम कोई मंत्री हैं या रेल्वे बोर्ड के मेंम्बर. हमारा मौन और मुस्कराह्ट सह यात्रियों से लेकर रेल्वे स्टाफ की अटकलों पर अपनी मोहर लगाता रहा और हम मुस्कराते रहे और बकायदा सम्मान पाते जबलपुर तक चले आये.
gyanjisameer
महाशक्ती परमेन्द्र प्रताप का भी इलाहबाद में मिलने का वादा था. फिर बाद में पता चला कि ट्रेन छूटने के बाद, गलत जानकारी की वजह से, वो हाँफते हुए पहुँचे भी और मुलाकात न हो पाई. खैर आगे कभी सही, फिर मुलाकात हो लेगी. वो अमरुद अपने बगीचे से लेकर आये थे. मैं नहीं खा पाया, हमेशा इस बात का रंज रहेगा जब तक की खा न लूँ.

न तो अरुण भाई से और न ही ज्ञानजी से, मिलन की उत्सुक्ता में ,कोई विशेष प्रयोजन पर बात हो पाई. बस, एक बिखरी सी बात ब्लॉगिंग, ब्लॉगिंग का भविष्य, आगे के प्लान आदि पर हल्की फुल्की चर्चा हुई.

दोनों ही जगह, गौरतलब, इस विषय पर अवश्य नजर डाली गई कि आखिर क्या वजह है कि एकाएक नव आगंतुकों की संख्या में कमी आई है. क्या कहीं प्रोत्साहन की कमी है या विस्तार को लेकर विशेष कार्य नहीं किया जा रहा है. है तो चिन्ता का विषय मगर मेरा मानना है कि इससे उबरा जा सकता है और हम सब को इस ओर प्रयासरत होना होगा. हर ब्लॉगर अगर माह में मात्र दो से तीन लोगों को नया ब्लॉग बनाने को प्रेरित करे तो चेन एफेक्ट में हिन्दी के विस्तार को एक नया आयाम मिल सकता है. बस, एक सजग प्रयास की आवश्यक्ता है.

बाकी का कल....

शनिवार, फ़रवरी 23, 2008

सावधान!! मेरी ब्लॉग आई डी चोरी...

मित्रों,

आज कम से कम ७ मित्रों का फोन या ई मेल आया कि मैने उनके ब्लॉग पर कुछ असंयत भाषा का प्रयोग करते हुए टिप्पणियाँ की हैं और बाद में मिटा भी दी.

इसे हादसा ही कहना चाहूँगा क्यूँकि न तो यह सब मेरी जानकारी में है और न ही मैं इस तरह के क्रियाकलापों का समर्थक हूँ.

खुशी इस बात की है कि मित्रों को यह विश्वास रहा कि यह कार्य मेरा नहीं है और उन्होंने मुझे इस तरह की वारदात की सूचना दी.

हालांकि यह कार्य जिसने भी किया हो और जिस भी उद्देश्य से किया हो, उस मित्र से भी मुझे कोई शिकायत नहीं. शायद कोई मजबूरी रही होगी किन्तु फिर भी उससे अनजान मित्र से निवेदन है कि बिना असंयत भाषा का उपयोग करते हुए भी वह अपनी बात अपने आई डी से कह सकता था. अगर उसे यह विश्वास था कि मेरे कहने का असर ज्यादा होगा तो मुझे सूचित करता. मैं निश्चित ही अपने तरीके से उसकी बात रखने की कोशिश करता.

आशा है भविष्य में यह अनजान मित्र इस बात का ख्याल रखेंगे.

अभी के लिये सभी को हुई असुविधाओं और उनके दिल को लगी ठेस के लिये क्षमापार्थी.

सादर

समीर लाल

गुरुवार, फ़रवरी 21, 2008

द चोकिंग गेम-चिट्ठाजगत में...

कभी घुटन सी महसूस होने लगती है. सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि ये कहाँ आ गये हम. क्या हासिल है? महज एक घुटन का अहसास. एक अंधेरापन. एक दूसरे पर कीचड़ उछालना. एक विवाद समाप्त नहीं होता, दूसरा शुरु, बेवजह. नाम दिया जाता है कि एक स्वस्थ बहस चल रही है.

मुझे तो लगने लगा है कि कुछ ऐसे लोग हैं जो बिना बहस जिन्दा रहना ही नहीं जानते, चार दिन शांति छाई रहे तो खाना हजम होना बन्द हो जाता है. किसी को पुरुस्कार मिले तो विवाद, किसी ने कुछ कहा तो विवाद और तो और कोई चुप रहा तो विवाद.

बात शुरु होती है कहाँ से और चल पड़ती है किस ओर. बहुत कोशिश करनी पड़ती है इससे बच कर निकलने के लिये. इससे किनारा बनाये रखने के लिये.
choking
मगर जब उसी गली के निवासी हैं तो कब तक बचते रहेंगे. माना कि हम नहीं भी खेलें कीचड़-कीचड़ तब भी कुछ छीटें तो आयेंगे ही. न भी आये तो दुर्गंध को कौन रोक पाया है आजतक. कहीं यही दुर्गंध नये आते लोगों का मन ही न बदल दे. फिर तो रह जायेंगे जो रह रहे हैं और छोड़ कर न जा पाना मजबूरी हो गया है या फिर वो, जिन्हें यह खेल पसंद है और इस खेल में मजा आता है. आबादी में विस्तार के मार्ग स्वतः ही अवरुद्ध हो जायेंगे.

अजीब लगता है मगर ये उन लोगों में से है जो खुद का गला घोंटकर उस पार की दुनिया का क्षणिक आभास और आनन्द लेने में अपने आप को एडवन्चर्स का दर्जा देते हैं. क्या ये बीमार नहीं? क्या इन्हें इलाज की जरुरत है?

आज ही ’द चोकिंग गेम’ के बारे में एक खबर पढ़ता था जिसने मुझे यह सोचने को मजबूर किया.

शायद यह उसी प्रजाती के हैं जिन बच्चों को लेकर आज अमरीका/कनाडा चिन्तित हैं. यह बच्चे इसी तरह के चोकिंग गेम में आनन्द का अनुभव करते हैं. ये बच्चे या तो अपने दोस्त के माध्यम से या कम्प्यूटर के तार या टेलिफोन के केबल से खुद ही अपना गला उस स्तर तक घोंटते हैं जब तक की लगभग होश न रह जाये. इन्हें इसमें मजा आता है. यह कहते हैं इन्होंने ब्लैक टनल देख ली जिससे होकर व्यक्ति मौत के बाद गुजरता है. यह मौत के साथ अपने साक्षात्कार का अनुभव करना चाहते है. क्यूँ? कोई नहीं जानता. ये बच्चे खुद नहीं जानते. बस, महज एक मानसिक विक्षप्तता- जिसका कोई जबाब नहीं. जिसे यह बच्चे एडवेन्चर कहते हैं.

तकलीफ तब हो जाती है, जब आसपास कोई नहीं होता या तुरन्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं हो पाती और यह बच्चे अपनी नादानी से जान गँवा बैठते हैं.

खुद तो चले जाते हैं मगर पीछे छोड़ जाते हैं एक बिलखता बिखरा परिवार और दे जाते हैं अपनी तरह के अन्य नादानों को इसे अजमाने का उकसाहट-चलो देखें तो उसने कैसा अनुभव किया होगा?

इन बच्चों को रोकने के लिये कनाडा में एक वेब साईट शुरु की गई है और न जाने कितने फोरम इस दिशा में कार्यरत हैं.

बस, साथियों से यही कहना चाहूँगा कि इस खेल का अन्त अच्छा नहीं है. कहीं चिट्ठाजगत के लिये भी ऐसी ही वेबसाईट न शुरु करना पड़े. खुद ही समझ जाओ न!!

नोट: १.मूलतः इस पोस्ट की वजह ’द चोकिंग गेम’ की जानकारी देना था बाकि तो साथ में बह निकला. :)

२. आज से ४ दिन के लिये बाहर जा रहा हूँ. यह पोस्ट स्केड्यूल की है कल सुबह के लिये, जब मैं कहीं और से अपना ब्लॉग चेक करने वाला हूँ.

रविवार, फ़रवरी 17, 2008

आओ कि खुशी मनायें

यह मेरी २०० वीं पोस्ट है और मैं आप सबका बहुत आभारी हूँ जो आप सबने मेरा इतना उत्साह लगातार बढ़ाया. आगे भी इसी तरह के उत्साहवर्धन का आकांक्षी हूँ. बहुत आभार.
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इस मौके पर एक संदेश:


मौका है खुशी का
चलिये न!! कुछ जश्न मनाईये
एक जाम मेरे पास है
एक आप भी उठाईये.

झूमिये, नाचिये और गाईये
जरा मूड में ठूमका लगाईये
जमाना क्या क्या बोलेगा
न इस बात से शरमाईये

अब तक हमने टिपियाया है
आज आप भी टिपियाईये
न सिर्फ मेरा वरन औरों का भी
थोड़ा तो हौसला बढ़ाईये
एक जाम मेरे पास है
एक आप भी उठाईये.

दो सौ पोस्ट यूँ तो
कम नहीं होती
मगर जो मैं लिखता हूँ उसमे
कोई दम नहीं होती

अगर आप भी चाहें
तो रोज एक ऐसी पोस्ट ले आईये
कुछ हो न हो, कम से कम नेट पर
हिन्दी को फैलाईये
एक जाम मेरे पास है
एक आप भी उठाईये.

बीते हैं अभी बस
देखिये न सिर्फ दो बरस
नशा ब्लॉगिंग का ऐसा है
भूल जाओगे तुम चरस

एक बार बस एक बार
मेरा कहा मान जाईये
बिन शरमाये बिन सकुचाये
अपना ब्लॉग बनाईये
एक जाम मेरे पास है
एक आप भी उठाईये.

नोट: अपना स्वयं का हिन्दी ब्लॉग बनाने में सहायता के लिये लिखें: sameer.lal@gmail.com

गुरुवार, फ़रवरी 14, 2008

बीबी तो इन्तजार करेगी ही..

चार दिन बाद गोरखपुर, उत्तर प्रदेश से लौटा. बचपन में भी हर साल ही गोरखपुर जाना होता था. ननिहाल और ददिहाल दोनों ही वहाँ हैं. तब तीन दिन की रेल यात्रा करते हुए राजस्थान से थर्ड क्लास में जाया करते थे. कोयले वाले इंजन की रेल. साथ होते लोहे के बक्से, होल्डाल, पूरी, आलू और करेले की तरकारी. सुराही में एकदम ठंडा पानी. रास्ते में मूंगफली, चने, कुल्हड़ में चाय. फट्टी बजाकर गाना गा गा कर पैसा मांगते बच्चे.राजनित और न जाने किन किन समस्याओं पर बहस करते वो अनजान सहयात्री जिनके रहते इतने लम्बे सफर का पता ही नहीं चलता था.तीन दिन बाद जब घर पहुँचते तो कुछ तो ईश्वरीय देन( खुद का रंग) और कुछ रेल की मेहरबानी, लगता कि जैसे कोयले में नहाये हुए हैं. इक्के या टांगे में लद कर नानी/दादी के घर पहुँचते थे. फिर पतंग उड़ाना, मिट्टी के खिलोने-शेरे, भालू.हर यात्रा याददाश्त बन जाती. जैसे ही वापस लौटते, अगले बरस फिर से जाने का इन्तजार लग जाता.घर लौट कर फट्टी वालों की नकल करते, उनके जैसे ही गाने की कोशिश,
Steam_eng
इस बार जब गोरखपुर से चला तो वही पुराने दिनों की याद ने घेर लिया. मगर एसी डिब्बे में वो आनन्द कहाँ? और यात्रा भी मात्र १६ घंटे की. यही सोच कर एसी अटेंडेन्ट को सामान का तकादा कर कुछ स्टेशनों के लिए जनरल डिब्बे में आकर बैठ गया. कितना बदल गया है सब कुछ. काफी साफ सुथरा माहौल. न तो कोई बीड़ी पी रहा था. न बाथरुम से उठती गंध, न मूंगफली वाले, न कुल्हड़ वाली चाय. जगह जगह ताजे फलों की फेरी लगाते फेरीवाले, प्लास्टिक के कप में बेस्वादु चाय, कुरकुरे और अंकल चिप्स बेचते नमकीन वाले. बस्स!! लोहे की संदुक की जगह वीआईपी और सफारी के लगेज जिनके पहियों ने न जाने कितने कुलियों की आजिविका को रौंद दिया, वाटर बाटल में पानी. आपसी बातचीत का प्रचलन भी समाप्त सा लगा, अपने सेलफोन से गाने बजाते मगन लोगों की भीड़ में न जाने कहाँ खो गये वो हृदय की गहराई से गाते फट्टी वाले बच्चे और राजनित पर बात करते सहयात्री.

कहते है सब विकास की राह पर है. वाकई, बहुत विकास हो रहा है. आम शहरों में न बिजली, न पानी, न ठीकठाक सड़कें..बस विकास हो रहा है. बच्चे बच्चे के हाथ में सेल फोन, तरह तरह की गाड़ी, सीमित जमीनों के बढ़ते दाम, लोगों के सर पर ऋणों का पहाड़, हर गांव-शहर से महानगरों को रोजगारोन्मुख पलायन करते युवक, युवतियाँ. भारत शाईनिंग-मगर मुझे पुकारता मेरे बचपन का भारत-जिसे ढ़ूंढ़ने मैं आया था, न जाने कहाँ खो गया है और अखबार की खबरें कहती है कि इसी के साथ ही खो गई है वो सहिष्णुता, सहनशीलता, आपसी सदभाव और सर्वधर्म भाईचारा. सब अपने आप में मगन हैं.

मुझे बोरियत होने लगती है. मैं उठकर अपने एसी डिब्बे में वापस आ जाता हूँ और खो जाता हूँ शिवानी की किताब ’अतिथी’ में. सामने की बर्थ पर बैठी महिला कोई मोटा अंग्रेजी उपन्यास पढ़ रही है और उसके ipod के ईयर फोन से बाहर तक सुनाई देती अंग्रेजी गाने की घुन माहौल को संगीतमय बना रही है.

उसी महिला को देखकर न जाने क्यूँ अनायास ही याद आ गया-ओह!! आज तो वेलेन्टाईन डे है. :)

सोचता हूँ घर जाते समय एक गुलाब खरीद लूँगा-बीबी इन्तजार कर रही होगी. अब मैं इस त्यौहार को मानूँ न मानूँ-क्या फरक पड़ता है. बीबी तो गुलाब का इन्तजार करेगी ही-यही आज के जमाने का चलन है. साथ तो चलना होगा.

पुन्श्चः मैं किसी विकास के विरोध में बात नहीं कर रहा. बस, आज कल याददाश्त के साथ कुछ पंगा हो रहा है, तभी तो उस मोहतरमा को देखकर वेलेन्टाईन डे याद आया वरना तो भूल ही गये थे.इसीलिये मेरी याद के पुराने भारत के लापता हो जाने पर उसका हुलिया लिपिबद्ध कर रहा हूँ ताकि दर्ज रहे और याददाश्त बनी रहे.

रविवार, फ़रवरी 03, 2008

लोटा गायब

लगभग ३ माह गुजर गये चिट्ठाकारी किये और पता ही नहीं चला. शायद वजह अपनों का सानिध्य और लगातार चिट्ठाकारों से संपर्क एवं मिलन रही हो.

इस बीच भारत के विभिन्न शहरों में घूमा और अनेकों लोगों से मिला. बहुत स्नेह रहा सभी का. आज सभी यात्राओं एवं मधुर मिलनों का लेखा जोखा नहीं, वह धीरे धीरे एक एक करके समय समय पर सुनाऊँगा. आज तो मात्र एक उद्देश्य था कि पुनः वापसी की जाये और कुछ निरंतर लिखा जाये.

ऐसा भी नही रहा कि चिट्ठों से बिल्कुल आँख फेर ली हो इस अवधि में. एक निरन्तर अंतराल पर एग्रीगेटर्स के माध्यम से सभी गतिविधियाँ देखता रहा, सुनता रहा, मुस्कराता रहा तो कभी कुढता रहा. कभी हँसी आई तो कभी किन्हीं पोस्टों पर आँखें नम हो आई. कभी चिट्ठाकार होने का गर्व महसूस किया तो कभी लगा कि यह कैसा दलदल है?

लोगों ने पुरुस्कार जीते. अच्छा लगा देखकर. फोन पर ही बधाईयों का प्रेषण कर दिया, क्योंकि सोचा यह कि यदि एक टिप्पणी की तो फिर उड़न तश्तरी शायद रुक न पाये और छुट्टियों के माध्यम से आवंटित पारिवारिक समय के साथ अन्याय न हो जाये.

दिन मस्ती में गुजर रहे हैं. भारत में रहने का भरपूर आनन्द उठाया जा रहा है. आदतें खराब हो रही हैं. नौकर से मांग का पानी पीना और चाय बनवाना- मैं ही जानता हूँ कितना भारी पड़ेगा लौट कर.

बहुत सी बातें हैं करने को-मगर आज तो बस एक प्रसंग पर ....

इस भारत यात्रा के दौरान जबकि सोच हर तरफ प्रगति खोज और देख रही थी. सोचा था सभी बदलाव जो देखूँगा उन्हें कलमबद्ध करुँगा. एक नज़ारा तो प्रगतिशीलता का खुले आम देखा और वह यह कि हमारे युग का गाँव गाँव और शहर की रेल पटरियों के किनारे हर वक्त दर्शन देता लोटा चलन के बाहर हो गया और उसकी जगह ले ली बिसलरी की बोतलों नें.

जब भी सुबह सुबह ट्रेन द्वारा किसी शहर से प्रवेश किया या प्रस्थान किया. पटरियों के किनारे लोग बिसलरी की बोतलें लिये विराजमान नजर आये. जाने लोटे को किसकी नजर लग गई-बेचारा. न जाने कहाँ किस हालात में होगा?

जब व्यक्ति लोटा लेकर निकला करता था, यह जग जाहिर रहता था कि मैदान ही जा रहा है और आज बोतल लिये तो पता ही नहीं चलता कि मैदान जा रहा या दफ्तर या कि खेलने या स्कूल या यूँ ही तफरीह को. ये मुई बोतन न सिर्फ कन्फ्यूजन फैला रही है बल्कि प्रदूषण भी, उसके बाद भी पश्चिमी होने का फायदा ये कि पापुलर होती जा रही है.
lota
अब तो बस लोटा देखने की चाह लिये भटक रहा हूँ-हे लोटा महाराज, तुम कहाँ हो??

ऐसे ही अनेकों बदलाव दिख रहे हैं. सब पर बात करेंगे.